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जानकारी काल
वर्ष-22, अंक-04 अप्रैल - 2021, पृष्ट 40 मूल्य-2-50
चैत्र नवरात्रि 2021
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
हे नारायणी ! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को (धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष को) सिद्ध करने वाली हो।शरणागत वत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी हो। हे नारायणी, तुम्हें नमस्कार है।
रामनवमी की मंगल शुभकामनाएं
श्री राम जय राम जय जय राम ||
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
मैं रघुनाथ के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चंद्रमा) का हेतु अर्थात् 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमा रहित और गुणों का भंडार है।
सुशासन का भारतीय स्वरूप
रामेश्वर प्रसाद मिश्र पंकज
सुशासन पर विचार करने से पूर्व इसके आधार और स्वरूप के विषय में भारतीय ज्ञान परंपरा, राजनीति की परंपरा को तथा इतिहास के तथ्यों को जान लेना चाहिए। इसमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि विश्व में केवल भारत ही एकमात्र ऐसा राष्ट्र है, जहां प्राचीन काल से ही राजनीति शास्त्र के अनेक ग्रंथ रचे गए है। विश्व में और कहीं इतना प्राचीन राज्यशास्त्र नहीं है। जिस सर्व सम्मानित महान ग्रंथ में सर्वाधिक विस्तार से राज्यशास्त्र का प्रतिपादन हुआ है, उस महाभारत को आधार बनाकर बात शुरू करते हैं।
महाभारत में स्पष्ट कहा है कि वेद और धर्म की रक्षा के लिए शासन है और शासन का औचित्य भी केवल इसलिए है कि वह ज्ञान परंपराओं और धर्म की रक्षा करें अर्थात् सनातन धर्म की रक्षा करें। शान्ति पर्व मे अध्याय 59 मे महाराज युधिष्ठिर के पूछने पर पितामह भीष्म बतलाते हैं कि ब्रह्मा जी ने वेद और धर्म की प्रतिष्ठा और रक्षा के लिए ही राजशास्त्र रचा है। जो शासक धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा और वृद्धि स्वयं भगवान विष्णु करते हैं।
भारत की वर्तमान स्थिति यह है कि वर्तमान भारतीय राज्य यूरो ईसाई विचार और वर्गयुद्ध वादी कम्यूनिस्ट विचार का संकर है। यह राज्य को समाज का प्रतिनिधि नहीं मानता, उद्धारक मानता है और सनातन धर्म को घोर अंधकार मान कर इस से भारतीय समाज का उद्धार करने और उसे रूपांतरित करने के लिए संकल्पित है।
अंग्रेजों की रानी ने एक नवम्बर 1858 को आधे भारत मे हिन्दू राजाओं और मुस्लिम नवाबों एवं सिक्ख शासकों की संधि और सहयोग के साथ जब इंग्लैंड का शासन शुरू किया तो घोषणा की कि ”आज से मेरा भतीजा ब्रिटिश भारत का पहला वायसराय होगा और हम भारतीय राजाओं के राज्य क्षेत्र मे किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा उनके उत्तराधिकार नियमों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और अपने क्षेत्र में प्रजा के सभी धर्म पंथों को समान संरक्षण देंगे। ” यह इंग्लैंड से उल्टा था क्योंकि इंग्लैंड मे केवल प्रोटेस्टंट ईसाइयत को शासन का संरक्षण प्राप्त था और आज भी उसे ही संरक्षण प्राप्त है। इसीलिए ब्रिटिश हिस्सेवाले भारत में भी 1947 तक हिन्दू शास्त्रों के अंश विद्यालयों में पढ़ाये जाते रहे। शेष हिस्से में हिन्दू राज्यों मे तो राजधर्म ही आदर्श मान्य था यद्यपि उस पर सब चल नहीं रहे थे।
नेहरू जी के समूह ने सोवियत संघ से प्रेरणा लेकर राज्य को समाज का एकमात्र स्वामी बना दिया और शिक्षा, संचार, व्यापार, विद्याएँ, शिल्प आदि सब मे राज्य ही निर्णायक और निर्धारक बन गया। इन सब क्षेत्रों मे उच्च सरकारी अफसर ही सर्वोच्च विद्वान माने जाने लगे। पर वे बेचारे तो केवल नागरिक प्रशासन मे दक्ष थे अत: उन्होने प्रधान मंत्री आदि के मौखिक निर्देशों और संकेतों के आधार पर शिक्षा और संचार के स्वरूप तय करने शुरू कर दिये और अपनी अक्षमता छिपाने के लिए सोवियत संघ और पश्चिमी यूरोप के राज्यों और विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लेने लगे। वही स्थिति अब तक जारी है। शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु के बाद जाने क्यों इन्दिरा जी सोवियत नेताओं की कठपुतली बन गईं और शिक्षा तथा संचार के शीर्ष पदों पर केवल कम्यूनिस्ट लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ा दी गयी। साथ ही, वोट की दृष्टि से भारतीय विद्वानों को भी कुछ कुछ दिया जाता रहा। उस दौर में कोटा परमिट लाईसेंस का पाप तंत्र शिखर पर जा पहुंचा। राशन, चीनी मिट्टी का तेल आदि के लिए करोड़ों लोग सारा दिन लाइन मे खड़े बिताने लगे।
सोवियत संघ के ढहने के बाद शासकों ने अमेरिका से दोस्ती बढ़ायी और राजीव जी ने उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की घोषणा अमेरिका के निर्देश पर की जो शिकंजे मे कसे समाज को राहत देने वाली घोषणा सिद्ध हुयी। अब स्थिति यह है कि अगर कोई शासन वेद और धर्म की रक्षा नहीं करता तो वह भारतीय दृष्टि से कुशासन है और वह एक समूह के द्वारा संचालित दबंग तंत्र मात्र है। यह स्वरूप स्पष्ट होना चाहिए। आधारभूत तत्व को ध्यान मे रखे बिना फिर किसी टुकड़े को लेकर तुलनात्मक विचार करना ऐसे ही है जैसे कि सूअर और मनुष्य के बीच में यह तुलना करने लगना कि दोनों की आंखें हैं, दोनों के मुंह है, दोनों के नाक है या दोनों के त्वचा है, इसलिए सुअर भी मनुष्य ही है और मनुष्य भी सुअर ही है। सर्वप्रथम यह स्मरण रखना आवश्यक है कि भारत में शासन का अभी का जो ढांचा है वह भारत के परंपरागत शास्त्रों की किसी भी कसौटी पर प्रतिनिधि मूलक शासन नहीं है अपितु वह अधर्मपरायण शासन है।
इस मूलभूत बात को स्मरण रखे बिना आगे कोई चिंतन असंभव है। यह कैसे हैं? इस पर विचार करते हैं। इस शासन में सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्राप्त है जिसका अर्थ है कि वह अपने प्रतिनिधि चुनने को स्वतंत्र है परंतु इसमें मनुष्य के विषय में एक विचित्र धारणा निहित है कि मानो मनुष्य जन्म से ही ज्ञानी होता है या वयस्क हो जाने पर ज्ञानी हो जाता है और पूर्ण स्वतंत्र हो जाता है।
परंतु भारतीय शास्त्र भी और आधुनिक यूरो अमेरिकी शास्त्र, विशेषत: दर्शन और मनोविज्ञान तथा शिक्षा शास्त्र, स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति के मन और बुद्धि पर उसके द्वारा देखी सुनी पढ़ी हुई बातें या विचार ही निर्णायक प्रभाव डालते हैं और इसलिए कोई भी मनुष्य सामान्यत: उन्ही विचारों का गायन और वादन यानी अनुमोदन करने लगता है जो विचार उसने घर बाहर और संचार माध्यमों तथा शिक्षा केंद्रों के द्वारा देखें सुने पढ़े हैं।
अब इस विषय में भारत की वर्तमान स्थिति यह है (और इसका संविधान के मूल ढांचे से कोई भी संबंध नहीं है यह कांग्रेस शासन द्वारा बाद में लाया गया पाप तंत्र है ) कि भारत के वर्तमान राज्यकर्ता भारतीय समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक मे बांटते और देखते हैं और अल्पसंख्यकों के मजहब या पंथ की विशेष रक्षा करना राज्य ने अपना कर्तव्य घोषित कर रखा है तथा इसके लिए मुख्यत: बहुसंख्यक लोगों के द्वारा दिए गए टैक्स आदि से संचित राजकोष से उदारता पूर्वक वित्तीय अनुदान दिए जाते हैं कि जो अल्पसंख्यक हैं, वे अपने कुरान हदीस या बाइबल या अन्य पाठों को अच्छे से पढ़े और उनसे अपना मन बनाये परंतु जवाहरलाल नेहरू जी के समय से ही हिंदुओं को कहा गया कि तुम्हारे धर्म शास्त्र कोई ऐसे पाठ हैं जो आज निरर्थक और बासी हो चुके हैं और अब तुम्हें कोई ‘साइंटिफिक टेंपर’ विकसित करना है जिससे कि तुम अपने धर्म शास्त्रों का परित्याग कर सकोगे और शासन के लोगों की बातों को ही वैज्ञानिक मानोगे। इन बातों का प्रचार सरकारी शिक्षा विभाग और संचार माध्यम तथा नेता लोग करते हैं अत: वे वैज्ञानिक हैं। इस प्रकार भारत के बहुसंख्यक जनों को मूढ़ और अज्ञानी बनाने के लिए एक प्रचार अभियान राज्यकर्ताओं ने चला रखा है।
यह बात अलग है कि जैसा भारतीय शास्त्र कहते हैं कि बुद्धि स्वभावत: तत्वोन्मुखी होती है और इसलिए शासन के समस्त प्रयासों के बाद भी थोड़ा बहुत तो अपने धर्मशास्त्र हिन्दू भी पढ़ते ही रहे हैं। परंतु सर्वसामान्य हिंदुओं का मानस केवल भौतिक लालसाओं से भरा रहे, इसका पूरा प्रबंध शासन ने किया है और सामान्य हिंदू धर्म का कोई ज्ञान हिंदुओं को नहीं रहे तथा धर्म का विवेक न रहे, इस का प्रबंध शासकीय माध्यमों के द्वारा शिक्षा केंद्रों और संचार माध्यमों के द्वारा व्यापकता से किया गया।
वर्तमान शासन तंत्र नागरिकों के साथ भेदभाव करता है। वह अल्पसंख्यक नागरिकों को धर्म या मजहब या रिलिजन की शिक्षा देना अपना कर्तव्य मानता है और उसके लिए वह राजकोष से मजहब या रिलीजन की शिक्षा के लिए वित्तीय अनुदान प्रदान करना कर्तव्य मानता है। परंतु बहुसंख्यकों कों अर्थात सनातन धर्म के अनुयाई हिंदुओं को सनातन धर्म की शिक्षा देने की अनुमति ऐसे विद्यालयों में नहीं है, जहां शासन से अनुदान मिलता है अथवा जिन्हें शासन संचालित करता है।
इस प्रकार, भारत का राज्य दो प्रकार के नागरिक तैयार करता है। नागरिकों का एक वर्ग वह है जो अपने मजहब या रिलिजन के विषय मे व्यापक जानकारी रखता है और उसके प्रति आवेश और निष्ठा से संचालित रहता है और दूसरी ओर भारत के बहूसंख्यक सनातन धर्म हिंदू हैं जिन्हें सनातन धर्म का कोई भी ज्ञान विद्यालयों में नहीं दिया जाता और सनातन धर्म का ज्ञान शिक्षा के रूप में लेने पर ऐसे शिक्षाकेंद्रों को शासन वित्तपोषण नहीं देता। यह भयंकर पाप पूर्ण स्थिति लाने का महा पाप तो कांग्रेस की जवाहरलाल नेहरू वाली धारा ने ही किया परंतु सोवियत संघ के अनुसरण पर लाया गया यह भयावह ढांचा सर्वग्रासी था, इसलिए इसकी चपेट में सारा देश आ गया : बहुत थोड़े अपवादों को छोड़ कर।
परिणाम यह हुआ कि राज्य द्वारा नियंत्रित शिक्षा और संचार माध्यमों के प्रभाव से नए पढ़े-लिखे सभी हिन्दू लोग इस धर्मशून्य शासन के द्वारा पढ़ाई जा रही बातों को आधुनिक सत्य मान कर और उसे ही विश्व भर मे मान्य सत्य मान कर मुदित हो गए और उन्होंने मान लिया कि सारे संसार में राज्य ही एकमात्र सर्वाधिकारी तंत्र है और शिक्षा एवं संचार माध्यम ही नहीं, व्यापार उद्योग आदि में भी शासक और प्रशासक ही सर्वज्ञ होते और वे जो करें, उसी में राष्ट्र का कल्याण होता है। भले प्रत्यक्षत: उस सब से राष्ट्र का अकल्याण ही होता रहा है। भारत के अधिकांश औसत शिक्षित हिन्दू को तो यह भी नहीं पता कि ये मान्यताएँ और ये तंत्र, दोनों ही उस भयावह पाप पूर्ण राज्य के आधार थे जिसे सोवियत संघ के जाग्रत जनमामनस ने रौंद डाला है।
