जानकारी काल
वर्ष-23, jaankaarikaal.com अंक-03 सितम्बर - 2022, पृष्ठ 43 मूल्य 2-50

मैं एक मानव हूँ और जो कुछ भी मानवता को प्रभावित करता है उससे मुझे मतलब है। राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है मैं एक ऐसा पागल हूं जो जेल में भी आज़ाद है। निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं। ज़रूरी नहीं था की क्रांति में अभिशप्त संघर्ष शामिल हो, यह बम और पिस्तौल का पंथ नहीं था।
संरक्षक श्रीमान कुलवीर शर्मा कमहामंत्री समर्थ शिक्षा समिति डॉ वी एस नेगी प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य
प्रधान संपादक व प्रकाशक सतीश शर्मा
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संपादक मंडल सौरभ शर्मा,कपिल शर्मा, गौरव शर्मा,डॉ अजय प्रताप सिंह, करुणा ऋषि, डॉ मधु वैध, भूप सिंह यादव, ऋतु सिंह, राजेश शुक्ल
प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F, कृणा नगर नई दिल्ली 110029, A- 214 बुध नगर इन्दर पूरी नई दिल्ली 110012 से प्रकाशित |
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अनुक्रमणिका सम्पादकीय - 3 अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है आहार संयम - 4 क्या से क्या हो गया - 7 कहानी धर्म ग्रन्थ और आधुनिक समस्या का समाधान - 8 सितम्बर मास के महत्वपूर्ण दिन व जन्मदिन - 10 मासिक पंचांग,पंचक विचार,भद्रा विचार,सितम्बर मास के व्रत,सर्वार्थ सिद्ध योग,मूल विचार - 12 श्राद्ध कब कैसे मनाये - 16 परिवर्तन ( पदमा ) एकादशी कथा - 17 इंदिरा एकादशी कथा - 18 प्रेम ही जीवन है - 19 कहानी कोयले का टुकड़ा - 20 कहानी प्राणायाम - 22 स्वास्थ बेसन सूजी के कटलेट - 23 खाने की रसोई आजादी का अमृतमहोत्सव - 24 कविता शारदीय नवरात्र कैसे मनाए - 25 पढ़ते समय ध्यान दे - 26 प्रेरक प्रसंग - 27 कहानी जाने भारत को केरल - 28 पाप का गुरु कोन - 29 कहानी योग और भोग - 30 कहानी संघ का सहभाग - 32वृक्ष एवं वनस्पति - 39
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सम्पादकीय
नमन्ति फलिनो वृक्षाः, नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्ककाष्ठाश्च मूर्खाश्च, न नमन्ति कदाचन ॥
भावार्थ - जिस प्रकार फलों से लदी हुई वृक्ष की डालियां झुक जाती हैं, उसी प्रकार सद्गुणों से परिपूर्ण सज्जन विनम्र होते हैं और अपने मोहक व्यक्तित्व से सभी को लाभान्वित करते हैं।
वस्तुत: मूर्ख लोग उस सूखी लकड़ी के समान होते हैं, जो कभी झुकती नहीं, लेकिन अधिक दबाव पड़ने पर टूट जाती है ।
कहीं पर भी कोई भी सुव्यवस्था, बदलाव, रुपांतरण (समाज, स्वयं, अन्यत्र) स्थापित करने में प्रमुख साधन हैं, शुभेच्छा (good will), लक्ष्य (target, goal) अदम्य साहस (courage) सद्भावना, आत्म समर्पण। हमारी चेतना की डोर सर्व के साथ जुड़ जाएंगी, जीवन यात्रा में प्रभु ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं जो हमें पतन, स्खलन, फिसलन, अंधेरे में से बाहर निकाल कर पूर्णता प्राप्त करने में मदद करते हैं। भागवत स्पर्श से सभी असाध्य कार्य साध्य हो जातें हैं। इसके अलावा बाकी सब हवाई किले, सम्भावनाएं,अस्त व्यस्ताएं हैं जिनकी कभी कभी आवश्यकता पड़ती है (तर्क वितर्क, हिसाब किताब आदि, अस्थाई पड़ाव )। नवसर्जन तो पुराने ढांचे को तोड़कर ही संभव हो सकता है, अन्यथा केवल लिपापोती, भ्रम है। इसमें हमारी महत्वाकांक्षाएं, अहंकार छद्मवेश धारण करके हमें सही मार्ग से भटकाने का प्रयास करेगा, यह भी एक वास्तविकता है,जिस पर पैनी नजर रखी जाए, जो प्रभु इच्छा को शिरोधार्य करके ही संभव है,तू ही नचाने वाला (सूत्रधार) मैं नाचने वाला तेरे हाथों में कठपुतली। और कोई रास्ता है ही नहीं। किसी ने ठीक ही कहा है कि यह संसार एक आईना (मिरर) है। यद्यपि हम सब एक हैं , लेकिन सृजनहार ने अनेक रूप धारण कर रखे हैं। मनुष्यों का स्वभाव ऐसा है कि इस आईने में केवल अपने जैसे रुप, स्वभाव, मनोवृत्ति वाले लोगों, चीजों को देखना पसंद करते हैं, बाकी के लिए सोचतें हैं कि ये हमारे साथ नहीं रह सकते,इनको जीने का कोई अधिकार नही है (तालिबान,नाजी जर्मनी)।कमियां हम सब में हैं पूर्ण कोई नहीं है लेकिन यह अपनी कमजोरियों को नजरंदाज करके दूसरों में कमियां ढूंढते हैं और यह स्वाभाविक है, हमारे मन की एक वृत्ति है। परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो इससे कोई लाभ नहीं है,हम एक दूसरे को कोसतें रहते हैं, अन्त में यहीं हमारा स्वभाव, दृष्टिकोण बन जाता है दृष्टिभ्रम)। यहां पर थोड़ा सा ठहरकर हम अपने मन को जरा सा भी ऊपर देखने के लिए कहें तो स्थिति बदल जाती है। हमारे अंदर परिवर्तन आना शुरू हो जायेगा, एक नया जीवन शुरू हो जायेगा, जिसका प्रभाव सारे जङ चेतन जगत पर पड़ता है। व्यक्ति अन्दर से जितना कुरुप होता है वह उतना ही बाहर से अपने आप को ढकने की आवश्यकता महसूस करता है।
रोगार्दिता न फलान्याद्रियन्ते न वै लभन्ते विषयेषु तत्त्वम।
दु:खोपेतो रोगिणो नित्यमेव न बुध्यन्ते धनभोगान्नसौख्यम।।
विदुर जी कहते है कि अच्छे भले कार्यों के फल का सम्मान रोगी नही कर पाता। विषयों में भी उसे कोई सार दिखाई नही पड़ता, वो तो अपने रोग के कारण ही दु:खी रहता है। उसे धन से प्राप्त होने वाले भोंगों और सुखों का भी अनुभव नहीं हो पाता। अर्थात रोगी व्यक्ति न योग ही कर पाता है, न भोग ही कर पाता है।धन, सुख,सुविधा सब उसके लिये व्यर्थ हैं।.

अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है आहार संयम
– रवि कुमार
“आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्” अर्थात आरोग्य परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं। अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छा आहार आवश्यक है। बाल्यावस्था में हम सभी ने सुना है, बोला है और पढ़ा है – “स्वास्थ्य ही धन है”। इस धन के संचय के लिए आहार में सभी तत्वों का होना आवश्यक है। अच्छे आहार के साथ-साथ आहार संयम भी आवश्यक है। आहार संयम में दो प्रकार की बातें आती है – स्वाद संयम और भोजन संयम।
इस संबंध में कुछ प्रश्नों के विषय में विचार करते है। घर में गाय-भैंस आदि रहती हैं। जब वे अस्वस्थ होते है तो आहार लेना बंद कर देते हैं। ऐसा क्यों होता है? हम मनुष्य विवाह आदि कार्यक्रम में जाते है। वहां रात्रि में अधिक मात्रा में खाया जाता है। अगले दिन निवृति में भी कभी-कभी कठिनाई होती है। प्रातः व अगले समय कम खाने की इच्छा होती है। ऐसा क्यों होता है? कभी-कभी स्वाद के चक्कर में अधिक खाया जाता है और पाचन ठीक नहीं होता। खाते-खाते व बाद में अंदर से पुकार आती है की अधिक नहीं खाना चाहिए था। शरीर स्वतः स्वस्थ रहना चाहता है और उसी अनुसार हमें संकेत भी देता रहता है। हम संकेत समझ कर उसी प्रकार का आहार-व्यवहार करेंगे तो स्वास्थ्य संबंधी समस्या नहीं होगी।
भारतीय परंपरा में आहार संयम की दृष्टि से कुछ व्यवस्थाएं निर्माण की गई है। उनका नाम है – व्रत व उपवास। हम सोचेंगे कि ये व्यवस्थाएं आध्यात्मिकता की दृष्टि से हैं। व्रत व उपवास का आहार संयम से क्या संबंध है? सम्बंध है! भारत में भौतिकता व आध्यात्मिकता को समन्वय करके चिंतन किया गया है। हम सब के व्यवहार में हैं कि व्रत व उपवास के साथ आहार का भी नियम रहता है। व्रत व अपवास में आहार संयम का भी पालन करना आवश्यक होता है। व्रत, उपवास एवं आहार संयम से पूर्व ये स्वाद संयम क्या है? ये जानना भी आवश्यक है।

रस अर्थात स्वाद का सम्बन्ध जिह्वा से है जिसके कारण मनुष्य मन और बुद्धि से नियंत्रण खो बैठता है। जीभ के स्वाद से दो बड़े नुकसान होते हैं। एक, सामने स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ आ जाए, परहेज होने के बावजूद भी मनुष्य उसे खा लेता है। दूसरा, भोजन स्वादिष्ट है तो अधिक मात्रा में खाता हैं। अपथ्य खाना और अधिक खाना दोनों ही स्थितियों में स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसा संयम के अभाव का परिमाण होता है। अच्छा स्वादिष्ट भोजन उत्तम आहार होगा ही, ऐसा नहीं है।
भारत के विभिन्न प्रान्तों व क्षेत्रों में वैविध्यपूर्ण खाद्य संस्कृति है। हमारा आहार भौगोलिक स्थिति, शारीरिक अवस्था और ऋतु के अनुसार बदलता है। वर्तमान में हमारी इस वैविध्यपूर्ण एवं संतुलित खाद्य संस्कृति पर पश्चिम का आक्रमण व प्रभाव हो रहा है। फास्टफूड, जंकफूड, ब्रेड-बिस्किट-केक, मेगी, मंचूरियन, पिजा, बर्गर जैसे पदार्थ लोग बड़े चाव से खाते हैं और खाने के लिए बड़े लालायित रहते हैं। उत्तेजक मसलों से युक्त पदार्थ व मांसाहार का प्रचलन भी बढ़ रहा है। ये सब जिह्वा के स्वाद पर संयम न होने का ही परिणाम है।
महात्मा गांधी जी ने एक बार प्रार्थना के बाद प्रवचन में कहा था, “जिह्वा पर काबू रखना ब्रह्मचर्य का प्रथम सोपान है। हम यदि जिह्वा को नियंत्रण में रख सकते हैं तो किसी भी बात को साध्य कर सकते हैं”। संयम एक दो दिन में साध्य होने वाली बात नहीं है, वह एक निरन्तर प्रक्रिया है।
भोजन के बारे में संयम सीखने के लिए हमारे मनीषियों ने अनेक उपाय बताए हैं और स्वयं के आचरण व उपदेश के द्वारा इसको परंपरा व जन समुदाय में स्थापित किया है। ये उपाय व्रत बन गए हैं।
एकासन व्रत – चौबीस घंटे में एक बार एक आसन पर खाना। इसके बाद पूरा दिन भोजन का स्मरण भी नहीं करना।

बेसना व्रत – चौबीस घंटे में केवल दो समय एक आसन पर बैठकर खाना।
उणोदर – खाते समय जितनी भूख है, उससे कम खाना।
मर्यादित संख्या में व्यंजन ग्रहण करना – एक समय में दो या तीन व्यंजन ही ग्रहण करना। यथा दाल और चावल अथवा रोटी और सब्जी अथवा रोटी और दाल।
एकान्न भोजन – खाते समय एक ही अन्न पदार्थ को ग्रहण करना।
अलूणा – बिना नमक के भोजन करना।
एक बार परोसा हुआ भोजन करना – थाली में एक बार भोजन परोसा है, उतना ही भोजन करना।
गिन कर ग्रास खाना – खाते समय ग्रास गिनना व निश्चित किए हुए ग्रास ही खाना। अन्न का अंदाज व कितने ग्रास में क्या खाना इसकी कुशलता भी इसमें जरूरी है।
अवचित वार – किसी परिचित या अपरिचित के यहां भोजन के लिए जाना। वे भोजन के समय स्वयं पूछेंगे तो ही भोजन के लिए बैठना। व्रत के भाग रूप में घर पर जो भी हो और जितना हो, उतना और वैसा ही खाना।

