सोमवार, 22 जुलाई 2024

काँवड़ जलाभिषेक श्रावण मास विक्रमी संवत 2081,सन् 2024 ई.में मुहूर्त्त



 काँवड़ जलाभिषेक 

श्रावण मास विक्रमी संवत 2081,सन् 2024 ई.में मुहूर्त्त


शिवभक्त कांवड़ियों द्वारा गोमुख, श्री केदारनाथ, श्री अमरनाथ, श्री हरिद्वार, नीलकण्ठ एवं गंगादि तीथों से श्री गंगाजल के कलश भरकर भगवान् श्रीशिव की प्रसन्नता हेतु आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर सम्पूर्ण श्रावण मास पर्यन्त भगवान् शिव के प्रतिष्ठित मन्दिरों, ज्योतिर्लिङ्गों, विग्रहों,स्वरूपों तथा क्षेत्रीय मन्दिरों में श्रद्धारूपी श्रीगङ्गाजल अभिषेक किया जाता है। कुछ विद्वान लोगों को भ्रम है कि श्रावण-भाद्रपद मास में नदियां रजस्वलारूप हो जाने से उनका जल पवित्र नहीं होता। परन्तु - ये सभी नंदसंज्ञा वाली नदियां रजोदोष से युक्त नहीं होती है। ये सभी अवस्थाओं में निर्मल रहती हैं। स्कन्दपुराण में स्पष्ट लिखा है कि सिन्धु, सूती, चन्द्रभागा, गंगा, सरयू, नर्मदा, यमुना, प्लक्षजाला, सरस्वती - श्री गंगादि तीर्थों से जल लाने एवं भगवान् शिवपूजन एवं शिवलिङ्ग को जलाभिषेक करने की शुभ एवं पुण्य तारीखें-

प्रातःकाल का समय ही श्रेष्ठ (सूर्योदय से लगभग 2-24 तक) रहेगा । दिनांक  2 अगस्त, 2024 ई., शुक्रवार को प्रदोषकाल तथा 1 अगस्त, गुरुवार को प्रदोषकाल के समय मुख्य मुहूर्त है । कुछ ज्योतिषी मुख्य मुहूर्त वाले दिन (श्रावण-शिवरात्रि 2 अगस्त) प्रदोष व निशीथकाल में जलाभिषेक करने को कहते है । यद्यपि आर्द्रा नक्षत्र विशेष रूप से शिव-पूजन तथा जलाभिषेक के लिए शुभ माना जाता  है। शुभ मुहर्त - (1) 1 अगस्त सायं 15:55 बाद से 19-56 तक,(ii)  2 अगस्त सूर्योदय से, प्रातः 9:35 तक, सायं 16:02 से 19:50 तक, (iii) 3 अगस्त प्रातः 9:30 तक | 

अधिक जानकारी के लिय संपर्क करे शर्मा जी 9312002527,9560518227, sumansangam1957@gmail.com 

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शिवलिंग पर जलाभिषेक करने के दौरान इनमे से कोई एक मंत्र बोल सकते है 

ॐ नमः शिवाय।

ॐ शर्वाय नम:।

ॐ विरूपाक्षाय नम:।

ॐ विश्वरूपिणे नम:।

ॐ त्र्यम्बकाय नम:।

ॐ कपर्दिने नम:।

ॐ भैरवाय नम:।

ॐ शूलपाणये नम:।

ॐ नमो भगवते रूद्राय नम:

इस दिन आप महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें तो भी अच्छा रहेगा।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥




शनिवार, 20 जुलाई 2024

दानवीर टोडरमल

 


दानवीर टोडरमल

चित्र मे दिखाई देने वाली यह हवेली दीवान टोडरमल जी की है। जिन्होंने 78,000 मोहरें बिछाकर गुरुगोविंद सिंह जी के साहबजादों और माता गुजरी देवी जी के संस्कार के लिए 4 गज जगह खरीदी थी | क्रूर मुग़ल बादशाह ने मां गुजरी और बच्चों के संस्कार के लिए जमीन देने से मना कर दिया था। तब टोडरमल जी सामने आए उन्होंने राजा से संस्कार के लिए जमीन देने की मन्नतें कीं। राजा ने जमीन की कीमत मांगी थी सोने की मोहरों से जितनी जमीन नापी जा सके उतनी ले लो। जब मोहरें बिछानी शुरू कीं तब धूर्तता ओर कपट में संलीप्त मुगल बादशाह ने ज्यादा रकम ऐंठने के लिए आड़ी नही खड़ी मुद्रायें बिछाने को कहा !

उस समय टोडरमल ने अंतिम संस्कार के लिए खड़ी सोने की मोहरें बिछाकर संस्कार हो सके इतनी जमीन खरीदकर संस्कार करवाया !, गुरु महाराज टोडरमल से कहा कि टोडरमल आप मुझसे जो चाहे वह मांगलो तब टोडरमल ने कहा गुरु महाराज मैं आपके चरणों में विनती करता हूं कि मेरे कोई संतान न हो, गुरु महाराज ने कहा ऐसा क्यों मांगते हो टोडरमल बोला अगर संतान होगी तब वह अंहकार करेगी की हमारे वंशजों ने यह दान किया था मैं नहीं चाहता कि ये बात किसी को पता चले।

हमें अत्याचार करने वाले आक्रांताओं के इतिहास को मेकअप करके तो हमें रटाया जाता रहा। लेकिन हमारे देश व धर्म के लिए त्याग और बलिदान करने वाले महापुरुषों के इतिहास को गुमनामी में धकेल दिया गया। आज स्थिति ये है कि खुद दीवान टोडरमल जी की हवेली को देखने वाला कोई नहीं है |

वर वधू की तलाश है तो निम्नलिखित फार्म भरे 

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शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

अष्टकूट मिलान में 36 अंकों का वितरण



विवाह के लिए 36 गुण का महत्व...

विवाह के बाद वर और वधु एक दूसरे के अनुकूल रहें, संतान सुख, धन दौलत में वृद्धि, दीर्घ आयु हो, इस वजह से ही दोनों पक्ष के 36 गुणों का मिलान किया जाता है, मुहूर्तचिंतामणि ग्रंथ में अष्टकूट में वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी को शामिल किया गया है..ये अष्टकूट है, वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री,गण, राशि, नाड़ी। गुण मिलान के साथ यदि इन अष्टकूट का मिलान सही ढंग से नहीं होता है तो विवाह में जीवन भर बाधा आती है। विवाह के लिए वर-वधू की जन्म-कुंडली मिलान करते नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों में नाड़ी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। विवाह के पूर्व वर-वधू की कुंडली का मिलान कैसे करें और क्या सावधानी रखें ताकि विवाह सुचारू रूप से संपन्न हो कर जीवन भर एक दूसरे का साथ सुख-समृद्धि के कायम रहे।

• अष्टकूट मिलान में 36 अंकों का वितरण

वर्ण : 1

वश्य : 2

तारा : 3

योनि : 4

मैत्री : 5

गण : 6

भकूट : 7

नाड़ी : 8

1. नाड़ी दोष - हर नक्षत्र के अनुसार बालक-बालिका की नाड़ी अलग होती है। इससे वर-कन्या की सेहत और संतान उत्पत्ति की स्थिति देखी जाती है। अगर वर और कन्या की नाड़ी एक हो तो सेहत की समस्या और संतान की समस्या होती है। एक नाड़ी होने पर तभी विवाह कर सकते है, जब नक्षत्र एक हो और उनके चरण अलग-अलग हो। या वर और कन्या दोनों का बृहस्पति अच्छी स्तिथि में हो। कुंडली मिलान के समय इस महत्वपूर्ण तथ्य को हमेशा ध्यान में रखें और जिस पंडित से कुंडली मिलवा रहे हैं उससे जरूर प्रश्न करें की दोनों की नाड़ी एक तो नहीं है ?

