मंगलवार, 22 मार्च 2022

धारणा



धारणा 

हेलो भाईसाहब टिकट ले लिजिए टिकट.. बस कंडक्टर ने उस आदमी से कहा। उस आदमी ने पीछे मुड़कर देखा और रौबदार आवाज में बोला, मैं टिकट नहीं लेता दुबले-पतले कंडक्टर ने उस 6 फुट लम्बे और बाॅडी बिल्डर आदमी को देखा तो उसकी दुबारा बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई । वह चुपचाप आगे बढ़ गया। अगले दिन वह आदमी फिर मिल गया। कंडक्टर ने फिर उससे टिकट के लिए पुछा, मैं कभी टिकट नहीं लेता। फिर वहीं उत्तर मिला । 

अगले दिन वह बस में फिर चढ़ा और फिर उसने टिकट नहीं लिया। अगले कई दिनों तक यहीं सिलसिला चलता रहा। उसके टिकट ना लेने से कंडक्टर के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती लेकिन उसके हट्टे कट्टे शरीर को देखकर उसका आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता.

एक दिन कंडक्टर के भीतर का मर्द जाग उठा, उसने सोचा कि आखिर कब तक इसके डर से नुकसान उठाते रहेंगे। अब तो इज्जत का सवाल है।आखिरकार कंडक्टर ने एक महीने की छुट्टी ले कर अखाड़े में भर्ती हो गया । अखाड़े में उसने खुब मेहनत की खुब पसीने बहाएं। एक महीने बाद फिर वह अपने काम पर वापस आया तो उसकी खुब बाॅडी बन चुकी थी और उसका आत्मविश्वास भी बढ गया था। हां भाई टिकट के पैसे निकालो, कंडक्टर ने सोच लिया था कि आज इससे टिकट ले कर रहूंगा  । मैं टिकट नहीं लेता, फिर वहीं जवाब मिला। अबे ऐसे कैसे नहीं लेगा। कंडक्टर ने रोबदार आवाज में बोला। क्योंकि मैंने एक साल के लिए पास बनवा रखा है।

यह कहते हुए उसने पास निकाल कर बढ़ा दिया। अब तो कंडक्टर की ऐसी स्थिति हो गई जैसे खोदा पहाड़ और निकली चुहिया.

सीख  ऐसा अक्सर हमारे साथ होता है कि हम बिना जाने-समझे सामने वाले के प्रति अपनी राय बना लेते हैं ये अच्छा है वो बुरा है,ये गलत है,वो सही है इस प्रकार से हम मन ही मन कल्पनाओं के पहाड़ खड़े करते रहते हैं मगर जब परिणाम सामने निकलता है तो हमें या तो शर्मिन्दा होना पड़ता है या पछताना पड़ता है इसलिए हमें ऐसी नकारात्मक विचारों दुर रहे।

रविवार, 20 मार्च 2022

गोपकुमार की गोलोक यात्रा



गोपकुमार की गोलोक यात्रा..


बृहदभागवतामृत सुंदरता पूर्वक गोपकुमार की गोलोक वृंदावन यात्रा का वर्णन करती है। गोपकुमार हमारी तरह इस भौतिक संसार में रहता था परंतु उसने इस संसार का त्याग करके आध्यात्मिक जगत में लौटने का निश्चय किया।वहां लौट कर उसे प्राप्त हुए आनंद का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। इस संसार में हमारी यात्रा अंतहीन है,हम अनादि काल से श्री कृष्ण से बिछड़ कर इस संसार में भटक रहे हैं। कई बार हम अपने पुण्यों को भोगने के लिए उच्च लोको में जाते हैं और कई बार अपने पाप फलों को भोगने के लिए निम्न लोको में। कई बार हमें मनुष्य शरीर मिलता है और कई बार निम्न योनियों में, कई बार हमारा जन्म भूमि पर होता है और कई बार जल अथवा आकाश में।

इस संसार के रचयिता श्री कृष्ण ने हमें पहले ही चेतावनी दी है कि इस संसार में कहीं भी स्थाई सुख नहीं है और मृत्यु के कारण सर्वत्र दुख व्याप्त है (गीता 8.16)। इसके विपरीत आध्यात्मिक जगत स्थाई है और मृत्यु मुक्त होने के कारण सभी प्रकार के दुखों से मुक्त है। फलस्वरूप श्री कृष्ण हमें आध्यात्मिक जगत में लौटने के लिए प्रेरित करते हैं। जिस प्रकार समुद्र से बाहर निकली मछली पुनः जल में लौटने तक सुख प्राप्त नहीं कर सकती उसी प्रकार हम भी अपने सच्चे घर लौटने तक वास्तविक सुख प्राप्त नहीं कर सकते।


 *गोप कुमार द्वारा आध्यात्मिक जगत लौटने का निश्चय ...* 


अवसर मिलते ही गोपकुमार उत्साह पूर्वक तथा पूरे विश्वास के साथ अपने अंतिम गंतव्य की ओर निकल पड़ा। गोलोक वृंदावन के मार्ग में वह उच्च लोको में भी गया परंतु उसे वहां आनंद नहीं मिला। वहां से वह आध्यात्मिक जगत में गया और वैकुंठ, अयोध्या एवं द्वारका की यात्रा की।इन लोकों में उसकी भेंट वहां के निवासियों से हुई ,वह निवासी भी श्री भगवान के ही समान यशस्वी एवं पूर्ण आनंद में थे, उनसे मिलकर गोपकुमार अत्यंत प्रसन्न हुआ। परंतु फिर भी कहीं कुछ छूट रहा था ,उसे अभी तक श्री कृष्ण तथा ब्रजवासी नहीं मिले थे ,उसके हृदय में असंतोष का वह कण बेचैन कर रहा था और भक्तवत्सल श्री कृष्ण भला उसकी वह इच्छा पूरी क्यों नहीं करते!

मन की गति से भी तीव्र यात्रा करने वाला एक दिव्य विमान वहां आया और गोपकुमार को आध्यात्मिक जगत के सर्वोच्च लोक कृष्ण लोक में ले आया। 


 *गोप कुमार का गोलोक वृंदावन आगमन ...* 


ऋषि मुनि उस धरती की एक झलक पाने के लिए हजारों वर्ष ध्यान तपस्या करते हैं। वहां पहुंचकर गोपकुमार को परम आह्लाद की अनुभूति हुई।श्री कृष्ण के दर्शन की ललक में वह उनकी खोज करने लगा। ब्रज वासियों से भेंट होने पर उसने श्री कृष्ण के बारे में पूछताछ की किंतु वे सभी श्रीकृष्ण के विचारों में इतने तल्लीन थे कि उनके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल सका।

अंततः एक बुजुर्ग व्यक्ति ने अवरुद्ध वाणी में नंद महाराज के घर की ओर संकेत किया। वहां गोपकुमार ने ऐसे लाखों चमत्कार देखें जिसकी उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी।

महल के द्वार पर गोपकुमार ने एक वृद्धा बृजवासी से श्री कृष्ण के बारे में पूछा अत्यंत दुखी होकर वह बोली "हमारे हृदय को चुराकर अब वह अपने मित्रों एवं भाइयों के साथ लीलाओं का सुख लेने के लिए वन में गया है।" 


 *ब्रज वासियों का विरह सुख..* 


श्री कृष्ण के बिरह में ब्रज वासियों को एक एक क्षण युग प्रतीत होता था। अपनी पीड़ा को शांत करने के लिए कुछ ब्रजवासी दिनभर श्री कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करते और कुछ उनकी लीलाओं पर गीत बना कर दिन भर उन्हें गाते रहते। कुछ स्त्रियां स्वादिष्ट व्यंजन बनाती रहती जिससे श्री कृष्ण के लौटते ही वे उन्हें खिला सके। विभिन्न कार्यों में व्यस्त रहकर वे अपनी भावनाओं को छुपाने का भरसक प्रयास करते परंतु उनके नेत्र सदैव चंचल रहते ,आंखों से निरंतर अश्रु धारा बहती रहती और अवरुद्ध कंठ से वे "कृष्ण ,कृष्ण!" पुकारते रहते समझना कठिन था कि वे आनंद में है अथवा दुख में, श्री कृष्ण के साथ हैं अथवा उनसे दूर। 


 *यमुना तट पर श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा..* 


बृजवासी आतुर होकर श्री कृष्ण के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे, संध्या होते ही वे सब उन्मुक्त होकर यमुना तट की ओर दौड़ने लगे ,कहीं श्री कृष्ण की झलक मिलने में देरी ना हो जाए ।यह विचार करके वह अपनी पलकें भी नहीं छुपा कर रहे थे तभी सहसा वातावरण वंशी की मधुर धुन से गूंज उठता है, यमुना थम जाती है, आकाश में पक्षी बुत बन जाते हैं ,वृक्ष उस ध्वनि का आलिंगन करने के लिए अपनी भुजाएं फैला लेते हैं ।

भावातिरेक में कुछ ब्रजवासी मूर्छित हो जाते हैं। उनके नेत्रों से बह रहे आंसू उनकी दृष्टि को धुन्दला देते हैं। कुछ लोग स्तब्ध ही खड़े थे।

व्यंजनों से भरे बर्तन उठाकर गोपियां दौड़ने लगी श्री कृष्ण के विरह में वे बार-बार उन्हें पुकार रही थी। नंद महाराज, राधा रानी तथा उनकी अनेक सखियां और ब्रज के सभी स्थावर जंगम निवासियों के साथ यशोदा मैया श्री कृष्ण की एक झलक पाने के लिए आतुर थे। 


 *और श्रीकृष्ण पहुंच गए...* 

सहसा पीतांबर पहने एक श्याम वर्ण बालक पहुंच गया। वह वन फूलों से सुसज्जित था और उस के मुकुट में मोर पंख सजा था।उस बालक के अधरों पर नृत्य कर रही सौभाग्यशाली वंशी सभी को उनके आगमन की सूचना दे रही थी। अब महोत्सव का समय था ।दिन भर वन में बिताने के बाद श्री कृष्ण ब्रज लौटकर प्रसन्न थे, परंतु अचानक श्री कृष्ण का आनंद कई गुना बढ़ गया। 


 *दीर्घकाल बाद श्री कृष्ण की गोप कुमार से भेंट ...


यमुना तट पर एकत्र हुए ब्रज वासियों के बीच श्री कृष्ण की दृष्टि गोपकुमार पर गई उन्होंने अपने बांसुरी वादन रोक दिया अपने मित्रों, गायों तथा सभी को भ्रमित छोड़कर व्यग्रता पूर्वक गोपकुमार की ओर दौड़ने लगे। पहुंचते ही उन्होंने कूदकर गोपकुमार का आलिंगन कर लिया इतने लंबे समय बाद अपने प्रिय मित्र को देखकर श्री कृष्ण भावविभोर होकर सरूप की भुजाओं में मूर्छित हो गए, चेतना लौटने पर श्री कृष्ण ने अपने बाएं हस्त कमल में गोप कुमार का हाथ पकड़ा और पूछा "कहां थे तुम सरूप मैं तुम्हारा कितना स्मरण करता था, प्रतिदिन मैं इस आशा में प्रतीक्षा करता कि 1 दिन तुम अवश्य लौट कर आओगे, मैं बहुत आभारी हूं कि तुम लौट आए अब कृपया यही रहना और कहीं ना जाना।"

आध्यात्मिक जगत में गोप कुमार का नाम सरूप था वो इसे भूल गया था परंतु श्रीकृष्ण को स्मरण था।अंततः सरूप अपने आध्यात्मिक परिवार से पुनः जुड़कर आनंद पूर्वक गोलोक वृंदावन में रहने लगा इस आध्यात्मिक जगत में कोई चिंता एवं भय नहीं है, और वह इस भौतिक जगत की समस्त पीढ़ियों एवं दुखों से मुक्त है। शास्त्र बताते हैं कि वह गोलोक वृंदावन हमारी प्रतीक्षा भी कर रहा है। 

-साभार

प्रहलाद महाराज भगवान के चरण कमलों की सेवा में संलग्न होने के इच्छुक थे,अपने ऐश्वर्यशाली पिता की मृत्यु के बाद प्रहलाद महाराज को उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी बनना था, जो सारे विश्व में फैली थी, लेकिन वह ऐसे भौतिक ऐश्वर्य को ग्रहण करना नहीं चाह रहे थे, क्योंकि कोई चाहे स्वर्ग में रहे या नर्क में, चाहे वह धनी हो या निर्धन भौतिक दशाएं सर्वत्र ही रहती हैं। अतः कोई भी जीवन-दशा पूर्णरूपेण प्रिय नहीं होती। यदि मनुष्य आनंदमय जीवन भोगना चाहता है तो उसे भगवान की दिव्य प्रेमा भक्ति में लगना चाहिए।भौतिक ऐश्वर्य भले ही कुछ काल तक प्रिय लगने वाला हो किंतु इसके लिए मनुष्य को अत्यधिक कठिन श्रम करना होता है।जब निर्धन व्यक्ति धनी बन जाता है तो उसकी दशा सुधर जाती है, किंतु उसे इस दशा तक पहुंचने में अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। भौतिक जीवन में कोई दुखी रहे या सुखी दोनों ही अवस्थाएं दुखमय हैं। यदि कोई वास्तव में आनंदमय सुखी जीवन चाहता है तो उसे कृष्णभावनाभावित होना पड़ेगा और भगवान की दिव्य प्रेमा भक्ति में लगना होगा ।यही असली औषधि है। सारा संसार इस भ्रम में है कि बद्ध जीव के दुखों को दूर करने के लिए यदि भौतिकता वादी उपचारों में प्रगति की जाए तो लोग सुखी हो सकेंगे, किंतु यह प्रयास कभी सफल होने वाला नहीं है। मानवता को भगवान की दिव्य प्रेमा भक्ति में लगने का प्रशिक्षण देना ही होगा।.... मनुष्य की भौतिक दशाओं में परिवर्तन करने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि सर्वत्र ही कष्ट तथा दुख है। 


तात्पर्य श्रीमद्भागवत 7.9.17

(प्रह्लाद महाराज की प्रार्थनाएं)

हीरे से अनमोल कथा है।



 हीरे से भी अनमोल क्या है 


 एक महात्मा एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे।


 एक दिन उन्होंने लकड़हारे से कहा कि सुन भाई, दिन-भर लकड़ी काटता है, दो समय की रोटी भी नहीं जुट पाती । तू जरा आगे क्यों नहीं जाता, वहां आगे चंदन का जंगल है ।

 एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा ।


गरीब लकड़हारे को विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है ! जंगल में लकड़ियां काटते-काटते ही तो जिंदगी बीती । यह महात्मा यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा ?


 मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो ! फिर झूठ कहेगा भी क्यों ? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है । कभी बोला भी नहीं इसके पहले । एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है ।


महात्मा की बातों पर विश्वास कर वह आगे गया । लौटा तो महात्मा के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां के बारे में कौन जानता है ।


 मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी । मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था । हम यही जलाऊ-लकड़ियां काटते-काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या ! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही । तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी ।


मैं भी कैसा अभागा ! काश, पहले पता चल जाता ! महात्मा ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है । जब जागा तभी सबेरा है । दिन बड़े मजे में कटने लगे । 


एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। 


एक दिन महात्मा ने कहा ; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी । जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए ; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है ?


 उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है ?


उस महात्मा ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है । लकड़ियाँ-वकरियाँ काटना छोड़ो ।


 एक दिन ले आओगे, दो-चार छ: महीने के लिए हो गया । 


अब तो वह महात्मा पर भरोसा करने लगा था । बिना संदेह किये भागा । चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या ! चांदी ही चांदी थी ! चार-छ: महीने नदारद हो जाता । एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता ।


लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है । 


महात्मा ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझे ही तुम्हें जगाना पड़ेगा । 


आगे सोने की खदान है मूर्ख ! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं ? 


अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है । जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल नहीं आता ?


उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस बात बन गई, अब और क्या होगा ? 


गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था । फकीर ने कहा, थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है । 


फिर और आगे हीरों की खदान है । और ऐसे कहानी चलती है । और एक दिन महात्मा ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया ? 


अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे । उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो । अब हीरों के आगे क्या हो सकता है ?


उस महात्मा ने कहा, हीरों के आगे मैं हूं । तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं ले रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा ! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा ?


वह आदमी रोने लगा । महात्मा के चरणों में सिर पटक दिया । कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं, मुझे यह सवाल ही नहीं आता । 


तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है । यह ख्याल तो मेरे जन्मों-जन्मों में नहीं आ सकता था । कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है । महात्मा ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है ।


 अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं । अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे आगे है ।

यही मैं तुमसे कहता हूं : और आगे, और आगे । चलते ही जाना है । उस समय तक मत रुकना जब तक कि सारे अनुभव शांत न हो जाएं ।


 

गुरुवार, 17 मार्च 2022

भागवत कधा के अंश

 


 आनन्द साधन से नहीं साधना से प्राप्त होता है। आंनद भीतर का विषय है, तृप्ति आत्मा का विषय है। मन को तो कितना भी मिल जाए , यह अपूर्णता का बार - बार अनुभव कराता रहेगा। जो अपने भीतर तृप्त हो गया उसे बाहर के अभाव कभी परेशान नहीं करते। 

  केवल मानव जन्म मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु हमें जीवन जीने की कला भी आना जरुरी है। पशु- पक्षी तो बिलकुल भी संग्रह नहीं करते फिर भी भी उन्हें जीवनोपयोगी सब कुछ प्राप्त होता है।

जीवन तो बड़ा आनंदमय है लेकिन हम अपनी इच्छाओं के कारण, वासनाओं के कारण इसे कष्टप्रद और क्लेशमय बनाते हैं। प्रारब्ध में जितना लिखा है और जब मिलना लिखा है, उतना ही मिलेगा और उसी समय पर मिलेगा। कर्म जरूर करते रहें पर चिन्तित कदापि ना हों। जीवन के लिए जो जरुरी है उतना प्रकृति कारण से नहीं, करुणा से अपने आप दे देती है।

जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके ना तो इंद्रिय तृप्ति के लिए कार्य करता है और ना सकाम कर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगा रूढ़ कहलाता है।

मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करें और अपने मन को नीचे न गिरने दे, यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।

जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है किंतु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।

जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के संपर्क में आता है तो उसका शाश्वत कृष्ण प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणत हो जाता है। अथवा दूसरे शब्दों में ईश्वर प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि 

नहीं होती तो यह क्रोध में परिणत हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरंतर बना रहता है, अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है ,और यह काम ही है जो विशुद्ध जीवात्मा को इस संसार में फंसे रहने के लिए प्रेरित करता है। क्रोध तमोगुण का प्राकट्य है ।यह गुण अपने आप को क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं। अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में ना गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाए तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है।

अपने नित्य वर्धमान चिदानंद के लिए भगवान ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित कर लिया और जीवात्माएं उनके इस चिदानंद के ही अंश हैं। उनको भी आंशिक स्वतंत्रता प्राप्त है किंतु अपनी इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके जब वे सेवा को इंद्रिय सुख में बदल देती हैं तो वह काम की चपेट में आ जाते हैं ।भगवान ने इस सृष्टि की रचना जीव आत्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियां की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की और जब जीवात्माएं दीर्घकाल तक काम कर्मों में फंसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं।

यही जिज्ञासा वेदांत सूत्र का प्रारंभ है जिसमें यह कहा गया है "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा"- मनुष्य को परम तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिए। और इस परम तत्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में किस प्रकार दी गई है- सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है। अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ अतः यदि काम को भगवत प्रेम में या कृष्णभावना में परिणत कर दिया जाए या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएं हो तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे ।भगवान राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावण की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया किंतु ऐसा करने से वह भगवान के सबसे बड़े भक्त बन गए। यहां पर भी श्री कृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान को प्रसन्न करने के लिए दिखाएं।अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रहकर मित्र बन जाते हैं।

सुनील शर्मा जी द्वारा संकलित 

गुरुवार, 10 मार्च 2022

अनमोल विचार

 विचार सागर 


विचार सागर 

 पिता को बुढ़ापा इतना कमजोर नही करता जितना औलाद का रवैया कमजोर कर देता है ।

 अकड़ और अभियान एक मानसिक बीमारी है जिसका इलाज कुदरत और समय जरूर करता है ।

 ज्यादातर चिंतायें वास्तव में आधारहीन और मन की उपज होती है जो कभी जन्म ही नहीं लेती ।

 इंसानियत एक बहुत बडा खजाना है, उसे लिबास में नहीं इंसान में तलाश करो ।

 किसी भी इंसान के सामने जितनी बडी समस्या होगी, उसकी उतनी बडी सफलता होगी।

प्रभात-पुष्पम् 


_भिन्नभाण्डं च खट्वां च कुक्कुटं शुनकं तथा।_

_अप्रशस्तानि सर्वाणि यश्च वृक्षो गृहेरुह:॥_

_भिन्नभाण्डे कलिं प्राहु: खट्वायां च धनक्षय:।_

_कुक्कुटे शुनके चैव हवि: नाश्नन्ति देवताः॥_

_वृक्षमूले ध्रुवं सत्यं तस्माद् वृक्षं न रोपयेत्॥_

(महाभारत)


भावार्थ: घर में टूटे-फूटे बर्तन, टूटी हुई खाट, मुर्गा, कुत्ता और पीपल आदि वृक्ष का होना अच्छा नहीं माना जाता है। टूटे-फूटे बर्तन में कलियुग का वास माना जाता है और टूटी हुई खाट से धनहानि कही जाती है। मुर्गा और कुत्ता घर में रहने पर देवता उस घर में हविष्य ग्रहण नहीं करते तथा मकान के अन्दर कोई बड़ा वृक्ष (पीपल आदि) होने पर उसकी जड़ के भीतर सर्प आदि जंतुओं के रहने का स्थान बन जाता है। अतः घर के अन्दर उपरोक्त स्थिति उत्पन्न नहीं होने देनी चाहिए।


एक बार एक गुरुजी ने अपने सभी शिष्यों से अनुरोध किया कि कल की कथा-प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बड़े-बड़े आलू लेकर आएं। उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिए, जिनसे वे ईर्ष्या करते हैं। जो शिष्य जितने व्यक्तियों से ईर्ष्या करता है, वह उतने आलू लेकर आयेगा।


अगले दिन सभी शिष्य आलू लेकर आए। किसी के पास चार आलू थे तो किसी के पास छह। गुरु ने कहा कि अगले सात दिनों तक ये आलू वे अपने साथ रखें। जहां भी जाएं, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू सदैव साथ रहने चाहिए। 


शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन वे क्या करते। गुरुजी का आदेश था। दो-चार दिनों के बाद ही शिष्य आलुओं की बदबू से परेशान हो गए। जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताए और गुरु के पास पहुंचे।


गुरु ने कहा, "यह सब मैंने आपको शिक्षा देने के लिए किया था। जब मात्र सात दिनों में आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिए कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या करते हैं, उनका कितना बोझ आपके मन पर रहता होगा। यह ईर्ष्या आपके मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, जिसके कारण आपके मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक इन आलूओं की तरह। इसलिए अपने मन से गलत भावनाओं को निकाल दें। यदि आप किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम नफरत तो ना करें। इससे आपका मन स्वच्छ और हल्का रहेगा।"


यह सुनकर सभी शिष्यों ने आलुओं के साथ-साथ अपने मन से ईर्ष्या को भी निकाल फेंका।

मंगलवार, 8 मार्च 2022

सन्त तुकाराम

सन्त तुकाराम भारत के महान् सन्तों में सन्त तुकाराम का विशिष्ट स्थान है। उनका जन्म 8 मार्च, 1608 को पुणे में हुआ था। उनके पिता श्री वोल्होबा तथा माता कनकाई बहुत सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति थे। अतः तुकाराम को बालपन से ही विट्ठल भक्ति संस्कारों में प्राप्त हुई।  उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। फिर भी सन्तोषी स्वभाव के तुकाराम कभी विचलित नहीं हुए। आगे चलकर उनके माता-पिता और फिर पत्नी तथा पुत्र की भी मृत्यु हो गयी; पर तुकाराम ने प्रभु भक्ति से मुँह नहीं मोड़ा।  तुकाराम स्वभाव से ही विरक्त प्रवृत्ति के थे। वे प्रायः भामगिरी तथा भण्डार की पहाडि़यों पर जाकर एकान्त में बैठ जाते थे। वे वहाँ ज्ञानेश्वरी तथा एकनाथी भागवत का अध्ययन भी करते थे। कीर्तन तथा सत्संग में उनका बहुत मन लगता था। जब वे नौ वर्ष के ही थे, तब उन्हें स्वप्न में एक तेजस्वी सन्त ने दर्शन देकर ‘रामकृष्ण हरि’ मन्त्र का उपदेश दिया। इससे उनका जीवन बदल गया और वे दिन-रात प्रभु के ध्यान में डूबे रहने लगे। एक बार प्रसिद्ध सन्त नामदेव ने तुकाराम जी को स्वप्न में दर्शन देकर भजन लिखने को कहा। इससे पूर्व तुकाराम ने कभी कविता नहीं की थी; पर सन्त नामदेव के आशीर्वाद से उनके मन में काव्यधारा फूट पड़ी। उन्होंने जो रचनाएँ कीं, उन्हें ‘अभंग’ कहा जाता है। ऐसे लगभग 6,000 अभंगों की रचना उन्होंने की। इससे उनकी कीर्ति चारों और फैल गयी। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आने लगे। उनके आश्रम में हर दिन मेला लगने लगा। उनकी इस प्रसिद्धि से रामेश्वर भट्ट तथा मुम्बाजी जैसे कुछ लोग जलने लगे। वे तुकाराम को शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान करने लगे। एक बार तो उनके अभंग संग्रह को ही उन्होंने इन्द्रायणी नदी में डुबो दिया। तुकाराम को इससे अपार कष्ट हुआ। वे मन्दिर में भगवान् की मूर्ति के सम्मुख बैठ गये। उन्होंने निश्चय कर लिया कि जब तक उनकी बहियाँ वापस नहीं मिल जातीं, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे। लेकिन 13 दिन ऐसे ही बीत गये। इस पर तुकाराम ने भावावेश में आकर भगवान को बहुत उलाहना दिया। उन्होंने कहा कि हे नाथ, आप तो मूत्र्ति के पीछे छिपे हो और यहाँ मैं भूखा-प्यासा बैठा हूँ। अब भी यदि आपने मेरी इच्छा पूरी नहीं की, तो मैं आत्महत्या कर लूँगा और इसका पूरा दोष आपका ही होगा।  ऐसा कहते हैं कि भगवान् ने उसी समय युवक वेश में प्रकट होकर सन्त तुकाराम की सभी पुस्तकें सुरक्षित लौटा दीं। यह देखकर उन सबकी आँखें खुल गयीं, जो उन्हें परेशान कर रहे थे। अब वे भी तुकाराम जी की शरण में आ गये और उनके भक्त बन गये।  ऐसा कहते हैं कि एक बार शिवाजी महाराज सन्त तुकाराम के पास बैठे थे कि मुगलों ने उनके आश्रम को घेर लिया। तुकाराम की प्रार्थना पर वहाँ शंकर भगवान् प्रकट हुए और वे शिवाजी का छद्म रूप लेकर एक ओर भागने लगे। इस पर मुगल सैनिक उनके पीछे दौड़ पड़े और असली शिवाजी को कुछ नहीं हुआ। इससे प्रभावित होकर शिवाजी ने सन्त तुकाराम को कुछ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं; पर तुकाराम जी ने उन्हें यह कहकर लेने से मना कर दिया कि मेरे लिए सोना और मिट्टी बराबर है। अपने अभंगों द्वारा भगवद्भक्ति का सन्देश बाँटते हुए सन्त तुकाराम 1650 ई. में सदा-सदा के लिए विट्ठल के धाम को चले गये।

शनिवार, 5 मार्च 2022

जानकारी काल मार्च - 2022

 हिंदी मासिक 

जानकारी काल 

वर्ष-22,             अंक-10,             मार्च  - 2022,          पृष्ठ 36,        मूल्य-2-50



इन्हें भी पड़े 

भ्रान्तियों के निवारण का महापर्व : आजादी का अमृत महोत्सव– अवनीश भटनागर - 2 परिवार हो समाज पोषक – दिलीप वसंत बेतकेकर - 5 राधा रानी की शक्ति - 12 ,क्रोध से बचे - 14 ,सनातम संस्क्रति - 15 ,लालची - 17 ,मन पंछी - 19 ,बलिदान -22 ,दही भल्ला - 24 ,मंडूक आसन -25 ,आत्म बल -26 ,मंगल देव -27 ,मूंगा 28 ,ना करो सियासत -29 ,राष्ट्रीय शिक्षा नीति : प्रौढ़ शिक्षा   – डॉ० रवीन्द्र नाथ तिवारी - 30  बाप की वसीयत -33 ,

