शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

पद्मिनी एकादशी

 


पद्मिनी एकादशी

अधिक मास/लोध मास/मलमास की शुक्लपक्ष की  एकादशी को  पद्मिनी एकादशी कहते है | एकादशी के दिन प्रात उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर भगवान की पूजा करनी चाहिए |

पद्मिनी एकादशी व्रत कथा - एक समय कार्तवीर्य ने रावण को कारागार में बंद कर रखा था उसको पुलस्त्य जी ने कार्तवीर्य से विनय करके मुक्त कराया | इस घटना को सुनकर नारदजी ने पुलस्त्य जी से पूछा हे महाराज उस महावीर रावण ने  समस्त देवताओं सहित देवराज इंद्र को जीत लिया तथा उसको कार्तवीर्य ने किस प्रकार जीता था आप मुझे बताइए इस पर पुलस्त्य जी बोले हैं नारद आप पहले कार्तवीर्य  की उत्पत्ति सुनो त्रेता युग में महिष्मति नाम की नगरी में उपकीर्तवीर्य्   राजा राज करता था उस राजा के सौ स्त्रीयाँ थी उनमें से किसी के भी राज्य भार लेने वाला योग्य पुत्र नहीं था उस राजा ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ किए परंतु सब असफल रहे।  अंत में वह तप के द्वारा ही सिद्धियों को प्राप्त जानकर तप करने के लिए वन को चला गया। उसकी स्त्री हरीशचंद की पुत्री प्रमादा वस्त्र आभूषण को त्याग कर अपने पति के साथ गंधमादन पर्वत पर चली गई। उस स्थान पर उन लोगों ने दस सहस्र वर्ष तक तपस्या की परंतु सिद्धि प्राप्त ना हो सकी। राजा के शरीर में केवल हड्डियां रह गई यह देखकर प्रमादा ने विनय सहित महामति अनसूया से पूछा मेरे पतिदेव को तपस्या करते हुए दस सहस्त्र वर्ष बीत गए परंतु अभी तक भगवान प्रसन्न नहीं हुए हैं। मुझे पुत्र प्राप्त हो सके अब आप मुझे ऐसा कोई व्रत बतलाइए जिससे मुझे पुत्र की प्राप्ति हो। इस पर अनसूया जी बोली कि अधिक मास जो कि बत्तीस महीने बाद आता है। उसमें दो एकादशी होती हैं जिसमें कृष्ण शुक्ल पक्ष एकादशी पद्मिनी और शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम परमा है। उसका व्रत व जागरण करने से भगवान तुम्हें अवश्य ही पुत्र देंगे। इसके पश्चात अनसूया जी ने व्रत की विधि बतलाई रानी ने अनसूया जी की विधि के अनुसार एकादशी का व्रत और रात्रि में जागरण किया इससे भगवान विष्णु उस पर अत्यंत प्रसन्न हुए और वरदान मांगने के लिए कहा। रानी भगवान की स्तुति करने लगी और रानी ने कहा भगवान आप वरदान मेरे पति को दीजिए प्रमादा का वचन सुनकर भगवान विष्णु बोले कि प्रमादे मलमास मुझे बहुत प्रिय जिसमें एकादशी का व्रत तथा रात्रि जागरण तुमने विधि पूर्वक किया इसलिए मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हो इतना क्या कर भगवान विष्णु राजा से बोले राजेंद्र तुम अपनी इच्छा के अनुसार मांग लो क्योंकि तुम्हारी स्त्री ने मेरी भक्ति कि है भगवान की सुंदर वाणी को सुनकर राजा बोला हे भगवान आप मुझे सबसे श्रेष्ठ सब के द्वारा पूजित तथा आपके अतिरिक्त देव दानव मनुष्य आदि से अजय उत्तम पुत्र दीजिए । भगवान उसे तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए। दोनों अपने राज्य को वापस आए उन्हीं के यह कार्तवीर्य उत्पन्न हुए थे यह भगवान के अतिरिक्त सबसे अजेय थे।  इसी से उन्होंने रावण को जीत लिया था। यह सब पद्मनी एकादशी के व्रत का प्रभाव था नारदजी से इतना कहकर पुलस्त्य मुनि तेजी से वहां से चले गए। अधिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत जो करते है उनकी सभी मनोकामनाए पूरी होती है व अंत मे विष्णु लोक को जाते है।


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श्री गुरू- जी प्रेरक प्रसंग

 



शत नमन माधव चरण में---

कागजी गाय घास नहीं खाती

वैसे, 'मित्रता' विषय पर एक पुस्तक आप लोगों ने देखी हो कुछ ने तो पड़ी भी होगी। उस पुस्तक की बहुत ख्याति है। उसे पढ़कर कोई मित्र बनाना सीख सकता हो तो सीख ले, परंतु यह संभव लगता नहीं। मुझे स्मरण है कि जब मैं १०वीं कक्षा में पढ़ता था, तब शासकीय विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए एक कार्यक्रम चलता था। उसकी कुछ शर्तें थीं। उनमें से एक थी 'किंग इम्प्रूव' वह शर्त मुझे मान्य न होने के कारण मैं उसमें नहीं गया। उस योजना में तरह-तरह की शिक्षा दी जाती थी। तैरने की शिक्षा भी देते थे। उस योजना में जो विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने गए थे, उन्हें एक प्रमाण-पत्र दिया गया था कि उन्होंने तैरना सीख लिया है। गर्मी के दिनों में हम मित्र लोग नदी पर तैरने जाते थे। प्रमाण-पत्र प्राप्त उन विद्यार्थियों में से भी कुछ साथ गए। हम लोग ऊँचाई पर जाकर नदी में कूदते व डुबकी लगाते थे। वे प्रमाण-पत्र प्राप्त तैराक किनारे पर ही बैठे रहे। हमने उनसे पूछा कि तुम लोग नहीं तैरोगे? उन्होंने कहा कि पानी में उतर कर तैर नहीं सकते। पानी में उतरेंगे तो डूब जाएँगे। हमने पूछा कि तुम्हें तो तैरना सीखने का प्रमाण-पत्र मिला है। उन्होंने बताया कि हमें कक्षा में ही तैरना सिखाया जाता था। मेज पर लिटा देते और हाथ-पैर चलाना बताते थे। अब ऐसा सीखने पर तैरना तो आ नहीं सकता। हाँ, डूबना हो सकता है। 

यह बता देने से कि किस प्रकार का व्यवहार कर मित्र संपादन हो सकता है, मित्र प्राप्त करना संभव नहीं। उसका प्रयास भी करेंगे तो केवल कृत्रिमता ही हाथ आएगी, मित्रता नहीं। मुझे अपना ही एक प्रसंग स्मरण आता है। एक प्रचारक ने अपने क्षेत्र की एक शाखा के स्वयंसेवकों को बता रखा था कि शाखा पर नए स्वयंसेवकों को लाना चाहिए। जो भी नया स्वयंसेवक आए उससे सबने परिचय करना चाहिए। संयोगवश एक बार अकस्मात् उस नगर में मेरा जाना हुआ। शाखा का समय था, इसलिए स्टेशन से निकलकर सीधे शाखा चला गया। उस शाखा पर कोई मुझे पहचानता नहीं था। प्रार्थना आदि होने के बाद में शाखा के मुख्यशिक्षक कार्यवाह आदि से बातचीत करने के लिए ठहरा था। मुझे नया देख परिचय करने के उत्साह में सारे स्वयंसेवक मेरे आसपास एकत्र हो गए और पूछताछ करने लगे। उन्होंने नाम पूछा। मैंने बताया कि मेरा नाम माधव है। फिर पूछा- कहाँ रहते हो? बताया कि भटकता रहता हूँ। तब उन्होंने प्रश्न किया कि शाखा नहीं जाते क्या? बताया कि मेरा ऐसा ही चलता है। वे शाखा जाने के महत्त्व पर भाषण देने लगे। मैं नम्रतापूर्वक उनकी बात सुनता रहा। मैंने उन्हें यह भी बताया कि नियमपूर्वक शाखा न जाने के कारण वहाँ के अनियमित स्वयंसेवकों की सूची में मेरा पहला नाम है। यह सब सुनकर कार्यवाह मुझपर नाराज हो रहा था, कि इतने में वह प्रचारक, जिन्होंने उन्हें बताया था कि नए लोगों से परिचय करते जाओ, आ पहुँचे। कहने का मतलब यह है कि बताए हुए काम में एक प्रकार की कृत्रिमता आ जाती है, तब उसमें न विवेक रहता है, न सामंजस्य । केवल औपचारिकता रह जाती है।

- श्री गुरुजी समग्र : खंड 4 : पृष्ठ 200

आजकल बहुत लोग ऐसा महसूस करते हैं कि हमें हमारे राष्ट्रीय जीवन के पुनर्निर्माण के लिये इंगलैंड, अमेरिका या रूस का मॉडल स्वीकार कर लेना चाहिए। किसी भी प्रकार उन्हें ऐसा विश्वास हो चुका है कि हम हमारे जाँचे- परखे प्राचीन मूल्यों और प्रेरणास्पद ऐतिहासिक परंपराओं के आधार पर खड़े नहीं हो सकते। वे हमारी राष्ट्रीय पहचान को सर्वदूर त्याज्य मानते हैं। हम स्वयं को हिन्दू कहने पर शर्म महसूस करते हैं। हमारे देश में ऐसा प्रतीत होता है मानो यहां केवल मुस्लिम और गैर-मुस्लिम ही हैं। विदेशी आदर्शों और विचारों के प्रति आसक्ति के कारण ही हमारे अपने गौरवपूर्ण जीवन मूल्यों पर ग्रहण लग गया। यहां तक कि हमारे संविधान निर्माता भी इसी प्रभावकारी दृष्टिकोण के दबाव में दिखाई पड़ते हैं। ऐसी प्रवृत्ति और दिशा की कमी हिन्दू समाज को सार्थक रूप में स्वाभिमान से युक्त कर अपने महान और पवित्र सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं में आस्था की प्रवृत्ति से पुनर्गठित कर के ही दूर की जा सकती है।

हम अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं पर गर्व करते हैं। किन्तु, वास्तव में हम किस प्रकार रहते हैं? हमारे दैनिक संस्कार क्या हैं? क्या हमारे नित्य के सब क्रियाकलापों में ईश्वर का कोई स्थान है? क्या हमारे घरों में कम से कम एक स्थान ऐसा है, जहां बैठकर हम उसका ध्यान कर सकें?

एक बार मेरे एक परिचित ने अपने नये बने हुए मकान को देखने के लिए मुझे बुलाया। वह भले प्रकार सुसज्जित तथा प्रत्येक अर्थों में एक आधुनिक गृह था। जब उसके मकान की विशेषताएं बताना समाप्त किया तो मैंने पूछ लिया कि देवगृह कहां बना है? क्या तुम्हारे कोई कुल देवता नहीं हैं, जिसकी पूजा तुम्हारे पूर्वज करते रहे हों और तुम्हें सौंप गये हों? मेरे प्रश्न ने उसे चकित कर दिया और उसने क्षमा मांगते हुए कहा- "हां-हां, किन्तु मैं उस विषय में बिल्कुल भूल गया था।" कुछ महीने पश्चात् जब मैं पुनः उस स्थान पर गया तो उन्होंने विशेष रूप से यह कह कर मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि मेरे कथनानुसार काम कर लिया गया है। मैं वहां उसे देखने गया। जीने के नीचे एक टेढ़े-मेढ़े स्थान में बनी हुई छोटी सी आलमारी उन्होंने मुझे दिखाई। परिवार के सदस्यों के सभी चप्पल, जूते उस आलमारी के ऊपर बड़ी सफाई से सजे हुए थे और वे पर्याप्त संख्या में थे, कारण कि उनके जीवन का स्तर काफी ऊंचा था। उन्होंने बड़े सन्तोष के भाव से कहा—''मैंने इसे नया बनवाया है और अपने कुलदेवता को "यहां रखा है।" मैं तो उसे देखकर संत्रस्त हो गया। मैंने कहा "देवता को दूषित करने के स्थान पर इन चप्पलों को ही अन्दर रखकर क्यों नहीं पूजते।" ऐसा है,'आधुनिक प्रगतिशील' हिन्दू-जीवन।

 हमें यह विस्मरण नहीं होना चाहिए कि श्रीराम, शिवाजी अथवा विवेकानन्द इस प्रकार के 'आधुनिकतावाद' की उत्पत्ति नहीं थे। वे उन आदर्शों से स्फूर्त थे, जिनकी प्रतिष्ठा रामायण और महाभारत में हुई है। वह हिन्दू-जीवन के प्रति उनकी महान श्रद्धा ही थी, जिसने उनके संगठन-चातुर्य के साथ मिलकर उन्हें एक ऐसी शक्ति बना दिया जिसने इतिहास की सम्पूर्ण गति को ही बदल दिया। वैदिक काल के सन्तों से लेकर रामकृष्ण, विवेकानन्द, रामतीर्थ इसी प्रकार के अन्य आधुनिक युग के महान आत्माओं तक सभी ने अपने पुरातन आदर्शों के प्रति भावात्मक प्रेम तथा उनकी अनुभति द्वारा हमारे समाज पर अपने प्रेरणादायी व्यक्तित्व की छाप छोड़ी।

 -श्री माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर (श्री गुरु जी)

राजा जनक

 

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राजा जनक को नर्क द्वार का दर्शन

प्राचीन काल की बात है। राजा जनक ने ज्यों ही योग बल से शरीर का त्याग किया, त्यों ही एक सुन्दर सजा हुआ विमान आ गया और राजा दिव्य-देहधारी सेवको के साथ उस पर चढकर चले। विमान महाराज को संमनी पुरी के निकटवर्ती भाग से ले जा रहा था। ज्यों ही विमान वहाँ से आगे बढ़ने लगा, त्यों ही बड़े ऊँचे स्वंर से राजा को हजारों मुखों से निकली हुई करुणध्वनि सुनायी पड़ी...