उपवास
उपवास का शाब्दिक अर्थ – ‘पास में रहना’ अर्थात ईश्वर के समीप रहना। दिनभर ईश्वर के समीप रहने के लिए भोजन का भी त्याग किया जाता है, उसे ‘उपवास’ कहते है। फलाहार, जलाहार, निराहार – निर्जल (बिना आहार के), द्रव्य (दूध, जूस आदि) आहार पर दिनभर रहना, वर्षभर के अनेक अवसरों व दिवसों के साथ अनेक संदर्भों में उपवास की परंपरा है।
उपवास कितनी मात्रा में रखना? वर्ष में 365 दिवस हैं। वर्षभर में 100 दिन का उपवास स्वास्थ्य के लिए हितकर है। सप्ताह में एक दिन उपवास, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, नवरात्र, शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, जन्माष्टमी आदि मिलकर लगभग 100 दिन बनते हैं। सप्ताह में एक दिन का भी क्रम बनने से 52 दिन का उपवास सम्भव होता है।
स्वाद संयम, भोजन संयम और शरीर स्वास्थ्य यह उपवास का उद्देश्य होता है। लोग इस मूल उद्देश्य को एक ओर रखकर विविध व्यंजनों का उपभोग कर ‘टेक्निकल उपवास’ करते हैं। परंतु यह सच्चा उपवास नहीं कहा जायेगा। नवीन पीढ़ी में व्रत व उपवास के सम्बन्ध में जागरूकता नहीं है। आहार संयम को शरीर के उत्तम स्वास्थ्य के साथ जोड़कर नवीन पीढ़ी में स्थापित करने की आवश्यकता समय व युग की मांग है।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)


क्या से क्या हो गया
एक राजा ने क्रोध में आकर बीस वर्ष पहले अपने पंद्रह वर्षीय इकलौते पुत्र को उसके बुरे आचरण के कारण देश निकाला दे दिया था जब राजा बूढ़ा हो गया तो उसे अपने पुत्र की याद आई* *जैसा भी था ^ था तो अपना खून ही अब इस राज्य को कौन संभालेगा?उसने अपने मंत्रियों को उस पुत्र को खोजने चारों ओर भेजा किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ वह राजपुत्र और कुछ न जानने के कारण पड़ोसी राज्य में भीख माँगा करता था बीस वर्षों से भीख माँगने के कारण वह अपना राजकुमार होना ही भूल गया था फटे मैले कपड़े थे दाढ़ी बढ़ी थी गाल पिचके थे आँखें धंसी थी बाल उलझे थे कमर झुकी हुई थी एड़ियाँ फटी हुई थीं नस नस उभरी हुई थी फूटा कटोरा हाथमें लेकर असहाय सा घबराया हुआ वह एक चौराहे पर हर आने जाने वाले की ओर आशा भरी दृष्टि से देखता था पर उसकी ओर कोई नहीं देखता था देवयोग से एक मंत्री का रथ उसी चौराहे से गुज़रा मंत्री और राजपुत्र की नजरें मिली तो एक बिजली सी कौंध गई मंत्री ने उसे अपने पास बुलाया वह डरा डरा सा मंत्री के पास पहुँचा मंत्री के आदेश से सैनिकों ने उसकी कलाई पकड़ी और एक कपड़े से मैल साफ किया वहाँ राज चिन्ह चमकने लगा तुरंत सारा दृश्य बदल गया सैनिक घबरा कर चरणों में गिर गये मंत्री भी तुरंत रथ से उतरा और बोला: राजकुमार की जय हो देखो क्या चमत्कार हुआ कमर तन गई छाती फूल गई आँखें चमकनेलगीं चेहरा दमकने लगा नस-नस फड़कने लगी और तन बदन में करेंट दौड़ गया अब सब आने जाने वाले उसकी ओर देखते हैं पर वह किसी को नहीं देखता है कटोरा यहाँ गयाकि वहाँ अब कौन जाने,छलाँग मार कर रथ पर चढ़ गया और कड़क कर बोला: हमारे स्नान की व्यवस्था हो क्या से क्या हो गया, आपको अपनी खुद की याद आ गई हम भी अनन्त जन्मों से भिखारी बन कर दूसरों से छोटे छोटे सुख माँगते हुए यह भूल ही गए हैं कि हमतो आनन्द के साम्राज्य के उत्तराधिकारी हैं आनन्द तो हमारी बपौती है हमें भी अपने सत्य स्वरूप की याद आ जाए तो हमारा भी भीख का कटोरा छूट जाये।

धर्म ग्रन्ध और आधुनिक समस्या का समाधान
जब हम हमारे धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे सारे धर्मग्रंथ राक्षसों के वध से भरे पड़े हैं |राक्षस भी ऐसे ऐसे वरदानों से प्रोटेक्टेड थे कि दिमाग घूम जाए किसी को वरदान प्राप्त था कि वो न दिन में मरेगा-न रात में, न आदमी से मरेगा-न जानवर से, न घर में मरेगा-न बाहर, न आकाश में मरेगा- न धरती पर उसी तरह दूसरे को वरदान था कि वे भगवान भोलेनाथ और विष्णु के संयोग से उत्पन्न पुत्र से ही मरेगा.तो, किसी को वरदान था कि... उसके खून की जितनी बूंदे जमीन पर गिरेगी.. उसकी उतनी प्रतिलिपि पैदा हो जाएगी | तो, कोई अपने नाभि में अमृत कलश छुपाए बैठा था | लेकिन हर राक्षस का वध हुआ हालाँकि सभी राक्षसों का वध अलग अलग देवताओं ने अलग अलग कालखंड एवं अलग अलग प्रदेशों में किया लेकिन सभी वध में एक चीज कॉमन रहा कि किसी भी राक्षस का वध उसका स्पेशल स्टेटस हटाकर अर्थात उसके वरदान को कैंसिल कर के नहीं किया गया कि, तुम इतना उत्पात मचा रहे हो इसीलिए, हम तुम्हारा वरदान कैंसिल कर रहे हैं और, फिर उसका वध कर दिया | बल्कि हुआ ये कि देवताओं को उन राक्षसों को निपटाने के लिए उसी वरदान में से रास्ता निकालना पड़ा कि इस वरदान के मौजूद रहते हम इसे कैसे निपटा सकते हैं | और, अंततः कोशिश करने पर वो रास्ता निकला भी... एवं, सब राक्षस निपटाए भी गए | कहने का मतलब है कि... परिस्थिति कभी भी अनुकूल होती नहीं है बल्कि उसे पुरुषार्थ से अनुकूल बनाई जाती है | आप किसी भी एक राक्षस के बारे में सिर्फ कल्पना कर के देखें कि अगर उसके संदर्भ में अनुकूल परिस्थिति का इंतजार किया जाता तो क्या वो अनुकूल परिस्थिति कभी आती ??
उदाहरण के लिए सर्वचर्चित रावण को ही ले लेते हैं | रावण के बारे में भी ये एक्सक्यूज दिया जा सकता था कि... रावण को कैसे मारेंगे भला ? उसे तो पचासों तीर मारे और उसके सर को काट भी दिए लेकिन, उसका सर फिर जुड़ जाता है तो इसमें हम क्या करें ? इसके बाद अपने इस फेल्योर का सारा ठीकरा रावण को ऐसा वरदान देने वाले ब्रह्मा पर फोड़ दिया जाता कि उन्होंने ही रावण को ऐसा वरदान दे रखा है कि अब उसे मारना असंभव हो चुका है | और फिर ब्रह्मा पर ये इल्जाम डाल कर चल दिया कि जब ब्रह्मा खुद रावण को ऐसा अमरत्व के सरीखा वरदान देकर धरती पर राक्षसों का राज लाने में लगे हैं तो भला हम क्या कर सकते हैं | लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि, भगवान राम ने उन वरदानों के मौजूद रहते ही रावण का वध किया.क्योंकि, यही "सिस्टम" है |
तो पुरातन काल में हम जिसे वरदान कहते हैं आधुनिक काल में हम उसे संविधान द्वारा प्रदत्त स्पेशल स्टेटस कह सकते हैं | इसीलिए आज भी हमें राक्षसों को इन वरदानों के मौजूद रहते ही निपटाना होगा जिसके लिए हमें इन्हीं स्पेशल स्टेटस में से लूप होल खोजकर रास्ता निकालना होगा | और,मुझे नहीं लगता है कि इनके वरदानों को हटाया जाएगा | क्योंकि,हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों में ऐसे एक भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं कि किसी राक्षस के स्पेशल स्टेटस (वरदान) को हटा कर पहले परिस्थिति अनुकूल की गई हो तदुपरांत उसका वध किया गया हो |और, जो हजारों लाखों साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ अब उसके हो जाने में मुझे संदेह है | परंतु हर युग में एक चीज अवश्य हुआ है और, वो है राक्षसों का विनाश | एवं, सनातन धर्म की पुनर्स्थापना | इसीलिए मैं इस बारे में जरा भी भ्रमित नहीं हूँ कि ऐसा नहीं हो पायेगा | लेकिन, घूम फिर कर बात वहीं आकर खड़ी हो जाती है कि.... भले त्रेतायुग के भगवान राम हों अथवा द्वापर के श्रीकृष्ण | राक्षसों के विनाश के लिए हर किसी को जनसहयोग की आवश्यकता पड़ी थी | और, जहाँ तक मैं अपने धर्मग्रंथों को समझ पाता हूँ |तो, हर युग में राक्षसों के विनाश में जनसहयोग की आवश्यकता सिर्फ राक्षसों के विनाश के लिए ही नहीं पड़ती है | बल्कि इसीलिए भी पड़ती है ताकि राक्षसों के विनाश के बाद जो एक नई दुनिया बनेगी उस नई दुनिया को उनके बाद के लोग संभाल सके | नहीं तो इतिहास गवाह है कि बनाने वालों ने तो भारत में आकाश छूती इमारतें और स्वर्ग कोभी मात देते हुए मंदिर बनवाए थे | लेकिन, उसका हश्र क्या हुआ ये हम सब जानते हैं | इसीलिए राक्षसों का विनाश जितना जरूरी है | उतना ही जरूरी उसके बाद उस धरोहर को संभाल के रखने की है और अभी उसी की तैयारी हो रही है अर्थात निषादराज, वानर राज सुग्रीव, वीर हनुमान,जामवंत आदि को गले लगाया जा रहा है | और, माता शबरी को उचित सम्मान दिया जा रहा है | जिस महाभारत को श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र के प्रयोग से महज 5 मिनट में निपटा सकते थे भला उसके लिए 18 दिन तक युद्ध लड़ने की क्या जरूरत थी | लेकिन रणनीति में हर चीज का एक महत्व होता है | जिसके काफी दूरगामी परिणाम होते हैं | इसीलिए मैं कभी भी उतावलेपन का समर्थन नहीं करता हूँ | ये बात अच्छी तरह मालूम है कि रावण, कंस, दुर्योधन, रक्तबीज और हिरणकश्यपु आदि का विनाश तो निश्चित है |

सितम्बर में पड़ने वाले महत्वपूर्ण दिवस व जन्मदिवस
04 सितम्बर 1825 - दादाभाई नौरोजी - पारसी बुद्धिजीवी, शिक्षाशास्त्री
05 सितम्बर 1888 - सर्वपल्ली राधाकृष्णन - भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति
10 सितम्बर 1887 - गोविंद वल्लभ पंत - प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी और वरिष्ठ भारतीय राजनेता
11 सितम्बर 1895 - विनोबा भावे - स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता
26 सितम्बर 1820 - ईश्वरचंद्र विद्यासागर - प्रसिद्ध समाज सुधारक, शिक्षा शास्त्री व स्वाधीनता सेनानी
27 सितम्बर 1907 - भगत सिंह - भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी
महत्वपूर्ण दिवस -
1 सितंबर - राष्ट्रीय पोषण सप्ताह
2 सितंबर - जापान पर विजय दिवस या वी-जे दिवस,विश्व नारियल दिवस
3 सितंबर - गगनचुंबी दिवस
5 सितंबर- चैरिटी का अंतर्राष्ट्रीय दिवस,शिक्षक दिवस (भारत)
7 सितंबर-ब्राजील का स्वतंत्रता दिवस
8 सितंबर-अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस,विश्व भौतिक चिकित्सा दिवस
10 सितंबर-विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस
11 सितंबर-राष्ट्रीय वन शहीद दिवस
14 सितंबर-विश्व प्राथमिक चिकित्सा दिवस,हिंदी दिवस
15 सितंबर-अभियंता दिवस (भारत),अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस
16 सितंबर-मलेशिया दिवस,विश्व ओजोन दिवस
17 सितंबर-विश्व रोगी सुरक्षा दिवस
18 सितंबर-विश्व बांस दिवस
19 सितंबर-इंटरनेशनल टॉक लाइक ए पाईरेट डे
21 सितंबर-अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस,विश्व अल्जाइमर दिवस
22 सितंबर-रोज़ डे,विश्व राइनो दिवस
23 सितंबर-सांकेतिक भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय दिवस
25 सितंबर-विश्व फार्मासिस्ट दिवस
25 सितंबर-अंत्योदय दिवस
26 सितंबर-यूरोपीय भाषा दिवस,विश्व गर्भनिरोधक दिवस,विश्व समुद्री दिवस,विश्व नदी दिवस
27 सितंबर-विश्व पर्यटन दिवस
28 सितंबर-विश्व रेबीज दिवस,सूचना तक सार्वभौमिक पहुंच के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस
29 सितंबर-विश्व हृदय दिवस
30 सितंबर-अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद दिवस
सितंबर का चौथा रविवार,अंतर्राष्ट्रीय नदी दिवस
सितंबर के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर सितंबर के अंतिम रविवार को समाप्त होता है,बधिर दिवस
30 सितंबर-अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद दिवस
सितंबर के अंतिम सप्ताह से शुरू होकर सितंबर के अंतिम रविवार को समाप्त होता है
बधिर दिवस
आचार्य विनोबा भावे
लोग जब विनोबा जी के दर्शन को आते थे तो बाबा विनोबा भावे कहते थे की जो बाबा का दर्शन करेगा उसको क्या दिखेगा? बाह्य आकृति से अधिक कुछ नहीं दिखेगा | परंतु बाबा का दर्शन बाबा के 'गीता प्रवचन' में होता है. "गीता प्रवचन मेरी जीवन की गाथा है और वही मेरा संदेश है | विनोबा जी ने गीता प्रवचन के महत्व पर कहा है कि वह जीवन का सार है |
आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर 1895 - 15 नवम्बर 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नारहरी भावे था। उन्हे भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का अध्यात्मिक उत्तराधीकारी समझा जाता है।