2. मंगल दोष - कुंडली में मंगल की विशेष स्थानों पर होने से मंगल दोष पैदा होता है। कुंडली मैं प्रथम, चतुर्थ, 1, 4, 6, 7 वे, 8वे और 12वे स्थान में मंगल हो तो, व्यक्ति मांगलिक होता है, और यह एक महत्वपूर्ण दोष होता है। अगर एक की कुंडली में मंगल दोष हो तो दूसरी कुंडली मैं उसका निवारण जरूर होना चाहिए। कभी-कभी मंगल दोष इतना खतरनाक होता है कि दोनों व्यक्तियों में तालमेल काफी ख़राब हो जाता है। मंगल दोष की शांति के लिए सबसे उत्तम होता है, हनुमान जी, और कुमार कार्तिकेय कि, पूजा करना। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सारे उपाय हैं, इसके द्वारा मंगल शांत हो जाता है !

3.भकूट - राशियों का आपसी संबंध और वर-कन्या के स्वभाव का मिलान करना भकूट कहलाता है। भकूट दोष होने पर तालमेल मैं काफी समस्या आती है। राशियां अगर एक दूसरे से द्विद्वासः,पसदास्थाक या नवपंचक हो तो भकूट दोष बन जाता है। अगर वर-कन्या की राशियों में मित्रता हो या दोनों के स्वामी एक हो तो ये दोष भंग हो जाता है।

4. गण दोष - अलग-अलग नक्षत्रो के अलग-अलग गण होते है। कुल मिलाकर तीन गण होते है – मानव, देव और राक्षस। अगर गण में तालमेल न हो तो संबंध शत्रुता में बदल जाता है। राक्षस और मानव गण का विवाह सबसे ज्यादा अनुचित होता है। इसके परिणाम स्वरुप संबंध बहुत ख़राब हो जाते है।अगर वर-कन्या की राशियों में उत्तम मित्रता हो तो गण दोष भंग हो जाता है।

5. ग्रह मैत्री- कुंडली मिलान में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष है ग्रह मैत्री। वर और कन्या के ग्रहो में पर्याप्त मित्रता होनी चाहिए, नहीं तो वैवाहिक जीवन में मुश्किलों का अंत नहीं होता। दोनों के बीच आपस में विचार नहीं मिलते हैं। अगर ग्रहो में पर्याप्त मित्रता है तो गण दोष, भकूट दोष और बाकि दोषों का प्रभाव नहीं पड़ता। अच्छी ग्रह मैत्री होने पर विवाह उत्तम होता है और तालमेल श्रेष्ठ होता है।

6. वर्ण - वर्ण का अर्थ होता है स्वभाव और रंग। वर्ण 4 होते हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। 

लड़के या लड़की की जाति कुछ भी हो, लेकिन उनका स्वभाव और रंग उक्त 4 में से 1 होगा। मिलान में इस मानसिक और शारीरिक मेल का बहुत महत्व है। यहां रंग का इतना महत्व नहीं है जितना कि, स्वभाव का है।

7. वश्य - वश्य का संबंध भी मूल व्यक्तित्व से है। वश्य 5 प्रकार के होते हैं- चतुष्पाद, कीट, वनचर, द्विपाद और जलचर। जिस प्रकार कोई वनचर जल में नहीं रह सकता, उसी प्रकार कोई जलचर जंतु कैसे वन में रह सकता है?

8. तारा - तारा का संबंध दोनों के भाग्य से है। जन्म नक्षत्र से लेकर 27 नक्षत्रों को 9 भागों में बांटकर 9 तारा बनाई गई है- जन्म, संपत, विपत, क्षेम, प्रत्यरि, वध, साधक, मित्र और अमित्र। वर के नक्षत्र से वधू और वधू के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक तारा गिनने पर विपत, प्रत्यरि और वध नहीं होना चाहिए, शेष तारे ठीक होते हैं।

9. योनि - योनि का संबंध संभोग से होता है जिस तरह कोई जलचर का संबंध वनचर से नहीं हो सकता उसी तरह से ही संबंधों की जांच की जाती है विभिन्न

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शर्मा जी-9312002527


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गुरुवार, 18 जुलाई 2024

लोक नायक श्री राम 1

 रामायण के प्रेरक प्रसंग 

*लोकनायक श्रीराम / 1*

- प्रशांत पोळ


कालचक्र की गति तेज है. वह घूम रहा है. घूमते - घूमते पीछे जा रहा है. बहुत पीछे. इतिहास के पृष्ठ फड़फड़ाते हुए हमें ले चलते हैं त्रेतायुग में. कई हजार वर्ष पीछे..!

इस त्रेतायुग में पृथ्वी पर एक बहुत बड़ा भूभाग है, जिसे *आर्यावर्त* नाम से जाना जा रहा है. यह प्रगत मानवी संस्कृति का क्षेत्र है. समृद्ध देश है. उच्चतम एवं उदात्त मानवी भाव-भावनाओं से समाज प्रेरित है. समाज में ज्ञान की लालसा है. अध्ययनशील विद्यार्थी है. नए-नए ग्रंथ लिखे जा रहे हैं. उन्नत ऐसी ऋषि संस्कृति का समाज पर प्रभाव है. यज्ञ - याग हो रहे हैं. वायुमंडल और समाज जीवन, दोनों में शुद्धता की सतत प्रक्रिया चल रही है. देवाधिदेव, पृथ्वी पर स्थित इस आर्यावर्त को निहार रहे हैं. इस पर विचरण करने की आकांक्षा रख रहे हैं.

इस आर्यावर्त में, सरयू नदी के किनारे बसा हुआ एक बहुत बड़ा जनपद है, जो 'कोशल' नाम से विख्यात है. यह समृद्ध है. धन-धान्य से सुखी है. आनंदी है.

_कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् ।_

_निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् ॥५॥_

(वाल्मीकि रामायण / बालकांड / पांचवा सर्ग)

इस जनपद की राजधानी है - *अयोध्या*. समूचे आर्यावर्त में विख्यात है. अयोध्या, जहां युद्ध नहीं होता. श्रेष्ठतम नगरी, जिसे स्वयं मनु महाराज ने बनाया और बसाया है.

_अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।_

_मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥६॥_

(बालकांड / पांचवा सर्ग)

यह नगरी अति विशाल है. भव्य है. 12 योजन (अर्थात 150 किलोमीटर) लंबी है और 3 योजन (अर्थात 38 किलोमीटर) चौड़ी है. इस नगरी में विस्तीर्ण राजमार्ग है. लता - वृक्ष, फल - फूलों से यह नगरी सुशोभित है. इस नगरी के चारों ओर गहरा खंदक खुदा हुआ है. सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था है. इस नगरी के लोग उद्यमी हैं. कला प्रेमी है. नृत्य - गान - संगीत - नाटक में परिपूर्ण है. सभी नागरिक धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहने वाले तथा चारित्र्यवान है.

ऐसी पवित्र और संपन्न नगरी जिसकी राजधानी है, ऐसे कोशल जनपद पर, महा पराक्रमी राजा दशरथ राज्य कर रहे हैं. जिस प्रकार आकाशपट पर, सारे नक्षत्रलोक में चंद्रमा राज करता है, उसी प्रकार, शीतल, सुखद शासन राजा दशरथ का है.

_तां पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान् ।_

_शशास शमितामित्रो नक्षत्राणीव चन्द्रमाः ॥२७॥_

(बालकांड / छठवा सर्ग)

चंडप्रतापी राजा दशरथ, अपने अष्टप्रधानों के साथ लोक कल्याणकारी राज्य चला रहे हैं. उनके सभी आठो मंत्री यह उच्च गुणों से और शुद्ध विचारों से ओतप्रोत है. यह मंत्री है - धृष्टि, जयंत, विजय, सौराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमंत्र. इनमें, सुमंत्र यह अर्थशास्त्र के ज्ञाता है तथा राज्यकोषीय व्यवहार देख रहे हैं.

यह सारे मंत्री, एक विचार से, देश हित के लिए प्रेरित है. यह सभी विनय संपन्न है. शस्त्र विद्या के ज्ञाता है. सुदृढ़ और पराक्रमी है. इनके सिवा सुयज्ञ, जाबालि, कश्यप, गौतम, दीर्घायु, मार्कंडेय और कात्यायन यह ब्रह्मर्षि भी राजा दशरथ के मंत्री है. ऐसे मंत्रियों के साथ, गुणवान राजा दशरथ, कोशल का शासन कर रहे हैं.


_ईदृशैस्तैरमात्यैश्च राजा दशरथोऽनघः ।_

_उपपन्नो गुणोपेतैरन्वशासद् वसुन्धराम् ॥२०॥_

(बालकांड / बीसवां सर्ग)

किंतू...

किंतु आर्यावर्त में सभी कुछ ठीक नहीं चल रहा है. अयोध्या तो सुरक्षित है. किंतु अयोध्या के बाहर, न केवल कोशल जनपद में, वरन् समूचे आर्यावर्त में, एक दहशत की काली छाया छाई हुई है. सज्जन शक्ति भयभीत है. ऋषि, मुनियों को, ब्रह्मर्षियों को यज्ञ - याग करना भी कठिन हो रहा है. किसी भी शुभ कार्य में आसुरी शक्तियों के विघ्न डालने का भय लगातार बना हुआ है.

*इस दहशत का केंद्र बिंदु है - रावण. सुदूर दक्षिण में, सिंहल द्वीप अर्थात लंका का राजा. पुलस्त्य मुनि जैसे विद्वान ऋषि का पौत्र और वेदविद् विश्रवा का पुत्र. परम शिव भक्त. किंतु अन्यायी, क्रोधी और कपटी राजा. सज्जन शक्ति को कष्ट देने में आसुरी आनंद प्राप्त करने वाला.*

इस रावण ने सारे आर्यावर्त में अपने क्षत्रप बनाकर रखे हैं. यह सभी क्षत्रप दानवी प्रवृत्ति के, आसुरी वृत्ति के है. नागरिकों का उत्पीड़न कर रहे हैं. उनसे धन की वसूली करते हैं. सामान्य नागरिकों का जीवन इन्होंने दूभर करके रख दिया है. *पूरे आर्यावर्त की सज्जन शक्ति, रावण के इन आसुरी प्रवृत्ति के क्षत्रपों से भयभीत है. अत्यंत कष्ट में है.*

यह सज्जन शक्ति प्रार्थना कर रही है, इस सृष्टि के रचयिता से, परमपिता परमेश्वर से, की 'रावण नाम का राक्षस, आपका कृपा प्रसाद पाकर, अपने असीम बल से हम लोगों को अत्यंत पीड़ा दे रहा है. कष्ट दे रहा है. हम में यह शक्ति नहीं है, कि हम इसे परास्त करें. अतः आप ही कुछ कीजिए.'

_भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः ।_

_सर्वान् नो बाधते वीर्याच्छासितुं तं न शक्नुमः ॥६॥_

(बालकांड / पंद्रहवा सर्ग)

देवलोक में सृष्टि के निर्माता, सृष्टि के पालनकर्ता, परमपिता परमेश्वर यह प्रार्थना सुन रहे हैं. वह पृथ्वी के पवित्र देश आर्यावर्त में रावण ने दस दिशाओं में मचाया हुआ उत्पात भी देख रहे हैं. रावण का आतंक, एक प्रकार से प्रत्यक्ष अनुभव भी कर रहे हैं. सज्जन शक्ति को हो रहे कष्ट भी देख रहे हैं.

*इन सब को देखते हुए. सृष्टि के रचयिता यह तय कर रहे हैं कि आर्यावर्त के नागरिकों को निर्भय होकर जीवन यापन करने के लिए रावण का विनाश अवश्यंभावी है.  किंतु यह विनाश किसी चमत्कार से नहीं होगा, ऐसा परमपिता परमेश्वर ने तय किया है.* नरसिंह अवतार में चमत्कार आवश्यक था, कारण हिरण्यकशपू में ऐसी दानवी शक्ति निर्माण हुई थी, जिसे किसी सामान्य व्यक्ति के द्वारा नष्ट करना संभव नहीं था.

किंतु इस बार नहीं.

*इस बार कोई चमत्कार नहीं. यदि इस बार भी चमत्कार से रावण को नष्ट करते हैं, तो सज्जन शक्ति निष्क्रिय हो जाएगी. जब कभी समाज में आसुरी प्रवृत्ति जन्म लेगी, तब यह सज्जन शक्ति प्रतीक्षा करेगी परमपिता परमेश्वर के किसी अवतार की. वह प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं करेगी.*

यह उचित नहीं है. *इस सज्जन शक्ति के आत्मविश्वास को जगाना होगा. उनमें यह विश्वास निर्माण करना होगा की सारी सज्जन शक्ति यदि एक होती है, संगठित होती है, तो किसी भी बलशाली दानवी शक्ति को परास्त कर सकती है.* परमपिता परमेश्वर के अंश इसमें माध्यम बनेंगे. किंतु सारा संघर्ष करेगी सज्जन शक्ति.