पुण्यात्मा राजन्! आप यहां से जाइये नहीं, आपके शरीर को छूकर आने वाली वायु का स्पर्श पाकर हम यातनाओ से पीड़ित नरक के प्राणियों को बड़ा ही सुख मिल रहा है।

धार्मिक और दयालु राजा ने दुखी जीवों की करुण पुकार सुनकर दया के वश निश्चय किया कि, जब मेरे यहाँ रहने से इन्हें सुख मिलता है तो यम, मैं यहीं रहूंगा। मेरे लिये यही सुन्दर स्वर्ग है। 

राजा वहीं ठहर गये। तब यमराज ने उनसे कहा, यह स्थान तो इष्ट, हत्यारे पापियों के लिये है। 

हिंसक, दूसरो पर कलंक लगाने वाले, लुटेरे, पतिपरायणा पती का त्याग करनेवाले, मित्रों को धोखा देने वाले, दम्भी, द्वेष और उपहास करके मन-वाणी-शरीरों, कभी भगवान्का स्मरण न करने वाले जीव यहाँ आते हैं और उन्हें नरकों मे डालकर मैं भयंकर यातना दिया करता हूँ। 

तुम तो पुण्यात्मा हो, यहाँ से अपने प्राप्य दिव्य लोक में जाओं। 

जनक ने कहा, मेरे शरीर से स्पर्शं की हुई वायु इन्हें सुख पहुँचा रही है, तब मैं केसे जाऊं ? आप इन्हें इस दुख से मुक्त कर दें तो में भी सुखपूर्वक स्वर्ग में चला जाऊंगा।

यमराज ने [पापियों की ओर संकेत करके] कहा, ये कैसे मुक्त हो सकते है ? इन्होंने बड़े बड़े पाप किये हैं। इस पापी ने अपने पर बिश्वास करने वाली मित्र पत्नी पर बलात्कार किया था, इसलिये इसको मैंनेे लोहशंकु नामक नरक में डाल कर दस हजार वर्षों तक पकाया है। अब इसे पहले सूअर की और फिर मनुष्य की योनि प्राप्त होगी और वहाँ यह नपुंसक होगा। यह दूसरा बलपूर्वक व्यभिचारमें प्रवृत्त था। सौ वर्षों तक रौरव नरक में पीड़ा भोगेगा। इस तीसरे ने पराया धन चुराकर भोगा था, इसलिये दोनों हाथ काट कर इसे पूयशोणित नामक नरक में डाला जायगा। इस प्रकार ये सभी पापी नरक के अधिकारी हैं। तुम यदि इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करों। एक दिन प्रातः काल शुद्ध मन से तुमने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरघुनाथ जी का ध्यान किया था और अकस्मात् रामनाम का उच्चारण किया था, बस वही पुण्य इन्हें दे दो। उससे इनका उद्धार हो जायगा। राजा ने तुरंत अपने जीवन भर का पुण्य दे दिया और इसके प्रभाव से वे सारे प्राणी नरक यन्त्रणा से तत्काल छूट गये तथा दया के समुद्र महाराज जनक का गुण गाते हुए दिव्य लोक को चले गये। राजा ने धर्मराज से पूछा कि, हे धर्मराज.. जब धार्मिक पुरुषों का यहां आना ही नहीं होता, तब फिर मुझे यहां क्यों लाया गया है। इस पर धर्मराज ने कहा, राजन् तुम्हारा जीवन तो पुण्यो से भरा है, पर एक दिन तुमने छोटा सा पाप किया था।

एकदा तु चरन्ती गां वारयामास वै भवान्।

तेन पापविपाकेन निरयद्वारदर्शनम्।।

तुमने चरती हुई गौ माता को रोक दिया था। उसी पाप के कारण तुम्हें नरक का दरवाजा देखना पड़ा। 

अब तुम उस पाप से मुक्त हो गये और इस पुण्यदान से तुम्हारा पुण्य और भी बढ़ गया। तुम यदि इस मार्ग से न आते तो इन बेचारों का नरक से कैसे उद्धार होता ? तुम जैसे दूसरों के दुख से दुखी होने वाले दया धाम महात्मा दुखी प्राणियों का दुख हरने मे ही लगे रहते हैं। 

भगवान् कृपासागर हैं। पाप का फल भुगताने के बहाने इन दुखी जीवों का दुख दूर करने के लिये ही इस संयमनी के मार्ग से उन्होंने तुम को यहां भेज दिया है। तदनन्तर राजा धर्मराज को प्रणाम करके परम धाम को चले गये।

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गुरुवार, 27 जुलाई 2023

अध्यात्मिक विकास

 


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अध्यात्मिक विकास 

नेहामिक्रमनाशोऽस्ति - स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् (2.40)

भगवान कहते हैं योग बुद्धि के इस महान मार्ग में अधूरे प्रयास का कोई भय नहीं है। सामान्यतः हम कोई कार्य शुरू करते हैं और कुछ कारणों से उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। जब दोबारा उस कार्य को करना है तो कई बार पुनः शुरू से आरम्भ करना पड़ता है परन्तु इस मार्ग में पुनः शुरू करने के लिए आपको आरम्भ में नहीं जाना पड़ता, जहाँ छोड़ा था वहीं से आगे शुरू कर सकते हैं। इसे ही कहा जाता है ‘संचित विकास’ - वास्तव में चरित्र निर्माण की यही मूल प्रकृत्ति है।

आगे दूसरी पंक्ति में भगवान कहते हैं - इस धर्म का थोड़ा सा भी पालन, हमें महान भय से बचाएगा। इस चरित्र निर्माण के कार्य में समय लगता है। इसमें अधूरे प्रयास का बेकार जाना नहीं होता। गीता का यही उपदेश है कि, ‘थोड़ा भी कुछ नहीं से अच्छा है’ - यह ऐसा नहीं है कि, या तो सब कुछ हो, अन्यथा कुछ भी नहीं। इस विचार से निराश मत हो कि उस व्यक्ति ने इतना किया है, मुझमे उस जैसी शक्ति नहीं, अतः मैं कुछ नहीं करूँगा। यह उचित दृष्टिकोण नहीं। तुम अपने बल के आधार पर शुरू करो- एक एक कदम, इन्च दर इन्च, इस मनोशारीरिक ऊर्जा प्रणाली को काम में लेते हुए अपना महान चरित्र बनाओ। योग बुद्धि, विवेक की योग्यता-बुद्धि का धीरे-धीरे विकास। बुद्धि हमारी बुद्धिमता है, विवेक ईच्छा और इसमें सभी भावनायें सुन्दर समन्वय के साथ मिलती है। ”बुद्धि शरणमन्विच्छा“ बुद्धि में शरण लो। बुद्धि अनिवार्यताः तर्क है, लेकिन शुष्क मानसिक तर्क नहीं अपितु वह तर्क जो भावुकता से, भावनाओं से प्रबल हुआ है। समस्त प्रेरक तत्व भावुकता और भावनाओं से आते हैं न कि मस्तिष्क से और उसके बाद आती है प्रभाव की शक्ति के साथ इच्छा। इन तीनों के मिलन से ही मानव विकास का अद्भुत साधन मिल जाता है जिसे बुद्धि कहते हैं, यानि बुद्धि = तर्क + भावुकता व भावना + ईच्छा, इसे विकसित करने का थोड़ा सा भी प्रयास परिणाम लाता है। सामान्यतः मन हजारों दिशाओं में भटका होता है, मन की एकाग्रता के प्रयास में हमें एकीकृत मानसिक ऊर्जा के विकास का प्रयास करना पड़ता है। मन की ऊर्जाओं के एकीकरण का यह कार्य सतत् चलते रहना चाहिए - असावधानी के कारण यदि व्यवधान आया तो भी पुनः जागरूक होकर सतत् करते रहना - यही बात भगवान समस्त मानव जाति को समझा रहे हैं। मानवीय शिक्षा का यही उद्देश्य होना चाहिए, कुछ पाठ्य पुस्तकें पढ़कर परीक्षा देना मात्र नहीं - यह तो शिक्षा का केवल बाह्य रूप है। वास्तविक शिक्षा तो मन का विकास है। जो चाहिए वह है आध्यात्मिक विकास - यानि अपने आसपास के लोगों के प्रति शुद्ध सात्विक प्रेम और सेवा की भावना तथा उस क्षमता में बढ़ोत्तरी। नीति यह हो कि न्यूनतम कर्मकाण्ड और अधिकतम चारित्रिक विकास। केवल कर्मकाण्डों में उलझे रहना विकास नहीं है। बृहदरण्यक उपनिषद में एक क्रान्तिकारी वक्तव्य है - ‘वेदो अवेदो भवति’ - जब कोई सत्य की प्राप्ति कर लेता है तो वेद की आवश्यकता नहीं रहती, उसका मूल्य उसके लिए समाप्त हो जाता है। यह भारत की ही विशेषता है - वेदों के प्रति अत्यधिक सम्मान के बावजूद, यहाँ हमें बताया जाता है कि वेदों के भी परे जाना है।

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बुधवार, 26 जुलाई 2023

क्षमा एक कहानी

 


क्षमा एक कहानी

एक साधक ने अपने दामाद को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार बहुत अच्छा जम गया लेकिन उसने रूपये ससुर जी को नहीं लौटाये।आखिर दोनों में झगड़ा हो गया। झगड़ा इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। साधक हर समय हर संबंधी के सामने अपने दामाद की निंदा, निरादर व आलोचना करने लगे। उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें दामाद का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा कह सुनायी।

संतश्री ने कहाः- 'बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वरकृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर दामाद के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा कर दो।'

साधक ने कहाः "महाराज ! मैंने ही उनकी मदद की है और क्षमा भी मैं ही माँगू !"

संतश्री ने उत्तर दियाः- "परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।"

साधक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः- "महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?"

"बेटा ! तुमने मन ही मन अपने दामाद को बुरा समझा – यह है तुम्हारी भूल। तुमने उसकी निंदा, आलोचना व तिरस्कार किया – यह है तुम्हारी दूसरी भूल। क्रोध पूर्ण आँखों से उसके दोषों को देखा – यह है तुम्हारी तीसरी भूल। अपने कानों से उसकी निंदा सुनी – यह है तुम्हारी चौथी भूल। तुम्हारे हृदय में दामाद के प्रति क्रोध व घृणा है – यह है तुम्हारी आखिरी भूल। अपनी इन भूलों से तुमने अपने दामाद को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगों। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है।"

साधक की आँखें खुल गयीं। संतश्री को प्रणाम करके वे दामाद के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके दोहते ने खोला। सामने नानाजी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर-जोर से चिल्लाने लगाः "मम्मी ! पापा !! देखो कौन आये ! नानाजी आये हैं, नानाजी आये हैं....।"

माता-पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, 'कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !' बेटी हर्ष से पुलकित हो उठी, 'अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज पिताजी घर पर आये हैं ।' प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सकी। साधक ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर दामाद को कहाः- "बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो ।"

"क्षमा" शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा । दामाद उनके चरणों में गिर गये और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगे। ससुरजी के प्रेमाश्रु दामाद की पीठ पर और दामाद के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु ससुरजी के चरणों में गिरने लगे।पिता-पुत्री से और पुत्री अपने वृद्ध पिता से क्षमा माँगने लगी।क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप !सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। दामाद उठे और रूपये लाकर ससुरजी के सामने रख दिये। ससुरजी कहने लगेः "बेटा ! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ ।

मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है ।"

दामाद ने कहाः- "पिताजी ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।

साधक ने दामाद से रूपये लिये और अपनी इच्छानुसार बेटी व नातियों में बाँट दिये । सब कार में बैठे, घर पहुँचे। पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी व बालकों का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो।

सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। क्षमा माँगने के बाद उस साधक के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशारूपी मानसिक रोग जड़ से ही मिट गये और साधना सजीव हो उठी।

