रविवार, 29 दिसंबर 2024

प.पू. आद्य सरसंघचालक डा. केशव बलिराम हेडगेवार एक परिचय

 


प.पू. आद्य सरसंघचालक डा. केशव बलिराम हेडगेवा

सन् 1889 की 1 अप्रैल प्रतिपदा का दिन था। परम्परागत ढंग से हिन्दू घरों में भगवा फहराया जा रहा था। ऐसा ही खुशी का अवसर इस दिन नागपुर के एक गरीब ब्राह्मण बलिराम पंत हेडगेवार के परिवार में पांचवी संतान का जन्म हुआ था। इस महज संयोग को इस बालक ने अपने कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व, संकल्प, साधना एवं संस्कार, शुद्ध चरित्र एवं मौलिक चिंतन से यथार्थ में बदल दिया। बचपन का केशव आधुनिक भारत के निर्माण की संकेत-रेखा था, जो आगे चलकर डा. केशव बलिराम हेडगेवार के रूप में यशस्वी हुआ।

बलिराम पंत का परिवार बड़ा था। माता-पिता के प्यार ने बच्चों को गरीबी का अनुभव नहीं होने दिया। अपने दोनों ज्येष्ठ पुत्रों को वेद अध्ययन के लिए प्रेरित किया। केशव का भी नाम संस्कृत पाठशाला में लिखाया। परन्तु इस परम्परावाद पर उनके छोटे पुत्र ने प्रश्न खड़े करने का सफल कार्य किया। केशव की मानसिक संरचना असाधारण थी। उनकी कुशाग्र बुद्धि चंचलता और प्रतिभा ने उन्हें आधुनिक शिक्षा के लिए प्रवृत्त किया एवं माता-पिता ने लीक से हटकर बाद में पारिवारिक परम्परा के प्रतिकूल उनका नाम पूरे मध्यप्रांत में प्रसिद्ध नागपुर के नील सिटी स्कूल में दर्ज कराया।

दृढ़ता, संकल्प-शक्ति एवं विवेक के आधार पर कार्य करने की प्रवृत्ति उनके जीवन में हमेशा दिखाई पड़ती रही। पहली घटना तब की है जब उनकी उम्र सिर्फ आठ वर्ष की थी। यह घटना 22 जून 1897 की है। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठ साल पूरे

होने पर भारत में जश्न मनाया जा रहा था। केशव के स्कूल में भी मिठाई बांटी गई। परन्तु उन्होंने अपने हिस्से की मिठाई फेंकते हुए सहसा कहा- "लेकिन वह हमारी महारानी तो नहीं हैं" देशभक्ति की उपजी भावना आने वाले वर्षों में और प्रस्फुटित होने लगी। दूसरी घटना 1901 की हैं। इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर राजनिष्ठ लोगों द्वारा नागपुर में आकर्षक आतिशबाजी का आयोजन किया था। केशव ने बाल मित्रों को उसे देखने से रोका। उन्होने उन सबको समझाया कि 'विदेशी राजा का राज्यारोहण उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है।

महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी की वीरता की गाथा घर-घर में सुनी- सुनाई जाती थी। केशव के जीवन पर भी शिवाजी की वीरता, संकल्प- शक्ति एवं राष्ट्रीय भाव का अटूट प्रभाव था। तभी नागपुर के सीताबड़ी के किले के ऊपर इंग्लैंड के ध्वज 'यूनियन जैक का फहरना उनके बाल मन को कचोटता रहता था। केशव की छोटी उम्र में ही परिपक्व बातें एवं राष्ट्रवादी आकांक्षाएं आस-पड़ोस के लोगों के लिए चौंकाने वाली बात थी।

सन् 1901 का वर्ष नागपुर और केशव दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। इस वर्ष अंग्रेजी राज के खिलाफ इस शहर में संगठित छात्र आंदोलन की शुरूआत हुई और इस कार्य की योजना एवं क्रियान्वयन केशव के द्वारा ही हुआ।

बंग विभ जन के बाद सरकारी दमनचक्र की तीव्रता पूरे देश में बढ़ती जा रही थी। बंगाल में, राजनीतिक आंदोलन में विद्यार्थियों की अहम भूमिका को देखते हुए सरकार ने एक नोटिस जारी किया। यह नोटिस 'रिस्ले सर्कुलर' के नाम से प्रसिद्ध था। इस सर्कुलर का मध्य प्रांत में विरोध नागपुर से शुरू हुआ।

सन् 1907 के मध्य में विद्यालय निरीक्षक प्रतिवर्ष की भांति स्कूल का पर्यवेक्षण करने नील सिटी स्कूल आये थे। जैसे ही निरीक्षक केशव की कक्षा में गये, सभी छात्रों ने उठकर एक साथ 'वंदे मातरम्' की जोरदार घोषणा से उनका स्वागत किया।

'गुस्से से लाल-पीले होकर विद्यालय निरीक्षक प्रधानाध्यापक जनार्दन विनायक ओक के कमरे में गये और बिना बात किये अपनी टोपी लेकर सीधे चले गये। केशव के हृदय में धधकने वाली देशभक्ति की प्रखर अग्नि की तीव्रता का अनुभव उनके मित्रों, गुरूजनो तथा परिवार वालों को होने लगा था। कोलकाता के नैशनल मैडिकल स्कूल में पहुँचने के बाद तो इस अग्नि ने ज्वाला का रूप ले लिया। मैडिकल की शिक्षा पूरी करने के बाद पैसा और प्रसिद्धि का मार्ग उनके स्वागत को आतुर था, विद्यालय के प्रधानाचार्य ने तो 3000 रू० मासिक वेतन पर बर्मा में एक बड़े सरकारी अस्पताल में चिकित्साधिकारी के रूप में उन्हें भेजने की संस्तुति भी कर दी। नागपुर के टूटे-फूटे पुश्तैनी मकान के बाहर डॉ० के. बी. हेडगेवार का नया बोर्ड भी उनके भाई ने लगवा दिया। परन्तु डॉ० हेडगेवार का मन-मस्तिष्क तो उसी प्रश्न के उत्तर की खोज में अभी तक लगा था, हम बार-बार गुलाम क्यों हुए, हम क्या करें जिससे भारत फिर गुलाम न हो? यह चिरन्तन प्रश्न उन्हें चैन से नहीं बैठने देता था।

