हिंदी मासिक
जानकारी काल
वर्ष-22, अंक-07, नवम्बर - 2021, पृष्ठ 42, मूल्य-2-50
ॐ महालक्ष्मी नमो नम:||
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:||
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:||
शिक्षा में समाज प्रबोधनसा विद्या या विमुक्तये
– वासदेव प्रजापति
संस्कार परम्परा के अन्तर्गत अब तक हमने मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में, सामाजिक व सांस्कृतिक सन्दर्भ में तथा पारम्परिक कर्मकांड के सन्दर्भ के संस्कारों को जाना। आज हम ये सभी संस्कार होते कैसे हैं? अथवा संस्कार करने की प्रक्रिया क्या होती है? यह समझने का प्रयत्न करेंगे। किन्तु उससे पूर्व एक संस्कार-कथा का रसपान कर लेते हैं –
संस्कारों से बना भगवान का भक्त - भगवान के अनेक भक्त हैं। ऐसे भक्तों में एक परमभक्त हुआ है, प्रह्लाद। प्रह्लाद की जीवन कथा अनूठी है। सामान्य सिद्धांत यही है कि दैत्यों के घर दैत्य संतान और देवों के घर देव संतान होती आई है। परन्तु प्रह्लाद के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। प्रह्लाद दैत्य राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र था। उसके घर में उसके परम शत्रु भगवान विष्णु के भक्त का जन्म होना निश्चय ही घोर आश्चर्य का विषय है। ऐसी अनहोनी आखिर हुई कैसे? यह जानने के लिए प्रह्लाद के जन्म की कथा जाननी होगी।प्रह्लाद के चाचा थे हिरण्याक्ष, उनकी मृत्यु भगवान विष्णु के हाथों हुई थीं। भाई की मृत्यु का बदला लेने तथा स्वयं अमर बनने के लिए हिरण्यकशिपु ने तपस्या करने का निश्चय किया और मन्दराचल पर चला गया। पीछे देवताओं ने सुअवसर जान दैत्यपुरी पर आक्रमण कर दिया। दैत्य अपने राजा के अभाव में पराजित हो गए और अपने स्त्री-पुत्रों को छोड़कर प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग गए। देवराज इन्द्र को ज्ञात हुआ कि हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु गर्भवती है और इस समय अकेली है। वे कयाधु को ले आए और अपने साथ अमरावती ले जाने लगे। मार्ग में उन्हें महर्षि नारद मिले, नारदजी ने इन्द्र से पूछा आप इस साध्वी स्त्री को कहाँ ले जा रहे हैं? इन्द्र ने बताया, यह स्त्री हमारे शत्रु हिरण्यकशिपु की पत्नी है और गर्भवती हैं। इसके जो पुत्र होगा, वह भी दैत्य होगा और हमारा शत्रु होगा। इसलिए मैं उसे मारकर दैत्य वंश ही समाप्त कर दूंगा। नारद जी ने इन्द्र को डाँटते हुए कहा, आपको क्या पता कि इसकी कोख में पलने वाला बालक कौन है? मैं बताता हूँ यह बालक भगवान का परमभक्त होगा, इसलिए तुम कयाधु को छोड़ दो। इन्द्र ने नारदजी के कहने पर कयाधु को छोड़ दिया।तब नारदजी ने उससे कहा- बेटी कयाधु! अब तुम अकेली कहाँ रहोगी? ऐसा करो जब तक तुम्हारे पति लौटकर नहीं आ जाते तब तक तुम मेरे आश्रम में रहो। कयाधु नारदजी के साथ उनके आश्रम आ गई और वहीं रहने लगीं। नारद जी तो त्रिकालदर्शी थे, वे तो कयाधु की कोख में पल रहे बालक का भूत-भविष्य सब जानते थे। वे यह भी जानते थे कि गर्भावस्था में माँ को दिए गए संस्कार बालक को प्राप्त होते हैं और स्थायी रहते हैं। उन्हें तो बालक को भगवान का परम भक्त बनाना है, अतः नारदजी ने कयाधु के माध्यम से उस बालक में भगवद्भक्ति के संस्कार भरने प्रारम्भ किए।नारदजी का आश्रम प्रकृति की गोद में बसा था, वृक्ष, लताओं व पुष्पों की छटाएँ निराली थीं। पक्षियों की कलरव, मयूरों के नृत्य और हरिण व खरगोश की उछल-कूद मन को मोह लेती थीं। ब्रह्मचारियों का इधर-उधर आना-जाना, वेद मंत्रों का पाठ,नित्य हवन-यज्ञ से सुरभित संस्कारक्षम वातावरण जैसा यहाँ था, वैसा राज महल में कहाँ? इसलिए कयाधु का मन इस सुरम्य आश्रम में लग गया और वे आनन्दपूर्वक अपना समय बिताने लगीं। ऐसे आनन्दमय वातावरण में नारद जी प्रतिदिन कयाधु को भगवद्भक्ति का उपदेश करते। शेष समय में कयाधु आश्रम के अन्य साधुओं की सेवा-सुश्रूषा में लगी रहतीं।आश्रम के संस्कारमय वातावरण में बालक प्रह्लाद का जन्म हुआ। जन्म से ही उसे भगवद्भक्ति का वातावरण मिला। प्रसन्नमना माता की ममता की छाँव तथा देवर्षि नारद के संरक्षण में प्रह्लाद बड़ा हुआ और भगवान का प्रिय भक्त बना। उसकी माँ कयाधु को गर्भावस्था में मिले दृढ़ संस्कारों के परिणामस्वरूप ही भक्त प्रह्लाद अपने पिता के द्वारा दिए गए सब प्रकार के कष्टों को झेलता हुआ प्रभु सत्ता को स्थापित करने में सफल हुआ।
शिशु अवस्था में अधिक संस्कार - एक शिशु अपने जन्म से पूर्व गर्भावस्था में ही संस्कार ग्रहण करने लग जाता है। संस्कार ग्रहण करने की क्षमता पांच वर्ष की आयु तक सर्वाधिक होती है। संस्कार ग्रहण करने के सम्बन्ध में दूसरी विशेष बात यह कि जितनी कम आयु ग्रहणशीलता उतनी अधिक होती है। उदाहरण के लिए चार वर्ष का शिशु जितनी तीव्रता के साथ संस्कार ग्रहण करता है, उसकी तुलना में दो वर्ष का शिशु अधिक तीव्रता से और दस दिन का शिशु उससे भी तीव्र गति से तथा गर्भावस्था में सर्वाधिक तीव्र गति से संस्कार ग्रहण करता है। इसलिए गर्भावस्था के संस्कारों की कथाएँ, जैसे – अभिमन्यु, अष्टावक्र और प्रह्लाद इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं
गर्भावस्था में संस्कार - भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि जब पति-पत्नी के मन में संतान की इच्छा जाग्रत होती है, तब से ही उस संतान के चरित्र का गठन शुरू हो जाता है। भावी माता-पिता की भावनाएँ, विचार, महत्त्वाकाक्षाएं आदि उस संतान के चरित्र का आधार बनते हैं।सबसे प्रमुख बात यह है कि वासना और उत्तेजना के वशीभूत होकर अनायास गर्भाधान हो जाता है, अथवा संतान चाहिए इस भावना से प्रेरित होकर सम्पूर्ण मनोयोग पूर्वक संस्कारात्मक पूर्व तैयारी के साथ गर्भाधान किया जाता है। इन दोनों बातों का भावी संतान के चरित्र गठन पर प्रभाव होता है। भारतीय परम्परा में विवाह एक संस्कार है। विवाह मात्र काम-वासना की पूर्ति हेतु नहीं होता, अपितु संतान प्राप्ति हेतु, पितृ ऋण से उऋण होने हेतु तथा वंश परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए होता है। इस मानसिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जब गर्भाधान होता है, तब संतान के सम्पूर्ण जीवन की नींव सही बनती है।बालक जब माँ की कोख में होता है, तब वह माता के माध्यम से ही खाना-पीना व संस्कार ग्रहण करता है। इस अवस्था में माता क्या खाती है, कितनी व कैसी निद्रा लेती है, टीवी पर कैसे दृश्य देखती है, आने वाली संतान के विषय में क्या सोचती है, उसके साथ कैसा वार्तालाप करती है तथा माता की रुचि-प्रवृत्ति कैसी है? इन सभी बातों का कोख में पल रही संतान पर सीधा-सीधा प्रभाव होता है। उदाहरण के लिए यदि माता तामसी भोजन करती है तो वह संतान भी तामसी प्रकृति की होती है। यदि माता अच्छे ग्रंथ पढ़ती है, अच्छे विचार करती है, सत्संग व सेवा करती है तो उसकी संतान सात्त्विक और तेजस्वी होती है। आज इस तथ्य की घोर उपेक्षा की जा रही है, जबकि आवश्यकता इस तथ्य को स्वीकार कर तदनुसार चलने की है। शिशु के जन्म के समय वातावरण शान्त, सुन्दर व पवित्र होना चाहिए। सबसे पहले शिशु को कौन स्पर्श करता है, उसे कैसी ध्वनि सुनने को मिलती है, उसे क्या दिखलाई पड़ता है और कौन सा स्वाद चखाया जाता है? इन सभी बातों का बहुत महत्त्व है। इस समय उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ स्वतन्त्र रूप से प्रथम अनुभव प्राप्त कर रही होती हैं। यह प्रथम अनुभव बहुत गहरे संस्कार करता है। यह न केवल अन्धश्रद्धा या कर्मकांड है अपितु पूर्णतया वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक हैं।
निद्रा व जागरण के संस्कार - यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि शिशु रात्रि में जैसे वातावरण में, जो-जो देखते व सुनते हुए होता है, वैसे ही उसे स्वप्न आते हैं, उसके भाव और विचार बनते हैं। टीवी की तीखी आवाज, तेज रोशनी, भड़कीले रंग और उत्तेजनापूर्ण दृश्यों से उस पर विपरीत संस्कार बनते हैं। इसके स्थान पर शांत वातावरण, मंद प्रकाश, माता का प्रेमपूर्ण स्पर्श, मधुर स्वर और संस्कारयुक्त लोरी अथवा कहानी अनुकूल संस्कार डालते हैं।इसी प्रकार प्रात:काल जगाते समय प्रभाती के स्वर, माता का स्नेहमयी स्पर्श मिलता है तो शिशु का मन प्रसन्न रहता है। संसार के अनेक महापुरुषों ने अपने अनुभव बताएं हैं कि उनकी अनपढ़ किन्तु सात्विक प्रकृति वाली माँ ने शैशवास्था में भजन, कहानी, स्तोत्र व लोरी आदि सुनाकर हमारा चरित्र गढ़ा है। सोते समय की अशांति और जागने के समय की हड़बड़ी शिशु के चित्त पर बहुत ही विपरीत प्रभाव डालती है।