विशेष बात यह है कि वस्तुत: हिन्दू धर्म ही सच्चे अर्थों मे मानवीय है क्योंकि वह सभी मनुष्यों के द्वारा पालनीय सामान्य धर्म का निरूपण करता है। जबकि इस्लाम और ईसाइयत केवल अपने मजहब के पालन को श्रेष्ठ मानते हैं और अन्य लोगों को नरक मे जाने योग्य प्राणी मानते हैं। साथ ही, हिन्दू धर्म वस्तुत: उपासना के विविध रूपों को कर्म मानता है और धर्म तो वह सत्य, अहिंसा, अस्तेय, संयम, अधिक संग्रह न करना, पवित्रता, संतोष, स्वाध्याय, भक्ति, ज्ञान साधना, अर्थ एवं काम पुरुषार्थों के कोटि कोटि रूपों की साधना जो अन्यों के विनाश के बिना की जाए, इन्हे ही मानता है। हिन्दू दृष्टि मे धर्म ये सब हैं।
इस धर्म का संरक्षण और इस धर्म की प्रतिपादक विद्याओं का संरक्षण ही राजधर्म है। इसीलिए धर्मशास्त्रों के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग की तरह राजधर्म के शास्त्र भारत मे अत्यंत प्राचीन काल से रचे जाते रहे। भारत का वर्तमान शासन न तो इन विद्याओं का संरक्षण करता और न ही सनातन धर्म का संरक्षण करता अत: इसे सुशासन नहीं, कुशासन ही कहा जाएगा।
भीष्म पितामह राजधर्मानुशासन पर्व मे 60 वें अध्याय में कहते हैं : भगवान श्री कृष्ण को तथा सभी ब्राह्मणों को एवं स्वयं धर्म को प्रणाम कर मैं सनातन धर्म का, शास्वत धर्म का कथन करता हूँ : अक्रोध, सत्य वचन, धन का सम्यक विभाजन (संविभाग), क्षमा भाव, पवित्रता, किसी से भी द्रोह नहीं करना, जिनका भरण पोषण करना अपना कृत्य एवं कर्तव्य है, उनका सम्यक भरण पोषण, कुटिल व्यवहार नहीं करना( ऋजुता) और अपनी ही पत्नी से संतति उत्पन्न करना, ये 9 सार्ववर्णिक और सार्वभौम धर्म हैं। अन्यत्र इन्हें ही सामान्य धर्म, मानव धर्म आदि भी कहा गया है। यह है सामान्य सनातन धर्म। यह प्रत्येक मनुष्य के लिए अनिवार्य है। इसे सुनिश्चित करना राजधर्म है। इसके लिए इनका उल्लंघन करने वालों को दंड देना राजधर्म है इसीलिए इसे ही दंडनीति भी कहते हैं।
भारतीय ज्ञान परंपरा वह कहीं भी नहीं कहती कि इष्ट और पूर्त कर्म तथा दान कर्म शासन के मुख्य काम हैं। ये सब तो समाज़ के ही काम हैं। जो यज्ञ के लिए दिया जाता है उसे इष्ट कहते हैं, इसमे सभी जीवों के लिए अंश भाग निकालना, अतिथि सत्कार और विद्या के पोषण के लिए दान सम्मिलित है। ये इष्ट कर्म हैं। जो कार्य समाज के अभाव की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे पूर्त कर्म कहते हैं जिनमें सार्वजनिक उद्यान आदि बनाना, मंदिर बनाना,धर्मशाला आदि का निर्माण, कुआं वापी तालाब जलाशयों आदि का निर्माण करना और दु:खियों की सेवा, भूखों को भोजन कराना तथा जिनके पास वस्त्र नहीं है उन्हें वस्त्र और जिनके पास आवास नहीं हैं, उन्हें आवास देना — यह सब कुछ करना और उनके लिए निरंतर दान देना भी समाज में पुण्य कर्म है और यही पूर्त कर्म है जो अभावों की पूर्ति करता रहता है। यह सभी काम परंपरा से समाज ही करता रहा है अर्थात समाज की विभिन्न स्तरों की इकाइयां यह काम संपादित करती रही हैं क्योंकि इस काम का कोई भी भार कभी भी राज्य पर भारत में नहीं डाला गया।
राज्य का मुख्य काम तो यह देखना है कि समाज के सभी अंग अपने अपने कर्तव्य का पालन करें और दूसरे के कर्तव्य में बाधा नहीं डालें और सर्वमान्य नियमों के अनुशासन में सभी रहे तथा किसी भी प्रकार के विदेशी हस्तक्षेप से और विदेशी आक्रमण से राज्य की रक्षा हो। यही काम भारत में राज्य के हैं और इसे ही राजधर्म कहा गया है और उनके लिए ही राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से की जा रही कमाई का एक अंश कर के रूप में लेने की व्यवस्था है जिससे कि राजकोष बनता है। उसके उपयोग करने का ही अधिकारी है राज्य। सर्व तेजोमय रहना, शासन करना, सब की रक्षा करना एवं अधर्म को दंडित करना राजधर्म है। जगत में सब अपना अपना भोग भोगें, दूसरे का भोग अंश न छीने, इसके लिए दंड भय आवश्यक है। (मनुस्मृति का कथन है दंडस्य हि भयात् सर्वं जगद् भोगाय कल्पते 7/22)।
दंड नीति दूषित हो तो समाज दूषित हो जाता है अत: राज्यकर्ता की वाणी तो मधुर और विनम्र होनी चाहिए परंतु हृदय तेजस्वी और तीक्ष्ण होना चाहिए। दुष्ट या शत्रु से किसी कारण विनम्र व्यवहार करना पड़े तो काम हो जाने पर उसे क्षत-विक्षत कर देना राजधर्म है जबकि सामान्य गृहस्थ के लिए यह छल हो सकता है। परंतु यह भी शास्त्रों में स्पष्ट कहा है कि शठता केवल शठ के साथ ही करनी है और वह भी राज्यकर्ता के द्वारा। शठे शाठ्यम समाचरेत – यह राजधर्म का एक अंग है और सामान्य व्यक्ति के लिए इसे वर्जित कहा गया है। राज्यकर्ता के लिए भी सामान्य रूप से ऋजु मार्ग पर, सरल और निश्छल मार्ग पर ही चलने का निर्देश शांति पर्व मे है। अपने साथ के और पड़ोस के साधारण लोगों को भी शठ कह कर अगर कोई व्यक्ति यूं ही दुष्टता करता है तो उस को दंडित करना भी राजधर्म है परंतु राज्य कर्ता को स्वधर्म संपादन के लिए एक सीमा तक छल और शठता की छूट है।
धर्मपालन, धर्म के अनुशासन में प्रजापालन और कंटक शोधन सर्वोपरि राजधर्म है। यही सर्वप्रथम राज धर्म है। इसके साथ ही विद्या, यज्ञ एवं दान का रक्षण, संवर्धन एवं व्यवस्था राजधर्म है। राज्य के शत्रु और विरोधियों को युद्ध, छल कपट, कूटनीति एवं नय के द्वारा हराना राजधर्म है। दुष्टों को दंड देना और न्याय करना राजधर्म है। राष्ट्र, राज्य, दुर्ग, कोश, मंत्रिगण और सैन्य बल सहित स्वयं प्रधान शासक- इन सात अंगों को राज्य के सप्तांग कहा गया है। सप्ताङ्गों का संरक्षण, संवर्धन, पोषण और समृद्धि राजधर्म है। भारत के वेद ग्रंथ, विद्याओं एवं धर्म परंपराओं का ज्ञान न्यायशास्त्र का ज्ञान, वार्ता शास्त्र का ज्ञान और दंड नीति का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक राजधर्म है। मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को इन का ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए, तभी वह भारतीय राजधर्म का पालन कर सकते हैं। विद्या से अर्जित अनुशासन के बिना दंड नीति की पात्रता नहीं आती। वार्ता की चिंता नहीं की जाएगी तो राष्ट्र नष्ट हो जाएगा और वार्ता का ज्ञान लोकजीवन तथा शास्त्रों के ज्ञान पर और परंपराओं के विस्तृत ज्ञान पर ही संभव है। यह वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में और महाभारत के शांति पर्व एवं सभा पर्व में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है। वार्ता का अर्थ है कृषि, वाणिज्य, व्यापार, शिल्प, पशुपालन, खानों का उपयोग और समस्त आर्थिक व्यवस्था। महाभारत, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र जो राजशास्त्र है, इनमे इन सब पर बल दिया गया है।
निष्पक्ष न्याय करना एवं अपराधी को दंड देना राज्य के प्रमुख कार्यों में से है। लोगों के विवादों को निपटाने की न्याय पूर्ण व्यवस्था राजधर्म है। मनु ने तो न्याय शासन को ही धर्म का पर्याय कहा है। वे कहते हैं कि जिस राज्य में निरपराधी दंडित हो और अपराधी छूट जाएं, उस राज्य के राज्यकर्ता पापी हैं और नरक में पड़ेंगे। रामायण और महाभारत दोनों में राजा से न्याय व्यवस्था सुनिश्चित करने कहा गया है।इसीलिए हमारे यहां व्यवहार पदों पर विस्तृत विचार होता रहा है। धर्म, व्यवहार चरित्र और राज्य शासन – ये किसी भी विवाद में अंतिम निर्णय के चार पद हैं। इसी प्रकार, अभियोग, उत्तर, परीक्षण किया एवं निर्णय – ये चार चरण न्याय प्रक्रिया के हैं। इन सब की व्यवस्था राजधर्म का अंग है। राजधर्म का पालन ही सुशासन है।
भारतीय धरोहर
आखिर क्यों
अंजू गुप्ता
सवालों के घेरे में आई क्यों,
अग्नि परीक्षा देकर भी
सीताजी बच ना पाई क्यों ?
पवित्रता अपनी साबित करने को
फिर भी धरती में समाई क्यों ?
आज की सीता का हाल वही क्यों ?
प्रश्नों के कटघरे में खड़ी क्यों ?
आज भी लोगों से नजरें चुराती क्यों ?
कभी कपड़ों पर, कभी समय पर,
दुनिया ने पाबंदी लगाई क्यों ?
कभी मायके ने, कभी ससुराल ने
लक्ष्मण रेखा खिंचवाई क्यों ?
राम ने जाना सीता की पवित्रता को,
फिर भी अग्नि परीक्षा में जलाई क्यों ?
उदाहरण देकर आज के युवकों को,
वही प्रथा शुरू करवाई क्यों ?
क्यों बन बैठा राम अब रावण?
क्यों सीता पर अत्याचार है हर क्षण,
कभी दहेज, कभी बलात्कार और कभी चरित्रहीन बताते हर पल,
कहाँ छुपे हो राम और लक्ष्मण,
कर दो अब इस रावण का वध मिलकर l
नई सुबह अब तुम जगा दो, सुन्दर सुनहरे फूल खिला दो,
सीता और राम को मिलवा दो
शांति का पैग़ाम भिजवा दो l
जगद्गुरु रामभद्राचार्य
ये वही रामभद्राचार्य जी है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में रामलला के पक्ष में वेद पुराण के उद्धारण के साथ गवाही दी थी।
श्रीराम जन्मभूमि के पक्ष में वादी के रूप में उपस्थित थे धर्मचक्रवर्ती, तुलसीपीठ के संस्थापक, पद्मविभूषण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी ... जो विवादित स्थल पर श्रीराम जन्मभूमि होने के पक्ष में शास्त्रों से प्रमाण पर प्रमाण दिये जा रहे थे ...
न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति मुसलमान था
उसने छूटते ही चुभता सा सवाल किया, "आप लोग हर बात में वेदों से प्रमाण मांगते हैं ... तो क्या वेदों से ही प्रमाण दे सकते हैं कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में उस स्थल पर ही हुआ था?"
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी (जो प्रज्ञाचक्षु हैं) ने बिना एक पल भी गँवाए कहा , " दे सकता हूँ महोदय", ... और उन्होंने ऋग्वेद की जैमिनीय संहिता से उद्धरण देना शुरू किया जिसमें सरयू नदी के स्थान विशेष से दिशा और दूरी का बिल्कुल सटीक ब्यौरा देते हुए श्रीराम जन्मभूमि की स्थिति बताई गई है ।
कोर्ट के आदेश से जैमिनीय संहिता मंगाई गई ... और उसमें जगद्गुरु जी द्वारा निर्दिष्ट संख्या को खोलकर देखा गया और समस्त विवरण सही पाए गए ... जिस स्थान पर श्रीराम जन्मभूमि की स्थिति बताई गई है ... विवादित स्थल ठीक उसी स्थान पर है ...
और जगद्गुरु जी के वक्तव्य ने फैसले का रुख हिन्दुओं की तरफ मोड़ दिया ...
मुसलमान जज ने स्वीकार किया , " आज मैंने भारतीय प्रज्ञा का चमत्कार देखा ... एक व्यक्ति जो भौतिक आँखों से रहित है, कैसे वेदों और शास्त्रों के विशाल वाङ्मय से उद्धरण दिये जा रहा था ? यह ईश्वरीय शक्ति नहीं तो और क्या है ?"
