रविवार, 29 दिसंबर 2024

भारत को जाने-1 , भारत का विज्ञान प्राचीन काल से अच्छा रहा है


भारत को जाने  

आपको यह तो पता होगा की भारत 100 मिलियन वर्षो पहले एक द्वीप हुआ करता था? 

तक़रीबन 50-60 मिलियन साल पहले, भारत का एशियाई महाद्वीप से टकराव हुवा और इस तरह दुनिया की छत यानि हिमालय का जन्म हुआ। गज़ब तथ्य, है ना? भारत अपनी समृद्ध विरासत और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। भारत की प्रतिभा यहाँ नहीं रुकती है। वास्तव में, भारत की समृद्धि इसके इतिहास, कला, प्राचीन तकनीकों, विज्ञान और बहुत कुछ के संदर्भ में अथाह है। भारत अनगिनत चीजों का आविष्कारक रहा है। आज हम आपको ऐसे ही 30 रोचक तथ्य बताएँगे भारत के विषय में।

1. दिमाग का खेल शतरंज भारत ने दुनिया को एक उपहार के रूप में दिया है। गुप्त साम्राज्य के दौरान लगभग 1500 साल पहले इसका आविष्कार किया गया था। इसे प्राम्भ में चतुरंग के नाम से जाना जाता है।

2. पुरे विश्व को स्वस्थ और तंदुरुस्त बनाने वाले योग का जन्म ईसा पूर्व 5 वीं शताब्दी के लगभग प्राचीन भारत में हुवा था। आज समस्त संसार के लोग योग के द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ बना रहे है, क्यों है ना Interesting Facts About India .

3. समस्त विश्व में सबसे ज्यादा वर्षा वाली जगह भारत के मेघालय में स्थित “मॉनसिनराम” नामक गांव है। यह स्थान चेरापूंजी से 15 कि.मी. दूर है, इस गांव में हर साल औसतन 11,872 mm बारिश होती है, जिसकी वजह से यह धरती का सबसे नम स्थान भी है।

4. भारत एक विशाल राष्ट्र है, यहाँ सैकड़ो भाषाएं और बोलियाँ बोली जाती है, भारत में सबसे ज्यादा हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाता है, किन्तु हिंदी के बाद सबसे ज्यादा अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता है। भारत विश्व का 24वां देश हैं जहां सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोली जाती है।

5. दुनिया के प्राचीन शहरों में से एक ‘काशी’ पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित है, बनारस या वाराणसी का पवित्र शहर सनातन काल से ही बसा हुवा है, इतिहासकारों की माने तो तक़रीबन 3-4 हजार वर्ष पहले यह शहर बसा था। किन्तु हिंदू पौराणिक कथाओं और ग्रंथो के अनुसार यह प्राचीन शहर भगवान शिव ने लगभग 5000 वर्ष पहले इस पवित्र शहर की नींव रखी थी।

6. सर्वधर्म एकता और मानवता का सन्देश देते हुवे भारत में स्वर्ण मंदिर में नस्ल, धर्म और वर्ग को किनारे करके प्रतिदिन 50 हजार से ज्यादा आगंतुकों को शाकाहारी भोजन कराता है। क्यों है ना गर्व करने वाली बात।

7. भारत में प्राचीन काल से ही में जल संचयन को महत्व दिया जाता था, और यहाँ जल संचयन की एक विकसित प्रणाली थी । इसके उदाहरण के रूप में आपको ‘कल्लनई बांध’ मिलता है, यह बांध दुनिया में चौथा सबसे पुराना बांध है। जो अभी भी सुचारु रूप से सही सलामत और कार्य कर रहा है। मौर्य सम्राटों के द्वारा 320 ई.पू. ‘सुदर्शन’ नामक एक कृत्रिम झील का निर्माण भी करवाया गया था। “चित्तौगढ़ किले” में करीब 50 हजार लोगो के लिए एक वर्ष तक पानी उपलब्ध रहे इतने तालाब और बावड़ियाँ बनी है।

8. प्राचीन खगोलशास्त्री और गणितज्ञ आर्यभट्ट ने सौर मंडल एवं चन्द्रमा की गणना को 499 ई में ही समझा दिया था । उनकी पुस्तक आर्यभटीय में विस्तार से सभी का उल्लेख है, और अन्य खगोलीय पिंडों की गति को दर्शाया गया है, जिनको आज हम पढ़ते है।

9. वर्तमान में तो शिक्षा के कई जरिये और संस्थाए बन गई है, लेकिन भारत में करीब 700 ईसा पूर्व ही विश्व का पहला विश्वविद्यालय ‘तक्षिला‘ बन गया था, जहाँ पढ़ने के लिए हजारों छात्रों विश्व भर से आते थे, और भारतीय संस्कृति की शिक्षा प्राप्त कर विश्व के कोने-कोने में फैलाते थे।

10. विश्व में सबसे बड़ा धार्मिक मेला “कुम्भ” भी भारत में ही भरता है, वर्ष 2011 में कुंभ मैले में 75 मिलियन से ज्यादा तीर्थयात्रियों जमा हुवे थे । कहते है की यह संख्या इतनी अधिक थी की अंतरिक्ष से भी कुम्भ की भीड़ दिखाई दे रही थी।

11. भारत दुनिया का पहला देश है, जिसके ‘चीनी’ उत्पादन और उसके शुद्विकरण की तकनीक का विकास किया था। बाद में हमसे विश्व के कई दूसरे देशों ने यहाँ आकर इस तकनीक को सीखा है।

12. “Magnetic Hill’ लद्दाक की एक पहाड़ी है, जहाँ पर गुरुत्वाकर्षण के विपरीत चीजें होती है। इस जगह पर आप सड़क पर अपनी गाड़ी रोकिये और उसको न्यूट्रल कर दे, आप देखंगे की आपकी गाड़ी ऊंचाई की तरफ जाने लगेगी सिवाय ढलान में जाने के, क्यों है ना आश्चर्य Facts About India .

13. विश्व का सबसे ऊँचा पूल ‘बेलीपुल’ भारत के हिमाचल पर्वत में द्रास और सुरु नदियों के बीच लद्दाख घाटी में बना हुवा है। इसका निर्माण अगस्‍त 1982 में भारतीय सेना द्वारा किया गया था।

14. विशाल देश भारत में डाकघरों का बहुत बड़ा जाल मौजूद है, भारत में करीब 1,55,015 डाकघर बने हुवे है। इनमे सबसे अलग डाकघर श्रीनगर की डल झील में बना डाकखाना है। यह एक बड़ी नाव में तैरता हुवा डाकखाना है इसकी शुरुआत साल 2011 में की गई थी, क्यों है ना आश्चर्जनक facts about india .

15. प्राचीनकाल से ही भारत में महिला सशक्तिकरण को विशेष महत्त्व दिया जाता था, यहाँ महिलाएं खुलकर उन सभी मुद्दों पर बात कर सकती थी, जिन्हे आज हम सार्वजानिक रूप में बात करने से कतराते है। भारत में महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने “स्वयंवर” का अधिकार प्राप्त था।

16. भारत के आश्चर्यो में देखें तो यहाँ साप-सीढ़ी का खेल, सतरंज यानि चतुरंग, बटन का अविष्कार, शैंपू की खोज,संख्या पाई की गणना, हीरा उत्पादन, शून्य की खोज, बीजगणित की गणना, त्रिकोणमिति के साथ-साथ चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी को दर्शाना। क्यों आपको गर्व नहीं है की आप भारतीय हो।

17. प्राचीन भारत की सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की तीन सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक थी, यह सभ्यता 1300 ई.सा पूर्व तक अस्तित्व में थी। यहाँ के लोगों का बौद्धिक विकास बहुत अधिक था। इस सभ्यता के लोगों का जीवन स्तर उच्य कोटि का था। उन्होंने कपास से रुई निकाली, जस्ता खनिज निकाला, स्टेपवेल (बावडिया) का निर्माण किया, सीवरेज और ड्रेनेज सिस्टम का उच्य स्तर पर निर्माण करवाना क्यों है न गज़ब।

18. आज क्रिकेट का दीवाना कौन नहीं है, हिमाचल प्रदेश की एक जगह “चायल” यह ऐसा स्थान है, यहाँ पर 2,444 मीटर के ऐल्टिट्यूड पर यह पूरी दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट ग्राउंड बना है। जहां एक मिलिट्री स्कूल भी है। इसे साल 1893 में बनाया गया था

19. आज हम जगह-जगह मार्बल और ग्रेनाइट के महल देखते है, बड़े-बड़े किलों में इनकी कारीगरी देखते है, जो देखने में अतिसुन्दर प्रतीत होते है, लेकिन विश्व में पहला ग्रेनाइट का मंदिर ब्रिहदेश्वरा मंदिर तमिल नाडू में 11वी शताब्दी में बना था। इसके निर्माण में 5 वर्ष लगे थे। 

20. वर्तमान में डाक्टरों ने चिकित्सा पद्दति में बहुत महारथ प्राप्त कर ली है, किन्तु भारत मे 2600 वर्ष ई. पू. ही शल्य चिकित्सा का अविष्कार हो चूका था, इसका प्रमाण प्राचीन ग्रंथो में मिलता है, की हमारे चिकित्सक मोतियाबिंद, हड्डी जोड़ने और पथरी निकलने जैसी जटिल शल्य चिकित्सा करते थे, क्यों है ना गजब।

21. देशभक्ति और देश सेवा की भावना हर भारतीय के मन में कूट-कूट कर भरी है, लेकिन उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले में एक छोटा सा गाँव है माधोपट्टी उस गाँव के लोगों ने इस भावना को अपना सबकुछ माना है, क्योंकि यकीन मानिये इस छोटे से गाँव में 50 से अधिक IAS-IPS और अन्य सिविल सेवा में अधिकारी है, क्यों है ना गजब तथ्य। 

22. वर्तमान में हर कोई पैसो के पीछे दीवाना है, लेकिन क्या आपको है की जब भारत आजाद हुवा और हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्रप्रसाद की नियुक्ति हुई थीं, तब उन्होंने अपनी तनख्वाह का आधा भाग ही लिया था, उन्होंने कहाँ की उनको इतने ही पैसो की आवश्यकता है। उनके 12 वर्ष के लम्बे कार्यकाल के अंत में उन्होंने अपनी आय का केवल 25% लिया था। उस समय राष्ट्रपति का वेतन 10,000 रूपए होता था।

23. आज हम बड़े-बड़े जहाज देखते है, इनका आकार इतना बड़ा भी होता है की पूरा एक गाँव समा जाये, किन्तु विश्व में पहली बार नौकायन की कला का अविष्कार भारत में लगभग 6000 हजार वर्ष पूर्व महान सिंधु घाटी सभ्यता में हुवा था, क्यों है ना गजब।

24. भारत सनातन काल से ही समृद्ध देश रहा है, पूरी दुनिया के कुल सोने का 11 प्रतिशत सोना तो भारत की महिलाओं के पास ही है, और 1986 तक आधिकारिक तौर पर केवल भारत में ही हीरा निकलता था।

25. आज हम चन्द्रमा और मंगल गृह तक की यात्रा कर चुके है, लेकिन भारत की इसरो ने अपना पहला रॉकेट 1963 में त्रिवेंद्रम की एक जगह थुम्बा में एक चर्च से अपना पहला रॉकेट लाँच किया है, रॉकेट को साईकिल पर इस लांचिग पेड पर लाया गया था। आज हम इस को विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के नाम से जानते है, क्यों है ना गजब।

26. इंटरनेट की इस दुनिया में कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर का बोलबाला है, इसी प्रतिस्पर्धा में आज भारत भी किसी अन्य देश से पीछे नहीं है, आज भारत करीब 90 से अधिक देशों में अपने यहाँ बने सॉफ्टवेयर निर्यात करता है।

27. भारत हमेशा से ही कृषि प्रधान और पशु-पालन में अग्रणी देश रहा है, पुरे विश्व में सबसे अधिक दुग्ध उत्पादन भारत में ही होता है, यहाँ करीब 150 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन होता है, जो की एक विश्व रिकार्ड है, जो 2015 में बना था।

28. राजस्थान के बीकानेर जिले में एक स्थान है देशनोक यहाँ ही स्थित “श्री करणी माता” के मंदिर में आपको सैकड़ो चूहे देखने को मिल जायेंगे, इनकी संख्या इतनी ज्यादा है की आप मंदिर में पैर उठा के नहीं चल सकते हे, इसलिए इस प्रसिद्ध मंदिर को चूहों का मंदिर भी कहाँ जाता है क्यों है ना आश्चर्जनक।

29. भारत का विज्ञान प्राचीन काल से अच्छा रहा है, उसके कुछ उदहारण आपको ऊपर पढ़ने को मिल जायेंगे लेकिन इसका जीता जागता उदहारण है, जयपुर में बना जंतर-मंतर यह दुनिया की सबसे बड़ी पत्थर से बनी वैधशाला है, इसका निर्माण सवाई जयसिंह जी ने 1727 ई. में करवाया था। यह वैधशाला सटीक मौसम और ग्रहों की स्थिति को दर्शाती है।

30. उत्तर भारत में बहुत से किले और गढ़ बने हुवे है, यह सभी किले भारत की उत्तरी सीमा की लुटेरों से रक्षा करते थे। इन्ही किलों में से एक है राजस्थान के जैसलमेर में बना हुवा “सोनार किला” इस किले का आकार बहुत बड़ा है, सबसे बड़ी बात यह किला आज भी पूर्ण रूप से बसावट को लिए हुवे है, समस्त जैसलमेर शहर की 25% आबादी आज भी इस किले में रहती है क्यों है ना आश्चर्यचकित ।

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प.पू. आद्य सरसंघचालक डा. केशव बलिराम हेडगेवार एक परिचय

 


प.पू. आद्य सरसंघचालक डा. केशव बलिराम हेडगेवा

सन् 1889 की 1 अप्रैल प्रतिपदा का दिन था। परम्परागत ढंग से हिन्दू घरों में भगवा फहराया जा रहा था। ऐसा ही खुशी का अवसर इस दिन नागपुर के एक गरीब ब्राह्मण बलिराम पंत हेडगेवार के परिवार में पांचवी संतान का जन्म हुआ था। इस महज संयोग को इस बालक ने अपने कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व, संकल्प, साधना एवं संस्कार, शुद्ध चरित्र एवं मौलिक चिंतन से यथार्थ में बदल दिया। बचपन का केशव आधुनिक भारत के निर्माण की संकेत-रेखा था, जो आगे चलकर डा. केशव बलिराम हेडगेवार के रूप में यशस्वी हुआ।

बलिराम पंत का परिवार बड़ा था। माता-पिता के प्यार ने बच्चों को गरीबी का अनुभव नहीं होने दिया। अपने दोनों ज्येष्ठ पुत्रों को वेद अध्ययन के लिए प्रेरित किया। केशव का भी नाम संस्कृत पाठशाला में लिखाया। परन्तु इस परम्परावाद पर उनके छोटे पुत्र ने प्रश्न खड़े करने का सफल कार्य किया। केशव की मानसिक संरचना असाधारण थी। उनकी कुशाग्र बुद्धि चंचलता और प्रतिभा ने उन्हें आधुनिक शिक्षा के लिए प्रवृत्त किया एवं माता-पिता ने लीक से हटकर बाद में पारिवारिक परम्परा के प्रतिकूल उनका नाम पूरे मध्यप्रांत में प्रसिद्ध नागपुर के नील सिटी स्कूल में दर्ज कराया।

दृढ़ता, संकल्प-शक्ति एवं विवेक के आधार पर कार्य करने की प्रवृत्ति उनके जीवन में हमेशा दिखाई पड़ती रही। पहली घटना तब की है जब उनकी उम्र सिर्फ आठ वर्ष की थी। यह घटना 22 जून 1897 की है। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठ साल पूरे

होने पर भारत में जश्न मनाया जा रहा था। केशव के स्कूल में भी मिठाई बांटी गई। परन्तु उन्होंने अपने हिस्से की मिठाई फेंकते हुए सहसा कहा- "लेकिन वह हमारी महारानी तो नहीं हैं" देशभक्ति की उपजी भावना आने वाले वर्षों में और प्रस्फुटित होने लगी। दूसरी घटना 1901 की हैं। इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर राजनिष्ठ लोगों द्वारा नागपुर में आकर्षक आतिशबाजी का आयोजन किया था। केशव ने बाल मित्रों को उसे देखने से रोका। उन्होने उन सबको समझाया कि 'विदेशी राजा का राज्यारोहण उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है।

महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी की वीरता की गाथा घर-घर में सुनी- सुनाई जाती थी। केशव के जीवन पर भी शिवाजी की वीरता, संकल्प- शक्ति एवं राष्ट्रीय भाव का अटूट प्रभाव था। तभी नागपुर के सीताबड़ी के किले के ऊपर इंग्लैंड के ध्वज 'यूनियन जैक का फहरना उनके बाल मन को कचोटता रहता था। केशव की छोटी उम्र में ही परिपक्व बातें एवं राष्ट्रवादी आकांक्षाएं आस-पड़ोस के लोगों के लिए चौंकाने वाली बात थी।

सन् 1901 का वर्ष नागपुर और केशव दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। इस वर्ष अंग्रेजी राज के खिलाफ इस शहर में संगठित छात्र आंदोलन की शुरूआत हुई और इस कार्य की योजना एवं क्रियान्वयन केशव के द्वारा ही हुआ।

बंग विभ जन के बाद सरकारी दमनचक्र की तीव्रता पूरे देश में बढ़ती जा रही थी। बंगाल में, राजनीतिक आंदोलन में विद्यार्थियों की अहम भूमिका को देखते हुए सरकार ने एक नोटिस जारी किया। यह नोटिस 'रिस्ले सर्कुलर' के नाम से प्रसिद्ध था। इस सर्कुलर का मध्य प्रांत में विरोध नागपुर से शुरू हुआ।

सन् 1907 के मध्य में विद्यालय निरीक्षक प्रतिवर्ष की भांति स्कूल का पर्यवेक्षण करने नील सिटी स्कूल आये थे। जैसे ही निरीक्षक केशव की कक्षा में गये, सभी छात्रों ने उठकर एक साथ 'वंदे मातरम्' की जोरदार घोषणा से उनका स्वागत किया।