बस्. तय हो गया. भगवान अवतार अवश्य लेंगे. किंतु किसी चमत्कार के बगैर. *वे तो संगठित सज्जन शक्ति मे देवत्व का संचार करने का कार्य मात्र करेंगे. इसके लिए वे माध्यम बनेंगे, आर्यावर्त की पवित्र नगरी अयोध्या के चंडप्रतापी राजा दशरथ के पुत्र के रूप में.*



लोक नायक श्री राम 2

 *श्रीराम के रूप में..!*


-   प्रशांत पोळ

*लोकनायक श्रीराम / 2*

-  प्रशांत पोळ

सृष्टि के पालनकर्ता, सर्वव्यापी नारायण ने निर्णय लिया है, रावण जैसी आसुरी शक्ति के निर्दालन के लिए, ईश्वाकु कुल के वंशज, राजा दशरथ के पुत्र के रूप में माध्यम बनने का..!

राजा दशरथ इसी समय पुत्रकामेष्टि यज्ञ कर रहे हैं. ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में एक तेजस्वी प्राजापत्य पुरुष, राजा को पायस (खीर) देता है, राजा की तीन रानियों के लिए. तीनों साध्वी रानियां, इस पायस का प्रसाद के रूप में प्राशन करती है. कालांतर में तीन रानियों को चार पुत्र होते हैं.

*माता कौसल्या को श्रीराम के रूप में तेजस्वी पुत्र होता है. रानी सुमित्रा को लक्ष्मण और शत्रुघ्न यह यमल (जुड़वा) पुत्र होते हैं. कैकेई भरत को जन्म देती है.*

राजा दशरथ अत्यंत आनंदित है. कोशल जनपद को चार युवराज मिले हैं. अयोध्या में भव्यतम उत्सव हो रहा है. अयोध्या समवेत पूरे कोशल जनपद के नागरिक, अपने राजकुमारों का जन्मोत्सव मना रहे हैं.

कालचक्र सीधा, सरल घूम रहा है.

चारों राजकुमार बड़े हो रहे हैं. उन्हें सभी प्रकार की शिक्षा, विद्वान शिक्षकों द्वारा दी जा रही है. सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण चल रहा है. प्रजा के लिए चलने वाले कार्य, नगर रचना, कोषागार की व्यवस्था, कर संग्रहण, न्याय दान आदि सभी विषयों में, ये चारों युवराज निपुण हो रहे हैं. इन सब में राम की अलग पहचान दिख रही है. बाकी तीनों भाई, श्रीराम को अत्यंत आदर के साथ सम्मान दे रहे हैं. उनकी हर एक बात को मान रहे हैं.

*श्रीराम सभी विषयों में सबसे आगे हैं. अपने सभी भाइयों की चिंता कर रहे हैं. अत्यंत मृदु स्वभाव, संयमित आचरण, बड़ों के प्रति, शिक्षकों के प्रति, ऋषि - मुनियों के प्रति अत्यधिक आदर, यह श्रीराम की विशेषता है.* किंतु इन तीन भाइयों में, शत्रुघ्न के युग्म, लक्ष्मण, श्रीराम के प्रति विशेष अनुराग रखते हैं. श्रीराम इन्हें प्राण से भी प्रिय है. श्रीराम भी लक्ष्मण के बिना भोजन नहीं लेते हैं.

_लक्ष्मणो लक्ष्मी सम्पन्नो बहिः प्राण इव अपराः ।_

_न च तेन विना निद्राम् लभते पुरुषोत्तमः ॥३०॥_

(बालकांड / अठारहवा सर्ग)

कालचक्र घूम ही रहा है. इतिहास के पृष्ठ फड़फड़ाते हुए आगे बढ़ रहा हैं..

यह चारों राजकुमार अब यौवन में प्रवेश कर रहे हैं. सभी अस्त्र-शस्त्र-शास्त्रों में यह निपुण हो गए हैं. विशेषत: श्रीराम और लक्ष्मण की धनुर्विद्या तथा शस्त्रास्त्रों का कौशल, सारे कोशल जनपद में चर्चा का विषय है. *अयोध्या के नागरिक, श्रीराम की न्यायप्रियता की प्रशंसा कर रहे हैं.*

ऐसे समय, एक दिन राजा दशरथ के प्रातः कालीन सभा में सूचना आती है कि कुशिक वंशी, गाधी पुत्र, विश्वामित्र आए हैं तथा वे अवध नरेश राजा दशरथ से मिलना चाहते हैं. राजा दशरथ थोड़े असहज होते हैं. इसलिए नहीं की ऋषि विश्वामित्र के आने का उन्हें आनंद नहीं; वे असहज होते हैं, कारण विश्वामित्र यह कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी है. वे तेजस्वी है. तप:पुंज है.

उन्हें देखकर राजा दशरथ प्रसन्न होते हैं, तथा उन्हें विधिपूर्वक अर्घ्य अर्पण करते हैं. दोनों एक दूसरे का कुशल - मंगल - क्षेम पूछते हैं. पश्चात अवध नरेश दशरथ, मुनिश्री से पूछते हैं, "मुनिवर आपके आगमन से आज मेरा घर तीर्थ क्षेत्र हो गया. मैं मानता हूं कि आपके दर्शन मात्र से मुझे पुण्यक्षेत्रों की यात्रा करने का भाग्य मिला है. विदित कीजिए, आपके शुभागमन का उद्देश्य क्या है?"


राजा दशरथ की यह वाणी सुनकर, मुनिवर प्रसन्न होते हैं. वह कहते हैं, "हे अवध नरेश, आपकी यह वाणी, आप जैसे चंडप्रतापी राजा को ही शोभा देती है. अब मैं मेरे आगमन का उद्देश्य विदित करता हूं"

"हे पुरुषप्रवर, मैं कुछ विशिष्ट ज्ञान एवं सिद्धि प्राप्ति हेतु एक अनुष्ठान कर रहा हूं. किंतु इस अनुष्ठान में कुछ दानवी शक्तियां विघ्न डाल रही है. विशेषत: दो राक्षस, मेरे अनुष्ठान को बंद करा रहे हैं. वह हैं - मारीच और सुबाहू. यह दोनों बलवान और शिक्षित भी है. किंतु मेरा अनुष्ठान पूर्ण होने में बाधक बन रहे हैं."

_व्रते मे बहुशः चीर्णे समाप्त्याम् राक्षसाविमौ ।_

_मारीचः च सुबाहुः च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ ॥५॥_

(बालकांड / उन्नीसवां सर्ग)

"हे राजन, इन राक्षसों ने मेरी यज्ञ वेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है. इस कारण मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया. अतः मैं निरुत्साही होकर आपके पास आया हूं. *राजन, यह दोनों राक्षस, आतंक के पुरोधा, रावण के क्षत्रप है. पूरे आर्यावर्त में आज इन दानवों का आतंक है."*

"हे नृपश्रेष्ठ, मेरे अनुष्ठान को निर्विघ्नता से संपन्न कराने हेतु मैं आपके जेष्ठ पुत्र श्रीराम को मांगने आया हूं. हे भूपाल, मेरा विश्वास है, इन रघुनंदन के सिवा दूसरा कोई पुरुष, इन राक्षसों को मारने का साहस नहीं कर सकता."