संरक्षक

 श्रीमान कुलवीर शर्मा

महामंत्री समर्थ शिक्षा समिति

डॉ वी  एस नेगी

प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य


 प्रधान संपादक व्  प्रकाशक

 सतीश शर्मा 


 

 कार्यालय

 ए 214 बुध नगर इंद्रपुरी

 नई दिल्ली 110012


 मोबाइल

  9312002527


 संपादक मंडल

 सौरभ  शर्मा,कपिल शर्मा,

गौरव शर्मा,डॉ अजय प्रताप सिंह, करुणा ऋषि, डॉ मधु वैध, 

भूप  सिंह यादव, ऋतु सिंह,

राजेश शुक्ल  


प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F,कृणा नगर नई दिल्ली 110029, A- 214 बुध नगर इं पूरी नई दिल्ली  110012 से प्रकाशित |


सभी लेखों पर संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है पत्रिका में किसी भी लेख में आपत्ति होने पर उसके विरुद्ध कार्रवाई केवल दिल्ली कोर्ट में ही होगी

 

R N I N0-68540/98

कहीं भी स्थाई रूप से लंबे समय तक रहने के लिए, वहां के लोगों से तालमेल बिठाना अनिवार्य है।

यह तो आप सब जानते ही हैं, कि संसार में कोई भी दो व्यक्ति ऐसे नहीं मिलते, जिनके विचार 100% एक समान हों। चाहे दो भाई हों, दो बहनें हों, पति पत्नी हों, बाप बेटा हों, मां बेटी हों, दो पड़ोसी हों, दो मित्र हों, कोई भी दो व्यक्ति हों, 100% विचार कभी भी किन्हीं भी दो व्यक्तियों के नहीं मिलते। परंतु हमें इनके साथ मिलकर ही अपना काम करना और जीवन बिताना होता है। अकेला तो कोई भी व्यक्ति ठीक प्रकार से जीवन को जी नहीं सकता। जहां-जहां आपस में विचार मिलते हैं, वहां वहां पर सुख होता है। और जहां जहां विचार नहीं मिलते, टकराव होता है, वहाँ वहाँ पर दुख होता है, तथा काम करने में बाधा भी पड़ती है।

कोई व्यक्ति परिवार में रहता है। कोई समाज संस्था संगठन में रहता है। जिस भी प्रकार से व्यक्ति अपने जीवन को जी रहा है, और दूसरों के साथ मिलकर कार्य कर रहा है, वहां सभी जगह पर विचारों के टकराव की स्थितियां देखने को मिलती हैं। परिवार में लोग मिलजुल कर रहते और काम करते हैं। अपने परिवार की रक्षा करते हैं। यह अच्छी बात है। इसी प्रकार से सामाजिक संस्थाओं में भी कुछ लोग मिल जुलकर परोपकार के, देश की सेवा के, धर्म की रक्षा के कार्य करते हैं। वह भी बहुत अच्छी बात है, करना ही चाहिए।

परंतु जब कुछ लोग परिवार में संस्था में समाज में संगठन में इकट्ठे मिलकर कार्य करते हैं, तो विचारों के टकराव के कारण उनमें राग द्वेष या लड़ाई झगड़े भी होते ही हैं। कहीं कम झगड़े होते हैं, कहीं अधिक होते हैं। कुछ लोग उन झगड़ों और राग द्वेष आदि से घबराकर परिवार एवं संगठन आदि को छोड़ देते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। यदि टकराव की स्थिति सामान्य हो, थोड़ी हो, तो परिवार समाज संस्था आदि को नहीं छोड़ना चाहिए। बल्कि आपस में मिल बैठकर विचार करना चाहिए। उस टकराव की स्थिति को दूर करना चाहिए। जो बात प्रमाणों और तर्क से सत्य सिद्ध होती हो, उसे सब लोग स्वीकार करें, हठ न करें। ऐसा करने से टकराव दूर होगा। आपस में प्रेम संगठन बना रहेगा। और सब लोग परिवार में, संगठन में लंबे समय तक स्थिर होकर रह सकेंगे और कामभी कर सकेंगे। अपना भी कल्याण करेंगे और देश समाज की सेवा भी हो जाएगी। अनेक बार परिस्थितियों के कारणभी कुछ चीजों से समझौता करना पड़ताहै। वह भी करना होगा। जैसे आजकल करोना वायरस के कारण आपको अपने व्यापार व्यवहार में अनेक समझौते करने पड़ रहे हैं। समझौता कहने का मेरा तात्पर्य झूठ छल कपट बेईमानी करने से नहीं है। इसके लिए सबको अपनी अपनी सहनशीलता बढ़ानी होगी। सबको अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करना होगा। अपने अभिमान को छोड़कर सर्वहित पर ध्यान देना होगा, और विचारों का तालमेल बिठाना होगा।



भ्रान्तियों के निवारण का महापर्व : 

आजादी का अमृत महोत्सव


 – अवनीश भटनागर



हम में से अधिकांश सौभाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ है। जिनका जन्म 20 वीं शताब्दी में हुआ है, उन्होंने परिवार के बड़े-बुजुर्गों से कभी-कभी स्वतंत्रता के आन्दोलन या अंग्रेजों के अत्याचार या भारत के स्वतंत्र होने के उत्सवों के बारे में सुना होगा या कुछ पुस्तकों-पत्रिकाओं में प्रकाशित विवरण सुना होगा या कुछ पुस्तकों-पत्रिकाओं में प्रकाशित विवरण पढ़ कर उस काल खण्ड का अनुमान मन में लगाया होगा, किन्तु वर्तमान पीढ़ी अर्थात् – 21वीं शताब्दी में जिनका जन्म हुआ है, उनको यह सब बताने वाले भी अब शायद शेष नहीं रहे। उनके लिए तो भारत सदैव से स्वतंत्र हीं है, अधिकतम अपनी पाठ्य पुस्तकों में जो कुछ पढ़ लिया या उस काल खण्ड का चित्रण करने वाली कुछ फिल्मों से एक पक्षीय जानकारी उन्हें प्राप्त हो गई, वही उनके लिए सबसे बड़ा स्रोत है। 

कैसा है वह स्त्रोत?

एक अटपटा प्रश्न 

युवाओं तरुणों किशोरों के बीच जब बातचीत करने का अवसर मिलता है तो मैं उनसे प्राय: पूछता हूँ- ‘भारत स्वाधीन कब हुआ?’  सामान्यतः सबको इसका उत्तर ज्ञात होता है – ‘15 अगस्त, 1947’ अटपटा सा प्रश्न इसके बाद आता है – ‘फिर बताओ कि भारत पराधीन कब हुआ?’ प्रायः सब सोच में पड़ जाते हैं क्योंकि कभी किसी कक्षा की इतिहास विषय की पाठ्यपुस्तक में यह पढ़ा नहीं कोई 

विचारशील-अध्ययनशील विद्यार्थी उत्तर देता भी है- ‘1757 प्लासी के युद्ध के बाद’। मेरा पाठक वर्ग में से इतिहास के जानकार विद्वानों की इस उत्तर के प्रति सहमति की अपेक्षा है। इतिहास में हम यही पढ़ते-पढ़ाते हैं न! 

मेरी समझ में भ्रान्तियों की शुरुआत यहीं से होती है। क्या वास्तव में भारत 1757 में हुए प्लासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश उपनिवेश बन गया था? बंगाल के नवाब के विरुद्ध ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के साथ हुए इस पहले युद्ध में धोखे से जीत प्राप्त करके ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत के एक छोटे से भूभाग पर कब्जा कर लिया था, परन्तु इससे सम्पूर्ण भारत तो अंग्रेजों का गुलाम नहीं हो गया था। यदि हो जाता तो 1764 में बक्सर में क्या हुआ था? 1757 से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक के सौ वर्षों की अवधि में स्थान-स्थान पर ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेनाओं को ब्रिटिश गजट के अनुसार छोटे-बड़े 38 युद्धों का सामना करना पड़ा। वे सब मनोरंजन के कार्यक्रम थे क्या? इस देश के शौर्य ने उन तथाकथित ‘विश्वविजेताओं – जिनके राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता’ को अपनी सामर्थ्य भर टक्कर दी थी। किन्तु यह बताया नहीं जाता। 

तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भारत कभी भी किसी भी आक्रान्ता का ‘गुलाम’ नहीं रहा। 

भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आक्रमणों का क्रम तो इतिहास की प्रचलित काल गणना के अनुसार – 326 ई। पू। से ही प्रारम्भ हो गया था। सिकन्दर से शुरू हुआ क्रम शक-हुण-कुषाण-मंगोल-गजनी-गोरी-ऐबक-खिलजी-तुगलक-मुगल-पुर्तगाल-डच-अंग्रेज तक चलता ही रहा। कोई लूटपाट कर लौट गया, कुछ ने कुछ समय तक देश के किसी छोटे से भाग पर राज्य भी स्थापित किया किन्तु अंतिम परिणति दो में से ही किसी एक प्रकार की हुई – या तो इस देश के पराक्रम ने उन्हें पराजित कर वापस भगाया या फिर वे इसी भूमि के शरणागत हो गए। आज पुरे देश में ऐसा कोई व्यक्ति दावा नहीं करता कि उसके पूर्वज शक या हूण थे। 712 ई० में सिन्ध पर हुए मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से गिनती करें तो सिन्ध से दिल्ली, जो उस समय भी किसी न किसी रूप में सत्ता का थी, की 500 मील की दूरी को पार करने में आक्रान्ताओं को 500 वर्ष से अधिक लग गए। हमारे पुरखों की यह कीर्ति हमारी अगली पीढ़ियों को कौन बताएगा? कौन बताएगा कि बप्पा रावल ने आक्रांताओं को अफगानिस्तान की सीमाओं से आगे तक खदेड़ा था जिसके कारण वे पुनः भारत की ओर आँख उठाने का दुस्साहस नहीं कर सके थे? कम्बु, कौण्डिन्य, राजराजा राजेन्द्र चोल, कट्‌टै बोम्मन, लाचित बड़फुकन के पराक्रम का वर्णन करने का दायित्व किस पर है, जब स्वयं हम यानी इस पीढ़ी के लोगों में से अधिकांश के लिए ये नाम अपरिचित हैं? 

इसी प्रकरण से जुड़ी हुई एक और भ्रान्ति भी प्रचलित हैं। हमारे पाठ्यक्रम में स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रारंभ ही एक प्रकार से महात्मा गाँधी के लोक जीवन में प्रवेश के साथ शुरू हुआ माना जाता है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को तो किनारे कर ही दिया गया, 1904-05 का बंग-भंग आन्दोलन, संन्यासी आन्दोलन जिसकी पृष्ठभूमि पर ‘आनन्द मठ’ की रचना हुई तथा 1857 से 1920 तक चले अन्य ब्रिटिश विरोधी आन्दोलनों को एक सीमा तक अमान्य कर दिया गया।

इस भ्रान्ति का एक अंश यह भी विचारणीय है कि हमारी पाठ्यपुस्तकों में तथा जन मान्यता में स्थापित कर दिया गया कि स्वतंत्रता का आन्दोलन तो केवल अंग्रेजों के विरुद्ध ही हुआ। फिर हल्दीघाटी में राणा प्रताप और उनके साथी वनवासी क्या पिकनिक मना रहे थे? छत्रपति शिवाजी महाराज अफजल खां और शाइस्ता खां का आतिथ्य करने गए थे? छत्रपति के निधन और संभाजी महाराज के क्रूरतापूर्ण वध के बाद भी अरावली की पहाड़ियों के बीच छिप कर जाबाज मावले किस के लिए युद्धरत थे? सिखों की महान गुरु परम्परा में गुरु तेगबहादुर से बन्दा बहादुर तक के बलिदान क्या इस देश और धर्म की रक्षार्थ नहीं हुए? दशमेश गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों पुत्रों के बलिदान क्या इस देश की अस्स्मिता की रक्षा के लिए नहीं थे? रानी दुर्गावती का युद्ध अकबर की सेनाओं से केवल गोंडवाना के राज्य की रक्षा के लिए हुआ था क्या? गजनियों-गोरियों-तुगलकों-खिलजियों-नादिरशाहों-तैमूरों-बाबरों-औरंगजेबों के अत्याचार को सहते हुए या अपनी क्षमता भर उन अत्याचारों का प्रतिकार करते हुए जिन्होंने अपने प्राण इस मातृभूमि की बलिवेदी पर न्यौछावर किए। वे सब स्वाधीनता के सेनानी, इस देश की संस्कृति के, गौरव के अस्मिता के रक्षक नहीं थे क्या? स्वतंत्रता के इस 75 वें वर्ष में उनको भी कोई स्मरण करेगा क्या? 

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री एवं संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)


01 मार्च 1983 - मैरी कॉम - भारतीय महिला मुक्केबाज़।

03 मार्च 1839-जमशेद जी टाटा-टाटा समूह के संस्थापक

परिवार हो समाज पोषक

 – दिलीप वसंत बेतकेकर

औद्योगिक क्रांति के पश्चात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अत्यधिक परिवर्तन हुए। परिवार प्रबन्धन भी अपवाद नहीं रहा। अनेक देशों में तो परिवार संस्था ध्वस्त हो रही है। भारत में भी परिवार प्रबन्ध पर विपरीत प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारी प्राचीन संयुक्त परिवार की पद्धति धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। इसका स्थान अब एकल परिवार पद्धति ले रही है।

बदलती सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति के साथ अनेक परिवर्तन होना स्वाभाविक है, वे होते ही रहेंगे। इनसे परेशान होना बेमतलब! किन्तु मूल आधार बरकरार रहे ये सावधानी रखना आवश्यक है। आत्मा ही न रही तो शेष शरीर किस काम का? बाह्य रूप में परिवर्तन होते हुए भी यदि मूल शाश्वत रूप को तो हम भुला नहीं रहे हैं, इस बात को ध्यान में रखें तो अधिक नुकसान न होगा।

परिवार के बारे में भी ऐसा ही है। कुछ बाह्य परिवर्तन तो होना ही है। किन्तु परिवार का मूल अंतरंग परिवर्तित न हो! वर्तमान परिस्थितियों में तो पाया ही उखड़ रहा है, ऐसी स्थिति निर्मित हुई है। जीवन स्वकेन्द्रित हो चला है। प्रातः से रात्रि तक आपाधापी युक्त जीवन में हम स्वयं एवं पत्नी-बच्चों के छोटे से पेट की भूख मिटा दें, यही एकमात्र उद्देश्य रहता है। इस हेतु कुछ भी करने को तैयार!