'गुस्से से लाल-पीले होकर विद्यालय निरीक्षक प्रधानाध्यापक जनार्दन विनायक ओक के कमरे में गये और बिना बात किये अपनी टोपी लेकर सीधे चले गये। केशव के हृदय में धधकने वाली देशभक्ति की प्रखर अग्नि की तीव्रता का अनुभव उनके मित्रों, गुरूजनो तथा परिवार वालों को होने लगा था। कोलकाता के नैशनल मैडिकल स्कूल में पहुँचने के बाद तो इस अग्नि ने ज्वाला का रूप ले लिया। मैडिकल की शिक्षा पूरी करने के बाद पैसा और प्रसिद्धि का मार्ग उनके स्वागत को आतुर था, विद्यालय के प्रधानाचार्य ने तो 3000 रू० मासिक वेतन पर बर्मा में एक बड़े सरकारी अस्पताल में चिकित्साधिकारी के रूप में उन्हें भेजने की संस्तुति भी कर दी। नागपुर के टूटे-फूटे पुश्तैनी मकान के बाहर डॉ० के. बी. हेडगेवार का नया बोर्ड भी उनके भाई ने लगवा दिया। परन्तु डॉ० हेडगेवार का मन-मस्तिष्क तो उसी प्रश्न के उत्तर की खोज में अभी तक लगा था, हम बार-बार गुलाम क्यों हुए, हम क्या करें जिससे भारत फिर गुलाम न हो? यह चिरन्तन प्रश्न उन्हें चैन से नहीं बैठने देता था।

नागपुर लौटकर वे कांग्रेस में भर्ती हो गये, अपनी योग्यता तथा संगठन कुशलता के कारण उनकी गिनती प्रमुख कार्यकर्ताओं में होने लगी। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा० हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे।

1921 के असहयोग आन्दोलन में वे एक साल के लिए जेल भी गये, वहाँ उन्होंने देखा कि अपने भाषणों में बड़े-बड़े आदर्शों की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड़ के टुकड़े और साबुन की टिकिया के लिए कैसे लड़ते हैं? मुस्लिम तृष्टीकरण अनुशासनहीनता

तथा निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओं को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया। वैचारिक मंथन तीव्र गति से चल रहा था। अन्ततः उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला-बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान सम्भव नहीं है। भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि तथा मोक्षभूमि मानने वाला हिन्दू समाज ही इस देश का एकमेव राष्ट्रीय समाज है। उसको संगठित करने से ही भारत को चिरस्थाई स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है।

जेल से बाहर आने के बाद उनके मन में एक नये संगठन की योजना कार्यरूप ले रही थी। और इसी के निष्कर्ष स्वरूप 1925 की विजयदशमी के शुभ अवसर पर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर दी। प्रारम्भ में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उनको उपदेश और सुझाव देने वाले तो बहुत थे, पर सहयोग करने वाले बहुत कम। "हिन्दू समाज का संगठन जीवित मेंढकों को तौलने के समान असम्भव है, चार हिन्दू तो तब ही एक दिशा में चलते हैं जब किसी पाँचवें की अर्थी उनके कन्धे पर होती है".... आदि आते उन्हें बहुत सुननी पड़ती थी। डा. हेडगेवार की अविश्रान्त साधना के फलस्वरूप संघ का कार्य तेजी से बढ़ने लगा, युवकों की टोलियाँ उनके घर पर जमी रहती थी।

21 जुलाई 1930 को यवतमाल में अपने जत्थे के साथ जंगल सत्याग्रह में उन्होंने भाग लिया तथा नौ मास के कारावास की सजा उन्होंने अकोला जेल में रहकर पूरी की। डा. हेडगेवार के मन को सन्तोष कहाँ था? उनकी आँखों में तो भारतमाता को गुलामी की जंजीरो से मुक्त कराके उसे फिर से विश्व गुरू के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमान करने का स्वप्न तैर रहा था। दिन-रात वे इसी कार्य में लगे थे, आँखों में नींद और शरीर के विश्राम से से कोसों दूर थे।

1934 में वर्धा में संघ का शिविर लगा। महात्मा गांधी भी उस समय वर्षों में ही श्री जमनालाल बजाज के बंगले पर ठहरे हुए थे, शिविर के बारे में चर्चा होने पर गांधी जी ने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की। उनके भन में संघ के बारे में कोई बहुत अच्छी धारणा नहीं थी, पत्तु शिविर में आकर वे चभत्कृत हो गये। छुआछूत और भेदभाव मिटाने को जो बात के वर्षों से बोल रहे थे, संघ-शिविर में वह उन्हें व्यवहार में दिखायी दी।

एक ओर संघ का कार्य और उसके विचारों की स्वीकार्यता समाज में निरन्तर बढ़ रही थी तो दूसरी ओर डाक्टर जी का शरीर धीरे-धीरे शिथिल होता चला जा रहा था। बीमारी और बेहोशी की अवस्था में भी के बड़बड़ाते रहते थे। "देखो, 1940 का वर्ष भी बीता जा रहा है, हमारा कार्य शीघ्र बढ़ना चाहिए...।"

1940 में नागपुर तथा पुणे में संघ के चालीस दिवसीय ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण वर्ग (संघ शिक्षा वर्ग) लगे, पुणे के वर्ग में कुछ दिन रहने के बाद वे आग्रह पूर्वक नागपुर आये। भीषण गर्मी के कारण उनका स्वास्थ्य लागातार गिर रहा था। पर फिर भी वे स्वयंसेवकों से मिलते थे। नागपुर के इस वर्ग में पहली बार भारत के प्रत्येक प्रान्त का प्रतिनिधित्व हुआ था। स्वयंसेवकों के रूप में मानो सम्पूर्ण भारत का कोटा प्रतिरूप वहाँ उपस्थित था, डाक्टर जी को भी इस बात का बहुत सन्तोष था।

स्वास्थ्य की अत्याधिक खराब के कारण डाक्टरों ने अन्तिम उपाय के रूप में रीढ़ से पानी निकालने के लिए लंबर-पंचर करने का निर्णय लिया। लेकिन फिर भी बुखार, रक्तचाप आदि में कोई कमी नहीं हुई। अन्ततः 21 जून, 1940 प्रातः 9.27 पर हिन्दू राष्ट्र के मन्त्रदृष्टा स्वयंसेवकों के आराध्य, संघ संस्थापक पू० डा० केशव बलिराम हेडगेवार ने अपनी नश्वर काया छोड़ दी।


शनिवार, 28 दिसंबर 2024

वीर बलिदानी दिवस

 गुरु गोविंद सिंह व उनके चार पुत्र 

गुरु गोविंद सिंह जी सिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे। उनका जन्म 22 दिसंबर, 1666 को पटना में हुआ था।उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की थी।उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को सिख धर्म का प्राथमिक पवित्र धार्मिक ग्रंथ और शाश्वत गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने चंडी द वार, जाप साहिब, खालसा महिमा, बचित्र नाटक, जफ़रनामा जैसे कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।उनकी काव्य रचना दशम ग्रंथ के नाम से जानी जाती है। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने सिखों को मूल्य और वीरता से भरने के लिए हमेशा अपने हाथ में एक सफ़ेद बाज़ रखा. गुरु गोबिंद सिंह ने मुगलों की सेना को चिड़िया और सिखों को बाज़ कहा था. “सवा लाख से एक लड़ाऊं,चिड़ियन ते मैं बाज़ तुड़ाऊं,तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं” यह सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह का एक अनमोल वचन है |धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े | गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर सिंह, चारों बेटों, और खुद भी बलिदान देकर धर्म की रक्षा की | गुरु गोविंद सिंह जी की मृत्यु 7 अक्टूबर, 1708 को महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब में हुई थी गुरु गोविंद सिंह जी पर सरहिंद के गवर्नर वज़ीर ख़ान ने दो पठानों को हमला करने का आदेश दिया था। इन पठानों ने गुरु गोविंद सिंह जी पर धोखे से हमला किया और उनका वध कर दिया।

फतेह सिंह तथा जोरावर सिंह को छोटी सी उम्र में ही उन्हें बड़े संकटों का सामना करना पड़ा । धर्म छोड़ने के लिए पहले लालच और कठोर यातनाएँ दी गयीं परन्तु ये दोनों वीर अपने धर्म पर अडिग रहे । ऐसे धर्मनिष्ठ बालकों की यह गाथा हम सबको को अवश्य पढ़नी चाहिए |

फतेह सिंह तथा जोरावर सिंह सिख धर्म के दसवें गुरू गोविंदसिंह जी के सुपुत्र थे । आनंदपुर के युद्ध में गुरू जी का परिवार बिखर गया था । उनके दो पुत्र अजीतसिंह एवं जुझारसिंह की तो उनसे भेंट हो गयी, परन्तु उनके दो छोटे पुत्र गुरू गोविंद सिहं की माता गुजरीदेवी के साथ अन्यत्र बिछुड़ गये ।

आनंदपुर छोड़ने के बाद फतेह सिंह एवं जोरावर सिंह अपनी दादी के साथ जंगलों, पहाड़ों को पार करके एक नगर में पहुँचे । उस समय जोरावरसिंह की उम्र मात्र सात वर्ष ग्यारह माह एवं फतेहसिंह की उम्र पाँच वर्ष दस माह थी ।

इस नगर में उन्हें गंगू मिला, जो बीस वर्षों तक गुरूगोविंद सिंह के पास रसोईये का काम करता था । उसकी जब माता गुजरीदेवी से भेंट हुई तो उसने उन्हें अपने घर ले जाने का आग्रह किया । पुराना सेवक होने के नाते माता जी दोनों नन्हें बालकों के साथ गंगू के घर चलने को तैयार हो गयी ।

माता गुजरीदेवी के सामान में कुछ सोने की मुहरें थी जिसे देखकर गंगू लोभवश अपना ईमान बेच बैठा । उसने रात्रि को मुहरें चुरा लीं परन्तु लालच बड़ी बुरी बला होती है । वासना का पेट कभी नहीं भरता अपितु वह तो बढ़ती ही रहती है । गंगू की वासना और अधिक भड़क उठी । वह ईनाम पाने के लालच में मुरिंज थाना पहुँचा और वहाँ के कोतवाल को बता दिया कि गुरूगोविंद सिंह के दो पुत्र एवं माता उसके घर में छिपी हैं ।

कोतवाल ने गंगू के साथ सिपाहियों को भेजा तथा दोनों बालकों सहित माता गुजरीदेवी को बंदी बना लिया । एक रात उन्हें मुरिंडा की जेल में रखकर दूसरे दिन सरहिंद के नवाब के पास ले जाया गया । इस बीच माता गुजरीदेवी दोनों बालकों को उनके दादा गुरू तेग बहादुर एवं पिता गुरुगोविंदसिंह की वीरतापूर्ण कथाएँ सुनाती रहीं ।

सरहिंद पहुँचने पर उन्हें किले के एक हवादार बुर्ज में भूखा प्यासा रखा गया । माता गुजरीदेवी उन्हें रात भर वीरता एवं अपने धर्म में अडिग रहने के लिए प्रेरित करती रहीं । वे जानती थीं कि मुगल सर्वप्रथम बच्चों से धर्मपरिवर्तन करने के लिए कहेंगे । दोनों बालकों ने अपनी दादी को भरोसा दिलाया कि वे अपने पिता एवं कुल की शान पर दाग नहीं लगने देंगे तथा अपने धर्म में अडिग रहेंगे ।

सुबह सैनिक बच्चों को लेने पहुँच गये। दोनों बालकों ने दादी के चरणस्पर्श किये एवं सफलता का आशीर्वाद लेकर चले गए । दोनों बालक नवाब वजीरखान के सामने पहुँचे तथा सिंह की तरह गर्जना करते बोलेः “वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह ।”

चारों ओर से शत्रुओं से घिरे होने पर भी इन नन्हें शेरों की निर्भीकता को देखकर सभी दरबारी दाँतो तले उँगली दबाने लगे । शरीर पर केसरी वस्त्र एवं पगड़ी तथा कृपाण धारण किए इन नन्हें योद्धाओं को देखकर एक बार तो नवाब का भी हृदय भी पिघल गया ।

उसने बच्चों से कहा : “इन्शाह अल्लाह! तुम बड़े सुन्दर दिखाई दे रहे हो । तुम्हें सजा देने की इच्छा नहीं होती । बच्चों ! हम तु्म्हें नवाबों के बच्चों की तरह रखना चाहते हैं । एक छोटी सी शर्त है कि तुम अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन जाओ ।”

नवाब ने लालच एवं प्रलोभन देकर अपना पहला पाँसा फैंका । वह समझता था कि इन बच्चों को मनाना ज़्यादा कठिन नहीं है परन्तु वह यह भूल बैठा था कि भले ही वे बालक हैं परन्तु कोई साधारण नहीं अपितु गुरू गोविंदसिंह के सपूत हैं । वह भूल बैठा था कि इनकी रगों में उस वीर महापुरूष का रक्त दौड़ रहा है जिसने अपना समस्त जीवन धर्म की रक्षा में लगा दिया था ।

नवाब की बात सुनकर दोनों भाई निर्भीकतापूर्वक बोले : “हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है । जिस धर्म के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बलि दे दी उसे हम तुम्हारी लालचभरी बातों में आकर छोड़ दें, यह कभी नहीं हो सकता ।”

नवाब की पहली चाल बेकार गयी । बच्चे नवाब की मीठी बातों एवं लालच में नहीं फँसे। अब उसने दूसरी चाल खेली । नवाब ने सोचा ये दोनों बच्चे ही तो हैं, इन्हें डराया धमकाया जाय तो अपना काम बन सकता है ।

उसने बच्चों से कहा : “तुमने हमारे दरबार का अपमान किया है । हम चाहें तो तुम्हें कड़ी सजा दे सकते हैं परन्तु तु्म्हे एक अवसर फिर से देते हैं । अभी भी समय है यदि ज़िंदगी चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ वर्ना….”

नवाब अपनी बात पूरी करे इससे पहले ही ये नन्हें वीर गरज कर बोल उठे : “नवाब ! हम उन गुरूतेगबहादुरजी के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये। हम उन गुरूगोविंदसिंह जी के पुत्र हैं जिनका नारा है : चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ । जिनका एक-एक सिपाही तेरे सवा लाख गुलामों को धूल चटा देता है, जिनका नाम सुनते ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है । तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है । हम फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण त्याग सकते हैं परन्तु अपना धर्म नहीं त्याग सकते ।”

इतने में दीवान सुच्चानंद ने बालकों से पूछा : “अच्छा! यदि हम तुम्हे छोड़ दें तो तुम क्या करोगे ?”

बालक जोरावर सिंह ने कहा : “हम सेना इकट्ठी करेंगे और अत्याचारी मुगलों को इस देश से खदेड़ने के लिए युद्ध करेंगे ।”

दीवान : “यदि तुम हार गये तो ?”

जोरावर सिंह : (दृढ़तापूर्वक) “हार शब्द हमारे जीवन में नहीं है । हम हारेंगे नहीं या तो विजयी होंगे या शहीद होंगे ।”

बालकों की वीरतापूर्ण बातें सुनकर नवाब आग बबूला हो उठा । उसने काजी से कहा : “इन बच्चों ने हमारे दरबार का अपमान किया है तथा भविष्य में मुगल शासन के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा की है । अतः इनके लिए क्या दण्ड निश्चित किया जाये ?”

काजी : “ये बालक मुगल शासन के दुश्मन हैं और इस्लाम को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं । अतः, इन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा दिया जाये ।”

शैतान नवाब तथा काजी के क्रूर फैसले के बाद दोनों बालकों को उनकी दादी के पास भेज दिया गया । बालकों ने उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनाई । बालकों की वीरता को देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर बोली : “मेरे बच्चों! तुमने अपने पिता की लाज रख ली ।”

दूसरे दिन दोनों वीर बालकों को दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग और विशाल बेग को सुपुर्द कर दिया गया । बालकों को निश्चित स्थान पर ले जाकर उनके चारों ओर दीवार बननी प्रारम्भ हो गयी । धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी । इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उसकी आँखों से आँसू छलक उठे ।

जोरावर सिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़ा काजी बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने समझा कि ये बच्चे मृत्यु को सामने देखकर डर गये हैं । उसने अच्छा मौका देखकर जोरावरसिंह से कहा : “बच्चों ! अभी भी समय है । यदि तुम मुसलमान बन जाओ तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी ।”

जोरावर सिंह ने गरजकर कहा : “मूर्ख काजी ! मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ । मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है । मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आता है ।”

सात वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी दंग रह गये । थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर उसमें समा गये ।

कुछ समय पश्चात दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे, परन्तु अत्याचारियों ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी ।

(21 दिसम्बर से लेकर 27 दिसम्बर तक) इन्ही 7 दिनों में गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार शहीद हो गया था। 21 दिसम्बर को गुरू गोविंद सिंह द्वारा परिवार सहित आनंदपुर साहिब किला छोङने से लेकर 27 दिसम्बर तक के इतिहास को हम भूला बैठे हैं?

एक ज़माना था जब यहाँ पंजाब में इस हफ्ते सब लोग ज़मीन पर सोते थे क्योंकि माता गूजर कौर ने वो रात दोनों छोटे साहिबजादों (जोरावर सिंह व फतेह सिंह) के साथ, नवाब वजीर खां की गिरफ्त में – सरहिन्द के किले में – ठंडी बुर्ज में गुजारी थी। यह सप्ताह सिख इतिहास में शोक का सप्ताह होता है।

पर आज देखते हैं कि पंजाब समेत पूरा हिन्दुस्तान क्रिसमस के जश्न में डूबा हुआ है एक दूसरे को बधाई दी जा रही हैं

गुरु गोबिंद सिंह जी की कुर्बानियों को इस अहसान फरामोश मुल्क ने सिर्फ 300 साल में भुला दिया?? 