हमें भी अपने दिल में क्षमा रखनी चाहिए अपने सामने छोटा हो या बडा अपनी गलती हो या ना हो क्षमा मांग लेने से सब झगडे समाप्त हो जाते है ।

अमौलिक अज्ञात

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पुत्रदा एकादशी

 


पुत्रदा  एकादशी

पुत्रदा एकादशी सावन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है इस दिन भगवान विष्णु के नाम पर व्रत रखकर पूजा की जाती है इसके बाद  ब्राह्मण को भोजन करके दान देकर आशीर्वाद लेना  चाहिए |

पुत्रदा एकादशी की कथा - एक समय की बात है महिष्मति नगर में  महिजीत नाम का राजा राज करता था | वह बड़ा ही धर्मात्मा शांतिप्रिय और दानी था परंतु उसके कोई संतान नहीं थी यही सोच सोच कर राजा बहुत ही दुखी रहता था | एक बार राजा ने अपने राज्य के समस्त ऋषिओ  और महात्माओं को बुलाया और संतान प्राप्त करने के उपाय पूछे इस पर परम ज्ञानी लोमस ऋषि ने बताया कि आपने पिछले जन्म में स्वर्ण मास की एकादशी को अपने तालाब से प्यासी गाय को पानी नहीं पीने दिया था और उसे हटा दिया था | इसी श्राप के कारण आपके कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई है इसलिए आप सावन मास की पुत्रदा एकादशी का नियम पूर्वक व्रत रखकर रात्रि जागरण करिए | आपको पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ऋषि की आज्ञा अनुसार राजा ने एकादशी का व्रत किया और इसके प्रभाव से उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तथा इस लोक मे सुख भोग कर अंत मे वैकुंठ   मे गया |

 गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया। पण्डितराज की आँखे चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था-प्रेम किया है पण्डित संग कैसे छोड़ दूंगी?-एतिहासिक प्रेम कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें-

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शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

ज्ञान व चरित्र



ज्ञान व चरित्र


एक राजपुरोहित थे। वे अनेक विधाओं के ज्ञाता होने के कारण राज्य में अत्यधिक प्रतिष्ठित थे। बड़े-बड़े विद्वान उनके प्रति आदरभाव रखते थे पर उन्हें अपने ज्ञान का लेशमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका विश्वास था कि ज्ञान और चरित्र का योग ही लौकिक एवं परमार्थिक उन्नति का सच्चा पथ है। प्रजा की तो बात ही क्या स्वयं राजा भी उनका सम्मान करते थे और उनके आने पर उठकर आसन प्रदान करते थे।

एक बार राजपुरोहित के मन में जिज्ञासा हुई कि राजदरबार में उन्हें आदर और सम्मान उनके ज्ञान के कारण मिलता है अथवा चरित्र के कारण? इसी जिज्ञासा के समाधान हेतु उन्होंने एक योजना बनाई। योजना को क्रियान्वित करने के लिए राजपुरोहित राजा का खजाना देखने गए। खजाना देखकर लौटते समय उन्होंने खजाने में से पाँच बहुमूल्य मोती उठाए और उन्हें अपने पास रख लिया। खजांची देखता ही रह गया। राजपुरोहित के मन में धन का लोभ हो सकता है। खजांची ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। उसका वह दिन उसी उधेड़बुन में बीत गया।

दूसरे दिन राजदरबार से लौटते समय राजपुरोहित पुन: खजाने की ओर मुड़े तथा उन्होंने फिर पाँच मोती उठाकर अपने पास रख लिए। अब तो खजांची के मन में राजपुरोहित के प्रति पूर्व में जो श्रद्धा थी वह क्षीण होने लगी।

तीसरे दिन जब पुन: वही घटना घटी तो उसके धैर्य का बाँध टूट गया। उसका संदेह इस विश्वास में बदल गया कि राजपुरोहित की ‍नीयत निश्चित ही खराब हो गई है।

उसने राजा को इस घटना की विस्तृत जानकारी दी। राजा को इस सूचना से बड़ा आघात पहुँचा। उनके मन में राजपुरोहित के प्रति आदरभाव की जो प्रतिमा पहले से प्रतिष्ठित थी वह चूर-चूर होकर बिखर गई।

चौथे दिन जब राजपुरोहित सभा में आए तो राजा पहले की तरह न सिंहासन से उठे और न उन्होंने राजपुरोहित का अभिवादन किया, यहाँ तक कि राजा ने उनकी ओर देखा तक नहीं। राजपुरोहित तत्काल समझ गए कि अब योजना रंग ला रही है। उन्होंने जिस उद्देश्य से मोती उठाए थे, वह उद्देश्य अब पूरा होता नजर आने लगा था।

यही सोचकर राजपुरोहित चुपचाप अपने आसन पर बैठ गए। राजसभा की कार्यवाही पूरी होने के बाद जब अन्य दरबारियों की भाँति राजपुरोहित भी उठकर अपने घर जाने लगे तो राजा ने उन्हें कुछ देर रुकने का आदेश दिया। सभी सभासदों के चले जाने के बाद राजा ने उनसे पूछा - 'सुना है आपने खजाने में कुछ गड़बड़ी की है।'

इस प्रश्न पर जब राजपुरोहित चुप रहे तो राजा का आक्रोश और बढ़ा। इस बार वे कुछ ऊँची आवाज में बोले -'क्या आपने खजाने से कुछ मोती उठाए हैं?' राजपुरोहित ने मोती उठाने की बात को स्वीकार किया।

राजा का अगला प्रश्न था - 'आपने कितेने मोती उठाए और कितनी बार?' राजा ने पुन: पूछा - 'वे मोती कहाँ हैं?'

राजपुरोहित ने एक पुड़िया जेब से निकाली और राजा के सामने रख दी जिसमें कुल पंद्रह मोती थे। राजा के मन में आक्रोश, दुख और आश्चर्य के भाव एक साथ उभर आए।

राजा बोले - 'राजपुरोहित जी आपने ऐसा गलत काम क्यों किया? क्या आपको अपने पद की गरिमा का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहा। ऐसा करते समय क्या आपको लज्जा नहीं आई? आपने ऐसा करके अपने जीवनभर की प्रतिष्ठा खो दी। आप कुछ तो बोलिए, आपने ऐसा क्यों किया?

राजा की अकुलाहट और उत्सुकता देखकर राजपुरोहित ने राजा को पूरी बात विस्तार से बताई तथा प्रसन्नता प्रकट करते हुए राजा से कहा - 'राजन् केवल इस बात की परीक्षा लेने हेतु कि ज्ञान और चरित्र में कौन बड़ा है, मैंने आपके खजाने से मोती उठाए थे अब मैं निर्विकल्प हो गया हूँ। यही नहीं आज चरित्र के प्रति मेरी आस्था पहले की अपेक्षा और अधिक बढ़ गई है।

आपसे और आपकी प्रजा से अभी तक मुझे जो प्यार और सम्मान मिला है। वह सब ज्ञान के कारण नहीं ‍अपितु चरित्र के ही कारण था। आपके खजाने में सबसे अधिक बहुमू्ल्य वस्तु सोना-चाँदी या हीरा-मोती नहीं बल्कि चरित्र है।

अत: मैं चाहता हूँ कि आप अपने राज्य में चरित्र संपन्न लोगों को अधिकाधिक प्रोत्साहन दें ताकि चरित्र का मूल्य उत्तरोत्तर बढ़ता रहे। कहा जाता है - धन गया,कुछ नहीं गया,स्वास्थ्‍य गया,कुछ गया।चरित्र गया तो सब कुछ गया।

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संघ तपस्वी

 




संघ तपस्वी 

संघ विस्तार में ध्येय जीवन समर्पित भावना। दिव्य लक्ष्य तक पहुंचने की अनुपम कामना ।। 1950 में अजमेर संघ शिक्षा वर्ग के बाद प्रांत प्रचारक ने सभी प्रचारकों से कहा कि अब प्रचारक व्यवस्था समाप्त की जा रही है, अतः सब घर वापस लौट जाएँ ! इस सूचना के बाद कुछ प्रचारक गुरूजी से मिले और पूछा कि गुरूजी आप शादी कब कर रहे हैं ? इस प्रश्न से गुरूजी असमंजस में पड गए और बोले कि मैं शादी क्यूं करूँगा भला ? इस पर प्रचारकों ने कहा कि जब आप गृहस्थ नहीं बन सकते तो फिर हमसे यह अपेक्षा क्यों ? सारी स्थिति समझकर गुरूजी ने उन्हें समझाया कि संघ की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह प्रचारकों के प्रवास व्यय को भी वहन कर सके ! इसके बाद निर्णय हुआ कि जो लोग स्वयं व्यवस्था कर संघ कार्य कर सकते हैं, वे रहें , शेष वापस घर जाएँ ! तभी बाबा साहब नातू और राजाभाऊ महाकाल ने सोनकच्छ में चाय की दूकान चलाई और दिगंबर राव तिजारेजी ने उज्जैन के विनोद मिल में स्वीपर की नौकरी की ! वहीं उनका पहला परिचय हुआ - दत्तात्रय गंगाधर कस्तूरे उपाख्य भैयाजी कस्तूरे से ! माता पिता बचपन में ही चल बसे ! इन्हें व बड़े भाई दिगंबर कस्तूरे को चाचा साथ तो ले आये पर निभा नही पाए ! विवश दोनों भाई अनाथ स्थिति में हो गए ! तिजारे जी स्वयं केवल दूसरी कक्षा तक ही पढ़े थे ! किन्तु उन्होंने इन दोनों से कहा कि मैं तो नही पढ़ पाया किन्तु तुम लोग पढ़ो और सुयोग्य बनकर देश की सेवा करो ! तुम्हारा व्ययभार मैं उठाऊंगा ! पढाई पूरीकर दोनों भाई संघ प्रचारक बने ! बड़े दिगंबर तो कुछ समय बाद महामंडलेश्वर अखंडानंद सरस्वती के रूप में परिवर्तित हुए, किन्तु भैयाजी आजीवन प्रचारक रहे ! ऐसे लाखों स्वयंसेवकों के जीवन ही संघ शक्ति के केंद्र है ।

महापराक्रमी बाजीराव पेशवा

   





महापराक्रमी बाजीराव पेशवा 


पेशवा बाजीराव को पढ़ रहा हूँ। आश्चर्य हो रहा है कि इतने बड़े योद्धा के बारे में हम कितना कम जानते हैं। अतिशयोक्ति लगेगी, पर पिछले दो हजार वर्षों में भगवा भारत का सबसे बड़ा नक्शा उसी योद्धा ने बनाया था। ईसा के बाद हिन्दुओं का सबसे बड़ा साम्राज्य उसी के समय खड़ा हुआ।

भारत के सफलतम योद्धाओं में से एक, जिनके लिए इतिहास के पन्नो में कम स्थान होने के बावजूद यह पीड़ा अवश्य झलक जाती है कि "वे बीस वर्ष और जी गए होते तो भारत का इतिहास कुछ और होता.."

     एक योद्धा, जो अपनी तलवार से स्वाभिमान का इतिहास लिखता था। एक लड़ाका, जो अपनी पीठ पर धर्म का ध्वज बांध कर चलता था। एक कूटनीतिज्ञ, जिसने अपनी समस्त आयु शिवाजी महाराज के स्वप्नों को साकार करने में झोंक दी।

      उसका अश्व अपनी टापों से शत्रुओं के अहंकार को रौंदते हुए दौड़ता था। उसकी तलवार सर्पिणी की जिह्वा सी लपलपाती हुई मृत्यु का उत्सव मनाती थी। हर हर महादेव के पवित्र उद्घोष के साथ वह जब भी युद्धभूमि की ओर निकला तो विजयी हो कर लौटा। जैसे युद्ध की देवी को प्रसन्न कर लिया था उसने...

    पेशवा बाजीराव अपने जीवन में कुल 43 युद्ध लड़ते हैं और उनमें 43 जीतते हैं। शत प्रतिशत जीत! दस से अधिक युद्ध लड़ने वाले योद्धाओं में ऐसा रिकॉर्ड किसी और का नहीं। बाबर का नहीं, औरंगजेब का नहीं, बल्कि अकबर का भी नहीं। रुकिये! नेपोलियन का भी नहीं, सिकन्दर का भी नहीं...

     सिकन्दर तो भारत में ही दो बार हारे, अकबर कभी मेवाड़ से जीत नहीं सके, औरंगजेब की सेना को बीसों बार अहोम हराये। नेपोलियन तो पराजित हो कर कैद में मरे... पर बाजीराव अपने एक भी अभियान में असफल नहीं हुए। बाजीराव कभी पराजित नहीं हुए। वे इकलौते योद्धा थे जिनके लिए कहा जा सकता है- जो जीता वह बाजीराव!

