हिन्दू साम्राज्य के वीर नायक छत्रपति शिवाजी
सतीश शर्मा
छत्रपति शिवाजी महाराज का ऐसा राज्याभिषेक हुआ जिससे उस समय की सारी परिस्थितियाँ बदल गई। जिन परिस्थितियों का समर्थ रामदास जी ने वर्णन करते हुए कहा था- “कोई पीर की पूजा करता है, कोई कब्र को पूजता है, तो कोई भिन्न-भिन्न प्रकार से मोहर्रम मनाता है। इस प्रकार हमारे समाज के लोगों ने अपने धर्म का स्वाभिमान छोड़ दिया हैं अपने देवताओं को भुला दिया है और वह पराये लोगों का अनुकरण करने में स्वयं को धन्य मान रहा है। उन्होंने बड़े दुखी स्वर से कहा था-“हे भगवान् भीषणता की अब परिसीमा हो गयी है। सारे तीर्थ भ्रष्ट हो गये हैं। भजन, पूजन करना असम्भव हो गया है। न हमारा कोई राजा है न हमारी कोई प्रजा। अधर्म का साम्राज्य सर्वत्र फैल गया है। अतः हे प्रभो अब आओ और हमारे धर्म की रक्षा करो।” ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू समाज के लिए प्रतिकूलता की पराकाष्ठा थी। बड़े-बड़े विद्धान शूरवीरों के दिमाग में यह विचार भी नहीं आता था कि इस परिस्थिति को बदला जा सकता है। अनेक वर्षों से ऐसी ही परिस्थिति में रहने के कारण उसे बदलने की किसी की इच्छा ही नहीं रह गई थी। राज्य करना तो मुसलमानों का ही काम है। हिन्दू राजा बन ही नहीं सकता और चाहे कुछ भी बने मंत्री, सेनापति कुछ भी ऊँची नौकरी कर सकता है। समाज के सब लोगों की सामान्य भावना का सर्वदूर यही हाल था। हिन्दू पद पादशाही की स्थापना कर उन्होंने इस भावना को जड़मूल से नष्ट कर दिया। ऐसे महान पराक्रमी शिवाजी महाराज ने हिन्दुओं का खोया गौरव लौटाया। एक महानायक के रूप में उनकी जीवन यात्रा अनुपम थी।
फरवरी 1630 में बीजापुर राज्य के जागीरदार शाहजी भोंसले के घर में जन्मा बालक ही बाद में शिवाजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वीर माता जीजाबाई ने बचपन से उन्हें पुराणों की महान् गाथाओं से प्रोत्साहित किया। दादाजी कोंडदेव जैसे परमनीतिज्ञ एवं शूरमा के संरक्षण में उन्होंने शस्त्र शिक्षा प्राप्त की और समर्थ स्वामी रामदास जैसे महापुरुष द्वारा राष्ट्रधर्म की शिक्षा प्रदान की गयी। जन्म से शूरवृत्ति शिवाजी ‘मावली’ बालकों के साथ उनकी सेना की टुकड़ियाँ बनाकर युद्ध के खेल खेलते थे। देश पर, धर्म, गायों, ब्राह्मणों, मंदिरों, सती नारियों और असहाय जनता पर जो अत्याचार निरंकुश यवन-शासकों द्वारा हो रहे थे, शिवाजी का वीर हृदय उस आर्त क्रंदन को सह नहीं सका। युवा होते-होते उन्होंने अपने बचपन के मावली शूरों का नेतृत्व सम्भाला और धर्म, राष्ट्र एवं संस्कृति के परित्राण के लिए भवानी (शिवाजी की तलवार) की शरण ली। शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुर नवाब के दरबारी सामन्त थे, किन्तु शूर शिवाजी अन्यायी यवन को मस्तक झुका दे, यह सम्भव नहीं था। शिवाजी ने बीजापुर के दुर्गों पर आक्रमण करके अधिकार करना प्रारम्भ किया। बीजापुर नवाब का सेनापति अफजल खाँ सेना सजाकर बढ़ आया। धूर्ततापूर्वक उसने संधि के