जो कौमें अपना इतिहास – अपनी कुर्बानियाँ – भूल जाती हैं वो खुद इतिहास बन जाती है।

आज हर भारतीय को विशेषतः युवाओं व बच्चों को इस जानकारी से अवगत कराना जरुरी है। हर भारतीय को क्रिसमस नही, हिन्दुस्थान के हिन्दू शहजादों को याद करना चाहिये। 

यह निर्णय आप ही को करना है कि 25 दिसंबर (क्रिसमस) को महात्त्वता मिलनी चाहिए या फिर क़ुरबानी की इस अनोखी.. शायद दुनिया की इकलौती मिसाल को

21 दिसंबर - श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने परिवार सहित श्री आनंद पुर साहिब का किला छोड़ा।

22 दिसंबर - गुरु साहिब अपने दोनों बड़े पुत्रों सहित चमकौर के मैदान में पहुंचे और गुरु साहिब की माता और छोटे दोनों साहिबजादों को गंगू जो कभी गुरु घर का रसोइया था उन्हें अपने साथ अपने घर ले आया।

चमकौर की जंग शुरू और दुश्मनों से जूझते हुए गुरु साहिब के बड़े साहिबजादे श्री अजीत सिंह उम्र महज 17 वर्ष और छोटे साहिबजादे श्री जुझार सिंह उम्र महज 14 वर्ष अपने 11 अन्य साथियों सहित मजहब और मुल्क की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए।

23 दिसंबर - गुरु साहिब की माता श्री गुजर कौर जी और दोनों छोटे साहिबजादे गंगू के द्वारा गहने एवं अन्य सामान चोरी करने के उपरांत तीनों की मुखबरी मोरिंडा के चौधरी गनी खान से की और तीनो को गनी खान के हाथों ग्रिफ्तार करवा दिया और गुरु साहिब को अन्य साथियों की बात मानते हुए चमकौर छोड़ना पड़ा।

24 दिसंबर - तीनों को सरहिंद पहुंचाया गया और वहां ठंडे बुर्ज में नजरबंद किया गया।

25 और 26 दिसंबर - छोटे साहिबजादों को नवाब वजीर खान की अदालत में पेश किया गया और उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए लालच दिया गया।

27 दिसंबर - साहिबजादा जोरावर सिंह उम्र महज 8 वर्ष और साहिबजादा फतेह सिंह उम्र महज 6 वर्ष को तमाम जुल्म ओ जब्र उपरांत जिंदा दीवार में चीनने उपरांत जिबह (गला रेत) कर शहीद किया गया और खबर सुनते ही माता गुजर कौर ने अपने साँस त्याग दिए।

धन्य हैं गुरु गोविन्द सिंह जी जिन्होंने धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रो को शहीद किया था। 

धन्य हैं वह माता जिसने अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह को जन्म दिया।

धन्य है वे लाल जिन्होने अपनी भारत भूमि, अपने धर्म और अपने संस्कार की रक्षा हेतु माँ के दूध का कर्ज चुकाया और यौवन आने के पहले मृत्यु का वरण किया।

चमकौर की गढ़ी का युद्ध: एक तरफ थे मधु मक्खी के छत्ते की तरह बिलबिलाते यवन आक्रांता और दूसरी तरफ थे मुट्ठी भर रण बाकुँरे सिक्ख – सिर पर केशरिया पगड़ी बाधें, हाथ मे लपलपाती भवानी तलवार लिये, सामने विशाल म्लेच्छ सेना और फिर भी बेखौफ!

दुष्टों को उनहोंने गाजर मूली की तरह काटा। वीर सपूत गुरुजी के दोनो साहबजादे – 17 साल के अजितसिंह और 14 साल के जुझार सिंह – हजारों हजार म्लेच्छो को मार कर शहीद हुये।

विश्व इतिहास में यह एक ऐसी अनोखी घटना है जिसमे पिता ने अपने तरूण सपूतो को धर्म वेदी पर शहीद कर दिया और विश्व इतिहास मे अपना नाम स्वणृक्षरो मे अंकित करवा दिया। क्या दुनिया के किसी और देश मे ऐसी मिसाल मिलती है?

यवन शासक ने उन रण बांकुरों से उनके धर्म और संस्कृति के परिवर्तन की माँग की थी जिसको उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया। गुरू महाराज के उन दो छोटे सिंह शावको ने अपना सर नही झुकाया। इस पर दुष्ट यवन बादशाह ने 7 साल के जोरावरसिंह और 5 साल के फतेह सिंह को जिंदा दीवाल मे चिनवा दिया।

कितना बड़ा कलेजा रहा होगा वीर सपूतों का, कितनी गर्माहट और कितना जोश होगा उस वीर प्रसूता माँ के दूध मे – जो पाँच और सात साल के बच्चों की रगों मे रक्त बन कर बह रहा था – कि उनमे इतना जज्बा – इतना जोश – था कि अपने धर्म संस्कृति की रक्षा के लिये इतनी यातनादायक मृत्यु का वरण किया।

और कितने दुष्ट, कितने नृशंस, कितने कातिल और कितने कायर थे वे म्लेच्छ जिनका मन फूल जैसे बच्चो को जिन्दा चिनवाते नही पसीजा था! और किस लिये? सिर्फ इसलिये कि मुसलमान बन जाओ! आखिर क्या अच्छाई हो सकती है ऐसे धर्म मे जो निरीह अबोध बच्चो को भी जिन्दा दीवार मे चिनवा दे?

यही कारण है कि यह भूमि वीर प्रसूता और हम आज गुरू गोविंद सिंह और उनके साहबजादो को श्रृद्धा और विनम्रता से याद कर रहे हैं।

हम मे से अधिसंख्य को इन वीरो के बलिदान की जानकारी भी नही होगी क्योकि हमने तो अकबर महान और शाहजहाँ का काल स्वण काल पढ़ा है; हमने तो इन वीर पुरुषो के विषय मे किसी किताब के कोने मे केवल दो लाइने भर पढ़ी होंगी।

हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने बच्चो को इतिहास की यह जानकारी दें, यह जरुरी

 है कि हम अपने इतिहास और पुरखो के बारे मे जानें। 

कुम्भ मेला ओर ग्रह स्थिति

 कुम्भ मेला ओर ग्रह स्थिति

सभी महाकुंभ मेले का आयोजन ग्रहों की स्थिति के आधार पर किया जाता है,जब बृहस्पति ग्रह वृषभ राशि में होते हैं और सूर्य राशि मकर राशि में गोचर करते हैं, तो महाकुंभ का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है । इसी लिए 2025 में महाकुंभ प्रयागराज यमुना गंगा संगम के किनारे में लगेगा। जब सूर्य और गुरु सिंह राशि में एक साथ होते हैं, तो महाकुंभ का आयोजन नासिक गोदावरी के तट पर किया जाता है। जब गुरु ग्रह कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में होते हैं, तो हरिद्वार गंगा किनारे में महाकुंभ का आयोजन होता है । जब सूर्य अपनी उच्च राशि मेष और गुरु सिंह राशि में विराजमान होते हैं, तो महाकुंभ का आयोजन उज्जैन शिप्रा नदी के किनारे में किया जाता है । ज्योतिष के मुताबिक, महाकुंभ के समय ग्रहों की स्थिति शुभ होती है । इस समय स्नान करने, साधना करने व पूजा-अर्चना करने से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

मनुस्मृति: मनु के नियम (लगभग 1500 ई.पू. -या बाद में-)

(जी. बुहलर द्वारा अनुवादित


अध्याय 9:

1. अब मैं कर्तव्य पथ पर चलने वाले पति-पत्नी के लिए शाश्वत नियमों का प्रतिपादन करूंगा, चाहे वे एक हों या अलग।


2. स्त्री को दिन-रात अपने परिवार के पुरुषों द्वारा पराधीन रखना चाहिए, और यदि वे विषय-भोगों में लिप्त हों, तो उन्हें अपने नियंत्रण में रखना चाहिए।


3. बचपन में पिता उसकी रक्षा करता है, जवानी में पति उसकी रक्षा करता है और बुढ़ापे में पुत्र उसकी रक्षा करते हैं; स्त्री कभी भी स्वतंत्र नहीं रह सकती।


4. निन्दित है वह पिता जो समय पर कन्यादान नहीं करता; निन्दित है वह पति जो समय पर पत्नी के पास नहीं जाता; और निन्दित है वह पुत्र जो पति के मर जाने के बाद अपनी माता की रक्षा नहीं करता।


5. स्त्रियों को विशेष रूप से बुरी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए, चाहे वे कितनी भी छोटी क्यों न लगें; क्योंकि यदि वे सावधान नहीं रहेंगी तो वे दो परिवारों पर दुख लायेंगी।


6. सभी जातियों का सर्वोच्च कर्तव्य मानते हुए, कमजोर पतियों को भी अपनी पत्नियों की रक्षा करने का प्रयास करना चाहिए।


7. जो पुरुष अपनी पत्नी की रक्षा करता है, वह अपनी संतान, सदाचार, परिवार, स्वयं और अपने पुण्य की रक्षा करता है।


8. पति अपनी पत्नी द्वारा गर्भधारण के पश्चात भ्रूण बन जाता है और उससे पुनः जन्म लेता है; क्योंकि यही पत्नी का पत्नीत्व (गया) है, अर्थात वह उससे पुनः जन्म लेता है (गयाते)।


9. जैसा वह पुरुष होता है, जिससे उसकी पत्नी जुड़ी रहती है, वैसा ही वह पुत्र होता है, जिसे वह जन्माती है; इसलिये पुरुष अपनी पत्नी की सावधानी से रक्षा करे, कि उसका वंश पवित्र रहे।


10. कोई भी पुरुष बलपूर्वक स्त्रियों की पूरी तरह से रक्षा नहीं कर सकता; लेकिन निम्नलिखित उपायों का प्रयोग करके उनकी रक्षा की जा सकती है:


11. (पति) अपनी (पत्नी) को अपने धन के संग्रह और व्यय में, (सब कुछ) साफ रखने में, धार्मिक कर्तव्यों की पूर्ति में, अपने भोजन की तैयारी में और घर के बर्तनों की देखभाल में लगाये।


12. जो स्त्रियाँ घर में विश्वासयोग्य और आज्ञाकारी सेवकों के अधीन रहती हैं, उनकी रक्षा नहीं होती; किन्तु जो स्त्रियाँ स्वयं अपनी रक्षा स्वयं करती हैं, उनकी रक्षा होती है।


13. मदिरा पीना, दुष्ट लोगों की संगति करना, पति से वियोग, भ्रमण करना, अनुचित समय पर सोना तथा अन्य पुरुषों के घर में रहना, ये स्त्रियों के नाश के छः कारण हैं।


14. स्त्रियाँ न तो सुन्दरता की परवाह करती हैं, न ही उम्र पर उनका ध्यान रहता है; वे यह सोचकर कि, 'पुरुष होना ही काफी है', सुन्दर और कुरूप दोनों को अपना वश में कर लेती हैं।


15. पुरुषों के प्रति अपनी वासना के कारण, अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण, अपनी स्वाभाविक हृदयहीनता के कारण, वे अपने पतियों के प्रति विश्वासघाती हो जाती हैं, भले ही वे इस (संसार) में कितनी ही सावधानी से क्यों न रखी जाएं।


16. सृष्टि के समय प्रभु ने जो स्वभाव उनमें रखा था, उसे जानकर प्रत्येक मनुष्य को उनकी रक्षा के लिए अत्यन्त प्रयत्न करना चाहिए।


17. (स्त्रियों की रचना करते समय) मनु ने स्त्रियों को शय्या, आसन और आभूषणों के प्रति प्रेम, अशुद्ध कामनाएँ, क्रोध, बेईमानी, द्वेष और बुरे आचरण की शिक्षा दी।


18. स्त्रियों के लिए कोई भी धार्मिक अनुष्ठान पवित्र ग्रंथों के साथ नहीं किया जाता, इस प्रकार यह नियम स्थापित है; जो स्त्रियाँ शक्तिहीन हैं तथा वैदिक ग्रंथों के ज्ञान से रहित हैं, वे पापी हैं।


(असत्य को अशुद्ध मानना) यह एक निश्चित नियम है।


19. और इसी आशय के अनेक पवित्र ग्रन्थ वेदों में भी गाये गये हैं, जिससे (स्त्रियों का) वास्तविक स्वभाव पूर्णतः ज्ञात हो; (अब उन ग्रन्थों को सुनो, जिनमें उनके (पापों) के प्रायश्चित का उल्लेख है।


20. 'यदि मेरी माता ने भटककर और विश्वासघात करके अनुचित कामनाओं को जन्म दिया हो, तो मेरे पिता उस संतान को मुझसे दूर रखें,' यह धर्मग्रंथ का पाठ है।


21. यदि कोई स्त्री अपने मन में ऐसी कोई बात सोचती है जिससे उसके पति को दुःख पहुंचे, तो (उपर्युक्त पाठ) ऐसी बेवफाई को पूरी तरह से दूर करने का साधन बताया गया है।


22. जिस पुरुष के साथ विधिपूर्वक स्त्रियाँ संयुक्त होती हैं, उसके जो-जो गुण होते हैं, उन-उन गुणों को वह भी धारण कर लेती है, जैसे नदी समुद्र के साथ संयुक्त हो जाती है।


23. निम्नतम जन्म की अक्षमाला स्त्री वसिष्ठ से तथा सारंगी मंडप से संयुक्त होकर सम्मान की पात्र बन गयी।


24. ये तथा अन्य निम्न कुल की स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों के उत्तम गुणों के कारण इस संसार में श्रेष्ठता प्राप्त कर चुकी हैं।


25. इस प्रकार पति-पत्नी के बीच का नित्य शुद्ध प्रचलित नियम कहा गया है; अब संतान सम्बन्धी नियम सुनो, जो इस लोक में और मृत्यु के बाद सुख का कारण है।


26. जो स्त्रियाँ संतान उत्पन्न करने वाली हैं, जो अनेक आशीर्वाद प्राप्त करती हैं, जो पूजनीय हैं और अपने घरों को प्रकाशित करती हैं, तथा जो सौभाग्य की देवियाँ हैं (जो पुरुषों के घरों में निवास करती हैं), उनमें कोई भेद नहीं है।


27. संतानोत्पत्ति, जन्मे बच्चों का पालन-पोषण तथा पुरुषों का दैनिक जीवन, (इन सबका) कारण स्पष्टतः स्त्री ही है।


28. संतान प्राप्ति (धार्मिक अनुष्ठानों का उचित पालन, निष्ठापूर्वक सेवा, सर्वोच्च वैवाहिक सुख और पूर्वजों तथा स्वयं के लिए स्वर्गीय आनंद) केवल अपनी पत्नी पर ही निर्भर है।


29. जो स्त्री अपने मन, वाणी और कर्मों को वश में रखकर अपने स्वामी के प्रति अपने कर्तव्य का उल्लंघन नहीं करती, वह (मृत्यु के पश्चात) स्वर्ग में उनके साथ निवास करती है और इस संसार में पुण्यात्मा पुरुष उसे पतिव्रता (पत्नी, साध्वी) कहते हैं।


30. परन्तु पति के प्रति विश्वासघात करने के कारण स्त्री मनुष्यों में निन्दा की जाती है और (अगले जन्म में) वह गीदड़ की योनि में जन्म लेती है और अपने पाप के दण्ड स्वरूप रोगों से ग्रस्त होती है।


31. अब तुम सब मनुष्यों के लिए हितकर यह पवित्र शास्त्र सुनो, जो वर्तमान काल के पुण्यात्माओं तथा प्राचीन महर्षियों ने पुत्र-संतान के विषय में किया है।


32. वे (सब) कहते हैं कि पुरुष संतान प्रभु की है, किन्तु प्रभु के सम्बन्ध में शास्त्रों में मतभेद है; कुछ लोग (बच्चे के जन्मदाता को) प्रभु कहते हैं।


अन्य लोग घोषणा करते हैं कि वह भूमि का मालिक है।


33. पवित्र परम्परा में स्त्री को मिट्टी और पुरुष को बीज कहा गया है; मिट्टी और बीज के संयोग से ही समस्त भौतिक प्राणियों की उत्पत्ति होती है।


34. कुछ मामलों में बीज अधिक प्रतिष्ठित होता है, और कुछ में मादा का गर्भ; लेकिन जब दोनों समान होते हैं, तो संतान को सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है।


35. बीज और बीज के पात्र की तुलना करने पर बीज को अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है, क्योंकि सभी प्राणियों की संतान बीज के गुणों से ही पहचानी जाती है।


36. जो बीज किसी खेत में बोया जाता है, उसे समय पर तैयार किया जाता है, तो उस खेत में उसी बीज के गुणों से युक्त उसी प्रकार का पौधा उग आता है।


37. यह पृथ्वी, वास्तव में, सृजित प्राणियों का आदि गर्भ कहलाती है; किन्तु बीज अपने विकास में गर्भ के किसी भी गुण का विकास नहीं करता।


38. इस संसार में भिन्न-भिन्न प्रकार के बीज, उचित समय पर भूमि में, यहाँ तक कि एक ही खेत में बोये जाने पर, अपनी-अपनी प्रजाति के अनुसार उग आते हैं।


39. चावल जिसे वृहि कहते हैं, सालि, मुदग, तिल, माशा, जौ, लीक और गन्ना, ये सभी अपने बीज के अनुसार उगते हैं।


40. यह नहीं हो सकता कि एक बीज बोया जाए और दूसरा उत्पन्न हो जाए; जो बीज बोया जाता है, उसी प्रकार का पौधा भी उत्पन्न हो जाता है।


41. अतः जो बुद्धिमान, सुशिक्षित, वेद और उसके अंगों का ज्ञाता तथा दीर्घायु की इच्छा रखने वाला पुरुष हो, उसे कभी भी किसी अन्य की पत्नी के साथ सहवास नहीं करना चाहिए।


42. इस विषय में, भूतकाल से परिचित लोग वायु द्वारा गाये गए कुछ श्लोकों का पाठ करते हैं, जिनसे यह पता चलता है कि किसी भी मनुष्य को किसी दूसरे की भूमि पर बीज नहीं बोना चाहिए।


43. जैसे शिकारी द्वारा चलाया गया बाण, दूसरे के घाव में घायल हिरण को लगने पर व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही दूसरे की वस्तु पर बोया गया बीज, बोने वाले के लिए शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।


44. भूतकाल को जानने वाले ऋषिगण इस पृथ्वी को पृथु की पत्नी कहते हैं; वे कहते हैं कि जो लकड़ी काटता है, खेत उसका है और जो उसे पहले नुकसान पहुंचाता है, मृग उसका है।


45. वही पुरुष पूर्ण है जो अपनी पत्नी, अपने आप और अपनी संतान से मिलकर बना है; ऐसा वेद कहता है, और विद्वान ब्राह्मण भी इसी प्रकार यह कहावत कहते हैं कि पति अपनी पत्नी के साथ एक है।


46: पत्नी न तो विक्रय से, न त्याग से अपने पति से मुक्त होती है; ऐसा ही हम उस नियम को जानते हैं, जिसे सृष्टि के स्वामी (प्रगपति) ने प्राचीन काल से बनाया है।


एक बार बंटवारा हो जाता है, एक बार कन्या ब्याह दी जाती है, और एक बार कोई कहता है कि मैं दूंगा, ये तीनों काम एक ही बार होते हैं।


48. जैसे गाय, घोड़ी, ऊँटनी, दासी, भैंसा, बकरी और भेड़ियों से संतान उत्पन्न करने वाला (या उसका स्वामी) नहीं होता, वैसे ही दूसरों की स्त्रियों से भी संतान उत्पन्न होती है।


49. जो लोग किसी खेत में अपनी सम्पत्ति न रखते हुए भी, बीज रखते हुए भी, उसे दूसरे की भूमि में बोते हैं, वे कभी भी उगने वाली फसल का अन्न प्राप्त नहीं कर पाते।


50. यदि किसी व्यक्ति का बैल किसी अन्य व्यक्ति की गायों से सौ बछड़े पैदा करे, तो वे गायों के स्वामी के होंगे; बैल ने व्यर्थ ही अपनी शक्ति खर्च की होगी।


51. इस प्रकार जो पुरुष स्त्रियों से वैवाहिक सम्पत्ति नहीं रखते, किन्तु दूसरों की भूमि में अपना बीज बोते हैं, वे स्त्री के स्वामी को तो लाभ पहुंचाते हैं; किन्तु बीज देने वाले को कोई लाभ नहीं होता।


