तुम वीर शिवा के वंशज हो
तुम वीर शिवा के वंशज हो,फिर रोष तुम्हारा कहाँ गया।
बोलो राणा की संतानों,वह जोश तुम्हारा कहाँ गया।।
ओ वीर तुम्हारे कदमों से,सारी धरती थर्राती थी
सागर का दिल हिल जाता था,पर्वत की धड़कती छाती थी
अब चाल में सुस्ती कैसी है,क्यों पाँव हैं डगमग डोल रहे।
कुछ करके नहीं दिखाते हो,केवल अब मुँह से बोल रहे
दुश्मन को मार गिराने का,आक्रोश तुम्हारा कहाँ गया।।१।।
जाकर देखो सीमाओं पर,जो आज कुठाराघात हुआ।
जाकर देखो भारत माँ के,माथे पर जो आघात हुआ।
गर अब भी खून न खौला तो,गर अब भी जाग न पाए हो।
मुझको विश्वास नहीं आता,तुम भारत माँ के जाए हो।
दुनिया को दिव्य दृष्टि देते,वह होश तुम्हारा कहाँ गया।।२।।
आंखों की मस्ती दूर करो,यह संकट में कैसा प्रमाद।
टक्कर से तोड़ो रोडों को,अब बंद करो झूठा प्रमाद।
गर तुमको कुछ करना ही है,तो फिर दुश्मन का अंत करो।
या तो स्वदेश पर मिट जाओ,या भारत माँ के लिए जिओ।
दुश्मन की फौज दहल उठे,वह रोब तुम्हारा कहाँ गया।।३।।
हे वीरों तुम हो महाकाल,काल जो आये डरना क्या
जब चला सिपाही लड़ने को,तो जीना क्या और मरना क्या
मर मिट भी गए इतिहासों में,तो नाम अमर हो जायेगा।
जीवित रहने पर हर मानव ,श्रद्धा से शीश झुकायेगा।
माटी का हर कण पूछ रहा,वह होश तुम्हारा कहाँ गया ।।४।।
हिन्दु जगे तो विश्व जगेगा
हिन्दु जगे तो विश्व जगेगा मानव का विश्वास जगेगा
भेद भावना तमस ह्टेगा समरसता अमर्त बरसेगा
हिन्दु जगेगा विश्व जगेगा
हिन्दु सदा से विश्व बन्धु है जड चेतन अपना माना है
मानव पशु तरु गीरी सरीता में एक ब्रम्ह को पहचाना है
जो चाहे जिस पथ से आये साधक केन्द्र बिंदु पहुचेगा ॥१॥
इसी सत्य को विविध पक्ष से वेदों में हमने गाया था
निकट बिठा कर इसी तत्व को उपनिषदो में समझाया था
मन्दिर मथ गुरुद्वारे जाकर यही ज्ञान सत्संग मिलेगा ॥२॥
हिन्दु धर्म वह सिंधु अटल है जिसमें सब धारा मिलती है
धर्म अर्थ ओर काम मोक्ष की किरणे लहर लहर खिलती है
इसी पुर्ण में पुर्ण जगत का जीवन मधु संपुर्ण फलेगा
इस पावन हिन्दुत्व सुधा की रक्षा प्राणों से करनी है
जग को आर्यशील की शिक्षा निज जीवन से सिखलानी है
द्वेष त्वेष भय सभी हटाने पान्चजन्य फिर से गूंजेगा ॥३
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यहि घडी है हिन्दु युवको जगत पुनर्निर्माण की
यहि घडी है हिन्दु युवको जगत पुनर्निर्माण की
आओ नवयुग की प्रतिमा मे करे प्रतिष्ठा प्राण की॥धृ॥
महाकाल ने परिवर्तन का क्रम फिरसे दोहराया है
इस धरती पर स्वर्ग सृजन का सन्देषा पहुन्चाया है
नवनिर्माण हो सके ऐसा वातावरण बनाया है
दसोदिशाओ ने अन्तर से यह तूफान उठाया है
नही उपेक्षा करनी है अब सृष्टा के आव्हान की ॥१॥
भेद भावना स्वार्थ साधना से उपर उठना होगा
और सुप्त एकात्म भाव को जन जन मे भरना होगा
एक धरा के पुत्र पन्थ की भेद छोड जगना होगा
