क़िस्मत
किसी शहर में, सूरज और श्रीहर्ष नाम के दो भाई रहा करते थे. वे अक्सर अपनी बातें एक दूसरे से साझा करते. दिल्ली के एक कॉलेज में दोनों ने दाखिला लिया था।
श्रीहर्ष का रुझान फिल्मों और मीडिया कि तरफ था और वह उसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहता था. एक दिन उसने दिल्ली के समाचार पत्र में के एक विज्ञापन देखा. एक नयी फिल्म के मुख्य पात्र के लिए नए लड़कों को ऑडिशन के लिए बुलाया गया था.
क्योंकि उस फिल्म के निर्माता को अपनी फिल्म के लिए किसी नए चेहरे की तलाश थी। विज्ञापन को देखकर श्रीहर्ष की बाँछे खिल गयी और उसने ऑडिशन के लिए जाने की योजना बनाई।
श्रीहर्ष ने सूरज को कहा – भाई मुझे इस ऑडिशन के लिए जाना है। तुम भी मेरे साथ चलो। सूरज आराम करना चाहता था। उसने जाने से मना कर दिया।
श्री हर्ष ने कहा – यदि तुम मेरे साथ चलोगे तो, मैं तुम्हें पिज्जा खिलाऊँगा. सूरज पिज्जा का बहुत शौकीन था. इस ऑफर को वह ठुकरा न सका. श्रीहर्ष के साथ वह ऑडिशन की जगह पर पहुंचा।
कम से कम तीन-चार हज़ार प्रतियोगियों की भारी भीड़ जमा थी। श्रीहर्ष अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। सूरज वही कोने में चुपचाप बैठा था कि जल्दी ऑडिशन खत्म हो और उसे पिज्जा खाने को मिलेगा।
तभी एक फिल्म की यूनिट के एक कास्टिंग एजेंट की निगाह सूरज पर पड़ी। उसने सूरज से पूछा, कौन हो तुम? सूरज ने कहा मैं अपने भाई के साथ आया हूँ, वह यहाँ ऑडिशन देने आया है।
एजेंट ने कहा क्या तुम्हारी फिल्मों में रुचि है? सूरज ने कहा हाँ। अजेंट ने प्रस्ताव दिया, तो फिर क्यूँ नहीं ऑडिशन में हिस्सा लेते हो। सूरज ने सोचा प्रस्ताव बुरा नहीं है। वह भी ऑडिशन वाली लाइन में खड़ा हो गया। ऑडिशन पूरा हुआ।
थोड़ी देर बाद आनेवाले फैसले पर हर किसी की निगाह थी। जब परिणाम की घोषणा हुई तो हर कोई स्तब्ध रह गया. उन हजारों प्रतियोगियों को पछाड़ कर सूरज को इस भूमिका के लिए चुन लिया गया था।
ये एक सच्ची कहानी है। उस लड़के का पूरा नाम सूरज शर्मा है और फिल्म का नाम ‘लाइफ ऑफ पाय’ जो वर्ष 2012 में दुनिया भर में रिलीज हुई।
सूरज शर्मा ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाया था और उनके सहयोगी कलाकार इरफान खान और तब्बू थे। सूरज की किस्मत ने उसका साथ इसलिए दिया क्योंकि उसमें प्रतिभा थी।
एक विचारक ने कहा था – क़िस्मत भी आपका तभी साथ देती है जब आपमें प्रतिभा हो।
विश्वास से बड़ी कोई चीज़ नहीं होती
एक बार दिल्ली से सैन फ्रांसिस्को के लिए एक विमान उड़ा। विमान खचाखच भरा हुआ था। छुट्टीयों का मौसम शुरू हो चुका था, इसीलिए कई लोग परिवार के साथ छुट्टी मनाने जा रहे थे। लोगों का उत्साह चरम पर था।