52. यदि खेत के मालिक और बीज के मालिक के बीच फसल के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं हुआ है, तो लाभ स्पष्ट रूप से खेत के मालिक का है; बीज की अपेक्षा पात्र अधिक महत्वपूर्ण है।


53. किन्तु यदि कोई खेत विशेष समझौते के द्वारा बोने के लिए किसी दूसरे को दे दिया जाए, तो बीज का स्वामी और भूमि का स्वामी, दोनों ही संसार में उसमें हिस्सेदार माने जाते हैं।


54. यदि पानी या हवा द्वारा बीज किसी के खेत में चला जाए और अंकुरित हो जाए, तो वह बीज खेत के मालिक का ही होता है, बीज के मालिक को फसल नहीं मिलती।


55. जान लो कि गाय, घोड़ी, दासी, ऊँटनी, बकरी, भेड़, पक्षी और भैंसा के बच्चों के विषय में भी यही नियम है।


56. इस प्रकार बीज और गर्भ का तुलनात्मक महत्व तुम्हें बताया गया है; अब मैं दुर्भाग्य के समय स्त्रियों के लिए नियम प्रस्तुत करूँगा।


57. बड़े भाई की पत्नी छोटे भाई के लिए गुरु की पत्नी है, किन्तु छोटे भाई की पत्नी बड़े भाई की पुत्रवधू मानी गई है।


58. जो बड़ा भाई छोटे भाई की पत्नी के पास जाता है, और जो छोटा भाई बड़े भाई की पत्नी के पास जाता है, वह दोनों, दुर्भाग्य के समय को छोड़कर, जाति से बहिष्कृत हो जाते हैं, भले ही उन्हें ऐसा करने का अधिकार हो।


59. संतान न होने पर, अधिकृत स्त्री, उचित तरीके से, अपने देवर या पति के किसी अन्य सपिण्ड के साथ सहवास करके इच्छित संतान प्राप्त कर सकेगी।


60. जो व्यक्ति विधवा के साथ रहने के लिए नियुक्त किया गया है, वह रात्रि में घी लगाकर उसके पास जाए और चुप रहे, और एक ही पुत्र उत्पन्न करे, दूसरा कदापि न उत्पन्न करे।


कुछ शास्त्रज्ञ ऋषिगण यह सोचकर कि उन दोनों का (प्रथम पुत्र के जन्म पर) विवाह सम्पन्न नहीं हुआ है, ऐसा सोचते हैं कि ऐसी स्त्रियों से दूसरा पुत्र भी विधिपूर्वक उत्पन्न किया जा सकता है।


62. किन्तु जब विधवा के साथ सहवास करने का उद्देश्य विधि के अनुसार पूरा हो जाए, तो वे दोनों एक दूसरे के प्रति पिता और पुत्रवधू का सा व्यवहार करेंगे।


यदि वे दोनों (इस प्रकार नियुक्त होकर) नियम से विचलित हो जाएँ और विषय वासना से काम करें, तो वे दोनों ही बहिष्कृत हो जाएँगे, (जैसे पुरुष) पुत्रवधू या गुरु के बिस्तर को अपवित्र करते हैं।


64. द्विजों द्वारा विधवा को अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ रहने की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए; क्योंकि जो लोग उसे किसी अन्य के साथ रहने देते हैं, वे सनातन व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं।


65. विवाह से संबंधित पवित्र ग्रंथों में कहीं भी विधवाओं की नियुक्ति का उल्लेख नहीं है, न ही विवाह संबंधी नियमों में विधवाओं के पुनर्विवाह का निर्देश है।


66. यह प्रथा, जिसकी द्विजों के विद्वानों ने पशुओं के योग्य मानकर निंदा की है, ऐसा कहा जाता है कि वेन के शासन काल में यह मनुष्यों में भी प्रचलित थी।


67. राजर्षियों में प्रमुख वह पुरुष जो पहले सम्पूर्ण जगत् का स्वामी था, उसने काम के कारण अपनी बुद्धि नष्ट करके वर्णों में गड़बड़ी उत्पन्न कर दी।


68. उस समय से उस व्यक्ति को सद्गुणी निन्दा मिलेगी जो अपनी मूर्खता में किसी ऐसी स्त्री को, जिसका पति मर चुका हो, किसी दूसरे पुरुष से सन्तान उत्पन्न करने के लिए नियुक्त कर दे।


69. यदि किसी युवती का (भावी) पति मौखिक रूप से प्रतिज्ञा करने के बाद मर जाए, तो उसका देवर निम्नलिखित नियम के अनुसार उससे विवाह करेगा।


70. नियम के अनुसार, यदि कोई स्त्री श्वेत वस्त्र पहने और पवित्रता का ध्यान रखे, तो उसे विवाह करने के बाद, प्रत्येक उचित ऋतु में एक बार उसके पास जाना चाहिए, जब तक कि सन्तान न हो जाए।


71. कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपनी बेटी को एक व्यक्ति को देने के बाद उसे दूसरे को न दे; क्योंकि जो व्यक्ति अपनी बेटी को, जिसे उसने पहले दिया था, किसी अन्य व्यक्ति को दे देता है, वह मनुष्य के विषय में झूठ बोलने का दोषी बनता है।


72. (चाहे कोई पुरुष किसी लड़की को उचित रूप में स्वीकार कर ले, परन्तु यदि वह दोषयुक्त, रोगी, कौमार्यविहीन हो, या धोखे से दी गई हो, तो वह उसे त्याग सकता है।)


73. यदि कोई व्यक्ति किसी दोषयुक्त कन्या को बिना बताए दे दे, तो (दूल्हा) दुष्ट दाता के साथ अपना अनुबंध रद्द कर सकता है।


74. जो व्यक्ति विदेश में व्यापार करता है, वह अपनी पत्नी के लिए भरण-पोषण का प्रबंध करके ही देश छोड़ सकता है; क्योंकि यदि पत्नी निर्वाह के अभाव में व्याकुल हो जाए, तो वह पतित हो सकती है, चाहे वह कितनी भी गुणवान क्यों न हो।


75. यदि पति अपनी पत्नी की देखभाल करके यात्रा पर चला जाए तो पत्नी को अपने दैनिक जीवन में संयम रखना चाहिए, किन्तु यदि पति उसकी देखभाल किए बिना चला जाए तो पत्नी निर्दोष शारीरिक श्रम करके अपना जीवन निर्वाह कर सकती है।


76. यदि पति किसी पवित्र कार्य के लिए विदेश गया हो तो स्त्री को आठ वर्ष तक उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए, यदि वह विद्या या यश प्राप्ति के लिए गया हो तो छः वर्ष तक, तथा यदि वह भोग-विलास के लिए गया हो तो तीन वर्ष तक।


77. पति अपनी पत्नी से जो उससे घृणा करती हो, एक वर्ष तक सहता रहे, किन्तु एक वर्ष के पश्चात् वह उस पत्नी से उसकी सम्पत्ति छीन ले और उसके साथ सहवास न करे।


78. जो स्त्री किसी कामातुर, शराबी या रोगी पति का अनादर करती है, उसे तीन महीने तक परित्यक्त रखा जाएगा तथा उसके आभूषण और सामान छीन लिए जाएंगे।


79. किन्तु जो स्त्री पागल, बहिष्कृत, नपुंसक, पुरुषत्वहीन या अपराध के दण्ड देने वाले रोगों से पीड़ित से घृणा करती हो, वह न तो त्यागी जाए और न अपनी सम्पत्ति से वंचित की जाए।


80. जो स्त्री मादक मदिरा पीती है, बुरे आचरण वाली है, विद्रोही है, रोगी है, दुराचारी है, या अपव्ययी है, वह कभी भी दूसरी पत्नी से परित्यक्त हो सकती है।


81. बांझ स्त्री को आठवें वर्ष में, जिसके सभी बच्चे दसवें वर्ष में मर जाएं, जिसके केवल पुत्री ही उत्पन्न हुई हो, तथा जो झगड़ालू हो, उसे भी अविलम्ब त्याग देना चाहिए।


82. किन्तु जो स्त्री रोगी हो और जिसका आचरण अच्छा हो, वह अपनी इच्छा से ही पति से अलग की जा सकती है और उसे कभी अपमानित नहीं किया जाना चाहिए।


83. जो पत्नी, पति द्वारा अपमानित होने पर, क्रोध में आकर घर से चली जाए, उसे या तो तुरन्त बन्द कर देना चाहिए या परिवार के सामने ही त्याग देना चाहिए।


84. किन्तु जो स्त्री, मना किये जाने पर भी, उत्सवों में भी मदिरा पीती है, या सार्वजनिक तमाशा या सभा में जाती है, उस पर छः कृष्णल का जुर्माना लगाया जाएगा।


85. यदि द्विज पुरुष अपनी तथा अन्य (निम्न जाति) की स्त्रियों से विवाह करें, तो उन (स्त्रियों) की वरिष्ठता, सम्मान तथा निवास स्थान वर्ण के क्रम के अनुसार निश्चित किया जाना चाहिए।


86. समस्त (द्विज पुरुषों) में केवल समान जाति की पत्नी ही, किसी भी प्रकार से भिन्न जाति की पत्नी नहीं, अपने पति के पास स्वयं उपस्थित रहेगी तथा उसके दैनिक पवित्र अनुष्ठानों में उसकी सहायता करेगी।


परन्तु जो मनुष्य समान कुल की अपनी पत्नी के जीवित रहते हुए मूर्खतापूर्वक उस कर्तव्य को दूसरे से करवाता है, वह प्राचीन लोगों द्वारा ब्राह्मण कुल में उत्पन्न कण्डल के समान नीच बताया गया है।


88. पिता को चाहिए कि अपनी पुत्री को समान कुल के सुप्रतिष्ठित सुन्दर वर को विधिपूर्वक दे दे, चाहे वह अभी योग्य आयु की न हुई हो।


89. (किन्तु) कन्या को, चाहे वह विवाह योग्य हो, मृत्युपर्यन्त अपने पिता के घर में ही रहना अधिक अच्छा है, बजाय इसके कि पिता उसे किसी सद्गुणहीन पुरुष को दे दे।


90. यदि कन्या विवाह योग्य हो तो उसे तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करनी चाहिए, परन्तु उसके बाद उसे अपने लिए समान जाति और पद का वर चुनना चाहिए।


91. यदि वह स्वयं विवाह योग्य न होकर पति चाहती है, तो न तो वह दोषी है, और न वह व्यक्ति दोषी है, जिससे उसने विवाह किया है।


92. जो कन्या अपने लिए चाहे, वह अपने पिता, माता या भाई द्वारा दिया गया कोई आभूषण अपने साथ न ले जाए; यदि वह उसे ले जाए तो वह चोरी मानी जाएगी।


93. किन्तु जो व्यक्ति विवाह योग्य कन्या से विवाह करे, वह उसके पिता को विवाह-शुल्क न दे; क्योंकि उसके शत्रुओं को रोकने के कारण पिता उस कन्या पर अपना आधिपत्य खो देगा।


94. तीस वर्ष की आयु का पुरुष बारह वर्ष की कन्या से विवाह करेगा जो उसे अच्छी लगे, अथवा चौबीस वर्ष का पुरुष आठ वर्ष की कन्या से विवाह करेगा; यदि उसके कर्तव्यों के पालन में बाधा उत्पन्न होती हो, तो उसे शीघ्र विवाह करना होगा।


95. पति अपनी पत्नी को देवताओं से प्राप्त करता है, (वह उससे विवाह नहीं करता) अपनी इच्छा से; देवताओं को जो अच्छा लगे वही करते हुए, (जब तक वह पतिव्रता है) उसे सदैव उसका साथ देना चाहिए।


96. माता बनने के लिए स्त्रियों को बनाया गया है और पिता बनने के लिए पुरुषों को; इसलिए वेद में धार्मिक अनुष्ठानों को पत्नी के साथ मिलकर करने का आदेश दिया गया है।


97. यदि किसी कन्या के लिए विवाह शुल्क चुका दिए जाने के पश्चात शुल्क देने वाले की मृत्यु हो जाए, तो यदि वह सहमत हो तो उसका विवाह उसके भाई से कर दिया जाएगा।


98. शूद्र को भी अपनी पुत्री का दान करते समय विवाह शुल्क नहीं लेना चाहिए; क्योंकि जो शुल्क लेता है, वह अपनी पुत्री को बेचकर (दूसरे नाम से) विवाह शुल्क चुकाता है।


99. न तो प्राचीन और न ही आधुनिक लोग जो अच्छे आदमी थे, उन्होंने ऐसा (काम) किया है कि, एक आदमी को (एक बेटी) देने का वादा करने के बाद, उन्होंने उसे दूसरे के साथ कर दिया;


100. न ही हमने पूर्व सृष्टि में कभी किसी निश्चित मूल्य पर पुत्री की गुप्त बिक्री, जिसे विवाह शुल्क कहते हैं, के विषय में सुना है।


101. 'परस्पर निष्ठा मृत्युपर्यन्त बनी रहे', इसे पति-पत्नी के लिए सर्वोच्च नियम का सारांश माना जा सकता है।


102. विवाहित पुरुष और स्त्री को निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए, जिससे वे एक दूसरे से अलग न हो जाएं और अपनी आपसी निष्ठा को भंग न करें।


103. पति-पत्नी के लिए जो व्यवस्था है, वह तुम्हें इस प्रकार बताई गई है, जिसका सम्बन्ध दाम्पत्य सुख से है, और यह भी कि विपत्ति के समय सन्तान का पालन-पोषण कैसे किया जाए। अब तुम सम्पत्ति के बँटवारे के विषय में भी व्यवस्था सीखो।


104. पिता और माता की मृत्यु के पश्चात् भाई इकट्ठे होकर पैतृक (और मातृ) सम्पत्ति को आपस में बराबर-बराबर बाँट सकते हैं, क्योंकि माता-पिता के जीवित रहते हुए उनका उस पर कोई अधिकार नहीं होता।


105. (अथवा) बड़ा भाई ही पिता की सारी सम्पत्ति ले ले, बाकी लोग उसके अधीन रहेंगे, जैसे वे अपने पिता के अधीन रहते थे।


106. अपने पहले बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही मनुष्य पुत्र का पिता बन जाता है और पितृऋण से मुक्त हो जाता है; अतः वह पुत्र सम्पूर्ण सम्पत्ति पाने का अधिकारी है।


107. केवल वही पुत्र, जिस पर वह अपना ऋण डाल देता है और जिसके द्वारा उसे अमरता प्राप्त होती है, धर्म के पालन के लिए उत्पन्न होता है; शेष सब को वे वासना की सन्तान मानते हैं।


108. जैसे पिता अपने बेटों का पालन-पोषण करता है, वैसे ही बड़ा भाई अपने छोटे भाइयों का पालन-पोषण करे और वे भी अपने बड़े भाई के साथ नियम के अनुसार बेटे जैसा व्यवहार करें।


109. ज्येष्ठ (पुत्र) कुल को समृद्ध बनाता है अथवा, इसके विपरीत, उसे नष्ट कर देता है; पुरुषों में ज्येष्ठ (पुत्र) को सबसे अधिक सम्माननीय माना जाता है, ज्येष्ठ का गुणवान व्यक्ति अनादर नहीं करता।


110. यदि बड़ा भाई बड़े भाई के समान आचरण करे तो उसके साथ माता और पिता के समान व्यवहार करना चाहिए; किन्तु यदि वह बड़े भाई के अयोग्य आचरण करे तो भी उसे स्वजन के समान सम्मान देना चाहिए।


111. यदि वे दोनों पुण्य प्राप्त करना चाहते हों तो वे दोनों एक साथ रहें या अलग-अलग रहें; क्योंकि अलग-अलग रहने से पुण्य बढ़ता है, इसलिए अलग रहना पुण्यप्रद है।


112. सबसे बड़े के लिए अतिरिक्त हिस्सा (कटौती) संपत्ति का बीसवां हिस्सा होगा और सभी संपत्तियों में से सबसे अच्छी संपत्ति का बीच का आधा हिस्सा होगा, लेकिन सबसे छोटे के लिए एक चौथाई हिस्सा होगा।


113. सबसे बड़े और सबसे छोटे दोनों को अपना-अपना हिस्सा मिलेगा, जैसा कि पहले कहा गया है। सबसे बड़े और सबसे छोटे के बीच जो लोग हैं, उनमें से प्रत्येक को बीच वाले के लिए निर्धारित हिस्सा मिलेगा।


114. हर प्रकार की वस्तुओं में से सबसे बड़ा व्यक्ति सबसे अच्छी वस्तु लेगा, और (एक भी वस्तु) जो विशेष रूप से अच्छी हो, साथ ही दस पशुओं में से सबसे अच्छी वस्तु लेगा।


115. परन्तु अपने-अपने काम में समान रूप से कुशल भाइयों में से दस भाइयों में से कोई अतिरिक्त हिस्सा नहीं होगा, केवल कुछ छोटा हिस्सा सम्मान के प्रतीक के रूप में सबसे बड़े को दिया जाएगा।


116. यदि अतिरिक्त अंश इस प्रकार काटे जाएं तो शेष राशि में से प्रत्येक को समान अंश आवंटित करना होगा; किन्तु यदि कोई कटौती नहीं की जाती है तो उनके बीच अंशों का आवंटन निम्नलिखित तरीके से किया जाएगा।


117. सबसे बड़ा बेटा एक हिस्सा ज़्यादा ले, उसके बाद पैदा हुआ भाई डेढ़ हिस्सा ले, और छोटे बेटे एक-एक हिस्सा लें; इस तरह क़ानून तय हो गया।


118. परन्तु कुंवारी बहनों को भाई अपने-अपने हिस्से में से अलग-अलग 

मान चित्र परिचय

 

मानचित्र परिचय 

सतीश शर्मा 

पृथ्वी के सतह के किसी भाग के स्थानों, नगरों, देशों, पर्वत, नदी आदि की स्थिति को पैमाने की सहायता से कागज पर लघु रूप में बनाना मानचित्रण कहलाता हैं। मानचित्र दो शब्दों मान और चित्र से मिल कर बना है जिसका अर्थ किसी माप या मूल्य को चित्र द्वारा प्रदर्शित करना है।

भारत की पारम्परिक सीमा "त्रिविष्टप" (तिब्बत) भारत के उत्तर में रही है। कैलाश मानसरोवर, गान्धार, कश्यप-सागर (कैस्पियन सागर), बर्मा (ब्रह्मदेश), श्रीलंका, ईरान (आर्यान), अफगानिस्तान (उप गणस्थान) आदि भारत के अंग रहे हैं।