"सिर्फ दो माह की उम्र में आंख की रोशनी चली गई, आज 22 भाषाएं आती हैं, 80 ग्रंथों की रचना कर चुके हैं।सनातन धर्म को दुनिया का सबसे पुराना धर्म कहा जाता है. वेदों और पुराणों के मुताबिक सनातन धर्म तब से है जब ये सृष्टि ईश्वर ने बनाई. जिसे बाद में साधू और संन्यासियों ने आगे बढ़ाया. ऐसे ही आठवीं सदी में शंकराचार्य आए, जिन्होंने सनातन धर्म को आगे बढ़ाने में मदद की।
पद्मविभूषण रामभद्राचार्यजी एक ऐसे संन्यासी के हैं जो अपनी दिव्यांगता को हराकर जगद्गुरू बने। जगद्गुरु रामभद्राचार्य चित्रकूट में रहते हैं. उनका वास्तविक नाम गिरधर मिश्रा है, उनका जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में हुआ था। रामभद्राचार्य एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर साल 1988 से प्रतिष्ठित हैं। रामभद्राचार्य चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक हैं और आजीवन कुलाधिपति हैं।जगद्गुरु रामभद्राचार्य जब सिर्फ दो माह के थे तभी उनके आंखों की रोशनी चली गई थी। वे बहुभाषाविद् हैं और 22 भाषाएं जैसे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में कवि और रचनाकार हैं। उन्होंने 80 से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में ) हैं. उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है।चिकित्सक ने गिरिधर की आँखों में रोहे के दानों को फोड़ने के लिए गरम द्रव्य डाला, परन्तु रक्तस्राव के कारण गिरिधर के दोनों नेत्रों की रोशनी चली गयी। वे न तो पढ़ सकते हैं और न लिख सकते हैं और न ही ब्रेल लिपि का प्रयोग करते हैं. वे केवल सुनकर सीखते हैं और बोलकर अपनी रचनाएं लिखवाते हैं।
10. साल 2015 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया।
प्राणमय कोश का विकास
– वासुदेव प्रजापति
प्राणों ब्रह्मेति व्यजानात्
इससे पूर्व की कथा में पिता वरुण के कहने पर भृगु ने तप किया और तप करके जाना कि अन्न ही ब्रह्म है। अन्न को ब्रह्म जानकर भी वह संशय से ग्रस्त हुआ, अन्न ही ब्रह्म क्यों है? अतः भृगु पुनः पिता वरुण के पास आया और अपना संशय बताकर ब्रह्म का उपदेश करने का निवेदन किया। संशय बताने के बाद भी पिता ने ब्रह्म का उपदेश न कर, यही कहा – तू फिर से तप कर और तप से ही उस ब्रह्म को जान, क्योंकि तप से ही ब्रह्म को जाना जाता है।
पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर भृगु पुनः तप में लीन हो गया। उसने तप से जाना, प्राणों ब्रह्मेति व्यजानात्। अर्थात् प्राण ही ब्रह्म है, ऐसा जाना। क्योंकि निश्चय प्राण से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर प्राण से ही जीवित रहते हैं और मरणोन्मुख होने पर प्राण में ही लीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति, स्थिति और लयकाल में प्राणी जिसकी तद्रूपता का त्याग नहीं करते, यही उस ब्रह्म का लक्षण है। इस प्रकार ब्रह्म के सभी लक्षण उसे प्राण में घटित होते प्रतीत हुए। तब उसने माना कि प्राण ही ब्रह्म है।
प्राणायम कोश का स्वरूप
अन्नमय कोश में हमने जाना कि हमारा शरीर एक यंत्र है। कोई भी यंत्र बिना ऊर्जा के नहीं चलता। शरीर को चलाने के लिए भी ऊर्जा चाहिए, वह ऊर्जा है प्राण। जब शरीर में प्राण होते हैं, तब वह जीवित शरीर कहलाता है। जब प्राण शरीर को छोड़ देते हैं, तब वह मृत शरीर कहा जाता है। मृत शरीर हमारे किसी काम का नहीं होता, इसलिए हम उसे जला देते हैं। इस अर्थ में प्राण जीवनी शक्ति है।
प्राण शरीर से अधिक सूक्ष्म है। शरीर की भांति उसका कोई आकार नहीं है, प्राण तो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। शरीर के जिस अंग में प्राण नहीं होते, वह अंग मर जाता है, उसे भी काटकर फैंकना पड़ता है। अर्थात् प्राण शरीर के प्रत्येक अंश में होता ही है।
अधिकांश लोग श्वास को ही प्राण मानते हैं। किन्तु श्वास प्राण नहीं है, श्वास तो प्राण का वाहक है। जिस प्रकार बिजली (करंट) स्वयं प्रवाहित नहीं होती, धातु के तारों के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जाती है। उसी तरह प्राण भी श्वास के माध्यम से हमारे शरीर में आता-जाता है। श्वास के द्वारा हमारे शरीर में प्रविष्ट प्राण पूर्ण शरीर में रस, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि में अनुस्यूत होकर रहता है।
प्राण के चार आवेग हैं – आहार, निद्रा, भय और मैथुन। ये चारों आवेग प्राण धारणा के लिए अनिवार्य मूल प्रवृत्तियां हैं। यहाँ आहार से तात्पर्य है, अन्न, जल और वायु ग्रहण करना। निद्रा एक विश्रांति है। भय प्राण की मूल प्रवृत्ति है। और मैथुन इस शरीर के बाद दूसरे शरीर से प्राण का सम्बन्ध बना रहे इसकी व्यवस्था है।
सूर्य प्राणों का स्रोत है। हमें प्राण सूर्य से प्राप्त होते हैं। सूर्य से प्राप्त प्राण वायु के माध्यम से हमारे चारों ओर व्याप्त है। हम वायु में व्याप्त प्राणों को प्राणवायु के रूप में ग्रहण करते हैं। ग्रहण किया हुआ यह प्राण हमारे चेतातन्तुओं के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों के अनुसार प्राण के भिन्न-भिन्न नाम ये हैं – प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान।
प्राण के चार आवेग
ऊपर हमने जाना कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों प्राण के आवेग हैं। यहाँ हम प्राण धारणा हेतु इनका होना क्यों आवश्यक है, इसे समझेंगे।
आहार – अन्न, जल और वायु ये तीनों आहार माने गए हैं। इन तीनों के अभाव में प्राण शरीर में टिक नहीं सकता। शरीर को अन्न, जल और वायु न मिलने से शरीर और प्राण साथ-साथ नहीं रह सकते, उनका वियोग हो जाता है। शरीर और प्राण के वियोग को ही हम मृत्यु कहते हैं। इसलिए प्राणों को टिकाए रखने के लिए आहार अत्यावश्यक है।
निद्रा – काम करने से शरीर थकता है, उसे विश्रांति चाहिए। निद्रा बहुत अच्छी विश्रांति है। प्राण धारणा के लिए निद्रा भी आवश्यक है। बिना निद्रा के जीवन असंभव है। कुछ दिनों तक व्यक्ति को निद्रा न लेने दी जाय तो वह पागल हो जायेगा। अत: जीने के लिए निद्रा भी आवश्यक है।
भय – भय भी प्राण की मूल प्रवृत्ति है। प्राण धारणा के लिए सभी प्राणियों में यह मूल प्रवृत्ति पाई जाती है।
मैथुन – यह वंश परम्परा को चलाए रखने के लिए आवश्यक है। वंश परम्परा से ही जीवन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में एक व अखण्ड बना रहता है। यह मूल प्रवृत्ति कामेच्छा के रूप में जानी जाती है। यह अपने आप में बुरी बात नहीं है। यह सभी प्राणियों में पाई जाने वाली स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
प्राण की इन चारों मूल प्रवृत्तियों में प्रथम दो आहार व निद्रा का सीधा सम्बन्ध अन्नमय कोश के साथ है। आहार और निद्रा से अन्नमय कोश का सम्यक विकास होता है। तथापि शरीर के माध्यम से होने वाली ये प्राण की क्रियाएँ ही हैं। जबकि शेष दोनों भय और मैथुन का सम्बन्ध मनोमय कोश के साथ है। फिर भी ये प्राणिक आवेग ही हैं। भय प्राण रक्षा के भाव से प्रेरित है। सबको प्राण हानि का भय ही सताता है। सब प्रकार के भय के मूल में मृत्यु का भय ही रहता है।
प्राण रक्षा का ही दूसरा स्वरूप वंश परम्परा की प्रेरणा है। सबका शरीर एक दिन मृत्यु का ग्रास बनता ही है। उस स्थिति में उसी शरीर से दूसरा शरीर निर्माण करना, यह प्राण का ही आवेग हैं। यही प्राण रक्षा का दूसरा स्वरूप है। इसके लिए ही मैथुन है। यह मैथुन प्राण की मूल प्रवृत्ति है।
प्राणायम कोश के विकास से तात्पर्य
ऐसे प्राणमय कोश का विकास करना अर्थात् क्या करना? प्राणमय कोश के विकास से तात्पर्य है, प्राण बलवान होना, प्राण संतुलित होना और प्राण एकाग्र होना। जिस व्यक्ति में प्राण बलवान है, संतुलित है और एकाग्र है, उसका प्राणमय कोश विकसित है, ऐसा माना जाता है।
प्राण बलवान होना – अर्थात् जीवनी शक्ति अधिक होना। यदि प्राण क्षीण है तो जीवनी शक्ति दुर्बल होती है। यह जीवनी शक्ति व्यक्ति में कार्यशक्ति, उत्साह, महत्वाकांक्षा, साहस, पराक्रम एवं विजिगीषा के रूप में प्रकट होती है। जैसे लाल-लाल, बड़े-बड़े, चमकदार टमाटर दिखने में तो सुन्दर दिखते हैं, किन्तु उनमें सत्त्व कम है तो उन्हें खाने से पेट तो भरेगा, परन्तु शरीर को पोषण नहीं मिलेगा। उसी प्रकार शरीर दिखने में तो सुन्दर हो सकता है, परन्तु प्राण बलवान नहीं होंगे तो उसमें जीवनी शक्ति कम होगी और वह व्यक्ति पराक्रम नहीं कर पायेगा।
प्राण संतुलित होना – प्राण के बलवान होने के साथ-साथ उसका संतुलित होना भी आवश्यक है। शरीर में जिस अंग को प्राण की आवश्यकता हो, उसे समय पर आवश्यक मात्रा में प्राण मिल जाए, इस स्थिति को प्राण का संतुलित होना माना जाता है। जैसे भोजन करने के बाद पाचन तंत्र को अधिक प्राण शक्ति चाहिए, उसी प्रकार अध्ययन करते समय चेतातंत्र को अधिक प्राणशक्ति चाहिए। जब प्राणशक्ति नियंत्रित होती है, तब हम उसका उचित उपयोग कर सकते हैं।
प्राण एकाग्र होना – जिस प्रकार मन को एकाग्र किया जाता है, उसी प्रकार प्राण को भी एकाग्र किया जा सकता है। मजदूरों को जब कोई भारी सामान उठाना होता है, तब वे होईशा-होईशा कहते हुए अपने प्राणों को एकाग्र करते हैं। प्राणों के एकाग्र होने से अधिक शक्ति प्रगट होती है, परिणाम स्वरूप वे भारी से भारी सामान को उठा लेते हैं।
प्राणमय कोश : विकास के तत्त्व
प्राणमय कोश के विकास का अर्थ हमने जाना। अब हम यह जानेंगे कि विकास किन-किन तत्त्वों से होता है? प्राणमय कोश का विकास करने वाले तत्त्व अधोलिखित हैं –
शुद्ध प्राणवायु – प्राण वायु में रहता है, श्वास के माध्यम से शरीर में आता है। शरीर में आने वाला प्राण कैसा है? सामान्य रूप से शुद्ध वातावरण में 21% प्राण रहता है। अतः यह आवश्यक है कि जिस वातावरण में हम रहते हैं, जिस प्राणवायु को हम श्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, उस प्राणवायु में 21% की मात्रा होनी चाहिए। तभी वह शुद्ध प्राणवायु होती है। अतः हमारा यह दायित्व बनता है कि हम वायुमंडल को शुद्ध बनाए रखें। वायु प्रदूषण होने ही न दें, यदि हो जाय तो उसे शीघ्र नष्ट कर दें।
सही श्वसन क्रिया – श्वसन के द्वारा हम प्राण ग्रहण करते हैं। प्राण ग्रहण करने की प्रक्रिया यदि सही नहीं है और मार्ग में अवरोध खड़े हो जाते हैं तो प्राण सरलता से नहीं आ पाते। हमें लम्बी, गहरी व नियमित श्वास लेने की आदत बनानी चाहिए। ऐसी श्वास लें सकें इसके लिए सीधा बैठने का अभ्यास होना चाहिए। सीधा बैठने से श्वसन मार्ग में अवरोध खड़े नहीं होते। कफ के कारण श्वसन मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। अतः श्वसन मार्ग की शुद्धि आवश्यक है। प्रयत्न तो यह करना चाहिए कि कफ बनें ही नहीं।
चेतातंत्र की शुद्धि – चेतातन्तुओं अर्थात् तंत्रिकाओं के आलम्बन से प्राण हमारे पूरे शरीर में व्याप्त रहता है। चेतातन्तु जितने अधिक शुद्ध होते हैं, उतनी ही सरलता से प्राण शरीर के अंग-उपांग तक पहुँच जाता है। इसका दोहरा लाभ भी है कि प्राण से चेतातन्तुओं की शुद्धि भी होती है।
प्राणायाम – प्राण का विकास करने वाला सर्वश्रेष्ठ एवं एकमेव मार्ग प्राणायम है। योगशास्त्र में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। प्राण को नियमित और नियंत्रित करने के अभ्यास से एकाग्रता लाकर अनेक प्रकार की सिद्धियाँ भी प्राप्त की जा सकती हैं।
भोजन और निद्रा – भोजन और निद्रा जैसे शरीर को पुष्ट करते हैं, वैसे ही ये दोनों प्राण को भी पुष्ट करते हैं। इन तत्त्वों के द्वारा जब प्राणों का विकास होता है तो ऊर्जा बढ़ती है, ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव शुद्ध व सूक्ष्म संवेदन बनकर मन के समक्ष प्रस्तुत
होते हैं। इसी शुद्धि के परिणाम स्वरूप नेत्र निर्मल होते हैं, स्वर मधुर हो जाता है, मुख मंडल चमकता है, शरीर हल्का हो जाता है और पूर्ण आरोग्यता प्राप्त होती है।
प्राणमय कोश का यह महत्त्व समझकर हमें शिक्षाक्रम बनाना चाहिए।
मैं प्राण नहीं हूँ
भृगु ने तप करके जाना कि प्राण ही ब्रह्म है। इसका यह अर्थ हुआ कि मैं प्राण हूँ। जब हम स्वयं को प्राणयुक्त शरीर मानते हैं और प्राण के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। तब जीवन रक्षा ही हमारा एकमेव उद्देश्य बन जाता है, हमें लगता है कि मैं प्राण हूँ। इस स्थिति में हम जीवित रहने के लिए ही खाते-पीते हैं, सोते-जागते हैं और जीवन का प्रत्येक क्रिया-कलाप करते हैं। इसका सीधा सा अर्थ होता है कि हम प्राणमय कोश में जी रहे हैं।
प्राण के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के उपरांत भी वास्तविकता यही है कि हम प्राण नहीं है। प्राण तो एक स्तर का हमारा व्यक्त रूप है। इस तथ्य को नहीं जानना, यह हमारा अज्ञान है। फिर तो आप भी तप करके जानों कि आप कौन हैं?
