मंगलवार, 8 नवंबर 2022

तितिक्षा, सूख, आत्मनिरीक्षण, अध्यात्मिकता, गुरुत्वाकर्षण, शबरी के राम, तुलसी

 

 

तान् तितिक्षस्व भारत


गीता के दूसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान अर्जुन को कहते हैं - हे अर्जुन, ऐन्द्रिक विषयों से सम्पर्क आने पर यह तुम्हें कभी शीत, कभी गर्मी, कभी सुख, कभी दुख का अनुभव देगा, यही प्रकृति है लेकिन वे आते हैं और चले जाते हैं - हमेशा बने नहीं रहते, अतः इन्हें सहन करना चाहिए - तान् तितिक्षस्व भारत।

यह एक अद्भुत कथन है - जिसकी चिकित्सा नहीं - उसे सहन करना चाहिए -What can not be cured must be endured, चीजों को सहन करना- तितिक्षा- एक महान क्षमता है- यह व्यक्ति परक है यानि हर मनुष्य में अलग-अलग, किसी के पास अधिक तो कहीं कम। हमें इस क्षमता को अपने अंदर विकसित करना चाहिये। प्रत्येक को जीवन के परिवर्तन और अवसरों को सहन करने के लिए कुछ मानसिक बल विकसित करना चाहिए। एक व्यक्ति भगवान से प्रार्थना कर रहा था-‘हे प्रभु, मेरे अन्दर वह शक्ति, सामर्थ्य दो जिससे मैं जो बदलना चाहता हूँ वह बदल सकूँ, साथ ही वह शक्ति व सामर्थ्य भी दो जिससे मैं जो बदलना चाहता हूँ और बदल नहीं पा रहा तो उसको सहन कर सकूँ।’ सद्गुण, नैतिकता व इस प्रकार के आत्ममनस्थिति के बिना हम नहीं सफल हो पाऐंगे। जब हम समुद्र में तैरते हैं तो बड़ी-बड़ी लहरें आती हैं। कुशल तैराक बड़ी लहरों के आने पर नीचे झुक जाते हैं, उनके चले जाने के बाद ही वे ऊपर आते हैं। इस प्रकार वे सदैव लहरों के प्रतिकूल रहकर भी तैरते रहते हैं, क्योंकि वे हमेशा नहीं रहती। इसलिए यह विचार-तां तितिक्षस्व-उन्हें सहन करो क्योंकि वे अनित्याः हैं, सदैव विद्यमान नहीं रहेंगी। यह थोड़ा सा धैर्य महान परिवर्तन ला सकता है। जब हम दुर्बल मानस के हाते हैं तो अवांछनीय परिस्थिति का पहला आघात ही हमें तोड़ देता है। अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध गीत है - We shall overcome, We shall overcome, One day- हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, एक दिन।

आद्य गुरू शंकराचार्य जी विवेकचूड़ामणि के एक श्लोक (2-4) में इसे परिभाषित करते हैं - ”सहनं सर्वदुःखानां अप्रतिकारपूर्वकम्ः चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते“ - सभी दुखों को बिना चिन्ता के और बिना रोये तथा प्रतिकार की भावना के बिना सहन करना तितिक्षा कहलाता है।

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झूठा सुख


          एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरन्त उस पर आ बैठा। जी भरकर मांस खाया। नदी का जल पिया।  उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली।    वह सोचने लगा, अहा ! यह तो अत्यन्त सुन्दर मान गई हैं, यहाँ भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूँ ? कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता।  अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।  नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किन्तु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहाँ उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी। कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किन्तु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया। शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती हैं, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते हैं।

 आत्मनिरीक्षण 

वैयक्तिक दोष-दुर्गुण की कँटीली झाड़ियाँ प्रगति के पथ को अवरुद्ध और दुरूह बनाती है । यह दुर्गुण और कुछ नहीं, उन विचारों के प्रतीक प्रतिनिधि हैं,जिन्हें बहुत समय से, ज्ञात या अविज्ञात रूप से मन:क्षेत्र में संजोए जमाए रखा गया है । सर्प के काटने पर उसका विष एक बूँद ही रक्त में प्रवेश करता है, पर वह कुछ ही देर  में  समस्त शरीर  में फैल जाता है और अपना असर दिखाता है । कुविचार सर्प-दंश की तरह हैं, वे ही अपना विस्तार करके दोष-दुर्गुणों के रूप में फैल जाते हैं ।

कचरे के ढेर को हम घर में कितने समय तक रख सकते हैं कुछ समय की अवधि के बाद तो दुर्गंध फैलेगी ही ना ?

