बुधवार, 11 जनवरी 2023

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत



देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत

गीता के दूसरे अध्याय ‘सांख्य योग’ में भगवान आत्मा रूपी अविनाशी तत्व के बारे में समझा रहे हैं। 30वें श्लोक में भगवान आत्मा को ‘देही’ कहते हैं - यानि वह जो देह-शरीर में रहता है। नित्यं अवध्योऽयं - कोई भी, कभी भी इस देही को मार नहीं सकता है। देहे सर्वस्य भारत - हे अर्जुन, सभी शरीरों में यह देही-आत्मा अविनाशी है।

सांसारिक जीवन में कोई मेरी कमीज ले जाता है, उससे मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता, मैं दूसरी कमीज पहन लेता हूँ। भगवान कहते है। सांसारिक जीवन जीते हुए जो इस परम तत्व को जान लेता है, वह भी इसी प्रकार शरीर का मोह नहीं रखता। व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से जितना शक्तिशाली होगा इस सत्य को जीवन के व्यवहार में व्यक्त करने की उसकी क्षमता उतनी ही अधिक होगी, उसमें अधिक साहस व सहनशीलता आ जाएगी। उदाहरणार्थ - हिटलर की नाजी जेल में एक यहूदी वैज्ञानिक Victor Franki भी कैद था - उन सबको भयंकर दबाव, यातनाऐं, बर्बरता, क्रूरता व पीड़ा में रखा जाता था। उस प्रकार की परिस्थितियों में अनेकों लोग मर गए, यह बचा रहा। बाद में उसने एक पुस्तक लिखी - Man's Search For Meaning - वह लिखता है - ”इतने दबावों व यातनाओं में वह टूट सकता था, लेकिन उसने स्वयं को अपने शरीर से पृथक कर लिया, जो हो रहा था, स्वयं को उसका साक्षी समझने लगा। वह इस पद्वति को Attitude Control - मनोवृत्ति का निग्रह कहता है।“ जो दूसरे आप के साथ करते हैं आप उसे नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन आप उन बातों के प्रति अपना दृष्टिकोण नियंत्रित कर सकते हैं। दूसरे केवल हमें थोड़ा कष्ट देते हैं, वे हम ही हैं जो इसे कई गुणा बढ़ा लेते हैं, मनोवृत्ति का यह निग्रह हमें बचा सकता है, इसके सतत् अभ्यास की आवश्यकता हैं| हम अपने स्वयं का रिमोट कन्ट्रोल दूसरों के हाथ में देने से बच जाते हैं , जब श्रीकृष्ण के इस उपदेश को व्यवहारिक आयाम देने का अभ्यास करते हैं। भगवद् गीता हमें यही बताती है कि इस आध्यात्मिक प्रकृति को मानवीय जीवन के संदर्भ में, कार्य और अन्तर-मानवीय सम्बन्धों के संदर्भ में जाना जा सकता है। इसके लिए पृथक से जीवन की कोई आवश्यकता नहीं है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - ‘जीवन स्वयं ही धर्म हैं, धर्म उस दिव्यता की अभिव्यक्ति है जो पहले से मानव में विद्यमान है। यह छुपी हुई है, इसे व्यक्त होने दो।’ अंग्रेज कवि Robert Browning अपनी एक कविता Paracelsus में इस देही-आत्मा को एक Imprisioned Splendour- बन्दी वैभव कहता है, हम सबमें यह वैभव छुपा है - उसे व्यक्त करना है - यही आध्यात्मिक जीवन है। यही कठोपनिषद कहता है - एष सर्वेषु भूतेषु गूढ़ो आत्मा न प्रकाशते - यह प्रत्येक प्राणी में है लेकिन छुपी हुई है, व्यक्त नहीं होती। हम इसकी अनुभूमि तो कर सकते हैं - यही आध्यात्मिक साधना हैं इस आत्मा का थोड़ा सा भी प्रकाश - अनुभव हमें मिलता है तो मानव सम्बन्धी सारी घृणा, हिंसा, शोषण चला जाएगा।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते

गीता के सांख्य योग नामक दूसरे अध्याय के 31वें श्लोक में भगवान कहते हैं - ‘एक क्षत्रिय के लिए केवल एक युद्ध से अधिक शुभ कुछ भी नहीं है।’ अर्थात् क्षत्रिय का धर्म लोगों की रक्षा करना हेाता है युद्ध यानि वर्तमान चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ। क्षत्रिय शब्द को यहाँ जातिवाचक शब्द के रूप में लेना उचित नहीं है। वे सभी क्षत्रिय हैं जो आज सांसारिक जीवन व्यवहार में प्रतिदिन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। भगवान आह्वान कर रहे हैं परिस्थितियों से भागो मत - सामना करो - युद्ध करो। हमें अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा की सहायता से संघर्ष कर परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करना है। यह युद्ध है - कर्म युद्ध - धर्म युद्ध। जीवन में श्रेयस्कर युद्ध लड़ने के अवसर आते हैं। हर संघर्ष या युद्ध उचित नहीं, दूसरों को अपने अधीन करने के लिए आक्रमणकारी युद्ध/कर्म कभी श्रेयस्कर नहीं हो सकता। एक कर्मयोद्धा-क्षत्रिय उस युद्ध को लड़ता है जिसके पीछे प्रेरणास्वरूप कोई महान उद्देश्य छिपा होता है। एक क्षत्रिय के लिए अपनी बुद्धि, योग्यता और मानवता के लिए प्रेम को व्यवहार में लाने के लिए कोई और अच्छा अवसर नहीं हो सकता, इसके अतिरिक्त कि वह ऐसे युद्ध में भाग ले जिनसे मानवीय मूल्य, स्वतंत्रता और व्यक्ति का महत्व स्थापित हो। भगवान आगे चलकर गीता में कहते हैं युद्ध से भागना, परिस्थितियों से डरकर पलायन करना मृत्यु के समान है। अंग्रेजी में कहा जाता है Death before Dishonour, असम्मान से पूर्व मृत्यु। आज इस आत्मसम्मान का भाव कम हो रहा है - धन या कुछ स्वार्थों की पूर्ति हेतु हम अपमान सहने को भी तैयार हो जाते हैं, लेकिन सदाचारी सम्मान चाहते हैं, वे धन से उसका विनिमय नहीं करते। कोलकाता के स्वर्गीय चितरंजन दास जी का उदाहरण हमारे सामने हैं - निर्धनता के कारण जिनके पिता का निधन ऋण और दिवालीयेपन में हुआ था। बड़े होने पर वकील बन पहले ही मुकदमे से जो धन उन्हें मिला तो सबसे पहला काम उन्होंने जो किया वो यह था कि वे न्यायालय गए और दिवालीयेपन के असम्मान से अपने स्वर्गीय पिता का नाम उन्होंने हटवाया, हालाँकि इसके लिए वो बाध्य नहीं थे। इसलिए भगवान अर्जुन के माध्यम से हमको कहते हैं - ”तस्मादुतिष्ठ कौन्तेय, युद्धाय कृतनिश्चयः“ (2.37) - हे अर्जुन, उठो और निश्चय पूर्वक युद्ध करो। मानो श्रीकृष्ण हमें कह रहे हैं - संकल्प करो, मैं भागूंगा नहीं, मैं इस समस्या का सामना करूँगा, इस निश्चय के साथ उठो। ये दिन प्रतिदिन की समस्याऐं हमारे लिए युद्ध की प्रकृति के समान ही हैं - हमें उन्हें जीतना है। एक मनुष्य के नाते दुनिया को हमें दिखा देना चाहिए कि हम वातावरण-परिस्थितियों के स्वामी हैं-उनके अनुगामी नहीं - इसी में हमारा पुरूषार्थ हैं| राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी लिखते हैं - ”चोटें खाकर बिफरो, कुछ और तनो रे, योगियों नहीं विजयी के सदृश्य जियो रे।।“ यह जीवन कठोर परिश्रम करने के लिए है, दुर्बल-आलसी या सोने वालों के लिए नहीं। एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक में यही संदेश है - उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणी न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

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