शनिवार, 23 सितंबर 2023

प्रेरक प्रसंग



प्रेरक प्रसंग जरूर पढ़ें ....

*'आपने कभी कोई मेहनत नहीं की तो अपने बच्चों से भी किसी चमत्कार की उम्मीद मत रखिये'।*

किसी जमाने में जब मैं युवा थी... मेरी शादी नारायणमूर्ति से हुई थी. एक दिन मूर्ति ने मुझे बताया मुंबई के एक बड़े रईस ने हमें डिनर पर बुलाया है. कफ परेड में उनका बड़ा सा बंगला था. मैं बेहद सामान्य परिवार की, एक डॉक्टर और प्रोफेसर की बेटी!

मैं पहली बार किसी रईस का घर देखने वाली थी. हम उनके घर गए चांदी की थाली में खाना परोसा गया. डिनर के बाद जब हम घर आए तो मेरे मुंह से निकला 'सो पुअर'! नारायणमूर्ति बोले- 'तुम ऐसा कैसे कह सकती हो?' मैंने कहा उनके ड्राइंग रूम में एक भी किताब नहीं थी'.

हाल ही में मेरी एक पुरानी स्टूडेंट मेरे पास अपनी बिटिया को लेकर आई और बोली- 'मेरी बेटी बिल्कुल नहीं पढ़ती है और आपको मेरी मदद करनी है कि वह पढ़ना शुरू करे '. मैंने स्टूडेंट से पूछा 'बताओ, आप कितनी किताबें पढ़ती हो?' उसका जवाब था 'मुझे क्यों बुक रीड करनी चाहिए?' मैंने कहा 'अगर आप रीडिंग नहीं करेंगी तो यह उम्मीद मत रखिएगा कि आपके बच्चे रीडिंग करेंगे'. स्टूडेंट का कहना था 'मैं चाहूंगी कि मेरे बच्चे स्टडी करें ना कि रीड.' मैंने कहा रीडिंग और स्टडी एक तरह से समान ही है.'

जब मां नहीं पढ़ेगी तो बच्चे भी नहीं पढ़ेंगे।मैं हर माँ से गुजारिश करूंगी कि वह जरूर किताबे पढ़ा करें. ऐसा नहीं है कि पिता नहीं पढ़ सकते दोनों बराबर हैं लेकिन लॉजिकली, मां ज्यादा जिम्मेदार होती है. मां का असर कुछ अधिक होता है. इसी वजह से तो हम कहते हैं मातृभाषा. फादर टंग आपने कभी नहीं सुना होगा. जिंदगी में हर चीज की कीमत है, सिवाय मां के प्यार के. इसलिए मां की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है.

 आप अपने बच्चों से किसी चमत्कार की उम्मीद मत कीजिए, खासतौर पर तब जबकि आपने उसके लिए मेहनत नहीं की है. अगर आप चाहते हैं कि बच्चे पढ़ने की आदत डालें तो आप भी जनरल रीडिंग शुरू कीजिए. रीडिंग वाकई बेहतरीन आदत है. यह बात भी उतनी ही सही है जो लोग अच्छा लिख सकते हैं. वे पढ़ते काफी हैं.

मैं इस उम्र में भी 2 से 3 घंटे पढ़ती हूं. शायद इसी कारण हम कर्नाटक में ही 60000 लाइब्रेरी स्थापित कर पाए हैं. यह तभी संभव हुआ जब हमने समझा कि रीडिंग बेहद आवश्यक है. अगर किसी इंसान के पास भव्य बंगला है लेकिन एक किताब नहीं है उसे मैं अत्यधिक गरीब मानूंगी.

आपके पास कुछ भी स्थाई तौर पर नहीं रहने वाला है. महाभारत में किसी ने अर्जुन से पूछा कि तुम इतने खूबसूरत हो, तुम्हारी पत्नी भी बेहद खूबसूरत है, तुम राजकुमार हो... फिर क्यों तुम अपने गुरु द्रोण की इतनी चिंता करते हो? अर्जुन का जवाब था - 'उम्र के साथ खूबसूरती ढल जाएगी, राजपाट छीन सकता है, सोना चांदी तो कोई चुरा भी सकता है, ज्ञान ही है जो इंसान का साथ कभी नहीं छोड़ता.'