मासिक पंचांग- सितम्बर-2022
दिनांक | भारतीय व्रत उत्सव सितम्बर - 2022 |
2 | सूर्य षष्टी |
3 | राधा अष्टमी ,महालक्ष्मी व्रत प्रारम्भ |
4 | दुर्गा अष्टमी |
5 | रामदेव जी का मेला नवल दुर्ग |
6 | पद्मा एकादशी व्रत |
7 | वामन द्वादशी |
8 | भोम प्रदोष व्रत |
9 | सत्य व्रत |
10 | पूर्णिमा व्रत, पूर्णिमा श्राद्ध |
13 | श्री गणेश चतुर्थी व्रत |
17 | श्री महालक्ष्मी व्रत समाप्त ,श्री विश्वकर्मा जयंती,काला अष्टमी , संक्रांति पुन्य |
21 | इंदिरा एकादशी व्रत |
23 | प्रदोष व्रत |
24 | मास शिव रात्रि |
25 | अमावस्या, महालय समाप्त |
26 | मातामह श्राद्ध,नवरात्र प्रारम्भ ,अग्रसेन जयंती |
29 | विनायक चतुर्थी व्रत |
30 | उपांग ललिता जयंती |
पंचक विचार सितम्बर - 2022
पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार-दिनांक-09 को 00 - 31 से दिनांक-13 को 06-35 बजे तक पंचक हैं |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227
भद्रा विचार सितम्बर - 2022
भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य भूलोक की भद्रा ,भद्रा मुख चोट क्र भद्रा पंच में शुभ कार्य कर सकते है |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227
दिनांक | शुरू | दिनांक | समाप्त |
03 | 12-28 | 03 | 23-34 |
06 | 16-31 | 07 | 03-04 |
09 | 18-08 | 10 | 04-48 |
12 | 23-06 | 13 | 10-37 |
16 | 12-19 | 17 | 01-16 |
20 | 08-15 | 20 | 21-26 |
24 | 02-30 | 24 | 14-55 |
29 | 12-50 | 30 | 00-09 |
राहू काल
राहुकाल -राहुकाल दक्षिण भारत की देन है,दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है |
मूल नक्षत्र विचार सितम्बर - 2022
दिनांक | शुरू | दिनांक | समाप्त |
03 | 22-57 | 05 | 20-05 |
12 | 06-58 | 14 | 06-57 |
21 | 23-46 | 24 | 03-50 |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227
सर्वार्थ सिद्धि योग सितम्बर -2022
दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी शुभ मुहूर्त का अभाव हो,किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है | इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग | योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक है| अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227
दिनांक | प्रारंभ | दिनांक | समाप्त |
04 | 21-42 | 05 | 06-05 |
11 | 08-01 | 12 | 06-08 |
13 | 06-35 | 14 | 06-09 |
17 | 06-11 | 17 | 12-20 |
24 | 03-50 | 24 | 06-14 |
25 | 06-14 | 26 | 06-15 |
30 | 05-12 | 30 | 06-17 |
चौघड़िया मुहूर्त
चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है|
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

सुर्य उदय- सुर्य अस्त सितम्बर -2022
दिनांक | उदय | दिनांक | अस्त |
1 | 06-01 | 1 | 18-40 |
5 | 06-05 | 5 | 18-36 |
10 | 06-07 | 10 | 18-30 |
15 | 06-11 | 15 | 18-24 |
20 | 06-12 | 20 | 18-18 |
25 | 06-14 | 25 | 18-12 |
30 | 06-17 | 30 | 18-06 |
अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें - शर्मा जी - 9560518227
ग्रह स्थिति सितम्बर - 2022
ग्रह स्थिति - दिनांक 10 बुध वक्री,दिनांक 14 बुध पश्चिमास्त,दिनांक 17 सूर्य कन्या में दिनांक 24 शुक्र कन्या में , दिनांक 29 बुध उदय |

श्राद्ध कब,कैसे मनाये
अपने पूर्वज पितरों के प्रति श्रद्धा भावना रखते हुए आश्विन कृष्ण पक्ष में पित्र तर्पण एवं श्राद्ध कर्म करना नितांत आवश्यक है इससे स्वास्थ्य समृद्धि आयु सुख शांति तथा वंश वृद्धि एवं उत्तम संतान की प्राप्ति होती है श्रद्धा पूर्वक किए जाने के कारण ही इनका नाम श्राद्ध है |श्राद्ध का आरंभ भाद्रपद की पूर्णिमा से होता है और अश्विनी मास की अमावस्या तक पित्र पक्ष कहलाता है | इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है श्राद्ध करने का अधिकार बढ़े पुत्र अथवा नाती को होता है | पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को तथा महिला के श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन कराते हैं | भोजन कराने के बाद दक्षिणा व वस्त्र देते हैं पित्र पक्ष में जिस तिथि को हमारे माता-पिता दादा-दादी गुजरते हैं उसी दिन उनका श्राद्ध किया जाता है | श्राद्ध करने का अपना बड़ा महत्व है श्राद्ध करने से हमें पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है | पितृपक्ष में देवताओं को जल देने के पश्चात मृतकों का नाम उच्चारण करके उन्हें भी जल देना चाहिए | संकल्प करके श्राद्ध करेंगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा | अधिक जानकारी के लिय संम्पर्क करे- ९३१२००२५२७
दिनांक | श्राद्ध | दिनांक | श्राद्ध |
10 | पूर्णिमा का श्राद्ध | 10 | प्रतिपदा का श्राद्ध |
11 | द्वितीया का श्राद्ध | 12 | तृतीया का श्राद्ध |
13 | चतुर्थी का श्राद्ध | 14 | पंचमी का श्राद्ध |
15 | षष्ठी का श्राद्ध | 16 | सप्तमी का श्राद्ध |
18 | अष्टमी का श्राद्ध | 19 | नवमी का श्राद्ध |
20 | दशमी का श्राद्ध | 21 | एकादशी का श्राद्ध |
22 | द्वादशी का श्राद्ध | 23 | त्रयोद्शी का श्राद्ध |
24 | चतुर्दशी का श्राद्ध | 25 | अमावस्या का श्राद्ध |
26 | मातामह का श्राद्ध |
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परिवर्तन एकादशी ( पदमा एकादशी )
परिवर्तन एकादशी को पदमा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है | यह लक्ष्मी जी का उत्तम व्रत है | इसे करने से धन की कमी दूर होती है | पदमा एकादशी का व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है | भगवान विष्णु छीरसागर में शेष शैया पर लेटे हुए करवट बदलते हैं इसलिए इसे परिवर्तनी एकादशी कहा जाता है | इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा करना उत्तम माना जाता है | देवताओं ने अपने राज्य को फिर से पाने के लिए महालक्ष्मी का पूजन किया व अर्चना की थी की हमारा राज्य वापस मिल जाए |
परिवर्तनी ( पदमा ) एकादशी की कथा
त्रेता युग में पहलाद पौत्र बलि राजा था वह ब्राह्मणों का सेवक तथा भगवान विष्णु का उपासक था | इंद्र आदि देवताओं का शत्रु था | देवताओ के साध युद्ध कर उसने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली | इंद्र से इंद्रासन छीन कर देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया | देवताओं को दुखी देखकर व उनकी प्रार्धना भगवान ने वहां वामन भेष धारण करके बलि के द्वार पर आकर भिक्षा मांगते हुए कहा- ‘हे राजन मुझे केवल तीन पग भूमि का दान चाहिए |” राजा बलि ने उत्तर दिया- “मैं आपको तीन लोक दान दे सकता हूं | भगवान ने विराट रूप धारण करके दो पग में पूरी पृथ्वी को नाप लिया जब उन्होंने तीसरा पग उठाया तो राजा बाली ने सर नीचे धर दिया प्रभु ने चरण धर कर दबाया तो बलि पताल लोक में जा पहुंचा | जब भगवान चरण उठाने लगे तो राजा बलि ने हाथ से चरण पकड़ कर कहा- “मैं इन्हें मंदिर में रखूंगा |” भगवान बोले “यदि तुम वामन एकादशी का विधि पूर्वक व्रत करो तो मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा और मैं तुम्हारे द्वार पर कुटिया बना कर रहूंगा |” आज्ञा अनुसार राजा बलि ने वामन एकादशी का व्रत किया और तभी से भगवान की प्रतिमा द्वारपाल बनकर पताल में और क्षीरसागर में भगवान चर्तुमास में निवास करने लगे |

इंदिरा एकादशी
इस एकादशी का व्रत करने से अधोगति को प्राप्त पितृ गण फिर से शुभ गति को प्राप्त करते हैं | पितरो का उद्धार होता है | इंदिरा एकादशी अश्वनी मास में कृष्ण पक्ष की एकादशी को आती है | इस दिन शालिग्राम भगवान की पूजा करके व्रत रखा जाता है | सवेरे नहा धोकर शालिग्राम को पवित्र कर पंचामृत से स्नान कराकर वस्त्र पहनाए तथा भोग लगाकर आरती उतारे | पंचामृत वितरण करे | शालिग्राम पर तुलसी अवश्य चढ़नी चाहिए |
इंदिरा एकादशी की कथा
सतयुग में महिष्मति पुरी में इंद्रसेन नामक एक प्रबल प्रतापी राजा राज्य करता था | वह पुत्र पौत्र धन-धान्य से संपन्न था | राजा भगवान विष्णु का परम भक्त था | उसके माता-पिता स्वर्गवासी हो चुके थे | अचानक एक दिन उन्होंने सपना देखा कि उसके माता-पिता यमलोक में कष्ट उठा रहे हैं | नींद टूटने पर राजा बहुत ही चिंतित हुआ व सोचने लगा कि किस प्रकार इस यातना से पितरों को मुक्त किया जाए | इस विषय पर उसने अपने मंत्री से बातचीत की, मंत्री ने राजा को कहा कि वे विद्वानों को बुलाकर इस विषय पर वार्तालाप करें व उनसे परामर्श ले | राजा ने सभी ब्राह्मणों को निमंत्र्ण भेजा | उनके उपस्थित होने पर स्वप्न की बात बताई | ब्राह्मणों ने कहा- “राजन! यदि आप सपरिवार इंदिरा एकादशी का व्रत करें तो आपके पितरों की मुक्ति हो जाएगी | ब्रह्मणों ने कहा- “उस दिन आप शालिग्राम की पूजा कर तुलसी चढ़ाएं और 11 ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देकर आशीर्वाद प्राप्त करें | राजन इससे आपके माता-पिता स्वर्ग में चले जाएंगे | आप रात्रि को मूर्ति के पास ही शयन करना | राजा ने उनके कहे अनुसार मंदिर में शयन किया | जब राजा मंदिर में सो रहा था तभी भगवान के दर्शन हुए और उन्होंने कहा- “हे राजन! व्रत के प्रभाव से तेरे माता पिता स्वर्ग पहुंच गए है | राजा इन्देर्सेन ने इस व्रत के प्रभाव से इस लोक में सुख भोग कर स्वर्ग को प्राप्त किया |

प्रेम करते हैं,तो कारण उसके गुणों को भी समझें
एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा, मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ। उसने पूछा कि "क्यों करते हो" तो पहले व्यक्ति ने उत्तर दिया, मैं नहीं जानता, कि मैं आपसे प्रेम क्यों करता हूँ।। उसके इस कथन में यह तो स्पष्ट है। कि वह अपने मित्र से प्रेम करता है, किसी न किसी गुण के कारण ही करता होगा। क्योंकि गुणों का ही संसार में सम्मान होता है, गुणों के कारण ही प्रेम होता है।। वह इतना तो समझता है, कि इस मित्र में कुछ गुण हैं। परंतु कौन से गुण हैं, कितने गुण हैं, उनको स्पष्टता से नहीं समझ रहा, और बता नहीं पा रहा कि "मैं किन गुणों के कारण आप से प्रेम करता हूँ"।। लेकिन यदि कोई ऐसा कहे कि मैं अमुक व्यक्ति से बहुत घृणा करता हूं। तो घृणा का कारण पूछने पर वह स्पष्ट बता देता है कि, अमुक व्यक्ति में यह दोष है, इस दोष के कारण मैं उस से घृणा करता हूँ।। उसके इस उत्तर से पता चलता है कि जब कोई व्यक्ति, किसी दूसरे से प्रेम करता है तो अनेक बार वह कारण को स्पष्ट नहीं कर पाता। परंतु जब घृणा करता है, तो स्पष्टता से उत्तर देता है कि "मैं इन दोषों के कारण घृणा करता हूँ।।" इससे यह पता चला कि प्रेम उतना अभिव्यक्ति कारक नहीं है, जितनी की घृणा। इसलिए यदि आप किसी से प्रेम करते हैं, तो उसका कारण - उसके गुणों को भी समझें, पहचानें।
आवश्यकता पड़ने पर उन गुणों को बताएं भी, कि मैं इन गुणों के कारण आपसे प्रेम करता हूं. जैसे घृणा का कारण स्पष्टता से बतला पाते हैं।बल्कि हो सके, तो उन गुणों को अवश्य पहचानें, जिनके कारण आप उस से प्रेम करते हैं।। और घृणा तो न ही करें, क्योंकि यह हानिकारक है। घृणा करने से दूसरे की हानि तो नहीं होती, या कम होती है, बल्कि अपनी हानि अधिक होती है। तो बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी हानि नहीं करनी चाहिए, इसलिये गुणों के कारण दूसरों से प्रेम अवश्य करें,घृणा नहीं।

