सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

जानकारी काल ,अक्टूबर - 2021

 हिंदी मासिक 

जानकारी काल 

वर्ष-22, अंक-06, अक्तूबर - 2021, पृष्ठ 42, मूल्य-2-50


नारी शक्ति 

 यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।।



संरक्षक

 श्रीमान कुल वीर शर्मा

महामंत्री समर्थ शिक्षा समिति

डॉ वी  एस नेगी

प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य


 प्रधान संपादक

 सतीश शर्मा 

संरक्षक प्रचार विभाग  विद्या भारती दिल्ली  


 प्रकाशक

 सतीश शर्मा 


 कार्यालय

 ए 214 बुध नगर इंद्रपुरी

 नई दिल्ली 1100 12


 मोबाइल

  93 12 0 0 25 27


 संपादक मंडल

 सौरभ  शर्मा,कपिल शर्मा,

गौरव शर्मा,डॉ अजय प्रताप सिंह, करुणा ऋषि, डॉ मधु वैध, 

भूप  सिंह यादव, ऋतु सिंह,

राजेश शुक्ल  


प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F,कृणा नगर नई दिल्ली 110029, A- 214 बुध नगर इं पूरी नई दिल्ली  110012 से प्रकाशित |


सभी लेखों पर संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है पत्रिका में किसी भी लेख में आपत्ति होने पर उसके विरुद्ध कार्रवाई केवल दिल्ली कोर्ट में ही होगी

 


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सम्पादकीय


चलना मनुष्य की स्वाभाविक क्रिया है सामान्य रूप के दैनिक व्यग्तिगत कार्यकलाप हो या  परिवारिक, व्यापारिक, सामाजिक कार्य इस क्रिया का उपयोग जीवन के  हर कार्य के लिय  करना ही पड़ता है | चलते समय का सामान्य नियम है सामने की ओर नाक की सीध में चलना | देखने में आता है इस सामान्य नियम का कहना सुनना जितना होता है, उतना व्यवहार नहीं होता, हो भी नहीं सकता | सामने, सीधे चलते हुए भी व्यक्ति दाएं - बाएं देखते हुए ही चलता है | द्रष्टि  दाएं-बाएं होते समय उसकी नाक भी घूमती ही  है, फिर सदा नाक की  सीधे में चलना कैसे संभव है ? इस तकनीकी पक्ष का न तो  व्यक्ति विचार करता है ना ही हमें सोचने की आवश्यकता है | चलना प्रारंभ करते समय निश्चित दिशा में चलना ही अभिप्रेत रहता है |दूसरी बात , मार्ग में आने वाली सड़क पार करते समय दिख  पड़ती है | सड़क पार करते समय वाहनों को देखने और पार  करने का योग्य समय तय करने के लिए बाएं - दाएं- बाएं देखकर सुनिश्चित करना जरूरी हो जाता है, परंतु व्यक्ति चलता सीधा ही है | 

इस सामान्य नियम का महत्व और बढ़ जाता है जब हम किसी बड़े लक्ष्य को निर्धारित कर के चलते हैं मार्ग  के उतार-चढ़ाव अवरोध ,निंदा ,प्रशंसा,प्रोत्साहन,यश अपयश  की चिंता में न पड़ कर  लक्ष्य प्राप्ति तक चलते रहना ही आवश्यक हो जाता है | स्वामी विवेकानंद ने कहा है उठो जागो लक प्राप्ति तक पहले रुको मत रविंद्र नाथ ठाकुर का कथन है -

 मार्ग में बिखरे  फूलों को चुनने के लिए डरो मत, आगे बढ़ो, तुम्हारी राह में निरंतर फूल खिलते ही रहेंगे |

 स्वयं प्रेरणा से अपना लक्ष्य तय करते हैं और प्राप्त करने के लिए शक्तियों को संकलित करते हैं | अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए हम दूसरे से प्रेरणा तो ले सकते हैं लेकिन किसी का अनुसरण करेंगे तो शायद लक्ष्य से भटक जाएंगे इसलिए हमें अपने लिए अपने द्वारा लक्ष्य तय  करना है | हम को निरंतर चलना पड़ेगा तभी हम सफलता प्राप्त करेंगे  | किसी ने सही कहा है सहजता  से ही  सफलता है | जो सहज रहते  हैं वही सफल हो सकते हैं | लेकिन क्या वास्तव में हम सहज  रह पाते हैं क्योंकि समाज में  इस प्रकार की प्रवृत्ति के लोग रहते हैं जो हमको कहीं ना कहीं किसी ना किसी बात पर उत्तेजित करते हैं क्या हमें उत्तेजित होते  हैं |अगर हां तो यह   हमारी कमजोरी है |  हम सफलता प्राप्त करके खुश हो जाते हैं और असफलता पर दुखी | ना हमें सफलता पर खुश होना है ना  असफलता पर अफसोस मनाना है |भगवान कृष्ण कहां है कि हमारा सिर्फ कर्म करने पर अधिकार है | फल की चिंता हमको नहीं करनी चाहिए | रामचरित्र मानस में भी गुरु वशिष्ट जी ने भरत जी को कहा है हानि लाभ जीवन मरण और यश अपयश सब विधाता के हाथ हैं | भरत हमको तो अपने निमित्त कर्म करने  है |अगर हम फल की चिंता करते रहेंगे तो निश्चित तौर पर पूरी शक्ति के साथ अपना कर्म नहीं कर पाएंगे और पथ से भटक जाएंगे| 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलषु कदाचन। 

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकमज़्णि॥ 

अंदर के पृष्ठों में 

शिक्षा की भारतीय परंपरा   

पुरातन गौत्र पद्धति                                

विरुद्ध आहार                         

जाना है भवपार 

कुरीतियाँ और  समाज सुधार

विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा

व्रत और उत्सव अक्तूबर  - 2021

पितृ पक्ष अक्टूबर - 2021 

भद्रा विचार अक्टूबर  - 2021

मंत्र शास्त्रियों

प्रदोष व्रत

शारदीय नवरात्र  

चौघड़िया मुहूर्त 

विजयदशमी 

ज्योतिष में जाने लक्ष्मी योग

लालबहादुर शास्त्री 

बेटी (एक कविता )

गोमुखासन

व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण 

       




शिक्षा की भारतीय परंपरा

लेखक :- डॉ. ओमप्रकाश पांडेय,(लेखक अन्तरिक्ष विज्ञानी हैं)

भारतीय परम्परा में वेद को ब्रह्माण्डीय ज्ञान के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार करते हुए इसे ईश्वर का नि:श्वास ही माना गया है (यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदोभ्योऽखिलं जगत्)। यद्यपि वेदों का प्रतिपाद्य विषय सार्वभौमिक उत्कृष्टता के समुच्चय से ही संबंधित है, जिसे देश या काल के आधार पर विभाजित कर परखा नहीं जा सकता है, तथापि इसका प्रणयन व अनुशीलन पृथ्वी के जिस भोगौलिक क्षेत्र में विशेष रूप से हुआ उस क्षेत्र विशेष को भारत अर्थात् ज्ञान के अन्वेषण में सदैव निमग्न रहने वाले देश के रूप में ही चिह्नित किया गया (वर्ष तद् भारतनाम भारती तत्र संतति: – विष्णु पुराण)।

ज्ञान की व्याख्या करते हुए श्रुतियाँ इसे सत्य व अनन्त सदृश्य ब्रह्म के स्वरूप में स्वीकार करती है (सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म – तै. उप. 2.1.1)। इस दृष्टि से ज्ञान मूलत: जैविक चेतना (आत्मतत्व) का अन्तर्निहित स्वभाव ही सिद्ध होता है, जो प्राय: सभी जीवों में प्रस्फुटित न होकर सुषुप्त अवस्था में ही विद्यमान रहता है। नित-नूतन सीखने की अनुभवजनित प्रवृत्तियों के कारण आत्मिक चेतना पर पड़ा अज्ञान का कृत्रिम आवरण धीरे-धीरे हटने लगता है। इस आवरण के हटते ही ज्ञाता व ज्ञेय के मध्य का संबंध ज्ञान के रूप में प्रकट हो जाता है। बया द्वारा बनाये गये अद्भूत घोंसले, मकड़ी द्वारा बुने गये जटिलतम जाल, दीमक द्वारा निर्मित वातानुकूलित बाम्बी, चींटियों का अपने बिल के दक्षिण कोने को मलत्याग का स्थान सुनिश्चित करना, सिंह को अपने क्षेत्र का दायित्वबोध, पक्षियों का सुदूर क्षेत्र तक उडऩे का गन्तव्यबोध, व्हेल आदि मछलियों का सैकड़ो मील दूर सागर में अपने साथियों से संवाद स्थापित करने की कला, आदि-आदि को इन्ही उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है। सीखने की इसी प्रक्रिया को सामान्य रूप से शिक्षा के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा कुछ नया नहीं गढ़ती है, बल्कि जीव में अन्तर्निहित ज्ञान पुंज को अनावृत कर उसे उजागर कर देती है और यही शिक्षा का निहितार्थ भी है। इसी तथ्य को रेखाकिंत करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था – मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।

मानवीय परिवेश में शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य जीवन की अखण्ड प्रक्रिया को अनुभूत करने तथा जीवन के उदात्त मूल्यों की खोज करने व समझने में व्यक्ति की सहायता करना ही है। शिक्षा वह बीज है, जो व्यक्ति में बोधत्व के भाव को अंकुरित कर उसके स्व को निखारता है। इस स्वत्व से ही व्यक्ति की मेधा प्रस्फुटित होती है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त दिव्य गुणों से युक्त बुद्धि को वेदो में मेधा कहा गया है (मेधामहं प्रथमा ब्रह्मण्वती ब्रह्मजुतामृषिष्टुताम् – अथर्व वेद – 6/108/2)। यह मेधा ही व्यक्ति को पूर्ण समन्वित दृष्टि प्रदान कर उसे विवेकशील या प्रज्ञावान मनुष्य बनाती है। यह प्रज्ञा ही मनुष्यों को गृहीत ज्ञान व तत्व की मीमांसा कर उन्हें भ्रान्तियों व पूर्वाग्रहों से मुक्त कर एक मौलिक सोच विकसित करने तथा सह-अस्तित्व के समावेशी भावना वाले उदात्त आचरण को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। इसी आधार पर यह कहा गया है कि विद्या हमें कर्म बन्धन के सभी अवरोधों से मुक्त कर ऋतम्भरा प्रज्ञा के उन्मुक्त दिव्यता को उपलब्ध करा देती है।

इसलिए भारतीय अवधारणा में शिक्षा का उद्देश्य मात्र जीविकोपार्जन तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि ज्ञानार्जन द्वारा व्यक्ति को आध्यात्मिकता के दिव्य गुणों से युक्त कर उसे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के चारों पुरूषार्थों के पालनयोग्य बनाना भी रहा। भौतिक संसार में जीवन यापन के लिए इन दोनों पक्षों की उभयात्मक भूमिका के दृष्टिगत ही यहाँ शिक्षा की संपूर्णता के लिए विद्या को परा (अध्यात्म विद्या) व अपरा (सांसारिक विद्या या अविद्या) की दो विधाओं में बाँटा गया। शिक्षा के इसी आधार पर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हुए ऋतम्परा प्रज्ञा के जागृत होने पर व्यक्ति अन्तत: महर्षि अरविन्द के मानव से महामानव बनने के पथ पर अग्रसर हो जाता है। मानव से महामानव बनने का निहितार्थ वास्तव में लोक में सद्चरित्रता का बीजारोपण कर मानवता के दिव्यगुणों को अपनाने के लिए आम जनों को प्रेरित करना ही रहा। ऋग्वेद (10/53/4-6) इसी आशय से निर्देशित करता है कि – हे प्राणी। पहले तू ईश्वर के निर्देशों को समझनें मे सक्षम हो फिर ज्ञान को आत्मसात कर दिव्य गुणों को प्राप्त कर यज्ञादि द्वारा पञ्चजनों का भरण-पोषण करते हुए ऋतम्भरा ज्ञान से परिपूर्ण एक आदर्श मनुष्य बन और फिर अपने सद्चरित्रता से दिव्यजनों का निर्माण कर। इस प्रकार अहं (व्यक्ति) से वयं (कुटुम्ब) और फिर वयं से सर्वं (लोक) को संस्कारित करना ही शिक्षा का अभीष्ट है। इन संस्कारित लोक समूह के परम्परागत स्वभाव से उनकी संस्कृति बनती है और फिर क्षेत्र विशेष में विस्तृण इसी संस्कृति के आधार पर राष्ट्र का अस्तित्व उभरता है। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति व राष्ट्र का उद्भव शिक्षा की कोख से ही होता है। शिक्षा ही इनकी जननी है और इनके स्वरूप व विकास की गति का निर्धारण भी शिक्षा की गुणवत्ता पर ही आधारित होता है।

