गुरुवार, 19 जून 2025

गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत

 

गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत

सतीश शर्मा 

गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, और यह दिन गुरुओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने के लिए समर्पित है। इस दिन, शिष्य अपने गुरुओं का पूजन करते हैं, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस दिन वेदों के रचयिता महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था। गुरु बिना ज्ञान नहीं मिलता ओर ज्ञान नहीं तो जीवन में सम्मान भी नहीं मिलेगा। 

हिन्दू-जीवन में गुरू का महत्व बहुत अधिक है। हम अपनी माँ और पिताजी को देव-समान मानते हैं। उसके बाद हमें समाज में जो स्थान देते हैं, वह अपना गुरू है। इसलिए प्राथमिक प्रकाश जब माता-पिता देते हैं उसके बाद ज्ञान का प्रकाश दुनिया की जानकारी देने वाले व्यक्ति को हम गुरू कहते हैं। इसलिए माता भी देव-समान हैं। गुरू भी देव समान है। इसलिए अपने उपनिषदों में सर्वप्रथम कहा- मातृ देवो भव, माता देव के समान हो, इसके बाद पितृ-देवो भव पिता भी ईश्वर के समान उसके बाद तीसरा शब्द है आचार्यः देवो भव गुरू भी देव के समान हैं। इसलिए जो हमें पाशविक जीवन से मानवीय जीवन की ओर ले जाते हैं सभी हमारे देव हैं। इसलिए माता-पिता गुरू तीनों देव समान हैं।

जब गुरू का महत्व देव समान है तो अपनी संस्कृति ने दूसरा भी एक पाठ सिखाया। आदमी कितना भी बड़ा हो गुरू के बिना उसकी शिक्षा सम्पूर्ण नहीं हो पाती। इसलिए हम देखते हैं, साक्षात् श्रीकृष्ण परमात्मा, वे ज्ञान का अधिष्ठाता थे तो भी उनको एक गुरू के यहां जाकर गुरू के चरणों में बैठकर अपनी शिक्षा प्रारम्भ करनी पड़ी और पूर्ण करनी पड़ी। वे स्वयं ज्ञानी थे तो भी संदीपनी महर्षि के आश्रम में जाकर उनको अपना गुरू के नाते उन्होंने स्वीकारा। प्रभु रामचन्द्र जी वह भी त्रिकाल ज्ञानी थे तो भी वशिष्ठ को गुरू के नाते उन्होंने अपनाया। आदमी अत्यन्त महान हो, तो भी गुरू के नाते और एक व्यक्ति के चरणों के पास जाकर विनम्रता से बैठकर शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। गुरू के बिना ज्ञान सम्पूर्ण नहीं हो जाता यह अपनी संस्कृति की शिक्षा है।

 “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।”

गुरु को ज्ञान, मार्गदर्शन और आध्यात्मिक विकास का स्रोत माना जाता है। गुरु पूर्णिमा, गुरु के महत्व को स्वीकार करने और उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का दिन है। 

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई , जौ बिरंचि संकर सम होई।।

अर्थात गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के समान ही क्यों न हो। जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोह उत्पन्न न हो, दुखों का शमन हो जाए तथा परब्रह्म अर्थात स्वयं के स्वरूप की अनुभूति हो जाए, ऐसा ज्ञान गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।

गुरु का स्थान भगवान से भी ऊंचा है इसी लिए कबीर जी ने कहा है –

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागौं पांय। बलिहारी गुरु आपने, जिन गोबिंद दियो बताय॥

यदि गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो पहले गुरु के चरणों में प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि गुरु ने ही हमें भगवान तक पहुंचने का रास्ता दिखाया है।

बौद्ध धर्म में, गुरु पूर्णिमा को भगवान बुद्ध के पहले उपदेश की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाता है। 

गुरु पूर्णिमा, ज्ञान और शिक्षा के महत्व को दर्शाती है। यह दिन छात्रों और शिक्षकों के बीच एक मजबूत बंधन बनाने और ज्ञान के प्रसार को बढ़ावा देने का भी अवसर है। गुरु पूर्णिमा, शिष्यों के लिए अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक विशेष अवसर है, जिन्होंने उन्हें ज्ञान, मार्गदर्शन और आध्यात्मिक विकास प्रदान किया। गुरु पूर्णिमा एक ऐसा त्योहार है जो गुरु के महत्व, ज्ञान की शक्ति, और शिष्य और गुरु के बीच के पवित्र बंधन को दर्शाता है। 

गुरु मंत्र आमतौर पर आपके गुरु या आध्यात्मिक शिक्षक द्वारा दिया जाता है। जब आप किसी आध्यात्मिक मार्गदर्शक को गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, तो वे आपको गुरु मंत्र प्रदान करते हैं। गुरु मंत्र के साथ दीक्षा (दीक्षा) तभी दी जाती है जब गुरु ऐसा करने के लिए अनुमति देते हैं। 

गुरु मंत्र कौन दे सकता है? आध्यात्मिक गुरु –  गुरु मंत्र आमतौर पर आपके आध्यात्मिक गुरु द्वारा दिया जाता है। गुरु की अनुमति –  दीक्षा के लिए, गुरु को स्वयं को अनुमति देनी होती है, और वे किसी को भी दीक्षा देने के लिए नहीं कह सकते। 

परंपरागत गुरु –  परंपरा के अनुसार, गुरु मंत्र का हस्तांतरण गुरु से शिष्य तक किया जाता है। 

गुरु मंत्र गुरु और शिष्य के बीच एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक संबंध स्थापित करता है। गुरु मंत्र आध्यात्मिक प्रगति में सहायता करता है और इसे आगे बढ़ाता है। गुरु मंत्र ज्ञान और बुद्धि प्रदान करने में मदद करता है। आध्यात्मिक यात्रा पर, गुरु मंत्र एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और आध्यात्मिक मार्गदर्शन और ज्ञान प्रदान करता है। 

गुरु द्वारा किये गये अमूल्य उपकार की अनुभूति व्यक्ति को कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण की स्वाभाविक प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कारों में कृतज्ञता ज्ञापन स्वाभाविक है। गुरु के प्रति इसी कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक हैं गुरु को दक्षिणा । गुरुकुलों में शिष्य शिक्षा समाप्ति के बाद अपने गुरु को दक्षिणा देकर यह कृतज्ञता प्रकट करते रहे हैं। शिष्य अपनी क्षमता अथवा अपने गुरुजी की इच्छानुसार यह दक्षिणा देते थे। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार दक्षिणा की प्रक्रिया और स्वरूप भिन्न रहे होंगे। परन्तु दक्षिणा का विधान भारतीय समाज में अविरल दीर्घकाल से मान्य रहा है। गुरु दक्षिणा कोई दान नहीं है गुरु के प्रति किया गया सम्मान समर्पण भाव है । भारतीय समाज में व्यास पूर्णिमा  वाले दिन लोग अपने गुरु के पास जाते हैं और उनको वस्त्र और वर्ष भर में जमा की हुई समर्पण राशि भेंट करके आते हैं । 

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