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
इंसानियत
श्रीमती पुष्पा तिवारी
आज हम जिस वातावरण में जी रहे हैं, उसमें इंसानियत की अपेक्षा दानवता का तांडव नृत्य सर्वत्र ही दिखाई पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानव ने इंसानियत को तिलांजलि दे दी है और स्वार्थ को पकड़ रखा है । पाखंड, घमंड, स्वार्थ, क्रूरता, वासना, पशुता, छलना, झूठ, अन्याय आदि प्रत्येक मानव में छलकते हैं । अब वह किसी में कम हो या ज्यादा । सभ्य कहलाने वाला मानव आज साक्षात असुर बन गया है ।
भौतिकवाद एवं विलासिता प्रधान इस युग में इंसानियत का प्रभाव कम होता जा रहा है । इंसानियत आज किसी कोने में पड़ी सिसक रही है । इंसानियत के अभाव में जीवन शुष्क एवं नीरस बनता जा रहा है । आज हम स्वयं ही इंसानियत का पाठ छोड़कर शैतानियत का पाठ पढ़ रहे हैं जबकि धर्म में मूल में इंसानियत ही है । इंसानियत ही संसार को मोक्ष प्रदान करती है । अत: इंसानियत की प्राप्ति हमारा चरम लक्ष्य होना चाहिए, यही सर्वोत्तम धर्म है ।
इंसानियत का संदेश है- "केवल सत् तत्व की आराधना करो । बाहर -भीतर से, अपने पराए से, अहिंसा क्षमा आदि का व्यवहार करो ।" हम सर्वप्रथम इंसान हैं बाद में कुछ और । अतः स्वार्थ, लालच, संकीर्णता, कट्टरता, रूढ़िवादिता को छोड़कर एक साथ रहकर जीने की आवश्यकता है । इंसानियत के छह शत्रु है -काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा ईर्ष्या । यह सभी नरक के द्वार की ओर संकेत करती है।अत: इन्हें त्याग देना ही हितकर है । तामसी आहार, दूषित साहित्य व अस्वस्थ मनोरंजन एवं कुशिक्षा से इंसानियत नष्ट हो रही है । हम सभी को भेदभाव से ऊपर उठकर प्रेम की सरिता बहानी चाहिए । जहाँ अमन -चैन हो, जहांँ धन -दौलत का घमंड नहीं हो, अकारण क्रोध नहीं हो, परदोष दर्शन का भाव नहीं हो, किसी की उन्नति से जलन नहीं हो बल्की सेवा हित तत्पर हो, कानून का सम्मान हो, कर्तव्य के प्रति जागरूकता हो, दूसरों के गुणों की प्रशंसा हो, स्वभाव में सरलता हो, बातों में सच्चाई एवं स्पष्टता हो, इच्छाओं पर संयम हो, गिरे हुए को उठाने की चाहत हो तो वहांँ ही इंसानियत का वास होता है ।हम सभी को इन्हें व्यवहार में लाना अति आवश्यक है । तभी इंसानियत जीवित रह सकती थी और हम सही मायनों में इंसान कहलाने के अधिकारी होंगे अन्यथा नहीं ।
अपडेट और आउटडेट
– दिलीप वसंत बेतकेकर
‘मोबाइल फोन किस-किसके पास है?’ ऐसा पूछने पर अनेक लोग प्रश्नार्थक मुद्रा से देखने लगे। सभी ने हाथ ऊपर किये। फिर भी उनकी नज़रों में एक प्रश्न और दिखाई दे रहा था, “मोबाइल किसके पास है, ये कैसा प्रश्न है?” किसके पास नहीं है ऐसा पूछते तो समझ में आता! आज के युग में मोबाइल नहीं है, ऐसा भी कोई होगा क्या?
“कितने लोगों के पास पहली बार खरीदा हुआ मोबाइल ही अभी भी है?”
दो-तीन हाथ ऊपर उठे।
इसका अर्थ हुआ कि शेष अनेक लोगों के पास प्रथम खरीदा गया मोबाइल नहीं है। “दो-तीन बार किसी ने मोबाइल बदला है क्या?” इस प्रश्न पर अनेक हाथ ऊपर उठे!
मोबाइल के पश्चात मैं वाहनों के बारे में पूछने लगा!
“पन्द्रह-बीस वर्ष पूर्व साइकिल कौन उपयोग करता था?” महिलाओं के अतिरिक्त लगभग सभी शिक्षकों के हाथ ऊपर उठे। “साईकिल त्याग कर बाइक अथवा स्कूटर किनके पास आ गये?” लगभग सभी शिक्षक गण! “दो पहिया वाहन पश्चात चार पहिया वाहन किसने खरीदे?” कुछ शिक्षकों ने हाथ उठाकर प्रतिसाद दिया!
आखिरी प्रश्न था, “ऐसे कितने लोग हैं जो पहले किराये के मकान में रहते थे परन्तु अब अपना स्वयं का मकान बना लिया है?” कुछ लोग थे ऐसे! “मोबाईल दो-तीन बार क्यों बदल दिया?” “नई टेक्नालॉजी, अधिक बैटरी बैकअप, नये-नये फीचर्स, इंटरनेट की सुविधा आदि फटापफट उत्तर मिले! “अब पहले वाला मोबाइल कहाँ है?”
“घर के अन्य लोगों को दे दिया”, “बेकार पड़ा है”, “स्क्रैप हुआ” लोग बिल्कुल खुलकर उत्तर दे रहे थे।
“इस समय उस साइकिल की स्थिति क्या है?” इस प्रश्न पर एक ने उत्तर दिया – “वह साइकिल तो कब की कबाड़ी को दे चुके हैं – क्या करते उसे घर में रखकर? केवल कबाड़ा!” बदलते हुए समय के अनुसार नया तंत्रज्ञान, नई सुविधाएं ध्यान में रखते हुए स्वयं में और संसाधनों में बदलाव करते ही रहते हैं, इसमें नया कुछ भी नहीं। हाँ, अब कुछ लोग अति ही करते हैं, ऐसा भी है।
काल बाह्य (आउटडेट) हुई वस्तुएं हम उपयोग नहीं करते, साधनों का प्रयोग भी नहीं किया जाता। उसे स्क्रैप (कबाड) मान लेते हैं।
बदलते समय के अनुसार आर्थिक स्थिति में सुधार आता है और उसी के अनुसार हम साधन-सुविधा भी बदलते हैं। हमें भी कोई ‘पुराने चलन का’, ‘आउटडेट’, ‘स्क्रैप’ कहे इसकी चिंता रहती है। हमें ‘अपडेट’ रहना चाहिये, आउटडेट हो जाना ठीक नहीं, ऐसी प्रत्येक व्यक्ति की भावना रहती है। इस हेतु उधार लेकर भी वस्तुएं खरीदते हैं। भौतिक दृष्टि से अपना जीवन स्तर ऊँचा दिखाने हेतु कितनी उठापटक करते हैं, ये चारों ओर देखने पर समझ में आता है स्पष्ट रूप से! परन्तु इसी के साथ अपना बौद्धिक, भावात्मक, आध्यात्मिक स्तर भी बदलना चाहिये, ऊँचा उठना चाहिये ऐसी मनःपूर्वक सोच है क्या किसी की? अपनी जानकारी, ज्ञान, कौशल्य आदि का स्तर भी बदलना होगा, ऐसा सोचकर इस हेतु समय, धन, परिश्रम हम खर्च करते हैं क्या? ये प्रश्न केवल शिक्षकों के लिये ही नहीं अपितु सभी पर लागू है।
भूगोल का अध्ययन करते समय हम हिमशिला (आईसबर्ग) के विषय में पढ़ते हैं। हिमशिला का 1/8 भाग पानी के ऊपर होता है, जो दिखाई देता है परन्तु न दिखने वाला भाग, अर्थात पानी के अंदर रहने वाला 7/8 भाग होता है। इन हिमशिलाओं जैसी ही हमारी आवश्यकताएं होती हैं। दिखाई देने वाली और इसी कारण पूर्ति हो जाने वाली आवयकताएं केवल 1/8 अंश। ये होती हैं भौतिक आवश्यकताएं। पूर्व में ये रहा करती थीं केवल रोटी, कपड़ा और मकान! अब यह सूची बहुत लम्बी हो गई है। दिन-ब-दिन बढ़ती जायेगी। इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अत्यधिक समय, शक्ति और पैसा खर्च किया जाता है। इस हेतु अत्यधिक उठापटक, भाग-दौड़, स्पर्धा भुगतनी पड़ती है।
इन आवश्यकताओं की अपेक्षा दिखाई न देने वाली आवश्यकताएं अनेक गुना अधिक हैं। परन्तु वे दिखती नहीं इसलिये उनकी ओर ध्यान देकर उनकी पूर्ति करनी चाहिये, ऐसा सोचते ही नहीं। हिमशिला जैसी न दिखने वाली – पानी के अंदर रहने वाली … परंतु 7/8 अंश आवश्यकताएं दुर्लक्षित, उपेक्षित रह जाती हैं। ऐसी आवश्यकताएं होती हैं बौद्धिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक! ये आवश्यकताएं भी मुख्य हैं, मूल रूप हैं, इस बात से अनभिज्ञ होने के कारण, इसकी जानकारी न होने से इसके लिये भी समय, श्रम, धन खर्च करना चाहिये इस बात की अनुभूति नहीं होती। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो इस विषय का कुपोषण हो रहा है, भुखमरी है, ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जो निर्धन हैं, जिन्हें दो समय की रोटी भी नसीब नहीं है, उनके लिए तो बात समझ में आती है किन्तु दो तीन लोग कमाई करने वाले घर में हों तो उनके घर के बच्चों से लेकर बड़ों तक का ‘कुपोषण’ समझ से परे है। ये हम कब समझेंगे? और समझने पर भी कुछ करेंगे क्या? स्वयं को और घर के सदस्यों को इस ‘कुपोषण’ से बचाएंगे क्या?
विशेषकर शिक्षकों को इस विषय पर चिन्तन करना आवश्यक है। ‘वाचाल तर बाचाल’ (मराठी) अर्थात् ‘पढ़ोगे तो बचोगे’ यह भारत रत्न डॉ॰ बाबा साहब आम्बेडकर की छोटी सी परन्तु महत्वपूर्ण उक्ति शालाओं की दीवार पर लिखी दिखती है। परन्तु फिर भी अर्थात् मर जाएंगे तो भी पढ़ेंगे नहीं, ऐसा दृढ़ संकल्प करने वाले शिक्षक ही अधिकतर दिखते हैं। स्वयं का ग्रंथालय होना चाहिये ऐसी सोच रखने वाले अथवा इस हेतु प्रयास करने वाले की बात तो दूर की, शाला और महाविद्यालय के अतिरिक्त शहर में रहने वाले लोगों में वहाँ के वाचनालयों के सदस्य कितने होंगे, ये एक शोध का विषय होगा! इसी प्रकार शाला, महाविद्यालय के भी शिक्षक विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों की पुस्तकों को हाथ लगाने वाले महाभाग कितने होंगे? कुछ अपवाद अवश्य होंगे!
आज स्मार्टफोन प्रत्येक के पास उपलब्ध है। एक नहीं, दो-दो हैं परन्तु उनका उपयोग कैसा, कब और किस हेतु? स्मार्ट फोन एक दुधारी तलवार जैसा है। लाभ और नुक्सान दोनों देने वाला! चयन उपयोग करने वाले पर निर्भर! इस स्मार्ट पफोन का उपयोग भी अपडेट और अपग्रेड करने हेतु हो सकता है। इंटरनेट, गूगल, विकिपीडिया इन सभी को हम आवश्यकता अनुसार उपयोग में ला सकते हैं। ये सब हमारे मित्र बन सकते हैं।
आज जो पाठ्यपुस्तकें बच्चे पढ़ रहे हैं वह तो ‘आउटडेट’ हो चुकी हैं। जानकारी, ज्ञान तेजी से वृद्धिगत हो रहे हैं। विस्तार हो रहा है। प्रत्येक वर्ष नई-नई पाठ्य पुस्तकें लिखना संभव नहीं, परन्तु जो वर्तमान में है उसमें नया जोड़ तो सकते हैं, उसे ‘अपडेट’ कर सकते हैं। ये अपडेट करना अथवा स्वयं अपडेट होना शिक्षकों पर निर्भर होता है। नये-नये तंत्रज्ञान की सहायता से अपडेट कार्य आसान हो गया है। केवल नया देखना और सीखने की मानसिकता होनी चाहिये। भौतिक साधन सुविधा के विषय में हम जितना जागरुक हैं, उससे भी अधिक जागरुकता बौद्धिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक विकास के विषय में होना आवश्यक है।
अंग्रेज़ी का एक छोटा किन्तु मार्मिक वाक्य है- “Look a bit higher”. हम जो आज हैं उससे ऊपर देखना जरूरी है। आज हम जिस स्तर पर हैं उससे अधिक ऊँचे स्तर पर जाने का प्रयास करना आवश्यक है। ये स्तर केवल भौतिक ही नहीं वरन् बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तर हों और ये प्रयास मुझे स्वयं करने चाहिए। दूसरा कोई थोड़ी सी मदद कर सकता है परन्तु कोई भी अपने कंधे पर लादकर ऊपर के स्तर पर लेकर नहीं जायेगा। इसीलिये update और upgrade ये शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बदलते समय और परिस्थिति के अनुसार हम बदले नहीं तो पुरानी वस्तुएं जैसे “स्क्रैप” हो जाती हैं वैसे ही हमें भी स्क्रैप होने में समय नहीं लगेगा।
इस प्रकार आउटडेट अथवा स्क्रैप न होने के लिये हमें क्या करना चाहिये? ये संक्षिप्त में देखना-जानना उचित होगा –
मन का खुला, विस्तृत होना।
मासूम, निष्पाप बालक के समान नई-नई बातें देखना, समझना, सीखना।
विविध प्रकार की कार्यशालाएं, कक्षाएं, बैठकों में सहभागी होना।
प्रयोगशील व्यक्ति, संस्था, संगठनों से जीवंत संपर्क और सम्बन्ध रखना।
प्रेरक साहित्य का अध्ययन।
नया जानने हेतु वर्ष भर में कभी समय निकालकर यात्रा करना।यूट्यूब, गूगल जैसे नये तंत्राज्ञान की सहायता लेना।सकारात्मक विचार करने वाले, प्रयोग करने वालों से मित्रता रखना।
रेलवे स्टेशन के बूट पॉलिश वाले का ध्यान उसके सामने से निकलने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पैरों की ओर ही रहता है। ये पैर मेरे ग्राहक बनेंगे क्या? यही विचार निरंतर उसके मन में रहते हैं। इसी प्रकार अपने को दिखने वाली प्रत्येक वस्तु और संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति मेरी शाला के लिये सहायक हो सकेगा क्या, ऐसा विचार होना चाहिये।
हम आउटडेट हुए तो अपनी शाला भी आउटडेट नहीं हो जायेगी क्या?