      उस युग में भारत की कोई ऐसी शक्ति नहीं थी जो बाजीराव बल्लाळ भट्ट से पराजित न हुई हो। मुगल, निजाम, पुर्तगाली... अपने युग के उस सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार ने समूची भूमि अपने पैरों तले रौंद दी थी।

      शिवाजी महाराज के पोते क्षत्रपति साहू जी महाराज लगभग 15 वर्षों तक मुगलों के यहाँ बंधक रहे थे। उन्ही शाहूजी महाराज के ध्वज तले बाजीराव ने केवल पाँच सौ घुड़सवारों के बल पर मुगल सम्राट को तीन दिन तक लालकिले में लगभग बंधक बनाये रखा। और यह भी हुआ तब, जब मुगल भारत की सबसे बड़ी शक्ति थे।

      सन 1299 में महाराज कर्णदेव बघेल की अलाउद्दीन खिलजी से पराजय के साथ ही गुजरात विदेशियों के कब्जे में गया, उसे साढ़े चार सौ वर्ष बाद बाजीराव ने छुड़ाया। मालवा 1305 से विदेशियों का गुलाम था, उसे भी बाजीराव ने मुक्ति दिलाई।

     वे भारत में हिन्दू पद पादशाही का लक्ष्य लेकर निकले और जीवन पर्यंत उसके लिए लड़ते रहे। बीर शिवाजी के सपनों का देश बनाने की शुरुआत की बाजीराव के पिता बालाजी विश्वनाथ ने, उसे पूरा किया बाजीराव ने, और उसे सजाया, सँवारा और आगे बढ़ाया उनके पुत्र बालाजी बाजीराव ने.... अटक से कटक तक हिन्दू साम्राज्य! भगवा ध्वज! हर हर महादेव का जयघोष...

     बाजीराव की चर्चा उनके छत्रसाल कुमारी मस्तानी से प्रेम के कारण भी होती है। अफसोस कि उनके जीवन का सबसे सुन्दर अध्याय ही सबसे भयावह अध्याय भी है। प्रेम सदैव शुभ नहीं होता न...

     वे युद्ध के लिए बने थे। तपते मध्यप्रदेश की भीषण लू उस महान योद्धा को अल्पायु में ही खा गई। इंदौर के निकट रावड़खेड़ी नाम अनजान स्थान पर इस महायोद्धा की समाधि है, जहाँ कोई नहीं जाता......

भारतीय शौर्य की महान परम्परा के एक यशश्वी नायक, अटक से कटक तक भगवा लहराने वाले, महान सनातन सिंह, हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक, चिर विजयी, पेशवा वीर बाजीराव बल्लाळ भट्ट की पुण्यतिथि पर उन्हें नमन! इस देश के हर आंगन में बाजीराव जन्में... धर्म की जय हो!



नव निर्माण

 

आईये आपको एक दिलचस्प वाकया सुनाया जाये. हाँ तो कुछ यूं हुआ...... एक बार कॉलेज में Biology (जीव विज्ञान) क्लास चल रही थी. उसमें प्रोफेसर साहब सभी को तितली अर्थात Butterfly के जीवन चक्र के बारे में बता रहे थे. तदुपरांत... प्रोफेसर साहब अपने सभी विद्यार्थी को लैब ले गए जहाँ एक तितली का अंडा (प्यूपा) अपने अंतिम चरण में था और उसमें से एक नई तितली का जन्म होने ही वाला था. सभी विद्यार्थी सांस रोके खड़े थे और उस अनमोल क्षण को देखने को बेताब थे... जब तितली का बच्चा उस अंडे से बाहर आएगा. तभी... उस अंडे में थोड़ी सी हलचल हुई और अंडे में एक हल्की दरार आ गई. उसे देखकर... सभी विद्यार्थियों ने खुशी से किलकारी भरी और सबने उस अंडे पर नजरें गड़ा दी. तभी... अंडा थोड़ा सा टूटा और तितली का बच्चा छटपटाते हुए उससे बाहर आने का प्रयास करने लगा. लेकिन, चूंकि वो जन्म का समय था और तितली का वो बच्चा बेहद कमजोर था... शायद, इसीलिए वो अंडे के उस खोल एक झटके में नहीं तोड़ पा रहा था. इसीलिए, वो लगातार छटपटाए जा रहा था.. जिससे कि अंडे के खोल में काफी हल्की दरार ही आ पा रही थी. इसे देखकर... कुछ विद्यार्थी इमोशनल हो गए और उन्होंने प्रोफेसर से कहा कि... कृपया इस अंडे के खोल को तोड़ दें जिससे कि वो तितली का बच्चा आसानी से बाहर सके.. अभी वो बेचारा खोल नहीं तोड़ पाने के कारण बहुत छटपटा रहा है. लेकिन, प्रोफेसर साहब ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया और चुपचाप खड़े होकर देखने के लिए कहा.. और, सभी स्टूडेंट फिर से चुपचाप देखने लगे. तभी संयोग से प्रोफेसर साहब को प्रिंसिपल का अर्जेन्ट बुलावा आया गया और प्रोफेसर साहब सबको चुपचाप देखने और कोई छेड़छाड़ न करने की ताकीद कर के चले गए. इधर... तितली के नवजात बच्चे का छटपटाना उसी प्रकार जारी था.. ध्यान से देखने पर मालूम चल रहा था कि... तितली के उस नवजात बच्चे में कुछ लिक्विड जैसा कुछ लगा हुआ था... जिस कारण उसके पंख वगैरह आपस में चिपके हुए थे और वो अंडे के खोल को एक झटके में नहीं तोड़ पा रहा था.. बल्कि, कई बार के छटपटाहट के बाद वो खोल के दरार को थोड़ा बढ़ा ही पा रहा था. ये सब देखकर... एक विद्यार्थी से नहीं रहा गया और उसने आगे बढ़कर पेंसिल के नोक से अंडे को तोड़ दिया. अंडे के टूटते ही तितली का वो नवजात बच्चा बाहर आ गया.. लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से बाहर आने के बाद वो तितली का नवजात बच्चा... कुछ देर छटपटाता रहा और फिर मर गया. इतनी देर में प्रोफेसर साहब भी लौट कर लैब में आ गए. जब उन्होंने तितली के उस बच्चे को मरा हुआ पाया तो उन्होंने विद्यार्थियों से पूछा कि... क्या किसी ने कोई छेड़छाड़ की थी यहाँ ??? तो, उस विद्यार्थी ने उदास भाव से बताया कि... उससे तितली के बच्चे का उस तरह छटपटाना नहीं देखा गया इसीलिए उसने पेंसिल के नोक से अंडे को तोड़ दिया था ताकि बच्चा आसानी से बाहर आ सके. इस पर प्रोफेसर ने उसे बताया कि... तितली का ये नवजात बच्चा इसीलिए मर गया क्योंकि, तितली के उस बच्चे के स्थान पर तुमने उस अंडे को तोड़ दिया. क्योंकि, असल में... होता ये है कि... जन्म के समय तितली के बच्चे में एक लिक्विड (प्लेजेंटा/पानी जैसा एक लसलसा पदार्थ) लगा रहता जो उस बच्चे के छटपटाने से हटता जाता है... और, इससे.. उसके पंख एवं आंख-नाक आदि खुलते जाते हैं. इसीलिए, जब वो खुद छटपटा कर अपना खोल तोड़ता है तो बाहर आने तक उसके हर अंग फ्री हो चुके होते हैं.. और, वो उड़ पाता है... तथा, सांस ले पाता है. लेकिन, चूंकि तुमने... अपने पेंसिल के नोक से खोल को तोड़ दिया इसीलिए उसे बाहर आने के लिए छटपटाना नहीं पड़ा... और, इस कारण उसके अंग फ्री नहीं पाए... जिससे न तो वो सांस ले पाया और न ही उड़ पाया.. इस तरह अंततः.... वो मर गया. असल में यही वो सत्य है जिसे लोग समझना नहीं चाह रहे हैं. आज देश का हिन्दू समुदाय भी अपने खोल से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है... और, प्रोफेसर की भूमिका में मोदी उसे छटपटाता हुआ देख रहे हैं. हिन्दू रूपी तितली छटपटाते हुए... बहुत आशा भरी नजरों से मोदी को देख रहा है कि वो आगे बढ़कर उसके खोल को तोड़ दे.. ताकि, वो आसानी से बाहर आ सके. लेकिन, प्रोफेसर मोदी को ये अच्छी तरह मालूम है कि... अगर उसने आगे बढ़कर इस खोल को तोड़ दिया तो फिर हिन्दू रूपी तितली के पंख, आंख, नाक, मुँह आदि फ्री नहीं हो पाएंगे जिस कारण वो आगे सर्वाइव नहीं कर पाएगा. क्योंकि... आगे सर्वाइव करने के लिए उसके आंख, नाक, मुँह, पंख आदि खुले होने अति आवश्यक हैं. इसीलिए... हिन्दू समुदाय खोल से बाहर आने के लिए जितना ज्यादा छटपटायेगा तो उसके ऊपर से जातिवाद और सेक्युलरिज्म का लसलसा लिक्विड हटता जाएगा. और, जब ये लिक्विड उस पर से पूरी तरह हट जाएगा तबतक उसके आंख, नाक, मुँह, पंख एवं हाथों में इतनी ताकत आ चुकी होगी कि वो स्वयं ही उस खोल को तोड़कर बाहर आ जाएगा एवं खुले आसमान में विचरण करने लायक हो जाएगा. इसीलिए मोदी जी चुपचाप हिन्दू रूपी तितली के बच्चे को छटपटाते हुए एवं अपने ऊपर लिपटे उस लिक्विड को हटाते हुए देख रहा है. क्योंकि... बिना उस प्लीजेंटा के हटे ही खोल को तोड़ कर तितली को बाहर निकाल देना... एक आत्मघाती कदम होगा. क्योंकि, उस प्लीजेंटल लिक्विड में लिपटे हुए... बाहरी हवा में हिन्दू समुदाय का सर्वाइवल बेहद मुश्किल है. हाँ... इस परिस्थिति में मोदी सिर्फ ये कर रहा है कि वो तितली के उस बच्चे को धारा 370, अयोध्या में राममंदिर, काशी कॉरिडोर आदि के जरिए बीच बीच में उसे हिम्मत दे रहा है ताकि हिन्दू समुदाय निराश होकर अपनी छटपटाहट न छोड़ दे.. साथ ही साथ... वो तितली के इस जन्म लेने वाले बच्चे के लिए एक अच्छा, मजबूत एवं स्वर्णिम देश का निर्माण कर रहा है. ताकि, जब तितली का वो बच्चा खोल तोड़ कर बाहर निकले तो उसे विरासत में एक गरीब और असहाय नहीं बल्कि विश्वगुरु एवं आत्मनिर्भर देश मिले.

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

जीवन मूल्य

  


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टूटते रिश्ते 

सुबह के साढ़े सात बजे जब निधि स्कूल के लिए ‌तैयार हुई तो‌ चुपके से ऊपर मम्मी के बेडरूम में ‌ग‌ई धीरे से डोर सरकाया देखा तो सारा सामान बिखरा पड़ा था। नीचे ड्राइंग रूम में आई तो पापा सोफे पर बेसुध सो रहे थे। अपने रुम में आकर उसने अपनी गुल्लक में से पचास रुपए निकाल कर पॉकेट में रख लिए। बैग उठा कर बस के लिए निकलने लगी तो सरोज आई निधि बेटा आलू का परांठा बनाया है खा लो। निधि ने मायूस नजरों से सरोज आंटी को देखा नहीं आंटी भूख नहीं है। सरोज ने जबरदस्ती टिफिन उसके बैग में डाला। निधि स्कूल के ‌लिए निकल गई सरोज ‌सोचने लगी बेचारी छोटी बच्ची साहब और मेमसाब के रोज के लडा़ई झगडे से इस तेरह साल की उम्र में ‌कितनी बड़ी हो गई है। सरोज पिछले दस सालों से नेहा व नरेश के यहां काम कर रही है। दोनों ‌मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ‌पदों पर कार्यरत हैं निधि उनकी इकलौती बेटी है किसी चीज की कोई कमी नहीं है। पर हर समय दोनों एक दूसरे से लड़ते रहते हैं।

