मंगलवार, 10 जनवरी 2023

प्रवृत्ति और निवृत्ति दो मार्ग

 


मानव जीवन के दो मार्ग-प्रवृत्ति और निवृत्ति

आदि गुरू शंकराचार्य कहते हैं-भगवान ने इस संसार की सृष्टि करने के बाद इसके स्थिरता की ईच्छा से सर्वप्रथम मरीचि आदि प्रजापतियों को पैदा किया तथा उनसे वेदों में कथित प्रवृत्ति या कर्मकाण्ड का धर्म ग्रहण कराया और उनसे अलग सनक, सनन्दन आदि को उत्पन्न करके उन्हें ज्ञान वैराग्य रूप निवृत्ति या अन्तर्मुखी ध्यान आदि का धर्म ग्रहण कराया।

”द्विविधो हि वेदोक्त धर्मः-प्रवृत्तिलक्ष्णो निवृत्तिलक्षणश्च, जगतः स्थिति-कारणम् प्राणिनाम् साक्षात् अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः- वेदों में बताया गया धर्म दो प्रकार का है- प्रवृत्ति या बाह्य क्रिया और निवृत्ति अर्थात् आन्तरिक ध्यान, जिसका उद्देश्य जगत की स्थिरता है और जो समस्त प्राणियों के अभ्युदय या सामाजिक आर्थिक कल्याण तथा निःश्रेयस या आध्यात्मिक मुक्ति का कारण है।“

यानि मनुष्य के कल्याण के लिए कर्म तथा ध्यान दोनों आवश्यक है। यदि इसमें से केवल एक ही होगा तो व्यक्तिगत या सामाजिक स्वास्थय ठीक नहीं रहेगा। प्रवृत्ति के द्वारा हम अपनी अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक प्रणाली को सुधारकर एक कल्याणकारी समाज की स्थापना कर सकते हैं और निवृत्ति के द्वारा हम वह प्राप्त कर सकते हैं जिसे आज मूल्य केन्द्रित जीवन कहा जाता है, जो मानवता के आन्तरिक आध्यात्मिक आयाम से उत्पन्न होता है। आज की पाश्चात्य सभ्यता इसलिए संकट में है कि उसने निवृत्ति को नकारकर केवल प्रवृत्ति पर बल दिया जिसके कारण आर्थिक तकनीकी समृद्धि के बावजूद मनुष्य स्नायविक रूप से टूट गया। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने अपनी पुस्तक – The World as Will and Idea में लिखा ‘जब लोगों को सुरक्षा और कल्याण की प्राप्ति हो जाती है, तब सभी समस्याओं को सुलझा लेने के बाद, वे स्वयं ही अपने लिए एक समस्या बन जाते हैं।’

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