सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ
सुख और दुख, लाभ और हानि, विजय और पराजय - इन सब परिस्थितियों को एक मानकर - समान मानना यानि मन को समभाव में रखना - न एक में खुश होना, न दूसरे में दुखी - अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में मन को शांत व स्थिर रखना। यह एक अद्भुत विचार है परन्तु कठिन भी है। इसके लिए सतत् सावधानीपूर्वक जागरूक रहते हुए अभ्यास करना पड़ता है। जब भी हम महान उपलब्धियाँ प्राप्त करना चाहते हैं, तो उत्तेजित अवस्था में उन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता है। आज सामान्यतः हर आदमी उत्तेजित अवस्था में जी रहा है, इस स्थिति को बदलने हेतु इस विचार को एक मौन आन्दोलन में बदलने की आवश्यकता है। डॉ0 राधाकृष्णन जी ने एक जगह अपने भाषण में कहा था आधुनिक स्त्री-पुरूष आज Going about doing good- अच्छे काम को दिखाने में विश्वास करते हैं, लेकिन जब आप निकट जाकर गहराई व सूक्ष्मता से देखते हैं, तो It is more going about than doing good, यह करने की अपेक्षा करते दिखाना फिरना ज्यादा दिखाई देता है। इतनी उत्तेजना, हो-हल्ला और काम कम।
जानवर के अन्दर जब भी कोई प्रवृत्ति उभरती है, वह उसके मन को उद्धेलित करके तुरन्त किसी न किसी क्रिया द्वारा प्रत्तिक्रिया को व्यक्त करने को विवश करती है। जब तक हम अपने मन को प्रशिक्षित नहीं कर लेते हममें से अधिकांश की प्रतिक्रिया भी इसी प्रकार होती है। यदि क्रिया एक इकाई है तो प्रतिक्रिया दस इकाई भी हो सकती है और शून्य भी - इन दोनों के बीच अन्तर रखने के अभ्यास से ही हम इसे नियन्त्रित कर पायेंगे। गीता में आगे चलकर इसी स्थिति को स्थित प्रज्ञ कहा गया है। भगवान राम ने अपना उदाहरण हमारे सामने रखा है, न राजतिलक की सूचना पर हर्ष और न ही वनवास की आज्ञा पर शोक। यह अभ्यास तो हमें ही करना है। प्यासे घोड़े को पानी के पास तो लाया जा सकता है परन्तु पानी पीना तो अंततः उस घोड़े को ही पड़ेगा। अतः वेदान्त बार-बार इस बिन्दु पर बल देता है कि अपने चरित्र का निर्माण तुम्हें स्वयं करना है, दूसरों पर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। यह राष्ट्रीय उद्यमशीलता के जागरण का अवसर है। एक पुस्तक में मैकाले व उसके गुरू जॉन स्टुअर्ट मिल का संवाद था। Stuart Mill कहते हैं - ‘उद्यम के विषय में यह सदा परामर्श योग्य है कि अवसर में आगे रहना तथा भोग के विषय में अवसर के पीछे रहना'। जब हम यह सीखेंगे तभी राष्ट्र को चरित्र के सर्वोच्च शिखर पर ले जायेंगे। हमें यह सीखना ही होगा कि इस कार्य को करने हेतु कैसी क्षमता व कुशलता चाहिए - मन का प्रशिक्षण ही एकमेव उपाय है - भावनात्मक जोश कुशलता नहीं होता। एक प्रसिद्ध फ्रांसिसी मनोवैज्ञानिक ग्रे वॉल्टर -The Living Brain में कहते हैं - ”स्वतंत्र जीवन के लिए एक स्थिर आन्तरिक परिवेश पूर्व शर्त है। शरीर विज्ञान के भाग Neurology में Homeostasis- होमियोस्टेसिस का विचार है। होमियोस्टेसिस यानि शरीर में तापमान के संतुलन को बनाए रखने की क्षमता। हर स्तनधारी प्राणी में यह क्षमता होती है - कि बाहर का तापमान कुछ भी हो शरीर अपने अन्दर के तापमान को स्थिर व संतुलित कर पाता है। प्रकृति ने हमें यह शारीरिक होमियोस्टेसिस दिया है, अब आवश्यकता है कि हम स्वयं के प्रयासों द्वारा एक मानसिक होमियोस्टेसिस प्राप्त करें।"
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त्रैगुण्यविषया वेंदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2.45)
भगवान अर्जुन को कहते हैं - वेद तीन गुणों के बारे में विचार करते हैं - सत्व, रजस्, तमस् और तुम तीनों गुणों के पार चले जाओ यानि वेदों के भी पार चले जाओ। इस प्रकार की उपलब्धि हमें करनी है - शास्त्रों, पुस्तकों के परे, उस सत्य का अनुभव करके। भारत में प्रत्येक गुरू यही कहेगा - शास्त्रों को लो, उसमें बताए गए सत्य की उपलब्धि का प्रयास करो लेकिन सभी समय केवल पुस्तक पर मत लटकते रहो। अपनी पुस्तक ,'पंचदशी’ में ‘पू0 विद्यारण्य स्वामी’ बताते हैं -
ग्रन्थम्भ्यस्य मेधावी ज्ञान विज्ञान तत्परः।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् ग्रन्थम् अशेषतः।
जैसे कोई व्यक्ति चावल की खोज में है, वह धान को लेता है, उसे कूटता है, भूसी को फेंक देता है और पकाने व खाने के लिए चावल ले लेता है। इसी प्रकार मेधावी व्यक्ति पहले पुस्तकों का अध्ययन करता है, सभी पुस्तकें पढ़ने के बाद यदि ज्ञान प्राप्ति और उपलब्धि उद्देश्य है तो पुस्तकों में से जो ग्रहणीय है उसे लेकर पुस्तकों को छोड़ देता है। त्यजेत् ग्रन्थम् अशेषतः- पुस्तकों पर समस्त निर्भरता को फेंक दो, भारत में यही दृष्टिकोण रहा है। भगवान भी गीता के छठे अध्याय में कहते हैं - ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्मातिवर्तते - तब भी जब तुम आध्यात्मिक जीवन के प्रति जिज्ञासु हो, तुम पवित्र पुस्तकों के क्षेत्र से बाहर निकल जाओ।’ तुम्हें उनकी आगे आवश्यकता नहीं। केवल समस्या या विषय को समझने के लिए पुस्तक आवश्यक है। प्रयोग करने वाले व्यक्ति बनने के पश्चात् पुस्तकों के विद्यार्थी बने रहने की आवश्यकता नहीं - अपने अनुभवों से आगे बढ़ो। पुस्तकें आरम्भ करने के लिए तो उपयोगी हैं, केवल पुस्तकीय ज्ञान की विद्वता, धर्म व शिक्षा का उद्देश्य नहीं है। श्रीरामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं - ‘बिना आध्यात्मिक रूझान और अभ्यास के विद्वानों का व्यवहार गिद्धों जैसा होता है, ऊपर आकाश में ऊँचे उड़ते हुए भी उनकी दृष्टि जमीन पर पड़ी हुई लाशों पर ही होती है।’ व्यवहारिक जीवन में बिना प्रयोगों से प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभवों के शुष्क पुस्तकीय ज्ञान देना यह हमारी परम्परा नहीं है - वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इस ओर की कमी को दूर करने की आवश्यकता है जो आज Experiential Learning के रूप में एक नए क्लेवर में हमारे सामने आ रही है।
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राम राम अध्यात्म को विज्ञान की कसौटी पर कस के भी देखले दोनों एक दूसरे के सापेक्ष ही है
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