यह सर्व विदित है कि वैश्विक स्तर पर वेद को सर्व-सहमति से विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ मान लिया गया है। अत: यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि मानव सभ्यता में वैदिक शिक्षा व वैदिक संस्कृति सबसे प्राचीन है (सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा – यजुर्वेद 7/14)। यही नहीं बल्कि आज भी इसकी अजस्र सनातनता की एक धारा नए-नए रूपों में आधुनिक गुरुकुलों के माध्यम से भारत में सतत् प्रवाहित हो रही है। लगभग इसी मन्तव्य को पुष्ट करते हुए पाश्चात्य शिक्षाविद् एफ. डब्लू. थामस कहते है कि – भारत में शिक्षा कोई नयी बात नहीं है। संसार का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम का उद्गम इतना प्राचीन हो अथवा उसका प्रभाव इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली हो (प्राचीन भारतीय शिक्षा – अनंत सदाशिव अल्तेकर – पृष्ठ-10)। प्राचीन काल से भारत का अस्तित्व एक विराट गुरुकुल के रूप में ही विकसित हुआ। एक ऐसा गुरुकुल जहां गुरु व शिष्य दोनों अनन्य भाव से ज्ञान की साधना में निम्गन रहते हैं। भारत को समझना है तो गुरु-तत्व को समझना होगा और यदि गुरु-तत्व को समझना है तो फिर भारत को समझना पड़ेगा। प्राचीन शिक्षा पद्धति में शिक्षा केन्द्रों की भव्यता आचार्यों की गुणवत्ता व छात्रों के प्रति उनकी समर्पण निष्ठताओं के मानदण्ड के आधार पर ही परखी जाती रही। वस्तुत: शिक्षालयों की अपेक्षा शिक्षक ही वह चाक है जिस पर मानवता का वास्तविक स्वरुप आकार लेता है।

यही कारण रहा कि इस देश में गुरुओं को जितना सम्मान मिला, उनके प्रति जितनी प्रबल श्रद्धा रही उसका सहस्त्रांश भी विश्व में अन्यत्र कहीं देखने व सुनने को नहीं मिलता है। विश्व के अन्य हिस्सों में कुशल विशेषज्ञ मिल सकते हैं, शिक्षण तकनीकि में पारंगत पेशेवर अध्यापक भी मिल सकते हैं किन्तु अपने आचरण मात्र से ही छात्रों के अन्त:करण में ज्ञान के उद्दात गुणों की लौ को प्रज्वालित कर देने वाले आचार्य केवल भारतवर्ष में ही उपलब्ध हो सकते हैं (आचिनोति च शास्त्रार्थन शिष्यान् ग्राहयते सुधी: स्वयमाचरते चैव स आचार्य इति स्मृत: -निरुक्त-1.2.2)। किंचित् गुरु के इसी दिव्य स्वभाव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए भारतीय मानस ने उन्हें त्रिदेवों से भी उच्च स्थान, परमब्रह्म, के समकक्ष मानकर उनकी अभ्यर्थना की।

भारतीय मान्यताओं में अध्यापन कार्य किसी व्यवस्था या प्रणाली द्वारा तय किए गए दायित्व को कुशलतापूर्वक निभाने या फिर पाठ्यपुस्तकों में वार्णित संदर्भों व उससे संबन्धित सूचनाओं को रटा देने की योग्यता मात्र तक सीमित नहीं रहती है। बल्कि भारच में अध्यापन आत्मत्याग द्वारा प्रज्ञावान पीढ़ी के सृजन में निरन्तर प्रयत्नशील बने रहने की एक सतत प्रक्रिया है। यह एक ऐसा दायित्व है जिसके पालन में व्यक्तिगत अभिलाषाएं एवं आकांक्षाएं प्राय: गौण हो जाया करती हैं। भारतीय मनीषा की यह मान्यता रही कि जब तक व्यक्ति के अन्दर अध्यापन करने की ऐसी ज्वलन्त उत्कण्ठा न हो तब तक मात्र जीविकोपार्जन के क्षुद्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसे अध्यापक नहीं बनना चाहिए। कालिदास ने इसी मन्तव्य को मालविकाग्निमित्रम् नामक नाटक में स्पष्ट करते हुए कहा है कि केवल आजीविका के लिए पढ़ाने वाले को व्यापारी ही कहा जाता है शिक्षक नहीं। वास्तविकता भी यही है कि सच्चा अध्यापक अन्तर्मन से समृद्ध होता है, अत: उसे बाह्य प्रलोभन प्रभावित नहीं करते हैं। व्यक्ति से परिवार, परिवारों से लोक तथा लोक से राष्ट्र एवं वैश्विक परिवेश का निर्माण शिक्षक के इसी दायित्वपूर्ण बोध पर ही निर्भर होता है। इसीलिए वेद में कहा भी गया है कि वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: (यजुर्वेद-9/23)।

वस्तुत: संसार में जितने भी प्रकार के काम हैं, वे सभी भौतिक समृद्धि के लिए किए जाते हैं, जबकि गुरु या आचार्य का यशस्वी पद तो केवल त्याग व बलिदान के आग्रही को ही प्राप्त हो सकता है। यहां तक कि माता-पिता अपने अंशदान द्वारा एक दैहिक संतान को जन्म देकर उसका लालन-पालन तो अवश्य करते हैं, किन्तु नश्वर देह वाले उस बालक को शिष्य के रुप में अंगीकार कर गुरु अपने आत्मदान द्वारा अमरत्व प्रदान कर देता है। इसलिए प्राचीनकाल में शिष्यों को प्राय: अमृतस्य पुत्रा: कहकर ही सम्बोधित किया जाता रहा। इस सम्बन्ध में प्रमाण के रुप में आधुनिक काल के दो संदर्भ हमारे सामने उपस्थित होते हैं। पहला संदर्भ आचार्य चाणक्य का है जिसके संपर्क में आने के उपरान्त दासी मुरा का पुत्र सम्राट चन्द्रगुप्त के रुप में इतिहास में अमर हुआ, वहीं दूसरा उदाहरण विश्वनाथ दत्त के पुत्र नरेन्द्र का है जो ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के संसर्ग में आकार विश्व में विवेकानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार गुरु से उपकृत होने वाले छात्र प्रतिउत्तर में अपने लिये तो मात्र निरोगी आयु की कामना करते रहे किन्तु गुरु के लिए ईश्वर से अमरत्व प्रदान करने की याचना की – आयुरस्मासु देहि अमृतत्वम् आचार्य।

गुरु या आचार्य के लिए आवश्यक इन्हीं अर्हताओं को ध्यान में रखते हुए ऋग्वेद के दशवें मंडल के 71वें सूक्त के ऋषि बृहस्पति आंगिरस आचार्यों के कर्तव्य को निर्धारण करते हुए कहते हैं कि उसे ऐसी विधा अपनानी चाहिए जिससे सभी छात्र अपनी क्षमताओं के हिसाब से विषय को सहजता से ग्रहण कर सके। आचार्यों के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ क्रियात्मक ज्ञान की भी शिक्षा देनी चाहिए अन्यथा उनका ज्ञान बिना दूध देनी वाली गाय जैसी ही हो जायेगी। इसलिए उन्हें अध्यापन में विचारात्मक, वर्णनात्मक, संवादात्मक, कथात्मक, क्रियात्मक, प्रयोगात्मक तथा रचनात्मक सभी शैलियों को समाविष्ट करना चाहिए (अक्षण्वन्त: कर्णवन्त: सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवु:। आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे ह्रदाइव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे॥)। इसके अतिरिक्त वेदों में आचार्य से संयमी, वाचस्पति (वाणी का स्वामी), वसुपति (गुणधर्म को जानने वाला), भूतकृत (चरित्र निर्माता), ज्ञाननिधि (विषयों पर अच्छी पकड़), मनुर्भव (मननशील व विचारक), वाक् तत्ववित् (भाषा विज्ञानी), दूरदर्शी एवं प्रसन्नचित्त आदि गुणों से सम्पन्न होने की भी अपेक्षा की गयी है। इसके साथ ही छात्रों से भी यह अपेक्षा की गयी है कि वह आचार्य द्वारा प्रदत्त ज्ञान को अध्ययन (अधिति), अनुशीलन (बोध), व्यवहारिक प्रयोग (आचरण) के माध्यम से ग्रहण करते हुए लोक में इसको उचित रूप से सम्प्रेषित (प्रचारण) करने का प्रयत्न करें ताकि उनके द्वारा अर्जित ज्ञान का लाभ जन समुदाय भी उठा सके।

साभार भारतीय धरोहर

पुरातन गौत्र पद्धति



सर्वप्रथम एक अहम बात अवश्य जान लें कि स्त्री में xx गुणसूत्र होते है और पुरुष में xy गुणसूत्र होते है ।                   

इन दोनों स्त्री व पुरुष की सन्तति में यदि स्त्री के x गुणसूत्र के साथ पुरुष का y गुणसूत्र संयोजन करता है तभी xy पुत्र की उत्पत्ति होती है अन्यथा दोनों के xx गुणसूत्र मिलकर पुत्री को जन्म देते है। इस स्थिति में यदि हम मान लें कि पुत्र उत्पन्न हुआ (xy गुणसूत्र)। इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र). यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आये है ।

XX गुणसूत्र 

xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री . xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है . तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।

xy गुणसूत्र 

xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र,  पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण पूर्ण Crossover नही हो पाता केवल 5% तक ही होता है । और 95% Yगुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है । तो महत्त्वपूर्ण Yगुणसूत्र हुआ। क्योंकि Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।

बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।

 वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र । 

Y Chromosome and the Vedic Gotra System

अब तक हम यह समझ चुके है की वैदिक गोत्र प्रणाली ये गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है।  उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल है। चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।

वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व् स्त्री भाई बहिन कहलाएंगे क्योकि उनका पूर्वज एकही है ।

परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही है क्या ? कि जिन स्त्री व् पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे, तो वे भाई बहिन हो गये ?

इसका मुख्य कारण गोत्र का एक ही होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है । आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि समान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी संतान "आनुवंशिक विकारों" के साथ उत्पन्न होगी ।

ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, अंग अपूर्णता, गंभीर रोग, हृदय में छिद्र आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया गया था।

गौत्र संवहन

इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले ही कन्यादान(गौत्र मुक्त) कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है, यही कारण था कि विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि, कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।

इसीलिये, कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने से ज्यादा सावधानी बरती जाती है।

आत्मज़् या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये।

आत्म+ज या आत्म+जा ।

आत्म=मैं, ज या जा =जन्मा या जन्मी अर्थात उत्पन्न। यानी जो मैं स्वयं ही जन्मा या जन्मी हूँ।

यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा, फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का भी 50% डीएनए रह जायेगा, इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री के जन्म में यह परसेंटेज घटकर 1℅ से भी कम लगभग 0.75% रह जायेगा। अर्थात...