लिए शिवाजी को बुलाया। दोनों अकेले मिलने वाले थे। शिवाजी यवनों के विश्वासघात से परिचित थे। शिवाजी के हाथ में छिपे बघनखे ने अफजलखाँ को फाड़ डाला। वन में छिपे मराठे सैनिक टूट पड़े। मुगल सेना परास्त हुई। बीजापुर ने विवश होकर संधि की । शिवाजी ने मुगलों के किले जीतने प्रारम्भ किये। तो दिल्ली का सिंहासन हिल उठा। औरंगजेब ने भारी सेना के साथ मामा शाइस्ता खाँ को भेजा। परन्तु अहंकारी शाइस्ता खाँ बुरी तरह पराजित हुआ और शिवाजी की तलवार से चार अंगुलियाँ कटाकर जान बचाकर भागा।
औरंगजेब ने राजकुमार मुअज्जम और जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। हिन्दू परस्पर ही लड़े यह महाराज शिवाजी को अभीष्ट नहीं था। सेनापति जयसिंह के परामर्श से वे दिल्ली जाने को तैयार हो गये। दरबार में पहुँचने पर औरंगजेब ने उनका उचित सत्कार नहीं किया। शिवाजी यह अपमान कैसे सह लेते? धूर्त औरंगजेब ने उन्हें कैद कर लिया, परन्तु जिस छल-बल से वे औरंगजेब की जेल से मुक्त हुए यह उनकी विजयगाथा का एक अद्वितीय उदाहरण है। अफजल खान, सिद्दी जौहर, शाइस्ता खाँ, जसवंत सिंह, ख्वास खान आदि बड़े-बड़े सरदारों की जो दुर्गति हुई थी, उसे देखकर सम्पूर्ण भारतवर्ष के हिन्दुओं में आशा की एक नई लहर दौड़ने लगी थी। देश भर के नवयुवक बड़ी उत्सुकता के साथ शिवाजी की कथाएँ सुनने लगे और नए स्वप्न देखने लगे। शिवाजी ने अपने जीवन काल में छोटे-बड़े 276 युद्ध लड़े और सभी में विजय प्राप्त की। इसी कारण शिवाजी को विश्व के महान् सेनापतियों की पंक्ति में स्थान प्राप्त हुआ।
शिवाजी अपनी प्रजा से इतना आत्मसात थे कि सबको लगता था कि शिवाजी जो कुछ भी कर रहे हैं वह हमारा ही काम है। अपने शासनकाल में शिवाजी अपने सभी सहयोगियों, सैनिकों और प्रजा में यह भावना भर सके और बलिदान के लिए उन्हें तैयार कर सके, यही उनकी विशेषता थी। इसके कई उदाहरण हैं। भारी-भरकम फौज के साथ सिद्दी जौहर और फजल खान ने पन्हालगढ़ को घेर लिया था। महीनों गुजर गये परन्तु घेरेबन्दी में ढील नहीं आयी। ऐसी स्थिति में, घेराबंदी में हल्की सी दरार ढूँढकर, चुपचाप विशालगढ़ निकल जाने की योजना बनायी गयी। इस योजना का एक हिस्सा था, किसी को नकली शिवाजी बनाना। पालकी में बैठा हुआ नकली शिवाजी शत्रु के हत्थे चढ़ गया और जब तक सिद्दी जौहर और उसके साथी असलियत जान पाते, तब तक शिवाजी को दर निकल जाने का मौका मिल गया। नकली शिवाजी बना था एक सामान्य गरीब व्यक्ति शिवा नाई।
ऐसा विश्वास रखने वाला शिवा नाई अकेला नहीं था। पन्हालगढ़ की घेराबंदी से महाराज निकल गये। सिद्दी जौहर चौकन्ना हो गया और तेजी से उनका पीछा शुरू किया। परन्तु रास्ते में घोड़ादर्श था और यह घोड़ादर्श रोक कर मुठ्ठी भर साथियों के साथ बाजी प्रभु देशपांडे डटा हुआ था। दराँ में जीवनाहुति देने के लिए वह और उसके संगी-साथी तैयार थे ताकि महाराज को विशालगढ़ पहुँचने का अवसर मिल जाये अन्त में हुआ वही। बाजीप्रभु तथा उनके अन्य साथियों ने अपने प्राण देकर भी शिवाजी की रक्षा की।