वृहत्तर भारत की सीमाएं- दक्षिण में हिन्दु महासागर और पूर्व में ब्रह्मदेश, श्याम, काम्बोज, द्वारावती (सुमात्रा), स्वर्ण दीप (बोर्नियो), सिंह द्वीप आदि । हिन्दु एशिया (इण्डोनेशिया) पश्चिम में यूनान तक महाभारत का विस्तार । समस्त पृथ्वी पर चक्रवर्तियों का शासन (धर्मानुशासन)। महाभारत के युद्ध (जनमेजय) के बाद चक्रवर्ती प्रथा समाप्त। भारत की सीमायें क्रमश: संकुचित । बुद्ध के पश्चात् सैनिक तैयारियाँ और जागरुकता भी बन्द । चन्द्रगुप्त मौर्य को फिर से दहेज में गान्धार मिला परन्तु अरब आक्रमण के बाद गान्धार अफगानिस्तान बना। अँग्रेजों के ‘भारत-साम्राज्य' में बलोचिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका, बर्मा (ब्रह्मदेश) और मलाया का एक भाग भारत का ही अंग माना जाता था।

 भारत से टूटकर बने है यह 15 देश , इतिहास जानिए:-

भारत को पहले अखण्ड भारत कहते थे | क्यूंकि भारत पुरे विश्व में बहुत बड़ा था | समय के साथ यहाँ के बटवारे होते गए | आपको यह जानकर हैरानी होगी | भारत से ही 15 देशों का जन्म हुआ |

यह कैसे हुआ | यह 15 देश कौन से है | यह जानिए --

ईरान : जब भारत से आर्यन ईरान में बलुचिस्थान में पहुंचे | तब वहाँ बस गए | उसी से इसका नाम इरयाना पड़ा |उसके बाद अरबो ने यहाँ आक्रमण किया | साथ ही यह बस गए | तब इसका नाम ईरान पड़ा।

कम्बोडिया : प्रथम शताब्दी में कम्बोडि नामक भरतीय ब्राह्मण ने इस देश में हिन्दू राज की स्थापना की | इसी से इसका नाम कम्बोडिया पड़ा| बाद में यह स्वतंत्र देश हो गया।

वियतनाम : इस देश का नाम पहले चम्पा था | यह भारत का एक अंग था | 1825 में चम्पा में हिन्दुराज समाप्त हुआ | यह एक अलग देश बना।

मलेशिया : यहाँ बोध धर्म भारतीयों ने स्थापित किया | यह देश भारतीय संस्कृति के लिए मशहूर था | 1948 में अंग्रेजों से आजाद होकर यह अलग देश बना।

इंडोनेशिया : यह भारत का संपन्न देश था | यहाँ हिन्दू कम रह गए | फिर यह एक अलग मुस्लिम देश बना | परन्तु यहाँ आज भी राम मंदिर है | जहाँ मुस्लिम पूजा करते है।

फिलिपींस : मुसलमानो ने आक्रमण कर यहाँ अपना राज जमा लिया । फिर यह अलग देश बना ,परन्तु आज भी यहाँ हिन्दू रीती रिवाज अपनाये जाते है।

अफगानिस्तान : यह भारत का एक अंग था । यहाँ हिंदू राजा अम्बी का राज था | जिसने सिकंदर से संधि कर उसे यह राज्य दिया था | महाभारत के शकुनि और गंधारी यहाँ कन्दरि के थे | इस्लाम के बाद यह भारत से सांस्कृतिक रूप से भी अलग देश बन गया ।1876

नेपाल : यह भारत का एक अंग था | इसका एकीकरण एक गोरखे ने किया | महात्मा बुद्ध यही राजवंश के थे |1904

भूटान : यह पहले भारत के भद्रदेश से जाना जाता था | हमारे ग्रंथो में इस देश का उल्लेख है | 1906 में इसे एक संपन्न राज्य घोषित कर दिया।

तिब्बत : हमारे ग्रंथो में त्रिविशिस्ट के नाम से इसका नाम है | भारतीय शासको को हराकर चीन ने इसे अपने में मिला लिया।1914

श्रीलंका : इसका नाम ताम्रपानी था | पहले पुर्तगाली , फिर अंग्रेजो ने यहाँ अधिकार किया | 1937 में अंग्रेजो ने इसे भारत से अलग कर दिया।

म्यांमार : इसका पहले नाम बर्मा था | यहाँ का प्रथम राजा वाराणसी का राजकुमार था | 1852 में अंग्रेजो ने यह अधिकार किया | 1937 में इसे भारत से अलग कर दिया।

पाकिस्तान : यहाँ आज़ादी के बाद बहुत से हिन्दू मंदिर तोड़ दिए गए थे | सभी जानते है | यह भारत से अलग हुआ देश है।1947

बांग्लादेश : यह देश भी 15 अगस्त से पहले भारत का अंग था | फिर यह पूर्वी पाकिस्तान का अंग बना | 1971 में भारतीय फ़ौज ने इसे पाकिस्तान से अलग कराया |

थाईलैंड : इसका प्राचीन भारतीय नाम श्यामदेश था | पहले यहाँ हिन्दू राजस्व था | बाद में यहाँ बोध प्रचार हुआ। |[

 मुख्य शहर 

काशी ,कांची ,आव्न्तिका ,वैशाली ,गया ,जगन्नाथ पुरी ,विजय नगर ,पाटलिपुत्र ,प्रयागराज,अम्रतसर ,सोमनाथ ,तक्षशिला, ,द्वरिका ,इन्द्रप्रस्थ,हरिद्वार,अयोध्या,मथुरा-वृंदावन,नासिक,चित्रकूट,रामेश्वरम 

मुख्य नगर स्थान 

अयोध्या- मान्यता है कि इस नगर को मनु ने बसाया था और इसे 'अयोध्या' का नाम दिया जिसका अर्थ होता है अ-योध्या अर्थात् 'जिसे युद्ध के द्वारा प्राप्त न किया जा सके। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ७वीं शताब्दी में यहाँ आया था। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे। यह नगरी सप्त पुरियों में से एक है-

द्वारका - भारत के गुजरात राज्य के देवभूमि द्वारका ज़िले में स्थित एक प्राचीन नगर और नगरपालिका है। द्वारका गोमती नदी और अरब सागर के किनारे ओखामंडल प्रायद्वीप के पश्चिमी तट पर बसा हुआ है। यह हिन्दुओं के चारधाम में से एक है और सप्तपुरी में से भी एक है। यह श्रीकृष्ण के प्राचीन राज्य द्वारका का स्थल है और गुजरात की सर्वप्रथम राजधानी माना जाता है।

काशी - विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया।

कांची पल्लवों की राजधानी थी, जिन्होंने उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक फैले क्षेत्र पर शासन किया था। पल्लवों ने शहर को प्राचीर, खंदक आदि से किलेबंद किया, जिसमें चौड़ी और अच्छी सड़कें और सुंदर मंदिर थे।

 उज्जैन- स्कन्द पुराण के 28वें अध्याय में उल्लेख है कि इस नगर के अधिष्ठाता देव महादेव ने त्रिपुरी के शक्तिशाली राक्षस अंधकासुर को पराजित कर विजय प्राप्त की। अतः स्मृति स्वरूप उज्जयिनी नाम रखा गया। उज्जयिनी अवन्ति जनपद की महत्वपूर्ण नगरी थी; जो कालान्तर में राजधानी बन गई। इसी कारण अवन्तिका अवन्तिपुरी के नाम से विख्यात हो गई।(उज्जैन)

हरिद्वार - उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। 3139 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से 253 किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है।

मथुरा - भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में स्थित एक नगर है। मथुरा ऐतिहासिक रूप से कुषाण राजवंश द्वारा राजधानी के रूप में विकसित नगर है। उससे पूर्व भगवान कृष्ण के समय काल से भी पूर्व अर्थात लगभग 7500 वर्ष से यह नगर अस्तित्व में है.यह धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। मथुरा भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। भारतीय धर्म, दर्शन कला एवं साहित्य के निर्माण तथा विकास में मथुरा का महत्त्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। आज भी महाकवि सूरदास, संगीत के आचार्य स्वामी हरिदास, स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद, चैतन्य महाप्रभु आदि से इस नगरी का नाम जुड़ा हुआ है। मथुरा को श्रीकृष्ण जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है

रामेश्वरम - जिसे तमिल लहजे में "इरोमेस्वरम" भी कहा जाता है, भारत के तमिल नाडु राज्य के रामनाथपुरम ज़िले में एक तीर्थ नगर है, जो हिन्दू धर्म के पवित्रतम चार धाम तीर्थस्थलों में से एक है। यह रामेश्वरम द्वीप पर स्थित है, जो भारत की मुख्यभूमि से पाम्बन जलसन्धि द्वारा अलग है और श्रीलंका के मन्नार द्वीप से 40 किमी दूर है। भौगोलिक रूप से यह मन्नार की खाड़ी पर स्थित है। चेन्नई और मदुरई से रेल इसे पाम्बन पुल द्वारा मुख्यभूमि से जोड़ती है। रामायण की घटनाओं में रामेश्वरम की बड़ी भूमिका है। यहाँ श्रीराम ने भारत से लंका तक का राम सेतु निर्माण करा था, ताकि सीता की सहायता के लिए रावण के विरुद्ध आक्रमण करा जा सके। यहाँ श्रीराम ने शिव की उपासना करी थी और आज नार के केन्द्र में खड़ा शिव मन्दिर उशी घटनाक्रम से समबन्धित है। नगर और मन्दिर दोनों शिव व विष्णु भक्तों के लिए श्रद्धा-केन्द्र हैं।

नासिक - या नाशिक भारत के महाराष्ट्र राज्य के नाशिक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय और महाराष्ट्र का चौथा सबसे बड़ा नगर है। नाशिक गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है। यह महाराष्ट्र के उत्तर पश्चिम में, मुम्बई से 150 किमी और पुणे से 205 किमी की दुरी में स्थित है। यह शहर प्रमुख रूप से हिन्दू तीर्थयात्रियों का प्रमुख केन्द्र है। इस शहर का सबसे प्रमुख भाग पंचवटी है। इसके अलावा यहां बहुत से मंदिर भी है। नाशिक में त्योहारों के समय में बहुत अधिक संख्या में भीड़ दिखाई पड़ती है।

जगन्नाथ पुरी - भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी ज़िले में बंगाल की खाड़ी से तटस्थ एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। पुरी भारत के चार धाम में से एक है और यहाँ 12वीं शताब्दी के जगन्नाथ मन्दिर स्थित होने के कारण इसे श्री जगन्नाथ धाम भी कहा जाता है।

प्रयागराज - जिसका भूतपूर्व नाम इलाहाबाद था, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रमुख नगर है। यह प्रयागराज ज़िले का मुख्यालय है और हिन्दूओं का एक मुख्य तीर्थस्थल है। इसका प्राचीन नाम प्रयाग था। हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित प्रयाग स्थल पवित्रतम नदी गंगा और यमुना के संगम पर स्थित है।

पाटलिपुत्र- बिहार की राजधानी पटना का पुराना नाम पाटलिपुत्र,कुसुमपुर,पुष्पपुरी और अजिमावाद था। पवित्र गंगा नदी के दक्षिणी तट पर बसे इस शहर को लगभग 2000 वर्ष पूर्व पाटलिपुत्र के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से अब पटना में एक रेलवे स्टेशन भी है। पाटलिपुत्र अथवा पाटलिपुत्र प्राचीन समय से ही भारत के प्रमुख नगरों में गिना जाता था। पाटलिपुत्र वर्तमान में पटना को ही कहा जाता हैं। इतिहास के अनुसार, सम्राट अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदयिन ने अपनी राजधानी को राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानांतरित किया और बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य ने यहां साम्राज्य स्थापित कर अपनी राजधानी बनाई। बाद में, शेर शाह सूरी (1538-1545) ने पाटलिपुत्र को पुनर्जीवित किया,[4] जो 7 वीं शताब्दी सीई के बाद से गिरावट में था, और इसका नाम पटना रखा।

अमृतसर - जिसका ऐतिहासिक नाम रामदासपुर और जिसे आम बोलचाल में अम्बरसर कहा जाता है, भारत के पंजाब राज्य का (लुधियाना के बाद) दूसरा सबसे बड़ा नगर है और अमृतसर ज़िले का मुख्यालय है। यह पंजाब के माझा क्षेत्र में है और एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, धार्मिक, यातायात और आर्थिक केन्द्र है। यह सिख धर्म का सबसे पवित्र नगर है और यहाँ सबसे बड़ा गुरद्वारा, स्वर्ण मंदिर, स्थित है। स्वर्ण मंदिर अमृतसर का हृदय माना जाता है। यह गुरू रामदास का डेरा हुआ करता था। अमृतसर चण्डीगढ़ से 217 किमी 

कांची - कांचीपुरम उत्तरी तमिलनाडु के प्राचीन व मशहूर शहरों में से एक है। कांचीपुरम को दक्षिण की काशी भी कहा जाता है। यह मद्रास से 45 मील की दूरी पर दक्षिण–पश्चिम में स्थित है। कांचीपुरम को पूर्व में कांची कहा जाता था और अब यह कांचीवरम के नाम से भी प्रसिद्ध है। कांचीपुरम को भारत के सात पवित्र शहरों में से एक का दर्जा मिला हुआ है। इसलिए यहाँ साल भर श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है।

तक्षशिला - वर्तमान समय में तक्षशिला, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले की एक तहसील तथा महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है जो इस्लामाबाद और रावलपिण्डी से लगभग 32 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है

इंद्रप्रस्थ - को केवल महाभारत से ही नहीं जाना जाता है। पाली -भाषा के बौद्ध ग्रंथों में इसका उल्लेख इंद्रपट्ट या इंद्रपट्टन के रूप में भी किया गया है, जहां इसे कुरु साम्राज्य की राजधानी के रूप में वर्णित किया गया है, जो यमुना नदी पर स्थित है। बौद्ध साहित्य में हथिनीपुरा (हस्तिनापुर) और कुरु साम्राज्य के कई छोटे शहरों और गांवों का भी उल्लेख है। इंद्रप्रस्थ ग्रीको-रोमन दुनिया के लिए भी जाना जा सकता है ऐसा माना जाता है कि दूसरी शताब्दी सीई से टॉलेमी के भूगोल में इसका उल्लेख "इंदबारा" शहर के रूप में किया गया है, जो संभवतः प्राकृत से लिया गया है।"इंदबत्ता" के रूप में, और जो शायद दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में था। उपिंदर सिंह (2004) इंद्रप्रस्थ के साथ इंदबारा के इस समीकरण को प्रशंसनीय बताते हैं। नई दिल्ली के रायसीना क्षेत्र में खोजे गए 1327 सीई के एक संस्कृत शिलालेख में इंद्रप्रस्थ को दिल्ली क्षेत्र के एक प्रतिगण (जिला) के रूप में भी नामित किया गया है।

सोमनाथ - गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बन्दरगाह में स्थित इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट है। यह मन्दिर हिन्दू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक रहा है।

चित्रकूट धाम - भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के चित्रकूट जिले में स्थित एक शहर है। यह उस जिले का मुख्यालय भी है। यह बुन्देलखण्ड क्षेत्र मे स्थित है और बहुत सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और पुरातात्विक महत्व रखता है। चित्रकूट भगवान राम की कर्म भूमि है। भगवान राम ने वनवास के 11 वर्ष चित्रकूट मे बिताये थे।

गया - भारत के बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय और बिहार राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इस क्षेत्र के लोग मगही भाषा बोलते हैं और गया भारत के अतंरराष्ट्रीय पर्यटक स्थलों मे से एक हैं यहाँ पर विदेशी पर्यटकों लाखों की संख्या मे आते हैंइस नगर का हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों में गहरा ऐतिहासिक महत्व है। शहर का उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। गया तीन ओर से छोटी व पत्थरीली पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम मंगला-गौरी, श्रृंग स्थान, रामशिला और ब्रह्मयोनि हैं। नगर के पूर्व में फल्गू नदी बहती है

वैशाली - दुनिया में पहली गणराज्य होने का विश्वास, वैशाली ने महाभारत काल के राजा विशाल से अपना नाम लिया है। कहा जाता है कि वह यहां एक महान किला का निर्माण कर रहा है, जो अब खंडहर में है। वैशाली एक महान बौद्ध तीर्थ है और भगवान महावीर के जन्मस्थान भी है। ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध ने तीन बार इस जगह का दौरा किया और यहां काफी समय बिताया। बुद्ध ने वैशाली में अपना आखिरी प्रवचन भी दिया और यहां अपने निर्वाण की घोषणा की। उनकी मृत्यु के बाद, वैशाली ने दूसरी बौद्ध परिषद भी आयोजित की।

मुख्य नदी - 

गंगा ,गंगा भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर 2525 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई उत्तराखंड में हिमालय के गंगोत्री हिमनद के गोमुख स्थान से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक भारत की मुख्य नदी के रूप में विशाल भू-भाग को सींचती है।

यमुना-यमुना भारत की एक नदी है। यह गंगा नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है जो यमुनोत्री नामक जगह से निकलती है और प्रयाग में गंगा से मिल जाती है। इसकी प्रमुख सहायक नदियों में चम्बल, सेंगर, छोटी सिन्धु, बेतवा और केन उल्लेखनीय हैं। यमुना के तटवर्ती नगरों में दिल्ली और आगरा के अतिरिक्त इटावा, कालपी, हमीरपुर और प्रयाग मुख्य है। ,

सरस्वती यह सिंधु घाटी सभ्यता से पहले की संस्कृति है और सिंधु घाटी सभ्यता में भी जारी रही. ऐसा अनुमान है कि 900 BC में सरस्वती सूखने लगी. यह नदी आदिबद्री (देहरादून के नजदीक) और राजस्थान, गुजरात से बहते हुए अरब सागर में जाकर गिरती थीइसे प्लाक्ष्वती, वेद्समृति, वेदवती भी कहते है! ऋग्वेदमें सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी।

,सिधु-सिन्धु नदी एशिया की सबसे लम्बी नदियों में से एक है। यह पाकिस्तान, भारत और चीन के माध्यम से बहती है। सिन्धु नदी का उद्गम स्थल, तिब्बत के मानसरोवर के निकट सिन-का-बाब नामक जलधारा माना जाता है। इस नदी की लम्बाई प्रायः 3610 किलोमीटर है। यहाँ से यह नदी तिब्बत और कश्मीर के बीच बहती है

ब्रहमपुत्र - ब्रह्मपुत्र भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। यह तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। ब्रह्मपुत्र का उद्गम हिमालय के उत्तर में तिब्बत के पुरंग जिले में स्थित मानसरोवर झील के निकट होता है, जहाँ इसे यरलुङ त्सङ्पो कहा जाता है। तिब्बत में बहते हुए यह नदी भारत के अरुणांचल प्रदेश राज्य में प्रवेश करती है।2,900 km,