पीढ़ी...........................माता का डीएनए

पहली …......................50%

दूसरी..........................25%

तीसरी.........................12.5%

चौथी..........................06.25%

पांचवीं........................03.125%

छठवीं.........................01.5625%

सातवीं........................00.78125%

अर्थात, एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है, और यही है सात जन्मों का साथ।

लेकिन, जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है, और यही क्रम अनवरत चलता रहता है, जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है।

इसीलिये, अपने ही अंश को पित्तर जन्मों जन्म तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं, और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है, और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है।

उमाकांत दीक्षित


दयानंद सरस्वती

दंडी स्वामी (स्वामी विरजानंद) की पाठशाला में शिष्य आते, कुछ समय तक रहते, मगर उनके क्रोध, उनकी प्रताड़ना को सहन न कर सकने के कारण भाग जाते। कोई-कोई शिष्य ऐसा निकलता, जो उनके पास पूरा समय रहकर पूरी शिक्षा पा सकता। यह दंडी स्वामी (स्वामी विरजानंद) की एक बड़ी कमजोरी थी। दयानंद सरस्वती को भी उनसे कई बार दंड मिला, मगर वह दृढ़ निश्चयी थे अत: पूरी शिक्षा प्राप्त करने का संकल्प किए, डटे रहे।


विरुद्ध आहार

 – रवि कुमार

क्या कभी प्रातःकाल अचानक पेट दर्द, खट्टी डकार या दस्त हुए है? क्यों हुए इसका कारण खोजने का प्रयास हुआ? शायद नहीं! ‘जो हुआ, पता नहीं कैसे हुआ’ यह कहकर चिकित्सक से दवा ले ली अथवा घर पर कुछ ऐसे आपातकाल के लिए दवा रखी है, उसमें से ले ली। चिकित्सक के पास विशेषकर आयुर्वेद के चिकित्सक के पास किसी भी रोग को दिखाने के लिए गए तो एक बात वह चिकित्सक अवश्य पूछता है कि शौच निवृति कैसी होती है या आज प्रातः कैसी हुई? प्रातः शौच निवृति ठीक से न होना या दो-तीन बार जाने पर होना यह सामान्य बात हो गई है। कभी सोचा है कि यह आम बात क्यों हो गई है? शायद यह भी नहीं!

आहार ठीक से पचे और उससे शरीर में रस (प्रथम धातु) ठीक से बने यह प्रथम बात है।

मनुष्य ने आधुनिकता के नाम पर अपना आहार परिवर्तन किया है। इस आहार परिवर्तन ने स्वास्थ्य संबंधी बहुत अधिक परिवर्तित कर दिया है। आहार परिवर्तन में एक प्रमुख है – वैरोधिक आहार जिसे विरुद्ध आहार भी कहते है। इस अंक में इसी पर विस्तार से चर्चा करने वाले है।

तीन लोगों ने रात्रि भोजन में साबुत उड़द की दाल खाई। हरियाणा में सावन मास में फिरनी खाने का प्रचलन है। सोने से पूर्व दूध में फिरनी डालकर खाई। तीन में से एक व्यक्ति का स्वास्थ्य अगली प्रातः खराब हुआ, दूसरे का उससे अगले दिन और तीसरे का तीसरे दिन। एसिडिटी, दस्त आदि हुआ। वर्षा ऋतु में दूध व दूध से बने पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। उड़द की दाल गरिष्ठ होने के कारण सबसे देरी से पचने वाली है। रात्रि में जठराग्नि कम प्रज्ज्वलित होती है। उड़द की दाल और दूध का मेल नहीं है। दोनों का रात्रि में सेवन करने से स्वास्थ्य खराब होगा ही। ये है विरुद्ध आहार।

विरुद्ध आहार के सेवन से बल, बुद्धि, वीर्य व आयु का नाश, नपुंसकता, अंधत्व, पागलपन, भगंदर, त्वचा विकार, पेट के रोग, सूजन, बवासीर, अम्लपित्त (एसीडिटी), सफेद दाग, ज्ञानेन्द्रियों में विकृति व अष्टौमहागद अर्थात् आठ प्रकार की असाध्य व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। विरुद्ध अन्न का सेवन मृत्यु का भी कारण हो सकता है।

चरक संहिता में विरुद्ध आहार के विषय में वर्णन है –

पथ्य पथोऽनपेत यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम्। यच्चाप्रियमपथ्यं च नियतं तत्र लक्षयेत् ॥ ४५ ॥ मात्राकालक्रियाभूमिदेहदोषगुणान्तरम्। प्राप्य तत्तद्धि दृश्यन्ते ते ते भावास्तया तया ॥४६॥

तस्मात् स्वभावो निर्दिष्टस्तथा मात्रादिराश्रयः। तदपेक्ष्योभयं कर्म प्रयोज्य सिद्धिमिच्छता ।।

(चरक सुत्रस्थान 26/45-46)

उपरोक्त सूत्रों में 17 प्रकार के विरुद्ध आहारों का वर्णन है। समझने योग्य कुछ सिद्धांतों का वर्णन कर रहा हूँ।

१ गर्मी में गर्म प्रकृति (तासीर) व सर्दी में ठंडी प्रकृति (तासीर) के खाद्य पदार्थों का सेवन वर्जित है। अब सर्दी में ठंडी आइसक्रीम खाने के लिए कोई मना करे तो कहा जाता है कि ‘आजकल तो चलता है’। बेसन का हलवा यदि गर्मी में खाएंगे तो कठिनाई रहेगी ही।

२ हर मानव शरीर की भी दो प्रकार की प्रकृति (तासीर) है – उष्ण (गर्म) और सर्द (ठंडी)। आहार भी शरीर की प्रकृति अनुसार सेवन करना अपेक्षित है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में मानव शरीर की प्रकृति अनुसार ही रोग निवारण होता है।

३ ऋतुचर्या अनुसार भोजन नहीं किया तो विरुद्ध आहार माना जाता है। ऋतुचर्या के साथ क्षेत्र विशेष की जलवायु का भी प्रभाव रहता है।

४ समय विरुद्ध आहार अर्थात बेसमय खाना एवं प्रतिदिन समय बदल कर खाना भी विरुद्ध आहार माना जाता है। एक आहार से दूसरे आहार के मध्य कम समय रखना भी हानिकारक है।

५ किए हुए भोजन के पचने पर ही खाना। यदि बिना पचे ही खाया तो हानिकारक है।

६ प्रातः शौच निवृति का बाद ही आहार का सेवन अपेक्षित है, उससे पूर्व नहीं और अधूरी शौच निवृति पर भी नहीं।

७ भूख लगने पर आहार लेना; बिना भूख के लेना भी हानिकारक होता है। कम भूख लगने पर अधिक आहार लेना भी अहितकर है।

८ आधा पका हुआ अथवा अधपका भोजन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

९ विरुद्ध प्रकृति वाले खाद्य पदार्थों को एक साथ सेवन करना अधिक अहितकर है। लंबे समय में अनेक असाध्य रोगों का कारण इसका प्रकार का विरुद्ध आहार है। यथा दूध के साथ नमक का सेवन त्वचा रोगों का जन्मदाता है। इसी प्रकार दूध के साथ खट्टे खाद्य पदार्थों का सेवन भी हानि पहुंचाता है।

‘आजकल तो चलता है‘ यह कहकर अनेक विसंगतियां हमारे समाज के आहार तंत्र में आ गई है। 

जैसे- पपीता व दूध का मेल नहीं है परंतु पपीता-शेक पीते है जिसमें दोनों होते है। प्रातः जलपान में दही, परांठा और चाय; दही और चाय विरुद्ध है। विवाह समारोह में एक समय में व्यक्ति दस व अधिक प्रकार के खाद्य पदार्थों का सेवन करता है। जीभ के स्वाद के नाम पर स्वास्थ्य को ताक पर रख देता है। दही की प्रकृति दोपहर बाद बदल जाती है। दही के बारे में चरक संहिता में वर्णन है – ‘नक्तं दधी न भुन्जीत’ अर्थात दोपहर बाद दही नहीं खाना चाहिए। अतः सायंकाल दही का सेवन वर्जित है। एक दीदी ने बताया कि घर में शिशु को जल्दी-जल्दी जुकाम-सर्द आदि हो जाता था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? उनकी सास-माँ ने बताया कि इसे दोपहर बाद दही खिलाना बंद करे। दीदी ने ऐसा ही किया और शिशु का स्वास्थ्य ठीक रहने लगा।

दूध के साथ शहद वर्जित है। दूध के साथ आम का बेजोड़ मेल है परन्तु खट्टे आम के साथ नहीं। अगर कोई खट्‌टा फ़ल दूध के साथ खाने वाला है वो एक ही है आवला। दूध व दही का मेल बिलकुल नहीं। प्याज और दूध कभी एक साथ न खाये। दूध को अकेले लेना ही बेहतर है। तभी शरीर को इसका लाभ होता है।

जो अन्न द्विदलीय है (दो भागों में टूटा हुआ) के साथ दही का प्रयोग वर्जित है। जैसे- उड़द की दाल और दही एक दुसरे के शत्रु हैं। रोटी के साथ दही खाने में कोई परहेज नहीं है परन्तु परांठा-पूरी आदि तले हुए खाद्य पदार्थों के साथ  के साथ वर्जित है। फलों में अलग एंजाइम होते हैं और दही में अलग। इस कारण वे पच नहीं पाते, इसलिए दोनों को साथ लेने की सलाह नहीं दी जाती। मीठे फल और खट्टे फल एक साथ न खाएं।

खाने के साथ भी फल नहीं खाने चाहिए। भोजन के बाद चाय पीने से कोई लाभ नहीं है। यह गलत धारणा है कि भोजन के बाद चाय पीने से पाचन बढ़ता है। मीठा अगर भोजन से पहले खाया जाए तो अच्छा है क्योंकि तब न सिर्फ यह सरलता से पचता है, बल्कि शरीर को हित पहुंचाता है। भोजन के बाद में मीठा खाने से प्रोटीन और फैट का पाचन मंदा होता है।

विरुद्ध आहार को ध्यान में रखते हुए आहार के सामान्य नियमों को आत्मसात कर स्वयं के जीवन का अंग बनाने की महती आवश्यकता है। अंग्रेजी में कहा गया है – ‘Prevention is Better than Cure’. रोग होने पर चिकित्सा लेने से पूर्व रोग उत्पन्न ही न हो इस विषय में प्रयास करे। ‘सर्वे सन्तु निरामया:’ इसी भाव से संभव है।


(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)

ऋतुचर्या

अपथ्य (सेवन न करें)

बसंत : चैत्र-बैशाख

कफ को बढ़ाने वाले भोज्य पदार्थ, दही, उड़द की दाल, चने की दाल, बासी भोजन, खट्टे व अत्यधिक मीठा, भारी (गरिष्ठ) भोजन

ग्रीष्म : ज्येष्ठ-आषाढ़

कटु (मिर्ची जैसा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), उष्ण वीर्य (गर्म तासीर वाले) पदार्थ

वर्षा : श्रावण-भाद्रपद

अधिक मीठे पदार्थ, नदी का तथा वर्षा का जल, तक्र(छाछ), सत्तू, अधिक जल पीना, पत्तेदार सब्जियों का अधिक सेवन

शरद : आश्विन-कार्तिक

क्षार, वसा, तेल सेवन, भरपेट भोजन, दही

हेमंत : मार्गशीर्ष-पौष

ठंडा भोजन, नपातुला (थोड़ा भोजन), रूक्ष भोजन (रूखा-सूखा भोजन), हल्का भोजन, मिर्च मसालेदार भोजन

शिशिर : माघ-फाल्गुन

ठंडा भोजन, ज्यादा मिर्च मसालेदार भोजन, कड़ी चीजें, हल्का भोजन, चना, जौ, बाजरा जैसा रूखा भोजन







