मंगलवार, 8 नवंबर 2022

तितिक्षा, सूख, आत्मनिरीक्षण, अध्यात्मिकता, गुरुत्वाकर्षण, शबरी के राम, तुलसी

 

 

तान् तितिक्षस्व भारत


गीता के दूसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान अर्जुन को कहते हैं - हे अर्जुन, ऐन्द्रिक विषयों से सम्पर्क आने पर यह तुम्हें कभी शीत, कभी गर्मी, कभी सुख, कभी दुख का अनुभव देगा, यही प्रकृति है लेकिन वे आते हैं और चले जाते हैं - हमेशा बने नहीं रहते, अतः इन्हें सहन करना चाहिए - तान् तितिक्षस्व भारत।

यह एक अद्भुत कथन है - जिसकी चिकित्सा नहीं - उसे सहन करना चाहिए -What can not be cured must be endured, चीजों को सहन करना- तितिक्षा- एक महान क्षमता है- यह व्यक्ति परक है यानि हर मनुष्य में अलग-अलग, किसी के पास अधिक तो कहीं कम। हमें इस क्षमता को अपने अंदर विकसित करना चाहिये। प्रत्येक को जीवन के परिवर्तन और अवसरों को सहन करने के लिए कुछ मानसिक बल विकसित करना चाहिए। एक व्यक्ति भगवान से प्रार्थना कर रहा था-‘हे प्रभु, मेरे अन्दर वह शक्ति, सामर्थ्य दो जिससे मैं जो बदलना चाहता हूँ वह बदल सकूँ, साथ ही वह शक्ति व सामर्थ्य भी दो जिससे मैं जो बदलना चाहता हूँ और बदल नहीं पा रहा तो उसको सहन कर सकूँ।’ सद्गुण, नैतिकता व इस प्रकार के आत्ममनस्थिति के बिना हम नहीं सफल हो पाऐंगे। जब हम समुद्र में तैरते हैं तो बड़ी-बड़ी लहरें आती हैं। कुशल तैराक बड़ी लहरों के आने पर नीचे झुक जाते हैं, उनके चले जाने के बाद ही वे ऊपर आते हैं। इस प्रकार वे सदैव लहरों के प्रतिकूल रहकर भी तैरते रहते हैं, क्योंकि वे हमेशा नहीं रहती। इसलिए यह विचार-तां तितिक्षस्व-उन्हें सहन करो क्योंकि वे अनित्याः हैं, सदैव विद्यमान नहीं रहेंगी। यह थोड़ा सा धैर्य महान परिवर्तन ला सकता है। जब हम दुर्बल मानस के हाते हैं तो अवांछनीय परिस्थिति का पहला आघात ही हमें तोड़ देता है। अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध गीत है - We shall overcome, We shall overcome, One day- हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, एक दिन।

आद्य गुरू शंकराचार्य जी विवेकचूड़ामणि के एक श्लोक (2-4) में इसे परिभाषित करते हैं - ”सहनं सर्वदुःखानां अप्रतिकारपूर्वकम्ः चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते“ - सभी दुखों को बिना चिन्ता के और बिना रोये तथा प्रतिकार की भावना के बिना सहन करना तितिक्षा कहलाता है।

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झूठा सुख


          एक बार एक नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरन्त उस पर आ बैठा। जी भरकर मांस खाया। नदी का जल पिया।  उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली।    वह सोचने लगा, अहा ! यह तो अत्यन्त सुन्दर मान गई हैं, यहाँ भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूँ ? कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता।  अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।  नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किन्तु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहाँ उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी। कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किन्तु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया। शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती हैं, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते हैं।

 आत्मनिरीक्षण 

वैयक्तिक दोष-दुर्गुण की कँटीली झाड़ियाँ प्रगति के पथ को अवरुद्ध और दुरूह बनाती है । यह दुर्गुण और कुछ नहीं, उन विचारों के प्रतीक प्रतिनिधि हैं,जिन्हें बहुत समय से, ज्ञात या अविज्ञात रूप से मन:क्षेत्र में संजोए जमाए रखा गया है । सर्प के काटने पर उसका विष एक बूँद ही रक्त में प्रवेश करता है, पर वह कुछ ही देर  में  समस्त शरीर  में फैल जाता है और अपना असर दिखाता है । कुविचार सर्प-दंश की तरह हैं, वे ही अपना विस्तार करके दोष-दुर्गुणों के रूप में फैल जाते हैं ।

कचरे के ढेर को हम घर में कितने समय तक रख सकते हैं कुछ समय की अवधि के बाद तो दुर्गंध फैलेगी ही ना ?

 कहने की आवश्यकता नहीं कि "आंतरिक शत्रु- मनोविकार" बाहर के शस्त्र धारी शत्रुओं की अपेक्षा हजार गुने अधिक बलिष्ठ और घातक होते हैं ।क्षतिग्रस्त दुर्बल और मरणासन्न शरीर वस्तुतः उस रोग के विषाणुओं का ही खाया होता है । घुन का कीड़ा चुपचाप लगा रहता है और विशाल शहतीर को खोखला कर देता है  । "कुविचार" विषाणुओं से अधिक घातक और घुन से अधिक अदृश्य होते हैं । वे भीतर जमकर बैठ जाते हैं और गुण, कर्म, स्वभाव की सारी संपदा को खोखली और विषाक्त बना देते हैं ।हमें अगर जीवन को सही दिशा में लेकर जाना है इस पर हमें ध्यान देना ही होगा !और हमें अपनी मनोदशा को सुधारना ही पड़ेगा!ओछे स्वभाव के, आदर्श रहित और लक्ष्य विहीन व्यक्ति जीवन की लाश ढोते रहते हैं । उनके मनोरथ सफल हो नहीं सकते क्योंकि प्रगति के लिए, प्रखर व्यक्तित्व की आवश्यकता है । "सफल" जीवन जीने  की आकांक्षा यदि साकार करनी हो तो पहला कदम "आत्मनिरीक्षण" का उठाया जाना चाहिए । अपने विचारों, मान्यताओं और अभिमान की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जितने भी अवांछनीय तत्त्व हों उनका उन्मूलन करने के लिए संकल्प पूर्वक जुट जाना चाहिए । "संकल्प शक्ति" की साधना और "आत्मनिरीक्षण" से व्यक्तित्व को इच्छित ऊँचाई पर पहुँचाया जा सकता है !देश में जितने भी विद्वान हुए हैं सबने जीवन में कठिन परीक्षाएं दी है और किसी ना किसी परेशानी से जीवन में गुजरे हैं जीवन में आने वाली परेशानी का मतलब यह नहीं कि हम हिम्मत हार जाएं और मन में बैठे हुए विषाक्त कीड़े की वजह से अपने आप को भस्म कर ले! हमको चाहिए कि किसी भी आदर्श पुरुष के जीवन से कुछ सीखे और जीवन में आगे बढ़े !जीवन में तप करते हुए तपस्या करते हुए अपने और अपने परिवार को आगे बढ़ाते हुए अपने समाज को आगे बढ़ाते हुए सार्थक जीवन जिए,यही हमारे जीवन की उपलब्धता होगी और इस पृथ्वी पर आने का उद्देश्य पूर्ण होगा-अरविन्द भारद्वाज