मातृहस्तेन भोजनं के संस्कार - छोटों को ही नहीं, बड़ों को भी अपनी माता के हाथ का भोजन अत्यधिक प्रिय होता है। क्योंकि यह भोजन शरीर को पुष्ट व मन को तुष्ट करने वाला होता है। भोजन बनाते समय बनाने वाले के मन के भाव और विचार के अनुसार खाने वाले पर भोजन के संस्कार होते हैं। इसलिए अच्छे मन से बनाना और प्रेमपूर्वक खिलाना संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है और यह कार्य माँ से बढ़कर और कोई नहीं कर सकता। अतः मातृहस्तेन भोजनं का संस्कार रोपण में महत्त्वपूर्ण भाग होता है। आज दुनिया की सभी माताओं को इसका महत्त्व जानने व समझने की आवश्यकता है।
पंचमहाभूतों के संस्कार - शिशु का शरीर पंचमहाभूतों का बना है। यह शरीर अपने आपको अभिव्यक्त करने का माध्यम है। हम इस शरीर से ही सब प्रकार के कार्य-व्यवहार पूर्ण करते हैं। इसलिए हमारे पूर्वजों ने कहा है – शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं। प्रत्येक शिशु में इन पंचमहाभूतों के निकट सम्पर्क में रहने की स्वाभाविक इच्छा होती है। उसे मिट्टी व पानी में खेलना अच्छा लगता है, उसे खुले में रहना पसन्द है। यही कारण है कि प्राकृतिक वातावरण में हवा, पानी, मिट्टी तथा सूर्य प्रकाश के सीधे सम्पर्क में रहने से उसका चित्त सन्तुलित वह प्रसन्न रहता है। उसके व्यक्तित्व का
समुचित विकास होता है। आज के शिक्षित अभिभावकों को भय लगता है कि शिशु गंदा हो जायेगा, बीमार पड़ जायेगा अथवा उसे विषाणु लग जायेंगे। आवश्यकता केवल सावधानी रखने व भय दूर करने की है, शिशु को रोकने की नहीं।यह हमारी संस्कार प्रक्रिया है, ये संस्कारों के कारक तत्त्व हैं। हम जानते हैं कि संस्कार निर्माण का प्रमुख केन्द्र घर है। संस्कार बालक के माता-पिता एवं परिजनों के माध्यम से होते हैं। अतः घर ही सर्वश्रेष्ठ संस्कार केन्द्र है और माता-पिता ही श्रेष्ठ संस्कारकर्ता हैं। पहले शिशु को पांच या छः वर्ष की आयु होने तक विद्यालय नहीं भेजते थे, घर पर ही रखकर उन्हें संस्कारित करते थे। आज यह ज्ञान और उसका भान खण्डित हो गया, इसलिए संस्कार दिए ही नहीं जाते। यह आज की पीढ़ी की बहुत बड़ी समस्या है। इसे दूर करने के लिए संस्कार-शास्त्र को शिक्षा के माध्यम से प्रचलित करने की महती आवश्यकता है।लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ बंग-भंग आंदोलन
– डॉ. रमेश कुमार
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक दीर्घावधि तक चला एक बहुपक्षीय एवं बहुआयामी आंदोलन था। इस आंदोलन का नेतृत्व भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के व्यक्ति कर रहे थे। इस आंदोलन में जहां एक ओर क्रांतिकारियों की विशेष भूमिका थी वहीं दूसरी और राष्ट्रवादियों एवं अहिंसावादियो ने भी इसमें योगदान दिया। भारत वासियों ने मध्यकाल में भी तुर्कों और मुगलों के विरुद्ध एक लंबा संघर्ष किया। 1757 ई. में भारत में अंग्रेजों की सत्ता की स्थापना के साथ ही उनके विरुद्ध भी संघर्ष एवं प्रतिरोध का आरंभ हो गया। कभी संन्यासी तो कभी वनवासी, कभी किसान तो कभी हस्तशिल्पी, कभी राजा तो कभी प्रजा, सारी जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध जबरदस्त प्रतिरोध किया। इसकी सामूहिक और बड़ी परिणीति 1857 ई. की महान क्रांति में हुई। इस क्रांति के फलस्वरूप ही अंग्रेजों को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त करना पड़ा तथा भारत की सभ्यता, संस्कृति, समाज और धर्म में किए जा रहे हस्तक्षेप को रोकना पड़ा।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम से अंग्रेज इतने भयभीत हुए कि उन्होंने अपने शासन को बनाए रखने के लिए ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाकर अलीगढ़ जैसे सांप्रदायिक आंदोलन को हवा दी, 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया, 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना करवाई तथा 1909 ई. में मुसलमानों को विशेष सुविधाएं देते हुए मिंटो मार्ले एक्ट पास करके उनको अलग चुनाव मंडल प्रदान करके सांप्रदायिकता का विष भारतीय समाज में घोल दिया।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानंद के आर्य समाज और स्वामी विवेकानंद के रामकृष्ण मिशन ने भारतीयों में अपनी सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव की अनुभूति उत्पन्न करके स्वाभिमान आत्मविश्वास एवं राष्ट्रीयता का भाव जागृत किया। वंदे मातरम जैसे गीत की रचना, दादा भाई नौरोजी के निकासी के सिद्धांत तथा आर्य समाज व रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों से भारतीयों में एक नए प्रकार का आत्मविश्वास एवं सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण हो चुका था।
लार्ड कर्जन 1899 ईस्वी में भारत का गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। आते ही उसने भारत में हिलोरे मार रही राष्ट्रीयता से निपटने की योजना बनानी प्रारंभ कर दी। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत में राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था। बंगाल व देश के अन्य भागों में ग्रामीण एवं शहरी युवक-युवतियां पहली बार सक्रिय राजनीति में हिस्सा ले रहे थे। बंगाल एक विशाल प्रांत था। उस समय इस प्रांत की जनसंख्या लगभग 7 करोड़ 85 लाख थी तथा इसका क्षेत्रफल 189000 वर्ग किलोमीटर था बिहार और उड़ीसा भी इसी में ही शामिल थे अंग्रेजों ने इस प्रांत में राष्ट्रीय आंदोलन की गति को अवरुद्ध करने के लिए इस प्रांत का विभाजन करने की योजना बनाई यद्यपि अंग्रेजों ने प्रांत के विभाजन को प्रशासनिक जरूरत बताया जबकि वास्तव में इसके पीछे राजनीतिक कारण थे। लार्ड कर्जन के तत्कालीन गृह सचिव हेनरी रिसले का कहना था कि “अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है और विभाजित होने से यह कमजोर हो जाएगा। हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का बंटवारा करना है जिससे हमारे दुश्मन बंट जाए और कमजोर पड़ जाए।” इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिए तथा मुस्लिम सांप्रदायिकता को भड़काने के लिए बंगाल को सांप्रदायिक आधार पर पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में बांट दिया।
बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की जानकारी दिसंबर 1903 में सबको हुई और इसकी जानकारी के साथ ही इसका जबरदस्त विरोध होने लगा। प्रारम्भ के दो महीनों में ही 500 बैठकें हुई। विभाजन के विरुद्ध 40 से 50 हजार पर्चे बांटे गए। बंगाली, हितवादी एवं संजीवनी जैसे अखबारों में लेख छपे। कई विरोध सभाओं का आयोजन किया गया। 69 ज्ञापन भेजे गए। बहुत सी याचिकाएं भी सरकार को विरोध स्वरूप भेजी गई। कुछ याचिकाओं पर तो 70000 से भी अधिक लोगों के हस्ताक्षर थे। 1903 से 1905 ईसवी की अवधि के बीच आवेदनों, ज्ञापनों, सभाओं, याचिकाओं, लेखों के माध्यम से विभाजन के विरुद्ध जबरदस्त प्रचार हुआ। लेकिन अंग्रेजी सरकार पर विरोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा 19 जुलाई 1905 को ब्रिटिश सरकार ने बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। अब जनता ने महसूस किया कि आवेदनों, ज्ञापनों और सभाओं से कुछ होने वाला नहीं है इसलिए आंदोलन एवं संघर्ष का कोई नया तरीका खोजा जाए। बंगाल के अलग-अलग कस्बों जैसे दिनाजपुर, पबना, फरीदपुर, जैसोर, ढाका, वीरभूमि, बारिसाल, कोलकाता आदि में हुई सभाओं में स्वदेशी और बहिष्कार की रणनीति पर विचार विमर्श हुआ। 7 अगस्त 1905 को कोलकाता के टाउन हाल की ऐतिहासिक बैठक में स्वदेशी आंदोलन की विधिवत घोषणा हुई तथा बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ। 1 सितंबर 1905 को ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि विभाजन 16 अक्टूबर 1905 से लागू होगा। इस घोषणा के बाद तो स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने और जोर पकड़ लिया। जगह-जगह सभाओं में स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग की प्रतिज्ञा ली जाने लगी तथा विदेशी सामान के बहिष्कार का आह्वान होने लगा जिससे अंग्रेजी कपड़ों की बिक्री 5 से 15 गुना तक कम हो गई।
16 अक्टूबर 1905 को बंगाल के विभाजन का दिन पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। घरों में चूल्हा नहीं जला, लोगों ने उपवास रखें, जनता ने जुलूस निकाले, सवेरे-सवेरे लोगों ने गंगा में स्नान किया, सड़कों पर वंदे मातरम के गीत गाते हुए प्रदर्शन किए, लोगों ने एक दूसरे के हाथों पर राखियां बांधी। दिन में दो बड़ी जनसभाएं हुई, एक में 50000 और दूसरी में 75000 लोग इकट्ठे हुए। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पहली बार इतनी संख्या में लोग एकत्रित हुए तथा आंदोलन के लिए ₹50000 कुछ घंटों के भीतर ही इकट्ठे हो गए। बंगाल में इसका नेतृत्व सुरेंद्रनाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, आनंद मोहन बोस, अरविंद घोष जैसे नेता कर रहे थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी इस आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा थे। जनता का नारा था ‘बनर्जी झुकना नहीं’ ‘Surrender not Banerjee.’