जन्म से मृत्यु तक प्रत्येक व्यक्ति हर पल समाज पर निर्भर रहता है। समाज के कारण ही हमारा जीवन सुखमय होता है। हमारे सुख-दुःख में हमारे पड़ोसी, स्वजन भी सहभागी होते हैं, इस बात को हम भूलते जा रहे है। समाज की ओर से हमें बहुत कुछ प्राप्त होता है, ये हम भूल रहे हैं –

देने वाला देता रहे, लेने वाला लेता रहे,

लेते-लेते एक दिन हाथ ही उसका ले लें..

ये कहां तक उचित है? समाज की ओर से हम बहुत कुछ ले रहे हैं, किन्तु लेने के साथ हमें भी कुछ देना आवश्यक नहीं क्या? कृतज्ञता का भाव नष्ट होने का अर्थ है मानवता का अंत। यह कृतज्ञता की भावना परिवार के प्रत्येक सदस्य में रहे तो अनेक प्रश्न आसानी से हल हो सकेंगे। यह जागृति निर्मित करना परिवार के वरिष्ठजनों की जिम्मेदारी है।

“तुम अपना देखो, दूसरों की चिंता क्यों करते हो?” इस प्रकार के वाक्य जिस परिवार में सदैव सुनाई पड़ते हों, उस परिवार के बच्चे दूसरों के सुख-दुःख में कभी सहभागी नहीं हो सकते। इतना ही नहीं, वे बड़े होकर आत्म-केन्द्रित हो जाते हैं, स्वार्थी बन जाते हैं कि अपने जन्मदाता माता-पिता को भी भूल जाते हैं। उनका अनादर करते हैं। कहावत है न – “जैसा बोओगे वैसा काटोगे”! आत्मकेन्द्रित विचारों का रोपण करने पर इसमें लगने वाले फल भी स्वार्थ के अतिरिक्त कैसे होंगे?

दादा धर्माधिकारी के अनुसार, “जो परिवार केवल स्वयंकेन्द्रित रहता है, उसे समाज में मान्यता नहीं मिलती है। ऐसा परिवार सेवाभावी नहीं हो सकता। किन्तु जिस परिवार का सेवाभाव परिवार के बाहर भी होता है, ग्रामव्यापी होता है, उसका सामर्थ्य और गौरव बढ़ जाता है। परिवार हित और समाजहित ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं, वरन् परस्पर पूरक हैं। परिवार अच्छा होगा तो समाज निर्दोष होगा और समाज हित को ध्यान में रखकर कार्य करें तो स्वाभाविकतः उसका लाभ परिवार को मिलेगा ही”।

गृहस्थाश्रम अथवा गृहस्थधर्म क्या है? जिसे अपने परिवार का समन्वय समाज के साथ करना आ गया, वही उत्तम गृहस्थ। जिसे समाज ऋण का ध्यान है, उसे उस ऋणमुक्ति के लिये प्रयासरत होना चाहिये –

अपना ही नहीं देश का, सब पर भार रहे,

हर व्यक्ति क्या समझे इसको व्याकुल हूँ मैं इसीलिये

व्यक्तिगत और परिवार के सुखों के लिये हर व्यक्ति जितनी आपाधापी करता है, उसका एक प्रतिशत भी यदि समाज के सुख के लिये कर सकें तो लाभकारी होगा। सेनापति बापट इसलिये व्याकुल हैं कि ऐसा नहीं हो रहा है। सेनापति बापट ने बम्ब भी प्रयोग किया और गांव को स्वच्छ करने के लिये हाथ में झाडू भी उठाई। स्वच्छता अभियान चलाते समय उन्हें अत्यंत कटु अनुभव प्राप्त हुए समाज की ओर से!

संस्कृति का संरक्षण, संवधर्न और इसे आने वाली पीढ़ियों को अग्रेषित करना, ये महत्वपूर्ण कार्य परिवार संस्था पर होता है। जो धरोहर हमें प्राप्त है उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हम पर है। व्यक्ति कुछ ही समय के लिये रहता है किन्तु समाज निरंतर, इसीलिये मानव को केवल स्वयं के पेट की खातिर पूरा जीवन काटने का उद्देश्य नहीं रखना चाहिये। संत बहिणाबाई के अनुसार- (मराठी में)

नको लागू जीवा सदा मतलबा साठी,

हिरीताचं देणं घेणं नाहीं पोटासाठी।

अर्थात्, हे जीव आत्मा, अपने स्वार्थों में ही लिप्त न रह। तेरे सारे क्रियाकलाप केवल पेट भरने मात्र के लिये ही नहीं।

माता-पिता को चाहिये कि वे अपने व्यवहार से, अपने आचरण से, समाज ऋण का विचार अपने बच्चों में संक्रमित करें। इस हेतु छोटे-बड़े प्रयास घर से ही प्रारंभ होने चाहिये। अपने बच्चे समाजाभिमुख कैसे हों, कृतज्ञ कैसे बने, ये देखना आवश्यक है –

जो अपने ही सुख-दुःख में रहता मगन

उसकी क्या गिनती करें, उसका क्या मंथन?

जो अपने ही सुख-दुःख में मगन रहता है, उसे उस समय अच्छा लगता हो, परन्तु कालांतर में उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे, इसका ध्यान पालकों को रखना आवश्यक है अन्यथा बच्चें भी पालकों के बुढ़ापे में उनका ध्यान रखना आवश्यक नहीं समझेंगे।

आज राजनैतिक दृष्टि से हम स्वतंत्र हैं परन्तु सांस्कृतिक हमले निरंतर हैं और उसे रोकने की क्षमता व जिम्मेदारी प्रत्येक परिवार पर है। हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं, ऐसा शोर सभी मचाते हैं। पाश्चात्य संस्कृति के पंजे में सभी युवा फंसते जा रहे हैं, ऐसी व्यथा सभी व्यक्त करते हैं। अंधानुकरण से बहुत बड़ी हानि हम अनुभव कर रहे हैं। किन्तु उसे रोकने के लिये केवल संस्कारों की बात पर निर्भर रहना उचित नहीं होगा। परिवारों को सतर्क होना होगा, क्रियाशील होना होगा। परिवारों को अपनी जिम्मेवारी समझना आवश्यक है। इसी से परिवार का हित और सुख जुड़ा हुआ है। यह किसी पर एहसान नहीं है।

अपनी संस्कृति में व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, विश्व और संपूर्ण सृष्टि के मध्य एक सुंदर समन्वय रखा गया है। क्या हम जागृत होंगे?

  • (लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ह

भारतीय व्रत और उत्सव मार्च - 2022 

दिनांक -1 महाशिवरात्रि, दिनांक - 2  अमावस्या पुन्य, दिनांक- 4 फुलारा दूज , श्री रामकृष्ण परमहंस जयंती , दिनांक - 6  विनायक चतुर्थी व्रत,दिनांक - 10 होलाष्टक प्रारम्भ ,दुर्गाष्टमी, दिनांक 14 - आमला एकादशी व्रत , मेलाखाटू श्याम जी ,संक्रांति पुन्य,दिनांक -16 गोविन्द द्वादशी,प्रदोष व्रत,दिनांक -17 होलिकादहन ,सत्य व्रत ,पूर्णिमा ,दिनांक-18- रंग उत्सव होलाष्टक समाप्त ,दिनांक - 21 श्री गणेश चतुर्थी व्रत,दिनांक- 22 रंग पंचमी दिनांक - एकनाथ षष्टी ,दिनांक - शीतला सप्तमी ,दिनांक - 24  काला अष्टमी,दिनांक - 28 पापमोचनी एकादशी व्रत,दिनांक- 28 भौम प्रदोष व्रत दिनांक- 30 मास शिवरात्रि  | 


पंचक विचार मार्च  - 2022  


पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा  पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार-दिनांक 01 को 16-31 से दिनांक 06 को 02-28,दिनांक 28 को 23-54 से मासांत तक पंचक हैं |

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

ग्रह स्थिति मार्च - 2022


ग्रह स्थिति - दिनांक 4 बुध मार्गी ,दिनांक 13 सूर्य कुम्भ में, दिनांक 24 शनि उदय, गुरु पश्चिम अस्त  दिनांक 26 मंगल मकर में , दिनांक 27 शुक्र मकर में |

 

 

महाशिवरात्रि

 

हर महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को  शिवरात्रि  आती है |  फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व पड़ता है | पुरे वर्ष भर में 12 शिवरात्रि आती  है | फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पड़ती है  | महाशिवरात्रि पर प्रात: स्नान करने के बाद व्रत का संकल्प लें।इसके बाद पूजा आरंभ करें।शिवरात्रि का व्रत पूरी श्रद्धा व भाव से करना चाहिए तभी इसका पूर्ण फल प्राप्त होता है।इसके साथ ही महाशिवरात्रि के व्रत का पारण भी विधि पूर्वक करना चाहिए। सूर्योदय और चतुर्दशी तिथि के अस्त होने के मध्य समय में ही व्रत पारण करना चाहिए।

महाशिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा चार बार की जाती है। इस दिन भगवान की पूजा रात्रि के समय एक बार या फिर संभव हो तो चार बार करनी चाहिए. वेदों में रात्रि के चार प्रहर बताए गए हैं।इस दिन हर प्रहर में भगवान शिव पूजा की जाती है। महाशिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था |

सारा दिन भगवान आशुतोष का ध्यान करें।अगर कोई मंत्र जपते है तो उसका जाप करें नहीं है तो ॐ नम शिवाय का जाप करें।जब भी समय लगे भगवान के सामने बैठे व आपनी मन कि बात कहें।आज के दिन ॐ का जाप करने या उच्चारण करने से विशेष लाभ मिलता है ।आपको परिवार सहित महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं व बधाई, भगवान भोलेनाथ आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करें व अपना आशीर्वाद बनाये रखें ।ॐ नम शिवाय ।

 

 

भद्रा विचार मार्च - 2022 

भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि  शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य  में व 

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227


दिनांक 

शुरू 

दिनांक 

समाप्त 

00

00-00

01

14-08

06

08-54

06

21-12

10

02-57

12

16-15

13

23-14

14

12-06

17

13-30

18

01-08

20

21-13

21

08-20

24

02-16

24

13-1327

27

07-02

27

18-04

30

13-19

31

00-50




मूल नक्षत्र विचार  मार्च - 2022 





दिनांक

शुरू 

दिनांक

समाप्त 

05

01-51

07

03-50

14

22-07

17

00-20

23

18-52

25

16-07


अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227


सर्वार्थ सिद्धि योग मार्च-2022

दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी  शुभ मुहूर्त का अभाव हो,किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु  को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है | इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग | योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक  है| अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

दिनांक

प्रारंभ

दिनांक

समाप्त

05

01-51

05

06-46

06

06-45

07

03-50

08

06-43

10

06-40

13

20-05

14

22-07

15

06-35

15

23-32

23

06-25

23

18-52

28

06-20

28

12-24


चौघड़िया मुहूर्त 

 

चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है|

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

राहू काल 

 राहुकाल -राहुकाल दक्षिण भारत की देन है,दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है |

 

सुर्य उदय- सुर्य अस्त मार्च-2022 


दिनांक

उदय 

दिनांक

अस्त 

06-50 

1

18-17

5

06-46

5

18-20

10

06-40

10

18-23

15

06-35

15

18-26

20

06-29

20

18-29

25

06-23

25

18-31

30

06-17

30

18-35


03 मार्च 1976 - राइफ़लमैन संजय कुमार, परमवीर चक्र से सम्मानित 

23 मार्च 1910 - डॉ. राममनोहर लोहिया - भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी


 

 

  राधा रानी की शक्ति  

.

गोवर्धन लीला के बाद समस्त ब्रजमंडल के कृष्ण के नाम की चर्चा होने लगी, सभी ब्रजवासी कृष्ण की जय-जयकार कर रहे थे और उनकी महिमा का गान कर रहे थे। ब्रज के गोप-गोपियों के मध्य कृष्ण की ही चर्चा थी। एक स्थान पर कुछ गोप और गोपियाँ एकत्रित थी और यही चर्चा चल रही थी तभी एक गोप मधुमंगल बोला इसमें कृष्ण की क्या विशेषता है, यह कार्य तो हम लोग भी कर सकते है।वहां राधा रानी की सखी ललीता भी उपस्थित थी वह तुरंत बोल उठी ...

."हां हां देखी है तुम्हारी योग्यता, जब कृष्ण ने पर्वत उठाया था तो तुम सभी ने अपनी-अपनी लाठियां पर्वत के नीचे लगा थी | और कान्हा से हाथ हठा लेने के लिए कहा था, हाथ हठाना तो दूर कान्हा ने थोड़ी से अंगुली टेढ़ी की और तुम सब की लाठियां चटाचट टूट गई थी, 

तब तुम सब मिलकर यही यही बोले थे कान्हा तुम्ही संभालो, तब कान्हा ने ही पर्वत संभाला था" |यह सुनकर मधुमंगल बोला "हाँ हाँ मान लिया की कान्हा ने ही संभाला, किन्तु हम ने प्रयास तो किया तुमने क्या किया " यह सुनकर ललीता बोली " हां हां देखी है तुम्हारे कान्हा की भी शक्ति, माना हमने कुछ नहीं किया किन्तु हमारी सखी राधारानी ने तो किया" | मधुमंगल बोला "अच्छा जी राधा रानी ने क्या करा तनिक यह तो बताओ" | ललीता ने उत्तर दिया "पर्वत तो हमारी राधारानी ने ही उठाया था, कृष्ण का तो बस नाम हो गया" | यह सुनकर सभी गोप सखा हंसने लगे और बोले "लो जी अब यह राधा रानी कहाँ से आ गई, पर्वत उठाया कान्हा ने, हाथ दुखे कान्हा के | पूरे सात दिन एक स्थान पर खड़े रहे कान्हा, ना भूंख की चिंता ना प्यास की, ना थकान का कोई भाव, ना कोई दर्द, सब कुछ किया कान्हा ने और बीच में आ गई राधारानी" | तब ललीता बोली.. लगता है जिस समय कान्हा ने पर्वत उठाया था उस समय तुम लोग कही और थे, अन्यथा तुमको भी पता चल जाता कि पर्वत तो हमारी राधारानी ने ही उठाया था" | या सुनकर सभी गोपसखा बोले "ऐसी प्रलयकारी स्थिति में कही और जा कर हमको क्या मरना था, एक कृष्ण ही तो हम सबका आश्रय थे, जिन्होंने सबके प्राणों की रक्षा की" | ललीता बोली "तब भी तुमको यह नहीं पता चला कि पर्वत हमारी राधारानी ने उठाया था" | सभी गोपसखा बोले "हमने तो ऐसा कुछ भी नहीं देखा" | तब ललीता बोली "अच्छा यह बताओ कि कान्हा ने पर्वत किस हाथ से उठाया था" | मधुमंगल बोला "कान्हा ने तो पर्वत अपने बायें हाथ से ही उठा दिया था, दायें हाथ की तो आवश्यकता ही नहीं पड़ी" | तब ललीता बोली.. तभी तो में कहती हूँ की पर्वत हमारी राधारानी ने उठाया, कृष्ण ने नहीं, यदि कृष्ण अपनी शक्ति से पर्वत उठाते तो वह दायें हाथ से उठाते | किन्तु उन्होंने पर्वत बायें हाथ से उठाया, क्योकि किसी भी पुरुष का दायां भाग उसका स्वयं का तथा बायाँ भाग स्त्री का प्रतीक होता है |.

जब कान्हा ने पर्वत उठाया तब उन्होंने श्री राधारानी का स्मरण किया और तब पर्वत उठाया, इसी कारण उन्होंने पर्वत बाएं हाथ से उठाया,कृष्ण के स्मरण करने पर श्री राधा रानी ने उनकी शक्ति बन कर पर्वत को धारण किया।" अब किसी भी बालगोपाल के पास ललीता के इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था, सभी निरुत्तर हो गए और ललीता राधे-राधे गुनगुनाती वहां से चली गई। यह सत्य है कि राधे रानी ही भगवान श्री कृष्ण की आद्यशक्ति है, जब भी भगवान कृष्ण ने कोई विशेष कार्य किया पहले अपनी शक्ति का स्मरण किया, श्री राधा रानी कृष्ण की शक्ति के रूप में सदा कृष्ण के साथ रही, इसलिए कहा जाता है, कि श्री कृष्ण को प्राप्त करना है तो श्रीराधा रानी को प्रसन्न करना चाहिए। जहाँ राधा रानी होंगी वहां श्री कृष्ण स्वयं ही चले आते हैं। यही कारण है कि भक्त लोग कृष्ण से पहले राधा का नाम लेते है। 

 

अमृत  वचन 

 अनुभव और सलाह तब तक मदद नहीं करेंगी जब तक आप खुद अपनी मदद के लिए खडे नहीं होते 

जीवन के निर्णय अपनी परिस्थिति  देखकर ले दुनिया को देखकर जो निर्णय लेते है वो दुखी ही रहते हैं

 व्यक्तित्व अच्छा होगा तभी लोग इस उसमें बुराई खोजेंगे वरना बुरे की तरफ तो देखता ही कौन है 

 हमारी  सबसे  बडी  नासमझी  है  कि  हम  अक्सर  को  वक्त  पर  अवसर  दे  देते  हैं

 "कर्म"  के  पास  ना  कागज  है  ना   किताब  है  फिर  भी  सारे  जग  का  हिसाब  है 

 

क्रोध से बचिये 

 

विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से झगड़ा था। विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। बहुत तप उन्होंने किया। पहले महाराजा थे, फिर साधु हो गये। वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे। विश्वामित्र कहते थे, "मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किये हैं, मुझे ब्रह्मर्षि कहो।वशिष्ठ जी मानते नहीं थे: कहते थे, "तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है, तुम राजर्षि हो।"यह क्रोध बहुत बुरी बला है। सवा करोड़ नहीं, सवा अरब गायत्री का जाप कर लें, एक बार का क्रोध इसके सारे फल को नष्ट कर देता है।विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे। क्रोध में उन्होंने सोचा, 'मैं इस वशिष्ठ को ही मार डालूँगा, फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा ही नहीं। 'ऐसा सोचकर एक कटार लेकर, वे उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वशिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। शिष्य आये; वृक्ष के नीचे बैठ गये। वशिष्ठ ऋषि आये ; अपने आसन पर विराजमान हो गये। शाम हो गई। पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चाँद निकल आया। विश्वामित्र सोच रहे थे,' अभी सब विद्यार्थी चले जाएँगे, अभी वशिष्ठ अकेले रह जायेंगे, अभी मैं नीचे कूदूँगा, एक ही वार में अपने शत्रु का अन्त कर दूँगा।'तभी एक विद्यार्थी ने नये निकले हुए चाँद की और देखकर कहा," कितना मधुर चाँद है वह ! कितनी सुन्दरता है !"वशिष्ठ जी ने चाँद की और देखा ; बोले, "यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओ। यह चाँद सुन्दर अवश्य है परन्तु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुन्दर हैं। यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें। "विद्यार्थी ने कहा,"महाराज ! वे तो आपके शत्रु हैं। स्थान-स्थान पर आपकी निन्दा करते हैं।"वसिष्ठ बोले, "मैं जानता हूँ, मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान् हैं, मुझसे अधिक तप उन्होंने किया है, मुझसे अधिक महान हैं वे, मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।"वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े। वे बैठे थे इसलिए कि वसिष्ठ को मार डालें और वशिष्ठ थे कि उनकी प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे। एकदम वे नीचे कूद पड़े, कटार को एक ओर फेंक दिया, वशिष्ठ जी के चरणों में गिरकर बोले, "मुझे क्षमा करो !वसिष्ठ जी प्यार से उन्हें उठाकर बोले, "उठो ब्रह्मर्षि !"विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, "ब्रह्मर्षि ? आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा ? परन्तु आप तो ये मानते नहीं हैं ?"

वशिष्ठ जी बोले,"आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। महापुरुष ! तुम्हारे अन्दर जो चाण्डाल (क्रोध) था, वह निकल गया।

 

सनातन धर्म 

"जब मैं किसी मुस्लिम परिवार के पांच साल के बच्चे को भी बाक़ायदा नमाज़ पढ़ते देखता हूँ तो लगता है मुस्लिम परिवारों की ये अच्छी चीज़ है कि वो अपना धर्म और अपने संस्कार अपनी अगली पीढ़ी में ज़रूर देते हैं । कुछ पुचकार कर तो कुछ डराकर , लेकिन उनकी नींव में अपने मूल संस्कार गहरे घुसे होते है । यही ख़ूबसूरती सिखों में भी है । सरदार को यदि पगड़ी या उसके केश आदि पर उंगली उठाते ही  उसी वक़्त तेज़ आवाज़ आप को रोक देगी । लगभग हर धर्म में नियमों के पालन पर विशेष जोर दिया जाता है । हिन्दू धर्म चाहें कितना ही अपने पुराने होने का दावा कर ले , पर इसका प्रभाव अब सिर्फ सरनेम तक सीमित होता जा रहा है ।मैं अक्सर देखता हूँ कि एक माँ आरती कर रही होती है , उसका बेटा जल्दी में प्रसाद छोड़ जाता है , लड़का कूल-डूड है , उसे इतना ज्ञान है कि प्रसाद गैरज़रूरी है । बेटी इसलिए प्रसाद नहीं खाती कि उसमें कैलोरीज़ ज़्यादा हैं , उसे अपनी फिगर की चिंता है । छत पर खड़े अंकल जब सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो लड़के हँसते हैं । इस पर मां कहती हैं कि अरे! आज की जेनरेशन है माडर्न हो रही है । पिताजी खीज कर कहते हैं कि ये तो हैं ही ऐसे इनके मुंह कौन लगे! दो वक़्त पूजा करने वाले को हम सहज ही मान लेते हैं कि वह दो नंबर का पैसा कमाता होगा , इसीलिए इतना पूजा-पाठ करता है । 'राम-राम जपना , पराया माल अपना' ये तो फिल्मों में भी सुना है । नतीजतन बच्चों का हवनपूजा के वक़्त हाज़िर होना मात्र दीपावली तक सीमित रह जाता है ।

यही बच्चे जब अपने हम उम्रों को हर रविवार गुरुद्वारे में मत्था टेकते या हर शुक्रवार विधिवत नमाज़ पढ़ते या हर रविवार चर्च में मोमबत्ती जलाते देखते हैं , तो बहुत फेसिनेट होते हैं । सोचते हैं ये है असली गॉड! मम्मी तो यूं ही थाली घुमाती रहती थी ।

अब क्योंकि धर्म बदलना तो पॉसिबल नहीं , इसलिए मन ही मन खुद को नास्तिक मान लेते हैं ।

शायद हिन्दू अपने धर्म को अच्छे से प्रोमोट नहीं कर पाए । शायद उन्हें कभी ज़रूरत नहीं महसूस हुई ।शायद रीतिरिवाज और हवन पूजा पाठ आदि का महत्त्व हमें नजर नहीं आया !

वर्ना सूरज को जल चढ़ाना , सुबह जल्दी उठने की वजह ले आता है । हवन-पूजा करना नहाने का बहाना बन जाता है । और मंदिर घर में रखा हो तो घर साफ सुथरा रखने का कारण बना रहता है । भजन बजने से जो ध्वनि होती है वो मन शांत करने में मदद करती है । 

आरती गाने से कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ता है । हनुमान चालीसा तो डर को भगाने और शक्ति संचार करने के लिए सर्वोत्तम है । सुबह हवन करके निकलो तो पूरा बदन महकता है , टीका लगा लो तो ललाट चमक उठता है । प्रसाद में मीठा खाना तो शुभ होता है । भई, टीवी में एड नहीं देखते ।

संस्कार घर से शुरु होते हैं । जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं । इस भटकन में जब आपको कोई कुछ ग़लत समझा जाता हैं , तो आप भूल जाते हो कि आप उस सनातन सभ्यता का मज़ाक बना रहे हो , जिस पर आपका पूरा संसार टिका है , जिस पर आपके माता-पिता का विश्वास टिका है ।हमने कभी किसी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया है , लेकिन किसी को भी इतनी छूट नहीं है कि हमारे सत्य सनातन वैदिक धर्म का मज़ाक बनाये ।

हिन्दू होना अत्यंत गौरव का विषय है । हर वर्ग के मित्रों से अनुरोध है कि अपने बच्चों को कम से कम एक बार श्री मद्भागवत गीता अवश्य पढ़ाएं , रामायण के बारे में , महाभारत के बारे में बताएं या दूरदर्शन पर अवश्य दिखाएं ।हर हर गीता  घर घर गीता

कृपया याद रखें सनातन सिर्फ धर्म नहीं बल्कि एक सभ्यता संस्कृति है , सुबह उठने से लेकर रात्रि विश्राम तक अपने आप को सनातन परंपरा से जोड़ कर रखिये और उत्कृष्ट जीवन को प्रति क्षण महसूस कीजिये । संभवत: हम आखरी पीढ़ी हैं जो अपने धर्म को किसी तरह संभाले है यदि हम चूक गए तो हमारी संस्कृति को इतिहास होने में समय नहीं लगेगा ।

 

ॐ नम: शिवाय। 

ये भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र या मूल मंत्र भी कहलाता है। इस मंत्र का श्रद्धापूर्वक जाप करने से सभी संकटों तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है तथा जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। 

 

लालची आदमी

 

एक नगर में एक लोभी व्यक्ति रहता था. अपार धन-संपदा होने के बाद भी उसे हर समय और अधिक धन प्राप्ति की लालसा रहती थी।एक बार नगर में एक चमत्कारी संत का आगमन हुआ. लोभी व्यक्ति को जब उनके चमत्कारों के बारे में ज्ञात हुआ, तो वह दौड़ा-दौड़ा उनके पास गया और उन्हें अपने घर आमंत्रित कर उनकी अच्छी सेवा-सुश्रुषा की. सेवा से प्रसन्न होकर नगर से प्रस्थान करने के पूर्व संत ने उसे चार दीपक दिए।चारों दीपक देकर संत ने उसे बताया, “पुत्र! जब भी तुम्हें धन की आवश्यकता हो, तो पहला दीपक जला लेना और पूर्व दिशा में चलते जाना. जहाँ दीपक बुझ जाये, उस जगह की जमीन खोद लेना. वहाँ तुम्हें धन की प्राप्ति होगी. उसके उपरांत पुनः तुम्हें धन की आवश्यकता हुई, तो दूसरा दीपक जला लेना. जिसे लेकर पश्चिम दिशा में तब तक चलते जाना, जब तक वह बुझ ना जाये. उस स्थान से जमीन में गड़ी अपार धन-संपदा तुम्हें प्राप्त होगा. धन की तुम्हारी आवश्यकता तब भी पूरी ना हो, तो तीसरा दीपक जलाकर दक्षिण दिशा में चलते जाना. जहाँ दीपक बुझे, वहाँ की जमीन खोदकर वहाँ का धन प्राप्त कर लेना. अंत में तुम्हारे पास एक दीपक और एक दिशा शेष रहेगी. किंतु तुम्हें न उस दीपक को जलाना है, न ही उस दिशा में जाना है.”

इतना कहकर संत लोभी व्यक्ति के घर और उस नगर से प्रस्थान कर गए. संत के जाते ही लोभी व्यक्ति ने पहला दीपक जला लिया और धन की तलाश में पूर्व दिशा की ओर चल पड़ा. एक जंगल में दीपक बुझ गया. वहाँ की खुदाई करने पर उसे एक कलश प्राप्त हुआ. वह कलश सोने के आभूषणों से भरा हुआ था।लोभी व्यक्ति ने सोचा कि पहले दूसरी दिशाओं का धन प्राप्त कर लेता हूँ, फिर यहाँ का धन ले जाऊँगा. वह कलश वहीं झाड़ियों में छुपाकर उसने दूसरा दीपक जलाया और पश्चिम दिशा की ओर चल पड़ा. एक सुनसान स्थान में दूसरा दीपक बुझ गया. लोभी व्यक्ति ने वहाँ की जमीन खोदी. उसे वहाँ एक संदूक मिला, जो सोने के सिक्कों से भरा हुआ था।लोभी व्यक्ति ने वह संदूक उसी गड्ढे में बाद में ले जाने के लिए छोड़ दिया. अब उसने तीसरा दीपक जलाया और दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गया. वह दीपक एक पेड़ के नीचे बुझा. वहाँ जमीन के नीचे लोभी व्यक्ति को एक घड़ा मिला, जिसमें हीरे-मोती भरे हुए थे।इतना धन प्राप्त कर लोभी व्यक्ति प्रसन्न तो बहुत हुआ, किंतु उसका लोभ और बढ़ गया. वह अंतिम दीपक जलाकर उत्तर दिशा में जाने का विचार करने लगा, जिसके लिए उसे संत ने मना किया था. किंतु लोभ में अंधे हो चुके व्यक्ति ने सोचा कि अवश्य उस स्थान पर इन स्थानों से भी अधिक धन छुपा होगा, जो संत स्वयं रखना चाहता होगा. मुझे तत्काल वहाँ जाकर उससे पहले उस धन को अपने कब्जे में ले लेना चाहिए. उसके बाद सारा जीवन मैं ऐशो-आराम से बिताऊंगा।उसने अंतिम दीपक जला लिया और उत्तर दिशा में बढ़ने लगा. चलते-चलते वह एक महल के सामने पहुँचा. वहाँ पहुँचते ही दीपक बुझ गया। दीपक बुझने के बाद लोभी व्यक्ति ने महल का द्वार खोल लिया और महल के भीतर प्रवेश कर महल के कक्षों में धन की तलाश करने लगा. एक कक्ष में उसे हीरे-जवाहरातों का भंडार मिला, जिन्हें देख उसकी आँखें चौंधियां गई. एक अन्य कक्ष में उसे सोने का भंडार मिला. अपार धन देख उसका लालच और बढ़ने लगा. कुछ आगे जाने पर उसे चक्की चलने की आवाज़ सुनाई पड़ी. वह एक कक्ष से आ रही थी. आश्चर्यचकित होकर उसने उस कक्ष का द्वार खोल लिया. वहाँ उसे एक वृद्ध व्यक्ति चक्की पीसता हुआ दिखाई पड़ा।लोभी व्यक्ति ने उससे पूछा, “यहाँ कैसे पहुँचे बाबा?”