ज्ञान तो ऐसा है जो बांटने से बढ़ता है, इसलिए टीचर्स, आप पर भी भारी जिम्मेदारी है. मैं माँओं और टीचर से खासतौर पर कहूंगी कि रीडिंग की आदत बच्चों में आप ही डाल सकते हैं, मिसाल पेश कीजिए किसी को रोल मॉडल की जरूरत नहीं है. दस साल तक के बच्चों के रोल मॉडल उनके पेरेंट्स ही होते हैं. अगर आप नहीं पढ़ेंगे तो बच्चा भी नहीं पढ़ेगा. इसके लिए आपको घर से टीवी हटाना भी पड़े तो हटाइए. मैंने भी अपने बच्चों को 18 साल की उम्र तक टीवी नहीं देखने दिया. मैं उन्हें कहती थी कि तुम टीवी पर क्या देखोगे, मैं ही तुम्हें कहानियां सुना देती हूं. अगर टीवी है भी तो उसे देखने के वक्त को सीमित कीजिए, सप्ताह में एक घंटा काफी होगा.

पेरेंट्स बच्चों को केवल रेस्त्रां में नहीं ले जाएं. उन्हें घुमाने जाएं, तो कुछ सीखने का उद्देश्य हो. ऐसी जगह जहां उन्हें ज्ञान मिले. कभी लिटरेचर फेस्टिवल जाया जा सकता है तो कभी म्यूजियम. शुरुआती दस साल ऐसा कीजिए बच्चों को इसकी आदत हो जाएगी.

(2017 के नींव लिटरेचर में पढ़ने का महत्व समझाती सुधा मूर्ति)

साभार

निरभिमानता का एक अनुकरण

      एक समय बाँकुड़े जिले में अकाल पड़ा। सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका ने नियम रख दिया कि कोई भी आदमी आकर दो घन्टे कीर्तन करे और चावल ले जाय। कारण कि अगर उनको पैसा देंगे तो उससे वे अशुद्ध वस्तु खरीदेंगे। इसलिये पैसा न देकर चावल देते थे। इस तरह सौ-सवा सौ जगह ऐसे केन्द्र बना दिये, जहाँ लोग जाकर कीर्तन करते थे और चावल ले जाते थे। 

           एक दिन सेठ जी वहाँ गये। रात्रि के समय बंगाली लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने सेठ जी से कहा कि महाराज! आपने हमारे जिले को जिला दिया, नहीं तो बिना अन्न के लोग भूखों मर जाते! आपने बड़ी कृपा की। सेठजी ने बदले में बहुत बढ़िया बात कही कि आप लोग झूठी प्रशंसा करते हो। हमने मारवाड़ से यहाँ आकर जितने रूपये कमाये, वे सब-के-सब लग जायँ, तब तक तो आपकी ही चीज आपको दी है, हमारी चीज दी ही नहीं। हम मारवाड़ से लाकर यहाँ दें, तब आप ऐसा कह सकते हो। हमने तो यहाँ से कमाया हुआ धन भी पूरा दिया नहीं है। सेठजी ने केवल सभ्यता की दृष्टि से यह बात नहीं कही, प्रत्युत हृदय से यह बात कही। 

           सेठजी के छोटे भाई हरिकृष्णदासजी से पूछा गया कि आपने सबको चावल देने का इतना काम शुरू किया है, इसमें कहाँ तक पैसा लगाने का विचार किया है? उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही कि जब तक माँगने वालों की जो दशा है- वैसी दशा हमारी न हो जाय, तब तक! कोई धनी आदमी क्या ऐसा कह सकता है? उनके मन में यह अभिमान ही नहीं है कि हम इतना उपकार करते हैं।

गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित 'मेरे तो गिरधर गोपाल'में परम पूज्य स्वामी रामसुखदासजी महाराजके प्रवचनोंसे।