कई लोग तो पहली बार विदेश का दौरा कर रहे थे। अभी विमान को उड़े एक घंटा भी नहीं गुजरा था, तभी विमान हिचकोले लेने लगा।
तभी सीट के ऊपर लगे स्पीकर पर एअर होस्टेस की आवाज सुनाई दी, मौसम खराब है, आप सभी से अनुरोध है कि अपनी सीट बेल्ट बांध लें। लोगों में विशेषकर पहली बार हवाई सफर करने वालों में, थोड़ा दहशत का माहौल हो गया ।
कुछ समय गुजरा था कि फिर एयर होस्टेस ने अनाउंस किया, हमें खेद है कि मौसम के ज्यादा खराब होने के कररण नाश्ता नहीं पेश कर पाएंगे।
इसी के साथ विमान बुरी तरह से हिचकोले लेने लगा। अब यात्रियों की हालत खराब होने लगी। इन सभी के बीच के एक सीट पर एक लगभग 12 साल की बच्ची अपना विडियो गेम खेल रही थी।
उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी और उसके ऊपर आसपास के माहौल का कोई असर नहीं था। लेकिन विमान में कई लोग तो मंत्र जाप तक करने लगा।
थोड़ी देर में ज़ोर से बिजली कड़कने की आवाज सुनाई दी। यह आवाज इतनी कर्कश थी कि विमान के इंजन की आवाज भी उसमें खो गयी और विमान के अंदर बैठे यात्रियों को आवाज सुन कर लगा कि विमान शायद किसी चीज़ से टकराते हुए उसके बीच से आगे निकाल रह है।
अब यात्रियों के चेहरे पर बेहद डर था और कइयों के घबराहट से रोने की आवाज सुनाई दे रही थी। कुछ समय में यात्रियों को ऐसा लगा की विमान का संतुलन बिगड़ गया है और अभी थोड़ी देर में विमान क्रैश हो जाएगा।
इन सभी हालातों में उस बच्ची के चेहरे पर भय या घबराहट के कोई भाव नहीं थे। खैर, थोड़ी देर बाद सब सामान्य हो गया।
जब विमान सैन फ्रांसिस्को एयर पोर्ट पर उतरा, तो एक व्यक्ति ने उस बच्ची से पूछा बेटा, हम सब लोग उस समय बहुत डर गए थे, लेकिन तुम बिल्कुल नॉर्मल थी बताओ क्या तुम्हें विमान में उस समय डर नहीं लगा?
बच्ची ने मुस्कुराते हुए कहा- नहीं अंकल, मुझे बिल्कुल भी डर नहीं लगा, क्योंकि इस विमान के पायलट मेरे पापा है और मैं जानती हूँ कि वे मुझे किसी हाल में कुछ भी नहीं होने देंगे। बच्ची के विश्वास को देख कर वह व्यक्ति दंग रह गया।
जीवन की बारीक समझ
वर्ष 1893 की बात है। यह स्वामी विवेकानंद के जीवन काल का समय था। अपनी विद्वता से स्वामी विवेकानंद देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी बेहद चर्चित हो चुके थे।
उनको अक्सर किसी सेमिनार में बोलने के लिए बुलाया जाता था। एक बार उनको अमेरिका के शिकागो से एक सेमिनार में बोलने के लिए बुलाया गया।
विवेकानंद अपनी माँ से बेहद प्रभावित थे और उनकी माँ अक्सर उनका मार्गदर्शन किया करती।