जाना है भवपार

एक निर्धन विद्वान व्यक्ति चलते चलते पड़ोसी राज्य में पहुँचा। संयोग से उस दिन वहाँ हस्तिपटबंधन समारोह था जिसमें एक हाथी की सूंड में माला देकर नगर में घुमाया जाता था। वह जिसके गले में माला डाल देता था उसे 5 वर्ष के लिए वहां का राजा बना दिया जाता था।वह व्यक्ति भी समारोह देखने लगा। हाथी ने उसके ही गले में माला डाल दी। सभी ने जयजयकार करते हुए उसे 5 वर्ष के लिए वहां का राजा घोषित कर दिया।राजपुरोहित ने उसका राजतिलक किया और वहाँ के नियम बताते हुए कहा कि आपको केवल 5 वर्ष के लिए राजा बनाया जा रहा है। 5 वर्ष पूर्ण होते ही आपको मगरमच्छों व घड़ियालों से युक्त नदी के किनारे छोड़ दिया जाएगा।यदि आप में ताकत होगी तो आप उनका मुकाबला करके नदी के पार वाले गाँव में पहुँच सकते हो। आप को वापिस इस नगर में आने नहीं दिया जाएगा।वह निर्धन विद्वान व्यक्ति तो सिहर गया पर उसने सोचा कि अभी तो 5 वर्ष का समय है। कोई उपाय तो निकल ही जाएगा।उसने 5 वर्ष तक विद्वत्तापूर्वक राज्य किया। राज्य की संचालन प्रक्रिया को पूरे मनोयोग से निभाया और इस प्रकार केवल राज्य पर ही नहीं लोगों के दिलों पर भी राज्य करने लगा। जनता ने ऐसा प्रजावत्सल राजा कभी नहीं देखा था।5 वर्ष पूर्ण हुए। नियमानुसार राजा को फिर से हाथी पर बैठाकर जुलूस निकाला गया।लोगों की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। नदी के तट पर पहुँच कर राजा हाथी से उतरा। राजपुरोहित ने कहा कि अब आप नदी पार करके दूसरी ओर जा सकते हैं। 

अश्रुपूरित विदाई समारोह के बीच उसने कहा कि मैं इस राज्य के नियमों का सम्मान करता हूँ। अब आप मुझे आज्ञा दें और हो सके तो इस निर्मम नियम में बदलाव करने के बारे में सोच विचार करें। 

जैसे ही राजा ने नदी की ओर कदम बढाए, लोगों ने अपनी सजल आँखों को ऊपर उठाया। जानते हो वहाँ ऐसा क्या था जिसे देखकर वे खुशी से नाचने लगे?उस नदी पर इस पार से उस पार तक राजा के द्वारा बनवाया गया एक पुल था जिस पर राजा शांत भाव से चला जा रहा था,नदी के उस पार वाले सुंदर से गाँव की ओर।हमें भी कुछ समय के लिए श्वासों की सम्पत्ति देकर इस अमूल्य जीवन की बागडोर सौंपी गई है।समय पूरा होते ही हमें यह राज्य छोड़ कर भवसागर के उस पार वाले लोक में जाना है । और अगर हम शांत भाव से भवसागर के उस पार वाले लोक में जाना चाहते हैं तो अभी से वह पुल बनाने की शुरूआत कर देनी चाहिए |


कुरीतियाँ और  समाज सुधार



वैसे तो मैं विज्ञान पढाता हूँ पर कल दसवी के विद्यार्थियों की इच्छा राजस्थान अध्ययन पढने की थी तो राजस्थान अध्ययन की पुस्तक  हाथ में ली । पहला अध्याय-आजादी पूर्व राजस्थान में व्याप्त  कुरीतियाँ और  समाज सुधार प्रयास। पाठ की विषय वस्तु देखी और चर्चा प्रारम्भ की । बच्चों से कुरीतियों के बारे में पूछा। 50 बच्चो की कक्षा में कई सारे हाथ उठे। बाल विवाह,सती प्रथा,  विधवा विवाह न करना, भ्रूण हत्या जैसे कुछ उत्तर आये । 

अचानक मेरे मन का छात्र जागा । हम ये कुरीतियाँ ही क्यों पढ़ाते हैं ? राजस्थान अध्ययन के नाम पर हमें पहले पाठ में  पढ़ाने के लिए कुरीतियाँ ही मिली ? मुझे याद आया कि अपने स्कूली जीवन में भी मैंने कुरीतियों के बारे में हर क्लास में पढ़ा हैं, याद कीजिये आपने भी बहुत याद किया होगा इन्हें। मैंने तुरंत छात्रो से दूसरा सवाल किया -हमारी सु रीतियो या अच्छी परम्पराओ के बारे में बताओ। 

कक्षा में सन्नाटा ...कोई हाथ नही उठा ... एक अजीब सी हलचल । 

छात्रो की आपसी चर्चा - ये सु रीतिया क्या हैं ? अपनी अच्छी परम्परा कहाँ हैं?? अपन ने तो कुरीतियाँ ही पढ़ी हैं अभी 10वी तक ।( मैकाले यहाँ  जिन्दा हैं ) 

आजादी के इतने वर्षो बाद भी हमने अपनी परम्पराओं और सांस्कृतिक वैभव पढ़ना पढ़ाना शुरू नही किया । हम आज भी पढ़ते हैं अपनी पराजय , कमजोरिया और कुरीतियाँ  मात्र । 

थोडा कुरेदने पर एक हाथ खड़ा हुआ । उत्तर- अतिथि देवो भव:।

यह हमारी अच्छी परम्परा हैं । फिर धीरे धीरे कुछ और भी हाथ उठे - महिलाओ का सम्मान, गाय को माँ मानना , सबमें भगवान देखना , नदी को माँ मानना ,  पर्वत-वृक्ष -जीवो का पूजन और संरक्षण आदि आदि । 

ये सब उत्तर छात्र -छात्राओं ने ही दिए । सब पर चर्चा हुई । दो अच्छी परम्पराओ की याद मैंने दिलाई - हमारी संयुक्त परिवार व्यवस्था और विवाह संस्कार । 

दसवी के विद्यार्थियों को यह जानना ही चाहिए कि हमारे यहाँ भारत में  परिवार मतलब कुटुंब जितना विस्तृत परिवार हैं और विवाह  जन्म-जन्मान्तरो का रिश्ता हैं , तलाक की कोई गुंजाइश नही है। 

मनोगत शिक्षक का कार्य पाठ्यक्रम पूरा करवा कर अच्छे अंको की दौड़ पूरी  करवाने के साथ कुछ और भी हैं।यह ' कुछ और भी' ही भारत का भविष्य तय करेगा । जय जय । 

लेखक : संदीप जोशी, जालौर


पंचक विचार अक्तूबर - 2021 

पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा  पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार-दिनांक 15 को 21- 15  से  दिनांक 20 को 14-01 बजे तक पंचक हैं |

व्रत और उत्सव अक्तूबर  - 2021

दिनांक 2  इंदरा   एकादशी व्रत,दिनांक 4 - सोम प्रदोष व्रत, मास शिवरात्रि, दिनांक 6 अमावस्या,दिनांक 7 नवरत्र प्रारम्भ,दिनांक 9 विनायक चतुर्थी व्रत,दिनांक 10 उपांग ललिता पंचमी, दिनांक 11 सरस्वती अवाहन,दिनांक 12 सरस्वती पूजन ,दिनांक 13 महा अष्टमी,दुर्गा अष्टमी,दिनांक 14 महानवमी ,दिनांक 15 विजय दशमी,दिनांक 16 पापाकुंशा एकादशी व्रत, दिनांक 17 संक्रांति पुन्य, दिनांक 18 सोम प्रदोष व्रत, दिनांक 19 कोजागरी व्रत,दिनांक 20 सत्य व्रत शरद  पूर्णिमा, बाल्मीकि जयंती, कार्तिक स्नान,दिनांक 24 श्री गणेश चतुर्थी व्रत करवा चौथ व्रत चंद्र उदय 20 -30 ,दिनांक 28 कालाष्टमी, अहोई अष्टमी व्रत |

पितृ पक्ष अक्टूबर - 2021 

श्राद्ध पक्ष की तिथि - 01-दशमी का श्राद्ध,02-एकादशी का श्राद्ध,03-द्वादशी का श्राद्ध ,04-त्रियोदशी का श्राद्ध,05-चतुर्दशी का श्राद्ध ,06-अमावस्या का श्राद्ध | संपर्क करें शर्मा जी - 9312002527




विश्व की सबसे ज्यादा सम्रद्ध भाषा

संस्कृत के इस श्लोक को पढिये।-

क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।

तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।। 

अर्थात: पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।

श्लोक को ध्यान से पढ़ने पर आप पाते हैं की संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस श्लोक में दिखाये दे रहे हैं वो भी क्रमानुसार। यह खूबसूरती केवल और केवल संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा में ही देखने को मिल सकती है! 

पूरे विश्व में केवल एक संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें केवल एक अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है, किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल “न” व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल्य प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है-

*न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।*

*नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥*

अर्थात: जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है। वंदेसंस्कृतम्! 

एक और उदहारण है।-

दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः*

दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः*

अर्थात: दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया।

है ना खूबसूरत? इतना ही नहीं, क्या किसी भाषा में *केवल 2 अक्षर* से पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में ये करना असम्भव है। माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है। देखिये –

भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे*

भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।*

अर्थात- निर्भय हाथी जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।

एक और उदाहरण-

क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर।*

कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक॥*

अर्थात- क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत, रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला, रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी [था]।

पुनः क्या किसी भाषा मे केवल *तीन अक्षर* से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है? यह भी संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में असंभव है!

उदहारण- 

देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां*

दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।*

अर्थात- वह परमात्मा [विष्णु] जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव [हिरण्यकशिपु] को मारा था।

अब इस छंद को ध्यान से देखें इसमें पहला चरण ही चारों चरणों में चार बार आवृत्त हुआ है, लेकिन अर्थ अलग-अलग हैं, जो यमक अलंकार का लक्षण है। इसीलिए ये महायमक संज्ञा का एक विशिष्ट उदाहरण है -

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जतीशमार्गणा:।

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा:॥

अर्थात- पृथ्वीपति अर्जुन के बाण विस्तार को प्राप्त होने लगे, जबकि शिवजी के बाण भंग होने लगे। राक्षसों के हंता प्रथम गण विस्मित होने लगे तथा शिव का ध्यान करने वाले देवता एवं ऋषिगण (इसे देखने के लिए) पक्षियों के मार्गवाले आकाश-मंडल में एकत्र होने लगे।

जब हम कहते हैं की संस्कृत इस पूरी दुनिया की सभी प्राचीन भाषाओं की जननी है तो उसके पीछे इसी तरह के खूबसूरत तर्क होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान- सार्थकता" मिलती है अर्थात् अमुक वस्तु की अमुक संज्ञा या नाम क्यों है, यह प्रायः सभी शब्दों में मिलता है। जैसे इस विश्व का नाम संसार है तो इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है-

संसरतीति संसारः गच्छतीति जगत् आकर्षयतीति कृष्णः रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः इत्यादि।

जहाँ तक मुझे ज्ञान है विश्व की अन्य भाषाओं में ऐसी अभिधानसार्थकता नहीं है। 

ऐसी सरल और स्मृद्ध भाषा जो सभी भाषाओं की जननी है आज अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड रही है बेहद चिंताजनक है।






श्री लाल बहादुर शास्त्री

श्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। पिता मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव , माता राम दुलारी थी | लाल बहादुर शास्त्री के पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में नौकरी कर ली थी | ऐसे में सब उन्हें मुंशीजी ही कहते थे | परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लाल बहादुर को परिवार वाले उन्हें नन्हे कहकर बुलाया करते थे | जब नन्हे 18 महीने के हुए तब दुर्भाग्य से उनके पिता का निधन हो गया उनकी मां रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्जापुर चली गई कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे बिना  पिता के बालक उन्हें की परवरिश करने में उनके माता रघुनाथ प्रसाद दे उसकी मां का बहुत सहयोग किया ननिहाल में रहते हुए नन्हे ने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की उसके बाद शिक्षा हरीश चंद्र हाई स्कूल काशी विद्यापीठ में हुई | काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री जी ने अपने नाम से जाति सूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा दिया |  मरो नहीं मारो का नारा लाल बहादुर शास्त्री ने दिया जिसने क्रांति को पूरे देश में प्रचंड किया उनका दिया हुआ एक और नारा जय जवान जय किसान तो आज भी लोगों की जुबान पर है |