नागपुर लौटकर वे कांग्रेस में भर्ती हो गये, अपनी योग्यता तथा संगठन कुशलता के कारण उनकी गिनती प्रमुख कार्यकर्ताओं में होने लगी। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा० हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे।

1921 के असहयोग आन्दोलन में वे एक साल के लिए जेल भी गये, वहाँ उन्होंने देखा कि अपने भाषणों में बड़े-बड़े आदर्शों की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड़ के टुकड़े और साबुन की टिकिया के लिए कैसे लड़ते हैं? मुस्लिम तृष्टीकरण अनुशासनहीनता

तथा निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओं को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया। वैचारिक मंथन तीव्र गति से चल रहा था। अन्ततः उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला-बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान सम्भव नहीं है। भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि तथा मोक्षभूमि मानने वाला हिन्दू समाज ही इस देश का एकमेव राष्ट्रीय समाज है। उसको संगठित करने से ही भारत को चिरस्थाई स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है।

जेल से बाहर आने के बाद उनके मन में एक नये संगठन की योजना कार्यरूप ले रही थी। और इसी के निष्कर्ष स्वरूप 1925 की विजयदशमी के शुभ अवसर पर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर दी। प्रारम्भ में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उनको उपदेश और सुझाव देने वाले तो बहुत थे, पर सहयोग करने वाले बहुत कम। "हिन्दू समाज का संगठन जीवित मेंढकों को तौलने के समान असम्भव है, चार हिन्दू तो तब ही एक दिशा में चलते हैं जब किसी पाँचवें की अर्थी उनके कन्धे पर होती है".... आदि आते उन्हें बहुत सुननी पड़ती थी। डा. हेडगेवार की अविश्रान्त साधना के फलस्वरूप संघ का कार्य तेजी से बढ़ने लगा, युवकों की टोलियाँ उनके घर पर जमी रहती थी।

21 जुलाई 1930 को यवतमाल में अपने जत्थे के साथ जंगल सत्याग्रह में उन्होंने भाग लिया तथा नौ मास के कारावास की सजा उन्होंने अकोला जेल में रहकर पूरी की। डा. हेडगेवार के मन को सन्तोष कहाँ था? उनकी आँखों में तो भारतमाता को गुलामी की जंजीरो से मुक्त कराके उसे फिर से विश्व गुरू के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमान करने का स्वप्न तैर रहा था। दिन-रात वे इसी कार्य में लगे थे, आँखों में नींद और शरीर के विश्राम से से कोसों दूर थे।

1934 में वर्धा में संघ का शिविर लगा। महात्मा गांधी भी उस समय वर्षों में ही श्री जमनालाल बजाज के बंगले पर ठहरे हुए थे, शिविर के बारे में चर्चा होने पर गांधी जी ने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की। उनके भन में संघ के बारे में कोई बहुत अच्छी धारणा नहीं थी, पत्तु शिविर में आकर वे चभत्कृत हो गये। छुआछूत और भेदभाव मिटाने को जो बात के वर्षों से बोल रहे थे, संघ-शिविर में वह उन्हें व्यवहार में दिखायी दी।

एक ओर संघ का कार्य और उसके विचारों की स्वीकार्यता समाज में निरन्तर बढ़ रही थी तो दूसरी ओर डाक्टर जी का शरीर धीरे-धीरे शिथिल होता चला जा रहा था। बीमारी और बेहोशी की अवस्था में भी के बड़बड़ाते रहते थे। "देखो, 1940 का वर्ष भी बीता जा रहा है, हमारा कार्य शीघ्र बढ़ना चाहिए...।"

1940 में नागपुर तथा पुणे में संघ के चालीस दिवसीय ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण वर्ग (संघ शिक्षा वर्ग) लगे, पुणे के वर्ग में कुछ दिन रहने के बाद वे आग्रह पूर्वक नागपुर आये। भीषण गर्मी के कारण उनका स्वास्थ्य लागातार गिर रहा था। पर फिर भी वे स्वयंसेवकों से मिलते थे। नागपुर के इस वर्ग में पहली बार भारत के प्रत्येक प्रान्त का प्रतिनिधित्व हुआ था। स्वयंसेवकों के रूप में मानो सम्पूर्ण भारत का कोटा प्रतिरूप वहाँ उपस्थित था, डाक्टर जी को भी इस बात का बहुत सन्तोष था।

स्वास्थ्य की अत्याधिक खराब के कारण डाक्टरों ने अन्तिम उपाय के रूप में रीढ़ से पानी निकालने के लिए लंबर-पंचर करने का निर्णय लिया। लेकिन फिर भी बुखार, रक्तचाप आदि में कोई कमी नहीं हुई। अन्ततः 21 जून, 1940 प्रातः 9.27 पर हिन्दू राष्ट्र के मन्त्रदृष्टा स्वयंसेवकों के आराध्य, संघ संस्थापक पू० डा० केशव बलिराम हेडगेवार ने अपनी नश्वर काया छोड़ दी।


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