कोयले का टुकड़ा
अमित एक मध्यम वर्गीय परिवार का लड़का था। वह बचपन से ही बड़ा आज्ञाकारी और मेहनती छात्र था। लेकिन जब से उसने कॉलेज में दाखिला लिया था उसका व्यवहार बदलने लगा था। अब ना तो वो पहले की तरह मेहनत करता और ना ही अपने माँ-बाप की सुनता। यहाँ तक की वो घर वालों से झूठ बोल कर पैसे भी लेने लगा था। उसका बदला हुआ आचरण सभी के लिए चिंता का विषय था। जब इसकी वजह जानने की कोशिश की गयी तो पता चला कि अमित बुरी संगती में पड़ गया है। कॉलेज में उसके कुछ ऐसे मित्र बन गए हैं जो फिजूलखर्ची करने , सिनेमा देखने और धूम्र-पान करने के आदि हैं।
पता चलते ही सभी ने अमित को ऐसी दोस्ती छोड़ पढाई-लिखाई पर ध्यान देने को कहा ; पर अमित का इन बातों से कोई असर नहीं पड़ता , उसका बस एक ही जवाब होता , ” मुझे अच्छे-बुरे की समझ है , मैं भले ही ऐसे लड़को के साथ रहता हूँ पर मुझपर उनका कोई असर नहीं होता |
दिन ऐसे ही बीतते गए और धीरे-धीरे परीक्षा के दिन आ गए , अमित ने परीक्षा से ठीक पहले कुछ मेहनत की पर वो पर्याप्त नहीं थी , वह एक विषय में फेल हो गया । हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होने वाले अमित के लिए ये किसी जोरदार झटके से कम नहीं था। वह बिलकुल टूट सा गया , अब ना तो वह घर से निकलता और ना ही किसी से बात करता। बस दिन-रात अपने कमरे में पड़े कुछ सोचता रहता। उसकी यह स्थिति देख परिवारजन और भी चिंता में पड़ गए। सभी ने उसे पिछला रिजल्ट भूल आगे से मेहनत करने की सलाह दी पर अमित को तो मानो सांप सूंघ चुका था , फेल होने के दुःख से वो उबर नही पा रहा था।
जब ये बात अमित के पिछले स्कूल के प्रिंसिपल को पता चली तो उन्हें यकीन नहीं हुआ, अमित उनके प्रिय छात्रों में से एक था और उसकी यह स्थिति जान उन्हें बहुत दुःख हुआ , उन्होंने निष्चय किया को वो अमित को इस स्थिति से ज़रूर निकालेंगे।
इसी प्रयोजन से उन्होंने एक दिन अमित को अपने घर बुलाया। प्रिंसिपल साहब बाहर बैठे अंगीठी ताप रहे थे। अमित उनके बगल में बैठ गया। अमित बिलकुल चुप था , और प्रिंसिपल साहब भी कुछ नहीं बोल रहे थे। दस -पंद्रह मिनट ऐसे ही बीत गए पर किसी ने एक शब्द नहीं कहा। फिर अचानक प्रिंसिपल साहब उठे और चिमटे से कोयले के एक धधकते टुकड़े को निकाल मिटटी में डाल दिया , वह टुकड़ा कुछ देर तो गर्मी देता रहा पर अंततः ठंडा पड़ बुझ गया। यह देख अमित कुछ उत्सुक हुआ और बोला , ” प्रिंसिपल साहब , आपने उस टुकड़े को मिटटी में क्यों डाल दिया , ऐसे तो वो बेकार हो गया , अगर आप उसे अंगीठी में ही रहने देते तो अन्य टुकड़ों की तरह वो भी गर्मी देने के काम आता !” प्रिंसिपल साहब मुस्कुराये और बोले , ” बेटा , कुछ देर अंगीठी में बाहर रहने से वो टुकड़ा बेकार नहीं हुआ , लो मैं उसे दुबारा अंगीठी में डाल देता हूँ.” और ऐसा कहते हुए उन्होंने टुकड़ा अंगीठी में डाल दिया।अंगीठी में जाते ही वह टुकड़ा वापस धधक कर जलने लगा और पुनः गर्मी प्रदान करने लगा।“कुछ समझे अमित। “, प्रिंसिपल साहब बोले , ” तुम उस कोयले के टुकड़े के समान ही तो हो, पहले जब तुम अच्छी संगती में रहते थे , मेहनत करते थे , माता-पिता का कहना मानते थे तो अच्छे नंबरों से पास होते थे , पर जैस वो टुकड़ा कुछ देर के लिए मिटटी में चला गया और बुझ गया , तुम भी गलत संगती में पड़ गए और परिणामस्वरूप फेल हो गए, पर यहाँ ज़रूरी बात ये है कि एक बार फेल होने से तुम्हारे अंदर के वो सारे गुण समाप्त नहीं हो गए… जैसे कोयले का वो टुकड़ा कुछ देर मिटटी में पड़े होने के बावजूब बेकार नहीं हुआ और अंगीठी में वापस डालने पर धधक कर जल उठा , ठीक उसी तरह तुम भी वापस अच्छी संगती में जाकर , मेहनत कर एक बार फिर मेधावी छात्रों की श्रेणी में आ सकते हो … याद रखो, मनुष्य ईश्वर की बनायीं सर्वश्रेस्ठ कृति है उसके अंदर बड़ी से बड़ी हार को भी जीत में बदलने की ताकत है , उस ताकत को पहचानो , उसकी दी हुई असीम शक्तियों का प्रयोग करो और इस जीवन को सार्थक बनाओ। “ अमित समझ चुका था कि उसे क्या करना है , वह चुप-चाप उठा , प्रिंसिपल साहब के चरण स्पर्श किये और निकल पड़ा अपना भविष्य बनाने ।
डॉ. राधाकृष्णन शिक्षा को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साधन के रूप में परिभाषित करते हैं। सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए, उत्पादकता बढ़ाने के लिए, शिक्षा का उचित उपयोग किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि, "शिक्षा का महत्व केवल ज्ञान और कौशल में नहीं है, बल्कि यह हमें दूसरों के साथ रहने में मदद करना है।"

प्राणायाम
योग के मुख्य चार प्रकार के व इसके आठ अंग हैं। राज योग, कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग।
योग के आठ अंग ये है - यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारण,ध्यान और समाधि । श्वास और नि:श्वास की गति को नियंत्रण कर रोकने व निकालने की क्रिया को प्राणायाम कहते है।आसन के परांगत होने के बाद श्वास प्रश्वास की गति को विच्छेद करना अर्थात रोक देना या अपने अनुसार व्यवस्थित करना प्राणायाम है। प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है प्राणों का आयाम या विस्तार। श्वास प्रश्वास की गति को नियंत्रित करके ही प्राणों का विस्तार किया जा सकता है। श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है।आसन - मात्र शरीर की स्थिरता, या आराममय स्थिति है ! प्राणायाम - प्राण (श्वास - प्रश्वास) के आयाम को जानना | योग शास्त्र के आठ हिस्सों में से चौथा हिस्सा मात्र हैं । योग के आठ हिस्से या प्रकार हैं जिसे अष्टांग योग कहते हैं । प्राणायाम सभी चिकित्सा पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसके नियमित और विधिवत अभ्यास से समस्त स्नायु कोष, नस नाडि़याँ, अस्थियाँ, मांसपेशियाँ और अंग प्रत्यंग के रोग दूर होकर वे सशक्त और सक्रिय बनते हैं. इसके प्रयोग से प्राणशक्ति व जीवनीशक्ति बढ़ती है, सप्तधातुएं परिपुष्ट होती हैं |
योगासनों की शुरुआत अंग-संचलन से मानी गई है, प्राणायम पूरक, कुंभक और रेचक से शुरू करें। श्वास लेने की क्रिया को पूरक और श्वास छोड़ने को रेचक कहा जाता है। फेफड़ों के भीतर वायु को नियमानुसार रोकना, आंतरिक और पूरी श्वास बाहर निकालकर वायुरहित फेफड़े होने की क्रिया को बाहरी कुंभक कहते हैं।प्राणायाम के द्वारा हमें शारीरिक तथा मानसिक समता प्राप्त हो जाती है और शरीर के सभी मल तथा मन के विकार भस्म हो जाते हैं। प्राणायाम के अभ्यास से मनुष्य अपने रोगों को नष्ट करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। मनुष्य की सभी नस-नाड़ियों में साफ रक्त का संचार होने लगता है, जो उत्तम स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है।
प्राणायाम के कुछ प्रमुख प्रकार हैं -
नाड़ी शोधन प्राणायाम,शीतली प्राणायाम,उज्जायी प्राणायाम,कपालभाती प्राणायाम,डिग्र प्राणायाम,भस्त्रिका प्राणायाम,बाह्य प्राणायाम,भ्रामरी प्राणायाम |

बेसन सूजी के कटलेट
हम बना रहे है लाजबाब मसालेदार बेसन सूजी के कटलेट आप खुद भी खाए और मेहमानों को खिलाये |
सामग्री
बेसन,सूजी,अजवाइन,हल्दी,लाल मिर्च,धनिया पाउडर,जीरा,गरम मसाला,नमक,नींबू,पाव भाजी मसाला,शिमला,टमाटर, हरी मिर्च,हरा धनिया,गाजर,प्याज, तेल |
बनाने का तरीका
एक परात में बेसन,सूजी,अजवाइन,हल्दी,लाल मिर्च,धनिया पाउडर,जीरा,गरम मसाला,पाव भाजी मसाला,नमक,नींबू का रस,पानी के साथ डाल कर गुंदे ,गाजर,शिमला मिर्च,टमाटर,हरी मिर्च,हरा धनिया व तेल डालें | सबको मिला कर दस मिनट ढक कर रख दे |
अब अपने मन पसंद आकर देकर कटलेट बना ले | गैस पर पेन रख तेल डालकर गर्म करें | कटलेट डाल कर तले गैस माध्यम रखें | इन्हें पलटते रहे नही तो जलने का खतरा बना रहता है | तैयार है सूजी बेसन का कटलेट | आप खाए व मेहमानों को खिलाये,लुफ्त उठाइए |
नोट - दो कप बेसन में आधा कप सूजी मिलते है | इसी अनुपात में आप आवश्यकता अनुसार सामग्री ले सकते है मसाले हमे अपने स्वाद अनुसार डालने चाहिए है | नीबू के रस की जगह आप आमचूर भी डाल सकते है | -मिथलेश शर्मा

आजादी का अमृत महोत्सव
यह उत्सव नहीं महोत्सव है, मुक्ति के 75 साल बिताने का
कुछ याद रहे, कुछ भूल गए, वीरों का आभार जताने का
वे निस्वार्थी लोग थे सब, जिन्हें शोषण नागवार हुआ
वे अपने प्राण लुटाते रहे, उनका बलिदान आधार हुआ
हम आज भी पूर्ण मुक्त नहीं, उस मानसिक बीमारी से
जिसे लोभ, लालच कहते हैं, उस भीषण महामारी से
मेरा भारत विश्व गुरु बना, जिसने शांति संदेश दिया
अपनी पावन संस्कृति से, सारे विश्व को हिला दिया
पर छोड़ न पाया लालच को, कुदरत को जड़ से नोच रहा
सागर सोखे, जंगल काटे, अपने विश्राम की सोच रहा
कुदरत भी सहती कितना,अब उसका धैर्य भी टूट गया
मानव ने जब उसे मिटाया, उसका भाग्य भी फूट गया
'कोरोना' उसी की देन है, जो सबको मिटाना चाहती है
फिर जो भी आगे आ जाए, उन सबको हटाना चाहती है
चलो आजादी मनाएँ ऐसे, किसी को कोई कष्ट न हो
उन शहीदों की कुर्बानी पर, किसी को कोई शक न हो
75 साल जो बीत गए, मेरे देश ने बहुत कुछ पाया है
आत्मनिर्भरता से आगे बढ़ना, हमें गाँधीजी ने सिखाया है
आओ मानवता अपनाकर ,अपने देश का मान बढ़ाएँ हम
अपने स्वार्थों को छोड़कर, विकास की राह अपनाएँ हम
सच्ची आजादी तभी मिलेगी, जब देश प्रेम अपनाएँगे हम
मन के सब विकार भुलाकर, देश का मान बढ़ाएँगे हम
लड़ना सीखा, जीतना सीखा, अब न पीछे हटेंगे हम
आज शपथ यह खाते हैं, देश की रक्षा करेंगे हम
नवयुग को अपनाकर, प्राचीन परंपरा भी अपनाएँगे
अपने देश की रक्षा के लिए, तन-मन-धन मिटाएँगे
रिँकू शर्मा,हिंदी अध्यापिका
ओ०पी०एस० विद्या मंदिर,अंबाला (हरियाणा)