आध्यात्मिकता 

अध्यात्म कायरों और अकर्मण्यों का मार्ग नहीं अपितु कायरता और अकर्मण्यता का त्याग करने वालों का मार्ग है। अधिकांशतया लोगों की दृष्टि में अध्यात्म का मतलब सिर्फ वह मार्ग है जहाँ से कायर लोग अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं। अध्यात्म का मतलब छोटी जिम्मेदारियों से बचना तो नहीं मगर छोटी-मोटी जिम्मेदारियों का त्यागकर एक बड़ी जिम्मेदारी उठाने का साहस करना जरूर है। सोचो! अध्यात्म अगर कमजोर लोगों का ही मार्ग होता तो फिर बालपन में ही शेर के दाँत गिन लेने की सामर्थ्य रखने वाले आचार्य महावीर और आचार्य बुद्ध जैसे लोग इस पथ से ना गुजरे होते। स्वयं की चिंता को त्यागकर स्वयंभू (शंभू) के चिंतन का नाम ही अध्यात्म है। और स्वयं के कष्टों का विस्मरण कर सृष्टि के कष्टों के निवारण की यात्रा ही वास्तविक अध्यात्मिक यात्रा है।सुखी जीवन जीने का सिर्फ एक ही रास्ता है वह है अभाव की तरफ दृष्टि ना डालना। आज हमारी स्थिति यह है जो हमे प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं, वरन जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन करके जीवन को शोकमय कर लेते हैं। दुःख का मूल कारण हमारी आवश्कताएं नहीं हमारी इच्छाएं हैं। हमारी आवश्यकताएं तो कभी पूर्ण भी हो सकती हैं मगर इच्छाएं नहीं। इच्छाएं कभी पूरी नहीं हो सकतीं और ना ही किसी की हुईं आज तक। एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है। इसलिए शास्त्रकारों ने लिख दिया आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखं दुःख का मूल हमारी आशा ही हैं। हमे संसार में कोई दुखी नहीं कर सकता, हमारी अपेक्षाएं ही हमे रुलाती हैं।  अति इच्छा रखने वाले और असंतोषी हमेशा दुखी ही रहते ।

सफल जीवन के तीन सूत्र

      जीवन में कोई भी चीज इतनी खतरनाक नहीं जितना भ्रम में और डांवाडोल की स्थिति में रहना है। आदमी स्वयं अनिर्णय की स्थिति में रहकर अपना नुकसान करता है। सही समय पर और सही निर्णय ना लेने के कारण ही व्यक्ति असफल भी होता है। यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं ? महत्वपूर्ण यह है कि आप स्वयं के बारे में क्या सोचते हैं ? स्वयं के प्रति एक क्षण के लिए नकारात्मक ना सोचें और ना ही निराशा को अपने ऊपर हावी होने दें। सफल होने के लिए तीन बातें बड़ी आवश्यक हैं। सही फैसले लें, साहसी फैसले लें और सही समय पर लें। आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि प्रयास की अंतिम सीमाओं तक पहुंचा जाए।

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गुरुत्वाकर्षण

कहते हैं न्यूटन ने सेब फल को गिरते देखा और गुरुत्वाकर्षण का पता लगाया,,, एक सेब को गिरते देख लिया और पृथ्वी के अंदर गुरुत्वाकर्षण खोज लिया,,

वाह रे मेरे खोजी,,, कितनी चीजें ऊपर को उठ रही थी,, भांप बनकर जल ऊपर उठते हैं,, पौधे बनकर बीज ऊपर उठते हैं,, अग्नि को कहीं भी जलाओ ऊपर की तरफ उठती है,, फिर ये नियम क्यों नहीं खोजा की ये ऊपर किस कारण उठते हैं,,,

ऋषि कणाद ने हजारों साल पहले वैशेषिक दर्शन में गुरुत्वाकर्षण का कारण बताया,

संयोगाभावे गुरुत्वातपतनम--५-१-७,,

यानी कोई भी वस्तु जब तक कही न कहीं उसका जुड़ाव है वो नीचे नहीं गिरेगी,, जैसे आम या सेब का टहनी से संयोग,जब तक संयोग है तब तक पृथ्वी में कितना भी आकर्षण है वो वस्तु को अपनी तरफ खींच नहीं सकती,, जैसे ही संयोग का अभाव हुआ गुरुत्व के कारण वस्तु खुद पृथ्वी पर गिर जाएगी,,

2--संस्काराभावे गुरुत्वात पतनम--५-१-१८

आगे बढ़ते हुए ऋषि कणाद कहते हैं कि अगर किसी वस्तु में संस्कार है तब भी पृथ्वी उसे अपनी तरफ नहीं खींच सकती,, संस्कार का अभाव होने पर ही वस्तु गुरुत्व के कारण पृथ्वी पर गिरेगी,,

संस्कार ऋषि ने तीन प्रकार के बताए,1-वेग, 2-भावना, 3-स्थितिस्थापक,

तो इन तीन में से वेग संस्कार जिस वस्तु में है,,, जैसे तीर में हम धनुष से वेग उत्त्पन्न करते हैं,, तो वह गति करता है,, जैसे ही वेग संस्कार खत्म होगा,, उतनी दूर जाकर वह अपने गुरुत्व के कारण जमीन पर गिर जाएगा,,,

पूरी पृथ्वी पर हमारे वैदिक ऋषियों के सिद्धांत हैं,, लेकिन फिर भी हम उन्हें दूसरों के नाम से पढ़ने पर मजबूर हैं,,अपने वेद शास्त्रों की ओर लौट आओ दोस्तों,,कुछ नहीं है अंधी पश्चिमी दौड़ मे,अपनी संस्कृति,, अपना गौरव ,साभार

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शबरी के राम 

शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगीं ।

शबरी की उम्र "दस वर्ष" थी । वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगीं ।

महर्षि शबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे । शबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे, तुम यहीं प्रतीक्षा करो ।"

अबोध शबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा, उसने फिर पूछा- "कब आएंगे..?"

महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे । वे भूत भविष्य सब जानते थे, वे ब्रह्मर्षि थे । महर्षि शबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए और शबरी को नमन किया ।

 आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए ।  ये उलट कैसे हुआ । गुरु यहां शिष्य को नमन करे, ये कैसे हुआ ???

महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका ।

महर्षि मतंग बोले- 

पुत्री अभी उनका जन्म नहीं हुआ ।

अभी दशरथ जी का लग्न भी नहीं हुआ ।

उनका कौशल्या से विवाह होगा । फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी । 

फिर दशरथ जी का विवाह सुमित्रा से होगा । फिर प्रतीक्षा..

फिर उनका विवाह कैकई से होगा । फिर प्रतीक्षा.. 

फिर वो "जन्म" लेंगे, फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा । फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा । तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे । तुम उन्हें कहना आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये । उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये, आपका अभीष्ट सिद्ध होगा । और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे ।

शबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई । "अबोध शबरी" इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नहीं पाई ।

वह फिर अधीर होकर पूछने लगी- "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव ???"

महर्षि मतंग बोले- "वे ईश्वर हैं, अवश्य ही आएंगे । यह भावी निश्चित है । लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं । लेकिन आएंगे "अवश्य"...!

जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थेक्ष। इसलिए प्रतीक्षा करना । वे कभी भी आ सकते हैं । तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे । शायद यही मेरे तप का फल है ।"

शबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गईं । उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थीं । वह जानती थीं समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता है, वे कभी भी आ सकतें हैं । 

हर रोज रास्ते में फूल बिछाती है और हर क्षण प्रतीक्षा करती ।

कभी भी आ सकतें हैं ।

हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा । शबरी बूढ़ी हो गई । लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही ।

और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े । शबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया । आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी ।

गुरु का कथन सत्य हुआ । भगवान उसके घर आ गए । शबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नहीं खिलाया, उन्हीं राम ने शबरी का जूठा खाया ।

ऐसे पतित पावन मर्यादा, पुरुषोत्तम, दीन हितकारी श्री राम जी की जय हो । जय हो । जय हो.। एकटक देर तक उस सुपुरुष को निहारते रहने के बाद वृद्धा भीलनी के मुंह से स्वर/बोल फूटे-

"कहो राम ! शबरी की कुटिया को ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ..?" राम मुस्कुराए- "यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मोल/मूल्य..?" "जानते हो राम ! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ, जब तुम जन्मे भी नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो ? कैसे दिखते हो ? क्यों आओगे मेरे पास ? बस इतना ज्ञात था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा, जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा । राम ने कहा- "तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है ।”

"एक बात बताऊँ प्रभु ! भक्ति में दो प्रकार की शरणागति होती है । पहली ‘वानरी भाव’ और दूसरी ‘मार्जारी भाव’ ।

”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न...  उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है । यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है । दिन रात उसकी आराधना करता है...!” (वानरी भाव) पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया । ”मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी, जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है । मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना...।" (मार्जारी भाव)

राम मुस्कुराकर रह गए..!!

भीलनी ने पुनः कहा- "सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... “कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं !" तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी ।  यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते..?”

राम गम्भीर हुए और कहा-

भ्रम में न पड़ो मां ! “राम क्या रावण का वध करने आया है..?” रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चलाकर भी कर सकता है । राम हजारों कोस चलकर इस गहन वन में आया है, तो केवल तुमसे मिलने आया है माँ, ताकि “सहस्त्रों वर्षों के बाद भी, जब कोई भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे, कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिलकर गढ़ा था ।” "जब कोई भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़कर कहे कि नहीं ! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ, एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है ।"

राम वन में बस इसलिए आया है, ताकि “जब युगों का इतिहास लिखा जाए, तो उसमें अंकित हो कि "शासन/प्रशासन और सत्ता" जब पैदल चलकर वन में रहने वाले समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे, तभी वह रामराज्य है ।”

(अंत्योदय)

राम वन में इसलिए आया है, ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं । राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया है माँ !

माता शबरी एकटक राम को निहारती रहीं ।

राम ने फिर कहा-राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता ! “राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के आदर्श की स्थापना के लिए ।” "राम राजमहल से निकला है, ताकि “विश्व को संदेश दे सके कि एक माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है ।” राम निकला है, ताकि “भारत विश्व को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है ।”"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को बता सके कि अन्याय और आतंक का अंत करना ही धर्म है ।”"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को सदैव के लिए सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाए ।” और"राम आया है, ताकि “युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं ।”शबरी की आँखों में जल भर आया था ।उसने बात बदलकर कहा-  "बेर खाओगे राम..?”राम मुस्कुराए, "बिना खाये जाऊंगा भी नहीं माँ !"शबरी अपनी कुटिया से झपोली में बेर लेकर आई और राम के समक्ष रख दिये ।राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा- "बेर मीठे हैं न प्रभु..?” "यहाँ आकर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ माँ ! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है ।”शबरी मुस्कुराईं, बोली-   "सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम !"