लाल बहादुर शास्त्री : प्रेरक प्रसंग

लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने अपनी किताब लाल बहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी  में देश के पूर्व प्रधानमंत्री के जीवन से जुड़े कई आत्मीय प्रसंग साझा किए हैं। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि उनके पिता सरकारी खर्चे पर मिली कार का प्रयोग नहीं करते थे। एक बार उन्होंने अपने पिता की कार चला ली  तो उन्होंने किलोमीटर का हिसाब कर पैसा सरकारी खाते में जमा करवाया था। पत्नी के लिए नहीं ली महंगी साड़ी शास्त्रीजी एक बार अपनी पत्नी और परिवार की अन्य महिलाओं के लिए साड़ी खरीदने मिल गए थे। उस वक्त वह देश के प्रधानमंत्री भी थे। मिल मालिक ने उन्हें कुछ महंगी साड़ी दिखाई तो उन्होंने कहा कि उनके पास इन्हें खरीदने लायक पैसे नहीं हैं। मिल मालिक ने जब साड़ी गिफ्ट देनी चाही तो उन्होंने इसके लिए सख्ती से इनकार कर दिया। घर से हटवा दिया था सरकारी कूलर एक बार उनके घर पर सरकारी विभाग की तरफ से कूलर लगवाया गया। जब देश के पूर्व प्रधानमंत्री को इस बारे में पता चला तो उन्होंने परिवार से कहा, इलाहाबाद के पुश्तैनी घर में कूलर नहीं है। कभी धूप में निकलना पड़ सकता है। ऐसे आदतें बिगड़ जाएंगी। उन्होंने तुरंत सरकारी विभाग को फोन कर कूलर हटवा दिया।फटे कुर्ते से बनवाते थे रुमाल शास्त्रीजी बहुत कम साधनों में अपना जीवन जीते ते। वह अपनी पत्नी को फटे हुए कुर्ते दे दिया करते थे। उन्हीं पुराने कुर्तों से रुमाल बनाकर उनकी पत्नी उन्हें प्रयोग के लिए देती थीं। अकाल के दिनों में रखा था एक दिन का व्रत अकाल के दिनों में जब देश में भुखमरी की विपत्ति आई तो शास्त्रीजी ने कहा कि देश का हर नागरिक एक दिन का व्रत करे तो भुखमरी खत्म हो जाएगी। खुद शास्त्रीजी नियमित व्रत रखा करते थे और परिवार को भी यही आदेश था। शिक्षा में सुधारों के थे हिमायती शास्त्रीजी के बेटे सुनील शास्त्री कहते हैं, बाबूजी देश में शिक्षा सुधारों को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। अक्सर हम भाई-बहनों से कहते थे कि देश में रोजगार के अवसर बढ़ें इसके लिए बेहतर मूल्यपरक शिक्षा की जरूरत है।

श्रीमती शिखा सक्सेना,हिंदी अध्यापिका,एहल्कॉन इंटरनेशनल स्कूल,मयूर विहार फेस -1,दिल्ली- 110091

महात्मा गाँधी का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने असाधारण कार्यों एवं अहिंसावादी विचारों से पूरे विश्व की सोच बदल दी। आज़ादी एवं शांति की स्थापना ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था। गांधी जी द्वारा स्वतंत्रता और शांति के लिए शुरू की गई इस लड़ाई ने भारत और दक्षिण अफ्रीका में कई ऐतिहासिक आंदोलनों को एक नई दिशा प्रदान की। हम 'बापू' को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित करते है।




मूल नक्षत्र विचार अक्टूबर  - 2021 


दिनांक

शुरू 

दिनांक

समाप्त 

02

02-57

04

03-25

10

14-43

12

11-26

19

12-12

21

16-18

29

11-38

31

13-16



भद्रा विचार अक्टूबर  - 2021

भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि  शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य  में पंडित जी से विचार कर लेना चाहिए 9312002527 



दिनांक 

शुरू 

दिनांक 

समाप्त 

01

10-36

01

23-04

04

21-05

05

08-04

09

18-22

10

04-56

12

21-48

13

08-58

16

05-49

16

17-37

19

19-03

20

07-44

23

13-46

24

03-02

27

10-50

27

23-49

31

02-35

31

14-27




दुर्गासप्तशती में हर समस्या के लिए एक विशेष मंत्र

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते

नवरात्रि में दुर्गासप्तशती के मंत्रों का पूर्ण विधि-विधान से पाठ किया जाए तो बड़ी से बड़ी समस्या को भी हल किया जा सकता है। दुर्गासप्तशती में हर समस्या के लिए एक विशेष मंत्र बताया गया है जिसके जाप से व्यक्ति को तुरंत ही राहत मिलती है तथा समस्या हल हो जाती है।

इस तरह मंत्र जपः जप विधि

सुबह जल्दी उठकर नहा-धोकर साफ-सुथरे कपड़े पहन कर किसी शांत स्थान पर बैठ कर मां दुर्गा की आराधना करें। इसके बाद रूद्राक्ष अथवा लाल चंदन की माला से मंत्र का जाप करें। जप शुरु करने के पहले किसी योग्य विद्वान से इन मंत्रों का उच्चारण सीख लें ताकि कोई गलती न हो सकें।

आप नीचे दिए गए मंत्रों में से अपनी समस्या के अनुसार कोई भी एक मंत्र चुन लें तथा उसका विधि-विधान से जप करें।

समस्त कष्टों से मुक्ति पाने के लिए दुर्गासप्तशती के मंत्र

दुर्भाग्य से मुक्ति तथा समस्त बाधाओं की शांति के लिए

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनासनम्।।

अचानक आई विपत्ति के नाश के लिए

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य।

प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य‌।।

सुंदर तथा सुशील पत्नी पाने के लिए

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम।।

गरीबी से मुक्ति पाने के लिए

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो: स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्रयदु:खभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाद्र्रचिता।।

शत्रुओं तथा समस्त कष्टों से रक्षा के लिए

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।

घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च।।

मृत्यु पश्चात स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हदि संस्थिते।

स्वर्गापर्वदे देवि नारायणि नमोस्तु ते।।

समस्त संकटों के नाश के लिए

दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।

मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।

भय नाश के लिए

यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च।

सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु।।

शारीरिक, मानसिक रोगों के नाश के लिए

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।

त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।

शारदीय नवरात्र  

ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघात्र्छूलं भुशुण्डीं शिर:शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वांगभूषावृताम्

नीलाश्म धुतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकायामस्तौव्स्वपिते ह्वरौ कमलजो हन्तुं मधुंकैटभम्।


शारदीय नवरात्र  अश्विनी मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक होते हैं | स्थापना करने के लिए गंगाजल रोली मोली पान सुपारी, नारियल धूपबत्ती घी का दीपक फल फूल की माला बिल्वपत्र चावल केले के पत्ते आम के पत्ते बंदनवार के बाद से चंदन नारियल हल्दी की गांठ लाल वस्त्र जो बताता सुगंधित तेल सिंदूर कपूर पंच सुगंध नैवेद्य के लिए फल पंचामृत के लिए दूध दही मधु चीनी दुर्गा जी की मूर्ति, कुमारी पूजन के लिए वस्त्र आभूषण फल फूल इत्यादि लेकर हम सवेरे स्नान करके और माता के चरणों में ध्यान लगा कर अगर घर में मंदिर है तो वहां पर नहीं तो एक नीचे फर्श पर सफाई करके चौकी पर एक घट रखकर उसमें जल रखकर ऊपर एक नारियल रखकर और घट की स्थापना करनी चाहिए और पूरा दिन माता के चरणों में 9 दिन ध्यान रखना चाहिए फिर घर की जैसी व्यवस्था है अगर अष्टमी को कढ़ाई होती तो अष्टमी और नवमी को कढ़ाई करनी चाहिए कन्या पूजन अति आवश्यक है नवरात्रों की पूजा से हमारी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और माता का विशेष आशीर्वाद रहता है |


प्रदोष व्रत 



प्रदोष व्रत का विशेष महत्व है। प्रदोष व्रत हर माह की शुक्ल और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पड़ता है यानी हर महीने दो प्रदोष व्रत पड़ते हैं और इनमें सोम प्रदोष का बहुत महत्व है। जिस तरह एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित होती है, उसी तरह प्रदोष व्रत भगवान शिव को समर्पित होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव कैलाश पर्वत पर अपने रजत भवन में नृत्य करते हैं और सभी देवी-देवता उनकी स्तुति करते हैं। भगवान शिव को समर्पित इस व्रत को करने से मोक्ष और भोग की प्राप्ति होती है। 

सोम प्रदोष व्रत का महत्व

सोम प्रदोष व्रत का संबंध चंद्रमा से भी माना जाता है। इस दिन व्रत रखने से चंद्रमा के नकारात्मक प्रभाव से बचा जा सकता है और कुंडली में चंद्रमा की स्थिति भी मजबूत होती है। इसलिए इस दिन विधि-विधान से शिवजी की पूजा की जाती है। प्रदोष काल वह समय कहलाता है, जब सूर्यास्त हो चुका हो और रात्रि प्रारंभ हो रही है यानी दिन और रात के मिलन को प्रदोष काल कहा जाता है। इस समय भगवान शिव की पूजा करने से अमोघ फल की प्राप्ति होती है। साथ ही इस व्रत से स्वास्थ्य बेहतर होता है और दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। सोम प्रदोष व्रत के रखने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिलती है और मृत्यु के पश्चात मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। इस व्रत की कथा सुनने मात्र से ही गौ दान के बराबर पुण्य फल की प्राप्ति होती है। 

सोम प्रदोष व्रत कथा

एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी, उसके पति का स्वर्गवास हो गया था। वह हर सुबह अपने पुत्र के साथ भीख मांगती थी, जिससे वह अपना और अपने पुत्र का पेट पालती थी। एक दिन ब्राह्मणी जब घर वापस आ रही थी तो उसने रास्ते में देखा कि एक लड़का घायल अवस्था में है, जिसको वह अपने घर ले आई। वह लड़का कोई और नहीं बल्कि विदर्भ का राजकुमार था, जिस पर शत्रु सैनिकों ने हमला कर दिया था और उसके पिता यानी राजा को बंदी बना लिया था। शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर हमला कर दिया था, जिससे वह मारा-मारा फिर रहा था। राजकुमार ब्राह्मणी और उसके पुत्र के साथ घर पर रहने लगा। एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को काम करते हुए देख लिया और उस पर मोहित हो गई। अगले दिन वह अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने के लिए ले आई। कुछ दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को भगवान भोलेनाथ ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए, उन्होंने ठीक वैसा ही किया। 

वह विधवा ब्राह्मणी हर प्रदोष व्रत को करती थी और भगवान शिव की भक्त थी। यह प्रदोष व्रत का ही प्रभाव था कि गंधर्वराज की सेना ने विदर्भ से शत्रु सैना को खदेड़ दिया और राजकुमार के पिता को फिर से उनका शासन लौटा दिया, जिसके बाद से वह फिर से राजकुमार आनंदपूर्वक रहने लगा। राजकुमार ने ब्राह्मणी के पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बना लिया। ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के कारण शंकर बगवान की कृपा से जैसे राजकुमार और ब्राह्मणी पुत्र के दिन सुधर गए, वैसे ही शंकर भगवान अपने हर भक्तों पर कृपा बनाए रखते हैं और सबके दिन संवर जाते हैं। 

सोम प्रदोष व्रत पूजा विधि

– सोम प्रदोष व्रत के दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य क्रिया करने के बाद स्नान करना चाहिए और स्वच्छ वस्त्र धारण करके व्रत का संकल्प करें और सूर्यदेव को जल अर्पित करें।