शारदीय नवरात्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
इस मन्त्र को नवार्ण मंत्र भी कहा जाता है | देवी भक्तों में सबसे सशक्त मंत्र माना जाता है। इस मन्त्र के जाप से महासरस्वती,महाकाली तथा महालक्ष्मी माता का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
अश्वनी मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक शारदीय नवरात्र मनाए जाते हैं | घटस्थापना कर, दुर्गा पूजन,आरती कर, नवरात्रि व्रत कर माता को प्रसन्न करे | कुछ भक्त सात दिन व्रत कर अष्टमी वाले दिन समापन करते हैं | कुछ भक्त आठ दिन व्रत करके नवमी वाले दिन समापन करते हैं | माता के नौ रूप है शैलपुत्री,ब्रह्मचारिणी,चन्द्रघण्टा,कूष्माण्डा,स्कंदमाता,कात्यायनी,कालरात्रि,महागौरी व सिद्धिदात्री | नवरात्रि शुरू होने पर घर में माता की मूर्ति को नए वस्त्र पहनाकर घट स्थापना की जाती है और नवरात्रि ( जों ) बोए जाते हैं | नवरात्र के दिन माता से शक्ति प्राप्त करने व् अपनी मनोकामना पूर्ण करने के होते हैं | रोज स्नान कर माता की पूजा आराधना करें माता की धुप दीप से आरती उतारे | दुर्गा सप्तशती का पाठ करें एक विधि है की रोज पूरा पाठ करें | हम रोज पूरा पाठ नहीं कर पाते हैं तो पहले दिन पहला अध्याय,दूसरे दिन दूसरा व तीसरा आध्याय ,तीसरे दिन चोथा अध्याय,चोथे दिन पंचवा छठा,सातवा,आठवा अध्याय,पांचवे दिन नोवा व दसवा अध्याय,छठे दिन ग्यारहवा,सातवें दिन बारहवा व तेरहवा अध्याय पढ़े | इस विधि से भी हम दुर्गा सप्तशती का पाठ कर सकते हैं | जो अष्टमी करते हैं उन्हें अष्टमी,वाले दिन और जो नवमी करते हैं उनको नवमी वाले दिन कन्याओं का पूजन करना चाहिए | 10 वर्ष से छोटी कन्याओं का पूजन करना चाहिए और एक बालक को भी साथ बुलाना चाहिए | अधिक जानकारी के लिय फोन करे - शर्मा जी 9312002527

पड़ते समय ध्यान दे
पढाई हमेशा कुर्सी-टेबल पर बैठ कर ही करें , बिस्तर पर लेट कर बिलकुल भी न पढ़े । लेटकर पढने से पढ़ा हुआ दिमाग में बिलकुल नही जाता , बल्कि नींद आने लगती है । पढ़ते समय टेलीविजन न चलाये और रेडियो या गाने भी बंद रखे ।पढाई के समय मोबाइल स्विच ऑफ़ करदे या साईलेंट मोड में रखे ,पढ़े हुए पाठ्य को लिखते भी जाये इससे आपकी एकाग्रता भी बनी रहेगी और भविष्य के लिए नोट्स भी बन जायेंगे । कोई भी पाठ्य कम से तीन बार जरुर पढ़े । रटने की प्रवृत्ति से बचे , जो भी पढ़े उस पर विचार मंथन जरुर करें । शार्ट नोट्स जरुर बनाये ताकि वे परीक्षा के समय काम आये ।
पढ़े हुए पाठ्य पर विचार -विमर्श अपने मित्रो से जरुर करें , ग्रुप डिस्कशन पढाई में लाभदायक होता है। पुराने प्रश्न पत्रों के आधार पर महत्वपूर्ण टोपिक को छांट ले और उन्हें अच्छे से तैयार करें ।
संतुलित भोजन करें क्योंकि ज्यादा भोजन से नींद और आलस्य आता है , जबकि कम भोजन से पढने में मन नही लगता है ,और थकावट, सिरदर्द आदि समस्याएं होती है । चित्रों , मानचित्रो , ग्राफ , रेखाचित्रो आदि की मदद से पढ़े । ये अधिक समय तक याद रहते है ।पढाई में कंप्यूटर या इन्टरनेट की मदद ले सकते है | - राजेश शुक्ला
दादा भाई नौरोजी

प्रेरक प्रसंग
किशनगंज में रहने वाली बहन ट्विंकल कालरा जिनका विवाह 2002 में हुआ। माता-पिता ने वर पक्ष से कोई भी गाड़ी भेंट स्वरूप ग्रहण करने का आग्रह किया। होने वाली पति ने दहेज लेने से मना कर दिया, लेकिन वधू पक्ष की और से बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि "यदि आपने गाड़ी ही देनी है तो कृप्या एंबुलेंस दे" । ट्विंकल ने अपने होने वाले पति से पूछा कि "आखिर एंबुलेंस ही क्यों" उत्तर मिला कि "जब मैं 14 बरस का था तो मेरे पिता की रोड एक्सीडेंट में इसलिए मृत्यु हो गई क्योंकि कोई एंबुलेंस उपलब्ध नहीं थी"। आज ट्विंकल स्वयं अपने पति के साथ 16 एंबुलेंस का संचालन करती है। 10000 से अधिक दुर्घटना में घायलों के प्राणों की रक्षा कर चुकी हैं। यह सेवा करते करते ट्विंकल को हेपिटाइटिस बी हो गया जिसका विश्व में कोई इलाज नहीं था ,लेकिन ईश्वर को शायद कुछ और मंजूर था 6 महीने बाद ही हेपिटाइटिस बी , पॉजिटिव से नेगेटिव हो गया। संघर्ष की गाथा यही पर नहीं रुकी 2 वर्ष पूर्व ट्विंकल को कैंसर हुआ। कीमो थेरेपी निरंतर चलती है ।उसके बाद भी जब भी कोई एंबुलेंस की मदद के लिए पुकारता है तो अपने स्वास्थ्य की चिंता ना करते हुए भी बहन ट्विंकल एंबुलेंस लेकर निकल पड़ती है ।इनका लक्ष्य 16 से बढकर 150 एंबुलेंस का संचालन करना है ।
महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा 2 वर्ष पूर्व इन्हें सम्मानित भी किया गया यह सारी जानकारी आज स्वयं बहन ट्विंकल ने कार्यक्रम में दी।
पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त या जी॰बी॰ पन्त (जन्म १० सितम्बर १८८७ - ७ मार्च १९६१) प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी और वरिष्ठ भारतीय राजनेता थे। वे उत्तर प्रदेश राज्य के प्रथम मुख्य मन्त्री और भारत के चौथे गृहमंत्री थे। सन 1957 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया।


जाने भारत को - केरल
रामायण माह
एक ऐसे ही अद्भुत तथ्य है *रामायण माह*
भारत के अधिकांश हिंदुओ को मालूम ही नही है कि केरल में मलयाली हिंदू श्रावण माह को *रामायण माह* के रूप में मनाते है और युवा घर घर जाकर रामायण का प्रचार करते है, *हर घर और मंदिर में मलयालम में लिखी रामायण पाठ करना अनिवार्य होता है*। जो लोग पूरी रामायण एक माह में नही पढ़ सकते वो लोग रोज सुंदरकांड पढ़ते है ।
श्रावण माह को केरल के पंचाग में अंतिम माह माना जाता है । समुद्री तट और बहुत जंगल होने के कारण केरल में जून में ही बहुत जोरदार बारिश होने लगती है। इसलिए इस माह में केरल में चावल, गुड, जीरा, पीपली, नमक और कुछ आयुर्वेदिक औषधियों से बने पेय कांजी को पिया जाता है ताकि स्वास्थ्य पर खराब मौसम का प्रभाव न पड़े।
रामायण माह में केरल के *त्रिशूर शहर में स्थित श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के अलग अलग बने मंदिरो का दर्शन लोग प्रात:काल से लेकर दोपहर तक कर लेते है।* ये तीर्थ कार्य इस माह का अनिवार्य कार्य होता है।
महिलाए आध्यात्मिकता और स्वास्थ्य लाभ के
लिए दस विशेष औषधीय पुष्पों की वेणी
बनाकर बालो में लगाती है। इस माह में केरल में हाथियों की *गजपुजा महोत्सव* किया जाता है, उनको एक माह पूरा आराम, औषधीय पदार्थ से मालिश और उत्तम आहार दिया जाता है।
इस माह की अमावस्या को केरल के हिंदू पितर तर्पण श्राद्ध करते है। इस माह ने कोई नया कार्य नही किया जाता। आश्चर्य है कि इस रामायण माह की कही कोई चर्चा नही की जाती अखबारों, न्यूज चैनल पर। बल्कि यही लोग दौड़ दौड़कर बताते है कि स्पेन में टमाटर महोत्सव हुआ, फ्रांस में कोई महोत्सव हुआ, पर *भारत देश के एक पूरे राज्य में हिंदुओ का विशाल महोत्सव एक माह चलता है |

पाप का गुरू कौन
एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद अपने गांव लौटे। गांव के एक किसान ने उनसे पूछा, पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है? प्रश्न सुन कर पंडितजी चकरा गए, क्योंकि भौतिक व आध्यात्मिक गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और अध्ययन के बाहर था।
पंडितजी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा है, इसलिए वे फिर काशी लौटे। फिर अनेक गुरुओं से मिले। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हो गई। उसने पंडित जी से उनकी परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी। वेश्या बोली, पंडित जी..! इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान, लेकिन इसके लिए कुछ दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा।पंडित जी के हां कहने पर उसने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी।पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम-आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। इस प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से बीते, लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। एक दिन वेश्या बोली, पंडित जी ! आपको बहुत तकलीफ होती है खाना बनाने में। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो मैं नहा-धोकर आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं।आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी। स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया। साथ में पका-पकाया भोजन। अर्थात दोनों हाथों में लड्डू इस लोभ में पंडित जी अपना नियम-व्रत, आचार-विचार धर्म सब कुछ भूल गए। पंडित जी ने हामी भर दी और वेश्या से बोले, ठीक है, तुम्हारी जैसी इच्छा। लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि कोई देखे नहीं तुम्हें मेरी कोठी में आते-जाते हुए। वेश्या ने पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर पंडित जी के सामने परोस दिया। पर ज्यों ही पंडित जी खाने को तत्पर हुए,त्यों ही वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है?वेश्या ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी, यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है। यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर,किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे,मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभही पापका गुरु है।

योग और भोग
एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा सभा बुलाकर प्रश्न किया कि "मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ?
इसका क्या कारण है ? राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं । सब सोच में पड़ गये । कि अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले महाराज की जय हो ! आपके प्रश्न का उत्तर यहां भला कौन दे सकता है , यदि आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में जाएँ तो वहां पर आपको एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है । राजा की जिज्ञासा बढ़ी और घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार (गरम गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं , सहमे हुए राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा... महात्मा ने क्रोधित होकर कहा "तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं है मैं भूख से पीड़ित हूँ। तेरे प्रश्न का उत्तर यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं वे दे सकते हैं ।"
राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा किन्तु यह क्या... महात्मा को देखकर राजा हक्का बक्का रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे । राजा के प्रश्न पूछते ही महात्मा ने भी डांटते हुए कहा " मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास इतना समय नहीं है , आगे जाओ पहाड़ियों के उस पार एक आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर दे सकता है। सुनकर राजा बड़ा बेचैन हुआ बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच चुका हूँ वहाँ भी जाकर देखता हूँ क्या होता है । राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर किसी तरह प्रातः होने तक उस गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया और उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही और शीघ्रता से बच्चा लाने को कहा जैसे ही बच्चा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया । राजा को देखते ही बालक ने हँसते हुए कहा राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुनो लो - तुम, मैं और वो दोनों महात्मा पिछले जन्म में चारों भाई व राजकुमार थे ।

एकबार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में भटक गए। दो दिन भूखे प्यासे भटकते रहे । अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली जैसे तैसे हमने चार बाटी सेकीं और अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा आ गये। अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा -"बेटा मैं तीन दिन से भूखा हूँ अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो , मुझ पर दया करो जिससे मेरा भी जीवन बच जाय, इस घोर जंगल से पार निकलने की मुझमें भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी। इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले "तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या ये अंगार खाऊंगा ? चलो भागो यहां से ....। वे महात्मा जी फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही किन्तु उन भइया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि "बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ? " भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये , मुझे भी बाटी मांगी... तथा दया करने को कहा किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि " चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ ...?"। बालक बोला "अंतिम आशा लिये वो महात्मा हे राजन। आपके पास आये , आपसे भी दया की याचना की, सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी। बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और जाते हुए बोले "तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा " बालक ने कहा "इस प्रकार हे राजन ! उस घटना के आधार पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं, धरती पर एक समय में अनेकों फूल खिलते हैं, किन्तु सबके फल रूप, गुण, आकार-प्रकार, स्वाद में भिन्न होते हैं " ..। इतना कहकर वह बालक मर गया । राजा अपने महल में पहुंचा और माना कि ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र है।

एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक जन्म लेते हैं किन्तु सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं । जैसा भोग भोगना होगा वैसे ही योग बनेंगे। जैसा योग होगा वैसा ही भोग भोगना पड़ेगा यही जीवन चक्र ज्योतिष शास्त्र समझाता है।

स्वतंत्रता आन्दोलन में संघ का सहभाग
डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के लिए ही छोड़ी थी डॉक्टरी सहभाग किया, श्रेय नहीं लिया
कुछ समय पूर्व एक पत्रकार मिलने आए। बात-बात में उन्होंने पूछा कि स्वतंत्रता आन्दोलन में संघ का सहभाग क्या था? शायद वे भी संघ के खिलाफ चलने वाले असत्य प्रचार के शिकार थे। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया कि आप स्वतंत्रता आन्दोलन किसको मानते हैं? वे इसके लिए तैयार नहीं थे। कुछ बोल ही नहीं सके। फिर धीरे से शंकित स्वर में उन्होंने कहा, वही जो महात्मा गांधी जी ने किया था। मैंने पूछा क्या लाल, बाल, पाल त्रिमूर्ति का कोई योगदान नहीं था? क्या सुभाष बाबू की कोई भूमिका स्वतंत्रता आन्दोलन में नहीं थी? वे चुप थे। फिर मैंने पूछा कि गांधीजी के नेतृत्व में कितने सत्याग्रह हुए? वे अनजान थे। मैंने कहा कि तीन हुए- 1921, 1930 और 1942। उन्हें जानकारी नहीं थी। मैंने कहा संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने (उनकी मृत्यु 1940 में हुई थी) संघ स्थापना से पहले (1921) और बाद के (1930) सत्याग्रह में भाग लिया था और उन्हें कारावास भी सहना पड़ा।
यह घटना इसलिए कही कि एक योजनाबद्ध तरीके से आधा इतिहास बताने का एक प्रयास चल रहा है। भारत के लोगों को ऐसा मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है कि स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली है। और किसी ने कुछ नहीं किया। यह बात पूर्ण सत्य नहीं है। गांधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से, चरखा और खादी के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी होने का एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया। और लाखों की संख्या में लोग स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ सके, यह बात सत्य है। परन्तु सारा श्रेय एक ही आन्दोलन या पार्टी को देना यह इतिहास से खिलवाड़ है, अन्य सभी के प्रयासों का अपमान है।
अब संघ की बात करनी है तो डॉ. हेडगेवार से ही करनी पड़ेगी। केशव (हेडगेवार) का जन्म 1889 का है। नागपुर में स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा 1904-1905 से शुरू हुई। उसके पहले अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन का बहुत वातावरण नहीं था। फिर भी 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त स्कूल में बांटी गई मिठाई 8 साल के केशव ने ना खाकर कूड़े में फेंक दी। यह था उसका अंग्रेजों के गुलाम होने का गुस्सा और चिढ़। 1907 में रिस्ले सेक्युलर नाम से ‘वंदे मातरम्’ के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबंदी का जो अन्यायपूर्ण आदेश घोषित हुआ था, उसके विरोध में केशव ने अपने नील सिटी विद्यालय में सरकारी निरीक्षक के सामने अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों द्वारा ‘वन्दे मातरम्’ उद्घोष करवा कर विद्यालय के प्रशासन का रोष और उसकी सजा के नाते विद्यालय से निष्कासन भी मोल लिया था। डॉक्टरी पढ़ने के लिए मुंबई में सुविधा होने के बावजूद क्रांतिकारियों का केंद्र होने के नाते उन्होंने कलकत्ता को पसंद किया। वहां वे क्रांतिकारियों की शीर्षस्थ संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के विश्वासपात्र सदस्य बने थे।
1916 में डॉक्टर बनकर वे नागपुर वापस आए। उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन के सभी मूर्धन्य नेता विवाहित थे, गृहस्थ थे। अपनी गृहस्थी के लिए आवश्यक अर्थार्जन का हरेक का कोई न कोई साधन था। इसके साथ-साथ वे स्वतंत्रता आन्दोलन में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार भी ऐसा ही सोच सकते थे। घर की परिस्थिति भी ऐसी ही थी। परन्तु उन्होंने डॉक्टरी एवं विवाह नहीं करने का निर्णय लिया। उनके मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की इतनी तीव्रता और ‘अर्जेंसी’ थी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन का कोई विचार न करते हुए अपनी सारी शक्ति, समय और क्षमता राष्टÑ को अर्पित करते हुए स्वतंत्रता के लिए चलने वाले हर प्रकार के आन्दोलन से अपने आपको जोड़ दिया।
लोकमान्य तिलक पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी। तिलक के नेतृत्व में नागपुर में होने जा रहे 1920 के कांग्रेस अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉ. हर्डीकर और डॉ. हेडगेवार को दी गई थी और उसके लिए उन्होंने 1,200 स्वयंसेवकों की भर्ती करवाई थी। उस समय डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर शहर इकाई के संयुक्त सचिव थे। उस अधिवेशन में पारित करने हेतु कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने डॉ. हेडगेवार ने ऐसे प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांगे्रस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए। सम्पूर्ण स्वातंत्र्य का उनका सुझाव कांग्रेस ने 9 वर्ष बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत किया। इससे आनंदित होकर डॉक्टर जी ने संघ की सभी शाखाओं में (संघ कार्य 1925 में प्रारंभ हो चुका था) 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस का अभिनंदन करने की सूचना दी थी। नागपुर तिलकवादियों का गढ़ था। 1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक के देहावसान के कारण नागपुर के सभी तिलकवादियों में निराशा छा गई। बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का स्वतंत्रता आन्दोलन चला।
असहयोग आन्दोलन के समय, 1921 में, साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन के सामाजिक आधार को व्यापक करने की दृष्टि से, अंग्रेजों द्वारा तुर्किस्तान में खिलाफत को निरस्त करने से आहत मुस्लिम मन को अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जोड़ने के उद्देश्य से महात्मा गांधी ने खिलाफत का समर्थन किया। इस पर कांग्रेस के अनेक नेता तथा राष्ट्रवादी मुस्लिमों को आपत्ति थी। इसलिए, तिलकवादियों का गढ़ होने के कारण नागपुर में असहयोग आन्दोलन बहुत प्रभावी नहीं रहा। परन्तु डॉ. हेडगेवार, डॉ. चोलकर, समिमुल्ला खान आदि ने यह परिवेश बदल दिया। उन्होंने खिलाफत को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने पर आपत्ति होते हुए भी उसे सार्वजनिक नहीं किया। इसी मापदंड के आधार पर साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए उन्होंने तन-मन-धन से आन्दोलन में सहभाग लिया। व्यक्तिगत सामाजिक संबंधों से अलग हटकर उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण किया और आसपास के राजनीतिक वातावरण एवं दबंग तिलकवादियों के दृष्टिकोण की चिंता नहीं की। उन पर चले राजद्रोह के मुकदमे में उन्हें एक वर्ष का कारावास सहना पड़ा। वे 19 अगस्त, 1921 से 11 जुलाई, 1922 तक कारावास में रहे। वहां से छूटने के बाद 12 जुलाई को उनके सम्मान में नागपुर में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ था। समारोह में प्रांतीय नेताओं के साथ-साथ कांग्रेस के अन्य राष्टÑीय नेता हकीम अजमल खां, पंडित मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ. अंसारी, विट्ठल भाई पटेल आदि डॉ. हेडगेवार का स्वागत करने के लिए उपस्थित थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति का महत्व तथा प्राथमिकता को समझते हुए भी एक प्रश्न डॉ. हेडगेवार को सतत् सताता रहता था कि, 7000 मील से दूर व्यापार करने आए मुट््ठी भर अंग्रेज, इस विशाल देश पर राज कैसे करने लगे? जरूर हममें कुछ दोष होंगे। उनके ध्यान में आया कि हमारा समाज आत्म-विस्मृत, जाति प्रान्त-भाषा-उपासना पद्धति आदि अनेक गुटों में बंटा हुआ, असंगठित और अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है जिसका लाभ लेकर अंग्रेज यहां राज कर सके। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी समाज ऐसा ही रहा तो कल फिर इतिहास दोहराया जाएगा। वे कहते थे कि ‘नागनाथ जाएगा तो सांपनाथ आएगा’। इसलिए इस अपने राष्ट्रीय समाज को आत्मगौरव युक्त, जागृत, संगठित करते हुए सभी दोष, कुरीतियों से मुक्त करना और राष्ट्रीय गुणों से युक्त करना अधिक मूलभूत आवश्यक कार्य है और यह कार्य राजनीति से अलग, प्रसिद्धि से दूर, मौन रहकर सातत्यपूर्वक करने का है, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ। उस हेतु 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ स्थापना के पश्चात् भी सभी राजनीतिक या सामाजिक नेताओं, आन्दोलन एवं गतिविधि के साथ उनके समान नजदीकी के और आत्मीय संबंध थे।
1930 में गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन 6अप्रैल को दांडी (गुजरात) में नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ। नवम्बर 1929 में ही संघचालकों की त्रिदिवसीय बैठक में इस आन्दोलन को बिना शर्त समर्थन करने का निर्णय संघ में हुआ था। संघ की नीति के अनुसार डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकों के साथ इस सत्याग्रह में भाग लेने का निर्णय लिया। और संघ कार्य अविरत चलता रहे इस हेतु उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्व अपने पुराने मित्र डॉ. परांजपे को सौंप कर बाबासाहब आप्टे और बापू राव भेदी को शाखाओं के प्रवास की जिम्मेदारी दी। इस सत्याग्रह में उनके साथ प्रारंभ में 21 जुलाई, को 3-4 हजार लोग थे। वर्धा, यवतमाल होकर पुसद पहुंचते-पहुंचते सत्याग्रह स्थल पर 10,000 लोग इकट्ठे हुए। इस सत्याग्रह में उन्हें 9 महीने का कारावास हुआ। वहां से छूटने के पश्चात् सरसंघचालक का दायित्व पुन: स्वीकार कर वे फिर से संघ कार्य में जुट गए।
1938 में भागानगर (हैदराबाद) में निजाम के द्वारा हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ हिन्दू महासभा और आर्य समाज के तत्वावधान में ‘भागानगर नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल’ के नाम से सत्याग्रह का आह्वान हुआ उसमें सहभागी होने के लिए जिन स्वयंसेवकों ने अनुमति मांगी उन्हें डॉक्टर ने सहर्ष अनुमति दी। जिन पर केवल संघ का प्रमुख दायित्व था उन्हें केवल संगठन के कार्य की दृष्टि से बाहर ही रहने के लिए कहा था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि सत्याग्रह में जिन्हें भाग लेना है वे व्यक्तिके नाते अवश्य भाग ले सकते हैं। भागनगर सत्याग्रह के संचालकों के द्वारा प्रसिद्धि पत्रक में ‘संघ’ ने सहभाग लिया, ऐसा बार-बार आने पर डॉक्टर ने उन्हें पत्र लिखकर संघ का उल्लेख न करने की सूचना उनके प्रसिद्धि विभाग को देने को कहा था।
राजकीय आन्दोलन का तात्कालिक, नैमित्तिक व संघर्षमय स्वरूप और संघ का नित्य, अविरत (अखंड) व रचनात्मक स्वरूप इन दोनों की भिन्नता को समझ कर आन्दोलन भी यशस्वी हो, परन्तु उस समय भी चिरंतन संघकार्य अबाधित रहे इस दूरदृष्टि से विचारपूर्वक यह नीति डॉक्टर ने अपनाई थी। इसीलिए जंगल सत्याग्रह के समय भी सरसंघचालक का दायित्व डॉ परांजपे को सौंप कर व्यक्ति के नाते वे अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह में सह्भागी हुए थे।
8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने ‘अंग्रेज! भारत छोड़ो’ यह ऐतिहासिक घोषणा की। दूसरे दिन से ही देश में आन्दोलन ने गति पकड़ी और जगह जगह आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई।
विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांगे्रस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया। इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर इस संघ स्वयंसेवक की हुई। कांग्रेस, श्री तुकडो महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ स्वयंसेवकों ने मिलकर 1943 का चिमूर का आन्दोलन और सत्याग्रह किया। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया।
भारतभर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणा से कूद पड़े। अपने जिन कार्यकर्ताओं ने स्थान-स्थान पर अन्य स्वयंसेवकों को साथ लेकर इस आन्दोलन में भाग लिया उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं- राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, जो बाद में विद्या भारती में सक्रिय रहे। आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे। जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, जिन्होंने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। दिल्ली मेें श्री वसंतराव ओक जो बाद में दिल्ली के प्रान्त प्रचारक रहे। बिहार (पटना), में वहां के प्रसिद्ध वकील कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) जो बाद में बिहार के संघचालक रहे। दिल्ली में ही श्री चंद्रकांत भारद्वाज, जिनके पैर में गोली धंसी और जिसे निकाला नहीं जा सका। बाद में वे प्रसिद्ध कवि और अनेक संघ गीतों के रचनाकार हुए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में माधवराव देवडेÞ जो बाद में प्रान्त प्रचारक बने और इसी तरह उज्जैन (मध्य प्रदेश) में दत्तात्रेय गंगाधर (भैयाजी) कस्तूरे का अवदान है जो बाद में संघ प्रचारक हुए। अंग्रेजों के दमन के साथ-साथ एक तरफ सत्याग्रह चल रहा था तो दूसरी तरफ अनेक आंदोलनकर्ता भूमिगत रहकर आन्दोलन को गति और दिशा देने का कार्य कर रहे थे। ऐसे समय भूमिगत कार्यकर्ताओं को अपने घर में पनाह देना किसी खतरे से खाली नहीं था। 1942 के आन्दोलन के समय भूमिगत आन्दोलनकर्ता अरुणा आसफ अली दिल्ली के प्रान्त संघचालक लाला हंसराज गुप्त के घर रही थीं और महाराष्टÑ में सतारा के उग्र आन्दोलनकर्ता नाना पाटील को भूमिगत स्थिति में औंध के संघचालक पंडित सातवलेकर ने अपने घर में आश्रय दिया था। ऐसे असंख्य नाम और हो सकते हैं। उस समय इन सारी बातों का दस्तावेजीकरण (रिकार्ड) करने की कल्पना भी संभव नहीं थी।