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तुलसी 

तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था |वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी |एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये।

सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये। सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी।उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है ।  

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शनिवार, 5 नवंबर 2022

जानकारी काल नवम्बर - 2022 हिंदी मासिक

 हिंदी मासिक 

जानकारी काल 

   वर्ष-23,        jaankaarikaal.com    अंक-04,  नवम्बर-2022,   पृष्ठ 54,    मूल्य 2-50    

 


जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥ 

पापु पुंनु तह भई कहावत ॥ कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥ 

आल जाल माइआ जंजाल ॥ हउमै मोह भरम भै भार ॥ 

दूख सूख मान अपमान ॥ अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥ 

आपन खेलु आपि करि देखै ॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै ||

 जब प्रभु ने स्वयं जगत की खेल रच दी, और माया के तीन गुणों का पसारा पसार दिया,तब ये बात चल पड़ी कि ये पाप है ये पुण्य है, तब कोई जीव नर्कों का भागी और कोई स्वर्गों का चाहवान बना।घरों के धंधे,माया के बंधन,अहंकार,मोह,भुलेखे,डर,दुख,सुख,आदर,निरादरी- ऐसी कई किस्मों की बातें चल पड़ीं। हे नानक! प्रभु स्वयं तमाशा रच के स्वयं देख रहा है। जब इस खेल को समेटता है तो एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है।


संरक्षक

 श्रीमान कुलवीर शर्मा

कमहामंत्री समर्थ शिक्षा समिति

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प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य


 प्रधान संपादक व  प्रकाशक

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 सौरभ  शर्मा,कपिल शर्मा,

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प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F,

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        अनुक्रमणिका

सम्पादकीय   - 3   

देव ऋषि  नारद   - 4   लेख

भारतीय अर्थव्यवस्था  व मंदिर - 5 लेख  

खगोल शास्त्र भारत की दुनिया को देन - 7  लेख 

बालक,बालिका शिक्षा -11  लेख  

बेटिया दो कुलो को महकती है - 15  कहानी  

रिश्तो में बदलाव  - 17 कहानी  

तुम्हरी याद  - 19 कविता  

चिंतन - 20  लेख

नवम्बर मास के महत्वपूर्ण दिवस व महापुरुष के जन्म दिन - 21

संघ के मोन तपस्वी - 27   लेख  

मासिक पंचांग,पंचक विचार,भद्रा विचार,नवम्बर मास के व्रत,

सर्वार्थ सिद्ध योग,मूल विचार - 29  ज्योतिष

मोती रत्न   - 33  ज्योतिष   

शुक्र ग्रह  - 34 ज्योतिष 

देव उठावनी  एकादशी कथा  - 35 कथा

उत्पन्ना एकादशी कथा  - 36 कथा

तुला राशी  - 37  ज्योतिष 

संस्कृत में अक्षर का चमत्कार  - 38 कहानी 

असली शांति  - 39   कहानी 

एंजायटी  ,तनाव ,घवराहट ,चिंता दूर करे  - 41 लेख  

मुन्ना का प्यार  - 42 कहानी  

मोन की भाषा  - 44 कविता 

गजल - 45  गजल 

सम्बन्ध -46   कहानी 

कोयला और चन्दन -47

ज्ञान व चरित्र -48 कहानी 

ज्ञानार्जन -50 कहानी 

दोस्ती की परख - 52 कहानी 

ड्राई फ्रूट के स्वादिस्ट लड्डू -53 अपनी रसोई 

तुलसी -54  कथा 




सम्पादकीय 

 

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।।

 अर्थात-अचानक ( आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है | ( इसके विपरीत ) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है ; गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।

विनम्रता अर्थात् जिसमें लचीलापन है, जो आसानी से मुड़ जाता है, वह टूटता नहीं । नम्रता में जीने की कला है, शौर्य की पराकाष्ठा है । नम्रता में सर्व का सम्मान संचित है । नम्रता हर सफल व्यक्ति का गहना है । नम्रता ही बड़प्पन है । दुनिया में बड़ा होना है तो नम्रता को अपनाना चाहिए । संसार को विनम्रता से जीत सकते हैं । ऊंची से ऊंची मंजिल हासिल कर लेने के बाद भी अहंकार से दूर रहकर विनम्र बने रहना चाहिए । विनम्रता के अभाव में व्यक्ति पद में बड़ा होने पर भी घमंड का ऐसा पुतला बनकर रह जाता है जो किसी के भी सम्मान का पात्र नहीं बन पाता । स्थान कोई भी हो, विनम्र व्यक्ति हर जगह सम्मान हासिल करता है । जहां विरोध हो जहां प्रतिरोध और बल से काम नहीं चल सकता । विनम्रता से ही समस्याओं का हल संभव है । विनम्रता के बिना सच्चा स्नेह नहीं पाया जा सकता । जो व्यक्ति अहं कार और वाणी की कठोरता से बचकर रहता है वही सर्वप्रिय बन जाता है ।

 इस सृष्टि में सब कुछ परिवर्तनशील है। इस भू मण्डल पर शाश्वत जैसा कुछ भी नहीं। समस्त चराचर जगत को प्रकाशित करने वाले सूर्य देव की किरणों को भी कुछ समय के लिए ही सही मगर पृथ्वी तक पहुँचने में असमर्थता हो जाती है अथवा पृथ्वी से सूर्य किरणों का ह्रास हो जाता है। जीवन में सदैव अवरोध आते रहेंगे। यात्रा जितनी लंबी होगी अथवा लक्ष्य जितना श्रेष्ठ होगा अवरोध भी उतने ही उत्पन्न होंगे। बस उन क्षणों में धैर्य का परिचय देते हुए ये विचार करें कि जब सुख ही शाश्वत नहीं रहा तो दुख की क्या औकात है..? समय बुरा हो सकता है मगर जीवन कदापि नहीं। ये वक्त भी गुजर जायेगा, बस इतना ध्यान रहे। 

एक महत्वपूर्ण बात और वो ये कि जिस प्रकार ग्रहण लगने पर भी मूल रूप से भगवान सूर्य नारायण में कोई परिवर्तन नहीं आता। दूर से देखने पर लगेगा कि सूर्य पर अंधेरा छा गया है जबकि यथार्थ में सूर्य की स्थिति सम बनी रहती है। ऐसे ही जीवन के सुख - दुख, मान - अपमान, अनुकूलता - प्रतिकूलता एवं यश - अपयश में आत्मा भी निर्लेप ही रहती है। जीवन में बाहरी स्थितियाँ अवश्य परिवर्तनशील हैं मगर आत्मा सदैव इन सब से परे अपनी आनंद अवस्था में ही रहती है। बस हमारी दृष्टि बदल जाए और ये भीतर का शाश्वत आनंद हमारे जीवन में भी छलक पड़े।

 

 

देवऋषि नारद

यह तो हम सभी ने प्रत्यक्ष देखा है की टीवी सीरियल वालों ने हमारे देवी देवताओं तथा इतिहास के बारे में बहुत सी भ्रांतियां हमारे समाज मे फैलाई है।  स्वयं संचार के देवता नारद भी इससे बच नही सकें ।। टीवी सीरियल एवं प्रचार के तंत्रों ने नारदजी को एक हास्य पात्र के रूप में ही प्रदर्शित किया है ....