– प्रदोष वाले दिन अपने मन में ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप करना चाहिए। त्रयोदशी तिथि पर प्रदोष काल में यानी सूर्यास्त से तीन घड़ी पहले, शिव जी का पूजा करनी चाहिए। सोम प्रदोष व्रत की पूजा शाम 4:30 बजे से लेकर शाम 7:00 बजे के बीच करना शुभ फलदायी होता है।

– शिव मंदिर में शिवलिंग पर बेलपत्र, अक्षत, दीप, धूप, गंगाजल, जल, फूल, मिठाई आदि से विधि-विधान पूर्वक पूजन करें।

– व्रती को चाहिए कि सायंकाल के समय एकबार फिर से स्नान करके स्वच्छ सफेद वस्त्र पहनने चाहिए। पूजा स्थल अथवा पूजनकक्ष को शुद्ध करना चाहिए।

– संभव हो तो व्रत रखने वाले व्यक्ति चाहे तो शिव मंदिर में भी जा कर पूजा कर सकते हैं।

– व्रत रखने वाले पूरे दिन भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए, अगर संभव न हो तो फलाहार किया जा सकता है।


सर्वार्थ सिद्धि योग अक्टूबर  -2021


दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी  शुभ मुहूर्त का अभाव हो था किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु  को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक  है

दिनांक

प्रारंभ

दिनांक

समाप्त

06

06-21

06

23-19

15

06-26

15

09-15

19

06-28

19

12-12

21

06-30

21

16-16

23

21-52

24

06-32

25

06-33

26

04-10

28

06-35

29

06-35


ग्रह स्थिति अक्टूबर - 2021

ग्रह स्थिति - दिनांक 02 वर्शिच्क में शुक्र, बुध  कन्या में ,दिनांक 3 बुध  पश्चिमास्त  दिनांक 11 शनि मार्गी दिनांक 15 बुध उदय   दिनांक 17 सूर्य तुला  में ,दिनांक 18  बुध मार्गी,गुरु मार्गी, दिनांक 22  मंगल में तुला दिनांक 30 शुक्र में धनु  |


सुर्य उदय- सुर्य अस्त अक्टूबर  -2021


दिनांक

उदय 

दिनांक

अस्त 

06-15

1

18-04

5

06-17

5

17-59

10

06-20

10

17-54

15

06-23

15

17-48

20

06-26

20

17-43

25

06-29

25

17-39

30

06-33

30

17-35


चौघड़िया मुहूर्त 

चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है,अगर सूर्य उदय का समय प्रातः है 6:00 बजे माने तो चौघड़िया निम्नलिखित है

 

समय 

क्रम

रवि 

सोम 

मंगल 

बुध 

गुरु 

शुक्र 

शनि 

06-00,07-30

1

उद्वेग 

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

07-30,09-00

2

चर 

काल

उद्वेग 

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

09-00,10-30

3

लाभ

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग 

अमृत 

रोग 

10-30,12-00

4

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

12-00,13-30

5

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

13-30,15-00

6

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ

15-00,16-30

7

रोग 

लाभ 

शुभ

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

16-30,18-00

8

उद्वेग

अमृत 

रोग

लाभ

शुभ 

चर

काल 

18-00,19-30

1

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

19-30,21-00

2

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ

चर 

काल 

उद्वेग

21-00,22-30

3

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

22-30,24-00

4

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

24-00,01-30

5

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

01-30,03-00

6

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

03-00,04-30

7

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

04-30,06-00

8

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 



विजयदशमी 

हिंदू धर्म में दशहरा के पर्व का विशेष महत्व है।विजयदशमी का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री राम ने अहंकारी रावण का वध किया था। इसके साथ ही इस दिन ही मां दुर्गा नें असुर महिषासुर का भी वध किया था। इस कारण ही इस दिन भगवान राम के साथ मां दुर्गा के भी पूजन का विधान है। इस साल दशहरा 15 अक्टूबर, दिन शुक्रवार को मनाया जाएगा।दशहरा का पर्व अवगुणों को त्याग कर श्रेष्ठ गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है। इसी कारण इस पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना गया है।

दशहरा का पर्व आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी की तिथि को मनाया जाता है। दशमी तिथि 14 अक्टूबर को शाम 06.52 बजे से शुरू होकर 15 अक्टूबर को सांय काल 06.02 बजे तक रहेगी। दशहरा 15 अक्टूबर, दिन शुक्रवार को मनाया जाएगा। 

 

 

 

राहू काल 

 राहुकाल - राहुकाल दक्षिण भारत की देन है, दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है 

वार 

शुरू 

समाप्त 

रवि

16-30

18-00

सोम

07-30

09-00 

मंगल

15-00

16-30

बुध

12-00

13-30

गुरु

13-30

15-00

शुक्र

10-30

12-00

शनि

09-00

10-30


संसार में कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ नहीं है, सभी लोग अल्पज्ञ हैं।इसलिए सभी लोगों से कहीं न कहीं, छोटी,बड़ी,जाने अनजाने,कुछ न कुछ गलतियां होती ही रहती हैं। 

 अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें - शर्मा जी - 9560518227


जीवन में हमें सम्मान देने से सम्मान मिलता है और आज जब भी आप किसी से मिलने पर या फोन पर बात करते हैं और आगे से सर  कहकर बोलते और नमस्कार करते हैं तो वह मनुष्य जब भी कभी आपको मिलेगा वह आपको सर और नमस्कार करके जरूर बोलेगा इसलिए जीवन में जो आपने दूसरों को सम्मान दिया  वह  आपको  वापस जरूर मिलेगा और जीवन में चाहे आप किसी से प्यार करें या नफरत करें  एक दिन उसका हिसाब जरूर बराबर होता है इसलिए जीवन में हमेशा सभी के लिए अच्छा सोचो अच्छा करो तभी आपके जीवन में सब कुछ अच्छा होगा और आप जिन लोगों के काम आ रहे हो वह जीवन में आपके काम जरूर आएंगे और जीवन में कर्म ही पूजा है और मनुष्य को अच्छे कर्म करने से ही पहचान और सम्मान मिलता है और यही जीवन का शांति सुख और आनंद है !


ज्योतिष में जाने लक्ष्मी योग

इस भौतिक मानवीय जीवन में से लक्ष्मी का प्रभुत्व छोड़दें तो शेष रह जाता है शून्य। लक्ष्मी है कि चिर युवा व चंचला होने के कारण एक जगह टिकती ही नहीं है।

चाणक्य ने ठीक ही कहा है कि निर्धनता आज के युग का सबसे बड़ा अभिशाप है। कैसी विचित्र सिथिति है कि शुक्र दैत्य गुरु है और बृहस्पति देवगुरु हैं। इनमें शुक्र संपत्ति का भोगव गुरु धनप्राप्ति कारक हैं एवं परस्पर शत्रु। दोनों की श्रेष्ठता हो तभी व्यक्ति धनोपार्जन कर, उसका भोग कर सकता है। आनन्द संग्रह कर सकता है। जन्मकुण्डली

में उक्त दोनों ग्रह अर्थात बृहस्पति व शुक्र दिनपति सूर्य व निशानाथ चंद्रमा से अच्छा संबंध करते हों अर्थात इनके साथ हों या देखे जाते हों तो व्यक्ति जीवन में यथेष्टï मात्रा में धन संग्रह करता है। इसी कारण से शुक्र-चंद्र

लाटरी योग व गुरु-चंद्र गज-केसरी योग बनाते हैं।

वृष लग्न, कन्या लग्न और मकर लग्न में उत्पन्न जातकों में धन प्राप्त करने की इच्छा व लालसा अन्य लग्नोत्पन्न जातकों से अधिक होती है लेकिन ये खर्च करनानहीं चाहते। 

मकर लग्नोत्पन्न व्यक्ति परोपकार व

यशोपर्जन के लिए तो कम से कम धन खर्च कर ही लेता है। मिथुन, तुला व कुम्भ लग्नोत्पन्न जातक का आकर्षण धन के प्रति होता है। वे मितव्ययी तो होते हैं परन्तु कृपण नहीं। मेष, सिंह व धनु लग्न के जातक जीवन में हर भौतिक इच्छा पूर्ण करना चाहते हैं। वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यचीच करने का मुख्य साधन मानते हैं। सिंह लग्न का व्यक्ति इसमें सबसे आगे रहता है। चंद्रमा चलायमान, चंचल व भावुक ग्रह हैं, अत: कर्क लग्नोत्पन्न व मंगल राशि, वृश्चिक व मीन राशि लग्नोत्पन्न व्यक्ति अत्यन्त भावुक होते हैं। इनमें धन संग्रह करने की तीव्र आकांक्षी होती है। शुक्र भोग-सेक्स, भौतिक सुख, संपत्ति, विलासिता, ऐश्वर्य, आनन्द का सूचक ग्रह है। बृहस्पति धन संपदा प्राप्ति कारक है। इस लेख में आपको विभिन्न ग्रहों की स्थिति, स्वामी एवं उच्च-नीच आदि शब्दों का प्रयोग जानना होगा, इसके लिए आपको इस सारणी का उपयोग फलदायक होगा। लग्न, पंचम एवं नवम भाव के स्वामी ग्रहों का चन्द्रमा व शुक्र सेसंबंध हो चो अचानक धन प्राप्त होता है। गुरु धन एवं समृद्धि का कारक है। चन्द्रमा तीव्रता का कारक है। शुक्र सौन्दर्य का, ऐश्वर्य का, गुप्त कार्यों का कारक है। यदि तीनों की स्थिति गोचर में जन्मकुण्डली के समन्वय करते हुए शुभ स्थानों में होती है साथ ही दशा अन्र्दशा भी अनुकूल हो तो व्यक्ति को अवश्य ही करोड़पति बना देती है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि उपरोक्त धन प्राप्ति के यगो भी जन्म कुण्डली में स्थित है लेकिन किस समय कौनसी दशा अन्र्दशा में धन प्राप्ति का, करोड़पति बनने का योग घटित होगा?

त्रिकोण भाव के स्वामी ग्रहों की महादशा में या द्वितीय या एकादश भाव के स्वामी ग्रहों की महादशा एवं एकादश या द्वितीय भाव की अन्तर्दशा हो। पुन: इन्ही ग्रहों की प्रत्यन्तर दशा एवं सूक्ष्म दशा में परस्पर आपसी शुभ संबंध होने पर व्यक्ति करोड़पति बन जाता है।

कुछ योग:

द्वितीय, 8 व 9 भाव के स्वामी ग्रहों का केन्द्र त्रिकोण से शुभ संबंध होने पर साहसी, खतरनाक प्रतियोगिताओं, प्रतिस्पर्धाओं से धन प्राप्ति होती है।लग्न, पंचम एवं नवम भाव का अथवा उनके स्वामी ग्रहों का आपसी शुभ संबंध होने पर बुद्धि क्षमता वाली प्रतियोगिताओं से धन प्राप्ति होती है।

धन, भाव एकादश भाव एवं भाग्य भाव में स्थित ग्रहों अथवा इन भावों से स्वामी ग्रहों का आपसी भाव

परिवर्तन होने पर करोड़पति अवश्य बनता है।

एकादशेश तथा द्वितीयेश चतुर्थ भाव में हों तथा

चतुर्थेश शुभ ग्रह की राशि में शुभ ग्रह से युत

अथवा दृष्ट हो तो जातक को आकस्मिक रूप से धन का लाभ हो तो जातक को आकस्मिक रूप से धन का लाभ होता है। यदि पंचम भाव में स्थित चन्द्रमा शुक्र से दृष्ट हो तो व्यक्ति को लाटरी, शेयर, सट्टे रेस आदि से धन प्राप्त होता है। यदि धनेश शनि हो और वह चतुर्थ, अष्टïम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो तथा बुध सप्तम भाव में स्वक्षैत्री होकर स्थित हो तो आकस्मिक रूप से धन का लाभ होता है।अब मैं प्रत्येक लग्न के अनुसार उनके धन-समृद्धि के योगस्पष्टï कर रहा हूं।

मेष लग्न:

