बुधवार, 19 मार्च 2025

वीर बलिदानी भगतसिंह



स्वतन्त्रता के मतवाले भगत सिंह

पद्म सिंह 

गर्मियों की दोपहर थी। गांव के खेतों में हलचल मची हुई थी। हल जोतते बैलों की घंटियों की आवाज़, मिट्टी की सौंधी खुशबू और हवा में लहराते सरसों के पीले फूलों के बीच एक नन्हा बालक उछलता-कूदता घूम रहा था। यह कोई साधारण बालक नहीं था—यह था भगत, भगत सिंह । उसकी चंचल आंखों में अजीब-सा तेज था, उसके चेहरे पर कोई आम बालकों जैसी मासूमियत नहीं, बल्कि एक अजीब तरह की गंभीरता थी।

वह अपने पिता और चाचा से कहानियाँ सुनकर बड़ा हो रहा था—कहानियाँ देश की गुलामी की, अंग्रेज़ों के जुल्म की, और उन बहादुर क्रांतिकारियों की, जो भारत माता के लिए हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। उसके घर का माहौल ही ऐसा था कि देशभक्ति उसके खून में घुल चुकी थी। जब बच्चे खिलौनों से खेलते थे, तब वह अपने दोस्तों से पूछता—"आजादी कैसे मिलेगी?" और जब कोई जवाब नहीं दे पाता, तो वह खुद ही कहता—"हमें कुछ करना होगा!"

            एक दिन, भगत सिंह अपने खेतों में दौड़ते हुए पहुँचा । उसकी जेब में कुछ था—कुछ लोहे की पुरानी कीलें और लकड़ी के टुकड़े, जिन्हें उसने कहीं से इकट्ठा किया था। उसने एक छोटा सा गड्ढा खोदा और उसमें उन कीलों और लकड़ियों को रखकर मिट्टी से ढक दिया। फिर पास खड़े अपने चाचा से बोला—

"मैंने यहाँ बंदूक बोई है। जब ये उगेगी, तो मैं उससे अंग्रेज़ों को भगा दूँगा!"

चाचा ने पहले तो हंसते हुए उसकी तरफ देखा, फिर उसकी आँखों में झाँका । वे समझ गए कि यह कोई आम बालक नहीं था—यह वही क्रांति का बीज था, जो एक दिन इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने वाला था। उन्होंने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और पूछा—

"बंदूक क्यों चाहिए तुझे, भगत ?"

"क्योंकि अंग्रेज़ हमें मार रहे हैं। हमें उनसे लड़ना है!" बालक ने बिना झिझक जवाब दिया। वह मिट्टी को ऐसे देख रहा था, मानो सच में वहाँ से बंदूकें उगने वाली हों। उसके मन में एक सपना था—एक आजाद भारत का सपना। उसे नहीं पता था कि बंदूकें खेतों में नहीं उगतीं, लेकिन उसे यह जरूर पता था कि अगर मन में जज़्बा हो, तो आज़ादी की राह खुद-ब-खुद बन जाती है।

            वह दिन सिर्फ एक खेल नहीं था, बल्कि एक संकेत था कि यह बालक आगे चलकर क्या बनने वाला था। धीरे-धीरे, उसकी सोच और मजबूत होती गई। किताबों में इतिहास पढ़ते-पढ़ते, वह खुद एक इतिहास रचने की ओर बढ़ रहा था । बंदूकों की फसल तो नहीं उगी, लेकिन उस दिन जो बीज बोया गया था, वह आगे चलकर एक ऐसी क्रांति में बदला, जिसने अंग्रेज़ी साम्राज्य को हिलाकर रख दिया।

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान में स्थित फ़ैसलाबाद) के बंगा गाँव में हुआ था। उनका परिवार एक राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी विचारधारा वाला था।

उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह सभी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय थे। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ, उसी दिन उनके पिता और चाचा जेल से रिहा हुए थे, जिससे घर में खुशी का माहौल था। शायद तभी से उनके खून में क्रांति की चिंगारी आ गई थी।       

            भगत सिंह का बचपन ऐसे ही छोटे-छोटे किस्सों से भरा था—कभी मिट्टी में बंदूक बोने की कोशिश, तो कभी अपने दोस्तों के साथ बैठकर आज़ादी की योजनाएँ बनाना। वह उम्र से छोटा था, पर सोच से बहुत बड़ा। और यही सोच उसे आगे चलकर अमर कर गई।

आज भी जब कोई बच्चा सपने देखता है, तो इतिहास के पन्नों से भगत सिंह की आवाज़ आती है—

"अगर सपने देखने की हिम्मत है, तो उन्हें पूरा करने की ताकत भी जुटानी होगी!"