जबकि नारदजी इतने महान व्यक्तित्व है, की उनके नाम से एक पुराण तक है ।। वह ब्रह्मा के 6 मानस पुत्रो में से एक है, और विष्णु के अवतार है । नारदजी ने ब्रह्मलोक प्राप्त किया है, श्रीभगवतगीता में भगवान कृष्ण नारदजी के विषय मे कहते है ..... देवर्षीणाम् च नारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। 

श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे और इस प्रकार, उन्हें ऋषिराज के नाम से भी जाना जाता था।

और नारदजी का ज्ञान एवं स्वाध्याय भी तो देखिए ....

ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि , यजुर्वेदं , सामवेदमाथर्वणं चतुर्थम् , इतिहासपुराणं पञ्चं , वेदानां वेदं , पित्र्यं , राशिं , दैवं , निधिं , वाकोवाक्यमेकायनं , देवविद्यां , ब्रह्मविद्यां , भूतविद्यां , क्षत्रविद्यां , नक्षत्रविद्यां , सर्प देवजनविद्याम् , एतद्भगवोऽध्येमि । - छान्दो ० उ ० ७।१।२ 

अर्थ - नारदजी ने कहा- मैं ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद- चारों वेदों को जानता हूँ । 

इनके अतिरिक्त इतिहास पुराण ( ब्राह्मण तथा कल्पादि ) वेदों का वेद - व्याकरण तथा निरुक्त , पित्र्य- वायुविज्ञान , राशि- गणितविद्या , दैव - प्रकृतिविज्ञान , निधि - भूगर्भविद्या , वाकोवाक्य तर्कशास्त्र , एकायन ब्रह्मविज्ञान , इन्द्रिय - विज्ञान , भक्ति शास्त्र , पञ्चभूतज्ञान , धनुर्वेद , ज्योतिष शास्त्र , सर्पविज्ञान , देवजन - विज्ञान- सर्पों को वश में करनेवाली गन्धर्व विद्या को मैं जानता हूँ । इतना मैंने अध्ययन किया है । यह है महर्षि नारद का अद्भुत स्वाध्याय ।।

नारदजी जैसे चरित्र भारतीय छात्रों एवं अन्य सभी नागरिकों के लिए आदर्श चरित्र होने चाइये, लेकिन दुर्भाग्य देखिए, नारदजी की पवित्र भूमि में ही, विदेशियों ने नारदजी का ही भरपूर अपमान करने का प्रयास किया है ।

 

 

 

 

 

भारतीय अर्थव्यवस्था व मंदिर 

 

लोग अकसर सवाल उठाते हैं.... ये मंदिर या तीर्थ स्थल बनाने से क्या फायदा होता है.... इससे अच्छा तो स्कूल या हॉस्पिटल ही बनवा दो | लेकिन यह लोग Economics का Basic भूल जाते हैं....स्कूल अस्पताल बनाने के लिए भी पैसा चाहिए... और इन सुविधाओ को इस्तेमाल करने के लिए भी पैसा ही चाहिए... वो कैसे किया जाए?? उसके लिए चाहिए आपको Economic Activity,उदाहरण के लिए केदारनाथ धाम को ही देखिये....2013 में यह धाम पूरी तरह बर्बाद हो गया था... अब इसे वापस बना लिया गया है.....पहले से बेहतर सुविधाएं तैयार कर दी गयी हैं... और इस साल यहाँ record तोड़ कमाई हुई है लोगों की | 1 अरब रूपए से ज्यादा तो मात्र घोड़े वालों ने इस सीजन में कमाये हैं...हेलीकाप्टर कंपनियों ने 75 करोड़ से ज्यादा की कमाई की.... जो लोग यात्रियों को लाठी डंडी देते हैं, उन्होंने ही 86 लाख की कमाई की है.... होटल, धर्मशाला, Cab, Bus, Train, ढाबे, चाय पानी नाश्ते वालों और किराने आदि की दुकानों  वालों ने भी करोड़ों कमाये.... पिट्ठू वाले, फूल माला वाले, पूजा पाठ कराने वाले पंडितों आदि ने भी अच्छा खासा कमाया है | कुल मिलाकर एक मंदिर होने से सैंकड़ो करोड़ रूपए की economic activity हुई है, जिससे लाखों लोगों की कमाई हुई है | कुछ साल पहले इलाहबाद का नाम बदल कर प्रयागराज रखा गया था.... वहाँ इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने और अन्य कामों में लगभग 4000 करोड़ खर्च किये गए थे.....तब भी लोगों ने हल्ला मचाया....बोले कि नाम बदलने से क्या फर्क पड़ेगा.....लेकिन वह भूल गए कि प्रयागराज नाम ही अपने आप में बहुत बड़ा brand है... जो लोगों को आकर्षित करेगा | और वही हुआ भी.... कुम्भ मेले के दौरान ही 1,20,000 करोड़ से ज्यादा का revenue generate हुआ.... लाखों लोगों ने साल भर जितनी कमाई कर ली थी.

अब आइये काशी..... जहाँ कॉरिडोर बनाने पर करोड़ों खर्च किये गए.... लेकिन आज उसे ही देखने के लिए हर साल करोड़ों लोग काशी आ रहे हैं.... पहले से कहीं अधिक संख्या में Tourist आ रहे हैं.... और हिसाब किताब करें तो एक साल में कई हजार करोड़ का revenue यहाँ से generate होगा.