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के यह वचन सुनते ही राजा दशरथ कांप उठते हैं. 'रावण के ऐसे दुराचारी और कपटी दानवों के सामने मैं अपने युवा पुत्र को कैसे भेजूं?' राजा दशरथ संज्ञाशून्य (मूर्छित) हो जाते हैं. कुछ पलों में सचेत होने पर, अत्यंत विनम्रता से बोलते हैं, " हे महर्षि, मेरा कमलनयन राम तो अभी सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है. उसे मैं इन राक्षसों से युद्ध करने कैसे भेज सकता हूं?"

_ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचनः ।_

_न युद्धयोग्यतामस्य पश्यामि सह राक्षसैः ॥२॥_

(बालकांड / बीसवां सर्ग)

राजा दशरथ के मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से प्रार्थना करते हैं कि उनके पास अक्षौहिणी सेना है. अत्यंत कुशल, शूरवीर सैनिक है, जो राक्षसों से लड़ने की क्षमता रखते हैं. "इन्हें ले जाइए. आवश्यकता पड़े, तो मैं स्वयं आपके यज्ञ की रक्षा के लिए आ सकता हूं. किंतु राम को ले जाना उचित नहीं होगा."

राजा दशरथ के यह बोल सुनकर विश्वामित्र पुनश्च कहते हैं, *"महाराज, यह क्षत्रप उस राक्षसराज 'रावण' के हैं, जो पुलस्त्य कुल में उत्पन्न हुआ है. वह निशाचर, संपूर्ण आर्यावर्त के निवासियों को अत्यंत कष्ट दे रहा है. यह महाबली दुष्टात्मा, स्वयं यज्ञ में विघ्न डालने को तुच्छ कार्य समझता है. इसलिए उसने मारीच और सुबाहु जैसे अपने क्षत्रपों को भेजा है."*

_पौलस्त्यवंशप्रभवो रावणो नाम राक्षसः ।_

_स ब्रह्मणा दत्तवरस्त्रैलोक्यं बाधते भृशम् ॥१६॥_

(बालकांड / बीसवां सर्ग)

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के यह वचन सुनकर राजा दशरथ दुखी हो जाते हैं. वे कहते हैं, "रावण के ऐसे क्षत्रपों के सामने, शायद मैं भी नहीं टिक सकूंगा, तो मेरा पुत्र कैसा सामना कर सकेगा?"

यह सुनना था, कि विश्वामित्र कुपित हो उठते हैं. स्थिति को संभालते हुए धीर चित्त महर्षि वशिष्ठ, राजा को समझाते हैं कि *'अयोध्या के बाहर इन दानवी शक्तियों का आतंक है. ऋषि - मुनि भी अपना यज्ञ - याग, अनुष्ठान पूर्ण करने में असमर्थ है, तो सामान्य जनों की क्या स्थिति होगी, यह हम समझ सकते हैं. इस आतंक से हमें विश्वामित्र जैसे मुनिश्रेष्ठ को बचाना होगा. इसलिए श्रीराम का जाना उचित होगा. श्रीराम बलशाली है तथा सारी विद्याओं मे तथा विधाओं में निपुण है. अतः श्रीराम को भेजना ठीक रहेगा.'*


वशिष्ठ मुनि की वाणी सुनकर राजा दशरथ, श्रीराम को भेजने तैयार होते हैं. साथ में लक्ष्मण जाने में रुचि दिखाते हैं. अतः श्रीराम - लक्ष्मण यह विश्वामित्र मुनि के साथ जाएंगे, यह निश्चित होता है.

राजा दशरथ अत्यंत प्रसन्नचित होकर श्री राम लक्ष्मण को विश्वामित्र को सौंप देते हैं. अब यह तीनों, अन्य ऋषि मुनियों के साथ यज्ञ स्थल की ओर रवाना होते हैं.

(क्रमशः)

-  प्रशांत पोळ


































लोक नायक श्री राम 3

 *लोकनायक श्रीराम / 3*

-  प्रशांत पोळ


मुनीश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ श्रीराम और लक्ष्मण चल रहे हैं. वें गंगा नदी पार कर, दक्षिण तट पर आते हैं. प्रवास पुनः प्रारंभ होता है. अब रास्ते में एक भयानक वन आता है, जिसमें सिंह, व्याघ्र, हाथी जैसे जानवर विचरण कर रहे हैं. किंतु इस वन में कहीं-कहीं मानवी बस्ती रहने के अवशेष दिख रहे हैं. कहीं टूटे-फूटे, वनलताओं से घिरे प्रासाद, कुछ टूटे - उखड़े पथ, तो कुछ वीरान से पड़े स्तंभ...

यह सब देखकर श्रीराम, ऋषि विश्वामित्र से पूछते हैं, "मुनिवर, यह सब क्या है ? घने वन और मानवीय बस्ती के अवशेष..." विश्वामित्र बताते हैं, "नरश्रेष्ठ, कुछ वर्ष पहले तक यहां दो समृद्धशाली जनपद हुआ करते थे - मलद और करुष. यूं कहो कि यह जनपद, देवताओं के प्रयत्न से बने थे. धन-धान्य से संपन्न थे. समृद्ध थे."

*"किंतु कुछ वर्ष पहले यहां आतंक का साया मंडराने लगा. 'ताटका' नाम की एक दानवी स्त्री, यक्षिणी के रूप में आई. यह सुंद नामक दैत्य की पत्नी है. दुरात्मा रावण का क्षत्रप मारीच, इस ताटका का ही पुत्र है."*

_बलं नागसहस्रस्य धारयन्ती तदा ह्यभूत् ।_

_ताटका नाम भद्रं ते भार्या सुन्दस्य धीमत: ॥२६॥_

_मारीचो राक्षस: पुत्रो यस्याश्शक्रपराक्रम: ।_

_वृत्तबाहुर्महावीर्यो विपुलास्य तनुर्महान् ॥२७॥_

(बालकांड / चोबीसवा सर्ग)

"इस ताटका ने इन दोनों जनपदों में आतंक का तांडव मचाया. प्रजाजन यहां से भागते हुए अन्य जनपदों का आश्रय लेने लगे. कुछ ही दिनों में, यह संपन्न और समृद्ध प्रदेश उजड़ गया. यहां अब मानवी बस्ती नहीं है. पूरे परिक्षेत्र में घने वृक्ष उग आए हैं. अनेक खूंखार जानवर यहां निवास करते हैं."

