सुभाषित
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
क्षुध् र्तृट् आशाः कुटुम्बन्य मयि जीवति न अन्यगाः।
तासां आशा महासाध्वी कदाचित् मां न मुञ्चति॥
भूख, प्यास और आशा मनुष्य की पत्नियाँ हैं जो जीवनपर्यन्त मनुष्य का साथ निभाती हैं। इन तीनों में आशा महासाध्वी है क्योंकि वह क्षणभर भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती, जबकि भूख और प्यास कुछ कुछ समय के लिए मनुष्य का साथ छोड़ देते हैं।
कुलस्यार्थे त्यजेदेकम् ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥
कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।
नाक्षरं मंत्रहीतं नमूलंनौधिम्।
अयोग्य पुरुषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः॥
ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र के लिए प्रयोग न किया जा सके, ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है जिसका औषधि के लिए प्रयोग न किया जा सके और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसका सदुपयोग के लिए प्रयोग किया जा सके, किन्तु ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं जो उनका सदुपयोग करना जानते हों।
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥
यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः॥
सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
(वाल्मीकि रामायण)
हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
मरणानतानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संसकारो ममापेष्य यथा तव॥
(वाल्मीकि रामायण)
किसी की मृत्यु हो जाने के बाद उससे बैर समाप्त हो जाता है, मुझे अब इस (रावण) से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। अतः तुम अब इसका विधिवत अन्तिम संस्कार करो।
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है।
तैलाद् रक्षेत् जलाद् रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात्।
मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकम्॥
एक पुस्तक कहता है कि मेरी तेल से रक्षा करो (तेल पुस्तक में दाग छोड़ देता है), मेरी जल से रक्षा करो (पानी पुस्तक को नष्ट कर देता है), मेरी शिथिल बंधन से रक्षा करो (ठीक से बंधे न होने पर पुस्तक के पृष्ठ बिखर जाते हैं) और मुझे कभी किसी मूर्ख के हाथों में मत सौंपो।
श्रोतं श्रुतनैव न तु कुण्डलेन दानेन पार्णिन तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणाम् परोपकारैर्न तु चंदनेन॥
कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है, हाथ की शोभा कंकण से नहीं बल्कि दान देने से है और काया (शरीर) चन्दन के लेप से दिव्य नहीं होता बल्कि परोपकार करने से दिव्य होता है।
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्यां हि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥
भाषाओं में सर्वाधिक मधुर भाषा गीर्वाणभारती अर्थात देवभाषा (संस्कृत) है, संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक मधुर काव्य हैं और काव्यों में सर्वाधिक मधुर सुभाषित हैं।
उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्त मरणं तृणम्।
विरक्तस्य तृणं भार्या निस्पृहस्य तृणं जगत्॥
उदार मनुष्य के लिए धन तृण के समान है, शूरवीर के लिए मृत्यु तृण के समान है, विरक्त के लिए भार्या तृण के समान है और निस्पृह (कामनाओं से रहित) मनुष्य के लिए यह जगत् तृण के समान है।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते॥
राजत्व प्राप्ति और विद्वत्व प्राप्ति की किंचित मात्र भी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा की पूजा केवल उसके अपने देश में ही होती है जबकि विद्वान की पूजा सर्वत्र (पूरे विश्व में) होती है।
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम।
उदार चरिता नाम तु वसुधैव कुटुंबकम। ।
अर्थ – यह मेरा है , वह पराया है , ऐसी गणना छोटे हृदय के लोग करते हैं। विशाल हृदय वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुंब अर्थात अतिथि के समान है।
रहिमन रहिला की भला , जो परसे चितलाय।
परसत मन मैला करे , मैदा हूँ जरि जाय। ।
अर्थ – रहिमनदास कहते हैं कि अगर प्यार से खिलाए तो भूसी की रोटी भी अच्छी लगती है , और बुरे मन से परोसने पर मैदा के व्यंजन भी रुचिकर नहीं लगते हैं।
तुलसी पिछले पाप से हरि चर्चा न सुहाय।
जैसे स्वर के बेग से भूख विदा हो जाय। ।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं कि , पिछली बड़ी भूलों के कारण उन्नति के लिए की गई चर्चा उसी प्रकार नहीं सुहाती , जिस प्रकार बुखार के रोगी की खाने की इच्छा समाप्त हो जाती है।
जितने कष्ट कंटको में है जिसका जीवन सुमन खिला।
गौरव गंध उन्हें इतना ही , यत्र तत्र सर्वत्र मिला। ।
अर्थ – जिन्होंने जितनी अधिक विप्पत्तियों कष्टों में अपना जीवन यापन किया है। उन्हें उतना ही अधिक आदर सम्मान मिला है।
अमन्त्रम अक्षरं नास्ति , मूलमनौषधं।