नरेश पिछले कुछ समय से नेहा से तलाक चाह रहा है और चाहता है निधि की जिम्मेदारी नेहा उठाए और नेहा निधि की जिम्मेदारी ‌नरेश को देने के साथ जायदाद में हिस्सा चाहती है। इस कारण दोनों ‌लड़ते रहते हैं। बच्चे की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता इसलिए दोनों एक दूसरे के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल ‌करते हैं बेचारी निधि ‌स्कूल से घर आकर अपने कमरे में ‌दुबक जाती है केवल सरोज आंटी ‌से ही‌‌ बात करती है।रोज‌ की तरह नेहा और नरेश ने नाश्ता ‌अपने अपने कमरे में किया और ऑफिस के लिए निकल गये करीब बारह बजे स्कूल से कॉल आया कि जल्दी हास्पिटल पहुंचो निधि को चोट‌ आई है। हॉस्पिटल पहुंच कर पता चला कि निधि बहुत ऊपर से सीढ़ियों से गिर गई है। आईसीयू में रखा गया था। आपरेशन की तैयारी हो रही थी सिर में बहुत गहरी चोट आई थी।ऑपरेशन शुरू हुआ पर जिंदगी ‌मौत से हार गई। नेहा और नरेश स्तब्ध रह गए उन्हें ऐसा झटका लगा था कि अपनी सुध-बुध ही खो बैठे थे। निधि की दादी ‌भी आ गई थी बेटा बहू को देखकर नफरत से मुंह फेर लिया। पूछताछ हुई टीचर स्टुडेंट्स सभी के बयान लिए गए यही पता चला कि बैलेंस बिगड़ने से नीचे गिर गई। तेरहवां ‌निबटने‌ के बाद नरेश ने अपनी मां को रोकना चाहा पर उन्होंने आंखों में आंसू भर कर कहा तुम दोनों खूनी हो तुम्हारी जिद मेरी पोती को खा ग‌ई। मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहती थी पर तुम दोनों ने उसे अपने अहम का मोहरा बना कर उसकी जान ले ली। मां चली गई। सरोज तब से सदमे में थी फिर उसने जैसे तैसे होश संभाला नरेश और नेहा से कहा मेमसाब मैं अब यहां नहीं रह ‌पाऊंगी इस घर की दीवारें मेरी निधि की सिसकियों से भरी हैं उसे मैंने कभी अपनी गोद में तो कभी छिप कर रोते हुए देखा है।मेरा मन किया कि उसे लेकर भाग जाऊं पर मैं डरपोक थी ऐसा नहीं कर सकी अगर चली जाती तो शायद आज वो जिंदा होती।

नरेश और नेहा के पास अब शायद कहने को कुछ नहीं था। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे उनका लडा़ई झगड़ा एक अजीब सी बर्फ में में तब्दील हो चुका था।उनकी सारी भावनाएं अंदर ‌ही अंदर एक खामोशी अख्तियार कर चुकी थी। संडे का दिन था बड़ी मुश्किल से नेहा ने निधि के रूम में जाने की हिम्मत जुटाई थी महीनों दोनों उसके कमरे में कदम नहीं रखते थे कैसे मां बाप थे वो दोनों। उसका रूम उसका बेड तकिया उसकी किताबें उसकी पेंसिल पैन स्कूल बैग सब वैसे ही रखा था। अलमारी खोली तो उसके कपड़े नीचे गिर पड़े उसका हल्का ब्लू नाइट सूट जिसे वह अक्सर पहना करती थी। नेहा रोते हुए उसमें से सामान निकालने लगी। तभी उसके‌ हाथ एक ब्लू कलर की डायरी लगी। उसने कांपते हाथों से उसे खोला आगे के कुछ पेज फटे हुए थे। पेज दर पेज टूटे‌ दिल की दास्तां छोटे छोटे टुकड़ों में दर्ज थी–

मम्मी पापा मैं आपको डियर नहीं ‌लिखूंगी । क्योंकि डियर का मीनिंग प्यारा होता है। पापा आप मम्मी को कहते हो कि तुम्हारी बेटी। और मम्मी आप पापा को कहते हो तुम्हारी बेटी आप दोनों ये क्यों नहीं कहते कि ‌हमारी‌ बेटी। अगले पेज पर था पता है जब मैं मामा जी के घर ‌जाती हूं मामा मामी ‌मुझे बहुत प्यार‌ करते हैं मामी अनु को जब प्यार से मेरा बच्चा कहती हैं तो मुझे लगता है कि मैं प्यारी बच्ची नहीं हूं मम्मा मैं तो ‌आपका सारा कहना मानती हूं फिर भी आपने मुझे कभी मेरा बच्चा नहीं कहा।

एक पेज पर लिखा था‌ मम्मी मैं जब बुआ के घर जाती हूं तो वो भी मुझे बहुत प्यार करती हैं। पर खाना हमेशा नक्ष की पंसद‌ का बनाती हैं। मम्मा मुझे राजमा बहुत पसंद है मैंने आपको बनाने को कहा था पर आपने कहा मुझे परेशान मत करो। जो खाना है सरोज आंटी को बोला करो वो बना देंगी।मम्मा मैंने राजमा खाना छोड़ दिया है अब अच्छा नहीं लगता। पापा मुझे आपके चिल्लाने से बहुत डर लगता है। पापा मैं आपके साथ आइसक्रीम खाने जाना चाहती हूं। आप कहते हैं कि आपके पास फालतू चीजों के लिए ‌टाइम नहीं है। पापा जब चीनू मासी और मौसा जी मुझे और विपुल को आइसक्रीम खिलाने ले जाते हैं तो वो कभी ऐसा नहीं कहते। पता है मम्मी मैं अपने घर से दूर जाना चाहती हूं जहां मुझे ये न सुनाई दे कि निधि को ‌मैं नहीं रखूंगी। जहां पापा के चिल्लाने की आवाज न सुनाई दे। पापा अगर मैं बड़ी होती तो मैं आप दोनों को कभी परेशान नहीं करती मैं खुद ही चली जाती। मैं आप दोनों से बहुत प्यार करती हूं। आप दोनों ‌मुझे प्यार क्यों नहीं करते। एक पेज पर था–आइलव यू सरोज आंटी मुझे प्यार करने के लिए। जब मुझे डर लगता है अपने पास सुलाने के लिए।मेरी हर बात सुनने के लिए।

अंतिम पेज पर था दादी आई लव यू आप मुझे यहां से ‌ले ‌जाओ आई प्रॉमिस कभी तंग नहीं करूंगी।नेहा डायरी को सीने से लगा कर जोर जोर से रो पड़ी। नरेश भी उसके रोने की आवाज सुनकर आ गया था नेहा ने डायरी उसे पकड़ा दी। 

पेज दर पेज पलटते हुए उसके चेहरे के भाव बदलते जा रहे थे। वह ‌खुद को संभाल नहीं पाया ‌जमीन पर बैठ गया। 

नेहा रोते हुए बोली नरेश पता है वो एक्सीडेंट नहीं आत्महत्या थी। सुसाइड था। जिस रिश्ते को हम बोझ समझते थे हमारी निधि ने उससे ‌हमें आजाद कर‌ दिया। नरेश हम दोनों ने अपनी बच्ची ‌का खून किया है। नरेश फूट-फूट कर रो पड़ा।

ये कहानी हर उस घर की है जहां मां-बाप बच्चों के ‌सामने लड़ते हैं या घर टूट कर बिखरते हैं और उन टूटते रिश्तों का सबसे बड़ा खामियाजा बच्चे भरते हैं। 

अच्छी परवरिश का‌ मतलब रूपए पैसे सुख सुविधाओं का होना नहीं है। इसका मतलब है कि आप बच्चे को जब जरूरत है उसके कितने करीब हैं।

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आस्था,चमत्कार या अन्धविश्वास

  



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आस्था या अंधविश्वास 

आस्था का संबंध केवल आत्मा-परमात्मा से नहीं, संपूर्ण अस्तित्व से है। आस्था जीवन की संचालन शक्ति है। संशय उत्पन्न होते ही वह शक्ति गड़बड़ा जाती है। अगर जीवन-व्यवस्था को ढंग से चलाना है तो हमें विश्वास और आस्था का सहारा लेना ही है--"आस्था किसी विचार, मूल्य, व्यक्ति अथवा कथन में वह दृढ़ विश्वास है जिसे वह पर्याप्त एवं विश्वसनीय प्रमाणों के न होते हुए भी पूर्णतः स्वीकार करता है जिसमें कुछ अनिश्चयात्मकता अनिवार्यतः विद्यमान रहती है।"श्रद्धा पवित्र आचरण से निर्माण होती है यदि किसी व्यक्ति में सत्य निष्ठा पवित्रता एवं निस्वार्थ बुद्धि हो तो अनेक लोग उसके निकट आते हैं उसके शब्दों का मान होता है वह हृदय हृदय का स्वामी बनता है श्रद्धा की एक लहर निर्माण होती है और यही आस्था में बदल जाती है | आस्था और बुद्धि परस्पर विरोधी है इनका आपस में कोई संबंध नहीं है ऐसा सोचना गलत है अगर ऐसा होता तो भगवान वेदव्यास जगतगुरु शंकराचार्य संत ज्ञानेश्वर स्वामी विवेकानंद जैसे बुद्धिमान लोग आस्थावान नहीं कहलाते | लोग कहते हैं तर्क से आस्था कमजोर होती है मैं कहता हूं तर्क से आस्था बढ़ती है और धीरे-धीरे जीवन में ज्ञान की लहर उत्पन्न होने लगती है और अगर एक बार आस्था बढ़ने लगी तो सम्पूर्ण समाज में फैलती है | समान आस्था युक्त व्यक्ति समूह को ही समाज अथवा राष्ट्र का अभिधान प्राप्त होता है | राष्ट्र के अंग अंग में समान आस्था प्रस्थापित होने से अनुशासनपूर्ण विराट शक्ति का आभिभार्व होकर राष्ट्र को सुख समृद्धि और ऐश्वर्य प्राप्त होता है | गीता में भगवान कृष्ण अनेकों बार कहा है तुम अज्ञानी हो या ज्ञानी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता अगर तुम आस्थावान हो तो तुम मेरे पास जल्दी आ जाओगे आस्था से विश्वास उत्पन्न होता है और विश्वास से समाज का निर्माण होता है | समाज में आस्था का बीजारोपण करना पडता है और श्रद्धा और विश्वास की जड़े जमानी पड़ेगी साथ ही शुद्ध आस्था चाहिए, ईश्वर पर आस्था चाहिए, संपूर्ण जगत का निर्माण ईश्वर ने किया है यह सब मानव उसी के द्वारा निर्मित हैं ऐसी आस्था चाहिए, मैं ईश्वर का पुत्र हूं और प्राणी मात्र मेरे बांधव है सबके जीवन का कोई ना कोई हेतु है ऐसा मेरा विश्वास है |

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आस्था से आत्मविश्वास बनता है | जिनमे आत्मविश्वास की मात्रा अधिक होती है वही कुछ बड़ा काम कर सकते हैं या अपने उद्देश्य में अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं | ऐसा व्यक्ति सन्यासी होकर जब दूसरे व्यक्तियों के संपर्क में आता है तो उन लोगों के अंदर भी दृढ़ निश्चय भाव पैदा करता है और उस दृढ़ निश्चय से उस व्यक्ति के जो काम है पूरे होते हैं रोग दूर होते है उसका निश्चय मजबूत होता है उसका मन मजबूत होता है उसका आत्मविश्वास बढ़ता है और उस पर विश्वास करने से वह व्यक्ति समझता है कि सामने वाले व्यक्ति ने मेरे साथ चमत्कार कर दिया है |