"इस प्रदेश को उध्वस्त करने वाली, उजाड़ने वाली ताटका, अब छह कोस दूर, 'ताटका वन' में रहती है. हे युवराज, मेरी आज्ञा से तुम इस दुराचारिणी का वध करो. *इस देश को पुनः निष्कंटक बना दो.* इस रमणीय देश में आज आतंक के कारण कोई आने का साहस नहीं करता..."

_स्वबाहुबलमाश्रित्य जहीमां दुष्टचारिणीम् ।_

_मन्नियोगादिमं देशं कुरु निष्कण्टकं पुन: ॥३१॥_

(बालकांड / चोबीसवां सर्ग)

*मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र की वाणी से, मानो श्रीराम के जीवन का ध्येय तय हो रहा है. श्रीराम मन ही मन निश्चय कर रहे हैं, इस देश को आतंक से निष्कंटक करने का..!*

श्रीराम, ऋषि विश्वामित्र को आश्वस्त करते हुए कहते हैं, "भगवन्, अयोध्या में मेरे तात, महामना महाराज दशरथ ने आपको जो वचन दिया था, मैं उससे प्रतिबद्ध हूं. पिताश्री ने मुझसे कहा था कि आपकी हर एक आज्ञा का मैं पालन करूं. *अतः आपकी आज्ञानुसार, गौ, ब्राह्मण तथा देश का हित करने के लिए, मैं आप जैसे अनुपम, प्रभावशाली महात्मा के आदेश का पूर्ण पालन करूंगा. मैं ताटका का वध करूंगा."*

_गोब्राह्मणहितार्थाय देशस्यास्य सुखाय च ।_

_तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कर्तुमुद्यत: ॥५॥_

(बालकांड / छब्बीस वां सर्ग)

'ताटका वन' में पहुंचते ही श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा पर तीव्र टंकार कर के, उस राक्षसी ताटका को ललकारा. क्रोधित होकर ताटका सामने आई. उस विकराल राक्षसी की ओर देखकर श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण से कहते हैं, "लक्ष्मण, देखो तो सही, इस यक्षिणी का शरीर कैसा दारुण और भयंकर है."


इसी बीच ताटका ने धूल के गुबार से श्रीराम - लक्ष्मण पर आक्रमण किया. धूल की आड़ में वह राक्षसी, श्रीराम - लक्ष्मण पर बड़े-बड़े शिलाखंड लेकर प्रहार करने लगी.

किंतु धनुर्धारी श्रीराम ने न केवल अपने बाणों की वर्षा से उन सभी शीलाखंडों को तोड़ दिया, वरन् अपने प्रभावी बाणों से, उस राक्षसी की दोनों भुजाएं भी काट दी. भुजाएं कटने पर ताटका अत्यंत भयानक स्वर में चीखने लगी, दहाड़े मारने लगी.

किंतु वह यक्षिणी थी. इसलिए उसने अपना रूप बदला और श्रीराम - लक्ष्मण को मायास्त्र से मोहित करने लगी. यह देखकर, विलंब किए बगैर, श्रीराम ने एक शब्दवेधी बाण चलाया. यह बाण ताटका के छाती में लगा. वह गिर गई और मृत हो गई.

यह देखकर ऋषि विश्वामित्र और अन्य मुनिगण अत्यधिक प्रसन्न हुए. *अनेक वर्षों के आतंक को श्रीराम ने नष्ट किया था. समाप्त किया था.* इस विजय के उपलक्ष में, विश्वामित्र ने दिव्यास्त्र का ज्ञान श्रीराम को दिया. साथ ही अनेक अस्त्रों के संहार की पद्धति भी सिखाई.

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ, अब श्रीराम - लक्ष्मण, सिद्धाश्रम पहुंचते हैं. यह पवित्र स्थान है. देवाधिदेव श्रीविष्णु की यह तपस्थली रही है. वामन अवतार से पहले, श्री विष्णु ने इसी स्थान पर तप किया था. यह पवित्र भूमी हैं.

विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं, "इसी आश्रम में मेरे यज्ञ में विघ्न डालने वाले दुरात्मा राक्षस आते हैं. हे पुरुषसिंह, यहीं पर तुम्हें उन दुराचारियों का वध करना है."

_एतमाश्रममायान्ति राक्षसा विघ्नकारिण: ।_

_अत्रैव पुरुषव्याघ्र हन्तव्या दुष्टचारिण: ॥२३॥_

(बालकांड / उनतीसवां सर्ग)

श्रीराम और लक्ष्मण की उपस्थिति से आश्वस्त होकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र तथा अन्य ऋषि, अनुष्ठान प्रारंभ करते हैं. पांच दिन निर्विघ्नता से निकल जाते हैं. छठे दिन ॠत्विजों से घिरी यज्ञ की वेदी प्रज्वलित हो उठती है. अग्नि की शिखाएं मानो आकाश छू रही हो. राक्षसों के लिए जैसे यह संकेत है.

और आक्रमण प्रारंभ होता है. भयानक चीखते हुए, दहाड़े मारते हुए, मारीच और सुबाहू, अपनी सेना के साथ, यज्ञमंडप की ओर दौड़ते आते हैं. उनके साथ है, भयंकर से दिखने वाले असुरों की पूरी सेना. उनके सामने खड़े हैं, दो तेजस्वी युवक. अत्यंत शांत, परंतु जबरदस्त निग्रह चेहरे पर झलक रहा है. दोनों के हाथों में धनुष्य है. प्रत्यंचा आकर्ण खींची हुई है. तरकश से निकला हुआ बाण, प्रत्यंचा पर लगा है.

और फिर प्रारंभ होती है, इन दो धनुर्धारी राजकुमारों के बाणों की घनघोर वर्षा. यज्ञवेदी को भ्रष्ट करने हेतु कलशो में भरकर लाया रक्त, उन्हीं राक्षसों के शरीर पर बिखर रहा है.

इन राक्षसों के सेनानायक मारीच को, श्रीराम मानवास्त्र से गहरा आघात करते हैं. इस मानवास्त्र का प्रभाव इतना व्यापक है कि मारीच सौ योजन पीछे जाकर, समुद्र में जा गिरता है.

_स तेन परमास्त्रेण मानवेन समाहित: ।_

_संपूर्णं योजनशतं क्षिप्तस्सागरसम्प्लवे ॥१७॥_

_विचेतनं विघूर्णन्तं शीतेषु बलताडितम्।_

_निरस्तं दृश्य मारीचं रामो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥१८॥_

(बालकांड / तीसवां सर्ग)

इधर लक्ष्मण भी अपने अग्नेयास्त्र को सुबाहु की छाती पर चलाते हैं. सुबाहु मारा जाता है.

श्रीराम और लक्ष्मण के तरकश से निकलते हुए तीरों की वर्षा से मारीच - सुबाहु  की बची - खुची सेना का भी संहार होता है. *सिद्धाश्रम का पूरा क्षेत्र दानवों से निर्बाध होता. है आतंक से मुक्त होता है..!*


सभी ऋषि - मुनि - महर्षि अत्यधिक आनंदित है. आतंक की इस दानवी शक्ति ने इन सभी का जीवन अत्यधिक कठिन करके रखा था. यह सारे ऋषि, ज्ञान अर्जन तो दूर की बात, अपने नैमित्तिक यज्ञ - याग करने में भी असमर्थ थे.