इस धरती का मान बढाने जगती पर छाना होगा
सब समाज हो आज सन्घटित जय बोले धरती माँ की ॥२॥
केशव के सन्घटन दुर्ग की हम अभेद्य दीवारे है
संस्कारों के द्वारा सुरभित हम उन्मुक्त समीरे है
माँ का वैभव अमर रहे यह मन्त्र सभी उच्चारे है
ध्येयनिष्ठ कन्टक पथ राही हम जलते अंगारे है
नई कथाए रचे चले हम जगती के उथ्थान की ॥३॥
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एकात्मकता मन्त्र
यं वैदिका मन्त्रदृशः पुराणाः
इन्द्रं यमं मातरिश्वा नमाहुः।
वेदान्तिनो निर्वचनीयमेकम्
यं ब्रह्म शब्देन विनिर्दिशन्ति॥
शैवायमीशं शिव इत्यवोचन्
यं वैष्णवा विष्णुरिति स्तुवन्ति।
बुद्धस्तथार्हन् इति बौद्ध जैनाः
सत् श्री अकालेति च सिख्ख सन्तः॥
शास्तेति केचित् कतिचित् कुमारः
स्वामीति मातेति पितेति भक्त्या।
यं प्रार्थन्यन्ते जगदीशितारम्
स एक एव प्रभुरद्वितीयः॥
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भाग्भवेत् ।
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है अमित सामर्थ्य मुझमें याचना मैं क्यो करुँगा
है अमित सामर्थ्य मुझमें याचना मैं क्यो करुँगा
रुद्र हूँ विष छोड़ मधु की कामना मैं क्यों करुँगा
इन्द्र को निज अस्थि पंजर जब कि मैंने दे दिया था
घोर विष का पात्र उस दिन एक क्षण में ले लिया था
दे चुका जब प्राण कितनी बार जग का त्राण करने
फिर भला विध्वंस की कटु कल्पना मैं क्यों करुँगा॥१॥
फूँक दी निज देह भी जब विश्व का कल्याण करने
झोंक डाला आज भी सर्वस्व युग निर्माण करने
जगमगा दी झोपड़ी के दीप से अट्टलिकाएँ
फिर वही दीपक तिमिर की साधना मै क्यों करुँगा॥२॥
विश्व के पीड़ित मनुज को जब खुला है द्वार मेरा
दूध साँपों को पिलाता स्नेहमय आगार मेरा
जीतकर भी शत्रु को जब मैं दया का दान देता
देश में ही द्वेष की फिर भावना मैं भरुँगा॥३॥
मार दी ठोकर विभव को बन गया क्षण में भिखारी
किन्तु फिर भी जल रही क्यों द्वेष से आँखे तुम्हारी
आज मानव के ह्रदय पर राज्य जब मैं कर रहा हूँ
पिर क्षणिक साम्राज्य की भी कामना मैं क्यों करुँगा॥४।
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हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे
हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे,
संगठन का भाव भरते जा रहे ॥ध्रु.॥
यह सनातन राष्ट्र मंदिर है यहां
वेद की पावन ऋचाएं गूंजती
प्रकृति कावरदान पाकर शक्तियां
देव निर्मित इस धरा को पूजती
हम स्वयं देवत्व गढ़ते जा रहे ॥1॥
हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे
राष्ट्र की जो चेतना सोई पड़ी
हम उसे फिर से जगाने आ गए
परम पौरुष की पताका हाथ ले
क्रांति के नवगीत गाने आ गए
विघ्न बाधा शैल चढ़तेजा रहे ॥2॥
हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे
हम करें युवाओं का आह्वान फिर
शक्ति का नवज्वार पैदा हो सके