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
ममच्चन त्वा युवतिः परास ममच्चन त्वा कुषवा जगार।
ममच्चिदापः शिशवे ममृड्युर्ममच्चिदिन्द्रः सहसोदतिष्ठत्॥
।।ऋग्वेद ४-१८-८॥
युवा प्रकृति तुम्हें अस्तित्व में लेकर आई। जबकि प्रतिकूल वातावरण तुम्हें निगलने का प्रयत्न करता है। तुम्हें जितेंद्रिय बनकर सुरापान आदि व्यसनों से निकलना होगा।
क्रोध से बचिये
विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से झगड़ा था। विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। बहुत तप उन्होंने किया। पहले महाराजा थे,फिर साधु हो गये। वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे।
विश्वामित्र कहते थे, "मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किये हैं,मुझे ब्रह्मर्षि कहो।
वसिष्ठ मानते नहीं थे;कहते थे,"तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है,तुम राजर्षि हो।"
यह क्रोध बहुत बुरी बला है।सवा करोड़ नहीं,सवा अरब गायत्री का जाप कर लें,एक बार का क्रोध इसके सारे फल को नष्ट कर देता है।
विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे। क्रोध में उन्होंने सोचा,'मैं इस वसिष्ठ को मार डालूँगा,फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा नहीं।'ऐसा सोचकर एक छुरा लेकर,वे उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वसिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। शिष्य आये; वृक्ष के नीचे बैठ गये। वसिष्ठ आये ; अपने आसन पर विराजमान हो गये। शाम हो गई।पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चाँद निकल आया।
विश्वामित्र सोच रहे थे,'अभी सब विद्यार्थी चले जाएँगे, अभी वसिष्ठ अकेले रह जायेंगे,अभी मैं नीचे कूदूँगा,एक ही वार में अपने शत्रु का अन्त कर दूँगा।'
तभी एक विद्यार्थी ने नये निकले हुए चाँद की और देखकर कहा,"कितना मधुर चाँद है वह ! कितनी सुन्दरता है !"
वसिष्ठ ने चाँद की और देखा ; बोले, "यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओ। यह चाँद सुन्दर अवश्य है परन्तु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुन्दर हैं।यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें।
"विद्यार्थी ने कहा,"महाराज ! वे तो आपके शत्रु हैं। स्थान-स्थान पर आपकी निन्दा करते हैं।"
वसिष्ठ बोले, "मैं जानता हूँ,मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान् हैं, मुझसे अधिक तप उन्होंने किया है,मुझसे अधिक महान हैं वे,मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।"
वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े। वे बैठे थे इसलिए कि वसिष्ठ को मार डालें और वसिष्ठ थे कि उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। एकदम वे नीचे कूद पड़े,छुरे को एक ओर फेंक दिया,वसिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले, "मुझे क्षमा करो !वसिष्ठ प्यार से उन्हें उठाकर बोले, "उठो ब्रह्मर्षि !
"विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, "ब्रह्मर्षि ? आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा ? परन्तु आप तो ये मानते नहीं हैं ?"
वसिष्ठ बोले,"आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। महापुरुष ! तुम्हारे अन्दर जो चाण्डाल (क्रोध) था,वह निकल गया।"
जाने पंचांग को
हमारे विक्रमी संवत की गणना चंद्रमा के अनुसार होती है ।जिस प्रकार 12 महीने होते हैं उसी प्रकार12 राशियां भी होती है।मेष,वृषभ,कर्क, सिंह,कन्या,तुला,वृश्चिक,धनु,मकर,कुंभ व मीन।
12 महीने निम्नलिखितहै।
चैत्र,बैसाख,ज्येष्ठ,आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन,कार्तिक, मार्गशीष॔,पौष,माघ,फाल्गुन।
दो पक्ष होते हैं ।कृष्ण पक्ष,शुक्ल पक्ष ।कृष्ण पक्ष में 15 तिथि होती हैं, 15 वीं तिथि को अमावस्या कहते हैं ।शुक्ल पक्ष में 15 तिथि होती हैं, 15 वीं तिथि को पूर्णिमा कहते हैं ।
पक्ष को जानें : प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। तीस दिनों को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।
संक्रांति 12,संक्रांति होती हैं , 12 संक्रांति के नाम हैं मेष, वृषभ, कर्क, सिंह ,कन्या, तुला वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ व मीन।
नक्षत्रों के नाम :- स्कन्द पुराण के अनुसार तारो की सँख्या असख्य हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इनकी संख्या में 27 नक्षत्रों बताये गये हैं ।इन नक्षत्रों के देवता नाम से नक्षत्र का बोध होता हैं।प्रत्येक नक्षत्र के आगे चार पद होते है। उनके स्वामी अलग अलग से होते है।
नक्षत्र - देवता- स्वामी
अश्विनी - अश्विनी कुमार - केतु
भरणी - यम - शुक्र
कृतिका -अग्नि देवता - सूर्य
रोहिणी - ब्रह्मा - चंद्र
मृगशिरा - चन्द्रमा - मंगल
आर्दा - शिव शंकर - राहु
पुनर्वसु - आदिति - बृहस्पति
पुष्य - बृहस्पति - शनि
अश्लेषा - सर्प - बुध
माघ - पितर - केतु
पूर्वाफाल्गुनी - भग (भोर का तारा) - शुक्र
उत्तराफाल्गुनी - अर्यमा - सूर्य
हस्त - सूर्य - चंन्द्र
चित्रा -विश्वकर्मा - मंगल
स्वाति - वायु - राहु
विशाखा - इन्द्र, अग्नि - बृहस्पति
अनुराधा - आदित्य - शनि
ज्येष्ठा - इन्द्र - बुध
मूल - राक्षस - केतु
पूर्वाषाढा - जल - शुक्र
उत्तराषाढा - विश्वेदेव - सूर्य
अभिजित - विश्देव - सूर्य
श्रवण - विष्णु - चन्द्र
धनिष्ठा - वसु - मँगल
शतभिषा - वरुण देव - राहु
पूर्वाभाद्रपद - अज - बृहस्पति
उत्तराभाद्रपद - अतिर्बुधन्य - शनि
रेवती - पूूषा - बुध
अभिजित नक्षत्र - अभिजित नक्षत्र की गणना 27 नक्षत्रों में नहीं होती है क्योंकि यह नक्षत्र क्रान्ति चक्र से बाहर पडता है। यह मुहूर्तों आदि में इसे शुभ माना जाता है।
योग :-योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति।
27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति।
करण :-एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए है
मांगलिक दोष विचार परिहार
वर अथवा कन्या दोनों में से किसी की भी कुंडली में 1,4,7,8 व 12 भाव में मंगल होने से ये मांगलिक माने जाते हैं,मंगली से मंगली के विवाह में दोष न होते हुए भी जन्म पत्रिका के अनुसार गुणों को मिलाना ही चाहिए यदि मंगल के साथ शनि अथवा राहु केतु भी हो तो प्रबल मंगली डबल मंगली योग होता है | इसी प्रकार गुरु अथवा चंद्रमा केंद्र हो तो दोष का परिहार भी हो जाता है |इसके अतिरिक्त मेष वृश्चिक मकर का मंगल होने से भी दोष नष्ट हो जाता है | इसी प्रकार यदि वर या कन्या किसी भी कुंडली में 1,4,7,9,12 स्थानों में शनि हो केंद्र त्रिकोण भावो में शुभ ग्रह, 3,6,11 भावो में पाप ग्रह हों तो भी मंगलीक दोष का आंशिक परिहार होता है, सप्तम ग्रह में यदि सप्तमेश हो तो भी दोष निवृत्त होता है |
प्रसाद
बात है सन 1989की है, दूरदर्शन पर प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था!
एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को #भोग क्यों लगाते हैं? हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं उसमें से भगवान क्या खाते हैं? क्या पीते हैं? क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?
यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं! क्या यह पाखंड नहीं है? यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें? इस बात का उत्तर अतिथि के रूप में पधारे संत ने बड़े ही शांत चित्त से देना शुरू किया!
उन्होंने कहा...यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं! मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर या यज्ञ में जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है? #तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है! फिर वह पूछता है कि किसका है? तब आप कहते हैं कि यह मेरा है!
फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर या यज्ञ की अग्नि में उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है ?
तब आप कहते हैं कि यह प्रसाद है फिर वह पूछता है कि किसका है तब आप कहते हैं कि यह भगवान का परमपिता परमेश्वर का प्रसाद है!
अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है! उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया! वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के अहंकार को हर लिया! यह 'मेरा है' का जो भाव था, 'अहंकार' था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका '#हरण' हो गया! #प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है! अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है!
इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है! यह मनोविज्ञान है! कोटि-कोटि नमन है देश के संतों को जो हमें अज्ञानता से दूर ले जाते हैं और हमें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं
मंगल - मूरति मारुत नन्दन सकल अमंगल मूल निकन्दन
पवनतनय सन्तन हितकारी हृदय बिराजत अवध बिहारी
मातु पिता गुरु गनपति सारद,सिवा समेत सम्भु सुक नारद
चरन बंदि बिनवौ सब काहु,देहु रामपद नेह निबाहु
बंदौ राम लखन वैदेही,जे तलसी के परम स्नेही ।
स्वयं सिद्ध मुहूर्त
स्वयं सिद्ध मुहूर्त चैत्र शुक्ल प्रतिपदा वैशाख शुक्ल तृतीया अक्षय तृतीया अश्विन शुक्ल दशमी विजयदशमी दीपावली के प्रदोष काल का आधा भाग भारत में से इसके अतिरिक्त लोकाचार और देश आचार्य के अनुसार निम्नलिखित कृतियों को भी स्वयं सिद्ध मुहूर्त माना जाता है बडावली नामी देव प्रबोधिनी एकादशी बसंत पंचमी फुलेरा दूज इन में से किसी भी कार्य को करने के लिए पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं है परंतु विवाह आदि में तो पंचांग में दिए गए मुहूर्त व कार्य करना श्रेष्ठ रहता है।
हास्य व्यंग
एक शादीशुदा जोड़ा टीवी पर IPL का मैच साथ में देख रहा होता हैं.....पाँच मिनट के बाद....
पत्नी: ये ब्रेट ली है क्या?पति: नहीं..ये क्रिस गेल है..ब्रेट ली तो तेज गेंदबाज़ है।पत्नी: ब्रेट ली तो काफी स्मार्ट है...उसे तो अपने भाई की तरह फिल्मों में हीरो बन जाना चाहिए।पति: उसका कोई भाई फिल्म अभिनेता नहीं है।पत्नी:तो ये ब्रूस ली कौन है फिर?पति: अरे नहीं भाई...ब्रेट ली तो आस्ट्रेलिया से है..क्रिकेटर....औऱ ब्रूस ली फिल्मों में है...पत्नी: अरे वाह...वो देखो दो मिनट में एक और विकेट गिर गया।पति: अरे नहीं ये एक्शन रिप्ले है।पत्नी: ऐसा लग रहा है कि मैच भारत जीत जायेगा..क्यों जी..ठीक कहा न..पति: इसमें भारत नहीं खेल रहा है...ये चेन्नई और जयपुर के बीच है..आईपीएल का मैच है...पत्नी: ये अंपायर हाथ हिलाकर हेलीकाप्टर क्यों बुला रहा है?पगला गया है क्या .....पति: वो हेलीकाप्टर नहीं बुला रहा है...ये फ्री हिट का इशारा है।
पत्नी: दर्शकों ने क्या पैसे नहीं दिये जो ये फ्री हिट दे रहा है?अब ये किसे हाय कह रहा है?
पति: ये "बाय" का इशारा है।
पत्नी: ये बाय क्यों कह रहा है? क्या मैच खत्म हो गया है ?अब कितने रन और चाहिए जीतने के लिए?पति: 36 गेंदों में 72 रन चाहिए।पत्नी: ओह बस! ये तो कितना आसान है....केवल 1 गेंद पर 2 रन ही बनाना है।
पति झल्लाकर ग़ुस्से में टीवी बंद कर देता है.....