विभाजन के विरुद्ध शुरू हुआ स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन शीघ्र ही पूरे देश में फैल गया। लोकमान्य तिलक ने पूरे देश विशेषकर मुंबई, पुणे एवं मध्य प्रांत में इसका प्रचार किया। अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने पंजाब व उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में इसे पहुंचाया। चिदंबरम पिल्लई ने मद्रास प्रेसीडेंसी में इसका नेतृत्व किया। बंगाल एवं देश के विभिन्न हिस्सों में विदेशी कपड़े की होली जलाई गई। विदेशी सामान की दुकानों पर धरने दिए जाने लगे। औरतों ने विदेशी चूड़ियां पहनना बंद कर दिया एवं विदेशी बर्तनों का प्रयोग छोड़ दिया। धोबियों ने विदेशी कपड़े धोने से इंकार कर दिए। यहां तक कि पुजारियों ने विदेशी चीनी से बने प्रसाद को लेने से इनकार कर दिया। राष्ट्रवादी महज स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन से संतुष्ट नहीं थे बल्कि वे इसे राजनीतिक जन आंदोलन का रूप देना चाहते थे। उनका लक्ष्य अब स्वराज्य हो चूका था। विभाजन को समाप्त करने की मांग छोटी हो चुकी थी। राष्ट्रवादियों ने जनता के सामने अपने विचार, योजना और तरीके रखकर राजनीतिक स्वाधीनता हासिल करने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए व्यापक जन आंदोलन खड़ा करने का प्रयास किया। इसके लिए बहिष्कार को असहयोग आंदोलन और शांतिपूर्ण प्रतिरोध तक ले जाना था। अब उन्होंने सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों एवं सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करना भी शुरू कर दिया ताकि ब्रिटिश सरकार पंगु हो जाए। उनका मानना था कि यदि चौकीदार, सिपाही, सैनिक, सहायक, क्लर्क काम करना बंद कर दें तो देश से अंग्रेजी शासन कुछ मिनटों में ही समाप्त हो जाएगा। राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी के प्रचार के लिए पारंपरिक त्यौहारों, धार्मिक मेलों, लोक परंपराओं, लोक उत्सव, लोक संगीत, लोक नृत्यों का भी सहारा लिया। तिलक ने गणपति उत्सव एवं शिवाजी जयंती के माध्यम से स्वदेशी का प्रचार प्रसार किया।
सरकारी अदालतों का बहिष्कार करके विदेशी पंच अदालतें बनाई गई। अगस्त 1906 तक बारिसाल समिति ने 89 पंचायतों के जरिए 523 विवादों का निपटारा किया। स्वदेशी आंदोलन ने आत्मनिर्भरता, आत्मशक्ति और स्वावलंबन का नारा दिया। स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता का प्रश्न स्वाभिमान, आदर और आत्मविश्वास के साथ जुड़ा हुआ था। आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी राष्ट्रीय शिक्षा की जरूरत थी। टैगोर के शांतिनिकेतन की तर्ज पर बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई जिसके प्राचार्य अरविंद बने। शीघ्र ही पूरे देश में राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना होने लगी। 1906 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का गठन हुआ। जिसका उद्देश्य साहित्यिक, वैज्ञानिक, तकनीकी एवं राष्ट्रीय जीवन धारा से जुड़ी हुई शिक्षा देना था। शिक्षा का माध्यम देशी भाषा बनी। तकनीकी शिक्षा के लिए बंगाल इस्टीट्यूट की स्थापना हुई। इसी तरह से स्वदेशी उद्योगों की जरूरत महसूस की गई। पूरे देश में स्वदेशी कारखाने स्थापित होने लगे। कपड़ा, साबुन, माचिस, चमड़े के स्वदेशी उद्योग, स्वदेशी बैंक एवं बीमा कंपनियां स्थापित हुई।
ब्रिटिश सरकार ने विभाजन के प्रतिक्रिया स्वरूप हुए राष्ट्रव्यापी स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का दमन करने का निश्चय किया तथा राष्ट्रवादी नेताओं की गिरफ्तारी शुरू कर दी। अजीत सिंह, लोकमान्य तिलक, बिपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष को बंदी बना लिया गया दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय में सांप्रदायिकता की भावना को जन्म देकर मुस्लिम लीग का गठन करवाया। तत्पश्चात 1909 में मिंटो मार्ले एक्ट पास करके मुसलमानों को विशेष सुविधाएं देकर सांप्रदायिकता का बीज भारतीय समाज में बो दिया। लेकिन 1911 में अंग्रेजी सरकार को अपनी गलती का अनुभव हुआ तथा बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया।
ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के अंतर्गत किया था। उसकी इस नीति से भारत में मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीति का विस्तार हुआ। मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तथा भविष्य में मुस्लिम तुष्टीकरण से भारत का विभाजन हुआ। बंग-भंग आंदोलन का भारतीय राजनीति विशेषकर भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सर्वप्रथम इसने भारत में स्वदेशी और बहिष्कार रूपी दो ऐसे अस्त्र भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को दिए जिनका विस्तृत प्रयोग अहिंसावादी संघर्ष में गांधी जी ने किया। दूसरा इसी आंदोलन से निष्क्रिय प्रतिरोध अथवा असहयोग का आरंभ भी भारतीय राजनीति में हुआ। तीसरा इस आंदोलन ने भारत में राष्ट्रीय शिक्षा एवं स्वदेशी शिक्षण संस्थानों की नींव रखी। चौथा इस आंदोलन के माध्यम से युवाओं और महिलाओं की भागीदारी भी भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में सुनिश्चित हुई तथा भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का विस्तार गांव और कस्बों तक हुआ। यद्यपि विभाजन केवल बंगाल का हुआ था लेकिन संपूर्ण देश में इसकी राष्ट्रीय प्रतिक्रिया हुई तथा देश भर में इसका व्यापक विरोध हुआ जिससे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा मिली।
(लेखक राजकीय महाविद्यालय बिलासपुर जिला यमुनानगर में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर है और भारतीय इतिहास संकलन समिति हरियाणा के प्रान्त अध्यक्ष है।)
हिन्दुओं का पुनर्जागरण
हिन्दुओं की दशा अब साठ सत्तर के दशक वाली नहीं है। अब हिन्दू ग्लोबल पॉवर के रूप में उभर रहे हैं। अब हिन्दू भारत में ही नहीं हैं, न सिर्फ भारतीय मूल के। अब अफ्रीकी मूल के लोग भी हिन्दू हैं और यूरोप मूल के लोग भी। अब चीनी मूल के लोग भी हिन्दू हैं और रसियन हिन्दू भी हैं।
लेकिन संसार में हिन्दुओं की सबसे ताकतवर लॉबी अमेरिका में है। कहते हैं अमेरिका में यहूदियों के बाद हिन्दू दूसरी सबसे ताकतवर लॉबी के रूप में उभरे हैं। वो अपने और अपने धर्म समाज के प्रति सचेत हैं। वो आनेवाले खतरों को समझते हैं और उसके निपटने की तैयारी कर रहे हैं।
हिन्दुओं के इस पुनर्जागरण में सबसे बड़ा योगदान भारत के सिद्धों और साधु संतों का है जिन्होंने बीते चालीस पचास सालों में एक सॉफ्ट पॉवर के रूप में अपना विस्तार किया है। इस्कॉन और स्वामीनारायण जैसी संस्थाओं ने पूरी दुनिया में हिन्दू चेतना, धर्म और संस्कृति को जगाया है। सीमित मात्रा में ही सही, अब हिन्दू एक वैश्विक ताकत के रूप में उभर रहा है।
लेकिन भारत का दुर्भाग्य ये है कि भारत के लोग इस उभार के प्रति अचेत हैं। संसार में लगभग 135 करोड़ की जनसंख्या होने के बाद भी उनको भारत में ही भ्रमित किया जाता है ताकि हिन्दू समाज अपने आप को एक उभरती वैश्विक ताकत के रूप में देख ही न सके। लेकिन आज नहीं तो कल ये दिखाई देना शुरु हो जाएगा। संसार में समझदार लोगों के बीच हिन्दू धर्म सबसे ज्यादा तेजी से फैलनेवाला धर्म बन गया है जो इसकी अच्छाइयों, को देखकर सहज ही इसके प्रति आकर्षित हो रहे हैं। योग ध्यान और भजन कीर्तन जैसे आध्यात्मिक उपायों ने संसारभर में हिन्दू धर्म को एक वैज्ञानिक और तार्किक धर्म के रूप में स्थापित करना शुरु कर दिया है।
हां, इस्लामिक और ईसाई जगत इस बढ़त को लेकर आशंकित है और चर्च ने तो बाकायदा इस पर हमला करना भी शुरु कर दिया है। लेकिन जब सवाल तर्कपूर्ण आस्था का होगा तो निर्णय अपने आप हो जाएगा कि कल्पना के ईश्वर पर विश्वास करना है या फिर यथार्थ के ईश्वर को अनुभव करना है। जिसके पास अनुभव का विज्ञान होगा, वह अपने आप संसार के मुक्ति का मार्ग बन जाएगा। आखिर कौन मनुष्य होगा जिसे एक नाचता गाता, उत्सव और उमंग से भरा धर्म आकर्षित नहीं करेगा? (संति) संजय तिवारी
स्वदेशी व भारतीय बाज़ार
अभी त्यौहार शुरू हैं।
पूरे वर्ष का एक तिहाई व्यय इन उत्सवों में होने वाला है। शोरूम और कॉरपोरेट को छोड़कर, जहाँ तक सम्भव हो अपनी जड़ों को खोजिए।
एक परिवार पर आश्रित सात शिल्प हुआ करते थे, ढूंढिए कि आज वे किस स्थिति में है?