            13 अप्रैल 1919 का दिन..... अमृतसर के लिए एक खास दिन था—बैसाखी का पर्व। सुबह से ही लोग खुश थे। किसानों के लिए यह नई फसल की खुशी का दिन था, तो आम जनता के लिए एक नई उम्मीद का ।

लेकिन इस दिन अमृतसर के जालियाँवाला बाग़ में जमा हुई भीड़ का मकसद सिर्फ उत्सव मनाना नहीं था। वे लोग रौलेट एक्ट के खिलाफ विरोध करने और अपने नेताओं डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए इकट्ठा हुए थे।

कोई मंच नहीं था, कोई हथियार नहीं थे, सिर्फ आम लोग थे—बुज़ुर्ग, महिलाएँ, बच्चे और नौजवान। हर कोई अपने हक़ की आवाज़ बुलंद करने आया था।

दोपहर होते-होते ब्रिगेडियर जनरल रेगिनाल्ड डायर को खबर मिली कि हजारों लोग बाग़ में एकत्र हुए हैं। यह सुनते ही उसने 90 सिपाहियों का एक दस्ता तैयार किया और बंदूकें लेकर जालियाँवाला बाग़ की ओर बढ़ चला।

जालियाँवाला बाग़ एक खुली ज़मीन थी, लेकिन चारों ओर ऊँची दीवारों से घिरी हुई थी। वहाँ से बाहर निकलने के सिर्फ़ एक-दो तंग रास्ते थे।

जनरल डायर ने एक भी चेतावनी दिए बिना अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया।

"फायर!"

यह शब्द सुनते ही ब्रिटिश सैनिकों ने ताबड़तोड़ गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं।

तड़ ! तड़ ! तड़ !

एक गोली… दो गोली… सौ गोली… हज़ारों गोलियाँ…

कोई चिल्लाया—"भागो!" लेकिन भागने का कोई रास्ता नहीं था।

भीड़ में खड़े लोगों को कुछ समझ ही नहीं आया कि अचानक क्या हो गया। देखते ही देखते चारों ओर लाशें बिछने लगीं।

माँ अपने बच्चों को ढकने लगीं, लेकिन अंग्रेजों की गोलियाँ उनके सीने को चीरती चली गईं।

बुज़ुर्गों ने दीवार पर चढ़ने की कोशिश की, लेकिन पीछे से आती गोलियों ने उन्हें वहीं ढेर कर दिया।

कुछ लोग कुएँ में कूद गए, लेकिन अंदर भी ज़िंदा नहीं बचे।

बच्चे अपनी माँओं को झकझोर रहे थे, "माँ उठो! हमें घर जाना है!" लेकिन वे कभी नहीं उठीं।

सैनिक लगातार गोलियाँ चलाते रहे। एक-एक गोली सीने चीरती रही।

जनरल डायर का आदेश था—"जब तक गोलियाँ खत्म न हो जाएं, फायरिंग जारी रहे!"

10 मिनट तक लगातार गोलीबारी चलती रही।

जब गोलियाँ खत्म हो गईं, तो बाग़ में बस लाशों का ढेर और कराहती हुई ज़िंदगियाँ बची थीं।

जनरल डायर अपने सैनिकों के साथ मुड़ा और वापस चला गया। उसे न अफसोस था, न पछतावा।

ब्रिटिश सरकार ने कहा—"379 लोग मरे।"

लेकिन असली आंकड़ा 1000 से भी ज्यादा था।

पूरा बाग़ खून से सन चुका था। दीवारें, ज़मीन, कुएँ—हर जगह सिर्फ लाशें और गोलियों के निशान थे।

जब जनरल डायर से पूछा गया कि उसने बिना चेतावनी दिए गोली क्यों चलाई, तो उसने कहा—

"अगर मेरे पास और गोलियाँ होतीं, तो मैं और लोगों को मारता!"

