भागवत रहस्य
शुकदेवजी ने राजा परीक्षितजी को यह कथा सुनाई थी। शुकदेवजी में जन्म से ही ब्रह्माकार वृति और देव-दृष्टि थी। एक बार स्नान करती अप्सराओं के आगे से नग्न अवस्था में निकले तब भी निर्विकार थे। अप्सराओ ने भी स्नान चालू रखा और किसी भी प्रकार की लज्जा का अनुभव नहीं किया। थोड़ी देर बाद व्यासजी वहाँ से निकले, व्यासजी तो शुकदेवजी की तरह नग्न नहीं थे,पर कपडे पहने हुए थे, जब,अप्सराओं ने व्यासजी को आते हुए देखा तो- कपडे पहन लिए. व्यासजी ने देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ और अप्सराओं को उसका कारन पूछा। अप्सराओ ने बताया कि आप वृध्ध हो,पूज्य और पिता तुल्य हो। पर- आपके मने में यह स्त्री है और यह पुरुष है ऐसा भेद है। जबकि शुकदेवजी के मन में कोई ऐसा भेद नहीं है। शुकदेवजी केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं है, ब्रह्मदृष्टि रखकर घूमते है। उनको अभेद दृष्टि सिध्ध हो चुकी है। उन्हें यह खबर नहीं है कि यह स्त्री है और यह पुरुष है। संत के दर्शन करने वाला निर्विकारी बनता है। शुकदेवजी के दर्शन करके अप्सरायें भी निर्विकारी बनी है।जनक राजा के दरबार में एक बार नारदजी और शुकदेवजी पधारे। शुकदेवजी ब्रह्मचारी और ज्ञानी है। नारदजी भी ब्रह्मचारी और भक्तिमार्ग के आचार्य है। दोनों महापुरुष है. इन दोनों में श्रेष्ठ कौन? जनक राजा समाधान नहीं कर सके। परीक्षा किये बिना फैसला कैसे हो? जनकरजी की रानी सुनयना ने कहा कि मै परीक्षा लूंगी। रानी ने दोनों को बुलाया और झूले पर बिठाया। उसके बाद रानी दोनों के बीच में बैठ गई। इससे नारद जी को कुछ संकोच हुआ। "मै बाल ब्रह्मचारी हूँ। मुझसे स्त्री को स्पर्श हो गया।तो ? कहीं मेरे मन में विकार आ गए तो? "
ऐसा विचार उनके मनमे आया-और वे रानी से दूर हट गए। परन्तु शुकदेवजी को इसकी कोई असर नहीं हुई। उन्हें तो स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है। वे हटते नहीं है। सुनयना रानी ने निर्णय दिया की इन दोनों में श्रेष्ठ शुकदेवजी है। जब तक स्त्रीत्व और पुरुषत्व का भेद मन से नहीं जाये तब तक ईश्वर नहीं मिलते और भक्ति सिध्ध नहीं होती। शुकदेवजी को सबमे ब्रह्म दीखता है।
जब तक स्त्रीत्व और पुरुषत्व का भेद है तब तक काम है।
ब्रह्मचर्य करने वाले सुलभ है। ब्रह्मज्ञानी सुलभ नहीं है। शुकदेवजी जैसी दृष्टी रखने वाले सुलभ नहीं है।
शुकदेवजी भिक्षा-वृति के लिए बहार निकलते तो भी छे मिनट से अधिक कही रुकते नहीं। फिर भी सात दिन तक बैठकर उन्होंने यह भागवत कथा राजा परीक्षित को सुनाई थी।
व्यासजी ने-यह भागवत -कथा की रचना केशव प्रयाग में की थी। बद्रीनारायण जाते रास्ते में केशवप्रयाग आता है। वहाँ सरस्वती के किनारे व्यासजी का आश्रम है।
व्यासजी ने समाधि अवस्थामें जैसे देखा वैसे लिखा है।
व्यासजी को- पाँच हज़ार वर्ष बाद संसार में क्या होगा उसके दर्शन हुए।
बारहवे स्कंध में इसका वर्णन किया है।
राधे कृष्ण राधे कृष्ण।
ऐसा है हमारा दिव्य अलौकिक अदभुत अप्रतिम सनातन।
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