यह बात उस समय की है जब मै बहुत छोटी थी।हमारे यहाँ ट्रको से सामान को एक जगह से दूसरी जगह भेजने का काम होता था इसलिए पिता जी जब भी कोई नई गाड़ी (ट्रक) खरीदते थे तब हम उसी गाड़ी से पूणागिरि मंदिर टनकपुर (उत्तराखंड) जाते थे।हमारा पूरा परिवार दर्शन के लिए जाता था, ट्रक में पीछे बैठने के लिए पर्याप्त जगह होती है इसलिए बैठने उठने की कोई दिक्कत नहीं होती थी। यात्रा के दौरान खान पान से जुड़ी सभी सामग्री हम गाड़ी में ही रखते थे और और मुझे याद है कि ट्रक को रास्ते में ही रोककर मेरे पिता जी और चाचा जी हम सभी के लिए खाना बनाते थे।मेरी माता जी और घर की सभी महिलाएं मिलकर कुछ पुराने मीठे गीत गाया करती थी। पूणागिरि मंदिर पहाड़ो पर स्थित है।आखिर हम मंदिर के स्थान तक पहुंच गए लेकिन न तो यात्रा अभी पूरी हुई और न ही हमें देवी माँ के दर्शन हुए। देवी माँ के दर्शन के लिए अभी हमें 7-8 किलोमीटर की चढाई करनी थी। एक -एक करके सभी आस्था और विश्वास के साथ चढाई करने लगे और आखिर हम माँ के दरबार पहुंच गए। दर्शन के बाद हम सभी चढाई उतरने लगे।अब कोई आगे कोई पीछे चलते चले जाते, रात के करीब 1 बजे मैं, मेरी बुआ और मेरे दो छोटे भाई बहन हम सब साथ में थे, काफी अंधेरा होने की वजह से हमें कोई और दिख नहीं रहा था और यह भी नहीं पता चल रहा था कि हम आगे है या फिर पीछे। लेकिन चढाई से उतरने का रास्ता एक ही था तो हम चलते रहे। मुश्किल तब आई जब दोराहे आए, किसी ने कहा दाएं तो किसी ने कहा बाएं जाना सही रहेगा । हमने एक रास्ता चुना और चलने लगे। रास्ते में दूर दूर तक कोई नहीं दिख रहा था, मन ही मन हम डर रहे थे कि न जाने इस पहाड़ी पर रास्ता कैसा हो, आगे रास्ता है भी या नहीं। जब भी कोई कंकड़ या पत्थर हमारे पैरों से टकराता तो पास की गहरी खाई में गिर जाता। यह तो और भी भयावह था।अभी हम थोड़ा ही आगे निकले थे कि किसी ने हमें पीछे से आवाज दी।हमने पीछे मुड़कर देखा, वह एक बूढा व्यक्ति था। उसने कम्बल से अपने शरीर को ढक रखा था जिसकी वजह से हम उसे ठीक से नहीं देख पा रहे थे। उसने कहा - "अरे तुम लोग कहां जा रहे हो, यह रास्ता ठीक नहीं है।तुम्हारी गाड़ी तो दूसरे रास्ते पर खड़ी है जाओ और इस रास्ते पर वापस मत आना "।"जाओ, वो रास्ता - उसने अपने हाथ से इशारा किया"। हम उस व्यक्ति की बात सुनकर डर गए और तुरंत उस रास्ते से वापस लौटने के लिए चले । मेरी बुआ उन्हें धन्यवाद करने के लिए पीछे मुड़ी, लेकिन यह क्या वह व्यक्ति तो वहां से जैसे गायब हो गया। हमें देवी माँ पर विश्वास था, हम उनका नाम लेकर चल दिए कि अब जो होगा उनकी इच्छा से होगा। यह रास्ता ठीक था। चलते-चलते सुबह के चार बजे गए, अब मैंने रास्ते में अपने मामा को देखा वह भी हमारे साथ गए थे। हम उन्हें देखकर खुश हो गए। उस बूढ़े व्यक्ति द्वारा बताया गया रास्ता बिल्कुल ठीक था। .सबसे मिलने के बाद हमने उन्हें यह बताया कि कैसे एक अनजान व्यक्ति ने हमारी मदद की वरना हम गलत रास्ते पर चल दिए थे। मेरे पिता जी ने बताया कि जिस रास्ते की बात कर रहे हैं वह रास्ता दो सालो से बंद है और उस रास्ते पर कोई नहीं जाता है, वहां कई लोगों की खाई में गिर कर मौत हो चुकी है। इसके अलावा उस रास्ते पर कोई काम भी नहीं हो रहा है। हम समझ गए कि वह स्वयं भैरव जी थे जो हमें सही रास्ता दिखाने आए थे। वे स्वयं हमारी मदद के लिए आए थे या फिर देवी माँ ने उन्हें भेजा था क्योंकि उस रास्ते पर पिछले दो सालों से किसी के भी जाने या किसी व्यक्ति के देखे जाने की कोई घटना नहीं हुई थी। और तो और उस व्यक्ति को कैसे पता चल कि हमारी गाड़ी कहां रुकीं हुई है?

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 दिसंबर 2008 ब्राजील में मार्सिलियो नाम का एक शख्स वायरल ब्रेन इंफेक्शन की वजह से कोमा में चला गया। जब उम्मीदें खत्म हो गईं तब उनकी पत्नी कैथोलिक पादरी की शरण में गई। पादरी ने उन्हें मदर टेरेसा से प्रार्थना करने को कहा। मार्सिलियो की पत्नी फर्नान्डा के मुताबिक मदर टेरेसा की प्रार्थना की वजह से ही बीमारी ठीक हुई।

एक बार दीपावली के दिन दुकानदार ने साईं बाबा को दीपक जलाने के तेल नही दिए। साईं बाबा मुस्कराकर वहां से चल दिए और वापस द्वारका माईं में आ गए। साईं बाबा ने पानी से उन दीपकों को जलाया, वो दीपक ऐसे जल रहे थे मानों घी से जल रहे हों। यह चमत्कार पूरी शिरडी ने देखा और देखकर हर कोई जय-जयकार करने लगा।

बाबा हरभजन सिंह को शहीद हुए 50 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। लेकिन स्थानीय लोग मानते हैं कि हरभजन सिंह आज भी मरणोपरांत भारतीय चीन की सीमा पर तैनात हैं। उन्हे आज भी छुट्टी से लेकर सैलरी तक दी जाती है। यह मंदिर सिक्किम की राजधानी गंगटोक से तकरीबन 50 किमी दूर नाथुला पास से 9 किमी नीचे की तरफ स्थित है।बाबा चीन की हर गतिविधि पर नजर रखते हैं-सैनिकों का मानना है कि बाबा हरभजन सिंह आज भी मां भारती के वीर सपूत होने के कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए देश की रक्षा कर रहे हैं। सिक्किम के लोग मानते हैं कि बाबा हरभजन चीन की गतिविधियों पर आज भी नजर रखते हैं और जब भी चीन घुसपैठ करने की कोशिश करता है, वो किसी भारतीय जवान साथी के सपनें में आकर इस बात की जानकारी दे जाते हैं।-चीनी सैनिक भी उनकी कहानी बताते हैं-बाबा की वीरता की कहानी न केवल भारतीय जवानों के ज़ुबान पर है बल्कि चीनी सैनिक भी उनसे जुड़ी कहानी बताते हैं। बाबा हरभजन सिंह का जन्म 30 अगस्त, 1946 को पंजाब के सरदाना गांव में सिख परिवार में हुआ। विभाजन के बाद यह गांव पाकिस्तान में शामिल हो गया। बाबा हरभजन सिंह 9 फरवरी, 1966 को भारतीय सेना के पंजाब रेजिमेंट के 24वें बटालियन में नियुक्त हुए। अब बाबा हरभजन को भारतीय ‘नाथुला के नायक’ के रूप में जानते हैं।

आजकल बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र गर्ग बहुत चर्चा में है। कहते हैं कि वह लोगों के मन की बात जानकर उनकी समस्या का समाधान कर देते हैं। ऐसा दावा है कि रामकथा के साथ ही वे दिव्य दरबार लगाते हैं, जिसमें वे चमत्कारिक रूप से लोगों के दु:ख दूर करते हैं।

मध्‍यप्रदेश के मंदसौर जिले के रहने वाले दिनेशचंद्र पारिख 70 वर्ष के हैं। पारिख का कहना है कि हम योग के चमत्कारों को शब्‍दों में बयां नहीं कर सकते । वो बताते हैं कि नौ साल पहले हम योग से जुड़े। इसके बाद योग साधना से कुछ लाभ दिखा और मेरी दिलचस्‍पी इसमें गहरी होती गई। धीरे-धीरे योग से शारीरिक और मानसिक लाभ मिला और आस्‍था पैदा होने लगी। उन्‍होंने कहा कि 2008 से मैं नियमित योग कर रहा हूं।

जब भी कोई ऐसा काम जो हम नही कर सकते या सोच भी नही सकते वो हो जाये तो कहते है चमत्कार हो गया | मैने कुछ उदाहरण लिखे है कुछ अंधविश्वास भी है जैसे 13 का अंक कुछ लोग अशुभ मानते है । इंग्लॅण्ड का संविधान परम्पराओ पर आधारित है | विश्वास एक ऐसी भावना है जो किसी वस्तु के लिए उत्पन्न हो जाए, तो जल्दी टूटती नहीं है। और यही अगर एक व्यक्ति के बजाय आम जनता तक फैल जाए, तो इसे कट्टर विश्वास बनने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन अंधविश्वास जिस भी बात या वस्तु पर हो, फिर चाहे वह सही हो या गलत, लोग इसे पूरी ईमानदारी से मानते हैं। एक छोटा बच्चा अपने घर, परिवार एवं समाज में जिन परंपराओं, मान्यताओं को बचपन से देखता एवं सुनता आ रहा होता है, वह भी उन्हीं का अक्षरशः पालन करने लगता है।

भाव से भावना बनती है भावना से मन बनता है मन से विश्वास बनता है विश्वास से आस्था और सात्विक आस्था से शक्ति और शक्ति से चमत्कार होते है | 



बुधवार, 19 जुलाई 2023

अपने पंख खोले

 


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अपने पंख खोले

बहुत समय पहले की बात है , एक राजा को उपहार में किसी ने बाज के दो बच्चे भेंट किये । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे , और राजा ने कभी इससे पहले इतने शानदार बाज नहीं देखे थे।राजा ने उनकी देखभाल के लिए एक अनुभवी आदमी को नियुक्त कर दिया।जब कुछ महीने बीत गए तो राजा ने बाजों को देखने का मन बनाया , और उस जगह पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था। राजा ने देखा कि दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे और अब पहले से भी शानदार लग रहे थे ।राजा ने बाजों की देखभाल कर रहे आदमी से कहा, ” मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो ।“ आदमी ने ऐसा ही किया। इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे , पर जहाँ एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था , वहीँ दूसरा , कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया जिससे वो उड़ा था।ये देख राजा को कुछ अजीब लगा. “क्या बात है जहाँ एक बाज इतनी अच्छी उड़ान भर रहा है वहीँ ये दूसरा बाज उड़ना ही नहीं चाह रहा ?”, राजा ने सवाल किया। ” जी हुजूर.... इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।” राजा को दोनों ही बाज प्रिय थे , और वो दुसरे बाज को भी उसी तरह उड़ना देखना चाहते थे। अगले दिन पूरे राज्य में ऐलान करा दिया गया कि जो व्यक्ति इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा। फिर क्या था , एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे, पर हफ़्तों बीत जाने के बाद भी बाज का वही हाल था, वो थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता। फिर एक दिन कुछ अनोखा हुआ , राजा ने देखा कि उसके दोनों बाज आसमान में उड़ रहे हैं। उन्हें अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने तुरंत उस व्यक्ति का पता लगाने को कहा जिसने ये कारनामा कर दिखाया था। वह व्यक्ति एक किसान था।

अगले दिन वह दरबार में हाजिर हुआ। उसे इनाम में स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा ”मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ , बस तुम इतना बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया। “मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिसपर बैठने का बाज आदि हो चुका था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा। “

दोस्तों, हम सभी ऊँचा उड़ने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे होते है उसके इतने आदि हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की , कुछ बड़ा करने की काबिलियत को भूल जाते हैं। यदि आप भी सालों से किसी ऐसे ही काम में लगे हैं जो आपके सही potential के मुताबिक नहीं है तो एक बार जरूर सोचिये कि कहीं आपको भी उस डाल को काटने की जरूरत तो नहीं जिसपर आप बैठे हैं ?

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सोमवार, 17 जुलाई 2023

लाभ हानी यश अपयश

 


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सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ

सुख और दुख, लाभ और हानि, विजय और पराजय - इन सब परिस्थितियों को एक मानकर - समान मानना यानि मन को समभाव में रखना - न एक में खुश होना, न दूसरे में दुखी - अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में मन को शांत व स्थिर रखना। यह एक अद्भुत विचार है परन्तु कठिन भी है। इसके लिए सतत् सावधानीपूर्वक जागरूक रहते हुए अभ्यास करना पड़ता है। जब भी हम महान उपलब्धियाँ प्राप्त करना चाहते हैं, तो उत्तेजित अवस्था में उन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता है। आज सामान्यतः हर आदमी उत्तेजित अवस्था में जी रहा है, इस स्थिति को बदलने हेतु इस विचार को एक मौन आन्दोलन में बदलने की आवश्यकता है। डॉ0 राधाकृष्णन जी ने एक जगह अपने भाषण में कहा था आधुनिक स्त्री-पुरूष आज Going about doing good- अच्छे काम को दिखाने में विश्वास करते हैं, लेकिन जब आप निकट जाकर गहराई व सूक्ष्मता से देखते हैं, तो It is more going about than doing good, यह करने की अपेक्षा करते दिखाना फिरना ज्यादा दिखाई देता है। इतनी उत्तेजना, हो-हल्ला और काम कम।

