ठाकुर सुजान सिंह
रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना. 7 मार्च 1679 ई0 की बात है, ठाकुर सुजान सिंह अपने विवाह की बारात लेकर जा रहे थे, 22 वर्ष के सुजान सिंह किसी देवता की तरह लग रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो देवता अपनी बारात लेकर जा रहे हों.*
उन्होंने अपने दुल्हन का मुख भी नहीं देखा था, शाम हो चुकी थी इसलिए रात्रि विश्राम के लिए "छापोली" में पड़ाव डाल दिये. कुछ ही क्षणों में उन्हें गायों में लगे घुंघरुओं की आवाजें सुनाई देने लगी, आवाजें स्पष्ट नहीं थीं, फिर भी वे सुनने का प्रयास कर रहे थे, मानो वो आवाजें उनसे कुछ कह रही थी.*
*सुजान सिंह ने अपने लोगों से कहा, शायद ये चरवाहों की आवाज है जरा सुनो वे क्या कहना चाहते हैं. गुप्तचरों ने सूचना दी कि युवराज ये लोग कह रहे है कि कोई फौज "देवड़े" पर आई है. वे चौंक पड़े. कैसी फौज, किसकी फौज, किस मंदिर पे आयी है ?*
*जवाब आया "युवराज ये औरंगजेब की बहुत ही विशाल सेना है, जिसका सेनापति दराबखान है, जो खंडेला के बाहर पड़ाव डाल रखी है. कल खंडेला स्थित श्रीकृष्ण मंदिर को तोड़ दिया जाएगा. निर्णय हो चुका था. एक ही पल में सब कुछ बदल गया. विवाह के खुशनुमा चेहरे अचानक सख्त हो चुके थे, कोमल शरीर वज्र के समान कठोर हो चुका था. जो बाराती थे, वे सेना में तब्दील हो चुके थे, वे अपने सेना के लोगों से विचार विमर्श करने लगे. तब उनको पता चला कि उन के साथ केवल 70 सेना थी. तब वे रात्रि के समय में बिना एक पल गंवाए उन्होंने पास के गांव से कुछ आदमी इकठ्ठे कर लिए. लगभग 500 घुड़सवार अब उनके पास हो चुके थे.*
*अचानक उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी, जिसका मुख भी वे नहीं देख पाए थे, जो डोली में बैठी हुई थी. क्या बीतेगी उसपे, जिसने अपनी लाल जोड़े भी ठीक से नहीं देखी हो.*
*वे तरह तरह के विचारों में खोए हुए थे, तभी उनके कानों में अपनी माँ को दिए वचन याद आये, जिसमें उन्होंने राजपूती धर्म को ना छोड़ने का वचन दिया था, उनकी पत्नी भी सारी बातों को समझ चुकी थी, डोली की ओर उनकी दृष्टि गयी, उनकी पत्नी मेहँदी वाली हाथों को निकालकर इशारा कर रही थी. मुख पे प्रसन्नता के भाव थे, वो एक सच्ची क्षत्राणी के कर्तव्य निभा रही थी, मानो वो स्वयं तलवार लेकर दुश्मन पे टूट पड़ना चाहती थी, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता था. सुजान सिंह ने डोली के पास जाकर डोली को और अपनी पत्नी को प्रणाम किये और कहारों और नाई को डोली सुरक्षित अपने राज्य भेज देने का आदेश दे दिया और स्वयं खंडेला को घेरकर उसकी चौकसी करने लगे.*
*लोग कहते हैं कि मानो स्वयं कृष्ण उस मंदिर की चौकसी कर रहे थे, उनका मुखड़ा भी श्री कृष्ण की ही तरह चमक रहा था.*
*8 मार्च 1679 को दराबखान की सेना आमने सामने आ चुकी थी, महाकाल भक्त सुजान सिंह ने अपने इष्टदेव को याद किये और हर हर महादेव के जयघोष के साथ 10 हजार की मुगल सेना के साथ सुजान सिंह के 500 लोगो के बीच घनघोर युद्ध आरम्भ हो गया.*
*सुजान सिंह ने दराबखान को मारने के लिए उसकी ओर लपके और 40 मुगल सेना को मौत के घाट उतार दिए. ऐसे पराक्रम को देखकर दराबखान पीछे हटने में ही भलाई समझी, लेकिन ठाकुर सुजान सिंह रुकने वाले नहीं थे. जो भी उनके सामने आ रहा था वो मारा जा रहा था. सुजान सिंह साक्षात मृत्यु का रूप धारण कर के युद्ध कर रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो स्वयं महाकाल ही युद्ध कर रहे हों.*
*इस बीच कुछ लोगों की दृष्टि सुजान सिंह पे पड़ी, लेकिन ये क्या सुजान सिंह के शरीर में सिर तो है ही नहीं. लोगों को घोर आश्चर्य हुआ, लेकिन उनके अपने लोगों को ये समझते देर नहीं लगी कि सुजान सिंह तो कब के मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं. ये जो युद्ध कर रहे हैं, वे सुजान सिंह के इष्टदेव हैं. सबों ने मन ही मन अपना शीश झुकाकर इष्टदेव को प्रणाम किये.*
*अब दराबखान मारा जा चुका था, मुगल सेना भाग रही थी, लेकिन ये क्या, सुजान सिंह घोड़े पे सवार बिना सिर के ही मुगलों का संहार कर रहे थे.*
*उस युद्धभूमि में मृत्यु का ऐसा तांडव हुआ, जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों की 7 हजार सेना अकेले सुजान सिंह के हाथों मारी जा चुकी थी. जब मुगल की बची खुची सेना पूर्ण रूप से भाग गई, तब सुजान सिंह जो केवल शरीर मात्र थे, मंदिर का रुख किये.*
*इतिहासकार कहते हैं कि देखने वालों को सुजान के शरीर से दिव्य प्रकाश का तेज निकलता दिखाई दे रहा था. एक अजीब विश्मित करने वाला प्रकाश निकल रहा था, जिसमें सूर्य की रोशनी भी मन्द पड़ रही थी.*
*ये देखकर उनके अपने लोग भी घबरा गए थे और सबों ने एक साथ श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे, घोड़े से नीचे उतरने के बाद सुजान सिंह का शरीर मंदिर के प्रतिमा के सामने जाकर लुढ़क गया और एक शूरवीर योद्धा का अंत हो गया.*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें