शत नमन माधव चरण में---
कागजी गाय घास नहीं खाती
वैसे, 'मित्रता' विषय पर एक पुस्तक आप लोगों ने देखी हो कुछ ने तो पड़ी भी होगी। उस पुस्तक की बहुत ख्याति है। उसे पढ़कर कोई मित्र बनाना सीख सकता हो तो सीख ले, परंतु यह संभव लगता नहीं। मुझे स्मरण है कि जब मैं १०वीं कक्षा में पढ़ता था, तब शासकीय विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए एक कार्यक्रम चलता था। उसकी कुछ शर्तें थीं। उनमें से एक थी 'किंग इम्प्रूव' वह शर्त मुझे मान्य न होने के कारण मैं उसमें नहीं गया। उस योजना में तरह-तरह की शिक्षा दी जाती थी। तैरने की शिक्षा भी देते थे। उस योजना में जो विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने गए थे, उन्हें एक प्रमाण-पत्र दिया गया था कि उन्होंने तैरना सीख लिया है। गर्मी के दिनों में हम मित्र लोग नदी पर तैरने जाते थे। प्रमाण-पत्र प्राप्त उन विद्यार्थियों में से भी कुछ साथ गए। हम लोग ऊँचाई पर जाकर नदी में कूदते व डुबकी लगाते थे। वे प्रमाण-पत्र प्राप्त तैराक किनारे पर ही बैठे रहे। हमने उनसे पूछा कि तुम लोग नहीं तैरोगे? उन्होंने कहा कि पानी में उतर कर तैर नहीं सकते। पानी में उतरेंगे तो डूब जाएँगे। हमने पूछा कि तुम्हें तो तैरना सीखने का प्रमाण-पत्र मिला है। उन्होंने बताया कि हमें कक्षा में ही तैरना सिखाया जाता था। मेज पर लिटा देते और हाथ-पैर चलाना बताते थे। अब ऐसा सीखने पर तैरना तो आ नहीं सकता। हाँ, डूबना हो सकता है।
यह बता देने से कि किस प्रकार का व्यवहार कर मित्र संपादन हो सकता है, मित्र प्राप्त करना संभव नहीं। उसका प्रयास भी करेंगे तो केवल कृत्रिमता ही हाथ आएगी, मित्रता नहीं। मुझे अपना ही एक प्रसंग स्मरण आता है। एक प्रचारक ने अपने क्षेत्र की एक शाखा के स्वयंसेवकों को बता रखा था कि शाखा पर नए स्वयंसेवकों को लाना चाहिए। जो भी नया स्वयंसेवक आए उससे सबने परिचय करना चाहिए। संयोगवश एक बार अकस्मात् उस नगर में मेरा जाना हुआ। शाखा का समय था, इसलिए स्टेशन से निकलकर सीधे शाखा चला गया। उस शाखा पर कोई मुझे पहचानता नहीं था। प्रार्थना आदि होने के बाद में शाखा के मुख्यशिक्षक कार्यवाह आदि से बातचीत करने के लिए ठहरा था। मुझे नया देख परिचय करने के उत्साह में सारे स्वयंसेवक मेरे आसपास एकत्र हो गए और पूछताछ करने लगे। उन्होंने नाम पूछा। मैंने बताया कि मेरा नाम माधव है। फिर पूछा- कहाँ रहते हो? बताया कि भटकता रहता हूँ। तब उन्होंने प्रश्न किया कि शाखा नहीं जाते क्या? बताया कि मेरा ऐसा ही चलता है। वे शाखा जाने के महत्त्व पर भाषण देने लगे। मैं नम्रतापूर्वक उनकी बात सुनता रहा। मैंने उन्हें यह भी बताया कि नियमपूर्वक शाखा न जाने के कारण वहाँ के अनियमित स्वयंसेवकों की सूची में मेरा पहला नाम है। यह सब सुनकर कार्यवाह मुझपर नाराज हो रहा था, कि इतने में वह प्रचारक, जिन्होंने उन्हें बताया था कि नए लोगों से परिचय करते जाओ, आ पहुँचे। कहने का मतलब यह है कि बताए हुए काम में एक प्रकार की कृत्रिमता आ जाती है, तब उसमें न विवेक रहता है, न सामंजस्य । केवल औपचारिकता रह जाती है।
- श्री गुरुजी समग्र : खंड 4 : पृष्ठ 200
आजकल बहुत लोग ऐसा महसूस करते हैं कि हमें हमारे राष्ट्रीय जीवन के पुनर्निर्माण के लिये इंगलैंड, अमेरिका या रूस का मॉडल स्वीकार कर लेना चाहिए। किसी भी प्रकार उन्हें ऐसा विश्वास हो चुका है कि हम हमारे जाँचे- परखे प्राचीन मूल्यों और प्रेरणास्पद ऐतिहासिक परंपराओं के आधार पर खड़े नहीं हो सकते। वे हमारी राष्ट्रीय पहचान को सर्वदूर त्याज्य मानते हैं। हम स्वयं को हिन्दू कहने पर शर्म महसूस करते हैं। हमारे देश में ऐसा प्रतीत होता है मानो यहां केवल मुस्लिम और गैर-मुस्लिम ही हैं। विदेशी आदर्शों और विचारों के प्रति आसक्ति के कारण ही हमारे अपने गौरवपूर्ण जीवन मूल्यों पर ग्रहण लग गया। यहां तक कि हमारे संविधान निर्माता भी इसी प्रभावकारी दृष्टिकोण के दबाव में दिखाई पड़ते हैं। ऐसी प्रवृत्ति और दिशा की कमी हिन्दू समाज को सार्थक रूप में स्वाभिमान से युक्त कर अपने महान और पवित्र सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं में आस्था की प्रवृत्ति से पुनर्गठित कर के ही दूर की जा सकती है।
हम अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं पर गर्व करते हैं। किन्तु, वास्तव में हम किस प्रकार रहते हैं? हमारे दैनिक संस्कार क्या हैं? क्या हमारे नित्य के सब क्रियाकलापों में ईश्वर का कोई स्थान है? क्या हमारे घरों में कम से कम एक स्थान ऐसा है, जहां बैठकर हम उसका ध्यान कर सकें?
एक बार मेरे एक परिचित ने अपने नये बने हुए मकान को देखने के लिए मुझे बुलाया। वह भले प्रकार सुसज्जित तथा प्रत्येक अर्थों में एक आधुनिक गृह था। जब उसके मकान की विशेषताएं बताना समाप्त किया तो मैंने पूछ लिया कि देवगृह कहां बना है? क्या तुम्हारे कोई कुल देवता नहीं हैं, जिसकी पूजा तुम्हारे पूर्वज करते रहे हों और तुम्हें सौंप गये हों? मेरे प्रश्न ने उसे चकित कर दिया और उसने क्षमा मांगते हुए कहा- "हां-हां, किन्तु मैं उस विषय में बिल्कुल भूल गया था।" कुछ महीने पश्चात् जब मैं पुनः उस स्थान पर गया तो उन्होंने विशेष रूप से यह कह कर मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि मेरे कथनानुसार काम कर लिया गया है। मैं वहां उसे देखने गया। जीने के नीचे एक टेढ़े-मेढ़े स्थान में बनी हुई छोटी सी आलमारी उन्होंने मुझे दिखाई। परिवार के सदस्यों के सभी चप्पल, जूते उस आलमारी के ऊपर बड़ी सफाई से सजे हुए थे और वे पर्याप्त संख्या में थे, कारण कि उनके जीवन का स्तर काफी ऊंचा था। उन्होंने बड़े सन्तोष के भाव से कहा—''मैंने इसे नया बनवाया है और अपने कुलदेवता को "यहां रखा है।" मैं तो उसे देखकर संत्रस्त हो गया। मैंने कहा "देवता को दूषित करने के स्थान पर इन चप्पलों को ही अन्दर रखकर क्यों नहीं पूजते।" ऐसा है,'आधुनिक प्रगतिशील' हिन्दू-जीवन।
हमें यह विस्मरण नहीं होना चाहिए कि श्रीराम, शिवाजी अथवा विवेकानन्द इस प्रकार के 'आधुनिकतावाद' की उत्पत्ति नहीं थे। वे उन आदर्शों से स्फूर्त थे, जिनकी प्रतिष्ठा रामायण और महाभारत में हुई है। वह हिन्दू-जीवन के प्रति उनकी महान श्रद्धा ही थी, जिसने उनके संगठन-चातुर्य के साथ मिलकर उन्हें एक ऐसी शक्ति बना दिया जिसने इतिहास की सम्पूर्ण गति को ही बदल दिया। वैदिक काल के सन्तों से लेकर रामकृष्ण, विवेकानन्द, रामतीर्थ इसी प्रकार के अन्य आधुनिक युग के महान आत्माओं तक सभी ने अपने पुरातन आदर्शों के प्रति भावात्मक प्रेम तथा उनकी अनुभति द्वारा हमारे समाज पर अपने प्रेरणादायी व्यक्तित्व की छाप छोड़ी।
-श्री माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर (श्री गुरु जी)
इससे यह समझ में आता है कि जो हमारे पुरातन सभ्यता है संस्कृति है हिंदू परंपराएं हैं इसको आगे बढ़ाने के लिए बच्चों में संस्कार देना जरूरी है जो हम अपने परिवार में बच्चों को दे सकते हैं और आगे बढ़ा सकते हैं
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