माँ को जब विवेकानंद के अमेरिका जाने की बात पता चली, तो उन्होने विवेकानंद को सूचना भेजी और कहा, आज तुम घर पर खाना खाने आ जाओ, क्योंकि मैं यह भी जांच लेना चाहती हूँ कि तुम अभी विदेश जाकर सेमिनार में बोलने लायक परिपक्क्व हुए हो या नहीं।
दरअसल, उन दिनों स्वामीजी अक्सर भ्रमण पर रहा करते थे। माँ के आदेश पर आज नियत समय पर स्वामीजी घर पहुंचे। माँ ने उनकी पसंद का खाना बनाया था।
स्वामीजी ने स्वाद लेकर खाना खाया। उसके बाद माँ ने उनको एक सेब दिया और साथ में एक चाकू भी दिया और फल खाने को कहा। स्वामीजी ने सेब को काटा और खा लिया।
फिर माँ ने उनसे चाकू मांगा। स्वामीजी ने माँ को चाकू दे दिया। माँ ने कहा, बेटा, अब मैं आश्वस्त हूँ कि तुम विदेश जाकर लोगों को ज्ञान देने के लायक हो गए हो।
स्वामीजी को कुछ भी समझ मे नहीं आया। वे आश्चर्य से बोले, माँ, मैंने तो ऐसा कुछ किया ही नहीं और तुमने मेरी कोई परीक्षा भी नहीं ली।
माँ ने मुस्कुराते हुए बोली, बेटा, अभी मैंने तुमसे चाकू मांगा, तुमने इस तेज चाकू की धार की ओर से पकड़कर चाकू का लकड़ी वाला वह हिस्सा मेरे सामने कर दिया,
जिससे मैं इसे आराम से पकड़ सकूँ और मुझे चोट न लगे, परंतु ऐसा करते समय तुमने इस बात की परवाह नहीं की कि तेज धार से तुम्हें भी चोट लग सकती थी,
इसलिए तुम इस परीक्षा मे उतिर्ण हो गए, जाओ और देश दुनिया मे अपने ज्ञान का प्रसार करो। यह बात सुनकर स्वामीजी का सिर माँ के सामने श्रद्धा से झुक गया और अपनी माँ को प्रणाम कर वे अमेरिका की ओर निकल पड़े।
मिथ्या-प्रेम
एक नवयुवक एक सिद्ध महात्मा के आश्रम में आया करता था। महात्मा उसकी सेवा से प्रसन्न हो बोले–‘“बेटा ! आत्म-कल्याण ही मनुष्य जीवन का सच्चा लक्ष्य है इसे ही पूरा करना चाहिए।”
यह सुन युवक ने कहा -““महाराज ! वैराग्य धारण करने पर मेरे माता-पिता कैसे जीवित रहेंगे? साथ ही मेरी युवा पत्नी मुझ पर प्राण देती है वह मेरे वियोग में मर जाएगी।” महात्मा बोले -‘“कोई नहीं मरेगा बेटा! यह सब दिखावटी प्रेम है। तू नहीं मानता तो परीक्षा कर ले।”
युवक राजी हो गया तो महात्मा ने उसे प्राणायाम करना सिखाया और बीमार बनकर साँस रोक लेने का आदेश दिया। युवक ने घर जाकर वही किया।
बड़े-बड़े वैद्यों को बुलाया गया लेकिन उसने कुछ इस तरह सांस रोकी की सब ने उसे मरा ही समझा। घर वाले उसे मरा समझ हो-हल्ला मचाने और पछाड़ें खाने लगे। पड़ोस के बहुत से लोग इकट्ठे हो गए।