और वर्षपर्यन्त तक, किसी को कोई रियायत नहीं। इन लफंगों को तो बाद में भी नहीं।
विचार कीजिए! हमारा स्वयं का इकोसिस्टम विकसित करने में योगदान दीजिये।
डीसी कॉमिक्स की “जेएलए – द नेल” तीन भागों की एक कॉमिक्स श्रृंखला थी जो 1998 में आई थी। इस कॉमिक्स की शुरुआत ही “फॉर वांट ऑफ़ अ नेल द शू वाज लॉस्ट” वाली कविता से होती है। ये एक प्रसिद्ध लोककथा सी है जिसमें मोटे तौर पर कहा जा रहा होता है कि कील की वजह से घोड़े की नाल टूटी, नाल की वजह से घोड़ा लंगड़ा हुआ, घोड़े की वजह से सवार और सवार की कमी से युद्ध हारा गया। इस तरह एक कील की वजह से पूरा राज्य गया! लोगों ने कविता सुनी तो जरूर होती है, लेकिन सुनने और समझने में उतना ही अंतर है जितना ये बताने में कि क्लच छोड़ने से गाड़ी आगे बढ़ने लगती है और सचमुच गियर बदलकर सड़क पर गाड़ी चलाने में।
जिन्हें युद्धों का अभ्यास नहीं है उन्हें ये “फॉर वांट ऑफ़ अ नेल द शू वाज लॉस्ट” कैसे समझ नहीं आती इसे समझना है तो हिन्दुओं को देखिये। उन्हें पता है कि 1929 तक के दौर में क्वेट्टा में विजयदशमी होती थी। मुश्किल से एक-दो दशकों में ही ये बंद हो गयी होगी। बिलकुल उसी तरीके से त्योहारों को मनाये जाने के तरीकों को बदलने पर दबाव डालना जारी रहता है। सरकारी तंत्र और जबरन भाजपा नेता डॉ हर्षवर्धन जैसे लोगों के थोपे हुए कानूनों के जरिये पटाखे फोड़ने वालों को जेलों में फेंका जाता है। नहीं मानने पर हिंसा होती है। जैसी की बांग्लादेश या पश्चिम बंगाल में नवरात्रि मनाने वालों के साथ हो रही दिखी। इसके फ़ौरन विरोध के बदले आप चुप रहते हैं, क्योंकि आपको लगता है कि एक कुप्रथा ही तो है जिसे हटाना है!असल में सबको पता है कि पटाखों से कहीं ज्यादा प्रदुषण तो पराली जलाने से होता है। उस समय गिरफ़्तारी के ये नियम, डॉ हर्षवर्धन या केजरीवाल जैसे नेताओं के कौन से अंग विशेष में घुस जाते हैं? इसका ठीक उल्टा कर लीजिये तो कुछ समुदाय विशेष ऐसे होते हैं जिन्हें हमले करने का अभ्यास होता है और उन्हें सिर्फ पता नहीं होता कि क्लच छोड़ने से गाड़ी आगे बढ़ेगी, उन्होंने सचमुच गाड़ी चलाई होती है। इन्हें अच्छी तरह पता है कि एक कील के न होने से युद्ध कैसे हारा जा सकता है। इसलिए इन्हें जब आप देखेंगे तो आपको फ़ौरन दिखेगा कि एक मामूली से तीन तलाक, जिसे वो खुद ही गैरकानूनी बताता है, उसके लिए भी अगर कानून बने तो वो कैसे सड़कों पर विरोध में उतर आता है।
बिलकुल यही आपको तब दिखेगा जब आर्यन खान जैसा कोई गिरफ्तार हो जाता है। आप कह सकते हैं कि एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद अगर नशे के साथ गिरफ्तार हुई ही तो कौन सी बड़ी बात हो गयी? ऐसी घटनाएँ तो होती रहती हैं। नशे का बॉलीवुड उर्फ़ उर्दुवुड से तो पुराना नाता है। बड़े लोगों की नामी गिरामी औलाद अक्सर ऐसे मामलों में गिरफ्तार होती रही है। उनके लिए ये बिलकुल कील की वजह से राज्य जाने वाला मामला है। इसलिए पूरी ताकत के साथ उनका प्रचार तंत्र इसके विरोध में उतर आया है। जो लिख सकते थे, उन्होंने लिखा, जो बोल सकते थे वो बोले, जो ट्वीट कर सकते थे उन्होंने ट्वीट पर ट्वीट दागे। नेता-मंत्री, वकील सब समर्थन में उतर आये।
इन बातों के बीच आपने सोचा है कि वो पकड़ा किन चीज़ों के साथ गया है? प्रचार तंत्र आपको अब तक बता चुका होगा कि उसके पास तो चरस था जी! चरस तो मामूली सा नशा है जी! आजकल किसने चरस नहीं चक्खा जी! वहां से एमडीएमए भी बरामद हुआ है, इसकी भी बात करते हैं। एमडीएमए को अक्सर मोल्ली या एक्सटेसी के नाम से जाना जाता है। एक्सटेसी के इस्तेमाल से नजदीकियां बढ़ाने, यौन सम्बन्ध बनाने जैसी भावनाएं उबाल मारने लगती हैं। इसका इस्तेमाल अक्सर ग्रुप सेक्स में भी होता है। कुछ पुरुषों के साथ सिर्फ एक-दो लड़कियां और एक्सटेसी जैसे नशीले पदार्थ पकड़े जाएँ, तो आपको पता है कि हम किस स्तर की अनैतिकता की बात कर रहे हैं।
सेलिब्रिटीज का इस्तेमाल बाजार अपने उत्पाद बेचने में लम्बे समय से करता आया है। चाहे वो कोका-कोला और पेप्सी के प्रचारों की जंग हो, या फिर विमल और जबां केसरी जैसे गुटखे का प्रचार आपने इसे अच्छी तरह देख रखा है। विलासिता की जीवनशैली, महंगे क्रुज शिप, फ़िल्मी सितारों के बच्चे और एक्सटेसी जैसे ड्रग्स का एक साथ होना क्या था ये आपको पता नहीं ऐसा तो बिलकुल नहीं है। अपनी अगली पीढ़ी के लिए आप क्या इंतजाम कर रहे हैं, ये आप खुद भी जानते हैं।
बाकी इसके बाद भी अगर आप इसका समर्थन करने, किसी बड़े आदमी के बेटे को बचाने पर ही तुले हैं, तो आपकी मर्जी है। बस ये याद रखियेगा कि आपके इस अपराध का दंड आपके ही बच्चों को भुगतना होगा! कील की वजह से राज्य तो जायेगा।
आज की हमारी कहानी बिलकुल जानी पहचानी सी है। हो सकता है चिड़िया, गोबर और बिल्ली की इस कहानी को आपने पहले भी कई बार पढ़ा हो। इस कहानी में एक चिड़िया होती है। मौज-मस्ती करने वाली प्रसन्न रहने वाली चिड़िया थी। चहकती और इस डाली से उस डाली फुदकती रहती। कोई चिंता-फ़िक्र नहीं! लेकिन वसंत, गर्मी, बरसात का ही मौसम तो हमेशा रहता नहीं। जाड़े का मौसम भी आता है। तो जाड़ा आया और चिड़िया ने अपने बचाव के लिए न तो कोई बढ़िया घोंसला बनाया था, न ही खाने-पीने का कोई इंतजाम किया था।
बर्फ पड़ने लगी और चिड़िया उड़कर कहीं भाग भी नहीं पायी। आखिर ठण्ड से एक दिन वो बेहोश होकर पेड़ से नीचे गिर पड़ी। उसी वक्त वहाँ से एक गाय गुजर रही थी। उसने गिरी हुई चिड़िया पर कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टा चिड़िया पर गोबर करके वो आगे चलती बनी। गोबर गर्म था, और उसकी गर्मी से चिड़िया की जान में जान आई। उसने अपने सर को झटका देकर गोबर से बाहर निकाला और जैसी कि उसकी आदत थी, लगी चहचहाने! उसकी आवाज एक बिल्ली ने सुनी और वो आवाज का पीछा करती गोबर तक आ पहुंची। उसने चिड़िया को गोबर में फंसा देखा तो उसे निकाला, और चाट-पोंछ कर उसे साफ़ करके चट कर गयी!