राष्ट्र रक्षा का महा अभियान ले
संगठन भी तीव्रगामी हो सके
लक्ष्य का संधान करते जा रहे ॥3॥
हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे
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युग परिवर्तन की बेला में
युग परिवर्तन की बेला में, हम सब मिलकर साथ चलें।
देश धर्म की रक्षा के हित, सहते सब आघात चलें।
मिलकर साथ चलें ।।२।।
शौर्य पराक्रम की गाथायें, भरी पड़ी है इतिहासों में
परंपरा के चिर उन्नायक, जिये निरंतर संघर्षों में
हृदयों में उस राष्ट्र प्रेम के, लेकर हम तूफान चलें।
मिलकर साथ चलें ।।२।।
कलियुग में संघठन शक्ति ही, जागृति का आधार बनेगी
एक सूत्र में पिरो सभी को,सपने सब साकार करेगी
संस्कृति के पावन मूल्यों की, लेकर हम सौगात चलें।
मिलकर साथ चलें।।२।।
ऊँच-नीच का भेद मिटा कर,समरस जीवन को सरसायें
फैलाकर आलोक ज्ञान का,पराशक्तियों को प्रकटायें
निविड़ निशा की काट कालिमा,लाने नवल प्रभात चलें।
मिलकर साथ चलें ।।२।।
अडिग हमारी निष्ठा उर में, लक्ष्य प्राप्ति की तड़पन मन में
तन-मन-धन सब अर्पण करने, संघ मार्ग के दुष्कर रण में
केशव के शाश्वत विचार को, ध्येय मान दिन-रात चलें।
मिलकर साथ चलें ।।२।।
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लक्ष्य लक्ष्य बढ़ते चरणों के
लक्ष लक्ष बढ़ते चरणों के
साथ चलें हैं कोटि चरण।
दूर ध्येय मन्दिर हो फिर भी
मन में है संकल्प सघन॥ ध्रु.॥
व्रती भगीरथ ने यत्नों से
गंगा इस भू पर लाई।
गंगधार सी संघधार भी
भरत भूमि पर है आई।
अगणित व्रती भगीरथ करते
नित्य निरन्तर प्राणार्पण॥1॥
चट्टानों सी बाधाओं पर
चलो रचें हम शिल्प नया।
सेवा के सिंचन से मरु भू पर
विकसाएं तरु छाया।
सद्भावों से संस्कारों से
भर देंगे यह जन गण मन॥2॥
जन जन ही अब जगन्नाथ बन
रथ को देता नयी गति।
मार्ग विषमता का हम छोड़ें
प्रकटाएं समरस रीति।
हिन्दू एक्य का सूरज चमके
भेद भाव का हटे ग्रहण॥3॥
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देश प्रेम का मूल्य प्राण है
देश प्रेम का मूल्य प्राण है, देखे कौन चुकाता है।
देखे कौन -सुमन शय्या ताज कंटक अपनाता है।......
सकल मोह ममता को तज कर माता जिसको प्यारी हो.
शत्रु का हिय छेदन हेतु जिसकी तेज कटारी हो .......
मातृभूमि के राज्य तज जो बन चूका भिखारी हो।...
अपने तन -मन धन जीवन का स्वयं पूर्ण अधिकारी हो।..
आज उसी के लिए संघ ये भुज अपने .फैलाता है।..
देखे कौन -सुमन शय्या ताज कंटक अपनाता है।...............
कष्ट कंटको में पड़ करके जीवन पट झीने होंगे।..
काल कूट के विषमय प्याले प्रेम सहित पीने होंगे।....
अत्याचारों की आंधी ने कोटि सुमन छीने होंगे.......
एक तरफ संगीने होंगी एक तरफ सीने होंगे।.......
वही वीर अब बढे जिसे हँस -हँस कर मरना आता है.
देखे कौन -सुमन शय्या ताज कंटक अपनाता है।...............
भारत माता की जय !!