तभी महात्मा भी वहाँ जा पहुँचे और युवक को देखकर उसकी गुण गरिमा का बखान करते हुए बोले -‘“हम इस लड़के को जीवित कर देंगे, परंतु तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ेगा। ”घर वाले बोले- आप हमारा सारा धन, घर-बार, यहाँ तक कि प्राण भी ले लें, परंतु इसे जीवित कर दें। ”महात्मा बोले -‘एक कटोरा दूध लाओ। ”तुरंत आज्ञा का पालन किया गया।
महात्मा ने उसमें एक चुटकोचुटकी राख डालकर कुछ मंत्र सा पढ़ा और बोले -”जो कोई इस दूध को पी लेगा वह मर जाएगा और यह लड़का जीवित हो जाएगा। ‘अब समस्या यह थी कि दूध को कौन पीवे। माता-पिता बोले -”कहीं न जिया तो एक जान और गई। यदि हम रहेंगे तो पुत्र और हो जाएगा। ‘पत्नी बोली-”इस बार जीवित हो जाएँगे तो क्या है, फिर कभी मरेंगे। मरना तो पड़ेगा ही। इनके न रहने पर मायके में सुख से जिंदगी काट लूँगी।”
रिश्तेदार बगलें झाँकने लगे और पड़ोसी तो पहले ही नदारद हो गए। तब महात्मा ने कहा -”अच्छा, मैं ही इस दूध को पिए लेता हूँ।” तो सभी प्रसन्न होकर बोले -”हाँ महाराज! आप धन्य हैं। साधु-संतों का जीवन ही परोपकार के लिए है। ”महात्मा ने दूध पी लिया और युवक को झकझोरते हुए बोले –
उठ बेटा! अब तो तुझे पूरी तरह ज्ञान हो गया कि कौन तेरे लिए प्राण देता है? युवक तुरंत उठ पड़ा और महात्मा के चरणों में गिर पड़ा। घर वालों के बहुत रोकने पर भी वह महात्मा के साथ चला: गया और सांसारिक मोह त्यागकर आत्मकल्याण की साधना करने लगा।
अनुकरण अच्छा, अंधानुकरण नहीं
एक गाँव में दो युवक रहते थे। दोनों में बड़ी मैत्री थी। जहाँ जाते साथ-साथ जाते। एक बार दोनों एक धनी व्यक्ति के साथ उसकी
ससुराल गए। किसी धनी व्यक्ति के साथ रहने का यह पहला अवसर था, सो वे अपने धनी मित्र की प्रत्येक गतिविधि ध्यान से देखते रहे।
गरमियों के दिन थे। रात में उक्त युवक के लिए शयन की व्यवस्था खुले स्थान पर की गई। पर्याप्त शीतलता बनी रहे इसके लिए वहाँ चारों तरफ जल छिड़का गया और रात को ओढ़ने के लिए बहुत ही हलकी मखमली चादर दी गई।
अन्य दोनों युवकों ने इतना ही जाना कि इस तरह का रहन-सहन बड़प्पन की बात है। कुछ दिन बाद उन्हें भी अपनी-अपनी ससुराल जाने का अवसर मिला पर वे दिन गरमी के न होकर शीत के थे। नकल तो नकल ही है। दोनों ने अपना बड़प्पन जताने के लिए बिस्तर खुले आकाश के नीचे लगवाया, लोगों के लाख मना करने पर भी उन्होंने बिस्तर के आस-पास पानी भी छिड़कवाया और ओढ़ने के लिए कुल एक-एक चादर वह भी हलकी ली।
रात को पाला पड़ गया सो दोनों को निमोनियाँ हो गया । चिकित्सा कराई गई तब कठिनाई से जान बची। इतनी कथा सुनाने के बाद गुरुजी ने शिष्य को समझाया–” तात ! उचित और अनुचित का विचार किए बिना जो औरों का अनुकरण करता है वह मूर्ख ऐसे ही संकट में पड़ता है जैसे वह दोनों युवक।’!
