🌷 विश्व की प्रथम भाषा संस्कृत है और उसके आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी की जयंती पर हार्दिक शुभकामनाएं🌷
महर्षि वाल्मीकि - विश्व की प्रथम भाषा संस्कृत है और उसके आदि कवि वाल्मीकि है। उनका आश्रम तमसा नदी के तट से १०० मीटर दूरी पर वर्तमान नेपाल में है। तमसा नदी के दूसरे तट पर भारत के बिहार प्रांत के पश्चिम चंपारण जिले में वाल्मीकि नगर है। वहां से नेपाल नदी को पैदल लांघकर जा सकते हैं। मैं जब तमसा नदी के पात्र में खड़ा होकर ऋषि वाल्मीकि का स्मरण करने लगा तो मेरे मन:चक्षु के सामने वह करुण दृश्य साकार हो उठा, जिसे देखकर वाल्मीकि जी के मुख से अनायास शोक प्रकट करने वाली अनुष्टुप छंद की रचना प्रस्फुटित हुई थी, जिसे आगे श्लोक यह नाम प्राप्त हुआ। ऐसे ऐतिहासिक स्थान पर पहुंच कर शरीर पर रोंगटे खड़े हो गये।
आगे ब्रह्मा जी के निर्देश पर वाल्मीकि जी ने २४ हजार श्लोकों का रामायण रचा। उसकी शैली को वैदर्भीय शैली कहते हैं। यह संस्कृत साहित्य की सरलतम शैली है। इसलिए थोड़ा संस्कृत आने पर रामायण को पढ़ा और समझा जा सकता है। इसका और एक कारण यानि रामायण की कथा हमें पहले से ज्ञात होना भी है। सभी हिन्दुओं को निवेदन है कि इस बहुमूल्य ग्रन्थ के लेखक का स्मरण कर वाल्मीकि जयंती के दिन से रामायण पढ़ना प्रारम्भ करें। शरद पुर्णिमा को वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है।
वाल्मीकि की लिखी रामायण को इसलिए पढ़ना चाहिए कि वह भारत का इतिहास है। वाल्मीकि जी रामचंद्र जी के समकालीन थे। इसलिए उनका लिखा रामायण महाकाव्य प्रामाणिक है। इसके बाद जो रामायण लिखे गए वे सभी इतिहास नहीं कहलाये जा सकते। तुलसी रामायण तो कलियुग में आजसे लगभग ५०० वर्ष पूर्व लिखा गया है।
रामायण तो त्रेता युग में हुआ। आज कलियुग का ५१२५ वा वर्ष चल रहा है। बीच में ८,६४,००० वर्षों का द्वापर था। यानि ८,६९,१२५ वर्ष पूर्व त्रेता युग समाप्त हुआ। उसके पहले रामायण हुआ।
वाल्मीकि रामायण में जो प्रसंग हैं, वें सभी प्रसंग बाद के रामायणों में नहीं है और बाद के रामायणों में जो प्रसंग हैं वें सभी वाल्मीकि रामायण में नहीं है, जैसे 'लक्ष्मण रेखा' यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं है। इन प्रसंगों की सूची गूगल में मिल जाएगी। जब हनुमानजी पहली बार रामचंद्र जी को किष्किंधा में मिले तब हनुमानजी के बारे में रामजी के उद्गार किष्किन्धाकाण्ड के तीसरे सर्ग में पढ़िए -
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ २८॥
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्॥ २९॥
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्॥ ३०॥
अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्यथम्।
उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम्॥ ३१॥
संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्।
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहर्षिणीम्॥ ३२॥
अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया।
कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि॥ ३३॥
इन छह श्लोकों में हनुमानजी की स्तुति करते हुए रामजी कहते हैं कि इनका वेदाध्ययन पूरा हुआ है ऐसा प्रतीत होता है। इह्नोने बार-बार व्याकरण पढ़ा होने के कारण इनके कथन में कोई दोष नहीं था। इसका अर्थ है संवाद संस्कृत में हुआ था। रामजी क्षत्रिय थे और हनुमान कपि। किन्तु दोनों को संस्कृत भाषा में संवाद करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। हमारे आदर्श यदि संस्कृत जानते थे और उन्होंने वेद और शास्त्रों का अध्ययन किया था तो हम पीछे क्यों हैं? उनके आदर्शों पर चलना है तो हमें भी वेदाध्ययन और शास्त्राध्ययन करना होगा।
दो लोगों के मिलने पर प्रारम्भ में रूप और वेश का प्रभाव रहता है। किन्तु बाद में जैसे ही पहला वाक्य मुख से निकलता है भाषा का प्रभाव आरम्भ हो जाता है। इसका अर्थ वाणी सधी हुई बने। वार्तालाप यदि संस्कृत में हो या संस्कृत प्रचुर भारतीय भाषा में हो तो प्रभाव तो पड़ेगा ही। अर्थार्जन, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के लिए हनुमानजी जैसी भाषा होना नितांत आवश्यक है। उसमें मांगल्य, मध्यम स्वर, निरंतरता, असंदिग्धता जैसे गुण हों और अनावश्यक विस्तार न हो। यह सब रामजी ने हनुमानजी के बारे में कहा ऐसा वाल्मीकि जी लिखते है।
रामायणस्य भाषा संस्कृतं पठितुं वयम अद्य संकल्पं कुर्म:।
डॉ. नरेन्द्र पाण्डेय साभार
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