“क्या थोड़ी देर तुम चक्की चलाओगे? मैं ज़रा सांस ले लूं. फिर तुम्हें पूरी बात बताता हूँ कि मैं यहाँ कैसे पहुँचा और मुझे यहाँ क्या मिला?” वृद्ध व्यक्ति बोला।लोभी व्यक्ति ने सोचा कि वृद्ध व्यक्ति से यह जानकारी प्राप्त हो जायेगी कि इस महल में धन कहाँ-कहाँ छुपा है और उसकी बात मानकर वह चक्की चलाने लगा. इधर वृद्ध व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और जोर-जोर से हँसने लगा।

उसे हँसता देख लोभी व्यक्ति ने पूछा, “ऐसे क्यों हंस रहे हो?” यह कहकर वह चक्की बंद करने लगा।

“अरे अरे, चक्की बंद मत करना. अबसे ये महल तेरा है. इस पर अब तेरा अधिकार है और साथ ही इस चक्की पर भी. ये चक्की तुम्हें अब हर समय चलाते रहना है क्योंकि चक्की बंद होते ही ये महल ढह जायेगा और तू इसमें दब कर मर जायेगा.”गहरी सांस लेकर वृद्ध व्यक्ति आगे बोला, “संत की बात न मानकर मैं भी लोभवश आखिरी दीपक जलाकर इस महल में पहुँच गया था. तब से यहाँ चक्की चला रहा हूँ. मेरी पूरी जवानी चक्की चलाते-चलाते निकल गई.” इतना कहकर वृद्ध व्यक्ति वहाँ से जाने लगा।

“जाते-जाते ये बताते जाओ कि इस चक्की से छुटकारा कैसे मिलेगा?” लोभी व्यक्ति पीछे से चिल्लाया।

“जब तक मेरे और तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति लोभ में अंधा होकर यहाँ नहीं आयेगा, तुम्हें इस चक्की से छुटकारा नहीं मिलेगा.” इतना कहकर वृद्ध व्यक्ति चला गया।लोभी व्यक्ति चक्की पीसता और खुद को कोसता रह गया।

 

 

मन - पंछी

आंसुओं का समंदर सोख रहा था वो एकमात्र तकिया

जिसमें मुँह गड़ाए सुबकती जा रही थी सलीमन।बचपन से जिसे अपना मा  न 

दूल्हे के लिबास में न जाने कितनी दफ़ा शफ़ीक़ का चेहरा देखा।न जाने अम्मी-अब्बू

ने कितने ख़्वाब सजा लिए थे।खाला जब भी घर आतीं बस्स एक ही बात दोहरातीं

जल्दी से आ जा अब घर,इस बार निकाह करके ही जाएगा मेरा शफ़ीक़ !! सलीमन

शरमा के भाग जाती वहाँ से।

 लौटा ज़रूर था शफ़ीक़ , पर अकेला नहीं था इस बार ।साथ थी उसकी होने वाली

दुल्हन। लड़की सॉफ्टवेअर इंजीनयर थी और सबसे बड़ी खूबी ग्रीन कार्ड होल्डर ।

दिखने में मामूली सी थी , पर जब बोलती थी तो अंग्रेज़ी लहज़ा झलकता।वहीं पैदा

हुई अच्छी- ख़ासी अंग्रेज़ थी।बस कहने के लिए हिन्दुस्तानी। अम्मी जल- भुन गईं।

खाला को खूब जली- कटी सुना आईं।

कल निकाह पढ़ा जाएगा। कहने भर की रुखसती होगी।रहेगी वहीँ की वहीँ, हुंह।

दिल को समझा- बुझाकर सलीमन उठ बैठी मानो कोई फैसला किया हो।

" अम्मी ! अम्मी !! कहाँ हो ? बहुत भूख लगी है.. कुछ खाने को दो न !!" शायद

अम्मी को दिखाने के लिए वो भूख का शोर मचा रही थी।अम्मी झट से दौड़ती

हुई आईं और बेटी को सीने से लगा लिया।वक़्त का अंदाज़ा ही नहीं लगा कि

कब रात के बारह बज गए अब्बू और शबीर कब के सो चुके थे।बस दो जान

इक- दूजे से कह - सुन रहीं थीं।

मन के साथ साथ तन को भी समझा लिया था सलीमन ने। शफ़ीक़ किसी

और के हैं, अब अपनी आँखों को उसने क़सम खिलाई थी...ख़बरदार जो

जो कहा न माना, अब बस बहुत हो चुका रोना- धोना।सभी ने खूबसूरत

लिबास पहने थे, मगर ऐसा लग रहा था गोया किसी मातम पुरसी में जा

रहे हों। आपस में ज़रा भी बातचीत नहीं हो रही थी।चुप्पी आखिरकार

सलीमन ने ही तोड़ी। " अम्मी - अब्बू हो चुका जो होना था, अब ख़ुशी

ख़ुशी निक़ाह में शामिल हों।सबने मुँह क्यों  लटकाए  हुए हैं...!!! चलो

खाला की ख़ुशी में शरीक़ होने जा रहे हैं।मैं खुश हूँ ; अम्मी, अब्बू से कह

दें, मुझे किसी से कोई शिक़ायत नहीं है।प्लीज़..." कहते हुए सलीमन ने अब्बू का हाथ थाम लिया। " खुश रह मेरी

बच्ची.." कहते हुए आँख बचाकर आस्तीन ने ग़म की किरचें सोख लीं।

          दो साल भी नहीं बीते थे स्कूल में नौकरी करते कि अम्मी- अब्बू का खटराग फिर से शुरू हो गया, निक़ाह

कब करोगी सलीमन इस बरस छब्बीस की हो जाओगी…!तुम्हारे अब्बू के दोस्त का बेटा, बेहद शरीफ़,सुलझा हुआ लड़का है। उन्हें अब्बू की हां का इंतज़ार है बस…!!!तुम कब तक सोग में बैठी रहोगी…??बेटा वक्त का किसी को नहीं पता,मेरी बच्ची वे सब पढ़े- लिखे समझदार ख़ानदानी लोग हैं।अब्बू हर रोज़ तुम्हारी हां का इंतज़ार कर रहे हैं।किसी तरह से शफ़ीक़ के ग़म से निकलने की शुगल थी

ये नौकरी। वक़्त तो पंख पसारे उड़ा जा रहा था। ख़ाला के घर जाना बंद सा हो गया था। शफ़ीक़ की छोटी बहन

ने अभी तक रिश्ता निभाया था। तक़रीबन हर रोज़ वाट्सएप करती या फ़ोन ही चला आता था।कभी किसी प्रोजेक्ट

के बहाने तो कभी ख़ाला के हाल - चाल के बहाने। ख़ैर अभी तक तो सब कुछ ठीक ही था। कभी- कभी वो कुछ

कहने की कोशिश करती तो कभी खुद ही क़दम पीछे खींच लेती ! 

       शगुफ़्ता क्यों मिलना चाह रही है। रोज़ बात तो हो ही जाती है , सोचते- सोचते ख़याल आया। कहीं वो किसी को

दिल तो नहीं दे बैठी और मुझसे कुछ मदद चाहती हो। चलो आती ही होगी, कॉफ़ी हाउज़ में ज़्यादा भीड़ नहीं थी।अभी

युनिवर्सिटी स्पेशल आती ही होगी सोच कर , वेटर को बुलाया ही था कि दरवाज़े से शगुफ़्ता आती दिखी। " क्या लोगी?"

बिना किसी हील- हुज्जत के बोली, "डोसा लूंगी"

सलीमन ने उसकी ओर देखकर मानो आँखों ही आँखों में सवाल किया...क्यों बुलाया,कोई ख़ास बात..!!!!

शगुफ्ता अपना गला साफ़ करने लगी तो सलीमन मुस्कुरा दी...अब नज़्म शुरू कर भी दो ...शगुफ्ता को शायद सही लफ़्ज़ों की तलाश थी। सलीमन ने शगुफ्ता के मेज़  पे रखे दोनों हाथों को अपने हाथों में थाम लिया;शगुफ्ता का थोड़ा हौसला बढ़ा। आपा एक बात बतानी है,अगर आप बुरा न मानें तो…

"हां,हां, बोल क्या हुआ किसी को दिल से बैठी हो क्या.. " , सलीमन ने हँसते हुए छेड़ा।

शगुफ्ता की संजीदगी देख चुपा गई... वाक़ई कोई मसला है…"बोल बोल शगुफ्ता ,जल्दी बता भी दे अब ...मेरी जान हलक में आ गई...ऑल वेल???"

"जी जी आपा ,सब ठीक हैं...वो.. वो.. शफीक भाईजान इंडिया आ रहे हैं.."

"तो…." 

" नहीं...मतलब आपको इत्तला कर रही थी…"

".......

"मेरा मतलब अम्मी ने कहा के आपको बता दूं…"

शगुफ्ता अब सलीमन की तेज़ निगाहों का सामना करने में ख़ुद को कमज़ोर महसूस कर रही थी...तभी वेटर डोसा परोसने लगा।

एक सन्नाटा सा छा गया…!!!

सलीमन अब दो साल पहले वाली सलीमन नहीं थी...कमसिन,कमज़ोर, शफीक की मुहब्बत में मुब्तिला इंतज़ार करने वाली...अब वो वाक़ई में एक मज़बूत हौसले वाली लड़की थी..!!

शगुफ्ता डोसा खाने की तैयारी करते हुए गला साफ़ करने लगी…कैसे कहूं अम्मी का पैग़ाम...इसी पशोपेश में थी कि सलीमन ने मुस्कुराते हुए उसका  फिर से हाथ पकड़ कर हौसला दिया।

"वो actually अम्मी ने कहा है कि आपको बता दूं…"

"क्या……! "

"वो भाईजान का तलाक़ हो गया…."

अब सलीमन ने दो जमा दो किए….

"हम्ममम…..तो …..

"अम्मी ने कहा था कि पहले सलीमन की मंजूरी मिले तो खाला और खालू को तो हम समझा बुझा देंगे…."

"किस मंजूरी की बात कह रही हो शगुफ्ता…."

"मतलब निकाह…."

अधूरी बात छोड़ कर शगुफ्ता आपा का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी।

"आपा मुआफ़ करना...ये मेरे लफ़्ज़ नहीं हैं,प्लीज़...अम्मी ने ज़बरदस्ती मुझे भेजा है, मैं तो आना ही नहीं चाहती थी, पर...आपा प्लीज़ प्लीज़... यूं मत जाइए…."

"नहीं शगुफ्ता ,जवाब दिए बग़ैर तो मैं वैसे भी नहीं जाऊंगी…!"

"आपा ,आप नाराज़ मत होना,मुझसे जो कहा गया था वही मैंने बता दिया।आप मेरी बड़ी बहन ही नहीं मेरी ख़ास दोस्त भी हैं, प्लीज़ मुझे माफ़ करना…!!!"

"नाराज़ क्यों होऊंगी अपनी प्यारी बहना से…

सुनो, घर पर सिर्फ एक सवाल की शक्ल में जवाब दे रही हूं...अगर मैंने किसी से निकाह कर उससे खुला ले लिया होता या उसी ने मुझे तलाक़ दिया होता तो क्या वो मुझसे शफीक का निकाह करना मंज़ूर करते????"

दोनों बहनें गले लगीं और अपने अपने घर पहुंचीं।

अम्मी ने  बेटी के घर में क़दम रखते ही भी भांप लिया…

"बड़ी खुश नज़र आ रही हो..!!!किस सहेली से मिलकर आ रही हो?"

अम्मी के गले में बाहें डालते हुए बोली

"अम्मी अब्बू को अपने दोस्त के बेटे के लिए हां कह दो….!!!!!"

लगा कोई आज़ाद पंछी अपने घौंसले की ओर उड़ा जा रहा है…!!!!!