साधक की कसौटी
एक शिष्य ने अपने आचार्य से आत्मसाक्षात्कार का उपाय पूछा। पहले तो उन्होंने समझाया बेटा यह कठिन मार्ग है, कष्टसाध्य क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। तू कठिन साधनाएँ नहीं कर सकेगा, पर जब उन्होंने देखा कि शिष्य मानता नहीं तो उन्होंने एक वर्ष तक एकांत में गायत्री
मंत्र का निष्काम जाप करके अंतिम दिन आने का आदेश दिया।
शिष्य ने वही किया। वर्ष पूरा होने के दिन आचार्य ने झाड़ू देने वाली स्त्री से कहा कि अमुक शिष्य आवे तब उस पर झाड़ू से धूल उड़ा देना। स्त्री ने वैसा ही किया। साधक क्रोध में उसे मारने दौड़ा, पर वह भाग गई।
वह पुनः स्नान करके आचार्य-सेवा में उपस्थित हुआ। आचार्य ने कहा -“अभी तो तुम साँप की तरह काटने दौड़ते हो, अत: एक वर्ष और साधना करो।” साधक को क्रोध तो आया परंतु उसके मन में किसी न किसी प्रकार आत्मा के दर्शन की तीव्र लगन थी, अतएव गुरु की आज्ञा समझकर चला गया।
दूसरा वर्ष पूरा करने पर आचार्य ने झाड़ू लगाने वाली स्त्री से उस व्यक्ति के आने पर झाड़ू छुआ देने को कहा। जब वह आया तो उस स्त्री ने वैसा ही किया। परंतु इस बार वह कुछ गालियाँ देकर ही स्नान करने चला गया और फिर आचार्य जी के समक्ष उपस्थित हुआ।
आचार्य ने कहा -“अब तुम काटने तो नहीं दौड़ते पर फुफकारते अवश्य हो, अत: एक वर्ष और साधना करो।”
तीसरा वर्ष समाप्त होने के दिन आचार्य जी ने उस स्त्री को कूड़े की टोकरी उँड़ेल देने को कहा। स्त्री के वैसा करने पर शिष्य को क्रोध नहीं आया बल्कि उसने हाथ जोड़कर कहा–“’हे माता! तुम धन्य हो।’
तीन वर्ष से मेरे दोष को निकालने के प्रयत्न में तत्पर हो। वह पुन: स्नान कर आचार्य सेवा में उपस्थित हो उनके चरणों में गिर पड़ा।
मेरी का उपहार
मेरी का पति बहुत निर्धन था पर पति-पत्नी में अगाध प्रेम, अविचल निष्ठा, असीम पवित्रता थी। वह प्रति वर्ष अपने विवाह की जयंती मनाया करते थे। उस दिन अपने विगत जीवन के कर्त्तव्य-पालन पर संतोष, प्रसन्नता और परस्पर कृतज्ञता व्यक्त करते थे। भूलों की क्षमा माँगते थे और आगे के लिए और भी सचेष्ट कर्त्तव्य पालन की प्रतिज्ञा लेते थे।
यह पहला ही विवाह दिवसोत्सव था, जब उनके पास एक-दूसरे को देने के लिए कुछ नहीं था। मेरी के बाल बड़े सुंदर थे पर उन्हें सँवारने के लिए कंघा न था। पति के पास घड़ी थी पर उसकी चेन न थी। दोनों एक-दूसरे को उपहार देना चाहते थे, पर क्या दें, यह दोनों की हैरानी थी।
दोनों बाजार गए। चुपचाप, अलग-अलग। मेरी ने अपने सुंदर बाल कटवाकर बेच दिए, उनसे जो पैसा मिला पति के लिए घड़ी की चेन खरीद ली। पति ने अपनी घड़ी बेच दी और उससे मेरी के लिए कंघी खरीदी।