तुरंत पत्नी उठती है और फिर से टीवी चलाती है और बालिका वधु देखने लग जाती है।
पति: ये आनंदी कौन है? पत्नी:तुम्हारी माँ.....अब अगर तुमने मुझसे एक भी प्रश्न पूछ कर मुझें परेशान किया तो देख लेना......टीवी फोड़ दूँगी..औऱ फिर भी तुम्हारा बक बक बंद नहीं हुआ तो पूरे घर में आग लगा दूँगी....पक्का....समझ लो एकबार में....जब देखो तब खाली बक बक करते रहते हो।
जन्म नाम के पहले अक्षर से जाने अपनी जन्म राशि और नक्षत्र
राशि जन्म का नक्षत्र नाम का पहला अक्षर
मेष अश्विनि, भरणी, कृतिका चू, चे, चो, ला, ली, लू, ले, लो, अ
वृष कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा ई, ऊ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे, वो
मिथुन मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु का, की, कू, घ, ङ, छ, के, को, ह
कर्क पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे, डो
सिंह मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू, टे
कन्या उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा ढो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे, पो
तुला चित्रा, स्वाती, विशाखा रा, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू, ते
वृश्चिक विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा तो, ना, नी, नू, ने, नो, या, यी, यू
धनु मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा ये,यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा, भे
मकर उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा भो,जा, जी, खी, खू, खे, खो, गा, गी
कुंभ घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद गू,गे,गो,सा,सी,सू,से,सो,दा
मीन पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती दी, दू, थ, झ, ञ, दे, दो, चा, ची
गंड मूल नक्षत्र
1 अश्वनी 2 आश्लेषा 3 मघा 4 ज्येष्ठा 5 मूला 6 रेवती, यह 6 नक्षत्र गंड मूल नक्षत्र माने जाते हैं इन नक्षत्रों में जन्म होना अनिष्ट कारक माना जाता है
अश्वनी- प्रथम चरण में जन्म हो तो पिता को भय , दूसरे चरण में जन्म हो तो सुख,तीसरे चरण में जन्म हो तो मित्र समान,चौथे चरण में जन्म हो तो राजा के समान |
आश्लेषा- प्रथम चरण में जन्म हो तो शांति से शुभ होता है, दूसरे चरण में जन्म हो तो धन नाश ,तीसरे चरण में जन्म हो तो माता का नाश, चौथे चरण में जन्म हो तो पिता का नाश
मघा- पहले चरण में जन्म हो तो माता को भय, दूसरे चरण में जन्म हो तो पिता को भय,तीसरे चरण में जन्म हो तो सुख,चौथे चरण में जन्म हो तो धन लाभ
ज्येष्ठा- प्रथम चरण में जन्म हो तो भाई का नाश ,दूसरे चरण में जन्म हो तो छोटे भाई का नाश, तीसरे चरण में जन्म हो तो माता का नाश,चौथे चरण में जन्म हो तो सोने का नाश ,
मूला - प्रथम चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे चरण में जन्म हो तो माता को कष्ट तीसरे चरण में जन्म हो तो धन का नाश और चौथे चरण में जन्म हो तो शांति से शुभ हो जाता है
रेवती - नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म हो तो
राजा के समान,नक्षत्र के दूसरे चरण में जन्म हो तो मंत्री के समान,नक्षत्र के तीसरे चरण में जन्म हो तो धन युक्त,नक्षत्र के चौथे चरण में जन्म हो तो कई प्रकार के दुख होगे |
गंडात विचार - पंचमी दशमी पूर्णिमा व अमावस्या की अंतिम एक घड़ी,षष्टी,एकादशी प्रतिपदा की आरंभ कि एक घड़ी को गंडात कहते हैं,
आश्लेषा ज्येष्ठा,रेवती की अंतिम दो दो घड़ी तथा मघा मूल अश्वनी की प्रारंभ की दो दो घड़ी को नक्षत्र गंडात कहते हैं,
कर्क वृश्चिक मीन लग्न की अंतिम आधी आधी घड़ी तथा सिंह धनु मेष लग्न की आरंभ की आधी आधी घड़ी को लगन गंडात कहते हैं सरावली में लिखा है कि गंडात में जन्म लेने वाला बालक प्राय जीवित नहीं रहता है यदि जीवित रहे तो माता के लिए क्लेश कारक होता है किंतु स्वयं बहुत ऐश्वर्या साली होता है गंड मूल की शांति लोकाचार यह है कि गंड मूल नक्षत्र में जन्मे बालक को 27 दिन बाद जब उन्हें नक्षत्र आए तो शांति करानी चाहिए जिस नक्षत्र में बालक का जन्म हो यदि जातक के माता-पिता भाई-बहन का वही नक्षत्र हो तो भी शांति करानी चाहिए इसे नक्षत्र शांती कहते है
अभिजीत मुहूर्त
अभिजीत मुहूर्त प्त्येक दिन का मध्यम भाग है,अनुमानत:12:00 बजे अभिजीत मुहूर्त कहलाता है जो मध्यम काल से पहले और बाद में दो घड़ी, 48 मिनट का होता है दिन मान के आधे समय को स्थानीय सूर्योदय के समय में जोड़ दें तो मध्यम काल स्पष्ट हो जाता है जिसमें 24 मिनट घटाने और चाबी ने 24 मिनट बढ़ाने पर अभिजीत का प्रारंभ काल और समाप्ति काल निकल आता है इस अभिजीत काल में लगभग सभी दोषों के निवारण करने की अद्भुत शक्ति है जब मुंडन आदि शुभ कार्यों के लिए शुभ लगन में ना मिल रहा हो तो अभिजीत मुहूर्त काल में शुभ कार्य करने का किए जा सकते हैं
मूल नक्षत्र विचार अप्रैल - 2021
दिशाशूल
दिशाशूल क्या होता है ? इसके बारे मे सम्पूर्ण जानकारी
दिशाशूल क्या होता है ? क्यों बड़े बुजुर्ग तिथि देख कर आने जाने की रोक टोक करते हैं ? आज की युवा पीढ़ी भले ही उन्हें आउटडेटेड कहे ..लेकिन बड़े सदा बड़े ही रहते हैं ..इसलिए आदर करे उनकी बातों का ;दिशाशूल समझने से पहले हमें दस दिशाओं के विषय में ज्ञान होना आवश्यक है| हम सबने पढ़ा है कि दिशाएं ४ होती हैं |१) पूर्व २) पश्चिम ३) उत्तर ४) दक्षिण
परन्तु जब हम उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं तो ज्ञात होता है कि वास्तव में दिशाएँ दस होती हैं |१) पूर्व२) पश्चिम३) उत्तर४) दक्षिण५) उत्तर -
पूर्व६) उत्तर - पश्चिम७) दक्षिण – पूर्व८) दक्षिण – पश्चिम९) आकाश१०) पाताल हमारे सनातन धर्म के ग्रंथो में सदैव १० दिशाओं का ही वर्णन किया गया है,जैसे हनुमान जी ने युद्ध इतनी आवाज की कि उनकी आवाज दसों दिशाओं में सुनाई दी | हम यह भी जानते हैं कि प्रत्येक दिशा के देवता होते हैं |
दसों दिशाओं को समझने के पश्चात अब हम बात करते हैं वैदिक ज्योतिष की |ज्योतिष शब्द “ज्योति” से बना है जिसका भावार्थ होता है “प्रकाश” |वैदिक ज्योतिष में अत्यंत विस्तृत रूप में मनुष्य के जीवन की हरपरिस्तिथियों से सम्बन्धित विश्लेषण किया गया है कि मनुष्य यदि इसको तनिकभी समझले तो वह अपने जीवन में उत्पन्न होने वाली बहुत सी समस्याओं से बच सकता है और अपना जीवन सुखी बना सकता है |
दिशाशूल क्या होता है ?
दिशाशूल वह दिशा है जिस तरफ यात्रा नहीं करना चाहिए | हर दिन किसी एक दिशा की ओर दिशाशूल होता है |
1 ) रविवार को पश्चिम,दक्षिण-पश्चिम
2 ) सोमवार, पूर्व,दक्षिण-पूर्व
3 ) मंगलवार को उत्तर-पश्चिम
४ ) बुधवार को उत्तर-पूर्व
५ ) मंगलवार और बुधवार को उत्तर
४) गुरूवार को दक्षिण,दक्षिण-पूर्व
6 ) शुक्रवार को पूर्व,पश्चिम,दक्षिण-पश्चिम
७ ) शनिवार को उत्तर-पूर्व
परन्तु यदि एक ही दिन यात्रा करके उसी दिन वापिस आ जाना हो तो ऐसी दशा में दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है | परन्तु यदि कोई आवश्यक कार्य हो ओर उसी दिशा की तरफ यात्रा करनी पड़े, जिस दिन वहाँ दिशाशूल हो तो यह उपाय करके यात्रा कर लेनी चाहिए रविवार-दलिया और घी खाकर,सोमवार-दर्पण देख कर,मंगलवार-गुड़ खा कर,बुधवार -तिल,धनिया खा कर गुरूवार-दही खा कर,शुक्रवार-जौ खा कर,शनिवार-अदरक अथवा उड़द की दाल खा कर साधारणतया दिशाशूल का इतना विचार नहीं किया जाता परन्तु यदि व्यक्ति के जीवन का अति महत्वपूर्ण कार्य है तो दिशाशूल का ज्ञान होने से व्यक्ति मार्ग में आने वाली बाधाओं से बच सकता है | आशा करते हैं कि आपके जीवन में भी यह ज्ञान उपयोगी सिद्ध होगा तथा आप इसका लाभ उठाकर अपने दैनिक जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे।
दिशाओ के देवता व ग्रह
पंचक विचार अप्रैल - 2021
पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहे पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्र का प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार - दिनांक 07 को 14-59 से दिनांक 12 को 11-28 बजे तक पंचक हैं।
ज्वालामुखी योग
पड़वा मे तज मूल को,पंचमी भरनी धार,नवमी रोहिणी,कृतिका अष्टम तिथि विचार ||
दसवीं में अश्लेषा तू तज कहता साच बुरी तिथि नक्षत्र ये है ज्वालामुखी पांच |
भद्रा विचार अप्रैल - 2021
भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य में किसी श्रेष्ठ जानकार पंडित जी से विचार कर लेना चाहिए |
भारतीय व्रत और उत्सव अप्रैल -2021
दिनांक 2 रंग पंचमी,एकनाथ षष्ठी,दिनांक 3 शीतला सप्तमी,दिनांक 4 शीतला अष्टमी, बसोड़ा, दिनांक 7 पापमोचनी एकादशी, दिनांक 9 प्रदोष व्रत, दिनांक 10 मास शिवरात्रि, दिनांक 12 सोमवती अमावस्या,दूसरा शाही स्नान कुंभ हरिद्वार,दिनांक 13 नवरात्र प्रारंभ, बैसाखी संवत 2078 दिनांक 14 संक्रांति पुणय,तीसरा शाही स्नान कुंभ हरिद्वार, दिनांक 15 मत्स्य जयंती, गौरी तीज ,दिनांक 16 विनायक चतुर्थी व्रत,दिनांक 17 लक्ष्मी पंचमी,दिनांक 18 यमुना षष्ठी,दिनांक 20 दुर्गा अष्टमी, श्री राम नवमी चैत्र नवरात्र पूर्ण,दिनांक 23 कामदा एकादशी व्रत,दिनांक 24 प्रदोष व्रत,दिनांक 26 पूर्णिमा, हनुमान जयंती वैशाख स्नान प्रारंभ, श्री गणेश चतुर्थी व्रत।
स्वर्ग से सुंदर
बेटा... मैं तुम्हारे मामा के घर जा रही हूं।क्यों मां, और तुम आजकल मामा के घर बहुत जा रही हो ... तुम्हारा मन वहां लग रहा तो चली जाओ ... मां तुम ये पैसे रख लो ... तुम्हारे काम आ जाएगे।मां का मन भर आया उसे आज अपने दिए संस्कार लौटते नजर आ रहे थे।जब मोहन स्कूल जाता था ... वह मां से जेब खर्च लेने में हमेशा हिचकता था क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी पिता जी मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से घर चला पाते थे ... पर मां फिर भी उसकी जेब में कुछ सिक्के डाल देती थी ... जबकि वह बार-बार मना करता था।पिता जी मां को हमेशा कहते थे।तुम इसे बिगाड़ कर ही मानोगी ... पर मां हमेशा हंसकर टाल जाती थी,पत्नी का स्वभाव भी उसकी मां की तरफ कुछ खास अच्छा नहीं था वह रोज कहासुनी करती थी ... उसे ये बडो से टोका-टाकी पसन्द नही थी ... बच्चे भी दादी के कमरे मे नही जाते, मुझे भी देर से आने के कारण बात करने का समय नही मिलता।एक दिन मां का पीछा किया ... आखिर मां को मामा के घर जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है। वह यह देख कर हैरान रह गया कि मां तो मामा के घर जाती ही नहीं है।वह तो स्टेशन पर एकान्त में एक पेड़ के सहारे घंटों बैठी रहती थी।तभी पास खड़े एक बजुर्ग, जो यह सब देख रहे थे उन्होंने बोला ... बेटा ... क्या देख रहे हो।जी ... वो अच्छा तुम उस बूढ़ी औरत को देख रहे हो ... वो यहां अक्सर आती है और घंटों पेड़ तले बैठ कर सांझ ढले अपने घर लौट जाती है अच्छे घर की लगती है। बेटा ... ऐसी एक नही अनेकों बुजुर्ग मांए बुजुर्ग पिता तुम्हें यहां आसपास मिल जाएंगे।जी, मगर क्यो
बेटा ... जब घर में बड़े-बुजुर्गों को प्यार नही मिलता ... उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता हैं तो वे यहां वहां बैठ कर अपना समय काट देते है।
वैसे क्या तुम्हें पता है ... बुढ़ापे में इन्सान का मन बिल्कुल बच्चे जैसा हो जाता है उस समय उन्हें अधिक प्यार और सम्मान की जरूरत पड़ती है पर परिवार के सदस्य इस बात को समझ नहीं पाते वो यहीं समझते हैं इन्होंने अपनी जिंदगी जी ली है...फिर उन्हें अकेला छोड देते है कही साथ ले जाने से कतराते है, बात करना तो दूर अक्सर उनकी राय भी उन्हें कड़वी लगती है जबकि सभी बुजुर्ग तो अपने बच्चों को अपने अनुभवों से आनेवाले संकटों और परेशानियों से बचाने के लिए सलाह देते है।
घर लौट कर किसी से कुछ नहीं कहा। जब मां लौटी वह घर के सभी सदस्यों को देखता रहा।
किसी को भी मां की चिन्ता नही थी मां से कोई बात नही करता कोई हंसता खेलता नही था, जैसे मां घर मे हो ही नही ऐसे परिवार में पत्नी बच्चे सभी मां को इग्नोर करते हुए दिखे।सबको राह दिखाने के लिऐ आखिर उसने भी अपनी पत्नी और बच्चों से बोलना बन्द कर दिया ... वो काम पर जाता और वापस आता किसी से कोई बातचीत नही ... बच्चे पत्नी बोलने की कोशिश भी करते तो वह भी इग्नोर कर काम मे डूबे रहने का नाटक करता।..तीन दिन मे सभी परेशान हो उठे ...पत्नी,बच्चे इस उदासी का कारण जानना चाहते थे.।मोहन ने अपने परिवार को अपने पास बिठाया।उन्हें प्यार से समझाया कि मैंने तुम से चार दिन बात नहीं की तो तुम कितने परेशान हो गए। अब सोचो तुम मां के साथ ऐसा व्यवहार करके उन्हें कितना दुख दे रहे हो ।मेरी मां मुझे जान से प्यारी है जैसे तुम्हारी माँ और फिर मां के अकेले स्टेशन जाकर घंटों बैठकर रोने की बात छुपा गया।सभी को अपने बुरे व्यवहार का खेद था। उसदिन जैसे ही मां शाम को घर लौटी।सभी बच्चे उनसे लिपट गए ...