डॉ. हेडगेवार के जीवन का अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि बाल्यकाल से आखिरी सांस तक उनका जीवन केवल और केवल अपने देश और उसकी स्वतंत्रता इसके लिए ही था। उस हेतु उन्होंने समाज को दोषमुक्त, गुणवान एवं राष्टÑीय विचारों से जाग्रत कर उसे संगठित करने का मार्ग चुना था। संघ की प्रतिज्ञा में भी 1947 तक संघ कार्य का उद्देश्य ‘हिन्दू राष्टÑ को स्वतंत्र करने के लिए’ ऐसा ही था। हेडगेवार दृष्टि-संघ दृष्टि
भारतीय राष्टÑ जीवन में ‘एक्सट्रीम पोजीशंस’ लेने की स्थिति दिखती थी। डॉक्टर जी के समय भी समाज कांग्रेस-क्रांतिकारी, तिलक-गांधी, हिंसा-अहिंसा, हिन्दू महासभा-कांग्रेस ऐसे द्वन्द्वों में उलझा हुआ था। एक दूसरे को मात करने का वातावरण बना था। कई बार तो आपसी भेद के चलते ऐसा बेसिर का विरोध करने लगते थे कि साम्राज्यवाद के विरोध में अंग्रेजों से लड़ने के बदले आपस में ही भिड़ते दिखते थे। 1921 में मध्य प्रान्त कांग्रेस की प्रांतीय बैठक में लोकनायक अणे की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की निंदा का प्रस्ताव आने वाला था। डॉ. हेडगेवार ने उन्हें समझाया कि क्रांतिकारियों के मार्ग पर आपका विश्वास भले ही ना हो पर उनकी देशभक्ति पर शंका नहीं करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में डॉ. जी का जीवन राजनीतिक दृष्टिकोण, दर्शन एवं नीतियां, तिलक-गांधी, हिंसा -अहिंसा, कांग्रेस-क्रांतिकारी, इन संकीर्ण विकल्पों के आधार पर निर्धारित नहीं थी। व्यक्ति अथवा विशिष्ट मार्ग से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्ति का मूल ध्येय था।
भारत को केवल राजनीतिक इकाई मानने वाला एक वर्ग हर प्रकार के श्रेय को अपने ही पल्ले में डालने पर उतारू दिखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए दूसरों ने कुछ नहीं किया, सारा का सारा श्रेय हमारा ही है ऐसा (‘प्रोेपगंडा’) एकतरफा प्रचार करने पर वह आमादा दिखता है। यह उचित नहीं है। सशस्त्र क्रांति से लेकर अहिंसक सत्याग्रह, सेना में विद्रोह, आजाद की हिन्द फौज इन सभी के प्रयासों का एकत्र परिणाम स्वतंत्रता प्राप्ति में हुआ है। इसमें द्वितीय महायुद्ध में जीतने के बाद भी इंग्लैंड की खराब हालत और अपने सभी उपनिवेशों पर शासन करने की असमर्थता और अनिच्छा के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। स्वतंत्रता के लिए भारत के समान दीर्घ संघर्ष नहीं हुआ, ऐसे उपनिवेशों को भी अंग्रेजों ने क्रमश: स्वतंत्र किया है।
1942 का सत्याग्रह, महात्मा गांधी द्वारा किया हुआ आखिरी सत्याग्रह था और उसके पश्चात् 1947 में देश स्वतंत्र हुआ, यह बात सत्य है। परन्तु इसलिए स्वतंत्रता केवल 1942 के आन्दोलन के कारण ही मिली, और जो लोग उस आन्दोलन में कारावास में रहे उनके ही प्रयास से भारत स्वतंत्र हुआ यह कहना हास्यास्पद, अनुचित और असत्य है।
एक रूपक कथा है। एक किसान को बहुत भूख लगी। पत्नी खाना परोस रही थी और वह खाए जा रहा था। पर तृप्ति नहीं हो रही थी, दस रोटी खाने के बाद जब उसने ग्यारहवीं रोटी खाई तो उसे तृप्ति की अनुभूति हुई। उससे नाराज होकर वह पत्नी को डांटने लगा कि यह ग्यारहवीं रोटी जिससे तृप्ति हुई, उसने पहले क्यों नहीं दी। इतनी सारी रोटियां खाने की मेहनत बच जाती और तृप्ति जल्दी अनुभूत होती। यह कहना हास्यास्पद ही है।
इसी तरह यह कहना कि केवल 1942 के आन्दोलन के कारण ही भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, हास्यास्पद बात है। इसके बारे में अन्य इतिहासकार क्या कहते हैं जरा देखिए-
भारत को आजाद करते समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने कहा था, ‘‘महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का ब्रिटिश सरकार पर असर शून्य रहा है।’’ कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और पश्चिम बंगाल के कार्यकारी गवर्नर रहे पी़ एम़ चक्रवर्ती के शब्दों में, ‘‘जिन दिनों मैं कार्यकारी गवर्नर था, उन दिनों भारत दौरे पर आए लॉर्ड एटली, जिन्होंने अंग्रेजों को भारत से बाहर कर कोई औपचारिक आजादी नहीं दी थी, दो दिन के लिए गवर्नर निवास पर रुके थे। भारत से अंग्रेजी हुकूमत के चले जाने के असली कारणों पर मेरी उनके साथ लंबी बातचीत हुई थी। मैंने उनसे सीधा प्रश्न किया था कि चूंकि गांधी जी का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ तब तक हल्का पड़ चुका था और 1947 के दौरान अंग्रेजों को यहां से आनन-फानन में चले जाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी, तब वह क्यों गए ? इसके जवाब में एटली ने कई कारण गिनाए, जिनमें से सबसे प्रमुख था भारतीय सेना और नौसेना की ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी का लगातार कम होते जाना। इसका मुख्य कारण नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सैन्य गतिविधियां थीं। हमारी बातचीत के अंत में मैंने एटली से पूछा कि अंग्रेजी सरकार के भारत छोड़ जाने में गांधी जी का कितना असर था। सवाल सुनकर एटली के होंठ व्यंग्यमिश्रित मुस्कान के साथ मुड़े और वह धीमे से बोले - न्यूनतम (मिनिमल)।’’(रंजन बोरा, ‘सुभाषचंद्र बोस, द इंडियन नेशनल आर्मी, द वार आॅफ इंडियाज लिबरेशन’। जर्नल आॅफ हिस्टोरिकल रिव्यू, खंड 20,(2001), सं़ 1, संदर्भ 46)

अपनी पुस्तक ‘द इंडियाज स्ट्रगल’ में नेताजी ने लिखा है, और महात्मा जी को स्वयं अपने द्वारा प्रतिपादित योजना के प्रति स्पष्टता नहीं थी और भारत को उसकी स्वतंत्रता के अमूल्य लक्ष्य तक ले जाने से जुड़े अभियान के क्रमबद्ध चरणों से संबंधित कोई साफ विचार भी नहीं था।’’
रमेश चंद्र मजूमदार कहते हैं, ‘‘और यह तीनों का एकजुट असर था जिसने भारत को आजाद कराया। इसमें भी विशेष रूप से आईएनए मुकदमे के दौरान सामने आए तथ्य और इस कारण भारत में उठी प्रतिक्रिया, जिसके कारण पहले से ही युद्ध में टूट चुकी ब्रिटिश सरकार को साफ हो गया था कि वह भारत पर शासन करने के लिए सिपाहियों की वफादारी पर निर्भर नहीं रह सकती। भारत से जाने के उनके निर्णय का यह संभवत: सबसे बड़ा कारण था।’’(मजूमदार, रमेश चंद्र, - थ्री फेजेज आॅफ इंडियाज स्ट्रगल फॉर फ्रीडम, बीवीएन बॉम्बे, इंडिया 1967, पृ़ 58-59)
यह सारा वृत्तांत पढ़ने के बाद, यह सोचना कि 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का स्वतंत्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं है यह असत्य है। जेल में जाना यही देशभक्त होने का परिचायक है ऐसा मानना भी ठीक नहीं है। स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय लोगों में, आन्दोलन कर कारावास भोगने वाले, उनके परिवारों की देखभाल करने वाले, भूमिगत आन्दोलन करने वाले, ऐसे भूमिगत आन्दोलनकारियों को अपने घरों में पनाह देने वाले, विद्यालयों के द्वारा विद्यार्थियों में देशभक्ति का भाव जगाने वाले, स्वदेशी के द्वारा अंग्रेजों की आर्थिक नाकाबंदी करने वाले, स्वदेशी उद्योग के माध्यम से सशक्त भारतीय पर्याय देने वाले, लोककला, पत्रकारिता, कथा उपन्यास, नाटकादि के माध्यम से राष्टÑ जागरण करने वाले सभी का योगदान महत्व का है।
भारत केवल एक राजनीतिक इकाई नहीं है। यह तो हजारों वर्षों के चिंतन के आधार पर निर्मित एक शाश्वत, समग्र, एकात्म जीवन दृष्टि पर आधारित एक सांस्कृतिक इकाई है। यह जीवन दृष्टि, संस्कृति ही आसेतु हिमाचल इस वैविध्यपूर्ण समाज को एकसूत्र में गूंथकर एक विशिष्ट पहचान देती है। इसलिए, भारत के इतिहास में जब-जब सफल राजनीतिक परिवर्तन हुआ है, उसके पहले और उसके साथ-साथ एक सांस्कृतिक जागरण भारत की आध्यात्मिक शक्तिके द्वारा हुआ दिखता है। परिस्थिति जितनी अधिक विकट होती दिखती है उतनी ही ताकत के साथ यह आध्यात्मिक शक्ति भी भारत में सक्रिय हुई है, ऐसा दिखता है। इसीलिए मुगलों के शासन के साथ 12वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक सारे भारत में एक साथ भक्तिआन्दोलन प्रस्फुटित हुआ दिखता है। उत्तर में स्वामी रामानन्द से लेकर सुदूर दक्षिण में रामानुजाचार्य तक प्रत्येक प्रदेश में साधु, संत, संन्यासी ऐसे आध्यात्मिक महापुरुषों की एक अखंड परंपरा चल पड़ी है ऐसा दिखता है। अंग्रेजों की गुलामी के साथ-साथ स्वामी दयानंद सरस्वती, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक नेतृत्व की परंपरा चल पड़ी दिखती है। भारत के इतिहास में सांस्कृतिक जागरण के बिना कोई भी राजनीतिक परिवर्तन सफल और स्थाई नहीं हुआ है। इसलिए सांस्कृतिक जागरण के कार्य का मूल्याकन राजनीति के मापदंड से नहीं होना चाहिए। मौन, शांत रीति से सतत चलने वाले आध्यात्मिक, सांस्कृतिक जागरण का महत्व भारत जैसे देश के लिए अधिक मायने रखता है, यह अधोरेखित
होना चाहिए।
(लेखक डॉ. मनमोहन वैद्य जी , रा.स्व.संघ के सह सर कार्यवाह हैं)