ऐसा ही एक उदाहरण है जब आगरे के बंदीगृह से छुटकारे का कोई मार्ग नहीं मिल रहा था तब योजनापूर्वक महाराज के बिस्तर पर एक व्यक्ति शिवाजी का प्रतिरूप बनकर सोता रहा और दूसरा उसके पाँव दबाता रहा और शिवाजी जेल से निकल भागे। मृत्यु का सामना करने के लिए पीछे ठहरने वाले थे, मदारी मेहतर और हिरोजी फरजंद। मौत को गले लगाकर बलिदान होने के लिए वे दोनों क्यों तैयार हुए? जवाब वही-शिवाजी द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य बहुमूल्य है, उसे पूरा होना ही चाहिए।
शिवाजी के पास अनेक मुसलमान सेनानायक, मुखिया और नौकर भी थे और वे उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर आसीन थे। शिवाजी का तोपखाना-प्रमुख एक मुसलमान था। तोपें यानी उस युग के सर्वाधिक विकसित हथियार। किले के युद्ध में उनका बड़ा महत्व होता है। ऐसे तोपखाने का प्रमुख इब्राहिम खान था। नौसेना की स्थापना को छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरंदेशी का उदाहरण माना जाता है और यह ठीक भी है। और ऐसे महत्वपूर्ण विभाग का प्रमुख भी एक मुसलमान सेनानायक ही था। उसका नाम था दौलत खान।
शिवाजी हिन्दू धर्मानुयायी थे, परन्तु अन्धभक्त नहीं थे। धर्म-परिवर्तन से मुसलमान बने लोगों को शिवाजी ने दोबारा हिन्दू बनाया। इतना ही नहीं उनके साथ रिश्तेदारियों भी जोड़ीं। शिवाजी ने धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान हुए बजाजी निम्बालकर और नेताजी पालकर को जिनका खतना हुआ था और जो दस-पाँच साल तक मुसलमानों के बीच रहे थे, फिर से हिन्दू बनाया। जिस बजाजी निम्बालकर को चिढ़ाया जाता था, उन्हें शिवाजी ने अपनी पुत्री दी। अफगानिस्तान में आठ साल तक रहे नेताजी पालकर की शुद्धि की और उन्हें अपने बराबरी में आसन पर बिठाया।
मुस्लिम इतिहासकार खफी खां लिखते हैं कि शिवाजी ने कभी किसी मस्जिद, कुरान अथवा किसी स्त्री को हानि नहीं पहुँचायी। यदि उनके हाथ कोई कुरान की प्रति लग जाती तो वे उसे तुरन्तु आदरपूर्वक किसी मुसलमान को दे देते। ‘छत्रपति शिवाजी महाराज के उद्देश्य को साम्प्रदायिक या संकीर्ण मानने वाले को मुसलमान लेखक का यह मत पढ़ लेना चाहिए। कहा जाता है कि एक युद्ध में सैनिकों ने कल्याण के सूबेदार की बहु को बंदी करके महाराज के सम्मुख उपस्थित किया। महाराज कुछ क्षण उसकी और देखकर बोले-यदि मेरी माता ऐसी सुन्दर होती तो मैं इतना कुरूप न होता। फिर सैनिक को डाँटकर कहा कि इसको सुरक्षित इसके घर पहुँचा दो। उन्होंने उसे आदरपूर्वक उसके पिता के पास भिजवाया। पर स्त्री मात्र में मातृ-भाव का यह उज्जवल आदर्श हैं।
शिवाजी हिन्दुत्व के रक्षक ऐसे प्रजावत्सल सम्राट थे जिनकी यश गाथा को केवल महाराष्ट्र ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश स्वीकार करता है। उन्होंने हिन्दू अस्मिता की रक्षा के लिए हिन्दवी राज्य बना हिन्दू पदपादशाही की स्थापना की तथा 2 जून, 1674 में छत्रपति शिवाजी की उपाधि धारण कर हिन्दू जनता की रक्षा की।