नोरेन शर्मा एहलकान पब्लिक  स्कुल 

 

  बलिदान का पर्याय पन्नाधाय

पन्नाधाय ने राष्ट्रधर्म के लिए ऐसी अमिट छाप छोड़ी जिसका विश्व में कोई उदाहरण ही नहीं है

राजस्थान की धरती शुरू से ही वीरों की धरती के रूप में जानी जाती है। पुरूष ही नहीं यहां कि महिलाएं भी विश्वभर के लिए आदर्श हैं। मेवाड़ की धरती का जब-जब जिक्र होता है तब-तब पन्नाधाय को भी याद किया जाता है। जिसने राष्ट्रधर्म के लिए ऐसी मिसाल कायम की है जिसका विश्व में कोई उदाहरण ही नहीं है। तो आइए जानते हैं वीरांगना पन्नाधाय की सच्ची गाथा जो हर किसी में देशभक्ति को भर देने का जुनून रखती है। अपना सर्वस्व लुटाने वाली वीरांगना पन्नाधाय किसी राजपरिवार से नहीं बल्कि एक गुर्जर परिवार से थी। उदयसिंह को दूध पिलाने के कारण इन्हें धाय मां कहा गया। जिसके बाद यह पन्नाधाय कहलाईं। बात उस समय की है जब चित्तौड़गढ़ का किला चारों ओर से आन्तरिक विरोध से घिरा हुआ था। मेवाड़ के भावी राणा उदयसिंह का बचपन गुजर रहा था। जिसे दूध पिलाने से लेकर पालने-पोसने का काम पन्नाधाय करती थीं। उसी समय उदयसिंह के घराने के ही बनवीर ने एक साजिश के तहत उदयसिंह के पिता महाराजा विक्रमादित्य की एक रात हत्या करवा दी और उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। इसी बीच उदयसिंह की माता ने अपनी खास दासी पन्नाधाय के हाथों में उदयसिंह को सौंप दिया और मेवाड़ के भावी राणा की रक्षा करते हुए कुम्भलगढ़ भिजवाने की बात कही।

पन्नाधाय ने चतुराई से उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुला दिया और उसे झूठी पत्तलों से ढक दिया ताकि किसी को इस टोकरी में बच्चा होने का अहसास तक न हो। इसके बाद एक खास सेवक के हाथों इस टोकरी को महल से बाहर भिजवा दिया। इसके बीच बनवीर के आने की सूचना पाकर उदयसिंह के स्थान पर पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। जब बनवीर ने आकर उदयसिंह के बारे में पूछा तो पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर इशारा किया। जिस पलंग पर कोई ओर नहीं बल्कि पन्नाधाय का पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना का इशारा मिलते ही उसी समय पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।*

इस घटना को और दर्दभरा ये बात कर देती है कि पन्ना ने अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र की हत्या होते देखी और बनवीर को शक न हो इस कारण आवाज तक नहीं निकाली। बनवीर के लौट जाने के बाद पन्ना अपने पुत्र के शरीर को चूमकर उदयसिंह को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी।

इसके बाद पन्ना उदय सिंह को लेकर कुंभलगढ़ के जंगलों में भटकती रही और एक के बाद एक काफी संघर्षों का सामना किया। बाद में कुम्भलगढ़ में उसे शरण दे दी गई। लगभग तेरह वर्ष की आयु में मेवाड़ी उमरावों ने उदयसिंह को अपने राजा के रूप में स्वीकार किया। समय बीतने के साथ उदयसिंह 1542 में मेवाड़ के महाराणा बन गए।


श्रीमद् भगवद् गीता के अनमोल वचन

सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता ना इस लोक में है ना ही कहीं और।

क्रोध से भ्रम पैदा होता है। ...

मन की गतिविधियों, होश, श्वास और भावनाओं के माध्यम से भगवान की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है; और लगातार तुम्हे बस एक साधन की तरह प्रयोग कर के सभी कार्य कर रही है।

       

दही भल्ला



दो कप धुली मुंग की दाल 

आधा कप उड्द धुली दाल

एक  चम्मच जीरा 

अदरक दो टुकडे 

काजू

किशमिश 

कुटी काली मिर्च 

नमक 

धी/तेल

काला नमक 

तीन कप दही 

एक चम्मच चीनी 

लाल मिर्च 

हरी मिर्च 

चाट मसाला 

हरा धनिया 

अनार के दाने

मीठी चटनी

हरी चटनी


मूंग की दाल उड़द की दाल को बारीक पीस लें, पिसते समय अदरक, हरी मिर्च डाले | पिसने के बाद जीरा, काली मिर्च कुटी  हुई, ड्राई फ्रूट काटकर मिला दे व थोड़ा सा नमक भी डालें,अच्छी तरह फेंट लें,कढ़ाई में घी डालकर गर्म करें, जब घी गरम हो जाये तो भल्ला  बनाकर कढ़ाई में तलने के लिए डालें | हल्की आंच पर भल्ले को तले ,भल्ले को  निकालकर साथ रखें पानी में डालें ध्यान रहे उसमें थोड़ा सा नमक भी मिला दे | पानी में जब भल्ले भीग  जाए तो एक प्लेट में भल्ले  का पानी निचौर कर  कर रखें अब उनके उपर दही डाले , मीठी चटनी ,हरी चटनी ,चाट मसाला,भुना जीरा डाले | थोड़ी सा  हरा धनिया बुर्क दे | अनार के दाने,ड्राई फ्रूट व  काला नमक बुरके |

 तैयार है लाजवाब दही भल्ला 

मिथलेश शर्मा 

 

 


मंडूक आसन

मंडूकासन करने की विधि

समतल जगह पर दोनों पेर आगे कर बैठें अब  वज्रासन में आये। मुठ्ठी को बंद करें, अंगूठे बाहर की तरफ रखे । मुठ्ठी को नाभि चक्र और जांघ के पास लेकर जाएं और ऐसे दबाव बनाएं कि मुठ्ठी खड़ी हो और अंगूठे अंदर की तरफ हों।सांस बाहर की ओर छोड़ते हुए पेट को अंदर की तरफ खींचें। आगे की तरफ धीरे-धीरे झुकें। आसन में कम से कम आधा मिनट तक रूकना चाहिए |

मंडूकासन के लाभ  

यह वजन को नियंत्रित करता है।घुटने और टखने के जोड़ों के लचीलेपन और गतिशीलता में सुधार करता है।कंधे और पेट की मांसपेशियों को मजबूत करने में मदद करता है।इस आसन के नियमित अभ्यास से आपके फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है। यह आसन  पेट में गैस, कब्ज और अपच में फायदेमंद है।पीठ को दुरस्त करता  है। बाबा रामदेव के मुताबिक| डायबिटीज रोगियों को मंडूकासन जरूर करना चाहिए |


आसक्ति

मुख्य बंधन केवल आसक्ति ही हैं,और यही सभी देश,काल,परिस्थितियों में जकड़े हुए है। इसी को भवभय,भवसागर,संसार,जन्म-मृत्यु आदि के रूप में वर्णन किया गया है।आसक्ति ही सभी दुःखोंका कारण बताया गया है।मोह,अज्ञान ही आसक्ति के मुख्य कारण हैं।

मोह सकल ब्याधिन कर मूला।ताते पुनि उपजैहिं वहु सूला।।

इसकी मुख्य महौषधि केवल रामनाम बताया गया है। मीरा ने बड़ी तारीफ की है। अगर यही आसक्ति संसार से हटकर रामनाम में होजाय तो सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाएगी।

रबनू की पाना,इत्थे पुटना ते उत्थे लाना।सन्तवाणी।

ऐसा कौनसा माईका लाल है,जो इस आसक्ति से अपने को मुक्त कर सके।?

जबाव कोई नहीं। क्योंकि आसक्तिका बंधन उस  उस भगवान की ओर से जीवभाव अहमति अभिमाना की देन है। उनकी कृपा से ही वैराग्य होकर आसक्ति पर विजय प्राप्त हो सकती है।

बिना वैराग्य के अनासक्त होना संभव नहीं है। वैराग्य ही आसक्ति को हटाने की पहली झलक या सीढ़ी है।होमसिकनिश, मेरे बगैर घर-परिवार कैसे चलेगा आदि आदि मनोबिकार आसक्ति के सहयोगी मित्र हैं।बचपन में मां-पिता से अलग शहरोंमें पढ़ने जाते थे तो बड़ा ख़राब लगता था। ऐसे आसक्ति की पहचान करने हेतु प्रयास कर सकते हैं। 

आत्मबल



जीवन में संकट आएँगे

 तुम उनसे मत घबराना

 मत देखना किसी ओर

अपना आत्मबल बढ़ाना


कर्णधार हो तुम राष्ट्र के

अपना मनोबल जगाना

मानवता की राह अपनाकर

प्रगति की ओर कदम बढ़ाना


आए मुसीबत या महामारी 

कर्तव्य अपने भूल न जाना 

राष्ट्र सेवा का भाव जगा कर

सबको अपने साथ चलाना



 भारत के सुत “निर्भय रहते” 

इस उक्ति को सत्य बनाना

अपने आत्मबल को जगा कर

अपने राष्ट्र को बुलंद बनाना 


यह विद्या मंदिर कर्मस्थली है

श्री कृष्ण का उपदेश अपनाना 

कागज़ कलम को शस्त्र बनाकर 

अज्ञानता का तम मिटाना


आशाएँ हैं तुमसे सबको 

माता-पिता का मान बढ़ाना

गुरुजनों व विद्यालय का 

 सफल होकर नाम चमकाना

 रिँकू शर्मा ( हिंदी अध्यापिका ओ०पी०एस० विद्या मंदिर) 


माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया। सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली,सीता जी बड़े गौर स सब देख रही थी।ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया जिसे माँ सीता जी ने देख लिया। लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया। माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया। सीता जी ने सोचा 'अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा'।

लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी के इस चमत्कार को देख रहे थे। फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुचकर माँ सीता जी को बुलवाया ।

मंगल ग्रह 



सौर परिवार में मंगल का चोथा स्थान है | मंगल ग्रह को ऊर्जा, भूमि और साहस का कारक ग्रह माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में मंगल ग्रह को क्रूर ग्रह माना गया है। मेष और वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल ग्रह होते हैं। मंगल मकर राशि में उच्च के जबकि कर्क राशि में नीच के माने गए हैं।

मंगल का रत्न - मूंगा कमजोर मंगल के रोग - पित ,वायु ,कर्ण रोग,विशु चिका , खुजली | 

कुंडली में मंगल 4 ,8 भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है | 

मंगल की धातु - सुवर्ण ,ताम्र | 

मंगल का दान - मसूर ,गूढ़ ,घी ,लाल वस्त्र ,लाल कनेर ,कस्तूरी , लाल चन्दन |

मंगल का बीज मंत्र- ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः।

मंगल का अंक - 9 

मंगल अशुभ हो तो कभी कभी जेल के दर्शन भी हो जाते हैं | कुंडली का मंगल जीवन के सुख, संपत्ति, विवाद और मुकदमेबाजी जैसे पहलुओं को विशेष रूप से प्रभावित करता है | यानि जीवन के हर मोड़ पर खराब या अशुभ मंगल का प्रभाव रहता है और इंसान की जिंदगी को प्रभावित भी करता है | मंगलवार के दिन किसी गरीब या जरूरतमंद को लाल रंग का कपड़ा दान करें। हनुमान जी के मंदिर जाकर संतरी रंग के सिंदूर में चमेली का तेल मिलाकर हनुमान जी को चौला चढ़ाएं। मंगल ग्रह के मंत्रों का जाप करें। ढाई किलो लाल मसूर की दाल किसी कुष्ठ रोगी को दान करें।

इंद्र का वचन सुनकर शरणागत वत्सल शिव ने इंद्र को अभय प्रदान किया और अंधकासुर को युद्ध के लिए ललकारा, युद्ध अत्यंत घमासान हुआ, और उस समय लड़ते-लड़ते भगवान शिव के मस्तक से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी, उससे अंगार के समान लाल अंग वाले भूमिपुत्र मंगल का जन्म हुआ।मंगल ग्रह या मंगल दोष हेतु अक्सर हनुमानजी की पूजा बताई जाती है और हनुमानजी का दिन भी मंगलवार भी है परंतु मंगलदेव ही मंगल ग्रह के देवता है और उनका वार भी मंगलवार ही होता है। मंगल दोष की शांति हेतु उनकी भी पूजा की जाती है।



मूंगा रत्न




मुंगे को संस्क्रत में प्रवालक, प्रवाल ,भौम रत्न , कहते है | अंग्रेजी में कोरल व फारसी में मार्जन कहते है | मूंगा समुन्द्र से मिलने वाला रत्न है जसे मोती | मूंगा सफ़ेद ,लाल , काला ,गुलाबी व मटमैला होता है | मुंगे की भस्म दवा के रूप में काम आती है |  ज्योतिष में मूंगा को मंगल का रत्न कहा जाता है। कुंडली में मंगल मजबूत हो तो मूंगा पहनें | मूंगे को चित्रा व मृगशिरा नक्षत्र में मंगलवार के दिन धारण कर सकते हैं। पुलिस, आर्मी, डॉक्टर, प्रॉपर्टी का काम करने वाले, हथियार निर्माण करने वाले, सर्जन,मेडिकल क्षेत्र से जुड़े, हार्डवेयर व इंजीनियर आदि लोगों को मूंगा पहनने से विशेष लाभ होता है | जिनकी राशी  मेष, वृश्चिक राशि हो व लग्न हो एवं सिंह, धनु, मीन राशि हो तो  मूंगा पहनना चाहिए । मूंगा रत्न पुखराज, मोती व माणिक  के साथ पहन सकते हैं। करना चाहिए। मूंगा रत्न को तर्जनी और अनामिका अंगुली में ही पहनना चाहिए। मूंगा को कभी भी निम्नलिखित रत्नों के साथ नहीं पहनना   चाहिए, हानिकारक साबित हो सकता है। गोमेद, लहसुनिया, हरी व नीलम | मूंगा पहनने से व्यक्ति को ऊर्जा मिलती है। इसे धारण करने से,आत्म विश्वास को बल मिलाता व अपयश, दुर्घटनाओं व मानसिक अपवाद  आदि से छुटकारा मिल जाता है। मूंगा पहनने से पहले शुद्ध करे व राशी से सम्बन्धित दान करे |



ना करो सियासत


ऐ श्वेत वस्त्र धारी प्राणी ,श्यामल से कार्य तुम्हारे है ,

ईश्वर भी घबरा के कहे ,ना करो सियासत नेता जी ,

बेरंग पानी को रंग दिया ,और हवा की साँसे घुटने लगी ,

गड्ढे की मिट्टी तुझसे कहे ,ना करो सियासत नेता जी ,

सब्ज़ी संग रोटी  कैसे रहे ,महंगाई की आंत सुलगती है,

बोर में बन्द प्याज कहे ,ना करो सियासत नेता जी ,

जात धरम में बैर करा ,इन्सां से इन्सां लड़वाया ,

घबरा कर पार्टी झण्डा कहे ,ना करो सियासत नेता जी ,

छीन नेवाला जनता का,अपने ही उदर को तृप्त किया ,

भीगा सड़ा अनाज़ कहे ,ना करो सियासत नेता जी ,

ज़ीरो भी हीरो बन जाता ,जिस पर भी तेरी कृपा हुंई ,

अय्याशी त्राहिमाम तुझसे कहे,ना करो सियासत नेता जी ,

भस्मासुर की  तुझपे कृपा,तूने जिसे छुआ वो भस्म हुवा, 

डर भस्मासुर की भसम कहे ,ना करो सियासतनेता जी ,


SUNIL AGRAHARI

AHLCON INTERNATIONAL SCHOOL DELHI



राष्ट्रीय शिक्षा नीति : प्रौढ़ शिक्षा

 – डॉ० रवीन्द्र नाथ तिवारी

शिक्षा पूर्ण मानव क्षमता को प्राप्त कर, समाज और राष्ट्र को विकास के पथ पर अग्रसर एवं निरंतर बढ़ने हेतु मूलभूत आवश्यकता है। साक्षरता और बुनियादी शिक्षा वैयक्तिक, नागरिक, आर्थिक और जीवनपर्यन्त शिक्षा के अवसरों का मार्ग प्रशस्त कर व्यक्ति के समग्र विकास को आलोकित करती है। निरक्षरता देश के विकास में विपरीत प्रभाव डालती है। यद्यपि भारत सरकार द्वारा निरक्षरता को समाप्त करने हेतु अथक एवं प्रशंसनीय कार्य किये गये हैं तथापि भारत उन विकासशील देशों की श्रेणी में है, जहाँ पर यह समस्या अभी भी विद्यमान है। प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य उन प्रौढ़ व्यक्तियों को शैक्षिक विकल्प देना है जिन्होंने यह अवसर गंवा दिया है और औपचारिक शिक्षा आयु को पार कर चुके हैं, लेकिन अब वे साक्षरता, आधारभूत शिक्षा, कौशल विकास (व्यावसायिक शिक्षा) और इसी तरह की अन्य शिक्षा सहित किसी तरह के ज्ञान की आवश्यकता का अनुभव करते हैं।

