बचपन के संस्कार
ऑफिसियल टूर पर पटियाला आया हुआ था। साथ में दो स्थानीय सहयोगी भी थे। दोपहर में पंजाब के प्रसिद्ध रेस्टोरेंट सृंखला की एक शाखा में बैठकर भोजन का ऑर्डर दिया और अपनी कम्पनी के नियम शर्तों आदि के विषय में चर्चा करने लगे।तभी मेरी दृष्टि रेस्टोरेंट परिसर में बाहर एक लगभग 80 वर्ष के एक बूढ़े पर पड़ी जो रेस्टोरेंट आने-जाने वाले ग्राहकों से भोजन करने का संकेत करते हुए पैसे माँग रहा था। अचरज यह था कि 500 रुपये से अधिक का भोजन करने व 40-50 रुपये टिप देने वाले ग्राहक उस बूढ़े को लगातार अनदेखा किये जा रहे थे।
वार्तालाप में मेरा मन न लगता देख एक साथी ने पूछा - क्या हुआ सर! कहाँ डिस्ट्रैक्ट हो रहे हैं आप? मैंने कहा- "8-9 वर्ष की आयु में एक बार मैं अपने डैडी व माँ'जी के साथ कानपुर के एक रेस्टोरेंट में भोजन करने गया था। बाहर निकलते समय बाहर एक बूढ़ा भिखारी मिला जो अपने दाहिने हाथ को अपने होंठों से लगाकर भूखे होने का संकेत कर रहा था। मैं बच्चा था। नासमझ। मैंने उसे भाग जाने को कहा। तभी डैडी ने उसे वहीं रुकने को कह कर रेस्टोरेंट के अंदर गए और एक आदमी के लिए भोजन पैक कराकर ले आये और उसे देते हुए सामने पार्क में बैठकर खाने को कहा। पानी की बोतल की बात करने पर उसने मुस्कुराते हुए अपने पास रखी खाली बोतल दिखाई और पार्क के हैण्डपम्प से पानी पी लेने की बात कही।
लौटते समय रास्ते में मुझे डैडी ने समझाया कि 'ऐसे जरूरतमंद लोगों को पैसे न देकर भोजन,कपडे या जूते आदि देने ही चाहिए। समय न जाने कब पलटी खा जाए और हमें भी ऐसे ही दिन देखने पड़े तो तब कोई मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा आज तुमने किया था तब मुझे कैसा महसूस होगा?' उनकी बात सुनकर मेरे आँसू निकल आये थे। आज उन बाबा जी को देख कर ऐसा लग रहा है कि जैसे मेरे डैडी ही बाहर खड़े हों..." मैंने बाहर की तरफ संकेत करते हुए कहा। अबतक मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली थी। मुझसे रहा नहीं गया और गाल व आँख पोछते हुए उठ गया। बाहर उनके पास पहुँच कर उनसे पूछा - बाबा, आप भोजन करेंगे।
उन्होंने सहमति में सिर हिलाया।
उनका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था। दाढी व बाल बढ़े हुए और अस्त व्यस्त थे। कपड़ों में बेहद चीकट सी शर्ट और उसी तरह का पैजामा पहना हुआ था। उनके समीप जाने पर उनके बहुत दिनों से न नहाये होने का आभास होता था। मैं जानता था कि उन्हें रेस्टोरेंट के अंदर इस दशा में तो प्रवेश नहीं मिल सकता है। अतः गार्ड से परमीशन ले कर उन्हें वहीं सीढ़ियों पर एक किनारे बैठा दिया और मैं अंदर आ गया। मेज पर थालियाँ लगाई जा चुकी थीं और दोनों सहयोगी हैरानी से मुझे देख रहे थे और प्रतीक्षा भी कर रहे थे। मैंने एक दृष्टि भोजन पर डाली और उन्हें खाने के लिए कह कर मैनेजर की तरफ बढ़ गया। मैनेजर को सारी बात बताई और उनसे कहा कि क्या वह दो थाली में हमें सीढ़ियों में बैठकर खाने की अनुमति देंगे। मेरी बात का उत्तर दिए बिना मैनेजर काउंटर से बाहर निकला और सीढ़ियों पर बैठे बाबा को देखा और फिर मुझे। फिर बोला - मैं तो इन्हें दो वर्षों से पटियाला की सड़कों पर और भोजन के समय यहाँ रेस्टोरेंट की पार्किंग में खड़े होकर भीख मांगते हुए देखता चला आ रहा हूँ।
-वो तो ठीक है किंतु आज हमें यहाँ भोजन करने देंगे या फिर हम पैक कराकर ले जाएं।
- नहीं नहीं। आप परेशान न हों। मैं व्यवस्था करता हूँ। फिर उन्होंने एक गार्ड से कहा कि बाहर वाली सीढ़ियों से बाबा को ले जाकर ऊपर की मन्ज़िल में बने विशिष्ट लाउंज में ले जाये। फिर वे मुझसे बोले - कृपया आप अपने मित्रों के साथ अंदर वाली सीढियो से ऊपर वहीँ चलें। आपकी थालियाँ वहीं सर्व कर दी जायेंगी। उन बाबा जी के साथ बैठ कर खाने में मेरे सहयोगी तनिक झिझक रहे थे किंतु उनका सीनियर होने के नाते मेरे सामने वे संकोच प्रकट नहीं कर पा रहै थे। भोजन समाप्त होने के बाद बाबा से कुछ चाय या कॉफी के लिये पूछा तो उन्होंने अपने पेट मे हाथ फेरते हुए सम्पूर्ण सन्तुष्ट होने की बात कही।इसी समय वेटर बिल लेकर आया। मैंने देखा तो पाया कि उसमें चार थालियों का विवरण तो था किंतु मूल्य के स्थान पर "शून्य" अंकित था। मैंने आश्चर्य से वेटर को देखा तो उसने पीछे की तरफ संकेत किया जहाँ रेस्टोरेंट का मैनेजर खड़ा मुस्कुरा रहा था। उसने आगे बढ़ते हुए कहा - महोदय, आज आपका लंच हमारे रेस्टोरेंट की तरफ से ट्रीट समझ लीजिए। मैंने अपने व्यापारिक जीवन में अमीर से अमीर ग्राहक देखे हैं किन्तु साहस, सिद्धान्तों और मानवता का इतना धनी व्यक्ति पहली बार देखा है। धन्य हैं आपके संस्कार और आपके मातापिता। आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो आप हमारे ग्राहक हैं। आज आपसे मुझे बहुत बड़ी सीख मिली है सर और मैं आपसे विनती करना चाहता हूँ कि कृपया मुझे भी आज इस पुण्यकर्म का लाभ ले लेने दीजिये।मैनेजर ने वेटर को बाबा जी को बाहर छोड़ने को कहा तो मैंने उसे 200 रुपये का नोट देते हुए बाहर की शॉप से कुछ बिस्कुट, नमकीन, ब्रेड, दूध पैकेट आदि दिला देने का आग्रह किया और मैनेजर से हाथ मिलाकर हम बाहर निकल आये। बाहर आते ही दोनों सहयोगी हाथ जोड़कर कहने लगे, "सर, हमें माफ करना, हम आपकी भावनाओं का उपहास ही उड़ाते रहे थे पूरे समय।" "इट्स ओ के ! कम ऑन।" कह कर मैंने दोनों को गले लगा लिया और हम आगे के गन्तव्य की तरफ साथ साथ बढ़ चले।
मौलिक रचना: जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर।
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