वैसे तो इस छोटी सी कहानी से हमें कई शिक्षाएं मिलती हैं। जैसे कि –
1. आपपर गोबर करने वाला जरूरी नहीं कि आपका शत्रु हो।
2. जो आपको गोबर से निकाल कर साफ़-सुथरा कर रहा है, वो मित्र ही हो ऐसा भी जरूरी नहीं।
3. जब गले तक गोबर में फंसे हों, तो गाने-चहचहाने के बदले अपनी चोंच बंद रखनी चाहिए।
जो भी हो, आज हम कहानी से दूसरी बातें भी याद दिलाने बैठे हैं। सबसे पहली बात तो जिन्होंने “गेम ऑफ़ थ्रोंस” देखी होगी, उन्हें याद आ गयी होगी। जैसे उसमें “विंटर इज कमिंग” कहकर चेताया जा रहा होता है, वैसा ही कुछ इस कहानी में भी है। ठण्ड कोई अचानक या पहली बार नहीं आ गयी थी। चिड़िया के पास पूरा मौका था इस बात की तैयारी करने का कि वो ठण्ड से निपट सके। बिलकुल वैसे ही जैसे दुर्गा-पूजा नजदीक आने पर हिन्दुओं को पता होता है कि सद्भावना समिति की बैठकें होंगी। पुलिस की गोली से विसर्जन में जाता कोई नवयुवक मर भी सकता है। बांग्लादेश में जो हो रहा है, वो पहली बार नहीं, न ही अंतिम बार है। बंगाल में करीब-करीब हर वर्ष ऐसा दिखता है। इसके वाबजूद क्या तैयारी की या चिड़िया की ही तरह आराम से इस डाली से उस डाली फुदकने और चहचहाने में समय बिताया?
जबतक आप इस सवाल पर सोचते हैं हम दूसरे गोबर से निकालने वाले मुद्दे पर आ जाते हैं। बिल्ली जैसा ही साफ़ करता दिखने वाला हर व्यक्ति मित्र नहीं होता। जैसे कि नवरात्रि पर केवल नारी का पूजन नहीं स्त्रियों का सम्मान भी करो, ऐसा कहने वाले होते हैं। या फिर पुतले को नहीं अपने अन्दर के रावण को मारो कहने वाला असल में बुराइयां दूर करने नहीं आया होता। जैसे बिल्ली का इरादा चिड़िया को चट कर जाने का था, वैसे ही ये लोग भी आपकी धार्मिक परम्पराओं को ऊपर-ऊपर से हटाकर आपको अपने मजहब-रिलिजन में चट कर जाना चाहते हैं। इसका ये मतलब भी नहीं है कि इनकी बात बिलकुल ही न सुनी जाए।
समाज के अन्दर ऐसे रावण होते हैं और उनका वध किया जाना भी आवश्यक है। हर बार वध का अर्थ हिंसा ही हो, ऐसा भी आवश्यक नहीं। समाज में नकारात्मकता फ़ैलाने वाले, हिन्दुओं के उत्सवों का समय नजदीक आते ही “वरच्यु सिग्नलिंग” करने वाले अनेकों आपको सोशल मीडिया पर मिल जायेंगे। इनके ट्वीट-पोस्ट इत्यादि को रिपोर्ट करके आप उन्हें फैलने से रोक सकते हैं। उसके बाद ये नकारात्मकता आपतक न पहुंचे इसके लिए इन्हें अनफॉलो कर सकते हैं। उन्हें किसी किस्म का प्रचार न मिले इसके लिए उनकी पोस्ट-ट्वीट पर कोई कमेंट-प्रतिक्रिया के बदले उसे जैसे का तैसा छोड़कर जो विरोध दर्शाना है वो अपनी वाल पर कर सकते हैं।
गोबर कर जाने वाला हर कोई शत्रु ही नहीं होता, ये समझना भी यहाँ जरूरी है। वो आमतौर पर आपके पक्ष का था, गोबर करने वाली गाय जैसा ही सज्जन प्रवृति का कोई अपना था या विपक्ष का, ये भी देखा जा सकता है। थोड़ी देर गर्मी लेकर जान बचाई जा सकती है तो आवश्यक नहीं कि उसके विरोध में झंडा उठाया ही जाए। हर मोर्चे पर लड़ने और ख़ास तौर पर अपने ही पक्ष के लोगों से लड़ने का कोई फायदा नहीं होता। अपने अन्दर के रावण को मारने का ये अर्थ भी लिया जा सकता है कि रावण के दरबार की तरह दूत की पूँछ में आग लगाने की कोशिश न की जाए। बल्कि राम दरबार की तरह धोबी जैसे साधारण माने जाने वाले लोगों की बात भी सुनी जाए।
नवरात्रि और विजयदशमी कई बातें बता जाती हैं और कभी कभी लगता है कि श्री दुर्गा सप्तशती के कीलक स्तोत्र में आये “स्तूयते सा न किं जने” (लोग आपकी स्तुति क्यों नहीं करते) जैसा ही इस ग्रन्थ को न पढ़ा जाना आश्चर्य का विषय है।
आनन्द कुमार
उत्कल शक्तिपीठ
ओड़िसा राज्य जिसे पहले उत्कल के नाम से भी जाना जाता था, वहाँ स्थित है माता का यह शक्तिपीठ। लेकिन इस शक्तिपीठ के स्थान ही नहीं अपितु नाम को लेकर भी मतांतर हैं। कुछ विद्वान पूरी जगन्नाथ मन्दिर परिसर में देवी विमला के मंदिर को शक्तिपीठ की संज्ञा देते हैं, तो वहीं कुछ ओड़िसा के ही याजपुर क्षेत्र जो कि अब जाजपुर नाम से जाना जाता है वहाँ अवस्थित विरजा/बिरजा देवी मन्दिर को शक्तिपीठ बताते हैं। बहुत खोजबीन करने के बाद जो हमें तथ्य मिले हैं उसके अनुसार विरजा और विमला एक ही देवी हैं जिन्हें दो अलग अलग जगहों अलग अलग नामों से पूजा जाता है।
जब श्री विष्णु ने माता के शरीर का विच्छेदन किया था, तब उत्कल क्षेत्र में माता के नाभि का निपात हुआ था। एक आख्यान के अनुसार सम्पूर्ण ओडिशा (तत्कालीन उत्कल) भगवती का नाभि क्षेत्र कहा जाता है। उत्कल किसी नगर या गाँव का नहीं वरन् एक देश या राज्य का नाम है, जो विरजा क्षेत्र है।*
पुराणों में मिलता है वर्णन।
"वर्षाणां भारतं श्रेष्ठं देशानामुत्कलः स्मृतः।"
"उत्कलेन समोदेशो देशों नाऽस्ति महीतले॥"जब हम 'विरजा' शब्द को 'क्षेत्र' शब्द के विशेषण के रूप में लेते हैं तो समग्र उत्कल ही 'मलविमुक्त' है। जहाँ की आराध्या देवी 'विमला' हैं तथा भैरव 'जगन्नाथ पुरुषोत्तम' के रूप में पूजे जाते हैं।माता का दर्शन वैसे तो साल के 365 दिन किया जा सकता है, लेकिन शारदीय एवं चैत्री नवरात्र यहां आने के लिए सबसे उत्तम समय है। दुर्गा एवं काली पूजा के अवसरों पर इस शक्तिपीठ में उत्सवों की बहार रहती है। भजन कीर्तन करते हुए श्रद्धालु माता की भक्ति में रमे हुए रहते हैं। यहां आने वाले भक्तों का विश्वास है कि विमला/विरजा देवी की सच्चे मन से आराधना करने से माता सभी मनोकामना पूर्ण करती हैं।
ओड़िसा की राजधानी भुवनेश्वर से पुरी की दूरी 62 किमी है तो वहीं जाजपुर की दूरी 98 किमी। भुवनेश्वर के अलावा ये दोनों स्थान देश के विभिन्न शहरों से भी रेल तथा सड़क मार्ग से जुड़े हुए हैं। भक्त अपनी सहूलियत के हिसाब से सड़क या रेल मार्ग का चयन कर मन्दिर तक पहुँचते हैं
भारतीय व्रत और उत्सव नवम्बर - 2021
दिनांक-1 रमा एकादशी व्रत,दिनांक- 2 भोम प्रदोष व्रत,यमदीप दान,दिनांक- 3 धन तेह्रस,धन्वन्तरी जयंती,मास शिवरात्रि,नर कहरा १४,दिनांक- 4 दीपावली,श्री महालक्ष्मी पूजा,दिनांक- 5 गोवर्धन पूजा ,अन्नकूट,बलि पूजा,दिनांक- 7 विश्वकर्मा पूजा,भाईदूज,यम द्वितीया,चित्रगुप्त पूजा,दिनांक- 8 विनायक चतुर्थी व्रत,दिनांक- 9 गुरु गोविन्द सिंह बलिदान दिवस,दिनांक 10 सूर्य षष्टी,दिनांक- 11 गोपाष्टमी,दुर्गा अष्टमी,दिनांक- 12 आमला -कुष्मांडा -अक्षय नवमी,दिनांक 14 देव प्रबोधनी एकादशी व्रत,दिनांक-15, देव प्रबोधनी एकादशी व्रत,तुलसी विवाह,दिनांक- 16 संक्रांति पुन्य,प्रदोष व्रत,दिनांक- 17 वैकुंठ 14 व्रत, दिनांक-18 सत्य व्रत,दिनांक-19 श्री गुरु नानक जयंती,कार्तिक पूर्णिमा,चतुर्मास व्रत पूर्ण,दिनांक 23 श्री गणेश चतुर्थी व्रत चंद्र उदय 20 -16,दिनांक- 28 काल भेइरवा अष्टमी,दिनांक- 30 उत्पन्ना एकादशी व्रत,संत ज्ञानेश्वर पुन्य तिथि |
पंचक विचार नवम्बर - 2021
पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार-दिनांक 12 को 02-51 से दिनांक 16 को 20-14 बजे तक पंचक हैं |
