ब्राह्मणत्व-मानवीय विकास का लक्ष्य
भारत में मानवीय विकास एक मूलभूत विचार है, जिसमें व्यक्ति तमस् से रजस् और रजस् से सत्व में विकसित होता है। पूर्ण सत्व में प्रतिष्ठित हो जाने पर व्यक्ति अत्यन्त विकसित और अपने भीतर दिव्यता अभिव्यक्त करता हुआ एक विशिष्ट श्रेणी का हो जाता है। भारत में यही मानवीय विकास का लक्ष्य है। भारत का विश्वास है कि जिस समाज में ऐसे सात्विक, आध्यात्मिक, विकसित तथा अपने अन्दर के देवत्व को अभिव्यक्त करने वालों की संख्या सर्वाधिक होगी, वही समाज सर्वाधिक उन्नत होगा। मूलभूत वेदान्तिक समझ के अनुसार ऐसे व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहते हैं, न कि वर्तमान समय में दोषपूर्ण जातिप्रथा के संदर्भ में आने वाले व्यक्ति को।
‘ब्राह्ममण’ शब्द की सबसे प्राचीन परिभाषा हमें 4000 वर्ष पूर्व के बृहदारण्यक उपनिषद (3.8.10) में प्राप्त होती है- ”यो वा एतदक्षरं गार्गी अविदित्वा अस्ताम् लोकात् जैति, स कृपणो, अथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वा अस्ताम् लोकात् प्रैति, स ब्राह्मणः - हे गार्गी, जो व्यक्ति इस अक्षर (ब्रह्म) को जाने बिना ही इस लोक से चला जाता है वह कृपण या दीन है परन्तु जो इस अक्षर (ब्रह्म) को जानकर जाता है, वह ब्राह्मण है।“
भगवान बुद्ध ने भी ब्राह्मणत्व के आदर्श के प्रति परम सम्मान एवं प्रशंसा का भाव प्रकट किया था ‘सुत्त पिटक’ के अन्तर्गत आने वाले खुद्दक निकाय के अंश रूप महान बौद्ध ग्रन्थ ‘धम्मपद’ का ब्राह्मणवग्गो नामक अंतिम (26वां अध्याय) पूरा का पूरा ही ब्राह्मण आदर्श की प्रशंसा में है। उस अध्याय के कुछ श्लोकों का हिन्दी अनुवाद निम्न है -
श्लोक 3 - यस्य पारं अपारं व पारापारं न विद्यते।
निर्दरं च विसंयुक्तं तंअहं ब्रुमि ब्राह्मणाम्।।
मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ जिसके लिए न यह किनारा है न वह और न दोनों, वह जो भय तथा आसक्ति से रहित है।
श्लोक 6 - स ब्राह्मणो वाहितपापको यः समं चरेद्यः श्रमणः स उक्तः।
प्रवाजयति आत्ममलं च यस्मात् प्रवाजितोऽसावभिधयितेडतः।।
उसने बुराईयों को दूर कर दिया है, इसलिए वह ब्राह्मण कहलाता है, वह समभाव में रहता है इसलिए श्रमण कहलाता है, उसने अपनी अपवित्रताओं को दूर कर दिया है। अतः वह परिव्राजित है।
श्लोक 11 - न जटामिः न गोत्रेण न जात्या ब्राह्मणो भवेत्।
यास्मिन सत्यं च धर्मश्च स सुखी ब्राह्मणश्च सः।।
जटा, कुल या जाति से कोई ब्राह्मण नहीं होता है, जिसमें सत्य तथा धर्म हो, वही सुखी ओर ब्राह्मण है।
स्वामी विवेकानन्द ने भी मानव विकास के इस ब्राह्मणत्व के आदर्श का गुणगान किया है, साथ ही जातिवाद के दोषों पर तीव्र प्रहार व भर्त्सना भी की है।
उपनिषदों से लेकर बुद्ध तथा शंकराचार्य के दिनों तक हमें यही सिखाया गया कि वही व्यक्ति इस शब्द का द्योतक है, जिसने ब्रह्म की अनुभूति कर ली हो तथा जो प्रेम व दया से युक्त हो। अतः ब्राह्मण शब्द यह एक मानव प्रकार का परिचायक है-एक भाववाचक रूप है। भगवान श्री कृष्ण का जीवन भी इसीलिए था। शंकराचार्य जी कहते हैं- ”भौमस्य ब्राह्मणः ब्राह्मणत्वस्य रक्षणार्थ-भूमि के ब्रह्म और ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिए।“ वास्तव में आज का भ्रम इसलिए है कि लोगों को यह ज्ञात ही नहीं है कि पौरोहित्य ब्राह्मण (यानि जाति विशेष) भारतीय प्राचीन दर्शन व ज्ञान में अल्लिखित ब्राह्मण से भिन्न हैं मानवीय उत्कृष्टता का यह ब्राह्मण आदर्शन पूरे विश्व को सर्वत्र अपनाने योग्य है- सामाजिक विकास का यही लक्ष्य है। वर्तमान समाज शास्त्र का अधिकांश भाग समाज सांख्यिकी है, पर सच्चा समाज शास्त्र वह है जो मानव के आध्यात्मिक प्रगति एवं सामाजिक विकास पर बल देता है।
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