*पेंशन*

" सुनो, आज चार तारीख हो गई,पेंशन लेने का समय आ गया है।बैंक जा रहा हूँ,आने में देर हो जाए तो परेशान मत होना।युवाओं को समय की कद्र कहाँ, छोटे-छोटे काम में भी घंटों लगा देते हैं।" पत्नी को कहकर रामनिवास जी बाहर जाने लगे तो पत्नी ने पीछे से कहा, " आपके इतने सारे विद्यार्थी हैं, उन्हीं में से किसी को क्यों नहीं कह देते?" 

     " ज़माना बदल गया है।पहले जैसे विद्यार्थी अब कहाँ जो अपने गुरु का मान करें।उन्हें तो मेरा नाम भी याद नहीं होगा।" पत्नी को जवाब देकर वे बैंक चले गये।   

 महीने का पहला सप्ताह होने के कारण बैंक में भीड़ थी।एक खाली कुर्सी देखकर वे बैठ गये और फार्म भरकर कैशियर वाले डेस्क के सामने खड़े हो ही रहें थें कि एक स्टाफ़ ने उन्हें आदर-सहित कुरसी पर बैठा दिया और स्वयं फ़ार्म लेकर कैशियर के केबिन में चले गये।वे कुछ समझ पाते तब तक में बैंक का चपरासी उनके लिए चाय ले आया।उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वे बिना चीनी के चाय पीते हैं।चपरासी बोला, " साहब ने बिना चीनी वाली का ही आर्डर दिया है।" कहकर उसने रामनिवास जी के हाथ में चाय की प्याली थमा दी।    

रामनिवास जी ने घड़ी देखी, दस बजकर पाँच मिनट हो रहें थे।सोचने लगे, चाय पिलाया है,लगता है दो घंटे से पहले मेरा काम न होगा।तभी एक बत्तीस वर्षीय सज्जन ने आकर उनके पैर छुए और विड्राॅ की गई राशि उनके हाथ पर रख दिया।इतनी जल्दी काम पूरा होते देख रामनिवास जी चकित रह गए।उन्होंने उन सज्जन को धन्यवाद देते हुए परिचय पूछा तो उन्होंने कहा, " सर, मैं इस बैंक का नया मैनेजर हूँ, एक सप्ताह पहले ही मैंने ज्वाॅइन किया है लेकिन उससे पहले मैं आपका विद्यार्थी हूँ।" 

" विद्यार्थी! " रामनिवास जी ने आश्चर्य से पूछा।उन्होंने कहा, "जी सर, सन् 2004 में आप सहारनपुर के उच्च माध्यमिक विद्यालय में नौवीं कक्षा के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाते थें।मैं भी उन्हीं में से एक था।गणित मुझे समझ नहीं आती थी।परीक्षा में पास होने के लिए मैंने नकल करना चाहा और पकड़ा गया।प्रिंसिपल सर मुझे रेस्टीकेट कर रहें थें तब आपने उनसे कहा था कि नासमझी में विद्यार्थी तो गलती करते ही हैं।हम शिक्षक हैं, हमारा काम उन्हें शिक्षा देने के साथ-साथ सही राह दिखाना भी है।संजीव की यह पहली गलती है,रेस्टीकेट कर देने से तो इसका पूरा साल बर्बाद हो जाएगा जो मेरे विचार से उचित नहीं है।आपने उनसे विनती की थी कि मुझे माफ़ी देकर अगली परीक्षा में बैठने दिया जाए।प्रिंसिपल सर ने आपकी बात मान ली थी,आपने अलग से मुझे ट्यूशन पढ़ाया और मैं परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर आज आपके सामने खड़ा हूँ।आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर!" हाथ जोड़कर मैनेजर साहब ने अपने गुरु को धन्यवाद दिया और ससम्मान उन्हें बाहर तक छोड़ने भी गए।