 कहने की आवश्यकता नहीं कि "आंतरिक शत्रु- मनोविकार" बाहर के शस्त्र धारी शत्रुओं की अपेक्षा हजार गुने अधिक बलिष्ठ और घातक होते हैं ।क्षतिग्रस्त दुर्बल और मरणासन्न शरीर वस्तुतः उस रोग के विषाणुओं का ही खाया होता है । घुन का कीड़ा चुपचाप लगा रहता है और विशाल शहतीर को खोखला कर देता है  । "कुविचार" विषाणुओं से अधिक घातक और घुन से अधिक अदृश्य होते हैं । वे भीतर जमकर बैठ जाते हैं और गुण, कर्म, स्वभाव की सारी संपदा को खोखली और विषाक्त बना देते हैं ।हमें अगर जीवन को सही दिशा में लेकर जाना है इस पर हमें ध्यान देना ही होगा !और हमें अपनी मनोदशा को सुधारना ही पड़ेगा!ओछे स्वभाव के, आदर्श रहित और लक्ष्य विहीन व्यक्ति जीवन की लाश ढोते रहते हैं । उनके मनोरथ सफल हो नहीं सकते क्योंकि प्रगति के लिए, प्रखर व्यक्तित्व की आवश्यकता है । "सफल" जीवन जीने  की आकांक्षा यदि साकार करनी हो तो पहला कदम "आत्मनिरीक्षण" का उठाया जाना चाहिए । अपने विचारों, मान्यताओं और अभिमान की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जितने भी अवांछनीय तत्त्व हों उनका उन्मूलन करने के लिए संकल्प पूर्वक जुट जाना चाहिए । "संकल्प शक्ति" की साधना और "आत्मनिरीक्षण" से व्यक्तित्व को इच्छित ऊँचाई पर पहुँचाया जा सकता है !देश में जितने भी विद्वान हुए हैं सबने जीवन में कठिन परीक्षाएं दी है और किसी ना किसी परेशानी से जीवन में गुजरे हैं जीवन में आने वाली परेशानी का मतलब यह नहीं कि हम हिम्मत हार जाएं और मन में बैठे हुए विषाक्त कीड़े की वजह से अपने आप को भस्म कर ले! हमको चाहिए कि किसी भी आदर्श पुरुष के जीवन से कुछ सीखे और जीवन में आगे बढ़े !जीवन में तप करते हुए तपस्या करते हुए अपने और अपने परिवार को आगे बढ़ाते हुए अपने समाज को आगे बढ़ाते हुए सार्थक जीवन जिए,यही हमारे जीवन की उपलब्धता होगी और इस पृथ्वी पर आने का उद्देश्य पूर्ण होगा-अरविन्द भारद्वाज

आध्यात्मिकता 

अध्यात्म कायरों और अकर्मण्यों का मार्ग नहीं अपितु कायरता और अकर्मण्यता का त्याग करने वालों का मार्ग है। अधिकांशतया लोगों की दृष्टि में अध्यात्म का मतलब सिर्फ वह मार्ग है जहाँ से कायर लोग अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं। अध्यात्म का मतलब छोटी जिम्मेदारियों से बचना तो नहीं मगर छोटी-मोटी जिम्मेदारियों का त्यागकर एक बड़ी जिम्मेदारी उठाने का साहस करना जरूर है। सोचो! अध्यात्म अगर कमजोर लोगों का ही मार्ग होता तो फिर बालपन में ही शेर के दाँत गिन लेने की सामर्थ्य रखने वाले आचार्य महावीर और आचार्य बुद्ध जैसे लोग इस पथ से ना गुजरे होते। स्वयं की चिंता को त्यागकर स्वयंभू (शंभू) के चिंतन का नाम ही अध्यात्म है। और स्वयं के कष्टों का विस्मरण कर सृष्टि के कष्टों के निवारण की यात्रा ही वास्तविक अध्यात्मिक यात्रा है।सुखी जीवन जीने का सिर्फ एक ही रास्ता है वह है अभाव की तरफ दृष्टि ना डालना। आज हमारी स्थिति यह है जो हमे प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं, वरन जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन करके जीवन को शोकमय कर लेते हैं। दुःख का मूल कारण हमारी आवश्कताएं नहीं हमारी इच्छाएं हैं। हमारी आवश्यकताएं तो कभी पूर्ण भी हो सकती हैं मगर इच्छाएं नहीं। इच्छाएं कभी पूरी नहीं हो सकतीं और ना ही किसी की हुईं आज तक। एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है। इसलिए शास्त्रकारों ने लिख दिया आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखं दुःख का मूल हमारी आशा ही हैं। हमे संसार में कोई दुखी नहीं कर सकता, हमारी अपेक्षाएं ही हमे रुलाती हैं।  अति इच्छा रखने वाले और असंतोषी हमेशा दुखी ही रहते ।