वृक्ष एवं वनस्पति विज्ञान
सोमदत्त द्विवेदी
भारत ने ही बताया- पौधों में जीवन है
सन् १६६५ में राबर्ट हुक ने माइक्रोस्कोप के द्वारा जो वर्णन किया उससे विस्तृत वर्णन महर्षि पाराशर हजारों वर्ष पूर्व करते हैं। वे कहते हैं, कोष की रचना निम्न प्रकार है-
(१) कलावेष्टन
(२)रंजकयुक्त रसाश्रय
(३) सूक्ष्मपत्रक
(४) अण्वश्च
अब यह सेल का वर्णन तो बिना माइक्रोस्कोप के संभव नहीं है। यानी वृक्ष आयुर्वेद के लेखक को हजारों साल पहले माईक्रोस्कोप का ज्ञान रहा होगा। तब पश्चिम में इसे कोई नहीं जनता था। यह वृक्ष आयुर्वेद की वैज्ञानिक दृष्टि थी। विचार करने की विषय यह है कि अनुसंधान की परम्परा चलते रहने और अंत में इतनी गहन वैज्ञानिक दृष्टि को पाने में कितने वर्ष लगे होंगे। क्योंकि किसी और देश में वनस्पति शास्त्र का इतना प्राचीन और गहन अध्ययन नहीं हुआ है जितना कि भारत में। परन्तु हमारे वनस्पति शास्त्र के विद्वान इन सन्दभों को पाठ्य पुस्तकों में नहीं रखते, क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते। वे संस्कृत स्वयं पढ़ें या न पढ़ें, परन्तु यदि विज्ञान के विद्यार्थी के लिए संस्कृत का ज्ञान अनिवार्य कर दें तो इस देश के ज्ञान-विज्ञान का मार्ग स्वत: प्रशस्त हो जाएगा। जिसको संस्कृत का ज्ञान नहीं है उसे वृक्ष आयुर्वेद का ज्ञान कहां से होगा?
इसी प्रकार-प्रसिद्ध ग्रंथ के पृष्ठ १६३ में वृक्षों का विभिन्न वर्गीकरण, जो चरक, सुश्रुत, महर्षि पाराशर आदि ने किया है, उसका वर्णन है। वह भी वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भारत की प्रगति को दर्शाता है।
चरक का वर्गीकरण
चरक अपनी ‘चरक संहिता‘ में वनस्पतियों का चार प्रकार से वर्गीकरण करते हैं:-
(१) जिनमें फूल के बिना ही फलों की उत्पत्ति होती है जैसे गूलर, कटहल आदि।
(२) वानस्पत्य- जिनमें फूल के बाद फल लगते हैं जैसे आम, अमरूद आदि।
(३) औषधि-जो फल पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ें, उन्हें औषधि कहते हैं। जैसे गेंहू, जौ, चना आदि।
(४) वीरुध- जिनके तन्तु निकलते हैं, उन्हें वीरुध कहते हैं, जैसे लताएं, बेल, गुल्म आदि।
इसी प्रकार वनस्पति के प्रयोग के अनुसार भी कुछ वर्गीकरण हैं-
(अ) मूलिनी-जिसका मूल अन्य अंगों की अपेक्षा प्रायोगिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इनकी सोलह संख्या बताई है।
(ब) फलनी- जिनका फल प्रयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें उन्नीस प्रकार के पौधे बताये हैं। चरक ऋषि ने मानव के आहार योग्य वनस्पतियों को सात भागों में बांटा है।
(१) शूक धान्य- जिन पर शूक (बाल) निकलते हैं जैसे गेहूं, जौ आदि
(२) शिम्बी धान्य-फली की जाति वाले, जिन पर छिलका रहता है। जैसे सेम, मटर, मूंग, उड़द, अरहर आदि।
(३) शाक वर्ग- पालक, मेथी, बथुआ आदि।
(४) फल वर्ग-विभिन्न प्रकार के फल।
(५) हरित वर्ग- विभिन्न प्रकार की तरकारी, लौकी, तोरई आदि।
(६) आहार योनि वर्ग-तिल, मसाले आदि जिनका आहार में उपयोग होता है।
(७) इक्षु वर्ग- गन्ना और उसकी जातियां।
सुश्रुत का वर्गीकरण: सुश्रुत ने शाकों को दस वर्गों में बांटा है।
(१) मूल- मूली आदि। (२) पत्र- जिनके पत्तों का उपयोग होता है। (३) करीर - जिनके अंकुर का उपयोग होता है, जैसे बास। (४) अग्र-बेंत आदि। (५) फल - सभी फलदार पौधे। (६) काण्ड - कृष्माण्ड आदि। (७) अधिरुढ़-लता आदि। (८) त्वक्-मातुलुंग आदि। (९) पुष्प-कचनार आदि। (१०) कवक
महर्षि पाराशर का वर्गीकरण
महर्षि पराशर ने सपुष्प वनस्पतियों को विविध परिवारों में बांटा है। जैसे शमीगणीय (फलियों वाले पौधे), पिपीलिका गणीय, स्वास्तिक गणीय, त्रिपुण्डक् गणीय, मल्लिका गणीय और कूर्च गणीय। आश्चर्य की बात यह है कि जो विभाजन महर्षि पाराशर ने किया है, आधुनिक वनस्पति विज्ञान का विभाजन भी इससे मिलता-जुलता है।
उदाहरण के लिए- शमीगणीय विभाजन देखें-
सभी तु तुण्दमण्डला विषमविदलास्मृता।
पञ्चमुक्तदलैश्चैव युक्तजालकरुर्णितै:॥
दशभि: केशरैर्विद्यात् समि पुष्पस्य लक्षणम्।
सभी सिम्बिफला ज्ञेया पार्श्च बीजा भवेत् सा॥
वक्रं विकर्णिकं पुष्पं शुकाख्य पुष्पमेव च
एतैश्च पुष्पभेदैस्तु भिद्यन्ते समिजातय:॥
वृक्षायुर्वेद-पुष्पांगसूत्राध्याय
पराशर के अनुसार - आधुनिक मान्यता
तुण्डमण्डल,विषम विदल,पंच मुक्तदल,
युक्त जालिका,दश प्रिकेसर
इसी प्रकार अन्य विभाजन भी हैं। संस्कृत भाषा में इन नामों की उपयुक्तता और अभिव्यक्ति के कारण सर विलियम जोन्स ने कहा था ‘यदि लिनियस (आधुनिक वर्गीकरण विज्ञान का जनक) ने संस्कृत सीख ली होती तो उसके द्वारा वह अपनी नामकरण पद्धति का और अधिक विकास कर पाता।‘
मूल से जल का पीना-वृक्षों द्वारा द्रव आहार लेने का ज्ञान भारतीयों को था। अत: उनका नाम पादप, जो मूल से पानी पीता है, रखा गया था। महाभारत के शांतिपर्व में वर्णन आता है।
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्वं जलमाददेत।
तथा पवनसंयुक्त: पादै: पिबति पादप:॥ जैसे कमल नाल को मुख में रखकर अवचूषण करने से पानी पिया जा सकता है, ठीक वैसे ही पौधे वायु की सहायता से मूलों के द्वारा पानी पीते हैं।
वनस्पतियों के रोग-वराह मिहिर की ‘बृहत्संहिता‘ में चार प्रकार के वनस्पतियों के रोगों का वर्णन है, आधुनिक विवरण भी उसकी पुष्टि करते हैं।

बृहत् संहिता आधुनिक
(१) पाण्डु पत्रता - पर्णों की पाण्डुता
(२) प्रवाल अवृद्धि - कलियों का पतन
(३) शाखा शोष - डालियों का सूखना
(४) रस स्रुति - रस नि:स्राव
आनुवंशिकता- में दिया गया है कि चरक और सुश्रुत ने विवरण दिया है कि ‘फूल के फलित अंड में वनस्पति के सभी अंग सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं, जो बाद में एक-एक करके प्रकट होते हैं।‘जगदीश चन्द्र बसु का योगदान-
अर्वाचीन काल में भी वनस्पति शास्त्र के क्षेत्र में जिनका अप्रतिम योगदान रहा, उन महान विज्ञानी जगदीश चन्द्र बसु के बारे में देश कितना जानता है? वर्तमान काल में जगदीश चन्द्र बसु ने सिद्ध किया कि चेतना केवल मनुष्यों और पशुओं तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह वृक्षों और जिन्हें निर्जीव पदार्थ माना जाता है, उनके अंदर भी समाहित है। इस प्रकार उन्होंने आधुनिक जगत के सामने जीवन के एकत्व को प्रकट किया। उन्होंने कहा कि निर्जीव व सजीव दोनों निरपेक्ष नहीं, अपितु सापेक्ष हैं। उनमें अंतर केवल इतना ही है कि धातुएं थोड़ी कम संवेदनशील होती हैं, वृक्ष कुछ अधिक संवेदनशील होते हैं, पशु कुछ और अधिक तथा मनुष्य सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं। इनमें डिग्री का अंतर है, परन्तु चेतना सभी के अंदर है।

सन् १८९५ के आस-पास जगदीश चन्द्र बसु वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने धात्विक डिटेक्टर में तरंगे भेजीं। उसके परिणामस्वरूप डिटेक्टर पर कुछ संकेत चित्र आए। यह प्रयोग बार-बार करने पर एक अंतर उनके ध्यान में आया कि संकेत चित्र प्रारंभ में जितने स्पष्ट आ रहे थे, बार-बार प्रयोग दोहराने पर वे थोड़ा मंद होने लगे। यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि जो निर्जीव हैं, उनमें प्रतिसाद कम-ज्यादा नहीं होना चाहिए, वह तो यांत्रिक होने के कारण एक जैसा होना चाहिए। प्रतिसाद का कम-ज्यादा होना तो पेशियों का स्वभाव है। उनमें जब थकान आती है तो प्रतिसाद कम होता है तथा कुछ समय आराम मिला तो प्रतिसाद अधिक होता है। अत: डिटेक्टर में प्रतिसाद कम- अधिक देखकर उन्हें शंका हुई और उन्होंने डिटेक्टर को कुछ समय आराम देकर प्रयोग को पुन: दोहराया और वे आश्चर्यचकित हो गए। क्योंकि आराम मिलने के बाद संकेत चित्र पुन: वैसे ही आने लगे। वे सोचने लगे, यह क्यों है? अपने प्रयोग को कई बार दोहराकर उन्होंने जांचा-परखा तथा यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि निर्जीव के अंदर भी संवेदनशीलता है। अंतर केवल इतना है कि वह निश्चेष्ट (इनर्ट) है।
जगदीश चन्द्र बसु ने जब यह सिद्ध किया, उस समय पश्चिम के वैज्ञानिकों की क्या हालत थी, इसका अनुभव निम्न प्रसंग से किया जा सकता है। रायल साइंटिफिक सोसायटी में जगदीश चन्द्र बसु का भाषण होने वाला था तो इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध बायोलाजिस्ट हारटांग को हॉब्ज नामक विद्वान ने कहा, आज जगदीश चन्द्र बसु का भाषण होने वाला है जिन्होंने यह सिद्ध किया है कि वनस्पतियों और निर्जीवों में भी जीवन रहता है। आप भाषण सुनने चलेंगे? हारटांग की प्रथम प्रतिक्रिया थी ‘मैं अभी होश में हूं, मैंने पी नहीं रखी है। आपने कैसे समझ लिया कि मैं ऐसी वाहियात बातों पर विश्वास करूंगा।‘ फिर भी मजा देखने की मानसिकता से वे भाषण सुनने आए। और भी लोग हंसी उड़ाने की मानसिकता से वहां आए। जगदीशचन्द्र बसु ने केवल मौखिक भाषण ही नहीं दिया अपितु यंत्रों के सहारे प्रत्यक्ष प्रयोगों का प्रदर्शन करते हुए जब अपनी बात सिद्ध करना प्रारंभ किया, तो हॉल में बैठे सभी विद्वान् जो प्रारंभ में उपेक्षा की नजर से देख रहे थे, १५ मिनट बीतते-बीतते तालियां बजाने लगे। सारा हाल उनकी तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। भाषण व प्रयोगों के अंत में जब सभा के अध्यक्ष ने पूछा कि किसी को कोई शंका, कोई प्रश्न हो तो वक्ता से पूछ सकते हैं। तीन बार दोहराने पर भी जब कोई नहीं बोला, तब प्रो. हॉब्ज खड़े हुए और उन्होंने कहा कि कुछ भी पूछने लायक नहीं है। बसु महोदय ने अत्यंत प्रामाणिकता से अपनी बात सिद्ध की है। उनके भाषण व प्रयोग को देखकर मन में शंका उठती थी, परन्तु अगले ही क्षण दूसरे प्रयोग को देखकर उस शंका का निरसन हो जाता था। रॉयल सोसायटी के अध्यक्ष ने भी जगदीशचन्द्र बसु के जीवन के एकीकरण को सिद्ध करने की दिशा के सफल प्रयत्न के प्रति विश्वास प्रकट किया।आगे चलकर बसु महोदय ने वृक्षों के ऊपर बहुत गहराई से प्रयोग किए। अपने साथ पौधों को लेकर दुनिया की यात्रा की। अनेक संवेदनशील यंत्र बनाये जिनमें वृक्षों के अन्दर होने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तन प्रत्यक्ष देखे जा सकते थे। उन्होंने क्रेस्कोग्राफ नामक यंत्र बनाया, जो संवेदनाओं को एक करोड़ गुना अधिक बड़ा कर बताता था। जब पौधों को वे यंत्र लगा दिए जाते थे, तो पौधे दिन भर में क्या-क्या अनुभूतियां उन्हें हो रही हैं, इसकी कहानी मानों वे स्वयं कहने लगते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने प्रयोगों और अनुभवों को लेखों में अभिव्यक्त किया तथा वनस्पति में, पशुओं में, पक्षियों में, कीड़े-मकोड़ों और सारी सृष्टि में चेतना है, इस प्राचीन अवधारणा को आधुनिक युगमें सिद्ध किया।श्रीमद्भागवत में पादपों का छः भागों में विभाजन किया गया है,पादप माने जो अपना भोजन नीचे से ग्रहण कर ऊपर की ओर बढ़ें ! वनस्पति - जो बिना बौर आये ही फलते हैं ; वट, पीपल आदि | औषधि - जो फल पकने पर सूख जाते हैं;चना,जौ,मटर,गेंहू,जौ,मक्का आदि | लता - जो किसी सहारे फैले ; मालती, गिलोय-अमृता आदि | त्वकसार - जिनकी छाल ही इतनी कठोर हो कि अन्य लकड़ी आदि उसमें न हो ; बाँस आदि | वीरुध - झाड़ियां - तुलसी, झरबेर आदि | द्रुम - जिसमें फूल-बौर आकर फल आवें - नीम, आम, आदि कन्द और मूल भूमि के भीतर होते हैं कन्द वे जो छील-पका कर खाये जाँय - सूरन,आलू, अरवी | मूल - वे जिन्हें कच्चा चबाया जा सके-मूली,गाजर |