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जानवर के अन्दर जब भी कोई प्रवृत्ति उभरती है, वह उसके मन को उद्धेलित करके तुरन्त किसी न किसी क्रिया द्वारा प्रत्तिक्रिया को व्यक्त करने को विवश करती है। जब तक हम अपने मन को प्रशिक्षित नहीं कर लेते हममें से अधिकांश की प्रतिक्रिया भी इसी प्रकार होती है। यदि क्रिया एक इकाई है तो प्रतिक्रिया दस इकाई भी हो सकती है और शून्य भी - इन दोनों के बीच अन्तर रखने के अभ्यास से ही हम इसे नियन्त्रित कर पायेंगे। गीता में आगे चलकर इसी स्थिति को स्थित प्रज्ञ कहा गया है। भगवान राम ने अपना उदाहरण हमारे सामने रखा है, न राजतिलक की सूचना पर हर्ष और न ही वनवास की आज्ञा पर शोक। यह अभ्यास तो हमें ही करना है। प्यासे घोड़े को पानी के पास तो लाया जा सकता है परन्तु पानी पीना तो अंततः उस घोड़े को ही पड़ेगा। अतः वेदान्त बार-बार इस बिन्दु पर बल देता है कि अपने चरित्र का निर्माण तुम्हें स्वयं करना है, दूसरों पर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। यह राष्ट्रीय उद्यमशीलता के जागरण का अवसर है। एक पुस्तक में मैकाले व उसके गुरू जॉन स्टुअर्ट मिल का संवाद था। Stuart Mill कहते हैं - ‘उद्यम के विषय में यह सदा परामर्श योग्य है कि अवसर में आगे रहना तथा भोग के विषय में अवसर के पीछे रहना'। जब हम यह सीखेंगे तभी राष्ट्र को चरित्र के सर्वोच्च शिखर पर ले जायेंगे। हमें यह सीखना ही होगा कि इस कार्य को करने हेतु कैसी क्षमता व कुशलता चाहिए - मन का प्रशिक्षण ही एकमेव उपाय है - भावनात्मक जोश कुशलता नहीं होता। एक प्रसिद्ध फ्रांसिसी मनोवैज्ञानिक ग्रे वॉल्टर -The Living Brain में कहते हैं - ”स्वतंत्र जीवन के लिए एक स्थिर आन्तरिक परिवेश पूर्व शर्त है। शरीर विज्ञान के भाग Neurology में Homeostasis-  होमियोस्टेसिस का विचार है। होमियोस्टेसिस यानि शरीर में तापमान के संतुलन को बनाए रखने की क्षमता।  हर स्तनधारी प्राणी में यह क्षमता होती है - कि बाहर का तापमान कुछ भी हो शरीर अपने अन्दर के तापमान को स्थिर व संतुलित कर पाता है। प्रकृति ने हमें यह शारीरिक होमियोस्टेसिस दिया है, अब आवश्यकता है कि हम स्वयं के प्रयासों द्वारा एक मानसिक होमियोस्टेसिस प्राप्त करें।"

साझेदार व कर्मचारी रखने के पूर्व इस विडिओ को देखे

https://youtu.be/qd8uwq_WW30


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रविवार, 16 जुलाई 2023

संस्कार

 


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संस्कार 

प्रीति और कुणाल का 6 साल के प्रेम संबंध ने आज एक मोड़ पर आकर दम तोड़ दिया। मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेते ही प्रथम वर्ष में ही दोनों की दोस्ती हुई। दोनों को धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि एक दूसरे को चाहने लगे हैं। दोनों एक दूसरे को डेटिंग करने लगे। कभी किसी कॉफी हाउस में बैठकर घंटों करते तो कभी किसी थिएटर में बैठकर कोई मनपसंद मूवी देखते। कॉलेज में भी दोनों के रिश्ते की चर्चा होने लगी। सभी बातों से बेफिक्र दोनों अपने में मस्त थे। 

देखते ही देखते 4 साल कैसे गुजर गए पता नहीं चला। दोनों एमबीबीएस डॉक्टर हो गये। पीजी करने के लिए दोनों को अलग-अलग शहर जाना पड़ा। दोनों एक दूसरे को बहुत मिस करने लगे। फिर भी छुट्टियों में कभी-कभी दोनों एक दूसरे से मिल लेते और घंटों बैठ कर बात करते। आखिर में दोनों ने यह फैसला लिया कि एक ही शहर में कोई हॉस्पिटल ज्वाइन करेंगे। आखिर में दोनों ने दिल्ली का एक हॉस्पिटल ज्वाइन किया।

जब किराए के फ्लैट में रहने की बात आई तो दोनों ही परेशान थे क्योंकि दिल्ली जैसे शहर में किराया बहुत अधिक होता है। ऐसे में कुणाल ने प्रीति को एक साथ रहने का ऑफर दिया। "एक साथ रहना अर्थात लिव इन रिलेशनशिप में?" प्रीति ने पूछा।

"हां.. शादी से पहले एक साथ रहने का अर्थ तो लिव इन रिलेशनशिप ही होता है प्रीति।"

"परंतु मेरे घर वाले पसंद नहीं करेंगे!"

"घरवालों को बताने की आवश्यकता ही क्या है? कह देना अलग फ्लैट में रहते हैं!"

"मैं घर वालों से झूठ नहीं बोल सकती.. मुझे ऐसे संस्कार नहीं मिले हैं!"

"झूठ बोलने की आवश्यकता ही क्या है? उनको पता ही नहीं चलेगा!"

"कभी अगर मेरे मॉम डैड मुससे मिलने आए तब क्या कहूंगी? तब तो पता चल जाएगा। मैं अपने मॉम डैड से झूठ नहीं बोल सकती। और न ही मेरा मन लिव इन रिलेशनशिप के लिए मान रहा है!"

"तुम कितनी कंजरवेटिव ख्याल की हो। इस युग की लड़कियां तो ऐसी नहीं होती है। आजकल इस रिलेशन को तो बहुत ही नॉर्मल तरीके से लिया जाता है। छोटे-छोटे शहरों में भी लड़कियां लिव इन रिलेशनशिप में रहती है और हम तो महानगर में हैं। कम ऑन प्रीति.. कैसे घिसे पिटे विचार लेकर चलती हो तुम।"

"घिसे पीटे ही सही.. जो संस्कार मेरे मॉम डैड ने मुझे दिए हैं.. मैं उन संस्कारों का दिल से इज्जत करती हूं! और शादी से पहले किसी लड़के से शारीरिक संबंध बनाने में परहेज करती हूं क्योंकि मैं खुद का इज्जत करना जानती हूं। एक काम क्यों नहीं करते हो तुम्हारे मॉम डैड से कहो कि मेरे मोम डैड से शादी की बात करें। हम दोनों ही अब डॉक्टर बन गए हैं अब तो शादी कर ही सकते हैं। शादी हो जाएगी तो फिर कोई प्रॉब्लम ही नहीं है रहेगा।"

"क्या... इतनी जल्दी शादी? अभी अभी तो हम डॉक्टर बने हैं और एक दूसरे को इतने अच्छे से समझ भी नहीं पाए!"

"6 साल हो गए हमारे रिलेशन को! तुम कह रहे हो एक दूसरे को समझ नहीं पाए और क्या समझना चाहते हो?"

"मैं तो एक साथ रहकर ही समझना चाहता हूं कि हम एक दूसरे के लायक है कि नहीं। लिव इन रिलेशनशिप में रह कर यही तो समझा जाता है।"

"फिर अगर लगेगा कि हम एक दूसरे के लायक नहीं है या एक दूसरे से मन भर जाएगा तो.. तो क्या करेंगे!" प्रीति का प्रश्न।

"तो अलग हो जाएंगे.. दूसरा जीवन साथी ढूंढ लेंगे!"

"व्हाट.. आर यू मैड कुणाल? तुम्हें पता भी है तुम क्या कह रहे हो?"

"हां.. हां.. अच्छी तरह पता है!"

"तो.. अब तक क्या तुम मुझसे प्यार का नाटक करते रहे?"

"बस.. तुम्हें समझ रहा था परंतु अभी तक कुछ समझ में नहीं आया!"

"तो..एक साथ रहने से समझ में आ जाएगा तुम्हें? तुम ये क्यों नहीं कहते कि तुम मुझसे शारीरिक संबंध बनाना चाहते हो इसलिए एक साथ रहना चाहते हो परंतु शादी नहीं करना चाहते। शादी करके जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते! इसे एक्सप्लोइटेशन कहते हैं और मैं जानबूझकर खुद को एक्सप्लोइट होने नहीं दे सकती। मेरे संस्कार और मेरा एजुकेशन इस बात की इजाजत नहीं देता।"

"हां यही समझ लो.. किसी लड़की को अच्छे से जाने बिना उसकी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता।"

"तुम लड़के लोग हम लड़कियों को क्या समझते हो? केवल खिलौना? क्या हमारा कोई मन नहीं है? कोई भावना नहीं है? हमारा समाज इतना शिक्षित हो गया परंतु अभी भी स्त्रियों को लेकर उनकी मानसिकता नहीं बदली। स्त्रियों को भोग्या समझना तुम जैसों की मानसिकता है! तुम अच्छे से समझ लो.. मैं उन लड़कियों में से नहीं हूं कि तुम मुझे एक्सप्लोइट कर सको। मैं तुम्हें अपना दोस्त समझती रही परंतु तुम तो आस्तीन का सांप निकले। तुमने अपने बुरे विचारों की ज़हर से मेरी भावना को आहत कर दिया। खिलवाड़ किया मेरी भावना से परंतु..मुझे अपनी भावनाओं पर पूरा नियंत्रण है। मॉम डैड ने मुझे बचपन से यह शिक्षा दी है! मुझे लड़की होने पर गर्व है, हीन भावना नहीं है मुझ में। अच्छा हुआ ईश्वर ने मुझे लड़की बनाकर जन्म दिया वरना तुम्हारी जैसी सोच वाला लड़का बनकर जन्म लेने से मुझे अफसोस होता! खैर.. जन्म से कोई बुरा नहीं होता.. परवरिश में कोई कमी रह जाती है तभी तुम जैसे लोग दिशाहीन भागते हैं! गुड बाय!! अब मैं चलती हूं और अपने शहर का कोई हॉस्पिटल ज्वाइन करूंगी!"

बहुत दृढ़ता से निर्णय लेकर प्रीति ने आगे कदम बढ़ा दिए और वह मन ही मन सोचने लगी.."थैंक्स मॉम डैड.. आप लोगों ने मुझे इतने अच्छे संस्कार दिए! इसके लिए दिल से आभार! काश कि सभी पेरेंट्स अपने बच्चों को चाहे लड़का हो या लड़की दोनों को अच्छे संस्कार देकर बड़ा करें तो ऐसी स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी।"

कुणाल, प्रीति और उसके कॉन्फिडेंस को पीछे से केवल देखता रह गया। उसे रोकने का उसमें साहस नहीं था..!!