सफल जीवन के तीन सूत्र

      जीवन में कोई भी चीज इतनी खतरनाक नहीं जितना भ्रम में और डांवाडोल की स्थिति में रहना है। आदमी स्वयं अनिर्णय की स्थिति में रहकर अपना नुकसान करता है। सही समय पर और सही निर्णय ना लेने के कारण ही व्यक्ति असफल भी होता है। यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं ? महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं ? स्वयं के प्रति एक क्षण के लिए नकारात्मक ना सोचें और ना ही निराशा को अपने ऊपर हावी होने दें। सफल होने के लिए तीन बातें बड़ी आवश्यक हैं। सही फैसले लें, साहसी फैसले लें और सही समय पर लें। आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि प्रयास की अंतिम सीमाओं तक पहुंचा जाए।

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गुरुत्वाकर्षण

कहते हैं न्यूटन ने सेब फल को गिरते देखा और गुरुत्वाकर्षण का पता लगाया,,, एक सेब को गिरते देख लिया और पृथ्वी के अंदर गुरुत्वाकर्षण खोज लिया,,

वाह रे मेरे खोजी,,, कितनी चीजें ऊपर को उठ रही थी,, भांप बनकर जल ऊपर उठते हैं,, पौधे बनकर बीज ऊपर उठते हैं,, अग्नि को कहीं भी जलाओ ऊपर की तरफ उठती है,, फिर ये नियम क्यों नहीं खोजा की ये ऊपर किस कारण उठते हैं,,,

ऋषि कणाद ने हजारों साल पहले वैशेषिक दर्शन में गुरुत्वाकर्षण का कारण बताया,

संयोगाभावे गुरुत्वातपतनम--५-१-७,,

यानी कोई भी वस्तु जब तक कही न कहीं उसका जुड़ाव है वो नीचे नहीं गिरेगी,, जैसे आम या सेब का टहनी से संयोग,जब तक संयोग है तब तक पृथ्वी में कितना भी आकर्षण है वो वस्तु को अपनी तरफ खींच नहीं सकती,, जैसे ही संयोग का अभाव हुआ गुरुत्व के कारण वस्तु खुद पृथ्वी पर गिर जाएगी,,

2--संस्काराभावे गुरुत्वात पतनम--५-१-१८

आगे बढ़ते हुए ऋषि कणाद कहते हैं कि अगर किसी वस्तु में संस्कार है तब भी पृथ्वी उसे अपनी तरफ नहीं खींच सकती,, संस्कार का अभाव होने पर ही वस्तु गुरुत्व के कारण पृथ्वी पर गिरेगी,,

संस्कार ऋषि ने तीन प्रकार के बताए,1-वेग, 2-भावना, 3-स्थितिस्थापक,

तो इन तीन में से वेग संस्कार जिस वस्तु में है,,, जैसे तीर में हम धनुष से वेग उत्त्पन्न करते हैं,, तो वह गति करता है,, जैसे ही वेग संस्कार खत्म होगा,, उतनी दूर जाकर वह अपने गुरुत्व के कारण जमीन पर गिर जाएगा,,,

पूरी पृथ्वी पर हमारे वैदिक ऋषियों के सिद्धांत हैं,, लेकिन फिर भी हम उन्हें दूसरों के नाम से पढ़ने पर मजबूर हैं,,अपने वेद शास्त्रों की ओर लौट आओ दोस्तों,,कुछ नहीं है अंधी पश्चिमी दौड़ मे,अपनी संस्कृति,, अपना गौरव ,साभार

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शबरी के राम 

शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगीं ।

शबरी की उम्र "दस वर्ष" थी । वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगीं ।

महर्षि शबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे । शबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे, तुम यहीं प्रतीक्षा करो ।"

अबोध शबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा, उसने फिर पूछा- "कब आएंगे..?"

महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे । वे भूत भविष्य सब जानते थे, वे ब्रह्मर्षि थे । महर्षि शबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए और शबरी को नमन किया ।

 आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए ।  ये उलट कैसे हुआ । गुरु यहां शिष्य को नमन करे, ये कैसे हुआ ???

महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका ।

महर्षि मतंग बोले- 

पुत्री अभी उनका जन्म नहीं हुआ ।

अभी दशरथ जी का लग्न भी नहीं हुआ ।

उनका कौशल्या से विवाह होगा । फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी । 

फिर दशरथ जी का विवाह सुमित्रा से होगा । फिर प्रतीक्षा..