महामना मदन मोहन मालवीय
अन्दाज़े नशा
दुर्दशा है जीवन की नशे की दिशा
उजाला है जीवन ना लाओ निशा
ज़िल्लत की मौत नशे से क्यूँ मरे
बदल दें हम अपनें अन्दाज़े नशा
मुश्किल से कितने ये नर तन मिला
ना मारो इस रूह को कर के नशा
मादक हो लत तो इन्सा खुद मरता है
आओ हम करें मकसद जीने का नशा
है कितने ही दुनिया में पिछड़े यहाँ
आओ सब को बढ़ाने का कर लें नशा
नफरतों के नशे से क्यों बर्बाद हो
आओ हम करे भाईचारे का नशा
इस जहाँ में रुगबत तलब हर जगह
आओ ग़ुरबत मिटाने का कर ले नशा
फैला है हर तरफ आतंक अन्याय
आओ मिल करें इंसानियत का नशा
अनपढ़ न जाने हैं कितने यहाँ
आओ फैलायें हम इल्म का नशा
लत नशे से बचे , रोक ले औरों को
आओ मिल सुधारें दुनियाँ की दशा
पिंजरे में कितने खयाल अव तलाक
आओ करें आज़ाद कराने का नशा
सुनील अग्रहरि
एलकोन इंटरनेशनल स्कूल
भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट महाराजा रणजीत सिंह
अठारहवीं शती के पंजाब में सिखों की शुकरचकिया मिसल (छोटी रियासत) के उत्तराधिकारी के रूप में दो नवम्बर 1780 को गुजराँवाला मे जन्मे रणजीत सिंह ने अपने शौर्य, पराक्रम, सूझबूझ और कूटनीति से सिख राज्य की सीमाएँ अटक, पेशावर, काबुल और जमरूद तक पहुँचा दी थीं।
रणजीत सिंह के पिता का नाम सरदार महासिंह था। जब रणजीत सिंह केवल 12 वर्ष के थे, तब महासिंह के देहान्त से मिसल की देखभाल की जिम्मेदारी उनकी माता और रियासत की रेजीडेण्ट महोतर कौर पर आ पड़ी; पर असली सत्ता एक अन्य महत्वाकांक्षी महिला रानी सुधा कौर के हाथ में थी। उसमें प्रशासनिक क्षमता न होने से सर्वत्र अव्यवस्था व्याप्त थी।
रणजीत सिंह ने होश सँभालते ही 1799 में लाहौर और 1805 में अमृतसर पर कठोर नियन्त्रण स्थापित किया। फिर कसूर, जम्मू, मुल्तान, काँगड़ा, शिमला और कश्मीर को क्रमशः अपने राज्य में मिलाया। जम्मू के डोगरा राजा गुलाब सिंह के पराक्रमी सेनानायक जोरावर सिंह के शौर्य से उन्होंने लद्दाख पर भी अधिकार कर लिया। अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार कर रणजीत सिंह ने सब जगह प्रशासनिक सुव्यवस्था और शान्ति स्थापित की।
रणजीत सिंह ने जो विशाल शक्ति खड़ी की, वह 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सैन्य शक्ति के बराबर थी। इसमें 92,000 पैदल, 31,000 घुड़सवार, 384 भारी और 400 हल्की तोपें थीं। उनकी दूरदर्शी नीति के कारण भारत की पश्चिमी सीमा पर सैकड़ों वर्ष से हो रहे मुस्लिम आक्रमणों पर रोक लग गयी।
यद्यपि अंग्रेज उस समय भारत पर धीरे-धीरे अधिकार कर रहे थे। रणजीत सिंह ने समयानुकूल कूटनीति अपनाते हुए अंग्रेजों से 1809 में एक सन्धि की, जिससे यह तय हुआ कि ब्रिटिश सेना सतलुज नदी के पश्चिम से आगे भारत में नहीं घुसेगी।
रणजीत सिंह अंग्रेजों के समर्थक नहीं थे; पर वे जानते थे कि उन पर आधुनिक शस्त्रों से सज्जित सेना है। वे अपनी सेना को ऐसा ही बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हांेने नेपोलियन की सेना के एक अधिकारी बापिस्ते वेंचूरा को पैदल तथा जीन फ्रान्सिस अलार्ड को घुड़सवार सेना के प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किया। बन्दूकों के निर्माण के लिए क्लाड आगरस्ट तथा बारूद और अन्य युद्धोपकरणों के लिए हंगरी के होनाइजर की सेवाएँ ली। इस प्रकार अपनी सेना को आधुनिक बनाने वाले वे प्रथम भारतीय शासक थे।
रणजीत सिंह का शासन लोकतान्त्रिक शासन था। वे सब निर्णय अपने प्रमुख सहयोगियों से मिलकर ही लेते थे। महाराजा होते हुए भी उन्होंने सदा स्वयं को खालसा पन्थ का एक विनम्र सैनिक ही माना। यद्यपि उन्होंने औपचारिक शिक्षा नहीं पायी थी; पर उनकी कल्पना शक्ति और योजकता विलक्षण थी। इसके बल पर उन्होंने भारत की यश पताका चहुँ ओर फहराई।
रणजीत सिंह धर्मप्रेमी शासक थे। अफगानिस्तान विजय से जो सोना उन्हें मिला, उसका आधा स्वर्ण मन्दिर अमृतसर और आधा काशी विश्वनाथ मन्दिर को दिया। उन्होंने कोहिनूर हीरा प्राप्त कर उसे पुरी के जगन्नाथ मन्दिर को भेंट किया; पर दुर्भाग्यवश वहाँ पहुँचने से पहले ही उसे अंग्रेजों ने हड़प लिया।ऐसे वीर पुरुष का देहान्त 27 जून, 1839 को हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि उन्होंने अपने शौर्य से जो विशाल साम्राज्य बनाया, वह उनके देहावसान के कुछ समय बाद ही बिखर गया।
भद्रा विचार नवम्बर - 2021
भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य में पंडित जी से विचार कर लेना चाहिए 9312002527
मूल नक्षत्र विचार नवम्बर - 2021
"विद्या ददाति विनयम्।"
"सबसे बड़ी शिक्षा है, 'उत्तम व्यवहार'। 'उत्तम व्यवहार' के बिना, अनेक डिग्रियां प्राप्त करने पर भी, व्यक्ति मूर्ख और अनपढ़ ही कहलाता है। जैसे रावण और दुर्योधन आदि।"
"विद्या ददाति विनयम्।" यह प्रसिद्ध वाक्य आपने अनेक बार पहले भी सुना होगा। इसका अर्थ है "विद्या नम्रता को देती है", अर्थात् जो व्यक्ति सच्ची विद्या को प्राप्त कर लेता है, उसमें नम्रता अवश्य ही आती है। यह विद्या का मुख्य फल है।
यदि कोई व्यक्ति विद्या पढ़ कर भी विनम्र नहीं हुआ, असभ्यता पूर्ण व्यवहार ही करता रहा, तो इसका अर्थ है, कि वह कुसंस्कारी तथा अभिमानी होने के कारण विद्या के सही स्वरूप को नहीं समझ पाया। "जिसने विद्या के सही स्वरूप को नहीं समझा, और उसका ठीक ठीक लाभ नहीं उठाया, उसे पढ़ा-लिखा या विद्वान नहीं कहना चाहिए, बल्कि मूर्ख और अनपढ़ कहना चाहिए। जैसे रावण और दुर्योधन आदि।"
इतिहास के अनेक उदाहरण आप सब लोग जानते हैं। उनमें से रावण और दुर्योधन बहुत पढ़े लिखे होने पर भी "मूर्ख और अनपढ़" ही कहलाते हैं। इसीलिए हजारों और लाखों वर्षों से आज तक उनका अपमान हो रहा है। "किसी का अपमान 2 वर्ष तक होता है, किसी का 20 वर्ष, किसी का 50 वर्ष, और किसी का हजारों-लाखों वर्ष तक। रावण तो लाखों वर्षों से अपमानित हो रहा है। दुर्योधन को भी लगभग 5,000 वर्ष हो गए। ये दुष्ट लोग अभी तक अपमानित हो रहे हैं।" "इनकी मूर्खताएं और दुष्टताएं इतनी अधिक रही हैं, कि आज तक भी जनता का गुस्सा इन पर जारी है, वह समाप्त नहीं हुआ।"
इसका अर्थ है, कि रावण और दुर्योधन ने विद्या पढ़कर भी नम्रता नहीं सीखी, और अभिमान में चूर रहने के कारण बहुत से अन्य दोष भी अपना लिए। "यदि वे वास्तव में संस्कारी होते और विद्या को कुछ अच्छे ढंग से आत्मसात करते, तो उनमें सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार दान दया आदि बहुत से उत्तम गुण होते।" अस्तु।
"अब रावण और दुर्योधन आदि तो संसार से चले गए। परंतु उनके अनुयाई उनके वंशज आज भी जीवित हैं।" आज भी ऐसे लोग मिलते हैं, जो रावण और दुर्योधन की तरह अति अभिमानी होकर दुष्टता पूर्वक समाज को अनेक प्रकार से दुख देते हैं।