दोनों नियत समय पर अपने-अपने उपहार लिए घर पहुँचे। पर यह देखकर दोनों थोड़ी देर के लिए दुखित हो गए कि जिस घड़ी के लिए चेन आई वह भी बिक गई, जिन बालों के लिए कंघी आई वह भी कट गए।
थोड़ी देर तक दोनों दुखी रहे पर दोनों ने एक दूसरे के प्रति अपनी प्रेम-भावना को याद किया तो उनका हृदय गदगद हो उठा।
इस तरह का निश्छल और निष्काम प्रेम जहाँ भी होता है, वहीं ईश्वरीय सत्ता का वास्तविक संपर्क दिखाई देता है। प्रेम की सार्थकता निष्काम भावना में ही है।
फूट विनाश का कारण
कुछ लकड़हारे लकड़ी काटने के मंतव्य से एक जंगल में घूम- घूम कर वृक्षों का निरीक्षण करने लगे। उनको ऐसा करते देखकर जंगल के वृक्ष शोक करने लगे। उनको शोक करते देखकर एक पुराने वटवृक्ष ने पूछा -“बंधुओ ! तुम लोग इस प्रकार किस कारण से शोक कर रहे हो ?!! वृक्षों ने कहा -”आप देख नहीं रहे हैं कि यह अनेक लकड॒हारे हम सबको देखते फिर रहे थे। कुछ ही समय में यह सबको काटकर गिरा देंगे।’
वटवृक्ष ने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा -”तुम सब व्यर्थ चिंतित हो रहे हो, लकड़हारे हममें से किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते।’
कुछ समय बाद लकड़हारों ने जंगल में अपने तंबू लगा लिए और काटने कौ योजना बनाने लगे। वृक्ष अब और दुखी होने लगे। वृक्ष ने उन्हें पुन: समझाया -‘तुम सब प्रसन्न रहो। हम सब इतने मजबूत हैं कि इनकी योजना कदापि सफल नहीं हो सकती। ‘वटवृक्ष की बात सुन कर वृक्षों की चिंता जाती रही।
किंतु जब एक दिन बहुत सी लोहे की कुल्हाड़ियाँ बनकर आ गईं तो बेचारे वृक्ष वटवृक्ष को भला-बुरा कहने लगे। वे बोले -”आप तो कह रहे थे कि ये लकड्हारे अपनी योजना में सफल नहीं हो सकते। किंतु यह तो दिन-दिन हम सबको काटने का उपक्रम करते ही जा रहे हैं। अब तो लोहे की कुल्हाड़ियाँ भी बनकर आ गईं। अब हममें से किसी की खैरियत नहीं है।”!
वटवृक्ष ने फिर कहा -”इतनी ही नहीं, इससे चार गुनी कुल्हाड़ियाँ बनकर क्यों न आएँ और इतने ही लकड़हारे इकट्ठे हो जाएँ तब भी हममें से किसी का बाल बाँका नहीं कर सकते।
किंतु एक दिन जब कुल्हाड़ियों में लकड़ी के बेंट पड़ गए तो अन्य वृक्षों के कुछ कहने से पहले ही वटवृक्ष बोला -” भाइयो! अब हम सबको इस सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा भी नहीं बचा सकते हम सब काट डाले जाएँगे।’
जंगल के सारे वृक्ष बरगद से कहने लगे -‘“जब हम सब कटने की बात कहते थे तब आप हमको मूर्ख समझते थे और विश्वास दिलाते थे कि ये लकड़हारे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, पर अब क्या बात हो गई जो आप स्वयं ही निराशा की बात करने लगे!”