गण्डकी - गण्डकी नदी, नेपाल और बिहार में बहने वाली एक नदी है जिसे बड़ी गंडक या केवल गंडक भी कहा जाता है। इस नदी को नेपाल में सालिग्रामि या सालग्रामी और मैदानों मे नारायणी और सप्तगण्डकी कहते हैं। यूनानी के भूगोलवेत्ताओं की कोंडोचेट्स तथा महाकाव्यों में उल्लिखित सदानीरा भी यही है।८१४ ,

कावेरी - कावेरी कर्नाटक तथा उत्तरी तमिलनाडु में बहनेवाली एक सदानीरा नदी है। यह पश्चिमी घाट के पर्वत ब्रह्मगिरीसे निकली है। इसकी लम्बाई प्रायः 760 किलोमीटर है। दक्षिण पूर्व में प्रवाहित होकर कावेरी नदी बंगाल की खाड़ी में मिली है। सिमसा, हेमावती, भवानी इसकी उपनदियाँ है।,

महानदी - छत्तीसगढ़ तथा ओड़िशा अंचल की सबसे बड़ी नदी है। प्राचीनकाल में महानदी का नाम चित्रोत्पला था। महानन्दा एवं नीलोत्पला भी महानदी के ही नाम हैं। महानदी का उद्गम रायपुर के समीप धमतरी जिले में स्थित सिहावा नामक पर्वत श्रेणी से हुआ है। महानदी का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की तरफ है। ,

रेवा-नर्मदा नदी - जिसे स्थानीय रूप से कही-कही रेवा नदी भी कहा जाता है, भारत के 5वीं सबसे लम्बी नदी और पश्चिम-दिशा में बहने वाली सबसे लम्बी नदी है। यह मध्य प्रदेश राज्य की भी सबसे बड़ी नदी है। नर्मदा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बहती है।१३१२ ,

गोदा,गोदावरी नदी - भारत के प्रायद्वीपीय भाग की एक प्रमुख नदी है। यह नदी दूसरी प्रायद्वीपीय नदियों में से सबसे बड़ी नदी है। इसे दक्षिण गंगा भी कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति पश्चिमी घाट में त्रयंबक पहाड़ी से हुई है। यह महाराष्ट्र में नाशिक ज़िले से निकलती है। इसकी लम्बाई प्रायः 1465 किलोमीटर है। इस नदी का पाट बहुत बड़ा है।

मुख्य पर्वत -

हिमालय,महेंद्र पर्वत उड़ीसा, मलयगिरि पर्वत मैसूर, सह्याद्रि पर्वत पश्चिमी घाट, रैवतक सौराष्ट्र मे गिरनार, विंध्यांचल तथा अरावली राजस्थान 

मुख्य सरोवर पञ्च सरोवर 

१. पम्पा सरोवर (कर्नाटक), २. मानसरोवर (तिब्बत). ३. पुष्कर सरोवर (राजस्थान), ४. बिन्दु सरोवर (गुजरात), ५. नारायण सरोवर (गुजरात)। 

चार मठ 

हिंदू धर्म का संत समाज शंकराचार्य द्वारा नियुक्त चार मठों के अधीन है। हिंदू धर्म की एकजुटता और व्यवस्था के लिए चार मठों की परंपरा को जानना आवश्यक है।

चार मठों से ही गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता है। चार मठों के संतों को छोड़कर अन्य किसी को गुरु बनाना हिंदू संत धारा के अंतर्गत नहीं आता।

आदिशंकराचार्यजी ने जो चारपीठ स्थापित किये,उनके काल निर्धारण में उत्थापित की गई भ्रांतियाँ--

1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ स्थापना-युधिष्ठिर संवत् (Y.S.) 2641-2645

2. पश्चिम में द्वारिकाशारदा पीठ- यु.सं.(Y.S.) 2648

3.दक्षिण शृंगेरीपीठ- 2648 Y.S.

4. पूर्व दिशा जगन्नाथपुरीगोवर्द्धन पीठ2655 Y.S.

शंकराचार्य जी ने इन मठों की स्थापना के साथ-साथ उनके मठाधीशों की भी नियुक्ति की, जो बाद में स्वयं शंकराचार्य कहे जाते हैं। जो व्यक्ति किसी भी मठ के अंतर्गत संन्यास लेता हैं वह दसनामी संप्रदाय में से किसी एक सम्प्रदाय पद्धति की साधना करता है। ये चार मठ निम्न हैं:-

श्रृंगेरी मठ - श्रृंगेरी मठ भारत के दक्षिण में चिकमंगलुुुर में स्थित है।श्रृंगेरी मठ के अन्तर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद सरस्वती, भारती तथा पुरी सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है।

इस मठ का महावाक्य 'अहं ब्रह्मास्मि' है तथा मठ के अन्तर्गत 'यजुर्वेद' को रखा गया है। इस मठ के प्रथम मठाधीश आचार्य सुरेश्वरजी थे, जिनका पूर्व में नाम मण्डन मिश्र था।वर्तमान में स्वामी भारती कृष्णतीर्थ इसके 36वें मठाधीश हैं।

गोवर्धन मठ - गोवर्धन मठ भारत के पूर्वी भाग में ओडिशा राज्य के जगन्नाथ पुरी में स्थित है। गोवर्धन मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले सन्यासियों के नाम के बाद 'वन' व 'आरण्य' सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है।

इस मठ का महावाक्य है 'प्रज्ञानं ब्रह्म' तथा इस मठ के अंतर्गत 'ऋग्वेद' को रखा गया है। इस मठ के प्रथम मठाधीश आदि शंकराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपाद चार्य हुए। वर्तमान में निश्चलानन्द सरस्वती इस मठ के 145 वें मठाधीश हैं।

शारदा मठ - शारदा (कालिका) मठ गुजरात में द्वारकाधाम में स्थित है। शारदा मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले सन्यासियों के नाम के बाद 'तीर्थ' और 'आश्रम' सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है।

इस मठ का महावाक्य है 'तत्त्वमसि' तथा इसके अंतर्गत 'सामवेद' को रखा गया है। शारदा मठ के प्रथम मठाधीश हस्तामलक (पृथ्वीधर) थे। हस्तामलक शंकराचार्य जी के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे।हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे। वर्तमान में पश्चिमाम्नाय द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी सदानन्द सरस्वती जी इसके 80 वें मठाधीश हैं ।

ज्योतिर्मठ - उत्तरांचल के बद्रीनाथ में स्थित है ज्योतिर्मठ। ज्योतिर्मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद 'गिरि', 'पर्वत' एवं ‘सागर’ सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस मठ का महावाक्य 'अयमात्मा ब्रह्म' है। इस मठ के अंतर्गत अथर्ववेद को रखा गया है। ज्योतिर्मठ के प्रथम मठाधीश त्रोटकाचार्य बनाए गए थे। वर्तमान में "परमाराध्य" परमधर्माधीश अनन्तश्रीविभूषित जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामिश्री: अविमुक्तेश्वरानन्द सरस्वती महाराज '1008' जी इसके 53 वें मठाधीश हैं।

उक्त मठों तथा इनके अधीन उपमठों के अंतर्गत संन्यस्त संतों को गुरु बनाना या उनसे दीक्षा लेना ही हिंदू धर्म के अंतर्गत माना जाता है। यही हिंदुओं की संत धारा मानी गई है।

बद्रीनाथ में ज्योर्तिमठ, द्वारिका में शारदा मठ, जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ, मैसूर में शृंगेरीमठ ।

द्वादश ज्योतिर्लिंग - 

सोमनाथ (गुजरात), नागेश्वर अथवा नागनाथ (गुजरात), भीमशंकर (महाराष्ट्र), त्र्यंबकेश्वर (महाराष्ट्र), घुश्मेश्वर "घृष्णेश्वर" (महाराष्ट्र), महाकालेश्वर (मध्य प्रदेश), ओंकारेश्वर अथवा अमलेश्वर (मध्य प्रदेश), वैद्यनाथ (झारखण्ड), केदारनाथ (उत्तराखण्ड), विश्वनाथ (उत्तर प्रदेश), रामेश्वरम् (तमिलनाडु), मल्लिकार्जुन (आन्ध्र प्रदेश)।

देवी मां के 52 शक्तिपीठों की पूरी सूची

1. मणिकर्णिका घाट, वाराणसी, उत्तर प्रदेश,2. माता ललिता देवी शक्तिपीठ, प्रयागराज  

3. रामगिरी,

संघ स्थापना की पृष्ठभूमि

 


संघ स्थापना की पृष्ठभूमि


• संघ संस्थापक प.पू. डॉ. हेडगेवार जो अपने जीवन काल में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये चल रहे सामाजिक, धार्मिक, क्रान्तिकारी व राजनैतिक क्षेत्रों के सभी समकालीन संगठनों व आन्दोलनों से सम्बद्ध रहे। उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों का नेतृत्व भी किया। इन सभी के अध्ययन व मुल्यांकन के चाद उन्होंने राष्ट्र की परतन्त्रता के कारणों को सार रूप में प्रकट किया। उन्होंने राष्ट्र की अवनति के तीन प्रमुख कारण बताये।


१. आत्मविस्मृत समाज (समाज की आत्मविस्मृति) हिन्दुत्व की श्रेष्ठता, गौरवशाली अतीत, राष्ट्रीय एकात्मता व सामाजिक समरसता के भाव का विस्मरण।


२. आत्मकेन्द्रित व्यक्ति- समाज हित दुर्लक्षित, स्वार्थपरता, एकाकीभाव प्रभावी


३. सामूहिक अनुशासन का अभाव परिणाम विघटित समाज तथा परतन्त्र व खण्डित राष्ट्र।


मुस्लिम तथा ब्रिटिश आक्रमण व शासन के दुष्परिणाम -


प्रतिक्रियात्मक देशभक्ति का निर्माण (भावात्मक, स्वाभाविक, सकारात्मक (Positive) देश भक्ति की सम्यक् कल्पना का अभाव)।


आत्महीनता के भाव का होना- भाषा, शिक्षा, जीवन मूल्यों, महापुरुषों, इतिहास आदि के प्रति स्वाभिमान शून्यता बढ़ना। स्वयं को हिन्दु कहलाने में लज्जा का अनुभव होना।


राष्ट्रीयता की भ्रामक कल्पना - "देश का भाग्य हिन्दु के साथ जुड़ा है"


इस भाव का अभाव। स्वतन्त्रता प्राप्ति के आन्दोलनों के समय नेताओं में पूर्ण आत्मविश्वास की कमी। स्वतन्त्रता के लिये मुस्लिम समुदाय को साथ लेने के लिये राष्ट्रीयता के सिद्धान्त तथा मान बिन्दुओं को छोड़ने के साथ वन्दे मातरम् गीत को भी छोड़ना व खिलाफत आन्दोलन आदि ।


संगठन का अभाव - जिसके कारण विभिन्न आन्दोलनों का बीच में टूटना। मुट्ठी भर व्यक्तियों से देश की स्वतन्त्रता व समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं।


डॉक्टर जी की घोषणा भारत हिन्दु राष्ट्र है। शक्ति द्वारा ही सभी कार्य सम्भव शक्ति संगठन में। अतः संगठन व अनुशासन आवश्यक ।


उपाय - इसके लिये सम्पूर्ण देश को जागृत करना होगा। समाज के इन सभी दोषों को दूर करने के लिये डॉक्टर जी ने स्वाभिमानी, संस्कारित, अनुशासित, चरित्रवान, शक्तिसम्पन्न, विशुद्ध देशभक्ति से ओत-प्रोत, व्यक्तिगत अंहकार से मुक्त व्यक्तियों के ऐसे संगठन को आवश्यक समझा जो स्वतन्त्रता आन्दोलन की रीढ़ होने के साथ ही राष्ट्र व समाज पर आने वाली प्रत्येक विपत्ति का सामना भी कर सकेगा। इसी विचार में से संघ का कार्य प्रारम्भ हुआ तथा डॉक्टर जी ने संगठन के लिये शाखा रूपी अभिनव पद्धति को विकसित किया।


• हिन्दु समाज में नहीं अपितु सम्पूर्ण हिन्दु समाज का संगठन करना आवश्यक, इसके लिये विशेष गुणयुक्त स्वयंसेवक सर्वदूर तैयार हों, इसी के लिए राष्ट्री

य स्वयंसेवक संघ की स्थापना।


पंच परिवर्तन

 पंच परिवर्तन 

स्व आधारित जीवनशैली

अपने पूर्वजों, परंपरा, ज्ञान-संपदा पर गर्व करना। बुनियादी जानकारी के लिए घर पर आवश्यक सामग्री उपलब्ध होना।

हमारी जीवनशैली आधुनिक हो लेकिन पश्चिमी नहीं। फर्क समझना चाहिए।

घर में स्वदेशी, स्थानीय उत्पादों पर जोर दें।

हमारे त्यौहार, माध्यमों के प्रभाव के आगे झुके बिना सभ्य एवं सरल तरीके से मनाएं। सदियों से चली अपनी परंपराओं का पालन करना।

जन्मदिन, विवाह वर्षगाँठ आदि को भारतीय पद्धती से मनाना। देव दर्शन, बड़ों का आशीर्वाद, सामाजिक संवेदना का ध्यान रखना।

बच्चों का नामकरण अपनी संस्कृति के अनुसार करें।

मातृभाषा, राष्ट्रभाषा के प्रति स्वाभिमान रखना। हस्ताक्षर, शुभकामनाएँ, गृह पट्टिकाएँ, शुभकामनाएँ, स्टिकर सभी मातृभाषा में हो।

'जंक फूड' से बचें और घर पर बने भोजन को प्राथमिकता दें।

व्यावहारिक लाभ और हानि को प्राथमिकता न दे भावनात्मक संबंधों के महत्व को बनाए रखना।

अधिकार की भाषा बोले बिना कर्तव्याधारित जीवनशैली विकसित करना।

हमारी जीवनशैली में समाज के वंचित बंधुओं के प्रति कर्तव्य, दान के महत्व को रेखांकित करना।

'इस्तेमाल करो और फेंक दो' दृष्टिकोण से बचना।

प्रकृति के शोषण और प्रदूषण से बचकर प्रकृति का पोषण करने वाली जीवनशैली विकसित करना। प्लास्टिक पर रोक लगाएं, पानी का संयमित उपयोग करें।

वैश्वीकरण के सामने हमारी पारंपरिक स्वस्थ जीवनशैली को संरक्षित करना। जैसे, गैजेट्स का संयमित उपयोग। जरूरत पड़ने पर ही ऑनलाइन शॉपिंग पर विचार करना चाहिए।

घरेलू नौकरों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करें।

हमारे आचरण में मातृवत् परदारेषु, लोष्टावत परद्रव्येषु एवं आत्मवत सर्वभूतेषु की चेतना व्यक्त होना।

जीवन में समरसता

समाज, व्यवसाय के स्थान पर बिना किसी भेदभाव के सभी के साथ आत्मीयता के सम्बन्ध स्थापित करना।

सभी पंथों, भाषाओं, जातियों, बिरादरी के मूल्यों का सम्मान करना।

सभी के साहित्य, आदर्श, त्योहारों को समझना। परिवार में सभी को इसके बारे में जानकारी देना।

ऐसी सभी श्रेणियों में मित्रता को समृद्ध करना। उनकी खुशियों में शामिल होना।

सभी श्रेणी के पारिवारिक, सामाजिक आयोजनों में खुशी-खुशी भाग लेना। विशेष दिन की शुभकामनाएँ देना।

सभी प्रकार के सामाजिक आयोजनों में परिवार की भागीदारी होना।

अपने परिवार से सम्बन्धित सभी सेवक मण्डली (धोबी, सफाई कर्मचारी, रसोइया आदि) के साथ आत्मीयता का संबंध स्थापित करना।

उनकी पारिवारिक गतिविधियों में उचित रूप से भाग लेना, सहयोग करना।

त्योहारों, पूजा आदि जैसे विशेष अवसरों पर उनके परिवार को स्मरणपूर्वक निमन्त्रण देना।

परिवार में सामाजिक घटनाओं की विवेकपूर्ण चर्चा करना। किसी के प्रति मन प्रदूषित न हो और आपसी मतभेद न बढ़े इसका ध्यान रखें।

घर पर सभी पंथों का साहित्य, संतों, समाज सुधारकों की जीवनियाँ उपलब्ध होनी चाहिए।

समाज में पाए जाने वाले सभी वर्गों के परिवारों के साथ घनिष्ठ, मैत्रीपूर्ण पारिवारिक रिश्ते विकसित करना। उनके साथ मित्रवत व्यवहार करें। अपने परिवार का हिस्सा बनाने का प्रयास करे।

अपने यात्रा आयोजन में सभी संप्रदायों के तीर्थ स्थलों को स्थान देना।

घर आने वाले नौकरों, चाहे बड़े हों या छोटे, के साथ आदरपूर्वक व्यवहार करने की आदत डालें। उन्हें चाचा, दीदी, मौसी कहकर संबोधित करना।

आपसी शिकायतों की चर्चा से दूर रहें। आपसी सम्मान विकसित करने का प्रयास करें।


पर्यावरण पूरक जीवनशैली


1. साधारण बल्बों को एलईडी बल्बों से बदलें। एलईडी बल्ब कम ऊर्जा का उपयोग करते हैं, जिससे बिजली का बिल कम आता है और बिजली बचाने में मदद मिलती है।


2. दांतों को ब्रश करते समय, कपड़े और बर्तन धोते समय पानी का नल बंद कर दें। काम पूरा होने तक नल चलाने से पानी नष्ट हो जाता है।


3. कुछ अवसरों और समारोहों में प्लास्टिक या थर्माकोल के बर्तनों के बजाय स्टील या कांच के बर्तनों का उपयोग करें। इससे प्रदूषण कम होता है।


4. हाथ पोंछने के लिए टिश्यू या पेपर का उपयोग न करें यदि आप ऐसा करते हैं, तो कपड़े के तौलिये का उपयोग करें।


5. ड्रायर का उपयोग करने से बचें और धूप या हवा में बर्तनों और कपड़ों को सुखने दें।


6. सप्ताह में कम से कम एक बार मांस और अंडे खाने से बचें।


7. कुछ लिखते समय या पढ़ाई करते समय कागज का पूरा उपयोग करें। पूरा कागज उपयोग किए बिना नया कागज न लें।


8. घर के सभी अखबारों को रिसायकल करें।


१. यात्रा के दौरान पानी का नया प्लास्टिक पैक खरीदने के बजाय घर से स्टील या कांच की बोतल ले जाएं। पीने का पानी जहां भी उपलब्ध हो, दोबारा भरा जा सकता है।


10. घर का हर व्यक्ति कम से कम एक पेड़ लगाए। यह आपके क्षेत्र को हरा- भरा और ठण्डा रखने में मदद करता है।


11. नहाने के पानी का उपयोग एक बाल्टी तक सीमित रखें। इससे पानी की काफी बचत होगी।


12. मोबाइल या डिजिटल माध्यम से अखबार पढ़े। इससे उन पेड़ों को होने वाले नुकसान से बचाया जा सकेगा जिनसे यह कागज बनाया जाता है।