*अब वें सब निर्भरता से यज्ञ - याग - अनुष्ठान कर सकेंगे.*

इधर विश्वामित्र के मन में कुछ और ही है. वें इन दोनों राजपुत्रों को मिथिला लेकर जाना चाह रहे हैं. मिथिला में राजा जनक एक धर्ममय यज्ञ करने वाले हैं. साथ ही जनक कन्या सीता का स्वयंवर भी आयोजित है. इस प्रसंग पर श्रीराम का होना आवश्यक है, ऐसा विश्वामित्र मान रहे हैं.

अतः विश्वामित्र के साथ, श्रीराम - लक्ष्मण और ऋषि मुनियों का एक समूह मिथिला की ओर प्रस्थान कर रहा है..!

(क्रमशः)

-  प्रशांत पोळ































लोक नायक श्री राम 4

 *लोकनायक श्रीराम / ४*

-  प्रशांत पोळ


मिथिला.


आर्यावर्त के उत्तर - पूर्व दिशा में स्थित एक वैभव संपन्न जनपद, जिसके राजधानी का नाम भी मिथिला है. यह जनपद, लोक कल्याणकारी राज्य का अनुपम उदाहरण है. इस राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं, शक्ति और बुद्धि का अपूर्व समन्वय जिन मे है, ऐसे राजा जनक. ये मूलतः क्षत्रिय है. राजा हश्वरोमा के सुपुत्र है. इनका मूल नाम शिरीध्वज है. उनके छोटे भाई, कुशध्वज नाम से जाने जाते हैं.

शिरीध्वज का लोगों में प्रचलित नाम है, जनक. अत्यंत विद्वान. महर्षि अष्टावक्र के शिष्य. क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मण्य में पारंगत. अनेक ब्राह्मणों को दीक्षा भी दी है. 

निमी वंश के इन दो राजाओं, शिरीध्वज (जनक) और कुशध्वज, के परिवार में कुछ ऐसा संयोग है, कि दोनों को दो-दो पुत्रियां हैं. राजा जनक को, खेत जोतते हुए, सोने के हल के अग्र का स्पर्श होकर एक संदूक मिली थी, जिसमें थी एक तेजस्वी बालिका. जनक ने इसका संगोपन करने का निश्चय किया. यही है, राजा जनक की जेष्ठ पुत्री - सीता. अत्यंत बुद्धिमान, तेजस्वी, सुंदर और ममतामयी. सभी अस्त्र - शस्त्रों में पारंगत.

राजा जनक के परिवार में एक वंशपरंपरागत धनुष है, जिसे प्रत्यक्ष भगवान शंकर ने धारण कर के वत्रासुर का वध किया था. यह धनुष विशाल है. भारी भरकम है. राजा जनक ने निर्णय लिया है कि जो युवक इस धनुष को धारण कर, इसकी प्रत्यंचा चढ़ाएगा, उसे वह अपनी तेजस्वी कन्या सीता, पत्नी के रूप में देंगे.

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र, राजा जनक के इस संकल्प को जानते हैं. श्रीराम को मिथिला लेकर जाने का उनका यही उद्देश्य है.

सिद्धाश्रम छोड़ते हुए अनेक ऋषिगण, विप्र समूह, सिद्धाश्रम के आसपास का वनवासी समुदाय, विश्वामित्र और श्रीराम - लक्ष्मण के साथ हो लिए. हजारों लोग और लगभग सौ गाड़ियां... कुछ अंतर काटने के पश्चात, महर्षि विश्वामित्र ने, चुनींदे ऋषिगण छोड़कर सभी को वापस लौटा दिया.

प्रवास करते हुए यह सब मिथिला पहुंचे. मिथिला नगरी के बाहर, एक विरान पड़े आश्रम के पास जब विश्वामित्र ने कुछ समय रुकने के लिए कहा, तो श्रीराम का कौतूहल जागृत हुआ. उन्होंने उस आश्रम के बारे में विश्वामित्र से पूछा. मुनिश्रेष्ठ ने बताया कि 'यह गौतम ऋषि का आश्रम था और यहां पर उनकी पत्नी अहिल्या को उन्होंने शाप दिया था. किंतु यह भी कहा था कि जब श्रीराम यहां आएंगे तो वह पुनः अपने मूल रूप में प्रकट हो सकती है.'

*श्रीराम के उस आश्रम में प्रवेश करते ही, अनेक वर्षों से कठोर तपस्या में रत, अहिल्या देदीप्यमान रूप में सामने आई. उनका स्वरूप दिव्य था. प्रज्वलित अग्निशिखा जैसा दिख रहा था. श्रीराम के दर्शन से उनके श्राप का अंत हो गया.*

_मध्येंऽभसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव।_

_सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह ॥१५॥_

_त्रयाणामपि लोकानां यावद्रामस्य दर्शनम्।_

_शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता ॥१६॥_

(बालकांड / उनचासवां सर्ग)

अहिल्या उद्धार के बाद महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम - लक्ष्मण के साथ मिथिलापुरी में प्रवेश किया.


दूसरे दिन अपनी प्रातः सभा में राजा जनक ने, अत्यंत आदरपूर्वक, अर्घ्य चढ़ाकर, मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र का स्वागत किया. उनके साथ आए हुए दो तेजस्वी युवकों के बारे में विश्वामित्र से पूछा. विश्वामित्र ने राजा जनक को उन दो राजकुमारों के बारे में बताया. श्रीराम और लक्ष्मण ने किस प्रकार से उनके अनुष्ठान में आए सभी विघ्नों को दूर किया तथा सिद्धाश्रम का परिसर कैसे आतंक से मुक्त किया, यह भी विस्तार से बताया.

अवधपुरी नरेश, राजा दशरथ के पुत्र, ईश्वाकु कुल के वंशज, श्रीराम - लक्ष्मण अपनी सभा में आए हैं, यह सुनकर और देखकर राजा जनक अत्यधिक प्रसन्न हुए. जब महर्षि विश्वामित्र ने, निमी वंश की धरोहर, वह परंपरागत शिव धनुष, दर्शन के लिए लाने को कहा, तो राजा जनक ने हर्षपूर्वक उसे स्वीकार किया.

आठ पहियों वाली बड़ी सी संदूक में रखा वह शिव धनुष, अनेक सैनिकों द्वारा खींचकर वहां लाया गया.

राजा जनक ने कहा, "मुनिवर, यही वह श्रेष्ठ धनुष है जिसका जनकवंशी नरेशों ने सदा ही पूजन किया है. इस धनुष को उठाने वाले नरश्रेष्ठ युवक के साथ, मैं अपनी जेष्ठ पुत्री सीता का विवाह करना चाहता हूं."