घर लौटते वक्त रामनिवास जी सोचने लगे, ज़माना चाहे कितना भी बदल जाए, जीवन भले ही मशीनी हो जाए लेकिन विद्यार्थियों के दिलों में शिक्षक का सम्मान हमेशा रहेगा,यह आज बैंक मैनेजर संजीव ने दिखा दिया।

बोध कथा 

दूरदर्शी 

एक ट्रेन द्रुत गति से दौड़ रही थी। ट्रेन अंग्रेजों से भरी हुई थी। उसी ट्रेन के एक डिब्बे में अंग्रेजों के साथ एक भारतीय भी बैठा हुआ था।

डिब्बा अंग्रेजों से खचाखच भरा हुआ था। वे सभी उस भारतीय का मजाक उड़ाते जा रहे थे। कोई कह रहा था, देखो कौन नमूना ट्रेन में बैठ गया, तो कोई उनकी वेश-भूषा देखकर उन्हें गंवार कहकर हँस रहा था।कोई तो इतने गुस्से में था कि ट्रेन को कोसकर चिल्ला रहा था, एक भारतीय को ट्रेन मे चढ़ने क्यों दिया ? इसे डिब्बे से उतारो।

किँतु उस धोती-कुर्ता, काला कोट एवं सिर पर पगड़ी पहने शख्स पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा।वह शांत गम्भीर भाव लिये बैठा था, मानो किसी उधेड़-बुन मे लगा हो।

ट्रेन द्रुत गति से दौड़े जा रही थी औऱ अंग्रेजों का उस भारतीय का उपहास, अपमान भी उसी गति से जारी था।किन्तु यकायक वह शख्स सीट से उठा और जोर से चिल्लाया "ट्रेन रोको"।कोई कुछ समझ पाता उसके पूर्व ही उसने ट्रेन की जंजीर खींच दी।ट्रेन रुक गईं।

अब तो जैसे अंग्रेजों का गुस्सा फूट पड़ा।सभी उसको गालियां दे रहे थे।गंवार, जाहिल जितने भी शब्द शब्दकोश मे थे, बौछार कर रहे थे।किंतु वह शख्स गम्भीर मुद्रा में शांत खड़ा था। मानो उसपर किसी की बात का कोई असर न पड़ रहा हो। उसकी चुप्पी अंग्रेजों का गुस्सा और बढा रही थी।

ट्रेन का गार्ड दौड़ा-दौड़ा आया. कड़क आवाज में पूछा, "किसने ट्रेन रोकी"।

कोई अंग्रेज बोलता उसके पहले ही, वह शख्स बोल उठा:- "मैंने रोकी श्रीमान"।

"पागल हो क्या ? पहली बार ट्रेन में बैठे हो ? तुम्हें पता है, अकारण ट्रेन रोकना अपराध है"- गार्ड गुस्से में बोला

हाँ श्रीमान ! ज्ञात है किंतु मैं ट्रेन न रोकता तो सैकड़ो लोगो की जान चली जाती।

उस शख्स की बात सुनकर सब जोर-जोर से हंसने लगे। किँतु उसने बिना विचलित हुये, पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा:- यहाँ से करीब एक फरलाँग की दूरी पर पटरी टूटी हुई हैं।आप चाहे तो चलकर देख सकते है।

गार्ड के साथ वह शख्स और कुछ अंग्रेज सवारी भी साथ चल दी। रास्ते भर भी अंग्रेज उस पर फब्तियां कसने मे कोई कोर-कसर नही रख रहे थे।

किँतु सबकी आँखें उस वक्त फ़टी की फटी रह गई जब वाक़ई , बताई गई दूरी के आस-पास पटरी टूटी हुई थी।नट-बोल्ट खुले हुए थे।अब गार्ड सहित वे सभी चेहरे जो उस भारतीय को गंवार, जाहिल, पागल कह रहे थे।वे उसकी और कौतूहलवश देखने लगे, मानो पूछ रहे हो आपको ये सब इतनी दूरी से कैसे पता चला ??..

गार्ड ने पूछा:- तुम्हें कैसे पता चला , पटरी टूटी हुई हैं ??.