यह सुनकर पूरी दुनिया में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गुस्सा फैल गया। लेकिन भारत में यह घटना क्रांति की आग बन गई।

भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और अनगिनत क्रांतिकारियों ने इसी दिन प्रण लिया था—

"अब आज़ादी की लड़ाई और तेज़ होगी। हम अपने खून की आखिरी बूँद तक लड़ेंगे!"

आज भी जालियाँवाला बाग़ की मिट्टी में उन शहीदों का लहू बसा है।

दीवारों में गोलियों के निशान आज भी उस क्रूरता की कहानी कहते हैं।

लेकिन इन शहीदों की शहादत ने भारत को गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने की राह दिखाई।

जब भी कोई अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है, तो जालियाँवाला बाग़ की मिट्टी से एक आवाज़ उठती है—

"शहीदों को सलाम! इंकलाब जिंदाबाद!"


जालियाँ वाला बाग नरसंहार की जब यह खबर पंजाब के गांव-गांव में फैली, तब 12 वर्षीय भगत सिंह भी अपने घर बंगा (अब पाकिस्तान में) में थे। वह सुनकर अंदर तक हिल गए। वह जानना चाहते थे कि अंग्रेजों की क्रूरता कितनी भयानक थी।


एक सुबह, बिना किसी को बताए, वह जलियांवाला बाग की ओर निकल पड़े। छोटे-छोटे कदमों में एक दृढ़ संकल्प था। गर्म धूप में धूल भरी सड़कों पर वह पैदल चलते रहे, उनके मन में केवल एक ही प्रश्न था—"इतने निर्दोष लोगों को क्यों मारा?"


कई मील चलने के बाद जब भगत सिंह जलियांवाला बाग पहुंचे, तो वहां की हालत देखकर उनकी आंखें नम हो गईं। चारों ओर खून से सने हुए कपड़े, दीवारों पर गोलियों के निशान, और कुएं में पड़ी लाशों की बदबू। यह दृश्य उनके हृदय में क्रांति की चिंगारी जला चुका था।


उन्होंने झुककर उस मिट्टी को उठाया, जिसमें सैकड़ों शहीदों का खून मिला हुआ था। उसे अपने रूमाल में बांधकर, आंखों में आंसू लिए उन्होंने कसम खाई—"यह खून व्यर्थ नहीं जाएगा।"


उस दिन के बाद से भगत सिंह का जीवन पूरी तरह बदल गया। जलियांवाला बाग की उस मिट्टी ने उनके भीतर स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी आग जलाई, जो उन्हें हिंदुस्तान का सबसे बहादुर क्रांतिकारी बना गई।


वह सिर्फ एक मूक दर्शक नहीं थे, बल्कि उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा कर ली थी। जलियांवाला बाग कांड का दर्द ही वह चिंगारी बनी, जिससे भारत की आजादी की लौ और तेज जल उठी।


यह केवल एक यात्रा नहीं थी, यह क्रांति का पहला कदम था। भगत सिंह का जलियांवाला बाग तक पैदल जाना एक छोटे बच्चे की मासूम जिज्ञासा नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी के जन्म की शुरुआत थी।



17 दिसंबर 1928 .. लाहौर की सर्दियों में हल्की धुंध फैली हुई थी। सड़कों पर ब्रिटिश पुलिस के घुड़सवार दस्ते घूम रहे थे, हर जगह गोरे अफसरों की चौकसी थी। लेकिन इन्हीं सड़कों के बीच, कुछ नौजवानों के मन में तूफान उठ रहा था।


"लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेना है!"—यह संकल्प उनके दिलों में धधक रहा था।


कुछ ही हफ्ते पहले, 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध हो रहा था। लेकिन अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जेम्स ए. स्कॉट ने निर्दयता से लाठीचार्ज करवाया। लाला जी घायल हुए और 17 नवंबर 1928 को शहीद हो गए।


अब भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद और उनके क्रांतिकारी साथियों ने स्कॉट को मारने की योजना बनाई।


क्रांतिकारियों ने योजना बनाई—स्कॉट को गोली मारनी है, ताकि दुनिया को यह संदेश मिले कि भारत अब अन्याय सहन नहीं करेगा।


भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जिम्मेदारी दी गई। राजगुरु का निशाना सबसे तेज़ था, और भगत सिंह योजना के केंद्र में थे।


शाम के करीब 4:15 बज रहे थे...... लाहौर के ब्रिटिश पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर, भगत सिंह और राजगुरु एक गली के कोने पर छिपे हुए थे। उनके हाथों में पिस्तौलें थीं । तभी..... पुलिस अधीक्षक स्कॉट के बजाय सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी. सांडर्स बाहर निकला।


राजगुरु ने अपनी माउजर पिस्तौल उठाई और निशाना साधा—


"ताड़ !"