अयोध्या को ही देख लीजिये.... राम मंदिर निर्माण शुरू होने के बाद शहर में बदलाव आने लगा है..... हजारों करोड़ के projects बन रहे हैं... वहीं हर साल दीपोत्सव मनाया जाने लगा है... इस वजह से ना सिर्फ शहर के इंफ्रास्ट्रक्चर में बदलाव आया है, बल्कि अयोध्या भी अब एक बड़े brand के तौर पर फिर से उभर रहा है.

याद रखिये.. जिस दिन राम मंदिर बन कर तैयार होगा.... यह दुनिया में Top-3 Pilgrimage Center में से एक होगा.... जहाँ हर वर्ष लाखों करोड़ों का revenue बनेगा.

हिंदुत्व की खासियत ही यही है.... हमारा धर्म समाज के हर भाग से जुडा है... Economics भी वक महत्वपूर्ण भाग है किसी भी समाज या देश का.... सौभाग्य से यह सोच हमारे पूर्वजो में पहले से रही है, इसीलिए मंदिर, त्यौहार, तीर्थ यात्रा और मेले... यह हजारों सालों से हमारे देश में Economic activity के लिए Catalyst का काम करते आ रहे हैं.....

धर्म और इकोनॉमिक्स के इस गठजोड़ को समझने के लिए आपको Oxford से डिग्री लेने की जरूरत नहीं है और नहीं हेवर्ड इकोनॉमिस्ट बनने की ... Common Sense ही बहुत है 

 

 

खगोलशास्त्र – भारत की दुनिया को देन

– प्रशांत पोळ

कुछ वर्ष पहले, अर्थात् एकदम सटीक कहें तो अप्रैल 2016 से, मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में सिंहस्थ कुम्भ मेले का आयोजन हुआ। उज्जैन जैसे छोटे से शहर में लगभग 2 से 3 करोड़ लोग मात्र महीना/डेढ़ महीना की कालावधि में आए, उन्होंने क्षिप्रा नदी में स्नान किया और पुण्य कमा कर वापस लौटे। इसी उज्जैन में एक ऐतिहासिक इमारत खड़ी है, जिसका नाम है – वेधशाला। कुम्भ मेले में आए हुए कितने श्रद्धालुओं ने वेधशाला देखी, इसकी जानकारी नहीं है। परन्तु यह वेधशाला हमारी प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा का खुला हुआ द्वार है, और इससे मिलने वाला ज्ञान है खगोलशास्त्र का…!

राजस्थान स्थित आमेर के राजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने सन् 1733 में इस वेधशाला का निर्माण किया था। उस समय वे मालवा प्रांत के सूबेदार थे। उज्जैन के अलावा राजा जयसिंह ने दिल्ली, काशी, मथुरा और जयपुर में भी ऐसी ही वेधशालाओं का निर्माण किया। सबसे पहली वेधशाला बनी दिल्ली में, सन् 1724 में, जिसे जंतर मंतर कहा गया। उन दिनों दिल्ली में 

मुगल बादशाह थे, मोहम्मद शाह। इनके समय हिन्दू और मुस्लिम खगोलशास्त्रियों के बीच कालगणना की सूक्ष्मता को लेकर बहस छिड़ी। तब भारतीय कालगणना की अचूकता को सिद्ध करने के लिए राजा जयसिंह ने इसे बनाया। इसका निर्माण होने के बाद जब यह पाया गया कि इसके द्वारा प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण एकदम सटीक होता है, तब चार अन्य वेधशालाओं का भी निर्माण किया गया।

राजा सवाई जयसिंह खगोलशास्त्र के अच्छे जानकार थे। संस्कृत पर उनका खासा प्रभुत्व था। साथ ही, मुगलों की संगत में रहकर उन्होंने अरबी और फ़ारसी भाषाएं भी सीख ली थीं। मजे की बात यह कि सवाई जयसिंह को मराठी भाषा भी अच्छे से आती थी। क्योंकि इन्होंने काफी समय औरंगाबाद, दौलताबाद, नगर इत्यादि स्थानों पर बिताया था। जब औरंगजेब अपनी चतुरंग सेना लेकर छत्रपति संभाजी महाराज को परास्त करने और हिन्दवी स्वराज्य को नष्ट करने महाराष्ट्र में घुसा, तब उसने राजा जयसिंह को अपनी सेना में शामिल होने का फरमान सुनाया। उस समय जयसिंह की आयु मात्र 14 वर्ष ही थी। राजा जयसिंह ने बहुत टालमटोल की। अंततः जब औरंगजेब के दूत स्वयं आमेर पहुंचे, तब जयसिंह को आना ही पड़ा।

ऐसा कहा जाता है कि, सवाई जयसिंह ने महाराष्ट्र के उस व्यस्त कालखंड में भी वहां के कई ग्रंथों का अध्ययन करने का प्रयास किया और महाराष्ट्र से कई ग्रन्थ अपने पास इकट्ठे भी किए।

राजा जयसिंह को खगोलशास्त्र में निपुण करने का श्रेय जाता है एक मराठी व्यक्ति को, जिनका नाम था पंडित जगन्नाथ सम्राट। भले ही इनके नाम में सम्राट लगा हुआ हो, परन्तु यह राजा जयसिंह को वेद सिखाने के लिए नियुक्त किए गए एक ब्राह्मण मात्र थे। इन जगन्नाथ पंडित का खगोलीय ज्ञान जबर्दस्त था। इन्होंने ‘सिद्धांत कौस्तुभ’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी, तथा यूक्लिड की ज्यामिति का अरबी से संस्कृत में अनुवाद भी किया था।

सम्राट जगन्नाथ के नेतृत्व में राजा सवाई जयसिंह ने वेधशाला के निर्माण में कहीं भी किसी धातु का उपयोग नहीं किया। यूरोपीय वैज्ञानिकों द्वारा धातुओं के उपकरण उपयोग करने के कारण एवं उन धातुओं में बदलते मौसम के अनुसार आकुंचन/प्रसरण होते रहने के कारण अनेक बार खगोलीय गणना गलत हो जाती थी। परन्तु सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित पांचों वेधशालाओं में चूना एवं विशेष आकार में निर्मित पत्थरों की मदद से सभी यंत्रों का निर्माण किया गया। इसलिए सारे आंकड़े सही आते हैं।