13. यदि शॉवर से स्नान करने की आदत है या इसकी आवश्यकता है, तो कम से कम शॉवर का समय कम कर दें। इससे पानी की भी बचत होती है।


14. विद्युत उपकरण में पारा, क्रोमियम और प्लास्टिक होता है। इन उपकरणों के खराब होने पर उत्पन्न होने वाला कचरा विद्युत कचरा होता है। इसे भी रिसाइकिल करें क्योंकि यह अन्य कचरे की तरह बीमारी फैलाता है।


15. आसपास की जगहों पर जाने के लिए कार वगैरह वाहनों का उपयोग करने से बचें। पैदल चलें या साइकिल का प्रयोग करें, स्वास्थ्य बेहतर रहेगा और प्रदूषण भी नहीं होगा।


16. लंबी दूरी की यात्रा के लिए सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें। अपने स्वयं के वाहन का उपयोग करने से केवल अधिक ईंधन की बर्बादी होती है।


17. जब भी संभव हो, चीजें नई खरीदने के बजाय दोस्तों या रिश्तेदारों से उपयोग करने हेतु मांग ले। ऐसा करने से आपके पैसे भी बचते हैं और सामान का पूरा उपयोग भी हो जाता है।

18. अपने वाहन की नियमित मरम्मत एवं रखरखाव करें। ऐसा करने से आपका वाहन कम ईंधन खर्च करते हुए अधिक कुशलता से चलेगा।


19. घर के पास के बाजार से खरीदें और ऐसा करते समय कपड़े के थैले का उपयोग करें।


20. ए.सी. का उपयोग कम करें। उपयोग करना है तो टाइमर लगा दें।


21. जरूरत न होने पर घर, दफ्तर और ट्रेनों में पंखे और लाइटें बंद रखें।


22. कई बार हम नए खिलौने, कपड़े और अन्य चीजें खरीदते हैं। हमारी सभी चीजें क्षतिग्रस्त या टूटती नहीं हैं। ऐसी सभी वस्तुएं और कपड़े जरूरतमंद लोगों को दान करें।


23. आपका लाइट बिल, पानी बिल, या बैंक बिल अन्य लेनदेन में कागजका उपयोग किया जाता है। बैंकों और सरकारी कार्यालयों को सूचित कर हम डिजिटल बिलिंग या डॉक्यूमेंटेशन कर सकते हैं।


24. आपको अपनी महत्वपूर्ण बैठकों और कार्यों को डिजिटल कैलेंडर पर रिकॉर्ड करना चाहिए।


25. अपने भवन या सोसायटी को सार्वजनिक पुस्तकालय बनायें। ऐसा करने से किताबों का आदान-प्रदान हो जाएगा और नई किताब नहीं खरीदनी पड़ेगी।


26. बचे हुए खाने से नए व्यञ्जन बनाएं।


27. खरीदे गए फलों और सब्जियों को खराब होने से पहले ही स्टोर कर लें।


28. देवी स्वरूपी जीवनदायिनी नदी को प्रदूषित न करें। निर्माल्य या कोई भी कूड़ा-कचरा नदी में न फेंकें। निर्माल्य से कम्पोस्ट खाद बनाने हेतु प्रोत्साहित करें।


29. अपने जंगलों और वनों की रक्षा करें। इसमें किसी भी प्रकार की बर्बादी न होने दें।


30. भावनात्मक 'अंतिम संस्कार' करते समय लकड़ी की जगह बिजली या एलपीजी का उपयोग कर चिता जलाएं। ऐसा करने से लकड़ी के धुएं से होने वाले प्रदूषण से बचाव होता है।


31. यथा संभव लिफ्ट का उपयोग करने से बचें। सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने से आपका स्वास्थ्य ठीक रहता है।


32. कपड़ों से पूर्ण भरे बिना वॉशिंग मशीन का उपयोग न करें। सभी कपड़ों को एक बार इकट्ठा कर लेना चाहिए और मशीन का इस्तेमाल करना चाहिए। ऐसा करने से मशीन के लिए आवश्यक ऊर्जा की बचत की जा सकती है।


33. रसोई के कचरे से खाद बनायें। सामान्य घरेलू वस्तुओं का उपयोग करके एक कम्पोस्टिंग किट बनाई जा सकती है।


34. गीला एवं सूखा कचरा अलग-अलग करें।


35. मासिक धर्म के दौरान प्लास्टिक और कॉटन पैड के बजाय 'मासिक कप' का उपयोग करें। ऐसा करने से कचरा जमा नहीं होगा जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है। (मासिक कप सिलिकॉन से बने होते हैं, और इन्हें धोकर दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। यह डॉक्टरों द्वारा अनुशंसित एक बहुत ही सुरक्षित समाधान है।)


36. बच्चों के लिए डायपर की जगह कपड़े की लंगोट का प्रयोग करें। डायपर के इस्तेमाल से बचने से बर्बादी कम होती है।


37. बगीचे में पानी देने के लिए पाइप के स्थान पर ड्रिप सिंचाई करनी चाहिए। अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण कर बगीचा, किचन गार्डन हेतु उपयोग करे।


38. रिचार्जेबल बैटरियों का उपयोग करना चाहिए।


39. आपको अपने दैनिक आहार में बाजरी और ज्वार का उपयोग करना चाहिए। (ये प्रकृति और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद हैं)


40. कार्यालय में कम से कम कागज का प्रयोग करना चाहिए। व्यवसाय से सम्बंधित सभी लेनदेन ई पोर्टल के माध्यम से किए जा सकते हैं।


41. जल संरक्षण - भूजल के कम होते स्तर को ऊपर उठाने के लिए वर्षा-

जल की भूमि में रिसने की व्यवस्था करे। घर पर वर्षा जल व्यवस्थापन (Rain water harvesting) करने की जागरूकता समाज में पैदा करें।

42. पानी का उचित उपयोग पानी का दुरुपयोग किए बिना उसका उपयोग कम से कम करें (कार धोना, घर-आंगन में पानी छिड़कते समय पाइप से बहुत सारा पानी डालना)।

43. कई लोग बरसात और सर्दियों में पानी एक गिलास नहीं पीते। पीने के लिए पानी देते समय आधा गिलास ही दें।

44. सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग न करें। मित्रों, दुकानदारों, सब्जी-फल विक्रेताओं को इसका उपयोग बंद करने के लिए समझाएं।

45. प्लास्टिक कचरे से इकोनिक बनाने को प्रोत्साहित करें। कूड़े में प्लास्टिक हमेशा अलग-अलग देने की आदत बनाएं।

46. एकल उपयोग प्लास्टिक प्रतिबंध को लागू करने के लिए नगरसेवक, महापौर, कलेक्टर, प्रशासन और स्वास्थ्य अधिकारी के साथ अनुवर्ती कार्रवाई करें। (आरटीआई)

47. घर में आने वाले प्लास्टिक के डिब्बों, जार, डिब्बों को रंग-रोगन कर सुन्दर बनाकर गमलों के रूप में प्रयोग करें। दूसरों को सिखाए।

48. कूड़ा जलाने से वायु प्रदूषण होता है। उस सम्बन्ध में जनजागरण करें।

49. घर में औसत ऊंचाई का पेड़ रखें, कोशिश करें कि यह हर घर में हो।

50. अपने क्षेत्र में उगने वाले फलों के बीज एकत्र करो और उन्हें नगर के चारों ओर झाड़ियों में डाल दो। (सीड बॉल)

51. लुप्तप्राय पेड़ों, पक्षियों, जानवरों में से किसी विशेष पेड़, पक्षी, जानवर को संरक्षित करने का प्रयास करें।

52. घर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली जड़ी-बूटियाँ लगायें तथा वटपूर्णिमा, मकर संक्रान्ति, स्नेहमेलन के अवसर पर 25 पौधे तैयार कर मित्रों व पड़ोसियों को दें।

53. तेज़ हार्न बीमारियों को निमंत्रण देते हैं। यह केवल आपातकालीन स्थिति के लिए है। Please Blow Horn की बजाय No Horn को प्रोत्साहित करें।

54. पुलिस द्वारा वाहनों के हॉर्न की जांच की जाएगी, हॉर्न बजाने पर कार्रवाई के लिए पुलिस के साथ अनुवर्ती कार्रवाई की जाएगी।

55. सप्ताह में एक दिन स्वचालित वाहन का प्रयोग न करें।

56. बिजली, पेट्रोल, डीजल की खपत पिछले माह की तुलना में कम करने का प्रयास करें।

57. अपने घर में पक्षियों के घोंसले के लिए जगह, सामग्री, वातावरण उपलब्ध कराएं।

58. मधुमक्खियों और तितलियों की सुरक्षा के लिए फूल लगाएं। इसे दूसरों के लिए भी आज़माएं - बटरफ्लाई/बी गार्डन।

59. आवासीय भूखंड का कम से कम 15% हिस्सा कंक्रीट, फर्श, ब्लॉक से मुक्त रखा जाना चाहिए और पेड़-पौधे, लताएं, जल संरक्षण के प्रयास किए जाने चाहिए।

60. पुराने निमंत्रण कार्ड या अन्य वस्तुओं के लिए 'बेस्ट फ्रॉम वेस्ट' का सिद्धांत अपनाएं।

61. वर्ष में कम से कम एक विशेष अवसर (जन्मदिन आदि) पर गमले में तुलसी या फूल उगाएं और कुंडी मंदिर, विद्यालय में दी जाएं।

नागरिकों के मौलिक कर्तव्य

1. संविधान का पालन करना और उसके आदशों और संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना।

2. जिसने हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को जन्म दिया प्रेरित होने पर उन ऊंचे आदर्शों को विकसित करना और उनका पालन करना।

3. भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता उनका रख-रखाव एवं संरक्षण करना।

4. देश की रक्षा करना और आह्वान किये जाने पर राष्ट्रीय सेवा करना।

5. धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या वर्ग मतभेदों को पार करना, भारत के लोगों के बीच एकता और भाईचारे को बढ़ावा देना, महिलाओं की गरिमा को कम करने वाली प्रथाओं को त्यागना।

6. हमारी विविधतापूर्ण सांस्कृतिक विरासत की सराहना करना। इसे बचाना।

7. बनों, झीलों, नदियों, वन्य जीवों और प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करें और जीवित प्राणियों के प्रति 

दया दिखाएँ।

४. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, जिज्ञासा एवं सुधारवाद का विकास करता।

9. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना। हिंसा का कठोर त्याग करना।

महारानी अहिल्याबाई होलकर

 महारानी अहिल्याबाई होलकर

भारत का अपना एक समृद्धशाली इतिहास रहा है | संस्कृति और परंपराओं का देश भारत हमेशा से ही दुनिया भर में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां की विविधताओं की वजह से दुनिया भर से लोग यहां खींचे चले आते हैं। यहां कई शासकों ने शासन किया, तो वहीं यहां कई लड़ाइयां भी लड़ी गईं। इसके अलावा भारत के इतिहास के पन्नों में कई ऐसी रानियों के नाम भी शामिल हैं, जिन्होंने अपने पराक्रम और दृढ़ निश्चय से विरोधियों को कड़ी टक्कर दे हराया है । रानी अहिल्याबाई उन्ही वीरांगनाओ में से एक थीं, उनका नाम लोग सम्मान सहित याद करते है ।अहिल्याबाई होलकर भारत माता की वह बेटी थी जिसने 275 साल पहले ही कुरीतियों की बेड़ियों को तोड़ व उन्हे समाप्त करने का प्रयास किया । राज्य मे संकट के समय जब जरूरत पड़ी तो अपनी प्रजा के लिए घोड़े पर सवार होकर खड़ग हाथ मे लिए जंग भी लड़ी। धर्म का संदेश फैलाया,मंदिरों का निर्माण किया , संस्कृति संरक्षण, बालिका शिक्षा, महिला अधिकारों और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया।

होलकर साम्राज्य की महारानी होलकर भारतीय इतिहास की कुशल महिला शासकों में से एक रही हैं। इनका जन्म 31 मई, 1725 को हुआ था और 13 अगस्त, 1795 को निधन हो गया था। महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के जामखेड के नजदीक चोंडी गांव में जन्म लेने वाली अहिल्याबाई का शुरुआती जीवन बड़ी कठिनाईयों से गुजरा।

भारत के मालवा साम्राज्य की मराठा अहिल्याबाई होलकर महारानी थीं | उनके पिता मंकोजी राव शिंदे, अपने गाव के पाटिल थे. उस समय महिलाये स्कूल नहीं जाती थीं, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें लिखने -पढ़ने लायक पढ़ाया | रानी न्याय करते समय अपने पराये में जरा भी भेद नहीं करती थी | व्यक्ति से लेकर पशुओं तक के दर्द को समझती थी | एक बार क्रूरता के मामले में बेटे के दोषी पाये जाने पर अहिल्याबाई होलकर बेटे को रथ के नीचे कुचलकर मारने के लिए निकल गई |

रानी अहिल्याबाई का नाम सुनते ही जहां कुछ लोगों के मन में मालवा का ख्याल आता है, लेकिन अहिल्याबाई की शख्सियत और इतिहास इससे कही बड़ा है। वह मध्यप्रदेश के महेश्वर की कर्ता-धर्ता ही नहीं, बल्कि होल्कर साम्राज्य का एक अहम हिस्सा भी थीं। उन्हें न सिर्फ मालवा की रक्षा करने के लिए जाना जाता है | महारानी अहिल्याबाई होलकर ने कई सारे सामाजिक कार्य करे इसलिए भी उन्हें आज तक बढ़े सम्मान के साथ याद किया जाता है।

मध्यप्रदेश के मालवा से अहिल्याबाई के संबंध के बारे में तो हर कोई जानता है, लेकिन बेहद कम लोग ही यह जानते होंगे कि अहिल्याबाई का महाराष्ट्र के अहमदनगर से गहरा संबंध रहा है। अहिल्याबाई की शादी प्रसिद्ध सूबेदार मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव से हुई थी। वह भारत के मालवा साम्राज्य की मराठा होल्कर महारानी थीं। अहिल्याबाई के पति खंडेराव होल्कर की 1754 में कुंभ्बेर युद्ध में मौत हो गई थी।अहिल्याबाई होलकर पति की मृत्यु के बाद सती होना कहती थी पर उन्हे ईसा करने के लिए उनके ससुर ने रोका पर इसके 12 साल बाद उनके ससुर मल्हार राव होल्कर की भी मौत हो गई। इसके एक साल बाद अहिल्याबाई को मालवा साम्राज्य की महारानी घोषित किया गया। अपने शासनकाल के दौरान रानी अहिल्याबाई ने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में कई मंदिरों का निर्माण कराया था। साथ ही उन्होंने लोगों के लिए कई सारी धर्मशालाएं बनवाईं, जो मुख्य रूप से तीर्थ स्थानों जैसे द्वारका, काशी विश्वनाथ, वाराणसी का गंगा घाट, उज्जैन, नाशिक विष्णुपद मंदिर और बैजनाथ के आसपास मौजूद हैं। इसके अलावा उन्होंने औरंगजेब द्वारा तोड़े गए कई मंदिरों का दोबारा निर्माण भी करवाया। अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने पूरे भारत में श्रीनगर, हरिद्वार, केदारनाथ, बदरीनाथ, प्रयाग, वाराणसी, नैमिषारण्य, पुरी, रामेश्वरम, सोमनाथ, महाबलेश्वर, पुणे, इंदौर, उडुपी, गोकर्ण, काठमांडू आदि में बहुत से मंदिर बनवाए।

महाराष्ट्र के एक शहर अहमदनगर का नाम अहिल्या बाई नगर करने का एलान किया गया है। तो वहीं देश भर मे अनेकों कॉलेज और यूनिवर्सिटी के नाम महारानी अहिल्याबाई होलकर हैं।





स्वामी विवेकानन्द

 स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानंद के जीवन की प्रेरक कहानियां जो हमें बहुत कुछ सिखा जाती है।

 संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है

एक बार जब स्वामी विवेकानन्द जी विदेश गए.... तो उनका भगवा वस्त्र और पगड़ी देख कर लोगों ने पूछा स्वामी जी बोले...' बस यही सामान है'.... आपका बाकी सामान कहाँ है?

तो कुछ लोगों ने व्यंग्य किया कि... 'अरे! यह कैसी संस्कृक्ति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है....... कोट पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है?

इस पर स्वामी विवेकानंद जी मुसकुराए और बोले- 'हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न है.... आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं .... जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है, संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है।

सच्चा पुरुषार्थ

एक विदेशी महिला स्वामी विवेकानंद के समीप आकर बोली: "मैं आपसे शादी करना चाहती हूँ"

विवेकानंद बोले: "क्यों?

मुझसे क्यों ?

क्या आप जानती नहीं की मैं एक सन्यासी हूँ?"

औरत बोली: "मैं आपके जैसा ही गौरवशाली, सुशील और तेजोमयी पुत्र चाहती हूँ और वो वह तब ही संभव होगा जब आप मुझसे विवाह करेंगे" विवेकानंद बोलेः "हमारी शादी तो संभव नहीं है, परन्तु हाँ एक

उपाय है"

औरतः क्या?

विवेकानंद बोले "आज से मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूँ, आज से आप मेरी माँ बन जाओ....

17आपको मेरे रूप में मेरे जैसा बेटा मिल जायेगा, औरत विवेकानंद के चरणों में गिर गयी और बोली की आप साक्षात ईश्वर के रूप है।

इसे कहते है पुरुष और ये होता है: पुरुषार्थ...