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शनिवार, 15 जुलाई 2023

माँ बेटी



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माँ बेटी  

सास ने  जोर से आवाज लगाई मर गई क्या, अंदर से आवाज- जिंदा हूं माँ जी।तो फिर मेरी चाय क्यूं अभी तक नहीं आई, कब से पूजा करके बैठी हूं ला रही हूं माँ जी, बहू चाय के साथ, भजिया भी ले आयी, सास ने कहा तेल का खिलाकर क्या मरोगी? बहू ने कहा- ठीक हैं माँ जी ले जाती हूं।सास ने कहा- रहने दे अब बना दिया हैं तो खा लेती हूं। सास ने भजिया उठाई और कहा- कितनी गंदी भजिया बनाई हैं तुमने। बहू- माँ जी मुझे कपड़े धोने हैं मैं जाती हूं। बहू दरवाजे के पास छिपकर खड़ी हो गयी। सास भजिया पर टूट पड़ी और पूरी भजिया खत्म कर दी।बहू मुस्कुराई और काम पर लग गई दोपहर के खाने का वक्त हुआ। सास ने फिर आवाज लगाई- कुछ खाने को मिलेगा। बहू ने आवाज नहीं दी। सास फिर चिल्लाई- भूखे मारोगी क्या, बहू आयी सामने खिचड़ी रख दी। सास गुस्से से- ये क्या है, मुझे इसे नहीं खाना इसे। ले जाओ। बहू ने कहा- आपको डॉक्टर ने दिन में खिचड़ी खाने को कहा है, खाना तो पड़ेगा ही। सास मुंह बनाते हुए, हाँ तू मेरी माँ बन जा, बहू फिर मुस्कुराई और चली गई। आज इनके घर पूजा थी । बहू सुबह 4 बजे से उठ गयी। पहले स्नान किया, फिर फूल लाई। माला बनाई। रसोई साफ की। पकवान और भोज बनाया। सुबह के 10 बज गए। अब सास भी उठ चुकी थी। बहू अब पंडित जी के साथ भगवान के वस्त्र तैयार कर रही थी। आज ऑफिस की छुट्टी भी थी उनके पति भी घर पर थे। पूजा शुरू हुई।सास चिल्लाती बहू ये नहीं है, वो नही है। बहू दौड़ी-दौड़ी आती और सब करती। अब दोपहर के 3 बज गये थे, आरती की तैयारी चल रही थी, पंडित जी ने सबको आरती के लिए बुलाया और सबके हाथों में थाली दी, जैसे ही बहू ने थाली पकड़ी, थाली हाथों से गिर पड़ी। शायद भोज बनाते हुए बहू के हाथों मे तेल लगा था, जिसे वो पोंछना भूल गयी थी। सारे लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कैसी बहू है, कुछ नहीं आता। एक काम भी ठीक से नहीं कर सकती। ना जाने कैसी बहू उठा लाए। एक आरती की थाली भी संभाल नहीं सकती उसके पति भी गुस्सा हो गए पर सास चुप रही। कुछ नहीं कहा। बस यही बोल के छोड़ दिया सीख रही है, सब सीख जाएगी धीरे-धीरे। अब सबको खाना परोसा जाने लगा, बहू दौड़-दौड़ के खाना देती, फिर पानी लाती। करीब 70- 80 लोग हो गये थे, इधर दो नौकर और बहू अकेली फिर भी वहाँ सारा काम, बहुत ही अच्छे तरीके से करती। अब उसकी सास और कुछ आसपड़ोस के लोग खाने पर बैठे, बहू ने खाना परोसना शुरू किया, सब को खाना दे दिया गया, जैसे ही पहला निवाला सास ने खाया- तुमने नमक ठीक नहीं डाला क्या। एक काम ठीक से नहीं करती। पता नहीं मेरे बाद कैसे ये घर संभालेगी। आस-पड़ोस वालों को तो जानते ही हो ना साहब। वो बस बहाना ढूंढते हैं नुक्स निकालने का। फिर वो सब शुरू हो गये, ऐसा खाना है, ऐसी बहू है, ये वो वगैरहा-वगैरहा। दिन का खाना हो चुका था, अब बहू बर्तन साफ करने नौकरों के साथ लग गई। रात में जगराता का कार्यक्रम रखा गया था। बहू ने भी एक दो गीत गाने के लिए स्टेज पर चढ़ी। सास जोर से चिल्लाई- मेरी नाक मत कटा देना, गाना नहीं आता तो मत गा, वापस आ जा। बहू मुस्कुराई और गाने लगी। सबने उसके गाने की तारीफ की, पर सास मुंह फूलाते हुए बोली, इससे अच्छा तो मैं गाती थी जवानी में, तुझे तो कुछ भी नहीं आता। बहू मुस्कुराई और चली गई। अब रात का खाना खिलाया जा रहा था। उसके पति के ऑफिस के दोस्त साइड में ही ड्रिंक करने लगे। उसका पति चिल्लाता थोड़ा बर्फ लाओ, तो सास चिल्लाती यहाँ दाल नहीं है, फिर चिल्लाता कोल्ड ड्रिंग नहीं है, पापड़ ले आओ। इधर-उधर आखिरी में उसके पति की शराब गिर पड़ी उसके एक दोस्त पर और बोलत टूट गई। पति गुस्से में दो झापड़ अपनी पत्नी को लगाते हुए कहता है- जाहिल कहीं की। देखकर नहीं कर सकती। तुझे इतना भी काम नहीं आता। सारे लोग देखने लगे। उसकी पत्नी रोते हुए कमरे की तरफ दौड़ी, फिर उसके दोस्तों ने कहा- क्या यार पूरा मूड खराब कर दिया, यहाँ नहीं बुलाया होता, हम कहीं और पार्टी कर लेते। कैसी अनपढ़-गंवार बीवी ला रखी है तूने। उसे तो मेहमानों की इज्जत और काम करना तक नहीं आता, तुमने तो हमारी बेईजती कर दी। अब आस पड़ोस की औरतों को और बहाना मिल गया था। वो कहने लगीं, देखो क्या कर दिया तुम्हारी बहू ने। कोई काम कीं नही है। मैं तो कहती हूं अपने बेटे की दूसरी शादी करा दो, छुटकारा पाओ इस गंवार से। सास उठी और अपने बेटे के पास जाकर उसे थप्पड़ मारा और कहा- अरे नालायक, तुमने मेरी बहू को मारा, तेरी हिम्मत कैसे हुई। तेरी टाँग तोड़ दूंगी, उसके बेटे के दोस्त कुछ कहने ही वाले थे कि उसकी माँ ने घूरते हुए- कहा चुप बिल्कुल चुप। यहाँ दारू पीने आये हो, जबकि पता है आज पूजा है और तुम्हें पार्टी करनी है, कैसे संस्कार दिये हैं तुम्हारे, माता-पिता ने। और किसने मेरी बहू को जाहिल बोला, जरा इधर आओ। चप्पल से मारूंगी अगर मेरी बहू को किसी ने शब्द भी कहा तो। अरे पापी, तूने उस लड़की को बस इसलिए मारा कि तेरी शराब टूट गयी, पापी वो बच्ची सुबह चार बजे से उठी है। घर का सारा काम कर रही है। ना सुबह से नाश्ता किया ना दिन का खाना खाया। फिर भी हंसते हुए सबकी बातें सुनते हुए, ताने सुनते हुए घर के काम में लगी रही। तेरे यार दोस्तो को वो अच्छी नहीं लगी। जूते से मारूंगी तेरे दोस्तों को जो कभी उन्होंने ऐसा कहा। उसके यार दोस्त चुपके से खिसक लिए। अब सास, बहू के कमरे मे गयी, और बहू का हाथ पकड़कर बाहर लाई। सबके सामने कहने लगी, किसने कहा था अपनी बहू को घर से निकाल के दूसरी बहू ले आना। जरा सामने आओ। कोई सामने नहीं आया। फिर सास ने कहा, तुम जानते भी क्या हो इस लड़की के बारें में। ये मेरी "माँ" भी है, बेटी भी।माँ इसलिए मुझे गलत काम करने पर डाँटती हैं और बेटी इसलिए, कभी-कभी मेरी दिल की भावनाएं समझ जाती हैं। मेरी दिन-रात सेवा करती है। मेरे हजार ताने सुनती है पर एक शब्द भी गलत नहीं कहती। ना सामने ना पीठ पीछे,और तुम कहते हो, दूसरी बहू ले आऊं। याद है ना छुटकी की दादी।

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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

हकीकत




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हकीकत 

 गाँव में एक किसान रहता था,जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था | एक दिन बीवी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया वो उसे बेचने के लिए अपने गाँव से शहर की तरफ रवाना हुवा..वो मक्खन गोल पेढ़ो की शकल मे बने हुये थे और हर पेढ़े का वज़न एक किलो था | शहर मे किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार में बेच दिया,और दुकानदार से चायपत्ती,चीनी,तेल और साबुन वगैरह खरीदकर वापस अपने गाँव को रवाना हो गया | किसान के जाने के बाद - दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज़र मे रखना शुरू किया...उसे खयाल आया के क्यूँ ना एक पेढ़े का वज़न किया जाए, वज़न करने पर पेढ़ा सिर्फ 900 ग्राम का निकला, हैरत और निराशा से उसने सारे पेढ़े तोल डाले मगर किसान के लाए हुए सभी पेढ़े 900-900 ग्राम के ही निकले।

अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज़ पर चढ़ा..दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा: दफा हो जा, किसी बेईमान और धोखेबाज़ शखस से कारोबार करना पर मुझसे नही।मै 900 ग्राम.मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की वो शक्ल भी देखना गवारा नही करता..किसान ने बड़ी ही विनम्रता से दुकानदार से कहा "मेरे भाई मुझसे नाराज ना हो हम तो गरीब और बेचारे लोग है,हमारी माल तोलने के लिए बाट (वज़न) खरीदने की हैसियत कहाँ" आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूँ उसी को तराज़ू के एक पलड़े मे रखकर दूसरे पलड़े मे उतने ही वज़न का मक्खन तोलकर ले आता हूँ। 

मोरल ऑफ द स्टोरी  अपने अंदर झांकना,सबसे मुश्किल काम है |

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9 दिव्य औषधियां हैं नवदुर्गा के 9 रूप

 


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नवदुर्गा 

यह 9 दिव्य औषधियां हैं नवदुर्गा के 9 रूप

प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित व साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करतीं है। अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए। नवदुर्गा यानि मां दुर्गा के नौ रूप। जानकारों के अनुसार 9 औषधियों में भी विराजते हैं, मां अम्बे के यह नौ रूप, जो समस्त रोगों से बचाकर जगत का कल्याण करते हैं। नवदुर्गा के नौ औषधि स्वरूपों को सर्वप्रथम मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया गया और चिकित्सा प्रणाली के इस रहस्य को ब्रह्माजी द्वारा उपदेश में दुर्गाकवच कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि यह औषधियां समस्त प्राणियों के रोगों को हरने वाली और और उनसे बचा रखने के लिए एक कवच का कार्य करती हैं, इसलिए इसे दुर्गाकवच कहा गया। इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष जीवन जी सकता है। यहां हम जानकारों से बातचीत के बाद आपको बता रहे हैं, दिव्य गुणों वाली उन 9 औषधियों के बारे में जिन्हें नवदुर्गा कहा गया है - 

1. प्रथम शैलपुत्री यानि हरड़ - नवदुर्गा का प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। कई प्रकार की समस्याओं में काम आने वाली औषधि हरड़, हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है, जो सात प्रकार की होती है। इसमें हरीतिका (हरी) भय को हरने वाली है।पथया - जो हित करने वाली है। कायस्थ - जो शरीर को बनाए रखने वाली है।अमृता - अमृत के समान।हेमवती - हिमालय पर होने वाली। चेतकी - चित्त को प्रसन्न करने वाली है।श्रेयसी (यशदाता) शिवा - कल्याण करने वाली।

2. द्वितीय ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी - ब्राह्मी, नवदुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी है। यह आयु और स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, रूधिर विकारों का नाश करने वाली और स्वर को मधुर करने वाली है। इसलिए ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है।यह मन व मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है और गैस व मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीडित व्यक्ति को ब्रह्मचारिणी की आराधना करनी चाहिए।

3. तृतीय चंद्रघंटा यानि चन्दुसूर - नवदुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चन्दुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी बनाई जाती है, जो लाभदायक होती है। यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, हृदय रोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है। अत: इस बीमारी से संबंधित रोगी को चंद्रघंटा की पूजा करनी चाहिए।

4. चतुर्थ कुष्माण्डा यानि पेठा - नवदुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है, इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो पुष्टिकारक, वीर्यवर्धक व रक्त के विकार को ठीक कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत समान है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त एवं गैस को दूर करता है। इन बीमारी से पीडित व्यक्ति को पेठा का उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करनी चाहिए।

5. पंचम स्कंदमाता यानि अलसी - नवदुर्गा का पांचवा रूप स्कंदमाता है जिन्हें पार्वती व उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि है। अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:।।उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी।इस रोग से पीड़ित व्यक्ति ने स्कंदमाता की आराधना करनी चाहिए।

6. षष्ठम कात्यायनी यानि मोइया - नवदुर्गा का छठा रूप कात्यायनी है। इसे आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका। इसके अलावा इसे मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्त, अधिक विकार व कंठ के रोग का नाश करती है। इससे पीडित रोगी को इसका सेवन व कात्यायनी की आराधना करनी चाहिए।

7. सप्तम कालरात्रि यानि नागदौन - दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी, महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है।इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगाने पर घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली और सभी विषों का नाश करने वाली औषधि है। इस कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीडित व्यक्ति को करनी चाहिए। 

8. अष्टम महागौरी यानि तुलसी - नवदुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधि नाम तुलसी है जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी सात प्रकार की होती है- सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है व हृदय रोग का नाश करती है। तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि: तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत् । मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।इस देवी की आराधना हर सामान्य व रोगी व्यक्ति को करनी चाहिए।

9. नवम सिद्धिदात्री यानि शतावरी - नवदुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है, जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल व वीर्य के लिए उत्तम औषधि है। यह रक्त विकार औरं वात पित्त शोध नाशक और हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिदात्री का जो मनुष्य नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इससे पीडित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करनी चाहिए।

इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित व साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करतीं है। अत: मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।

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जय माता दी 

बुधवार, 12 जुलाई 2023

कामिका एकादशी

 

कामिका एकादशी 

कामिका एकादशी श्रावण  मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को बनाई जाती है इसे पवित्रता के नाम से भी जाना जाता है | प्रातः स्नानादि करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराकर भोग लगाया जाता है | आचमन के पश्चात धूप दीप चंदन आदि सुगंधित पदार्थों से आरती उतारनी चाहिए |
कामिका एकादशी व्रत की कथा - एक समय की बात है कि किसी गांव में एक ठाकुर रहा करते थे | वह बहुत ही क्रोधी स्वभाव के थे क्रोधवश  उनकी एक ब्राह्मण से भिड़ंत हो गई जिसका परिणाम यह हुआ कि वह ब्राह्मण मारा गया | उस ब्राह्मण के मरणोपरांत उन्होंने उसकी तेहरवीं करनी चाही लेकिन सब ब्राह्मणों ने भोजन करने से इंकार कर दिया तब उन्होंने सभी ब्राह्मणों से निवेदन किया कि हे  भगवान मेरा पाप  कैसे दूर हो सकता है कृपया कोई उपाय बताए | भगवान से की इस प्रार्थना पर उन सब ने उसे एकादशी व्रत करने की सलाह दी ठाकुर ने वैसे ही किया | रात में भगवान की मूर्ति के पास जब वह शयन  कर रहा था तभी उसने एक सपना देखा सपने में भगवान ने उसे दर्शन देकर कहा कि ठाकुर तेरा सारा पाप दूर हो गया अब तो तू ब्राह्मण की तेहरवीं भी कर सकता है तेरे घर सूतक नष्ट हो गया है | ठाकुर पूरे विधि विधान से तेहरवीं करके ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो गया और अंत में कामिका एकादशी व्रत के प्रभाव से  मोक्ष प्राप्त करके विष्णुलोक को चला गया |
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