मेष लग्न हो, मंगल कमेश भाग्येश 5वें हो तो जातक लक्ष्याधिपति बनात हैं। मेष राशिस्थ लग्न की कुण्डली में सूर्य स्व का हो, गुरु चंद्र की युति 11वें हों तो जातक लक्ष्मीवान होता है।

वृष लग्न:

बुध एवं शनि द्वितीय स्थान में हों तो धन प्राप्ति

होती है। शुक्र मिथुन का हो, बुध मीन का हो, गुरु ध्रुव केन्द्र में हो ते जातक को यकायक अर्थ की प्राप्ति होती है।

मिथुन लग्न:

भाग्येश भाग्य भवन में बैठकर बुध से युति करे तो द्रव्य की प्राप्ति का योग होता है। द्वितीयेश

उच्च स्थान में बैठा ो तो पैतृक धन की प्राप्ति

होती है।

कर्क लग्न :

गुरु शत्रु भावस्था हो तथा केतु से युति करें तो जातक बहुत ऐश्वर्यवान, योग्य व राजनीति पटु होता है।कर्क लग्न की कुण्डली में शुक्र 12वें या 2 सरे भाव में हो तो जातक धनवान होता है।

सिंह लग्न:

शुक्र बलवान होकर चतुर्थेश केसाथ चतुर्थ भाव में हो तो जातक को आजीवन सुख प्राप्त होता।

शुक्र सूर्य के नवांश में हो तो जातक ऊन, दवा, घास, धान, सोना, मोती आदि के व्यापार से अथोपार्जन करता है।

कन्या लग्न:

शुक्र व केतु दूसरे भाव में हो तो व्यक्ति धनाढ्य होता है तथा आकस्मिक ढंग से अर्थ की प्राप्ति होती है। चन्द्रमा 10वें स्थान में मिथुन राशि का हो, दशमेश बुध लग्न में हो तथा भाग्येश शुक्र द्वितीय स्थान में हो तो जातक धनवान भाग्यवान व उच्च पदाधिकारी होता है।

तुला लग्न:

शुक्र यदि केतु सहित द्वितीय भाव में हो तो जातक को निश्चय ही लक्ष्याधिपति बना देता है। जन्म का लग्न तुला हो तथा राहु, शुक्र, मंगल, शनि 12वें भाव में यानी कन्या राशि में हों तो जातक कुबेर से भी अधिक धनवान होता है।

वृश्चिक लग्न :

गुरु व बुध पंचम स्थान में हों तथा चंद्रमा 11 वें भावस्थ हो तो जातक करोड़पति होता है। चन्द्रमा गुरु, केतु नवम भाव में हों तो विशेष भाग्योदय होता है। चंद्रमा भाग्येश है, गुरु के साथ स्तित हो गज केशरी योग बनाता है, गुरु अपनी उच्च राशि में भी होता है जो कि धनेश है।

धनु लग्न:

गुरु, बुध लग्न में सूर्य, शुक्र द्वितीय भाव में मंगल,

राहु, षष्ठïम् भाव में तथा शेष 3 ग्रह अलग-अलग

कहीं भी हों तो जातकआजीवन सुख भोगता है। चंद्रमा 8वें भाव में हों, कर्क राशि में सूर्य शुक्र शनि स्थित हों तो विख्यात, शिल्पादि कलाओं का जानकार पतला पर दृढ़ शरीर से युक्त अनेक सन्तानों से युक्त व निरन्तर संपत्तिवान रहता है।

मकर लग्न :

चन्द्रमा व मंगल एक साथ 1/4/7/10 केन्द्र भावस्थ 5/9 त्रिकोण में अथवा 2/11 भाव में कही हो तो जातक धनाढ्य होता है। धनेश तुला राशि में एवं लाभेश मंगल मकर राशिगत अर्थात् लग्न में हो तो जातक धनवान होता है।

कुंभ लग्न:

10वें भाव में अर्थात वृश्चिक राशि में चन्द्र शनि का योग हो तो वह जातक कुबेर तुल्य ऐश्वर्य सम्पन्न होता है।

कुंभ लग्न हो, शनि लग्न में स्व का स्थित हो, मंगल

की 8वीं दृष्टिï शनि पर हो तो राजराजेश्वर योग होने से जातक पूर्णरूपेण संपन्न, सुखी, धनवान, दीर्घायु होता है।

मीन लग्न :

यदि दूसरे भाव में चन्द्रमा एवं 5वें भाव में मंगल हो तो मंगलकी दशा में श्रेष्ठ धन लाभ होता है। गुरु 6वें भाव में हो, शुक्र 8वें, शनि 12वें तथा चन्द्रमा मंगल 11वें भावस्थ हों तो उच्चाति उच्च धनदायक योग बनात है।

कुंडली में धन योग से सम्बन्धित भाव

प्रथम भाव – व्यक्ति स्वयं,दूसरा भाव – धन भाव

पंचम भाव – त्रिकोण / लक्ष्मी भाव,नवम भाव – भाग्य स्थान,दशम भाव – कर्म भाव,एकादश भाव – लाभ भाव



                 जन्म कुंडली व हस्त रेखा विशेषज्ञ

 

 जन्म कुंडली बनवाने व दिखाने के लिए संपर्क करें लिखे।

जन्म कुंडली के विषय में जानना चाहते हैं तो कृपया जन्म तिथि,

जन्म समय व जनम स्थान अवश्य लिखें।

शर्मा जी - 9560518227,9312002527

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व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण – वासुदेव प्रजापति

भारत विश्व का प्रथम राष्ट्र है। विश्व के अनेक राष्ट्र जब पशुवत जीवन जीते थे, तब भारत ने ही उन्हें सभ्यता व संस्कृति का पाठ पढ़ाया था। इसलिए वे सभी देश भारत को अपना गुरु मानते थे। भारत के लिए कहा गया है-एतद्देश प्रसूतस्य शकासाद अग्र जन्मन:।स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन पृथिव्या सर्व मानवा:।इस देश में उत्पन्न पूर्वजों के चरित्रों से शिक्षा ले पृथ्वी के सभी लोगों ने अपने-अपने जीवन को संवारा है। यही कारण है कि भारत विश्व गुरु था। उसी विश्वगुरु भारत ने दीर्घकाल काल तक चले संघर्ष एवं सदगुण विकृति के फलस्वरूप अपना गुरुत्व खो दिया। अपना गुरुत्व खो देने से भारत कमजोर हुआ। भारत की इस कमजोरी का लाभ उठाकर पहले मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने इस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल अधिकार ही नहीं अंग्रेजों ने इसके श्रेष्ठ वेद ज्ञान को गड़रियों के गीत अर्थात् मिथक घोषित कर शिक्षा की मूल धारा से बाहर कर दिया।विद्या भारती शिक्षा क्षेत्र में क्यों आई? भारत की स्वाधीनता से पूर्व अर्थात् अंग्रेजी काल में ही स्वदेश प्रेमियों के ध्यान में यह बात आ गई थी कि यह अंग्रेजी शिक्षा भारतीय नवयुवकों में भारतीयता के संस्कार मिटाकर उनमे अंग्रेजीयत भर रही है, जो आगे चलकर देश के लिए घातक सिद्ध होगी। इस अंग्रेजी शिक्षा के विरोधस्वरूप सबसे पहले रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाना राज बसु ने राष्ट्रीय शिक्षा का बीडा उठाया। उनके बाद महर्षि अरविन्द, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता, स्वामी दयानंद सरस्वती, लाल-बाल-पाल तथा गांधीजी ने राष्ट्रीय शिक्षा की ज्योति को प्रज्जवलित रखा। स्वाधीनता के पश्चात् सारा देश चाहता था कि अब देश स्वाधीन हो गया है, अंग्रेज चले गए हैं इसलिए अंग्रेजी शिक्षा को हटाकर पुन: भारतीय शिक्षा प्रतिष्ठित करनी चाहिए। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब एक पत्रकार ने विनोबा भावे से पूछा था कि स्वतंत्र भारत में आप कैसी शिक्षा चाहते हैं? विनोबा जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “अब भारत में भारतीय शिक्षा लागू होनी चाहिए। भारतीय शिक्षा को लागू करने के लिए यदि छ: माह का समय लगे तो छः महीने तक देश के सभी विद्यालय बंद कर देने चाहिए। जब छः महीने बाद विद्यालय खुले तब उनमें भारतीय ज्ञान ही दिया जाए।” किन्तु उस समय के नेतृत्व ने विनोबा जी की बात नहीं मानी और वही अंग्रेजी शिक्षा चलने दी। इतना ही नहीं देश की शिक्षा उन लोगों के हाथों में सौंपी जो अभारतीय मानस के थे। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी जब अभारतीय शिक्षा ही दी जाती रही, तब विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र में आना आवश्यक समझा। सन् 1952 में विद्या भारती योजना का पहला सरस्वती शिशु मंदिर, गोरखपुर में प्रारम्भ हुआ। आज तो विद्या भारती के लगभग 25 हजार शिक्षा केन्द्र चल रहे हैं, जिनमें व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण की शिक्षा दी जा रही है।