*धनुष्य सामने आने पर महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को संकेत किया. श्रीराम अपने आसन से उठे. संदूक के पास गए, और अत्यंत सहजता से उस शिव धनुष को उठा लिया.*

मिथिला नगरी की वह सर्वोच्च सभा, बड़े ही विस्मय से यह दृश्य देख रही थी.

*श्रीराम ने पुनश्च, सहजता के साथ, उस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर, आकर्ण खींची. ऐसा करते ही साथ, वज्रपात के समान बड़ी भारी आवाज हुई और वह धनुष्य बीच से टूट गया.*

_आरोपयित्वा धर्मात्मा पूरयामास तद्धनु:।_

_तद्बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशा: ॥१७॥_

(बालकांड / सरसठवां सर्ग)

यह देखकर राजा जनक समवेत उस राजसभा के सभी मंत्री, ऋषिगण, विप्रवर आनंदित हुए. राजा जनक ने सीता का विवाह श्रीराम से करने का निश्चय किया. 

इस मंगल प्रसंग की सूचना देने, अयोध्या के लिए दूत दौड़ पड़े. संदेश पाकर महाराज दशरथ अपने मंत्रियों समवेत मिथिला नगरी के लिए निकले.

मिथिला में ईश्वाकु कुल पुरुष पहुंचने पर यह तय हुआ कि दो अत्यंत पराक्रमी, सद्वर्तनी और सच्चरित्र कुल (परिवार), आपसी संबंधों में लिप्त हो रहे हैं, अतः इन संबंधों को अधिक सशक्त बनाया जाए.

तदनुसार राजा जनक, अर्थात शिरीध्वज की कनिष्ठ कन्या उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ तय हुआ. साथ ही, राजा जनक के कनिष्ठ भ्राता, कुशध्वज की पुत्री मांडवी का विवाह भरत तथा श्रृतकीर्ति का विवाह, शत्रुघ्न के साथ निश्चित हुआ.

कुछ ही दिनों में विजय मुहूर्त पर, पूर्वा फाल्गुनी तथा उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र पर, चारों राजकुमारों का विवाह, निमी वंश की चारों राजकन्याओं के साथ, अत्यंत हर्षपूर्ण तथा मंगलमय वातावरण में संपन्न हुआ. अच्छा संबंध जुड़ने पर दोनों कुल, अत्यधिक प्रसन्न थे. साथ ही मिथिलापुरी के जनसामान्य भी हर्षोल्लास से भरपूर थे. आनंदित थे.

यथावकाश, विवाह के विधि संपन्न होने पर, दान - धर्म - दक्षिणा देने के पश्चात, ईश्वाकु कुल के बाराती, नवपरिणीत राजकन्याओं के साथ, अयोध्या नगरी वापस आए.

बारात के आगमन पर अयोध्या नगरी ही नहीं, तो पूरा कोशल जनपद, तोरण - पताकाओं से पल्लवित था. प्रत्येक नगरवासी ने अपने घर के सामने पानी छींककर, रंगोली सजाई थी. वातावरण में एक अभूतपूर्व आनंद की लहर दौड़ रही थी.

अयोध्या पुरी में आने के और कुछ दिन विश्राम के पश्चात, भरत और शत्रुघ्न, अपने-अपने मातुल गृह (मां के घर) चले गए. राजा दशरथ, श्रीराम - लक्ष्मण के साथ राज काज की चर्चा करने लगे. श्रीराम - सीता का सांसारिक जीवन आनंद से व्यतीत होने लगा.


अपने चारों पुत्रों का विवाह होने के कारण, महाराज दशरथ के मन में अब निवृत्ति के विचार आने लगे. परंपरा के अनुसार राज्य व्यवहार जेष्ठ पुत्र को देना, यह विधि सम्मत है. और श्रीराम वैसे भी इसके योग्य है. अस्त्र - शस्त्रों में तो वह निपुण है ही, साथ ही वें सदा शांत चित्त रहकर, मीठे वचन बोलते हैं. अपने पराक्रम पर उन्हें किंचित मात्र भी अभिमान नहीं है. वे सत्य वचनी है. विद्वान है. सदा वृद्ध और विद्वानों का सम्मान करते हैं.

*प्रजा का श्रीराम के प्रति और श्रीराम का प्रजा के प्रति बड़ा अनुराग है.*

_नचानृतकथो विद्वान् वृद्धानां प्रतिपूजकः।_

_अनुरक्तः प्रजाभिश्च प्रजाश्चाप्यनुरञ्जते ॥१४॥_

(अयोध्या कांड / पहला सर्ग)

अतः ऐसे राजपुत्र को राज्याभिषेक कराकर, कोशल राज्य की व्यवस्था सोंपना ज्यादा उचित है. राजा दशरथ के मन में अब श्रीराम के राज्याभिषेक की अभिलाषा बारंबार जागृत होने लगी.

_अथ राज्ञो बभूवैवं वृद्धस्य चिरजीविनः ।_

_प्रीतिरेषा कथं रामो राजा स्यान्मयि जीवति ॥३६॥_

(अयोध्या कांड / पहला सर्ग)

किंतु यह सब प्रक्रिया से होना चाहिए. इस हेतु राजा दशरथ ने कोशल जनपद के भिन्न-भिन्न नगरों में निवास करने वाले प्रधान पुरुषों को बुलावा भेजा. कोशल के अंकित जो जनपद थे, उनके सामंत राजाओं को भी, अपने मंत्रियों द्वारा आमंत्रण भेजा.

कुछ दिनों के पश्चात, तय तिथि को, जब सभी आमंत्रित विद्वतजन, सभा में एकत्र हुए, तो राजा दशरथ ने अपने मन की अभिलाषा सबके सामने रखी. अधिक आयु होने के कारण, सारा राजकाज, जेष्ठ पुत्र श्रीराम को सौंपने की इच्छा प्रकट की. सभा में उपस्थित सभी ने इस निर्णय का सहर्ष अनुमोदन किया.

महाराजा दशरथ ने महर्षि वशिष्ठ और स्वामी वामदेव जी को श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी करने हेतु कहा. मंत्री सुमंत्र एक दिन श्रीराम को राज्यसभा में लेकर आए. वहां राजा दशरथ ने उन्हें लोक कल्याणकारी राज्य के प्रबंधन के बारे में बातें बताई.

श्रीराम को राज्याभिषेक होने वाला है, यह वार्ता वायु वेग से समूचे कोशल जनपद में फैली.

*अयोध्यावासी इस समाचार से अत्यंत हर्षित है. सत्यवचनी, सच्चरित्र एवं पराक्रमी श्रीराम उनके नृपति होने जा रहे हैं, इसका सभी को आनंद है. अपने-अपने ढंग से, पौर जन, राज्याभिषेक उत्सव की तैयारी में लग गए हैं.*

समूचा कोशल प्रांत अब राज्याभिषेक के दिवस की व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहा है..!

(क्रमशः)

-  प्रशांत पोळ













गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत

  गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत सतीश शर्मा  गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, और यह दिन गुरुओं के प्रति सम्मा...