जिस दिन सोया राष्ट्र
जिस दिन सोया राष्ट्र जगेगा ,
दिस दिस फैला तमस हटेगा,
भारत विश्व बंधु का गायक
भारत मानवता का नायक
सदियों से था , युगों रहेगा ,
दिस दिस फैला तमस हटेगा
जिस दिन सोया राष्ट्र जगेगा
दिस दिस फैला तमस हटेगा
वैभवशाली जब हम होंगे ,
नहीं किसी से हम कम होंगे
क्यों ना फिर गंतव्य मिलेगा ,
दिस – दिस फैला तमस हटेगा
जिस दिन सोया राष्ट्र जगेगा ,
दिस दिस फैला तमस हटेगा
हम सबकी तो राह एक है ,
कोटि हृदय और भाव एक हैं ,
बात हमारी विश्व सुनेगा ,
दिस दिस फैला तमस हटेगा
जिस दिन सोया राष्ट्र जगेगा ,
दिस दिस फैला तमस हटेगा
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हम मातृभूमि के सैनिक हैं
हम मातृभूमि के सैनिक हैं, गत गौरव लाने वाले हैं,
संतान शूरवीरों की हैं, हम दास नहीं कहलाएंगे।
या तो अखंड हो जाएंगे, या रण में मर मिट जाएंगे।
आगे कदम बढ़े रण में, पीछे न हटाने वाले हैं।
हम मातृभूमि के सैनिक हैं .....................
अब देश प्रेम की रंगत में, रंग गया हमारा यह जीवन।
इसके ही लिए समर्पित है, अपना तन मन जीवन।
जननी के अमर पुजारी हैं, सर्वस्व लुटाने वाले हैं।
हम मातृभूमि के सैनिक हैं .......................
केसरिया बाना पहन लिया, अब इन प्राणों का मोह कहां।
जब बने देश हित सन्यासी, वैभव महलों का मोह कहां।
हम अमर शहीदों की टोली, में नाम लिख आने वाले हैं।
हम मातृभूमि के सैनिक हैं .........................
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अगर हम नही देश के काम आए
अगर हम नही देश के काम आए
धरा क्या कहेगी गगन क्या कहेगा ॥
चलो श्रम करे आज खुद को सँवारें
युगों से चढी जो खुमारी उतारें
अगर वक्त पर हम नहीं जाग पाएं
सुभा क्या कहेगी पवन क्या कहेगा ॥
अधुर गन्ध का अर्थ है खूब महके
पडे संकटों की भले मार सहके
अगर हम नहीं पुष्प सा मुस्कुराएं
लता क्या कहेगी चमन क्या कहेगा ॥
बहुत हो चुका स्वर्ग भू पर उतारें
करें कुछ नया स्वस्थ सोचें विचारें
अगर हम नहीं ज्योति बन झिलमिलाएं
निशा क्या कहेगी भुवन क्या कहेगा ॥
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यह कंकड़ पत्थर रेत नहीं यह तो माता है माता है
यह कंकड़ पत्थर रेत नहीं यह तो माता है माता है
युग-युग से रक्त लिए आता यह देश -धरम का नाता है
यह तो माता है मात है यह कंकड़ ।
पुत्रों की बाहों का बल ही
है मापदण्ड अधिकारों का
जिसके चरणों में साहस है
वह बनता स्वामी तारों का
पर जिसकी होती परंपरा –
घर उसका ही कहलाता है
यह देश…
समझौते सौदेबाजी से
माता का न्याय नहीं होता
जिसमें मृग-नायक भाव भरा
वह सिंह-सुवन जगता-सोता
पौरुष का प्रखर प्रभाव लिये
माता का नाम बढ़ाता है
यह देश…
माता के प्रश्न न हल होते
कायर जन के संख्या बल से
इकला दिनकर तम को हरता
लाखों जुगनू से बढ़कर के
जिसमें है सर्वदमन का बल
वह भारत-भाग्य विधाता है
यह देश धरम का नाता है
यह कंकड़ पत्थर रेत नहीं यह तो मात है मत है
युग-युग से रक्त लिये आत यह देश-धरम का नाता है
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