वटवृक्ष ने गंभीरता से उत्तर दिया -‘तब तक केवल लकड़हारे और कुल्हाड़ी एक दूसरे के सहायक थे इसलिए हमको कोई खतरा नहीं था। किंतु अब देखो न कि हमारे ही कुल का काष्ठ लकड़हारों की कुल्हाड़ी का बेंट बनकर हमारे विनाश में सहायक हो रहा है।
जब अपना ही कोई व्यक्ति शत्रु का सहायक बन जाता है तब विनाश से बच सकना असंभव हो जाता है। ”वटवृक्ष की बात ठीक निकली। दूसरे ही दिन से लकड़हारों ने वृक्षों पर कुल्हाड़ी बजाना शुरू कर दिया और कुछ ही समय में जंगल को काटकर नीचे गिरा दिया
अंधविश्वास की जड़
एक थे पंडित जी! नाम था सज्जन प्रसाद। सज्जन, सदाचारी भी थे और ईश्वर भक्त भी, किंतु धर्म का कोई विज्ञान सम्मत स्वरूप भी है, यह वे न जानते थे।
प्रतिदिन प्रातःकाल पूजा समाप्त करके पंडित जी शंख बजाते। वह आवाज सुनते ही पड़ोस का गधा किसी गोत्रबंधु की आवाज समझकर स्वयं भी रेंक उठता। पंडित जी प्रसन्न हो उठते कि ये गधा जरूर कोई पूर्व जन्म का महान तपस्वी और भक्त है।
एक दिन गधा नहीं चिल्लाया, पंडित जी ने पता लगाया मालूम हुआ कि गधा मर गया। गधे के सम्मान में उन्होंने अपना सिर घुटाया और विधिवत तर्पण किया।
शाम को वे बनिए की दुकान पर गए। बनिये को शक हुआ–‘“ महाराज ! आज यह सिर घुटमुंड कैसा ? ‘अरे! भाई शंखराज की इहलीला समाप्त हो गई है। बनिया पंडित का यजमान था, उसने भी अपना सर घुटा लिया। बात जहाँ तक फैलती गई, लोग अपने सिर घुटाते गए। छूत बड़ी खराब होती है।
एक सिपाही बनिये के यहाँ आया। उसने तमाम गाँव वालों को सर मुड़ाए देखा, पता चला शंखराज जी महाराज नहीं रहे, तो उसने भी सिर घुटाया। धीरे-धीरे सारी फौज सिर-सपाट हो गई।
अफसरों को बड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पूछा -”भाई बात क्या हुई। ‘पता लगाते-लगाते पंडित जी के बयान तक पहुँचे और जब मालूम हुआ कि शंखराज कोई गधा था, तो मारे शरम के सबके चेहरे झुक गए।
एक अफसर ने सैनिकों से कहा -“’ऐसे अनेक अंधविश्वास समाज में केवल इसलिए फैले हैं कि उनके मूल का ही पता नहीं है। धर्म परंपरावादी नहीं, सत्य की प्रतिष्ठा के लिए है, वह सुधार और समन्वय का मार्ग है, उसे ही मानना चाहिए।”
लोभ का फल
एक बार एक सेठजी का इरादा था किसी ब्राह्मण को भोजन करा दिया जाए, परंतु लोभी बहुत थे वे। एक दिन सेठजी एक गाँव वाले ब्राह्मण से बातचीत कर रहे थे तो सेठजी ने उनसे पूछा – ‘महाराज आप कितना खाते होंगे ?” महाराज बोले-‘लगभग एक छटांक।” यह सुनकर लालाजी ने उन्हें न्योता दे दिया और कहा–” मैं तो कल सौदा तुलाने जाऊँगा आप घर जाकर भोजन कर आवें।’
यही बात सेठजी ने सेठानी से घर आकर कही कि मैं तो कल सौदा तुलाने जाऊँगा, ब्राह्मण जी आए तो जो वह माँगे दे देना। सेठजी ने सोचा, पंडितजीं एक छटांक ही तो खाते हैं, तो वे ज्यादा तो ले नहीं जाएँगे।
दूसरे दिन ब्राह्मण भोजन करने आए, तो आते ही सेठानी को आशीर्वाद दिया। उसने पंडितजी की बड़ी आवभगत की। पंडितजी से आते ही पूछा -‘कहिए पंडितजी आपको क्या-क्या चाहिए।’ पंडितजी ने मौका अच्छा जानकर आटा 10 मन, चावल चार मन, दो मन शक्कर, एक मन घी, पाँच सेर नमक और दो सेर मसाला लिया और घर भिजवा दिया, फिर भोजन करके दक्षिणा में दो सौ अशर्फियाँ लेकर घर आ गए।
और आते ही घर पर ओढ़ कर लेट रहे और ब्राह्मणी से बोले- ‘अगर
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