भारत में सर्वप्रथम राष्ट्रीय आधारभूत शिक्षा केन्द्र (एनएफईसी) ने प्रौढ़़ शिक्षा की संकल्पना की थी, तत्पश्चात् भारत सरकार द्वारा 1956 में प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय की स्थापना की गयी। 1961 में यह प्रौढ़ शिक्षा विभाग के रूप में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) के अन्तर्गत राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान का भाग बना। इसके अन्तर्गत आयोजित कार्यक्रमों एवं सफलता में उत्तरोत्तर वृद्धि के परिणमस्वरूप 1971 में यह स्वतंत्र विभाग के रूप में स्थापित हुआ। वर्तमान में यह स्कूल शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार के अधीन विभिन्न योजनाओं का संचालित कर रहा है। प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से समय-समय पर सरकार द्वारा कई कार्यक्रम शुरू किए गए, जिनमें राष्ट्रीय साक्षरता मिशन (एनएलएम) प्रमुख है, जिसे समयबद्ध तरीके से 15-35 वर्ष की आयु समूह में अशिक्षितों को कार्यात्मक साक्षरता प्रदान करने के लिए 1988 में शुरू किया गया था। 10वीं योजना अवधि के अंत तक एनएलएम ने 127.45 मिलियन व्यक्तियों को साक्षर किया जिनमें से 60 प्रतिशत महिलाएं थीं, 23 प्रतिशत अनुसूचित जाति (अ.जा.) और 12 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति (अ.जजा.) से संबंधित थे। समग्र साक्षरता अभियान के अंतर्गत 597 जिलों को शामिल किया गया था, जिसमें 502 साक्षरता पश्चात चरण और 328 सतत शिक्षा चरण में पहुंच गए। 2011 की जनगणना से यह स्पष्ट होता है कि भारत ने साक्षरता में उल्लेखनीय प्रगति की है। भारत की साक्षरता दर 72.98 प्रतिशत है तथा पिछले दशक की समग्र साक्षरता दर में 8.14 प्रतिशत की वृद्धि हुई है एवं निरक्षरों की संख्या (07वर्ष से अधिक आयु के समूह) में 304.10 मिलियन से घटकर 2011 में 282.70 मिलियन हो गई।

समाज में अशिक्षित होने से असंख्य नुकसान हैं साथ ही साक्षरता दर देश की जीडीपी को भी प्रभावित करती है।  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लेख है कि प्रौढ़ शिक्षा के लिए सुदृढ़ एवं नवाचारी सरकारी पहलों, खासकर समुदाय की भागीदारी को सुगम बनाना तथा प्रौद्योगिकी के सुचारू और लाभकारी एकीकरण को जल्द से जल्द लागू किया जाएगा ताकि 100 प्रतिशत साक्षरता के महत्वपूर्ण उद्देश्य की प्राप्ति शीघ्र की जा सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत एनसीईआरटी के एक नए और सु-समर्थित घटक संगठन द्वारा एक उत्कृष्ट प्रौढ़ शिक्षण पाठ्यचर्या ढांचा विकसित किया जाएगा जो प्रौढ़ शिक्षा के लिए समर्थित होगा। पाठ्यचर्यात्मक ढाँचे में पांच प्रकार के कार्यक्रम शामिल होंगे जिनमें से प्रत्येक के परिणाम स्पष्ट रूप से परिभाषित किये जाएंगे –

(1) बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान

(2) महत्वपूर्ण जीवन कौशल (वित्तीय साक्षारता, डिजिटल साक्षरता, व्यावसायिक कौशल, स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता, शिशु पालन एवं शिक्षा और परिवार कल्याण आदि)

(3) व्यावसायिक कौशल विकास (स्थानीय रोजगार प्राप्ति हेतु)

(4) बुनियादी शिक्षा (प्रारंभिक, माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर के समकक्ष)

(5) सतत शिक्षा (कला, विज्ञान तकनीकी, संस्कृति, खेल, मनोरंजन आदि)।

प्रौढ़ों को प्रौढ़ शिक्षा और आजीवन शिक्षा प्राप्त करने हेतु बुनियादी ढाँचा सुनिश्चित किया जायेगा। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल स्कूल के घंटों के बाद और सप्ताहांत पर स्कूल/स्कूल परिसरों, सार्वजनिक पुस्ताकलयों को प्रौढ़़ शिक्षा कार्यक्रमों के लिए उपयोग में लाया जायेगा। उच्चतर शिक्षण संस्थानों, व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों आदि जैसे अन्य सार्वजनिक संस्थानों के अन्तर्गत प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों को भी शामिल किया जा सकता है। प्रौढ़ शिक्षा पाठ्यक्रम ढांचे में वर्णित समस्त पांच प्रकार की प्रौढ़ शिक्षा के लिए परिपक्व शिक्षार्थियों को पाठ्यक्रम की रूपरेखा प्रदान करने के लिए प्रशिक्षकों/शिक्षकों/प्रेरकों की आवश्यकता होगी। प्रशिक्षकों को प्रौढ़ शिक्षण गतिविधियों को व्यवस्थित और नेतृत्व करने के लिए राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरीय संसाधन सहायता संस्थानों द्वारा प्रशिक्षित किया जाएगा। राष्ट्र के लिए की गयी इस महत्वपूर्ण सेवा के लिए उन्हें सम्मानित भी किया जायेगा। राज्य, साक्षरता और प्रौढ़ शिक्षा की दिशा में प्रयास को प्रोत्साहित करने के लिए गैर-सरकारी संगठनों और अन्य सामुदायिक संगठनों के साथ भी काम करेंगे। विज्ञापनों, घोषणाओं और गैर सरकारी संगठनों, अन्य स्थानीय संगठनों की गतिविधियों के माध्यम से भी प्रौढ़ शिक्षा के अवसरों का व्यापक प्रचार किया जायेगा।

समुदाय एवं शिक्षण संस्थानों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए पुस्तकों तक पहुँच और उपलब्धता बेहतर करना आवश्यक है। सभी समुदाय एवं शिक्षण संस्थान विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसी पुस्तकों की समुचित आपूर्ति  सुनिश्चित करेंगे जो कि सभी शिक्षार्थियों  की आवश्यकताओं और रुचियों को पूरा करते हों। केन्द्र एवं राज्य सरकारें ये सुनिश्चित करेंगी कि पूरे देश में शिक्षार्थियों को पुस्तकें मिल सकें तथा उनका मूल्य इस प्रकार हो कि वे आसानी से क्रय कर सकें। पुस्तकों की आनलाइन उपलब्धता बेहतर बनाने एवं डिजिटल पुस्तकालय को अधिक व्यापक बनाने हेतु कदम उठाये जायेंगे। भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन सामग्री उपलब्ध कराना, बाल-पुस्तकालय एवं चल-पुस्तकालय खोलना, पूरे भारत में और विषयों पर सामाजिक पुस्तक क्लबों की स्थापना एवं शिक्षण संस्थानों और पुस्तकालयों में आपसी सहयोग बढ़ाना भी सरकार के प्रमुख उद्देश्य होंगे।

आज दूरदर्शन का नेटवर्क लगभग सम्पूर्ण भारत में कार्य कर रहा है। इस प्रभावी जनसंचार माध्यम का उपयोग प्रौढ़ शिक्षा के लिए किया जाएगा। मेमोरी कार्ड या पेन ड्राइव द्वारा भी विशिष्ट कार्यक्रम तैयार कर दिखाए जा सकते हैं। सरकारी और परोपकारी पहलों के साथ क्राउडसोर्सिंग और प्रतियोगिताओं के माध्यम से प्रौढ़ शिक्षा के लिए गुणवत्तापूर्ण प्रौद्योगिकी आधारित विकल्प, जैसे ऐप, ऑनलाइन कोर्स/मॉड्यूल, उपग्रह- आधारित टीवी चैनल, ऑनलाइन किताबें, और आईसीटी से सुसज्जित पुस्तकालय और प्रौढ़ शिक्षा केंद्र आदि विकसित किए जाएंगे।

भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए यह आवश्यक है कि यहाँ शिक्षित व्यक्तियों को प्रौढ़ शिक्षा में सक्रिय योगदान करना चाहिए। निरक्षर को प्रौढ़़ शिक्षा केन्द्रों तक लाना और उन्हें अक्षर ज्ञान कराना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसे एक जन-आन्दोलन का रूप देना होगा। इंडियन एडल्ट 



एजुकेशन एसोसिएशन द्वारा 1939 से देश में वयस्क, गैर-औपचारिक और आजीवन शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए निरन्तर प्रयास किया जा रहा है। इस पुनीत कार्य में समाज के सभी वर्गों के शिक्षित व्यक्तियों की भागीदारी अपेक्षित है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि यदि गरीब शिक्षा के लिए नहीं आ सकते हैं तो शिक्षा को किसान, कारखाने आदि जैसे प्रत्येक स्थानों पर पहुँचना चाहिए।

डिजिटल इंडिया अभियान से देश के सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक क्षेत्र में क्रांन्तिकारी परिवर्तन आ रहे हैं। हाल ही में भारत सरकार द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत’ शुरू किया गया है। कोविड-19 के पश्चात् बदलते वैश्विक परिदृश्य में विश्व के कई देश भारत के विभिन्न क्षेत्र में आर्थिक निवेश करने को उत्सुक हैं। यह निश्चित रूप से भारत के चहुँमुखी विकास के लिए शुभ संकेत है। देश के सर्वांगीण विकास में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सभी को साक्षरता, शिक्षा एवं तकनीकी की अद्यतन जानकारी आवश्यक है। इस दिशा में सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर सभी को अपने स्तर पर योगदान देना होगा तभी भारत विकसित राष्ट्र बनकर आत्मनिर्भर भारत के रूप में विश्व का मार्गदर्शन करने में सफल होगा।

(लेखक शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.) में भू-विज्ञान विभागाध्यक्ष है।)



बाप की वसीयत 


एक दौलतमंद इंसान ने अपने बेटे को वसीयत देते हुए कहा। बेटा मेरे मरने के बाद मेरे पैरों में ये फटे हुऐ मोज़े (जुराबें) पहना देना, मेरी यह इच्छा जरूर पूरी करना।  पिता के मरते ही नहलाने के बाद, बेटे ने पंडितजी से पिता की आखरी इच्छा बताई।पंडित जी ने कहा: हमारे धर्म में कुछ भी पहनाने की अनुमति नही है।पर बेटे की ज़िद थी कि पिता की आखरी इच्छा पूरी हो।बहस इतनी बढ़ गई की शहर के पंडितों विद्ववानों को जमा किया गया, लेकिन कोई हल नहीं निकला।  इसी माहौल में एक व्यक्ति आया, और आकर बेटे के हाथ में पिता का लिखा हुआ पत्र दिया, जिस में पिता की नसीहत लिखी थी।

मेरे प्यारे बेटे

देख रहे हो..? दौलत, बंगला, गाड़ी और बड़ी-बड़ी फैक्ट्री और फॉर्म हाउस के बाद भी, मैं एक फटा हुआ मोजा तक नहीं ले जा सकता।

   एक रोज़ तुम्हें भी मृत्यु आएगी, आगाह हो जाओ, तुम्हें भी एक सफ़ेद कपडे में ही जाना पड़ेगा।

इसलिए कोशिश करना, पैसों के लिए किसी को दुःख मत देना, ग़लत तरीक़े से पैसा ना कमाना, धन को धर्म के कार्य में ही लगाना।


आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।

 नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।। 

व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है, व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है।क्योंकि जबभी मनुष्य परिश्रम करता हैतो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुशही रहता है।


संस्कृत सुभाषित के हिन्दी अर्थ हैं।



अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥

"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।

अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।

चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥

तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।

क्षुध् र्तृट् आशाः कुटुम्बन्य मयि जीवति न अन्यगाः।

तासां आशा महासाध्वी कदाचित् मां न मुञ्चति॥

भूख, प्यास और आशा मनुष्य की पत्नियाँ हैं जो जीवनपर्यन्त मनुष्य का साथ निभाती हैं। इन तीनों में आशा महासाध्वी है क्योंकि वह क्षणभर भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती, जबकि भूख और प्यास कुछ कुछ समय के लिए मनुष्य का साथ छोड़ देते हैं।

कुलस्यार्थे त्यजेदेकम् ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥

कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।

नाक्षरं मंत्रहीतं नमूलंनौधिम्।

अयोग्य पुरुषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः॥

ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र के लिए प्रयोग न किया जा सके, ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है जिसका औषधि के लिए प्रयोग न किया जा सके और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसका सदुपयोग के लिए प्रयोग किया जा सके, किन्तु ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं जो उनका सदुपयोग करना जानते हों।

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः।

यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥

"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।

धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥

आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।

यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥

यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।

प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः॥

सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है |



श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि तुम सृष्टि के अंत तक अमर रहोगे | तुम्हारे बाण से बिंधा मेरा यह पैर ही अब मृत्यु का कारण बनेगा जो मेरा प्रायश्चित भी होगा | तुम अब मेरे ही नाम से खाटू श्याम कहलाओगे | इसलिए बाबा हारे का सहारा नाम से संसार में पूजे जाते हैं|


ॐ श्री श्याम देवाय नम |

हारे का सहारा बाबा श्याम हमारा 

शीश के दानी की जय 

लख दातार की जय 


जून माह का पंचांग

कथा कहानी सुनने के लिए के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें - https://youtube.com/@satishsharma7164?si=VL7m3oHo7Z6pwozC  श्रीं श्याम देवाय नमः...