दुर्भाग्य से आज इन पांच वेधशालाओं में से केवल उज्जैन एवं जयपुर की वेधशालाएं ही सही काम कर रही हैं। मथुरा की वेधशाला तो पूरी नष्ट हो चुकी है, जबकि काशी की अत्यंत जर्जर अवस्था में है। उज्जैन की वेधशाला में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र एवं शंकु यंत्र निर्मित हैं। इस वेधशाला का निर्माणकाल मराठों के मालवा में प्रवेश करने से कुछ वर्ष पहले का है। आगे चलकर 1925 में ग्वालियर के शिंदे सरकार ने इस वेधशाला की मरम्मत की और रखरखाव किया।

सवाई जयसिंह की इन पांचों वेधशालाओं में से उज्जैन की वेधशाला का महत्त्व अधिक क्यों है? क्योंकि प्राचीनकाल में अर्थात् ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व ऐसी मान्यता थी कि पृथ्वी की देशांतर रेखा (मध्यान्ह रेखा) उज्जैन से होकर जाती है। इसके अलावा कर्क रेखा भी उज्जैन से होकर जाती है, इसीलिए उज्जैन को भारतीय खगोलशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

महाराष्ट्र का वाशिम शहर, प्राचीन समय के वाकाटक राजवंश की राजधानी ‘वत्सगुल्म’ है। इसी वाशिम में एक मध्यमेश्वर का मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीनकाल में ऐसी कल्पना की गई थी कि पृथ्वी की देशांतर रेखा इस मध्यमेश्वर की शिव पिण्डी से होकर गुजरती है। मजे की बात ये है कि पृथ्वी को वक्राकार पद्धति से देखा जाए तो उज्जैन और वाशिम, दोनों शहर एक ही रेखा में आते हैं। भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ ‘लीलावती’ में इस देशांतर रेखा का उल्लेख किया है। इस उल्लेख के अनुसार उज्जैन (इस ग्रन्थ में उज्जैन को अवंतिका नामक पुराने नाम से संबोधित किया गया है) और वर्तमान हरियाणा के रोहतक नगर से ही यह काल्पनिक देशांतर रेखा गुजरती है।

उज्जैन की यह वेधशाला एक तरह से हमारे प्राचीन खगोलशास्त्र का जीर्णशीर्ण द्वार है। इस वेधशाला ने कोई नई बात प्रस्थापित नहीं की। परन्तु, जिन ग्रंथों के आधार पर यह वेधशाला निर्मित हुई, उन ग्रंथों का प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने मिलता है।

वेधशाला यह दुनिया के लिए ना तो कोई नई बात है, और न ही आश्चर्यजनक। सवाई जयसिंह द्वारा भारत में पांच वेधशालाओं के निर्माण से कुछ वर्ष पहले, अर्थात् तेरहवीं शताब्दी में ईरान के मरागा नामक स्थान पर क्रूर चंगेज खान के पोते हलाकू खान ने एक विशाल वेधशाला का निर्माण किया था, जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं। जर्मनी के कासल में सन् 1561 में, समय दर्शाने वाली वेधशाला का निर्माण किया गया था। भारत की वेधशालाओं का महत्त्व यह है कि यह अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से, खगोलशास्त्र के विविध अंगों एवं खूबियों को प्रदर्शित करने वाली वेधशालाएं हैं। उज्जैन की वेधशाला में तो प्राचीन उपकरणों द्वारा सेकण्ड के आधे भाग से भी कम अंतर से समय देखा जा सकता है।

तो प्रश्न उठता है कि यह ज्ञान आया कहां से? जगन्नाथ सम्राट और सवाई राजा जयसिंह ने यह सब कहां से खोज निकाला? तो इसके उत्तर हेतु हमें इतिहास में बहुत पीछे जाना पड़ेगा।

हमारे खगोलशास्त्र का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख प्राप्त होता है, लगध ऋषि लिखित ‘वेदांग ज्योतिष’ नामक ग्रन्थ में। इसके शीर्षक में भले ही ‘ज्योतिष’ का उल्लेख हो, फिर भी यह ग्रन्थ खगोलशास्त्र का ही विवेचन करता है। ईसा से 1350 वर्ष पहले का कालखंड लगध ऋषि का कार्यकाल माना जाता है। इस ग्रन्थ में ‘तीस दिनों का एक मास’ ऐसे मानक का उल्लेख किया गया है। अर्थात् आज से लगभग 3300 वर्ष पूर्व भारत में खगोलशास्त्र का भरपूर ज्ञान उपलब्ध था। संभवतः इससे पहले भी हो, क्योंकि लगध ऋषि का यह ग्रन्थ ऐसा कहीं भी नहीं कहता कि उन्होंने कोई नई खोज की है। अर्थात् उनसे पहले के कालखंड में मौजूद खगोलशास्त्र सम्बन्धित ज्ञान को ही यह ग्रन्थ लिपिबद्ध करता है।

दुर्भाग्य से भारत में इन प्राचीन ग्रंथों में से अनेक ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। मुस्लिम आक्रमणों के दौरान अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नष्ट हो गए। उसके पश्चात भी जो ग्रन्थ बचे रह गए, उनमें से कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ अंग्रेज शासनकाल के समय यूरोपियन शोधकर्ता अपने साथ ले गए।

ऐसा ही एक ग्रन्थ है, खगोलशास्त्र पर आधारित ‘नारदीय सिद्धांत’ का। यह भारत में उपलब्ध नहीं है, परन्तु बर्लिन में, प्राचीन पुस्तकों के एक संग्रहालय में ‘नारद संहिता’ नामक ग्रन्थ मिलता है (Weber Catalogue No। 862)। इसी प्रकार खगोलशास्त्र आधारित ‘धर्मत्तारा पुराण’ का सोम-चन्द्र सिद्धांत पर एक दुर्लभ ग्रन्थ भी इसी पुस्तकालय में उपलब्ध है (Weber Catalogue no। 840)। प्राचीन खगोलशास्त्र में ‘वसिष्ठ सिद्धांत’ महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य सिद्धांत से मिलते-जुलते इस सिद्धांत का ग्रन्थ भी भारत में उपलब्ध नहीं है। अलबत्ता इस ग्रन्थ के सन्दर्भ, कोटमब्रुक्स एवं बेंटले (जॉन बेंटले : 1750-1824) द्वारा लिखित खगोलशास्त्रीय ग्रन्थ में अनेक स्थानों पर उल्लेखित हैं। विष्णुचंद्र नामक भारतीय खगोलशास्त्री के गणितीय संकलन इसी वसिष्ठ सिद्धांत एवं आर्यभट्ट के ग्रंथों पर आधारित हैं। यदि यह ग्रन्थ कहीं उपलब्ध ही नहीं, तो फिर कोटमब्रूक्स और बेंटले को इस ग्रन्थ के सन्दर्भ कहां से मिले? इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर जब शोध किया गया तो पाया गया कि यह ग्रन्थ ‘मेकेंजी संग्रह’ में विल्सन कैटलॉग में 121वें क्रमांक पर उपलब्ध है।