फिर उनका विवाह कैकई से होगा । फिर प्रतीक्षा.. 

फिर वो "जन्म" लेंगे, फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा । फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा । तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे । तुम उन्हें कहना आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये । उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये, आपका अभीष्ट सिद्ध होगा । और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे ।

शबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई । "अबोध शबरी" इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नहीं पाई ।

वह फिर अधीर होकर पूछने लगी- "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव ???"

महर्षि मतंग बोले- "वे ईश्वर हैं, अवश्य ही आएंगे । यह भावी निश्चित है । लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं । लेकिन आएंगे "अवश्य"...!

जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थेक्ष। इसलिए प्रतीक्षा करना । वे कभी भी आ सकते हैं । तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे । शायद यही मेरे तप का फल है ।"

शबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गईं । उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थीं । वह जानती थीं समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता है, वे कभी भी आ सकतें हैं । 

हर रोज रास्ते में फूल बिछाती है और हर क्षण प्रतीक्षा करती ।

कभी भी आ सकतें हैं ।

हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा । शबरी बूढ़ी हो गई । लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही ।

और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े । शबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया । आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी ।

गुरु का कथन सत्य हुआ । भगवान उसके घर आ गए । शबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नहीं खिलाया, उन्हीं राम ने शबरी का जूठा खाया ।

ऐसे पतित पावन मर्यादा, पुरुषोत्तम, दीन हितकारी श्री राम जी की जय हो । जय हो । जय हो.। एकटक देर तक उस सुपुरुष को निहारते रहने के बाद वृद्धा भीलनी के मुंह से स्वर/बोल फूटे-

"कहो राम ! शबरी की कुटिया को ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ..?" राम मुस्कुराए- "यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मोल/मूल्य..?" "जानते हो राम ! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ, जब तुम जन्मे भी नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो ? कैसे दिखते हो ? क्यों आओगे मेरे पास ? बस इतना ज्ञात था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा, जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा । राम ने कहा- "तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है ।”

"एक बात बताऊँ प्रभु ! भक्ति में दो प्रकार की शरणागति होती है । पहली ‘वानरी भाव’ और दूसरी ‘मार्जारी भाव’ ।

”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न...  उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है । यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है । दिन रात उसकी आराधना करता है...!” (वानरी भाव) पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया । ”मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी, जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है । मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना...।" (मार्जारी भाव)

राम मुस्कुराकर रह गए..!!

भीलनी ने पुनः कहा- "सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... “कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं !" तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी ।  यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते..?”

राम गम्भीर हुए और कहा-

भ्रम में न पड़ो मां ! “राम क्या रावण का वध करने आया है..?” रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चलाकर भी कर सकता है । राम हजारों कोस चलकर इस गहन वन में आया है, तो केवल तुमसे मिलने आया है माँ, ताकि “सहस्त्रों वर्षों के बाद भी, जब कोई भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे, कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिलकर गढ़ा था ।” "जब कोई भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़कर कहे कि नहीं ! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ, एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है ।"

राम वन में बस इसलिए आया है, ताकि “जब युगों का इतिहास लिखा जाए, तो उसमें अंकित हो कि "शासन/प्रशासन और सत्ता" जब पैदल चलकर वन में रहने वाले समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे, तभी वह रामराज्य है ।”

(अंत्योदय)

राम वन में इसलिए आया है, ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं । राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया है माँ !

माता शबरी एकटक राम को निहारती रहीं ।

राम ने फिर कहा-राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता ! “राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के आदर्श की स्थापना के लिए ।” "राम राजमहल से निकला है, ताकि “विश्व को संदेश दे सके कि एक माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है ।” राम निकला है, ताकि “भारत विश्व को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है ।”"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को बता सके कि अन्याय और आतंक का अंत करना ही धर्म है ।”"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को सदैव के लिए सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाए ।” और"राम आया है, ताकि “युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं ।”शबरी की आँखों में जल भर आया था ।उसने बात बदलकर कहा-  "बेर खाओगे राम..?”राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं माँ !"शबरी अपनी कुटिया से झपोली में बेर लेकर आई और राम के समक्ष रख दिये ।राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा- "बेर मीठे हैं न प्रभु..?” "यहाँ आकर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ माँ ! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है ।”शबरी मुस्कुराईं, बोली-   "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम !"

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तुलसी 

तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था |वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी |एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये।

सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये। सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी।उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है ।  

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