गुरुवार, 17 मार्च 2022

भागवत कधा के अंश

 


 आनन्द साधन से नहीं साधना से प्राप्त होता है। आंनद भीतर का विषय है, तृप्ति आत्मा का विषय है। मन को तो कितना भी मिल जाए , यह अपूर्णता का बार - बार अनुभव कराता रहेगा। जो अपने भीतर तृप्त हो गया उसे बाहर के अभाव कभी परेशान नहीं करते। 

  केवल मानव जन्म मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु हमें जीवन जीने की कला भी आना जरुरी है। पशु- पक्षी तो बिलकुल भी संग्रह नहीं करते फिर भी भी उन्हें जीवनोपयोगी सब कुछ प्राप्त होता है।

जीवन तो बड़ा आनंदमय है लेकिन हम अपनी इच्छाओं के कारण, वासनाओं के कारण इसे कष्टप्रद और क्लेशमय बनाते हैं। प्रारब्ध में जितना लिखा है और जब मिलना लिखा है, उतना ही मिलेगा और उसी समय पर मिलेगा। कर्म जरूर करते रहें पर चिन्तित कदापि ना हों। जीवन के लिए जो जरुरी है उतना प्रकृति कारण से नहीं, करुणा से अपने आप दे देती है।

जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके ना तो इंद्रिय तृप्ति के लिए कार्य करता है और ना सकाम कर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगा रूढ़ कहलाता है।

मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करें और अपने मन को नीचे न गिरने दे, यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।

जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है किंतु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।

जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के संपर्क में आता है तो उसका शाश्वत कृष्ण प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणत हो जाता है। अथवा दूसरे शब्दों में ईश्वर प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि 

नहीं होती तो यह क्रोध में परिणत हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरंतर बना रहता है, अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है ,और यह काम ही है जो विशुद्ध जीवात्मा को इस संसार में फंसे रहने के लिए प्रेरित करता है। क्रोध तमोगुण का प्राकट्य है ।यह गुण अपने आप को क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं। अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में ना गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाए तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है।

अपने नित्य वर्धमान चिदानंद के लिए भगवान ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित कर लिया और जीवात्माएं उनके इस चिदानंद के ही अंश हैं। उनको भी आंशिक स्वतंत्रता प्राप्त है किंतु अपनी इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके जब वे सेवा को इंद्रिय सुख में बदल देती हैं तो वह काम की चपेट में आ जाते हैं ।भगवान ने इस सृष्टि की रचना जीव आत्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियां की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की और जब जीवात्माएं दीर्घकाल तक काम कर्मों में फंसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं।

यही जिज्ञासा वेदांत सूत्र का प्रारंभ है जिसमें यह कहा गया है "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा"- मनुष्य को परम तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिए। और इस परम तत्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में किस प्रकार दी गई है- सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है। अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ अतः यदि काम को भगवत प्रेम में या कृष्णभावना में परिणत कर दिया जाए या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएं हो तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे ।भगवान राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावण की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया किंतु ऐसा करने से वह भगवान के सबसे बड़े भक्त बन गए। यहां पर भी श्री कृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान को प्रसन्न करने के लिए दिखाएं।अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रहकर मित्र बन जाते हैं।

सुनील शर्मा जी द्वारा संकलित 

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