गोपकुमार की गोलोक यात्रा..
बृहदभागवतामृत सुंदरता पूर्वक गोपकुमार की गोलोक वृंदावन यात्रा का वर्णन करती है। गोपकुमार हमारी तरह इस भौतिक संसार में रहता था परंतु उसने इस संसार का त्याग करके आध्यात्मिक जगत में लौटने का निश्चय किया।वहां लौट कर उसे प्राप्त हुए आनंद का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। इस संसार में हमारी यात्रा अंतहीन है,हम अनादि काल से श्री कृष्ण से बिछड़ कर इस संसार में भटक रहे हैं। कई बार हम अपने पुण्यों को भोगने के लिए उच्च लोको में जाते हैं और कई बार अपने पाप फलों को भोगने के लिए निम्न लोको में। कई बार हमें मनुष्य शरीर मिलता है और कई बार निम्न योनियों में, कई बार हमारा जन्म भूमि पर होता है और कई बार जल अथवा आकाश में।
इस संसार के रचयिता श्री कृष्ण ने हमें पहले ही चेतावनी दी है कि इस संसार में कहीं भी स्थाई सुख नहीं है और मृत्यु के कारण सर्वत्र दुख व्याप्त है (गीता 8.16)। इसके विपरीत आध्यात्मिक जगत स्थाई है और मृत्यु मुक्त होने के कारण सभी प्रकार के दुखों से मुक्त है। फलस्वरूप श्री कृष्ण हमें आध्यात्मिक जगत में लौटने के लिए प्रेरित करते हैं। जिस प्रकार समुद्र से बाहर निकली मछली पुनः जल में लौटने तक सुख प्राप्त नहीं कर सकती उसी प्रकार हम भी अपने सच्चे घर लौटने तक वास्तविक सुख प्राप्त नहीं कर सकते।
*गोप कुमार द्वारा आध्यात्मिक जगत लौटने का निश्चय ...*
अवसर मिलते ही गोपकुमार उत्साह पूर्वक तथा पूरे विश्वास के साथ अपने अंतिम गंतव्य की ओर निकल पड़ा। गोलोक वृंदावन के मार्ग में वह उच्च लोको में भी गया परंतु उसे वहां आनंद नहीं मिला। वहां से वह आध्यात्मिक जगत में गया और वैकुंठ, अयोध्या एवं द्वारका की यात्रा की।इन लोकों में उसकी भेंट वहां के निवासियों से हुई ,वह निवासी भी श्री भगवान के ही समान यशस्वी एवं पूर्ण आनंद में थे, उनसे मिलकर गोपकुमार अत्यंत प्रसन्न हुआ। परंतु फिर भी कहीं कुछ छूट रहा था ,उसे अभी तक श्री कृष्ण तथा ब्रजवासी नहीं मिले थे ,उसके हृदय में असंतोष का वह कण बेचैन कर रहा था और भक्तवत्सल श्री कृष्ण भला उसकी वह इच्छा पूरी क्यों नहीं करते!
मन की गति से भी तीव्र यात्रा करने वाला एक दिव्य विमान वहां आया और गोपकुमार को आध्यात्मिक जगत के सर्वोच्च लोक कृष्ण लोक में ले आया।
*गोप कुमार का गोलोक वृंदावन आगमन ...*
ऋषि मुनि उस धरती की एक झलक पाने के लिए हजारों वर्ष ध्यान तपस्या करते हैं। वहां पहुंचकर गोपकुमार को परम आह्लाद की अनुभूति हुई।श्री कृष्ण के दर्शन की ललक में वह उनकी खोज करने लगा। ब्रज वासियों से भेंट होने पर उसने श्री कृष्ण के बारे में पूछताछ की किंतु वे सभी श्रीकृष्ण के विचारों में इतने तल्लीन थे कि उनके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल सका।
अंततः एक बुजुर्ग व्यक्ति ने अवरुद्ध वाणी में नंद महाराज के घर की ओर संकेत किया। वहां गोपकुमार ने ऐसे लाखों चमत्कार देखें जिसकी उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी।
महल के द्वार पर गोपकुमार ने एक वृद्धा बृजवासी से श्री कृष्ण के बारे में पूछा अत्यंत दुखी होकर वह बोली "हमारे हृदय को चुराकर अब वह अपने मित्रों एवं भाइयों के साथ लीलाओं का सुख लेने के लिए वन में गया है।"
*ब्रज वासियों का विरह सुख..*
श्री कृष्ण के बिरह में ब्रज वासियों को एक एक क्षण युग प्रतीत होता था। अपनी पीड़ा को शांत करने के लिए कुछ ब्रजवासी दिनभर श्री कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करते और कुछ उनकी लीलाओं पर गीत बना कर दिन भर उन्हें गाते रहते। कुछ स्त्रियां स्वादिष्ट व्यंजन बनाती रहती जिससे श्री कृष्ण के लौटते ही वे उन्हें खिला सके। विभिन्न कार्यों में व्यस्त रहकर वे अपनी भावनाओं को छुपाने का भरसक प्रयास करते परंतु उनके नेत्र सदैव चंचल रहते ,आंखों से निरंतर अश्रु धारा बहती रहती और अवरुद्ध कंठ से वे "कृष्ण ,कृष्ण!" पुकारते रहते समझना कठिन था कि वे आनंद में है अथवा दुख में, श्री कृष्ण के साथ हैं अथवा उनसे दूर।
*यमुना तट पर श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा..*
बृजवासी आतुर होकर श्री कृष्ण के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे, संध्या होते ही वे सब उन्मुक्त होकर यमुना तट की ओर दौड़ने लगे ,कहीं श्री कृष्ण की झलक मिलने में देरी ना हो जाए ।यह विचार करके वह अपनी पलकें भी नहीं छुपा कर रहे थे तभी सहसा वातावरण वंशी की मधुर धुन से गूंज उठता है, यमुना थम जाती है, आकाश में पक्षी बुत बन जाते हैं ,वृक्ष उस ध्वनि का आलिंगन करने के लिए अपनी भुजाएं फैला लेते हैं ।
भावातिरेक में कुछ ब्रजवासी मूर्छित हो जाते हैं। उनके नेत्रों से बह रहे आंसू उनकी दृष्टि को धुन्दला देते हैं। कुछ लोग स्तब्ध ही खड़े थे।
व्यंजनों से भरे बर्तन उठाकर गोपियां दौड़ने लगी श्री कृष्ण के विरह में वे बार-बार उन्हें पुकार रही थी। नंद महाराज, राधा रानी तथा उनकी अनेक सखियां और ब्रज के सभी स्थावर जंगम निवासियों के साथ यशोदा मैया श्री कृष्ण की एक झलक पाने के लिए आतुर थे।
*और श्रीकृष्ण पहुंच गए...*
सहसा पीतांबर पहने एक श्याम वर्ण बालक पहुंच गया। वह वन फूलों से सुसज्जित था और उस के मुकुट में मोर पंख सजा था।उस बालक के अधरों पर नृत्य कर रही सौभाग्यशाली वंशी सभी को उनके आगमन की सूचना दे रही थी। अब महोत्सव का समय था ।दिन भर वन में बिताने के बाद श्री कृष्ण ब्रज लौटकर प्रसन्न थे, परंतु अचानक श्री कृष्ण का आनंद कई गुना बढ़ गया।
*दीर्घकाल बाद श्री कृष्ण की गोप कुमार से भेंट ...
यमुना तट पर एकत्र हुए ब्रज वासियों के बीच श्री कृष्ण की दृष्टि गोपकुमार पर गई उन्होंने अपने बांसुरी वादन रोक दिया अपने मित्रों, गायों तथा सभी को भ्रमित छोड़कर व्यग्रता पूर्वक गोपकुमार की ओर दौड़ने लगे। पहुंचते ही उन्होंने कूदकर गोपकुमार का आलिंगन कर लिया इतने लंबे समय बाद अपने प्रिय मित्र को देखकर श्री कृष्ण भावविभोर होकर सरूप की भुजाओं में मूर्छित हो गए, चेतना लौटने पर श्री कृष्ण ने अपने बाएं हस्त कमल में गोप कुमार का हाथ पकड़ा और पूछा "कहां थे तुम सरूप मैं तुम्हारा कितना स्मरण करता था, प्रतिदिन मैं इस आशा में प्रतीक्षा करता कि 1 दिन तुम अवश्य लौट कर आओगे, मैं बहुत आभारी हूं कि तुम लौट आए अब कृपया यही रहना और कहीं ना जाना।"
आध्यात्मिक जगत में गोप कुमार का नाम सरूप था वो इसे भूल गया था परंतु श्रीकृष्ण को स्मरण था।अंततः सरूप अपने आध्यात्मिक परिवार से पुनः जुड़कर आनंद पूर्वक गोलोक वृंदावन में रहने लगा इस आध्यात्मिक जगत में कोई चिंता एवं भय नहीं है, और वह इस भौतिक जगत की समस्त पीढ़ियों एवं दुखों से मुक्त है। शास्त्र बताते हैं कि वह गोलोक वृंदावन हमारी प्रतीक्षा भी कर रहा है।
-साभार
प्रहलाद महाराज भगवान के चरण कमलों की सेवा में संलग्न होने के इच्छुक थे,अपने ऐश्वर्यशाली पिता की मृत्यु के बाद प्रहलाद महाराज को उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी बनना था, जो सारे विश्व में फैली थी, लेकिन वह ऐसे भौतिक ऐश्वर्य को ग्रहण करना नहीं चाह रहे थे, क्योंकि कोई चाहे स्वर्ग में रहे या नर्क में, चाहे वह धनी हो या निर्धन भौतिक दशाएं सर्वत्र ही रहती हैं। अतः कोई भी जीवन-दशा पूर्णरूपेण प्रिय नहीं होती। यदि मनुष्य आनंदमय जीवन भोगना चाहता है तो उसे भगवान की दिव्य प्रेमा भक्ति में लगना चाहिए।भौतिक ऐश्वर्य भले ही कुछ काल तक प्रिय लगने वाला हो किंतु इसके लिए मनुष्य को अत्यधिक कठिन श्रम करना होता है।जब निर्धन व्यक्ति धनी बन जाता है तो उसकी दशा सुधर जाती है, किंतु उसे इस दशा तक पहुंचने में अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। भौतिक जीवन में कोई दुखी रहे या सुखी दोनों ही अवस्थाएं दुखमय हैं। यदि कोई वास्तव में आनंदमय सुखी जीवन चाहता है तो उसे कृष्णभावनाभावित होना पड़ेगा और भगवान की दिव्य प्रेमा भक्ति में लगना होगा ।यही असली औषधि है। सारा संसार इस भ्रम में है कि बद्ध जीव के दुखों को दूर करने के लिए यदि भौतिकता वादी उपचारों में प्रगति की जाए तो लोग सुखी हो सकेंगे, किंतु यह प्रयास कभी सफल होने वाला नहीं है। मानवता को भगवान की दिव्य प्रेमा भक्ति में लगने का प्रशिक्षण देना ही होगा।.... मनुष्य की भौतिक दशाओं में परिवर्तन करने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि सर्वत्र ही कष्ट तथा दुख है।
तात्पर्य श्रीमद्भागवत 7.9.17
(प्रह्लाद महाराज की प्रार्थनाएं)
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