"यदि कोई व्यक्ति आज भी अपने दोषों को स्वीकार करने का साहस रखता हो, और उत्तम गुणों को सीखने की इच्छा भी रखता हो, कोई अच्छा संस्कारी व्यक्ति हो, और वह सभ्यता नम्रता आदि गुणों को धारण करने की इच्छा रखता हो, तो वह बहुत कुछ सीख सकता है।" वह दुष्टता आदि दोषों से बचकर नम्रता सभ्यता आदि गुणों को धारण करके स्वयं भी सुख से जी सकता है, तथा दूसरों को भी सुख दे सकता है।
उत्तम संस्कारी लोग पुरुषार्थ करके बहुत उन्नति प्राप्त कर लेते हैं। भूतकाल में उनके भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। "श्री रामचंद्र जी, श्री कृष्ण जी महाराज, महर्षि दयानंद सरस्वती जी, महर्षि कणाद गौतम कपिल जैमिनि इत्यादि बहुत से महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने विद्या को पढ़ कर, उस का सच्चा सम्मान किया। और उस विद्या के आशीर्वाद से उत्तम गुणों को धारण करके संसार को अत्यंत सुख दिया। हम आप सबको भी उन जैसा ही बनने का प्रयत्न करना चाहिए।"
----- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, रोजड़, गुजरात
ग्रह स्थिति नवम्बर - 2021
ग्रह स्थिति - दिनांक- 02 बुध में तुला,दिनांक- 6 बुध अस्त पूर्व में,दिनांक-16 सूर्य वृश्चिक में,दिनांक-20 गुरु कुम्भ में,दिनांक- 21 बुध वृश्चिक में,दिनांक-30 मंगल पूर्व उदय |
सुर्य उदय- सुर्य अस्त नवम्बर-2021
प्रथम परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा
आज कश्मीर का जो हिस्सा भारत के पास है, उसका श्रेय जिन वीरों को है, उनमें से मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम अग्रणी है। 31 जनवरी, 1922 को ग्राम डाढ (जिला धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश) में मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा के घर में सोमनाथ का जन्म हुआ। इनके गाँव से कुछ दूरी पर ही प्रसिद्ध तीर्थस्थल चामुण्डा नन्दिकेश्वर धाम है। सैनिक परिवार में जन्म लेने के कारण सोमनाथ शर्मा वीरता और बलिदान की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। देशप्रेम की भावना उनके खून की बूँद-बूँद में समायी थी।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल में हुई थी। इसके बाद इन्होंने प्रिन्स अ१फ वेल्स र१यल इण्डियन मिलट्री कॉलेज, देहरादून से सैन्य प्रशिक्षण लिया। 22 फरवरी 1942 को इन्हें कुमाऊँ रेजिमेण्ट की चौथी बटालियन में सेकण्ड लेफ्टिनेण्ट के पद पर नियुक्ति मिली। इसी साल इन्हें डिप्टी असिस्टेण्ट क्वार्टर मास्टर जनरल बनाकर बर्मा के मोर्चे पर भेजा गया। वहाँ इन्होंने बड़े साहस और कुशलता से अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया।
15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतन्त्र होते ही देश का दुखद विभाजन भी हो गया। जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह असमंजस में थे। वे अपने राज्य को स्वतन्त्र रखना चाहते थे। दो महीने इसी कशमकश में बीत गये। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेश में कश्मीर हड़पने के लिए टूट पड़े।
वहाँ सक्रिय शेख अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी जागीर बनाकर रखना चाहता था। रियासत के भारत में कानूनी विलय के बिना भारतीय शासन कुछ नहीं कर सकता था। जब राजा हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान के प॰जे में जाते देखा, तब उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये।
इसके साथ ही भारत सरकार के आदेश पर सेना सक्रिय हो गयी। मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को श्रीनगर के पास बड़गाम हवाई अड्डे की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गयी। वे केवल 100 सैनिकों की अपनी टुकड़ी के साथ वहाँ डट गये। दूसरी ओर सात सौ से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक जमा थे। उनके पास शस्त्रास्त्र भी अधिक थे; पर साहस की धनी मेजर सोमनाथ शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी। उनका आत्मविश्वास अटूट था। उन्होंने अपने ब्रिगेड मुख्यालय पर समाचार भेजा कि जब तक मेरे शरीर में एक भी बूँद खून और मेरे पास एक भी जवान शेष है, तब तक मैं लड़ता रहूँगा।
दोनों ओर से लगातार गोलाबारी हो रही थी। कम सैनिकों और गोला बारूद के बाद भी मेजर की टुकड़ी हमलावरों पर भारी पड़ रही थी। 3 नवम्बर, 1947 को शत्रुओं का सामना करते हुए एक हथगोला मेजर सोमनाथ के समीप आ गिरा। उनका सारा शरीर छलनी हो गया। खून के फव्वारे छूटने लगे। इस पर भी मेजर ने अपने सैनिकों को सन्देश दिया - इस समय मेरी चिन्ता मत करो। हवाई अड्डे की रक्षा करो। दुश्मनों के कदम आगे नहीं बढ़ने चाहिए....। यह सन्देश देतेे हुए मेजर सोमनाथ शर्मा ने प्राण त्याग दिये।
उनके बलिदान से सैनिकों का खून खौल गया। उन्होंने तेजी से हमला बोलकर शत्रुओं को मार भगाया। यदि वह हवाई अड्डा हाथ से चला जाता, तो पूरा कश्मीर आज पाकिस्तान के कब्जे में होता। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। शौर्य और वीरता के इस अलंकरण के वे स्वतन्त्र भारत में प्रथम विजेता हैं। सेवानिवृत्त सेनाध्यक्ष जनरल विश्वनाथ शर्मा इनके छोटे भाई हैं।
सर्वार्थ सिद्धि योग नवम्बर-2021
दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी शुभ मुहूर्त का अभाव हो,किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है | इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग | योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक है|
क्षमा
एक सेठ जी ने अपने छोटे भाई को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार बहुत अच्छा जम गया, लेकिन उसने रूपये बड़े भाई को वापस नहीं लौटाये।
आखिर दोनों में झगड़ा हो गया, झगड़ा भी इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। सेठ जी, हर समय हर संबंधी के सामने अपने छोटे भाई की निंदा-निरादर व आलोचना करने लगे।
सेठ जी अच्छे साधक भी थे, लेकिन इस कारण उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें छोटे भाई का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा सुनायी।
संतश्री ने कहाः- 'बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वरकृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर छोटे भाई के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, 'अनुज ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे "क्षमा" कर दो।'
सेठ जी ने कहाः- "महाराज ! मैंने ही उनकी मदद की है और "क्षमा" भी मैं ही माँगू !"
संतश्री ने उत्तर दियाः- "परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।"
सेठ जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः- "महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?"