दादी आज हम आपके पास बैठेंगे ... कोई किस्सा कहानी सुनाओ ना।
मां की आँखें भीग गई वो बच्चों को लिपटकर उन्हें प्यार करने लगी और फिर जो किस्से कहानियों का दौर शुरू हुआ वो घंटों चला इस बीच मोहन की पत्नी उनके लिए फल तो कभी चाय नमकीन लेकर आती मां बच्चों और मोहन के साथ स्वयं भी खाती और बच्चों को भी खिलाती अब घर का माहौल पूरी तरह बदल गया था।
एक दिन सुबह सुबह मोहन पत्नी और मां को एक साथ बैठे देखकर जोर से बोला ... मां ... क्या बात आजकल मामा के घर नहीं जा रही हो ...नही बेटा अब तो अपना घर ही स्वर्ग लगता है ...सच मां... मोहन मां को देखते हुए बोला मां बहु को सीने से लगाकर बोली ..हां स्वर्ग से भी सुंनदर
सर्वार्थ सिद्धि योग अप्रैल -2021
दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी शुभ मुहूर्त का अभाव हो था किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक है
शुभ विवाह मुहूर्त - 2021
राहू काल
राहुकाल - राहुकाल दक्षिण भारत की देन है, दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है
शनि साढ़ेसाती एवं ढैय्या
क्या है शनि साढ़ेसाती एवं ढैय्या जब शनि किसी जातक की जन्म राशि से द्वादश,प्रथम या द्वितीय स्थान में हो तो शनि की प्रस्तुत गोचर स्थिति शनि साढ़ेसाती कहलाती है | इसके प्रभाव स्वरूप जातक\जातिका को मानसिक संताप,शारीरिक कष्ट,कलह क्लेश,आर्थिक परेशानियां,आय कम व खर्च की अधिकता,रोग व शत्रु भय,बनते कार्य में विघ्न बाधाएं,संतान एवं परिवार संबंधी परेशानियां उत्पन्न होती है | प्रत्येक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक संचार करता है | शनि वक्री-मार्गी गति के कारण कई वर्षों के काल में न्यूनता-अधिकता भी होती रहती है | शनि किस राशि पर संचरित होता है उससे पहले बारहवे में और दूसरे भाव में स्थित राशियों पर विशेष प्रभावित करता है | इसी को शनि की साढ़ेसाती कहा जाता है |
शनि की ढैय्या - गोचरवश शनि चंद्र राशि से चौथे स्थान पर संचार करता है तब शनि की ढैय्या कहलाती है | यह भी शनि के किसी राशि संचार के अनुसार ढाई वर्ष के लिए होती है | इसका प्रभाव भी अशुभ माना गया है | शनि की ढैय्या के प्रभाव स्वरूप जातक/जातिका को वृथा दौड़-धूप,धन हानि अनावश्यक खर्च, गुप्त चिंताएं, रोग शोक, क्लेश,बंधु विरोध, कार्य में विघ्न बाधाओं एवं आर्थिक उलझनों का सामना करना पड़ता है |
शुभ तिथियां
सोमवती अमावस्या,रविवारी सप्तमी,मंगलवारी चतुर्थी,बुधवारी अष्टमी-ये चार तिथियाँ सूर्यग्रहण के बराबर कही गयी हैं।इनमें किया गया जप-ध्यान,स्नान,दान व श्राद्ध अक्षय होता है।(शिव पुराण,विद्यश्वर संहिताः अध्याय 10)
चौघड़िया मुहूर्त
चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है,अगर सूर्य उदय का समय प्रातः है 6:00 बजे माने तो चौघड़िया निम्नलिखित है
ग्रह स्थिति अप्रैल - 2021
ग्रह स्थिति - दिनांक 2 को दिनांक के गुरु कुंभ में,दिनांक 6 बुध पुर्वास्त ,दिनांक 10 शुक्र मेष में , दिनांक 14 सूर्य मेष में ,मंगल मिथुन में ,दिनांक 16 बुध मेष में ,दिनांक 19 शुक्र पश्चिमौदय |
जन्म कुंडली व हस्त रेखा विशेषज्ञ
जन्म कुंडली बनवाने व दिखाने के लिए संपर्क करें लिखे।
जन्म कुंडली के विषय में जानना चाहते हैं तो कृपया जन्म तिथि,
जन्म समय व जनम स्थान अवश्य लिखें।
शर्मा जी - 9560518227
सुर्य उदय- सुर्य अस्त अप्रैल-2021
पिता का आशीर्वाद
गुजरात के खंभात के एक व्यापारी की यह सत्य घटना है। जब मृत्यु का समय सन्निकट आया तो पिता ने अपने एकमात्र पुत्र धनपाल को बुलाकर कहा कि बेटा - *मेरे पास धनसंपत्ति नहीं है कि मैं तुम्हें विरासत में दूं। पर मैंने जीवनभर सच्चाई और प्रामाणिकता से काम किया है। तो मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि, तुम जीवन में बहुत सुखी रहोगे और धूल को भी हाथ लगाओगे तो वह सोना बन जायेगी।*
बेटे ने सिर झुकाकर पिताजी के पैर छुए।
पिता ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और संतोष से अपने प्राण त्याग कर दिए।
अब घर का खर्च बेटे धनपाल को संभालना था। उसने एक छोटी सी ठेला गाड़ी पर अपना व्यापार शुरू किया। धीरे धीरे व्यापार बढ़ने लगा। एक छोटी सी दुकान ले ली। व्यापार और बढ़ा।
अब नगर के संपन्न लोगों में उसकी गिनती होने लगी।
उसको विश्वास था कि यह सब मेरे पिता के आशीर्वाद का ही फल है। क्योंकि, उन्होंने जीवन में दु:ख उठाया, पर कभी धैर्य नहीं छोड़ा !
श्रद्धा नहीं छोड़ी !
प्रामाणिकता नहीं छोड़ी !
इसलिए उनकी वाणी में बल था। और उनके आशीर्वाद फलीभूत हुए। और मैं सुखी हुआ।
उसके मुंह से बारबार यह बात निकलती थी।
एक दिन एक मित्र ने पूछा : *तुम्हारे पिता में इतना बल था, तो वह स्वयं संपन्न क्यों नहीं हुए ? सुखी क्यों नहीं हुए ?*
धर्मपाल ने कहा : *"मैं पिता की ताकत की बात नहीं कर रहा हूं। मैं उनके आशीर्वाद की ताकत की बात कर रहा हूं।"*
इस प्रकार वह बारबार अपने पिता के आशीर्वाद की बात करता, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया *बाप का आशीर्वाद !*
धनपालको इससे बुरा नहीं लगता ! वह कहता कि मैं अपने पिता के आशीर्वाद के काबिल निकलूं, यही चाहता हूं।
ऐसा करते हुए कई साल बीत गए। वह विदेशों में व्यापार करने लगा। जहां भी व्यापार करता, उससे बहुत लाभ होता
एक बार उसके मन में आया, कि मुझे लाभ ही लाभ होता है !! तो मैं एक बार नुकसान का अनुभव करूं।
तो उसने अपने एक मित्र से पूछा, कि ऐसा व्यापार बताओ कि जिसमें मुझे नुकसान हो।
मित्र को लगा कि इसको अपनी सफलता का और पैसों का घमंड आ गया है। इसका घमंड दूर करने के लिए इसको ऐसा धंधा बताऊं कि इस को नुकसान ही नुकसान हो।
तो उसने उसको बताया कि तुम भारत में *लोंग* खरीदो और जहाज में भरकर अफ्रीका के जंजीबार में जाकर बेचो
धर्मपाल को यह बात ठीक लगी।
जंजीबार तो लौंग का देश है। वहां से लौंग भारत में आते हैं और यहां 10-12 गुना भाव पर बिकते हैं।
भारत में खरीद करके जंजीबार में बेचें, तो साफ नुकसान सामने दिख रहा है।
परंतु धर्मपाल ने तय किया कि मैं भारत में लौंग खरीद कर, जंजीबार खुद लेकर जाऊंगा। देखूं कि पिता के आशीर्वाद कितना साथ देते हैं।
नुकसान का अनुभव लेने के लिए उसने भारत में लोंग खरीदे और जहाज में भरकर खुद उनके साथ जंजीबार द्वीप पहुंचा।
जंजीबार में सुल्तान का राज्य था।
धर्मपाल जहाज से उतरकर के और लंबे रेतीले रास्ते पर जा रहा था ! वहां के व्यापारियों से मिलने को।
उसे सामने से सुल्तान जैसा व्यक्ति पैदल सिपाहियों के साथ आता हुआ दिखाई दिया।
उसने किसी से पूछा कि *यह कौन है ?*
उन्होंने कहा कि *यह सुल्तान हैं।*
सुल्तान ने उसको सामने देखकर उसका परिचय पूछा।
उसने कहा, *मैं भारत के गुजरात के खंभात का व्यापारी हूं। और यहां पर व्यापार करने आया हूं।*
सुल्तान ने उसको व्यापारी समझ कर उसका आदर किया और उससे बात करने लगा।
धर्मपाल ने देखा कि सुल्तान के साथ सैकड़ों सिपाही हैं। परंतु उनके हाथ में तलवार, बंदूक आदि कुछ भी न होकर बड़ीबड़ी छलनियां है। उसको आश्चर्य हुआ। उसने विनम्रता पूर्वक सुल्तान से पूछा, *आपके सैनिक इतनी छलनी लेकर के क्यों जा रहे हैं।*
सुल्तान ने हंसकर कहा *"बात यह है, कि आज सवेरे मैं समुद्र तट पर घूमने आया था। तब मेरी उंगली में से एक अंगूठी यहां कहीं निकल कर गिर गई। अब रेत में अंगूठी कहां गिरी, पता नहीं। तो इसलिए मैं इन सैनिकों को साथ लेकर आया हूं। यह रेत छानकर मेरी अंगूठी उसमें से तलाश करेंगे।*
धर्मपाल ने कहा - *अंगूठी बहुत महंगी होगी।*
सुल्तान ने कहा - *"नहीं ! उससे बहुत अधिक कीमत वाली अनगिनत अंगूठी मेरे पास हैं। पर वह अंगूठी एक फकीर का आशीर्वाद है।"*
"मैं मानता हूं कि मेरी सल्तनत इतनी मजबूत और सुखी उस फकीर के आशीर्वाद से है। इसलिए मेरे मन में उस अंगूठी का मूल्य सल्तनत से भी ज्यादा है।"*
इतना कह कर के सुल्तान ने फिर पूछा *"बोलो सेठ- इस बार आप क्या माल ले कर आये हो।"*
धर्मपाल ने कहा कि - *लौंग !!*
लों ऽ ग !!!*
सुल्तान के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
यह तो लौंग का ही देश है सेठ। यहां लौंग बेचने आये हो ? किसने आपको ऐसी सलाह दी। जरूर वह कोई आपका दुश्मन होगा। यहां तो एक पैसे में मुट्ठी भर लोंग मिलते हैं।*
यहां लोंग को कौन खरीदेगा ? और तुम क्या कमाओगे ?*
धर्मपाल ने कहा *"मुझे यही देखना है, कि यहांभी मुनाफा होता है या नहीं।"*
"मेरे पिता के आशीर्वाद से आज तक मैंने जो धंधा किया, उसमें मुनाफा ही मुनाफा हुआ। तो अब मैं देखना चाहता हूं कि उनके आशीर्वाद यहां भी फलते हैं या नहीं।"*
सुल्तान ने पूछा *-पिता के आशीर्वाद ? इसका क्या मतलब ?*
धर्मपाल ने कहा *"मेरे पिता सारे जीवन ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम करते रहे। परंतु धन नहीं कमा सकें। उन्होंने मरते समय मुझे भगवान का नाम लेकर मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए थे, कि तेरे हाथ में धूल भी सोना बन जाएगी।*
ऐसा बोलते-बोलते धर्मपाल नीचे झुका और जमीन की रेत से एक मुट्ठी भरी और सम्राट सुल्तान के सामने मुट्ठी खोलकर उंगलियों के बीच में से रेत नीचे गिराई तो....
धर्मपाल और सुल्तान दोनों का आश्चर्य का पार नहीं रहा।
उसके हाथ में एक हीरेजड़ित अंगूठी थी।
यह वही सुल्तान की गुमी हुई अंगूठी थी।
अंगूठी देखकर सुल्तान बहुत प्रसन्न हो गया। बोला, *वाह खुदा आप की करामात का पार नहीं। आप पिता के आशीर्वाद को सच्चा करते हो।*
धर्मपाल ने कहा : *"फकीर के आशीर्वाद को भी वही परमात्मा सच्चा करता है।"*
सुल्तान और खुश हुआ। धर्मपाल को गले लगाया और कहा *मांग सेठ।आज तू जो मांगेगा मैं दूंगा।*
धर्मपाल ने कहा *"आप 100 वर्ष तक जीवित रहो और प्रजा का अच्छी तरह से पालन करो। प्रजा सुखी रहे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।"*
सुल्तान और अधिक प्रसन्न हो गया। उसने कहा, *सेठ तुम्हारा सारा माल में आज खरीदता हूं और तुम्हारी मुंहमांगी कीमत दूंगा।*
सीख :* इस कहानी से शिक्षा मिलती है, कि पिता के आशीर्वाद हों, तो दुनिया की कोई ताकत कहीं भी तुम्हें पराजित नहीं होने देगी। पिता और माता की सेवा का फल निश्चित रूप से मिलता है। आशीर्वाद जैसी और कोई संपत्ति नहीं।
बालक के मन को जानने वाली मां और भविष्य को संवारने वाले पिता यही दुनिया के दो महान ज्योतिषी है। बस इनका सम्मान करो ! तो तुमको भगवान के पास भी कुछ मांगना नहीं पड़ेगा। अपने बुजुर्गों का सम्मान करें ! यही भगवान की सबसे बड़ी सेवा है।
मनुष्य की चाल धन से भी बदलती है और धर्म से भी बदलती है..जब धन संपन्न होता है तब अकड़ कर चलता है, और जब धर्म संपन्न होता है तो विनम्र होकर चलता है..!!जिंदगी भले छोटी देना मेरे भगवन्..मगर देना ऐसी -,कि सदियों तक लोगो के दिलों मे -जिंदा रहूँ और हमेशा अच्छे कर्म कर सकूं..!!