अयोग्य पुरुषः नास्ति , योजकस्त्र दुर्लभः।।
अर्थ – ऐसा कोई अक्षर नहीं जिसका मंत्र न बन सके। ऐसी कोई जड़ी – बूटी नहीं जिसकी औषधि न बन सके , ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसे अयोग्य करार दिया जाए। केवल उचित योजक होना ही दुर्लभ है।
सर्व धर्म समा वृत्तिः ,सर्व जाति समा मतिः।
सर्व सेवा परानीति रीतिः संघस्य पद्धति। ।
अर्थ – सभी धर्मों के साथ समान वृत्ति सभी जातियों के साथ समानता की मति बुद्धि , सभी लोगों के साथ परायणता का व्यवहार संघ की पद्धति है।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंघस्य प्रविश्यन्ति मुखे मृगाः। ।
अर्थ – प्रत्यक्ष करने पर ही किसी कार्य में यश मिलता है , केवल मनोरथ पूरी करने से कार्य सिद्ध नहीं होते। सोए हुए सिंह ( शेर ) के मुख में अन्य प्राणी जाकर स्वयं ग्रास नहीं बनते। अर्थात सिंह को भी भूख शांति करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है।
विद्या ददाति विनयं विन्यात याति पात्रताम।
पात्र्त्वात धनमाप्नोति धनात धर्म ततः सुखम। ।
अर्थ – विद्या विनम्रता देती है विनम्रता से पात्रता आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है। धन से धर्म और सुख प्राप्त होता है।
जे रहिम उत्तम प्रकृत्ति का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं , लपटे रहत भुजंग। ।
अर्थ – जो मनुष्य उत्तम प्रकृति के होते हैं उन पर बुरी संगत से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे चंदन के पेड़ पर सर्प ( सांप )लिपटे रहने से चंदन की खुशबू नहीं जाती। अर्थात अच्छे मनुष्य बुरे लोगों को भी अच्छा बना देते हैं।
आलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम।
अधनस्य कुतो मित्रं , अमित्रस्य कुतः सूखम। ।
अर्थ – आलसी आदमी को विद्या कहां से प्राप्त होगी। जिसके पास विद्या नहीं उसे धन कैसे मिलेगा। धन ना हो तो मित्र कैसे मिलेगा और मित्र ना हो तो उसे कैसे सुख मिलेगा।
पुस्तकस्था तू या विद्या , परहस्तं गतं धनम।
कार्यकाले समुत्पन्ने , न सा विद्या न तत धनम। ।
अर्थ – पुस्तक में स्थित लिखित विद्या दूसरे के हाथों में गया हुआ धन कार्य के समय आवश्यकता पड़ने पर न धन काम आता है और न वह विद्या।
येषां न विद्या न तपो न दानं , ज्ञानं न गुणों न धर्मः ,
ते मर्त्य लोके भुवि भरभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति। ।
अर्थ – मनुष्य जन्म लेकर भी जिसने विद्या प्राप्त नहीं की और ना ही जिसने तपशील दान-धर्म जैसे गुणों को अपनाया वह मनुष्य रूप में पशु की भांति पृथ्वी पर भार बनकर जीवन व्यतीत करता है।
नत्वहम कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम।
कामये दुःखं , तत्तानाम प्राणिनाम अर्यतनाशम। ।
अर्थ – न तो मैं राज्य चाहता हूं , ना स्वर्ग और ना मोक्ष की कामना करता हूं। ईश्वर मैं दुख से तत्व प्राणियों के दुखों को नष्ट करना चाहता हूं।
चन्दनं शीतलं लोके , चन्दनादपि चंद्रमाः।
चंद्रचंदनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगति:| |
अर्थ – संसार में चंदन को शीतल माना जाता है , लेकिन चंद्रमा चंदन से भी शीतल होता है। अच्छे मित्रों का साथ चंद्र और चंदन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है।
यथादृष्टिः शरीरस्य नित्यमेवप्रवर्तते।
तथा नरेन्द्राराष्ट्रस्यप्रभवहः सत्यधर्मेयोः। ।
अर्थ – जैसे – जैसे दृष्टि शरीर के हित में प्रवृत्त होती है उसी प्रकार राजा – राज्य के भीतर सत्य और धर्म का प्रवर्तक होता है।
उद्यमं सक्षमं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत। ।
अर्थ – प्रयास , साहस , धैर्य , बुद्धि , शक्ति तथा प्रक्रम जहां यह छः गुण होते हैं , वहां देव भी सहायक होते हैं।
नहि वेरेन वेरानि , सम्मंतीथ कुदाचन।
अवेरेन च सम्मन्ति , एस धम्मो सनन्तनो। ।
अर्थ – वैर से कभी वैर शांत नहीं होता और वैर स्नेह (प्रेम) से ही शांत होता है , यही सनातन धर्म है।
यतो यतो निश्चिरति मनश्चञ्चलमस्थिरम।
ततस्तस्तो नियम्यैतद , आत्मन्येव। ।
अर्थ – यह चंचल और अस्थिर मन जहां-जहां विचलित होता है , वहां उसे नियंत्रित करके स्वयं को वश में करना चाहिए।
वृक्ष कबहूँ नहिं फल भखै , नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने , साधुन धरा शरीर। ।
अर्थ – वृक्ष कभी अपना फल स्वयं नहीं खाते , नदी अपने लिए जल संग्रह नहीं करते , सज्जनों का जीवन भी परोपकार के लिए होता है।
वाणी रसवती यस्य ,यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी दानवती यस्य , सफलं तस्य जीवनम्। ।
अर्थ – जिसकी वाणी में मधुरता और परिश्रमशील है तथा जिसका धन दान के लिए है उसका जीवन सफल माना जाता है।
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर – पशु निरा और मृतक समान है। ।
अर्थ – जिसको अपने गौरव वह अपने जीवन पर अभिमान नहीं है , वह व्यक्ति मनुष्य होने पर भी मनुष्य नहीं है। वह पशु के समान है और मृतक के समान है।
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