विद्या भारती क्या चाहती है? - विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र का वरण तो कर लिया, किन्तु उसने शिक्षा को ही क्यों चुना? यह जानना भी आवश्यक है। विद्या भारती ने देश के शिक्षा क्षेत्र की चुनौती को स्वीकार किया है और भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर उसका विकल्प विकसित करने का संकल्प लिया है। इस संकल्प की पूर्ति हेतु विद्या भारती ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया है। उसने अपने लक्ष्य में जो-जो करना चाहती है, उसे स्पष्ट शब्दों में कहा है। विद्या भारती का लक्ष्य  विद्या भारती इस प्रकार की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना चाहती है, जिसके द्वारा ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके जो हिन्दुत्वनिष्ठ एवं राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत हो, शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो तथा जो जीवन की वर्तमान चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर सके और उसका जीवन ग्रामों, वनों, गिरिकन्दराओं एवं झुग्गी-झोपडियों में निवास करने वाले दीन-दुखी, अभावग्रस्त अपने बान्धवों को सामाजिक कुरीतियों, शोषण एवं अन्याय से मुक्त कराकर राष्ट्र जीवन को समरस, सुसम्पन्न, एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए समर्पित हो।विद्या भारती का यह लक्ष्य अपने आप में इतना स्पष्ट है एवं इतना सुविचारित है कि कुछ और कहना शेष नहीं रहता। लक्ष्य साफ-साफ बताता है कि हमारे देश में विदेशी नहीं राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली हो, जिससे हिन्दुत्वनिष्ठ युवा पीढ़ी निर्मित हो जो राष्ट्र के उत्थान हेतु समर्पित हो। मैं समझता हूं इससे बढ़कर व्यक्ति और राष्ट्र हित का विचार नहीं हो सकता। इसी लक्ष्य की पूर्ति में विद्या भारती प्रयत्नरत है और अपने प्रयत्नों में उसे सफलता भी मिल रही है।   विद्या भारती का शैक्षिक विचार क्या है?  विद्या भारती की मान्यता है कि केवल किताबी ज्ञान जानकारी बढ़ा सकता है किन्तु जीवन निर्माण नहीं कर सकता। इसी प्रकार पर्सनालिटी विकास से आकर्षक व्यक्तित्व बनाया जा सकता है, परन्तु व्यक्तित्व की मूलभूत सम्भावनाओं का विकास नहीं हो सकता। हमारा तैत्तिरीय उपनिषद कहता है कि व्यक्तित्व पंच कोशात्मक है। ये पंच कोश हैं- अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश। इन पांचों कोशों का विकास करने से अर्थात् शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा चित्त जब विकसित होते हैं, तभी सर्वांगीण विकास हुआ माना जाता है। केवल इतना ही नहीं तो जब तक विकसित व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन नहीं होता, अर्थात मेरा जीवन केवल मेरे लिए नहीं है, वह परिवार, समाज, देश एवं विश्व के लिए भी है, जब तक इस बात का भान नहीं होता तब तक व्यक्ति में और मेरा परिवार तक ही सीमित रहता है। इसी प्रकार व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन करते हुए जब उसे परमेष्ठी की ओर अग्रसर किया जाता है, तभी वह ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इस उक्ति को सार्थक करने की योग्यता अर्जित करता है।विद्यार्थी को शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर अधिक अंक लाने के लिए नहीं दी जाती, वह तो जीवन की चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए कुलदीपक बनाने के लिए समाजसेवी बनाने के लिए देशभक्त निर्माण करने के लिए तथा सम्पूर्ण मानवता के लिए जीवन खपाने हेतु दी जाती है। ऐसा जीवन केवल पुस्तकें पढ़ने से नहीं बनता अपितु क्रिया, अनुभव, विचार, विवेक तथा दायित्व बोध आधारित शिक्षा देने से बनता है। यही भारतीय शिक्षा है, इसी शिक्षा से योग्य एवं निष्ठावान नागरिक निर्माण होते हैं, यह विद्या भारती का अनुभूत मत है। भारतीय शिक्षा से ही हमारा देश पुनः एक बार जग सिरमौर बनेगा। विद्या भारती के विविध उपक्रम कौन-कौन से हैं? विद्या भारती के आयाम: भारतीय शिक्षा के माध्यम से भारत को पुनः जग सिरमौर बनाने में रत विद्या भारती ने अनेक उपक्रम खड़े किए है। विद्या भारती के चार आयाम हैं- देश की विद्वत् शक्ति को इस ज्ञान यज्ञ में आहुति देने के लिए विद्वत परिषद है। शिक्षा में क्रिया शोध कर उसे और अधिक उपयोगी बनाने के लिए शोध विभाग है। भारतीय संस्कृति मय जीवन बनाने हेतु संस्कृति बोध परियोजना है और अपने पूर्व छात्रों में दिए गए संस्कार अमिट रहें, इसके लिए पूर्व छात्र परिषद है। अत्यन्त हर्ष का विषय है कि विद्या भारती के पूर्व छात्र परिषद ने अपने पोर्टल में आठ लाख से अधिक पूर्व छात्रों को जोड़ा है, जो विश्व कीर्तिमान बना है। आधारभूत विषय: विद्या भारती यह मानती है कि व्यक्ति निर्माण में आधारभूत विषयों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ये विषय हैं शारीरिक, योग, संगीत, संस्कृत, नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा। शारीरिक व योग शिक्षा से शरीर व प्राण का विकास होता है। संगीत शिक्षा मन को साधती है। संस्कृत शिक्षा उच्चारण एवं बुद्धि विकास करती है, वहीं नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा हमारे धर्म और संस्कृति से जोड़कर उसके चित्त को निर्मल करती है। इस प्रकार इन पांचों आधारभूत विषयों की शिक्षा विद्या भारती का वैशिष्ट्य है। गुणात्मक विकास के उपक्रम: विद्या भारती ने शिशुओं के विकास के लिए भारतीय पद्धति ‘शिशु वाटिका’ विकसित की है। बाल आयु के विद्यार्थियों के लिए क्रिया व अनुभव आधारित प्रारम्भिक शिक्षा के द्वारा उनमें गुण विकसित किए जाते हैं। ‘सबके लिए खेलकूद’ विद्या भारती का प्रमुख उपक्रम है। भारत सरकार ने एस.जी.एफ. आई. में विद्या भारती को एक प्रान्त माना है। इसलिए विद्या भारती के खिलाड़ी भैया-बहिन विद्यालय से जिला स्तर पर प्रान्त स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर खेलते हुए विजयी होते हैं और एस.जी.एफ.आई. में भाग लेते हैं। विद्यालय से लेकर एस. जी. एफ.आई में प्रतिवर्ष खेलने वाले खिलाड़ियों की संख्या लगभग 3.5 लाख है। विद्या भारती के विशेष विषयः बालिका शिक्षा, ग्रामीण एवं जनजाति की शिक्षा विज्ञान एवं वैदिक गणित की शिक्षा, आचार्य प्रशिक्षण तथा कौशल विकास ऐसे विषय है जो भैया-बहिनों में वैज्ञानिक सोच का निर्माण करते हुए उनके कौशलों का विकास करते है। साथ ही साथ शिक्षा से वंचित रह जाने वाले बालक-बालिकाओं में शिक्षा व संस्कार की अलख जगाने के लिए विद्या भारती सेवा बस्तियों में संस्कार केन्द्र भी चलाती है। देश भर में ऐसे हजारों केन्द्र है।विद्या भारती के कार्य की संख्यात्मक स्थिति क्या है?विद्या भारती यह संगठन का संक्षिप्त नाम है। इसका पूरा नाम विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान है। इस संस्थान ने अपने नाम को सार्थक किया है। सभी दृष्टि से विद्या भारती एक अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान है। उत्तर में लेह से लेकर, दक्षिण के रामेश्वरम तक तथा पश्चिम में पाकिस्तान की सीमा से लगे मुनाबाव से लेकर पूर्वोत्तर में हाफलांग तक विद्या भारती के विद्या मंदिर हैं। बड़े-बड़े महानगरों की समृद्ध कालोनियों से लेकर गिरिकन्दराओं में बसी छोटी-छोटी बस्तियों तक विद्या भारती के शिक्षा केन्द्र राष्ट्र निर्माण के इस महत्वपूर्ण कार्य में लगे हुए है। विद्या भारती ने संगठनात्मक दृष्टि से पूरे देश को ग्यारह क्षेत्रों में बाटा हुआ है। प्रत्येक क्षेत्र में एक क्षेत्रीय समिति है, जिसके निर्देशन में प्रान्तीय समितियां अपने-अपने प्रान्त के कार्यों की देखभाल करती है। इन प्रान्तीय समितियों के अन्तर्गत जिला समिति एवं विद्यालय समिति प्रत्यक्ष कार्य करती है। ये सभी ग्यारह समितियां केन्द्रीय समिति के मार्गदर्शन में कार्य करती है। केन्द्रीय समिति का प्रधान कार्यालय देश की राजधानी दिल्ली में है। सम्पूर्ण देश में विद्या भारती के कार्य की स्थिति देश में कुल जिले 711, इनमें कार्ययुक्त जिले 632 है।कुल औपचारिक विद्यालय 12,830, कुल अनौपचारिक केन्द्र 11,353 कुल शैक्षिक इकाइयां 24,183, देशभर में अध्ययनरत छात्रों की संख्या 34 लाख 47 हजार 856, कुल आचार्य 1.5 लाख उपर्युक्त सांख्यिकी के आधार पर कहा जा सकता है कि गैर सरकारी स्तर पर विद्या भारती देश का सबसे बड़ा शिक्षा संस्थान है। विद्या भारती अ सरकारी होते हुए भी सर्वाधिक असरकारी शिक्षा संस्थान भी है।    विद्या भारती का शिक्षा जगत को योगदान क्या है? स्वाधीनता पूर्व से संपूर्ण देश में राष्ट्रीय शिक्षा स्थापना के जो प्रयास चल रहे थे, विद्या भारती ने उस ज्योति को बुझने नहीं दिया। देश में दी जा रही शिक्षा अभारतीय है, हमारे देश को भारतीय शिक्षा चाहिए। स्व की शिक्षा और स्व के तंत्र से ही देश समृद्ध व सुसंस्कृत बनेगा। यह विचार देशवासियों के मानस में बिठाकर उन्हें पश्चिम का अंधानुकरण न करने तथा अपनी आत्म विस्मृति को हटाते हुए स्वाभिमान जगाने की प्रेरणा देने का महती कार्य किया है। इसी प्रकार शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं, मातृभाषा होना चाहिए, इसकी चर्चा देश भर में चलाते हुए मातृभाषाओं के महत्त्व को बढ़ाया है। देश में समय-समय पर बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा को राष्ट्र की जड़ों से जोड़ने की संस्तुतियां देकर भारत सरकार को शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए दिशा प्रदान की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में विद्या भारती की अनेक संस्तुतियों को स्थान मिला है। इस प्रकार विद्या भारती देश में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करने के कार्य में 

अग्रसर है। विद्या भारती की मान्यता है कि भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा से भारत आत्मनिर्भर तो होगा ही, अपनी ज्ञान विरासत के बल पर पुनः एक बार ‘कृणवन्तो विश्वमार्यम्’ की भूमिका निभाते हुए जग सिरमौर बनेगा। विद्या भारती, राष्ट्र के इस ज्ञान यज्ञ में आप भी आहुति दें, यह अपेक्षा रखती है। (लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)                                                                    





अनमोल हीरा

बेटी ईश्वर का वरदान, 

बेटी शक्ति की पहचान, 

शिक्षित, संस्कारित बेटी ही

लाती जीवन में सम्मान,

शिक्षा से शक्ति पाकर ही 

बेटी कर पाती स्वाभिमान||

जीवन सम्मानित होकर

न करती अभिमान, 

अपने छोटे और बड़ों का,

माता-पिता व बंधु-सखा का, 

रखती पल-पल ध्यान,

बेटी करती है सम्मान||

सब संभव वो ही कर पाती, 

सहज सहन कर-कर संकल्पों 

से पूर्ण करती हर अभियान,

दादा-दादी, नाना-नानी, 

भाई-बहन व सास-ससुर, 

इन सब रिश्ते नातों की, 

रिश्तो की गरिमा में बंधकर, 

देती कर्म का ज्ञान||

बेटी प्रेम का प्रमाण, 

बेटी होती है अभिमान, 

दुख संवेदन में आवेदन, 

प्रभु चरणों में कर-कर रोदन, 

स्नेह सूत्र का कर अनुशीलन,

आशीशों का करती वंदन,  

बेटी हो जिसके जीवन में, 

उसका जीवन ही है चंदन..

बेटी ही जीवन का सुखधन, 

बेटी में मिलता अपनापन, 

एक नहीं दो-दो परिवारों का

बेटी करती संवर्धन||

बेटी की शक्ति पहचाने,

उसके गुण को गहराई से जाने, 

बेटी है मन का विज्ञान,

बेटी कर्म का कीर्तिमान, 

बेटी का सम्मान बचाएँ, 

खूब पढ़ायें, खूब लिखायें, 

देश को शक्तिवान बनाएँ  

अनमोल हीरा 'बेटी' बचाकर , 

भारत माँ  की लाज बचायें... ||

~करुणा ऋषि






गोमुखासन

यह आसन करने से शरीर सुड़ोल,लचीला और आकर्षक बनता हैं। वजन कम करने के लिए यह आसन उपयोगी हैं। गोमुखासन मधुमेह रोग में अत्यंत लाभकारी हैं। महिलाओं में स्तनों का आकार बढ़ाने के लिए यह विशेष लाभकर हैं।

गोमुखासन करने की विधि - इस आसन को करने के लिए आप खुले हवादार स्थान पर चटाई बिछा के सुखासन या क्रॉस पैर वाली मुद्रा में बैठ जाएं।इसके बाद अपने बांए पैर को अपने शरीर की ओर खींच के उसे अपने पास ले आयें। उसके बाद अपने दायं पैर को बांए पैर की जांघों के ऊपर रखें और उसे भी खींच के अपने शरीर के पास ले आयें।अब अपने दाएं हाथ को कंधे के ऊपर करें और कोहनी के यहां से मोड़ के अपनी पीठ के पीछे जितना अधिक हो सकता हैं ले जाएं। अपने बाएं हाथ को भी कोहनी के यहां से मोड़े और पेट के साइड से पीछे की ओर पीठ पर लेके जाएं। दोनों हाथों को खींच के आपस में मिलाने की कोशिश करें। और पीठ के पीछे हाथों को एक दूसरे से पकड़ लें। इस आसन में कुछ देर तक रहें।जब आपको इस स्थिति में असुविधा होने लगे तो आप पुनः अपनी प्रारंभिक स्थिति में आयें। इसके लिए अपने दोनों को हाथों को खोलें और पैरों को सीधा करें।


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