ॐ श्री श्याम देवाय नम
गौर पूर्णिमा महोत्सव
~करुणा ऋषि
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सांय काल में महाप्रभु चैतन्य, गौरांग प्रभु का अविर्भाव दिवस होने के कारण इस पूर्णिमा का विशेष महत्व है| इस पूर्णिमा को गौरांग प्रभु जी के प्राकट्य दिवस के रूप में अत्यंत श्रद्धा और भक्ति से ओतप्रोत होकर वैष्णवजन मनाते हैं| वे इस कलयुग के राजा हैं| द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के रूप में आए और धर्म की स्थापना हेतु महाभारत के युद्ध में महात्मा अर्जुन के सारथी बने, विषाद से युक्त अर्जुन का पथ प्रदर्शन किया व महान श्रीमद्भगवद्गीता का सुंदर संदेश दे, जनमानस को अपनी अमृतवाणी का रसपान करवाया|
भगवान हर युग में आते हैं, इस संसार के बद्ध जीवों का उद्धार करने और असुरों का विनाश करने के लिए| त्रेता युग में श्री राम रूप में आए मर्यादा पुरषोत्तम लीला की, आदर्श पुत्र, पिता पति,भाई और स्वामी होने का संदेश दिया| द्वापर में श्री कृष्ण रूप में माधुर्य लीला पुरुषोत्तम हो सखियों, सखाओ गोप -ग्वालों व राधा रानी संग प्रेम का संदेश दिया| कलयुग में 500 वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु के रूप में जो की कृष्ण स्वयं ही हैं लेकिन भक्त भाव में, राधा के भाव में,प्रेम पुरुषोत्तम बनकर प्रकट हुए| जो प्रेम रस से ओतप्रोत हरि कृपा बाँटने के लिए ही आए हैं| "कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा"| कलयुग में काले मन वाले लोगों को हरिनाम देकर चाहे कोई पात्रता हो या ना हो,अयोग्य से अयोग्य जीव को भी प्रेमा भक्ति प्रदान कर हरि भक्त बनाने आये| अहेतु की कृपा बरसाने वाले, पतितों को पावन करने वाले, अपने आचरण को आदर्श रूप में दिखाकर मनोवृत्तियों को परिवर्तन करने वाले, जघन्य पापियों को भी हरि नाम का हीरा प्रदान कर, हीरा बनाने वाले चैतन्य महाप्रभु(गौरांग) केवल और केवल हरि नाम का रसास्वादन करवाने आए|
जिस प्रकार श्री कृष्ण जी की जन्माष्टमी अत्यंत हर्ष उल्लास व भव्य स्तर पर संपूर्ण विश्वभर में मनाई जाती है उसी प्रकार गौरांग प्रभु का जन्म दिवस गौर पूर्णिमा को भव्य स्तर पर मनाया जाना चाहिए| यह अभी तक इसलिए संभव नहीं हो पाया क्योंकि इनका अवतार छिन्न अवतार है| छिपा हुआ अवतार है | प्रभुपाद जी इस्कॉन के संस्थापक, उन्होंने यह बीड़ा उठाया और संकल्प लिया था कि गौरांग महाप्रभु का जन्म दिवस आने वाले वर्षों में श्री कृष्ण जन्माष्टमी की भांति भव्य स्तर पर मनाना और जनमानस को अवगत करवाना ही होगा तभी उनके कृष्ण भावनामृत प्रचार आंदोलन की सफलता सिद्ध होगी|
गौरांग महाप्रभु पहले ऐसे अवतार हैं जो स्वयं साधना व आराधना करते हैं| महाप्रभु हमें आराधना सिखाने हेतु इस मृत्युलोक में आए| वे स्वयं श्रीकृष्ण की साधना,जप,भजन, कीर्तन व ध्यान करते हैं|भगवान गौर लीला "परिशिष्ट लीला" है|भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं को समझने के लिए और कृष्णा के लिए हृदय में दिव्य प्रेम को उद्धृत करने हेतु वे स्वयं के उदाहरण से हमें समझाते हैं| वैष्णव आचरण को समझाते हैं कि अलग-अलग परिस्थितियों में,बाधा आ जाने पर कृष्ण भक्ति व साधना को किस प्रकार सतत करते रहना है| श्री कृष्ण ब्रज में माधुर्य भाव में रहते हैं, बैकुंठ व द्वारका में द्वारकाधीश के रूप में ऐश्वर्याशाली भाव में रहते हैं और जहाँ गौरांग प्रभु का जन्म नवदीप में हुआ वहाँ औदार्य भाव (ओवरफ्लो मर्सी) के भाव में रहते है|
गौर वर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग,गौर हरि , गौर सुंदर आदि भी कहते थे| इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व माँ का नाम शची देवी था| निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे| साथ ही अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे| यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विशंभर था परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे| चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 1486, 18 फरवरी की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया गांव) में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है| इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था| एक अद्भुत बात यह भी है कि ये अपनी माँ के गर्भ में 13 महीने रहे| इनकी कुंडली बनाते हुए ज्योतिषी ने कह दिया था कि यह तो कोई अद्भुत शक्ति हैं, महान पुरुष बनेगा। बाल काल की इनकी लीलाओं को देखकर कोई भी हतप्रभ रह जाता था| एक बार यह बहुत ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे, माता चुप करा-करा थक गई, यह चुप ना हुए लेकिन जब मां शची ने "हरि बोल राधा माधव हरि -हरि बोल" प्रेम पूर्वक बोला तो श्रवण करते ही शांत हो गए| माँ को तो यह सुगम यंत्र मिल गया था, जब भी वे रोते माँ यही गा-गाकर शांत कर देती| एक और प्रसंग भी प्रेरणादायक है, एक दिन की बात है, बालक के स्वभाव को जांचने के लिए पिता ने उनके सामने खिलौने, रुपए और भगवत गीता रख दी| बोले, " बेटा इनमें से कोई एक चीज़ उठा लो"| बालक निमाई ने भगवत गीता उठा ली| पिता समझ गए कि यह निमाई श्री कृष्ण का बड़ा भक्त होगा|
एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाए गए| उनके चारों ओर सांप कुंडली मार कर बैठा हुआ था और वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे| प्रेम के भाव आवेश के कारण बिना जात-पात,ऊंच-नीच का भेद किए सभी से प्रेम करते थे जबकि उस समय बंगाल ही क्या पूरे देश में ही छुआछूत की भयंकर बीमारी थी| महाप्रभु ने सभी जाति के लोगों को हरिनाम का अनमोल रत्न देकर वैष्णव बनाया| इनका विवाह 16 वर्ष की आयु में लक्ष्मीप्रिया से हुआ तथा पुनः विवाह विष्णुप्रिया से हुआ | चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को वृंदावन आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया था| वृंदावन करीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है| बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा को और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए विधवाओं के शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हुई| हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे,हरे-राम, हरे-राम, राम-राम हरे-हरे| यह 16 अक्षर का कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है| इसे तारक ब्रह्ममहामंत्र कहा गया व कलयुग में जीव आत्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था| जब वे कीर्तन करते थे तो लगता था मानो ईश्वर का आवहान कर रहे हैं|
सन 1510 में संत प्रवर श्रीपाद केशव भारती से 24 वर्ष की आयु में संन्यास की दीक्षा लेने के पश्चात निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया| इसके पश्चात इन्होंने गृह त्याग दिया| पश्चिम बंगाल में अद्वैत आचार्य और नित्यानंद को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलाकर चैतन्य जी नीलांचल (कटक) में चले गए और वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथजी की भक्ति और पूजा में लगे रहे|
वह प्रभु प्रेम की मस्ती में "श्री कृष्ण,श्री कृष्ण मेरे प्राणाधार,श्री हरि तुम कहाँ हो" पुकारते हुए कीर्तन करने लगे| उनका प्रभु प्रेम और विलक्षण व्यक्तित्व लोगों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता|सारे देश का और तीर्थो का भ्रमण किया |सब को हरिनाम कीर्तन का प्रसाद बांटा|साधु सन्यासी और उनके शिष्यों की संख्या दिनों दिन बढ़ने लगी| वे कृष्ण भक्ति में ऐसे नाचते और गाते थे कि सारा सुध-बुध खो देते थे| किसी की कोई योग्यता न भी हो तो भी कृपा का आनंद देते थे|कहते थे "पात्र-अपात्र विचार नहीं, नहीं स्थाने-अस्थाने,जहाँ मिले देवे प्रेम दाने"|
श्री चैतन्य महाप्रभु के जीवन का एकमात्र लक्ष्य लोगों में कृष्ण-भक्ति और प्रेम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार करना था| उनकी दृष्टि में सभी धर्म बराबर हैं, वह सभी धर्मों का आदर करते थे| महाप्रभु चैतन्य के जीवन पर आधारित प्रमुख ग्रंथ में चैतन्य चरितामृथम, चैतन्य भागवत और चैतन्य मंगल प्रमुख माने जाते हैं|
चैतन्य महाप्रभु सन 1515 ईस्वी में वृंदावन आए और यहाँ कृष्ण-भक्ति में कुछ वर्षों तक समय बिताया| कहते हैं कि 14 जून 1534 ईस्वी में जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा के दिन उन्होंने अपने भौतिक शरीर का त्याग किया|
चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रारंभ किए गए कृष्ण-भक्ति और संकीर्तन का व्यापक व सकारात्मक प्रभाव पश्चिम जगत तक में है|कहते हैं कि यदि चैतन्य महाप्रभु नहीं होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता|वैष्णव लोग तो इन्हें कृष्ण का, राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं| गौरांग प्रभु ने कलयुग के जीवों के मंगल के लिए ही उन्हें श्री कृष्ण प्रेम प्रदान किया,वह सांसारिक वस्त प्रदाता नहीं बल्कि करुणा और भक्ति के प्रदाता हैं|उनके द्वारा दी गई महत्वपूर्ण प्रेरणायें:-
1) कृष्णा ही सर्वश्रेष्ठ परम सत्य है|
2)कृष्णा ही सभी ऊर्जाओं को प्रदान करता है|
3)कृष्णा ही रस का सागर है|
4)सभी जीव भगवान के ही छोटे-छोटे भाग हैं|
5) जीव अपने तटस्थ स्वभाव की वजह से ही मुश्किलों में आते हैं|
6)अपने तटस्थ स्वभाव की वजह से ही जीव सभी बंधनों से मुक्त हो पाते हैं|
7)जीव इस दुनिया और एक जैसे भगवान से पूरी तरह से अलग होते हैं|
8)पूर्ण और शुद्ध श्रद्धा ही जीवों का सबसे बड़ा अभ्यास है|
9) कृष्णा का शुद्ध प्रेम ही सर्व श्रेष्ठ लक्ष्य है|
चैतन्य महाप्रभु के अनुसार भक्ति ही मुक्ति का साधन है श्री चैतन्य महाप्रभु की पूजा करने के लिए सबको मिलकर महामंत्र कीर्तन करना चाहिए इसी से परमेश्वर श्री कृष्ण को प्रसन्न करने का सर्वोच्च धार्मिक प्रयोजन पूरा कर सकते हैं| चैतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम सिद्ध प्रचारक हुए हैं जिन्हें 'उद्धबोधक' अवतार भी कहा जाता है| वे अपने से पूर्व के अवतारों की ओर इंगित कर प्रेरित करते हैं| तीन कारणों से महाप्रभु इस धरा पर आए:-
1)गोपियाँ मुझसे प्रेम क्यों करती हैं?
2)इनमें इतनी प्रेम की प्रगाढ़ता कैसे है?
3)इनको जो आनंद मेरे से प्रेम करके मिलता है उस आनंद का आस्वादन करने हेतु|
प्रेम की पराकाष्ठा क्या है? क्यों होता है प्रेम? प्रेम करके आनंद की कैसी अनुभूति होती है?विरह में भी प्रेम तत्व कैसा होता है? यह सब व्यवहारिक रूप से जानने हेतु चैतन्य महा प्रभु भक्त के माधुर्य भाव में आए और हम सभी को कृष्ण प्रेम का आनंद लुटाकर, अमृत पान करना और कराना सिखा गए|
हरे कृष्णा
पुण्य शाली व्यक्ति
आपके घर में जब तक कोई पुण्य शाली व्यक्ति रहता है, तब तक आपके घर में कोई नुकसान नहीं कर सकता |
जब तक विभीषणजी लंका में रहते थे , तब तक रावण ने कितना भी पाप किया, परंतु विभीषणजी के पुण्य के कारण रावण सुखी रहा।परंतु जब विभीषणजी जैसे भगवत वत्सल भक्त को लात मारी और लंका से निकल जाने के लिए कहा, तब से रावण का विनाश होना शुरू हो गया।अंत में रावण की सोने की लंका का दहन हो गया और रावण के पीछे कोई रोने वाला भी नहीं बचा।
ठीक इसी तरह हस्तिनापुर में जब तक विदुरजी जैसे भक्त रहते थे , तब तक कौरवों को सुख ही सुख मिला।परंतु जैसे ही कौरवों ने विदुरजी का अपमान करके राज्यसभा से चले जाने के लिए कहा और विदुर जी का अपमान किया, तब भगवान श्री कृष्ण जी ने विदुरजी से कहा कि काका आप अभी तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान करिए और भगवान के तीर्थ स्थानों पर यात्रा करिए।
और भगवान श्री कृष्णजी ने विदुरजी को तीर्थ यात्रा के लिए भेज दिया ,और जैसे ही विदुर जी ने हस्तिनापुर को छोड़ा , कौरवों का पतन होना चालू हो गया और अंत में राज भी गया और कौरवों के पीछे कोई कौरवों का वंश भी नहीं बचा।
इसी तरह हमारे परिवार में भी जब तक कोई भक्त और पुण्य शाली आत्मा होती है, तब तक हमारे घर में आनंद ही आनंद रहता है।
इसलिए भगवान के भक्तजनों का अपमान कभी न करें।
जीवन में उतार चढ़ाव तो आते रहेंगे
निधि
जीवन जीना नहीं भूलना
चाहे काँटे मिले राहों में
मुस्कुराना नहीं भूलना |
हर अंधेरे के बाद प्रकाश है
तू राह में चलना, ना भूलना |
गीत जीत का भी गूंजेगा
तू हार से डर
पथ ना भूलना |
तेरा साथी विश्वास है
साथ इस बात को नहीं भूलना |
अश्रु चाहें हों ननैन में
तू मुस्कुराना नहीं भूलना
हर राह में दीप प्रेम का
तू जलाना नहीं भूलना |
दुर्गा आरती
जय अम्बे गौरी मैया जय मंगल मूर्ति ।
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री ॥टेक॥
मांग सिंदूर बिराजत टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना चंद्रबदन नीको ॥जय॥
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्तपुष्प गल माला कंठन पर साजै ॥जय॥
केहरि वाहन राजत खड्ग खप्परधारी ।
सुर-नर मुनिजन सेवत तिनके दुःखहारी ॥जय॥
कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर राजत समज्योति ॥जय॥
शुम्भ निशुम्भ बिडारे महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥जय॥
चौंसठ योगिनि मंगल गावैं नृत्य करत भैरू।
बाजत ताल मृदंगा अरू बाजत डमरू ॥जय॥
भुजा चार अति शोभित खड्ग खप्परधारी।
मनवांछित फल पावत सेवत नर नारी ॥जय॥
कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती ।
श्री मालकेतु में राजत कोटि रतन ज्योति ॥जय॥
श्री अम्बेजी की आरती जो कोई नर गावै ।
कहत शिवानंद स्वामी सुख-सम्पत्ति पावै ॥जय॥
ॐ श्री श्याम देवाय नम
ॐ नम शिवाय
स्वामी,प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिए ग्लाक्शी प्रिंटर-106 F,कृष्णा नगर नए दिल्ली-29,A- 214 बुध नगर इंद्र पूरी नए दिल्ली ११००१२ से प्रकाशित, संपादक सतीश शर्मा
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