एक गोली सांडर्स के सिर में जा लगी, और वह लड़खड़ाकर नीचे गिर पड़ा । भगत सिंह ने आगे बढ़कर एक के बाद एक गोलियाँ दाग दीं, जिससे यह सुनिश्चित हो जाए कि सांडर्स मरा है ।


चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। अंग्रेज अधिकारी चिल्ला रहे थे, पुलिस दौड़ रही थी, लेकिन क्रांतिकारी अपनी योजना के अनुसार तेजी से निकल रहे थे।


भगत सिंह और राजगुरु भागते हुए दूसरे रास्ते से निकल गए। चंद्रशेखर आज़ाद वहीं रुके और जब पुलिस ने पीछा करने की कोशिश की, तो अपनी रिवॉल्वर से गोली चलाकर उन्हें रोक दिया।


अगले ही दिन, भगत सिंह और उनके साथी भेष बदलकर अंग्रेज अफसरों की आँखों में धूल झोंककर लाहौर से निकल गए।


ब्रिटिश सरकार दंग रह गई। पूरा लाहौर इस खबर से हिल उठा—


"कोई भारतीय इस तरह किसी अंग्रेज अफसर को मार सकता है?"


जल्द ही भगत सिंह और उनके साथियों पर ब्रिटिश सरकार ने बड़े पैमाने पर तलाश अभियान चलाया। लेकिन तब तक, यह घटना भारतीय क्रांतिकारियों के लिए एक नई प्रेरणा बन चुकी थी।


सांडर्स की हत्या कोई अपराध नहीं था, यह लाला लाजपत राय की शहादत का बदला था, यह एक ज्वलंत संदेश था कि अन्याय का अंत निश्चित है।


और इस घटना के बाद, भगत सिंह का नाम हर भारतीय के दिल में क्रांति की आग बनकर जलने लगा।



8 अप्रैल 1929 का वह ऐतिहासिक दिन.....


सूरज अपनी रोशनी फैला रहा था, लेकिन दिल्ली की हवा में अजीब-सी हलचल थी। सेंट्रल असेम्बली (अब संसद भवन) में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक गूंज उठने वाली थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सुबह उठकर अपने क्रांतिकारी साथियों से विदा ली, मानो किसी युद्ध पर जा रहे हों। उनकी आँखों में आत्मविश्वास की चमक थी, और दिल में मातृभूमि की स्वतंत्रता की लौ जल रही थी।


उनके कोट की जेबों में पर्चे भरे हुए थे, और उनके पास दो बम थे—छोटे, लेकिन इतनी ताकत वाले कि पूरे ब्रिटिश साम्राज्य को हिला सकें।


सेंट्रल असेम्बली में वायसराय के प्रस्ताव पर चर्चा हो रही थी। ब्रिटिश सरकार "पब्लिक सेफ्टी बिल" और "ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल" को पास कराने वाली थी, जिससे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर और अधिक अत्याचार किया जा सके। हॉल में अंग्रेज अधिकारी, गवर्नर-जनरल के मंत्री और भारतीय नेता बैठे थे।


इसी भीड़ में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त शांति से एक गैलरी में पहुंचे। भगत सिंह ने अपनी जेब में बम को महसूस किया और बटुकेश्वर की ओर देखा। एक नजरों का इशारा हुआ—वह क्षण आ गया था!


"इंकलाब जिंदाबाद!" – बम का धमाका


अचानक—"धड़ाम!"


पूरा हॉल गूंज उठा। धुआं चारों ओर फैल गया। अफरा-तफरी मच गई। नेता अपनी कुर्सियों के नीचे छिपने लगे, अंग्रेज अफसर इधर-उधर भागने लगे। लेकिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त वहीं खड़े रहे, बिना किसी डर के ।


उन्होंने सीधे हवा में नारे लगाए—


"इंकलाब जिंदाबाद!"


"साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!"


और फिर, जेब से पर्चे निकालकर हवा में उछाल दिए । उन पर्चों में लिखा था कि यह बम किसी को मारने के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए फेंका गया है।


धुआं धीरे-धीरे छंटने लगा । पुलिस वाले दौड़ते हुए आए और भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को घेर लिया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि बम फेंकने वाले इतनी शांति से खड़े होंगे ।


एक ब्रिटिश अफसर ने चीखकर कहा—


"गिरफ्तार करो इन्हें!"


लेकिन भगत सिंह और बटुकेश्वर ने बिना किसी विरोध के अपने हाथ आगे बढ़ा दिए, मानो कह रहे हों—


"हमें कैद कर सकते हो, लेकिन हमारे विचारों को नहीं।"


जब उन्हें हथकड़ी लगाई जा रही थी, तब भी उनके चेहरे पर मुस्कान थी, और उनके होंठों पर केवल एक ही नारा था—


"इंकलाब जिंदाबाद!"


इस घटना ने पूरे भारत में हलचल मचा दी। ब्रिटिश सरकार डर गई। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा चलाया गया, लेकिन उनका उद्देश्य पूरा हो चुका था—जनता को यह बताना कि स्वतंत्रता केवल याचना से नहीं, बल्कि क्रांति से मिलेगी।


असेम्बली में फेंके गए उस बम का धमाका सिर्फ उस इमारत में नहीं, बल्कि पूरे भारत के हर क्रांतिकारी के दिल में गूंज उठा। यह केवल एक बम नहीं था, यह ब्रिटिश शासन की नींव को हिला देने वाली आवाज थी। "इंकलाब जिंदाबाद!"



7 अक्टूबर 1930....


दिल्ली की एक ठंडी सुबह। सेंट्रल जेल से कुछ पुलिसकर्मी हथकड़ी पहने एक कैदी को लेकर कोर्ट की ओर बढ़ रहे थे। वह कोई साधारण कैदी नहीं था—वह भारत की स्वतंत्रता की लौ था, एक ऐसा नाम जिससे ब्रिटिश सरकार कांपती थी।....... भगत सिंह !


उनके साथ राजगुरु और सुखदेव भी थे। तीनों के चेहरे पर कोई डर नहीं था, बल्कि एक तेज, एक आत्मविश्वास था, मानो यह मुकदमा उनकी जीत का ही एक हिस्सा हो।


कोर्ट रूम के बाहर हजारों भारतीय इकट्ठा थे। हर कोई बस एक झलक पाना चाहता था अपने वीर क्रांतिकारी की। चारों ओर गूंज रही थी—


"इंकलाब जिंदाबाद!"


"भगत सिंह ज़िन्दाबाद !"


जज अपनी कुर्सी पर बैठा, सामने ब्रिटिश अधिकारी, सरकारी वकील और एक तरफ भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। कोर्ट में गहरी शांति थी, लेकिन हवा में तनाव घुला हुआ था।


सरकारी वकील ने खड़े होकर आरोप पढ़े—


"भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर अंग्रेज अफसर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप है।"


"वे असेम्बली में बम फेंकने और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ षड्यंत्र रचने के दोषी हैं।"


जज ने भगत सिंह की ओर देखा—


"क्या तुम अपने ऊपर लगे आरोप स्वीकार करते हो?"


भगत सिंह मुस्कुराए, कुर्सी से उठे और पूरे आत्मविश्वास के साथ बोले—


"हाँ, हमने असेम्बली में बम फेंका था, लेकिन किसी को मारने के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत को यह बताने के लिए कि भारत अब जाग चुका है।"


पूरे कोर्ट रूम में सन्नाटा छा गया। अंग्रेज जज उनकी निडरता देखकर हैरान था। भगत सिंह की आवाज गूंज रही थी—


"हमें फाँसी की सजा देने से आपकी सरकार मजबूत नहीं होगी। बल्कि यह क्रांति की चिंगारी को और हवा देगा।"


खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह के अतिरिक्त दो अन्य महत्वपूर्ण सरकारी गवाह थे ....फोनीन्द्र नाथ घोष, जिनकी गवाही मुख्यतः हिंदुस्तान सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के इर्द-गिर्द घूमती थी तथा जय गोपाल, जिनकी गवाही सॉन्डर्स की हत्या पर केंद्रित थी, जबकि वोहरा की गवाही भगत सिंह की गतिविधियों पर केंद्रित थी। हंस राज वोहरा HSRA में अंग्रेजों के लिए एक सरकारी गवाह था, जिसने अपनी स्वतंत्रता के बदले में अपने साथियों की पहचान करने वाली गवाही अंग्रेजों को दी थी । लाहौर षडयंत्र मामले के मुकदमे में भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु के खिलाफ उनका बयान उनकी मौत की सजा सुनाए जाने में "महत्वपूर्ण" साबित हुआ।


ब्रिटिश सरकार को भगत सिंह का जीवित रहना सबसे बड़ा खतरा लग रहा था। आखिरकार, 7 अक्टूबर 1930 को जज ने फैसला सुनाया—


"भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा दी जाती है!"


यह सुनते ही कोर्ट में कोलाहल मच गया। चारों ओर नारे गूंज उठे—


"इंकलाब जिंदाबाद!"


"साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!"


लेकिन भगत सिंह मुस्कुरा रहे थे। जैसे ही पुलिस उन्हें वापस जेल ले जाने लगी, उन्होंने जोर से कहा—


"फाँसी से डरने वाले नहीं हैं हम। यह जंग अभी जारी रहेगी!"


कोर्ट रूम से बाहर जाते हुए उन्होंने अपनी जेब से एक किताब निकाली—"लेनिन की जीवनी"—और उसे पढ़ते हुए बाहर निकल गए, मानो यह मुकदमा एक खेल था, और असली लड़ाई अभी बाकी थी।


भगत सिंह को सजा सुनाने वाली ब्रिटिश अदालत ने सोचा था कि उनकी आवाज दब जाएगी, लेकिन असल में वह आवाज पूरे भारत में गूंजने लगी। उनका यह मुकदमा इतिहास के पन्नों में केवल एक कानूनी कार्यवाही नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति का एलान था।


उनकी फाँसी एक अंत नहीं थी, बल्कि एक नए युग की शुरुआत थी।



दिनांक: 23 मार्च 1931 –लाहौर सेंट्रल जेल के ऊँचे, ठंडे और भारी दरवाजे के पीछे अंधेरे की चादर बिछी हुई थी। लेकिन जेल के एक कोने में एक छोटी-सी कोठरी थी, यह कोठरी किसी आम कैदी की नहीं थी, बल्कि वहाँ बैठा था एक विचार, एक क्रांति, एक स्वतंत्रता की जलती हुई मशाल—भगत सिंह।


लाहौर सेंट्रल जेल की सुबह किसी आम दिन जैसी ही थी, लेकिन एक अजीब-सी बेचैनी हवाओं में घुली हुई थी। जेल के चारों ओर फैली ठंडी हवा अचानक आँधी में बदल गई थी, मानो आसमान भी किसी अनहोनी की आहट दे रहा हो । लेकिन कोठरी नंबर 14 में कैद भगत सिंह के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी—अडिग, निडर और चमकती हुई । भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अगले दिन सूरज निकलने से पहले फांसी दी जानी थी । लेकिन वे चिंतित नहीं थे।



दोपहर का समय...... जेल अधिकारी धीरे-धीरे उनकी कोठरी की ओर बढ़े । उनके चेहरे पर झिझक थी । अंदर जाकर उन्होंने संक्षेप में कहा—


"भगत सिंह, तुम्हारी फाँसी का समय बदल दिया गया है। अब तुम्हें कल सुबह के बजाय आज शाम सात बजे फाँसी दी जाएगी।"


भगत सिंह मुस्कुराए, किताब के पन्ने पलटे और बोले—


"क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?"


वह बोले तो मजाक में, लेकिन जेल अधिकारी समझ गए कि वह किताब से ज्यादा अपने अधूरे सपने की बात कर रहे थे।



सूरज धीरे-धीरे ढलने लगा। कोठरी के बाहर हलचल तेज हो गई थी । फाँसी का समय समीप आता जा रहा था.. कुछ कैदी बेचैनी से कोनों में बैठे थे, और कुछ जेल के नाई बरकत से भगत सिंह की कोई भी चीज़ लाने की मिन्नत कर रहे थे—"कोई पेन, कंघा, घड़ी… ताकि हम अपने पोते-पोतियों को दिखा सकें कि हम भगत सिंह के साथ जेल में थे!"