एक सच्चा पुरुष सच्चा मर्द वो ही होता है जो हर नारी के प्रति अपने अन्दर मातृत्व की भावना उत्पन्न कर सके।




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भगवा ध्वज एवं समर्पण भाव जागरण

 भगवा ध्वज एवं समर्पण भाव जागरण 

ध्वज का प्रादुर्भाव अनायास ही नहीं होता। ध्वज की पृष्ठभूमि में उस राष्ट्र के दीर्घकालीन गौरवशाली इतिहास, वहाँ की श्रेष्ठ परम्पराओं, जीवन दृष्टि व समाज के दीर्घ कालीन लक्ष्य दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए ध्वज मार्गदर्शक एवं प्रेरणा का केन्द्र होता है।

ध्वज किसी भी राष्ट्र अथवा समाज के चिन्तन, ध्येय का प्रतीक तथा स्फूर्ति का केन्द्र होता है।

वह राष्ट्र के यश, गौरव, वैभव, पराक्रम, त्याग, बलिदान आदि का स्मरण कराता है तथा राष्ट्र व समाज के सुदीर्घ इतिहास की कहानी कहता है।

ध्वज को देखते ही वहाँ के समाज की संगठित शक्ति का अनुभव होता है तथा विजीगीषु भावना जागृत होने लगती है।

 भगवाध्वज अपने राष्ट्र का पुरातनध्वज । ऋग्वेद में "अरुणाः सन्तु केतवः" का वर्णन।

अति प्राचीन काल अर्थात् वैदिक काल से लेकर अँग्रेजों के साथ संघर्ष तक सभी चक्रवर्ती सम्राटों, महाराजाओं तथा सेनापतियों का यही ध्वज था।

उदाहरणार्थ - राजा दिलीप, राजा रघु, भगवान श्री राम, अर्जुन के रथ का ध्वज, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल बुन्देला, राजा कृष्णदेव राय (विजयनगर साम्राज्य), महाराजा रणजीत सिंह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि सभी का 'ध्वज' भगवाध्वज ही था। इसी ध्वज की रक्षा के लिये सभी ने अपने प्राणों तक को न्यौछावर कर दिया। सिक्ख, बौद्ध, जैन आदि पन्थों ने भी भगवाध्वज को ही अपनाया है।

हजारों वर्षों से हमारे पूर्वजों ने श्रद्धा से इस ध्वज को अपनाया और इसका पूजन किया है। इसको भूलना अपने इतिहास को भूलना है अर्थात् आत्मविस्मृति का महापाप करना है।

इस ध्वज का रंग उगते हुए सूर्य के समान है। उगता हुआ सूर्य अन्धकार व रात्रि की निष्क्रियता को समाप्त कर प्रकाश और जीवन्तता देता है। उदीयमान सूर्य ज्ञान और कर्मठता का प्रतीक है।

ध्वज यज्ञ की ज्वाला के अनुरूप होने के कारण त्याग, समर्पण, जनकल्याण की भावना, तप, साधना आदि का आदर्श रखने वाला है।

 यह समाज हित में सर्वस्वार्पण करने का प्रतीक है।

इसी भगवा ध्वज को संघ ने अपना ध्वज मानकर इसको गुरु स्थान दिया है।

हिन्दु धर्म में गुरु और परमात्मा के प्रति एक समान श्रृद्धा भाव "यस्य देवे पराभक्ति यथा देवे तथा गुरौः"।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी व्यक्ति विशेष को गुरु नहीं मानता। वह इसी भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार करता है। संघ व्यक्ति पूजक नहीं अपितु तत्व पूजक है क्योंकि व्यक्ति स्खलनशील है लेकिन तत्व सदैव ही स्थिर है, अटल है।

भगवा ध्वज त्याग अर्थात् समाज हित में सर्वस्व अर्पण करने वालों का प्रतीक है।

यह हिन्दुत्व का प्रतीक भी है। यह हिन्दु धर्म के सभी मत-पन्थ-सम्प्रदायों में स्वीकार्य है।

जिस ध्वज की ओर देखते ही अन्तःकरण में स्फूर्ति का सञ्चार होने लगता है वही भगवाध्वज अपने संघ कार्य के सिद्धान्तों का प्रतीक है। इसलिए वह हमारा गुरु है।

डॉ. हेडगेवार जी के जीवन के संस्मरण

प. पू. डॉ. हेडगेवार

आदर्श स्वयंसवेक कल्पना की साक्षात् प्रतिमूर्ति व 'त्यजेदेकं कुलस्यार्थे' अर्थात् 'बड़े हित के लिए छोटे हित का त्याग करना चाहिए' के प्रतीक ।

डॉक्टर जी का जीवन कष्टपूर्ण। परिश्रमी एवं कर्मठ जीवन का आदर्श उदाहरण, अति निर्धनता में प्लेग के कारण एक ही दिन में माता-पिता की मृत्यु।

• पढ़ाई में सदैव अग्रणी।

जन्मजात देशभक्त-

८ वर्ष की आयु में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के ६० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर मिली मिठाई कूड़ेदान में फेंकना।

१२ वर्ष की आयु में इंग्लैण्ड के राजा एडवर्ड सप्तम् के राज्यारोहण के अवसर पर आयोजित आतिशबाजी का बहिष्कार करना व करवाना।

१३ वर्ष की आयु में नागपुर के सीतावर्डी किले से यूनियन जैक उतारने के लिए सुरंग खोदना।

लोक संग्रही, कुशल संगठक तथा कुशल नेतृत्वकर्ता -

१६ वर्ष की आयु में "बान्धव समाज" नामक संस्था जो नागपुर में थी से जुड़ कर अपनी आयु वर्ग के युवाओं के साथ क्रान्तिकारी तथा राष्ट्रीय विषयों पर चर्चा करना।

• १८ वर्ष की आयु में विद्यालय निरीक्षक का स्वागत "वन्दे मातरम्" के उद्घोष से करने के लिए विद्यार्थियों को तैयार करना, योजना का सफलतापूर्वक क्रिन्यावयन, फलस्वरूप विद्यालय से निष्कासन, योजनाकारों का पता लगाने में विद्यालय प्रशासन असफल।

• रामपायली में विजयादशमी के अवसर पर युवाओं के बीच राष्ट्रवादी व प्रेरणादायी भाषण।

• सफल विद्यार्थी- यवतमाल की राष्ट्रीयशाला से विद्यालयीन परीक्षा १९०९ में उच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण, नेशनल कौंसिल आफ एजूकेशन द्वारा प्रमाण पत्र, मेडिलक की परीक्षा १९१४ में ६०.८१% अंक प्राप्तकर उत्तीर्ण की।

क्रान्तिकारी जीवन-

• स्वतन्त्रता संग्राम में सदैव अग्रणी। १९०४ (१५ वर्ष की आयु) में बम बनाना सीखना। १९०८ में पुलिस चौकी पर बम फेंकना।

१९११ में दिल्ली के दरबार के बहिष्कार आन्दोलन में सक्रिय सहभाग।

माध्यमिक परीक्षा के बाद का सम्पूर्ण समय क्रान्तिकारियों के मध्य। माधवदास आदि क्रान्तिकारियों को भूमिगत रखना, अलीपुर बमकाण्ड में फँसे क्रान्तिकारियों के बचाव के लिए धन संग्रह करना आदि।

• कलकत्ता के मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के समय प्रसिद्ध क्रान्तिकारी संस्था "अनुशीलन समिति" के अन्तरंग सदस्य बनना। क्रान्तिकारी नाम कोकेन।

१९१४ में सरकार द्वारा राष्ट्रीय मेडिकल कॉलेज की डिग्री अमान्य करने पर जनमत संग्रह आन्दोलन के दबाव से सरकार को डिग्री मानने को बाध्य किया। मध्य प्रान्त तथा बंगाल के क्रान्तिकारियों के बीच सेतु की भूमिका का निर्वहन कुशलतापूर्वक किया। कलकत्ता से लौटने के बाद २ वर्षों तक अंग्रेजों को मारने व देश से भगाने के लिए क्रान्ति की योजना।

बाल्यावस्था में ही दृढ़ता, संकल्प शक्ति, विवेक के आधार पर कार्य करने की प्रवृत्ति ।

स्वीकृत कार्य को पूर्ण करने के लिए जो-जो आवश्यक वह करना। काँग्रेस सेवा दल, कार्यकर्ता टोली खड़ा करना आदि।

आत्मविश्वासी-हिन्दु संगठन सम्भव करके दिखाया। दूरदृष्टा तथा संघ तंत्र स्रष्टा। विभिन्न प्रकृति व स्वभाव वालों के लिए ध्येय के प्रति श्रेष्ठ प्रेरक व सामञ्जस्य कर्ता।

प्रचारक पद्धति के निर्माता- लाहौर में भाई परमानन्द के पास व अन्य अनेक स्थानों पर विस्तारक भेजना, पारिवारिक आधार पर संगठन निर्माण, प्रारम्भ से ही अखिल भारतीय संगठन के कल्पनाकार ।

"समाज में नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज का संगठन" के चिन्तनकर्ता ।

लोकप्रिय (आलोचक कोई नहीं) -

• संघ हिंसात्मक संगठन नहीं (मध्यभारत प्रान्त विधान सभा में स्वीकृत) ।

• १५ वर्षों में बिना संसाधनों के संगठन को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया।

• आत्मविलोपी, प्रसिद्धि पराङ्‌मुखी- "मैंने किया" ऐसा कभी नहीं कहा, सदैव कहा 'हम सब मिलकर कर रहे हैं'।

• एक अद्वितीय कार्य पद्धति "दैनन्दिन शाखा" के आविष्कारक।

*डॉ. हेडगेवार जी के जीवन के संस्मरण*

अभिनव संगठन-शिल्पी

डॉ. हेडगेवार के जीवनकाल में अन्य महापुरुषों की भाँति उनकी प्रसिद्धि नहीं के बराबर थी। इतना ही नहीं बल्कि सन् 1940 में जब 52वे वर्ष की अल्पायु में ही उनके बलिष्ठ शरीर का असमय अन्त हो गया और जब उनके द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश के प्रायः सभी प्रमुख प्रान्तों में पहुँच गया था तो भी संघ क्षेत्र के बाहर उनकी प्रसिद्धि नहीं थी। कदाचित यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण बात नहीं होगी कि आज जब भारत और उसके बाहर विदेशों में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम लोगों के लिए उत्सुकतापूर्ण चर्चा का विषय है, उसके महान संस्थापक के बारे में कम ही लोगों को सही जानकारी होगी। आखिर ऐसा क्यों है?

अभी तक डॉ० हेडगेवार जी के बारे में जितनी जानकारी प्रकाश में आयी है। उससे यह तो निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि वे पूर्णतया प्रसिद्धिपरांगमुख थे। अपने बारे में भारतीय सन्त परम्परा की भाँति वे कोई चर्चा नहीं करते थे और न ही अपने सहयोगियों से उसके बारे में कोई चीज प्रकाशित करवाना चाहते थे। उनके द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसको आज 94 वर्ष हो गये हैं और जो भारतीय राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों तथा सभी आयु एवं वर्गों के लोगों को व्यापक रूप से प्रभावित कर रहा है, डॉ. हेडगेवार की सच्ची आत्मकथा है।

डॉ० हेडगेवार की विशिष्ट महानता किस बात में थी, जो उन्हें अन्य प्रसिद्धि पुरुषों से कुछ भिन्न सिद्ध करती है, यह विचार का विषय है। महानता को नापने का कोई सुनिश्चित स्थूल मापक नहीं है। सामान्यता सभी महापुरुषों में एक बात समान रूप से पायी जाती है कि वह अपने निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति प्राण के मार्ग में आने वाली सभी प्रकार की बाधाओं एवं विपत्तियों की परवाह न करते हुए और पूर्ण त्याग एवं समर्पित भाव से अग्रसर होते हैं। इनमें से कुछ अपा लक्ष्य प्राप्त करने में सौभाग्यशाली होते हैं तो कुछ का लक्ष्य उनके जीवनकाल में नहीं अपितु उनके जीवन के बाद आगामी पीढ़ियाँ सफल देखती है।

हम जानते हैं कि महात्मा गांधी अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गये थे। रूस में लेनिन को भी ऐसा ही यश एवं गौरव प्राप्त हुआ। चीन में माओ त्से तुंग को भी जीवनकाल में ही सर्वत्र यश एवं प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी।

किन्तु डॉ० हेडगेवार की स्थिति इन सबसे उनके जीवनकाल में भिन्न थी, यह ऊपर बताया जा चुका है। अब इसका उल्टा देखिये। आज भारत में गांधी जी के मार्ग पर चलने वाले उनके कितने सच्चे अनुयायी हैं, लेनिन का रूस कहाँ जा रहा है, माओ का नाम तो अब चीन में घोर आलोचना का विषय हो गया है।

योगी अरविन्द के शिष्य दिलीप कुमार राय ने एक पुस्तक लिखी है। जिसका शीर्षक है एमंग द ग्रेट। इसमें उन्होंने एक स्थान पर फ्रांस के महान मनीषी रोम्यां रोलां से अपनी वार्ता का उल्लेख किया है। इस वार्ता में रोम्यां रोलां ने एक प्रसंग में कहा है कि यह सत्य है कि विश्व के सभी प्रमुख व्यक्ति यदि कुछ कर सकें तो वह केवल अपनी प्रबल आशा एवं ज्वलन्त आस्था के कारण। किन्तु उनका कहना है कि यह भी विचारणीय है कि उनके बाद आज कितने लोग उन महापुरुषों से जीवन्त प्रेरणा लेते हैं, इतना ही नहीं तो कितने लोगों की आज बुद्ध या ईसा मसीह में सच्ची श्रद्धा है। अन्य छोटे महापुरुषों की तो बात ही नहीं, दूसरे शब्दों में रोलां का यह भाव प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति की महानता केवल उसके विचारों एवं आदशों की प्रसिद्धि पर निर्भर नहीं करती। बल्कि वह इस पर निर्भर करती है कि उसके अनुयायी कहलाने वाले कितने लोग कितनी श्रद्धा एवं सच्चाई के साथ उनके बताये आदर्शों पर चलते हैं।

हमें लगता है कि डॉ. हेडगेवार की महानता इसी विशेषता में थी। एक शताब्दी पूर्व उनका जन्म हुआ था और आधी शती उनके देहावसान को हो चुकी है। किन्तु आज देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 30 हजार शाखाओं पर प्रतिदिन आने वाले लाखों स्वयंसेवक और इनके अतिरिक्त संघ के करोड़ों समर्थक क्या डॉ० हेडगेवार जी के बताये हुए निःस्वार्थ राष्ट्र-सेवा की भावना से जो कार्य करते हैं क्या वह इसका ज्वलन्त प्रमाण नहीं है कि जैसे-जैसे समय बीतता जाता है डॉ० हेडगेवार की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है और उनके जीवन काल में जिन्हें लोग बहुत कम जानते थे अब उनके बारे में अधिकाधिक जानने को उत्सुक हैं।

इतिहास यह भी बताता है कि प्रायःकाल विशेष में विचारकों, मनीषियों एवं महापुरुषों ने जिन आदर्शों के लिए प्रचार और कार्य किया उनके जीवन के बाद स्थिति बिल्कुल उनकी अपेक्षाओं के विपरीत हो गयी। महात्मा गांधी के एक प्रमुख प्रेरणाश्रोत श्री टाल्सटाय ने रूस में निर्धनों के उत्थान का जो स्वप्न देखा था क्या रूसी क्रान्ति के बाद वह पूरा हआ इसी प्रकार राबस पीयर एवं वाल्टेयर ने फ्रान्सीसी क्रान्ति के जो आदर्श प्रतिपादित किया था क्या नेपोलियन के उदय ने उनका शीर्षासन नहीं कर दिया था, क्या आयरलैण्ड में ही वेलरा के स्वप्न पूरे हुये, इटली में मेजिनी एवं गैरीबाल्डी के आदर्शों की आज वहाँ चर्चा भी होती है, सच्चे अनुयायी होने की तो बात कौन कहे?

इतिहास के इस परिप्रेक्ष्य में जब हम संघ-संस्थापक डॉ० हेडगेवार की कर जीवन, विचारों, आदर्शों एवं कृतित्व पर विचार करते हैं तो हमें क्या दिखाई देता है? उनके जीवनकाल में संघ का प्रचार-प्रसार जहाँ प्रमुख प्रान्तों के कुछ नगरों तक ही हो पाया था वहाँ आज देश के लगभग ४२८ जिलों में से प्रायः अधिसंख्य स्थानों पर डॉ० हेडगेवार का जीवन सन्देश पहुंच चुका है। इतना ही नहीं तों देश के बाहर भी दर्जनों देशों में विभिन्न हिन्दू संगठनों के माध्यमों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संस्थापक का सन्देश वहाँ रहने वाले प्रवासी हिन्दुओं को एकता सूत्र में आबद्ध कर उन्हें हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और भारत के सनातन जीवन मूल्यों से जोड़े रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है।

डॉक्टर साहब जी के जीवनकाल में जितने लोग उनके द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को स्वीकृत कर चुके थे आज उससे यह संख्या सहस्र गुना बढ़ गयी है। देश-विदेश के बड़े-बड़े राजनेता, प्रशासक,न्यायविद, पत्रकार, साहित्यकार, विचारक आदि अब समय-समय पर यह उद्घोष करते सुने जाते हैं कि भारत में चूँकि बहुमत हिन्दुओं का है इसलिए व्यवहार में यहाँ हिन्दू आदशों का आदर होना ही चाहिए और इस अर्थ में यह हिन्दू राष्ट्र ही है। हिन्दू संस्कृति सहिष्णुता पर आधारित है और इतिहास साक्षी है कि हिन्दुओं ने कभी किसी अन्य धर्मावलम्बी को उत्पीडित नहीं किया। इतना ही नहीं तो उन्हें सदैव अपने यहां उदारतापूर्वक शरण दी है। अतः हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा से अन्य धर्मावलम्बिया को शिकायत होने का कोई कारण नहीं।

डॉ. हेडगेवार के जीवन-कार्य एवं आदर्शों की इस उत्तरोत्तर सफलता और उनके अनुयायियों एवं समर्थकों की सतत संख्यावृद्धि से क्या सिद्ध होता है और वह भी उनके देहावसान के 59 वर्षों बाद, जबकि दूसरी ओर हम जानते है कि गांधी जी अपने जीवनकाल में ही यह कहने लगे थे कि हे भगवान, मेरी कोई नहीं सुनता। कहते हैं कि गौतम बुद्ध और ईसा मसीह भी जीवन के अन्तिम काल में कुछ निराश एवं खिन्न थे। स्वामी विवेकानन्द के बारे में भी बताया जाता है कि अपने महा प्रस्थान से पूर्व एक बार उनके मुँह से यह वाक्य निकला था कि समाज को बदलने वाला मैं कौन होता हूँ, जो माँ की इच्छा होगी, वही होगा।

किन्तु दूसरी ओर डॉक्टर जी ने अपने देहान्त से पूर्व 1940 के नागपुर में होने वाले संघ-शिक्षा-वर्ग में भारत के प्रायः सभी प्रान्तों का प्रतिनिधित्व देखकर सोत्साह कहा था कि मैं आज अपने सामने सम्पूर्ण भारत की छोटी-सी प्रतिमा देख रहा हूँ।

संघ की शाखाओं के अतिरिक्त विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी

कल्याण आश्रम, विभिन्न सेवा प्रकल्पों, विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, विद्या भारती आदि विभिन्न संगठनों के माध्यम से जो कार्य देश भर में और देश के बाहर हो रहे हैं क्या उनके मूल में डॉ. हेडगेवार जी के विचार एवं आदर्श प्रेरणा का काम नहीं कर रहे हैं? उनके अपूर्व व्यक्तित्व एवं कृतित्व के क्या ये जीवन्त साक्षी नहीं हैं?

जानकारी काल हिन्दी मासिक जुलाई -2025

  जानकारी काल      वर्ष-26   अंक - 02        जुलाई - 2025 ,  पृष्ठ 43                www.sumansangam.com      प्रधान संपादक व  प्रकाशक  सती...