उसने कहा:- श्रीमान लोग ट्रेन में अपने-अपने कार्यो मे व्यस्त थे।उस वक्त मेरा ध्यान ट्रेन की गति पर केंद्रित था। ट्रेन स्वाभाविक गति से चल रही थी। किन्तु अचानक पटरी की कम्पन से उसकी गति में परिवर्तन महसूस हुआ।ऐसा तब होता हैं, जब कुछ दूरी पर पटरी टूटी हुई हो।अतः मैंने बिना क्षण गंवाए, ट्रेन रोकने हेतु जंजीर खींच दी।

गार्ड औऱ वहाँ खड़े अंग्रेज दंग रह गये. गार्ड ने पूछा, इतना बारीक तकनीकी ज्ञान ! आप कोई साधारण व्यक्ति नही लगते।अपना परिचय दीजिये।

शख्स ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया:- श्रीमान मैं भारतीय #इंजीनियर #मोक्षगुंडम_विश्वेश्वरैया...

जी हाँ ! वह असाधारण शख्स कोई और नही "डॉ विश्वेश्वरैया" थे।


व्यर्थ की हानि


हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण का कार्य चल रहा था। पं. मदन मोहन मालवीय राजस्थान में एक सेठ के घर दान लेने गए। उन दिनों बिजली नहीं थीं। प्रकाश के लिए लालटेन का प्रयोग होता था। सेठ जी ने नौकर से लालटेन जलाने को कहा। नौकर ने लालटेन जलाने के लिये दियासलाई की 3-4 तिलियाँ जलाई। संयोग से तीनों तिलियाँ बुझ गईं लेकिन लालटेन नहीं जली। इस पर सेठ जी ने नौकर को बहुत डाँटा। मालवीय जी ने सोचा यह सेठ बहुत कंजूस  लगता है। सम्भवतः दान में एक पैसा भी नहीं देगा। अगले दिन प्रातः मालवीय जी जागे और प्रस्थान करने से पहले सोचा कि सेठ जी से मिलता चलूँ। मालवीय जी यह सोच ही रहे थे कि सेठ ने उनके कमरे में प्रवेश किया और विश्वविद्यालय के लिए 50 हजार रुपए भेंट किये।


मालवीय जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि रात तीली बर्बाद करने पर आप जिस तरह नौकर को डाँट रहे थे, उससे तो मुझे यही लगा था कि आप दान बिल्कुल नहीं देंगे। सेठ ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया, ‘मैं व्यर्थ का हानि सहन नहीं करता।’ लेकिन बड़ा प्रयोजन हो अपनी सारी सम्पत्ति भी दे सकता हूँ, आखिर यह है किस दिन के लिए? 


अपने मन को स्वदेशी बनाओ


अपने स्पष्ट विचारों के कारण लोकमान्य तिलक युवकों के प्रेरणा स्रोत थे। सभी उनसे मार्गदर्शन लेने आते थे। लोकमान्य जब भी पूर्ण में होते, प्रातःकाल फर्गसन महाविद्यालय में घूमने जाते थे। एक दिन भ्रमण के समय कुछ विद्यार्थी । | उनके पास आ गये- मानों वे उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे।


लोकमान्य ने पूछा- बोलो क्या काम है? विद्यार्थियों में प्रमुख लगने वाला एक युवक बोला- ‘स्वदेशी का स्वीकार विदेशी का बहिष्कार आपका आहवान अच्छा है। हमने | स्वीकार किया है। व्यवहार में लाने का प्रयास कर रहे हैं। हमें आप स्वदेशी के संबंध में कोई संदेश दीजिये ।” लोकमान्य ने क्षण भर विचार कर कहा- ‘मन स्वदेशी करो। गम्भीर अर्थवाले केवल इन तीन शब्दों ने स्वदेशी के सम्बंधन में उन युवकों की सारी आशंकाओं को दूर कर दिया। देश की जनता के मन स्वदेशी बनाने के लिए ही तिलक जी ने शिव जयन्ती और गणेशोत्सव प्रारम्भ किय थे।




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