जेल की एक सफ़ाई कर्मचारी बेबे, जिसने भगत सिंह की सेवा की थी, उनके लिए अपने घर से खाना लाने को कहा था था। भगत सिंह ने पहले ही कहा था—


"फाँसी से एक दिन पहले तुम्हारे हाथों का खाना जरूर खाऊँगा।" लेकिन कड़ी सुरक्षा के कारण बेबे जेल में प्रवेश नहीं कर सकी।


शाम के 6:55 बजे जेल के गलियारे में भारी कदमों की आवाज़ गूँज रही थी। फाँसी के तख्त की ओर ले जाने के लिए जेल अधिकारी कोठरी की ओर बढ़ रहे थे....जिस समय अधिकारी लेने आए .....भगत सिंह जीवन के अन्तिम समय मे भी किताब राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे।


भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को कोठरियों से बाहर लाया गया। उनके हाथों को बाँधने की तैयारी हुई तो उन्होंने कहा—


"ठहरिये, पहले एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले" "हमें बंधन में मत डालो। हम भागने वाले नहीं हैं।


जेल अधिकारी चुप थे, उनके पास कोई जवाब नहीं था। आदेश आया और उनके हाथ खोल दिए गए । तीनों क्रांतिकारी एक-दूसरे से गले मिले और फाँसी के फंदे की ओर चल पड़े, जैसे दूल्हा अपनी बारात मे चलता है ।


...... तभी..... भगत सिंह ने अपनी बुलंद आवाज़ में गाना शुरू किया—


"मेरा रंग दे बसंती चोला... माए रंग दे ..बसंती चोला"


फांसी के तख्ते पर जाते हुए भगत सिंह एक गीत गा रहे थे, "दिल से न निकलेगी मरकर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वतन आएगी".


राजगुरु और सुखदेव भी गाने लगे। जेल की दीवारों से टकराकर यह गीत बाहर तक गूँज उठा। जेल के अंदर खड़े हर व्यक्ति की आँखें नम थीं।




शाम के 7 बजे – फाँसी का तख्ता तैयार था। तीनों आगे बढ़े, मानो कोई बारात निकल रही हो। जल्लाद ने रस्सी तैयार की।


भगत सिंह ने एक गहरी सांस ली, फाँसी के तख्ते को देखा और मजाकिया लहजे में बोले—


"ब्रिटिश सरकार कमजोर हो गई है, तभी वह हमें जल्दी फाँसी दे रही है!"


फाँसी का फंदा उनके गले में डाल दिया गया। जेलर ने पूछा—


"तुम्हारी आखिरी इच्छा?"


भगत सिंह ने गर्व से कहा—


"इंकलाब जिंदाबाद!"


"साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!"


फंदा कस दिया गया। जल्लाद ने लीवर खींचा।


झटका लगा… तख्ता गिरा… और तीनों अमर हो गए।


जेल के बाहर हज़ारों लोग इकट्ठा थे। हर कोई जानता था कि आज कुछ बदल गया है। यह सिर्फ तीन युवाओं की शहादत नहीं थी, यह भारत के लिए एक नई सुबह का पैग़ाम थी। कहा जाता है कि भगत सिंह ने अपनी मां विद्यावती से कहा था, ‘मेरा शव लेने आप नहीं आना और कुलबीर (छोटा भाई) को भेज देना, क्योंकि यदि आप आएंगी तो रो पड़ेंगी और मैं नहीं चाहता कि लोग यह कहें कि भगत सिंह की मां रो रही है।


अंग्रेजों ने चुपचाप उनकी लाशों को जलाने की कोशिश की, लेकिन जनता को खबर लग गई। लोग दौड़ पड़े, राख को हाथों में उठाकर बोले—


"भगत सिंह अमर हैं! उनकी राख भी हमें आज़ादी दिलाएगी!" 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने फाँसी को हंसते-हंसते गले लगाया। लेकिन वे कभी मरे नहीं आज भी जब कोई अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाता है, तो हवा में एक गूंज उठती है— "इंकलाब जिंदाबाद!"

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