"बेटा ! तुमने मन ही मन अपने छोटे भाई को बुरा समझा– यही है तुम्हारी पहली भूल।
तुमने उसकी निंदा, आलोचना व तिरस्कार किया– यह है तुम्हारी दूसरी भूल।
क्रोध पूर्ण आँखों से उसके दोषों को देखा– यह है तुम्हारी तीसरी भूल।
अपने कानों से उसकी निंदा सुनी– यह है तुम्हारी चौथी भूल।
तुम्हारे हृदय में छोटे भाई के प्रति क्रोध व घृणा है– यह है तुम्हारी आखिरी भूल।
अपनी इन भूलों से तुमने अपने छोटे भाई को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए "क्षमा" माँगों। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है। ओर तुम तो एक बहुत अच्छे साधक हो।"
सेठ जी की आँखें खुल गयीं। संतश्री को प्रणाम करके वे छोटे भाई के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके भतीजे ने खोला। सामने ताऊ जी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर-जोर से चिल्लाने लगाः "मम्मी ! पापा !! देखो कौन आये ! ताऊ जी आये हैं, ताऊ जी आये हैं....।"
माता-पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, 'कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !' छोटा भाई हर्ष से पुलकित हो उठा, 'अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज बड़े भैया घर पर आये हैं।' प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सका। सेठ जी ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर छोटे भाई को कहाः- "भाई ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो ।"
"क्षमा" शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा। छोटा भाई उनके चरणों में गिर गया और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगा। बड़े भाई के प्रेमाश्रु छोटे भाई की पीठ पर और छोटी भाई के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु बड़े भाई के चरणों में गिरने लगे।
क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप, सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। छोटा भाई उठ कर गया और रूपये लाकर बडे भाई के सामने रख दिये। बडे भाई ने कहा "भाई! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ ।
मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है।"
छोटे भाई ने कहाः- "भैया ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।
सेठ जी ने छोटे भाई से रूपये लिये और अपने इच्छानुसार अनुज बधू , भतीजे व भतीजी में बाँट दिये । सब कार में बैठे, घर पहुँचे।
पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब पूरे परिवार, का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो।
सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। "क्षमा" माँगने के बाद उस सेठ जी के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशारूपी मानसिक रोग जड़ से ही मिट गये और साधना सजीव हो उठी।
हमें भी अपने दिल में "क्षमा" रखनी चाहिए अपने सामने छोटा हो या बडा अपनी गलती हो या ना हो क्षमा मांग लेने से सब झगडे समाप्त हो जाते है।
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चौघड़िया मुहूर्त
चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है,अगर सूर्य उदय का समय प्रातः है 6:00 बजे माने तो चौघड़िया निम्नलिखित है
आओ मिलकर दीप जलाएँ
आओ मिलकर दीप जलाएँ,अँधेरा जग से दूर भगाएँ,
रह न जाए घर का कोई सूना कोना,सदा ऐसा कोई दीप जलाए रखना ,
हर घर -आँगन में रंगोली बनाएँ ,आओ मिलकर दीप जलाएँ|
हर दिन जीते अपनों के लिए,कभी दूसरों के लिए भी जी कर देखें,
हर दिन अपने लिए रोशनी तलाशे,एक दिन दीप सा रोशन होकर देखें,
दीप सा हरदम उजियारा फैलाएँ,आओ मिलकर दीप जलाएँ|
भेदभाव, ऊँच -नीच की दीवार ढहाकर,आपस में सब मिलजुल पग बढाएँ,
पर सेवा का संकल्प लेकर मन में,जहाँ से नफरत की दीवार ढहाएँ,
सर्वहित संकल्प का थाल सजाएँ,आओ मिलकर दीप जलाएँ|
अँधेरा धरा से दूर भगाएँ, अँधेरा धरा से दूर भगाएँ||
श्रीमती शिखा सक्सेना
हिंदी अध्यापिका
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
राहू काल
राहुकाल -राहुकाल दक्षिण भारत की देन है,दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है |
जब गुरु नानक देव का जन्म हुआ था,तब प्रसूति ग्रह प्रकाशवान हो गया था |
जन्म कुंडली व हस्त रेखा विशेषज्ञ
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शर्मा जी - 9560518227,9312002527
वक्रासन
वक्रासन बैठ कर किये जाने वाले आसनों में एक महत्वपूर्ण आसन है। वक्रासन ‘वक्र’ शब्द से निकला है जिसका मतलब होता टेढ़ा। इस आसन में रीढ़ टेढ़ी या मुड़ी हुई होती है, इसीलिए इसका यह नाम वक्रासन रखा गया है। यह आसन रीढ़ की सक्रियता को बढ़ाता है, मधुमेह से आपको बचाता है, डिप्रेशन में बहुत अहम भूमिका निभाता है, इत्यादि
वक्रासन योग कैसे करें
अब बात आती है कि इस आसन को सही तरीके से कैसे किया जाए। यहाँ पर इसके करने के सरल तरीके बताया जा रहा है जिसको अच्छी तरह समझ कर आप इसको आसानी से अपने घर पर कर सकते हैं।
आप अपने पांवों को फैलाकर जमीन पर बैठें।
ध्यान रहे दोनों पैरों के बीच दुरी न हो।
बाएं पांव को घुटने से मोड़ें और इसको उठा कर दाएं घुटने के बगल में रखें।
रीढ़ सीधी रखें तथा सांस छोड़ते हुए कमर को बाईं ओर मोड़ें।
अब हाथ के कोहनी से बाएं पैर के घुटने को दबाब के साथ अपनी ओर खीचें।
आप पैर को इस तरह से अपनी ओर खींचते हैं कि पेट में दबाब आए। अपने हिसाब से योगासन को मेन्टेन करें।
सांस छोड़ते हुए प्रारंभिक अवस्था में आएं।
यही क्रिया दूसरी ओर से दोहराएं।
यह एक चक्र हुआ।
इस तरह से आप 3 से 5 चक्र करें।
वक्रासन में सांस की प्रक्रिया
सांस छोड़ते हुए आप किसी एक तरफ मोड़ते हैं।
धीरे धीरे सांस लें और धीरे धीरे सांस छोड़े।
लंबा सांस लेते हुए आरंभिक अवस्था में आएं।
वक्रासन के लाभ-
डायबिटीज को रोकें वक्रासन योग: डायबिटीज या मधुमेह को रोकने के लिए वक्रासन एक अति उत्तम योगाभ्यास है। यह पैंक्रियास को सक्रिय करता है और सही मात्रा में इंसुलिन के स्राव में मदद करता है। इस तरह से यह डायबिटीज के कण्ट्रोल एवं प्रबंधन में अहम भूमिका निभाता है।
वजन कम करने के लिए वक्रासन योग: इस योग के नियमित अभ्यास से आप अपनी पेट की चर्बी कम कर सकते हैं। जब इस योगाभ्यास की प्रैक्टिस किया जाता है तो पेट में अच्छा खास दबाब पड़ता है। इस योग पोज़ को ज़्यदा देर तक मेन्टेन करने से धीरे धीरे पेट की चर्बी गलने लगती है। यही नहीं आप पेट की दूसरी परेशानियों से भी निजात पा सकते हैं।
रीढ़ की हड्डी के लिए रामबाण: यह योगाभ्यास रीढ़ की हड्डी के लिए रामबाण है। यह रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाते हुए इसको स्वस्थ बनाने में इसका बहुत बड़ा योगदान है।
कमर दर्द से छुटकारा करे वक्रासन: यह आप के कमर के ऐंठन को कम करते हुए इसे लचीला बनाता है और कमर दर्द से आपको छुटकारा दिलाता है।
ऐंठन एवं मरोड़ से बचाना: यह आपको रीढ़ की ऐंठन एवं मरोड़ से बचाता है।
वक्रासन डिप्रेशन कम करने के लिए: इसके नियमित अभ्यास से आप डिप्रेशन पर काबू पा सकते हैं।
तंत्रिका तंत्र के लिए उत्तम आसन: यह तांत्रिक तंत्र को स्वस्थ बनाते हुए इसके काम काज में फुर्ती लेकर आता है।
वक्रासन कब्ज कम करने के लिए: वक्रासन योग के अभ्यास से पाचन क्रिया में एक तरह से जान आ जाती है जो कब्ज, अपच एवं गैस की समस्यओं से आपको बचाता है।
वक्रासन पाचन के लिए: इससे पेट और पाचन क्रिया से सम्बंधित सभी अंगों को सक्रियता मिलती है एंजाइम एवं हॉर्मोन के स्राव में मददगार साबित होती है।
वक्रासन फेपड़े के लिए : इस से फेफड़ों की क्षमता बढ़ाता है और फेपड़े से सम्बंधित ज्यादातर परेशानियों को कम करने में सहायक है।
वक्रासन गर्दन के दर्द के लिए: इसके अभ्यास से गर्दन को भी दाएं बाएं घुमाया जाता है जिससे गर्दन के मांसपेशियां धीरे धीरे ढीला होने लगता है।
वक्रासन की सावधानियां
पेट दर्द में वक्रासन नहीं करनी चाहिए।
घुटने का दर्द होने पर इस आसन के करने से बचना चाहिए।
ज़्यदा कमर दर्द में इसे न करें।
कोहनी में दर्द होने पर इसको करने से इसको बचना चाहिए।
गर्दन दर्द होने पर भी इसको करने से बचें।
कुछ काम की बात
*पैकिंग आटा में कीड़े क्यों नही पड़ते ??*
एक प्रयोग करके देखें । गेहूं का आटा पिसवा कर उसे 2 महीने स्टोर करने का प्रयास करें।,आटे में कीड़े पड़ जाना स्वाभाविक हैं,आप आटा स्टोर नहीं कर पाएंगे।
फिर ये बड़े बड़े ब्रांड आटा कैसे स्टोर कर पा रहे हैं? यह सोचने वाली बात है।
एक केमिकल है- बेंजोयलपर ऑक्साइड, जिसे ' फ्लौर इम्प्रूवर ' भी कहा जाता है।* इसकी पेरमिसीबल लिमिट 4 मिलीग्राम है, लेकिन आटा बनाने वाली फर्में 400 मिलीग्राम तक ठोक देती हैं। कारण क्या है? आटा खराब होने से लम्बे समय तक बचा रहे। *बेशक़ उपभोक्ता की किडनी का बैंड बज जाए।*
कोशिश कीजिये खुद सीधे गेहूं खरीदकर अपना आटा पिसवाकर खाएं।
नियमानुसार आटे का समय..
ठंडके दिनों में 30 दिन
गरमी के दिनोंमें 20 दिन
बारिस के दिनोंमें 15 दिन का बताया गया है।
ताजा आटा खाइये, स्वस्थ रहिये...समझदार बनें, अपने लिए पुरुषार्थी बन सभी गेंहू चना जों पिसवा कर काम ले।न की कोई रेडीमेड थैली का।
केवल कुछ बदलाव कर के देखे
1.नमक सेंधा प्रयोग करे,
2.आटा चक्की से पिसवा कर लाये,
3. पानी मटके का पिये, सुबह गर्म पानी पिये
4.मसाले घर पर पीसकर प्रयोग करें न कि पैकेट के।
काफी बीमारियों से छुटकारा मिल जायेगा।
पंजाब केसरी लाला लाजपतराय
ब्रह्मदेश में हिंदुत्व के योधा रामप्रकाश धीर
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