बेंटले ने आर्यभट्ट के कार्यों पर आधारित दो ग्रन्थ लिखे हैं। पहला है, ‘आर्य सिद्धांत’ और दूसरा है ‘लघु आर्य सिद्धांत’। ईस्वी सन् की पांचवी शताब्दी में हुए आर्यभट्ट (प्रथम) के ‘आर्य अष्टक शतः’ (जिसमें 800 श्लोक हैं) और ‘दश गीतिका’ (जिसमें दस सर्ग हैं), इन दोनों ग्रंथों को बेंटले ने अपने ग्रन्थ में अनेक बार उद्धृत किया है। यह दोनों ही दुर्लभ ग्रन्थ बर्लिन के पुस्तकालय में वेबर कैटलॉग क्रमांक 834 पर उपलब्ध हैं। पश्चिमी विद्वानों ने हिन्दू खगोलशास्त्र पर बहुत अध्ययन किया है। 1790 में स्कॉटिश गणितज्ञ जॉन प्लेफेयर ने हिन्दू पंचांग में दी गई जानकारी के आधार पर (जो यूरोप में 1687 से 1787 के कालखंड में पहुंची), यह ठोस तरीके से प्रतिपादित किया कि, हिन्दू कालगणना की प्रारंभिक तिथि (अथवा जहां तक उपलब्ध ग्रंथों एवं गणनाओं का आधारबिंदु है) ईसा पूर्व 4300 वर्ष से पहले की है…!

मजे की बात यह है कि अठारहवीं शताब्दी में ही, यूरोपियन खगोलशास्त्र वैज्ञानिकों के ध्यान में यह बात आ चुकी थी कि, प्राचीन हिन्दू खगोलशास्त्रीय गणना के अनुसार ग्रहों-तारों की जो दिशा एवं गति निर्धारित की गई है, उसमें एक मिनट की भी चूक नहीं है। उस समय सेसिनी और मेयर ने आधुनिक पद्धति से 4500 वर्ष पुराना तारों का जो नक्शा तैयार किया, वह बिलकुल हू-ब-हू प्राचीन हिन्दू खगोलशास्त्रियों द्वारा तैयार किए गए नक्शों के समान ही था।

प्लेफेयर, बेली एवं आधुनिक कालखंड में ‘नासा’ में काम करने वाले प्रोफ़ेसर एन।एस। राजाराम ने यह प्रतिपादित किया है कि चार-पांच हजार वर्ष पूर्व हिन्दू खगोलशास्त्रियों द्वारा तैयार किए गए नक़्शे, प्रत्यक्ष रूप से ग्रहों एवं तारों की चाल एवं साक्षात अध्ययन पर आधारित हैं, एवं इसी आधार पर खगोलशास्त्र के गणितीय सूत्र तैयार किए गए हैं।

हमारे कौतूहल को बढ़ाने वाला एक और निरीक्षण बेली एवं प्लेफेयर ने लिख रखा है। इसके अनुसार हिन्दू खगोलशास्त्रियों ने सात ग्रहों-तारों (शनि, गुरु, मंगल, शुक्र, बुध, सूर्य एवं चन्द्र) की स्थिति एवं रेवती नक्षत्र के सापेक्ष उनका स्थान, इनके आधार पर भगवान श्रीकृष्ण के मृत्यु की सही तिथि निकाली है। यदि हम आज के आधुनिक साधनों का उपयोग करके वह तिथि निकालें तो वह आती है ईसापूर्व सन् 3102 की 18 फरवरी। अर्थात् बेली एवं प्लेफेयर लिखते हैं कि, उस कालखंड के लोगों को आकाशीय ग्रहों-तारों का अति-उत्तम ज्ञान था, एवं प्रत्यक्ष निरीक्षण से उन्हें चिन्हित एवं अंकित करने की पद्धति भी उस समय मौजूद थी। मजे की बात यह कि उस प्राचीन कालखंड में स्थापित की गई चंद्रमा की स्थिति में एवं आज की आधुनिक गणनाओं के अनुसार चंद्रमा की स्थिति के बीच का अंतर केवल 37 अंश है। अर्थात् नगण्य…!

यह सब पढ़कर/जानकर हम अचंभित हो जाते हैं। प्राचीन खगोलशास्त्र के अनेक शोधकों का ऐसा मत है कि, भारतीय ग्रंथों में उल्लिखित कालगणना के अनुसार ईस्वी सन् से पहले 11,000 वर्ष तक की जानकारी प्राप्त होती है। अर्थात् आज से लगभग तेरह हजार वर्ष अथवा उससे भी पहले से हमारे पूर्वजों को आकाश, नक्षत्र, ग्रह, तारे इत्यादि का ज्ञान पक्के तौर पर था। परन्तु मूल प्रश्न फिर भी बाकी रहता है, कि ऐसा अत्याधुनिक एवं सटीक ज्ञान, इतने हजारों वर्ष पहले हमारे पूर्वजों के पास आया कहां से…?

 

बालक,बालिका शिक्षा

 – वासुदेव प्रजापति

 

शिक्षा क्षेत्र में आज सर्वत्र सहशिक्षा का बोलबाला है। बालक-बालिका ही नहीं अभिभावक भी सहशिक्षा के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। उनका यह तर्क भी उचित प्रतीत होता है कि शिक्षा के जितने भी विषय हैं, वे बालक व बालिका दोनों के लिए समान हैं। उदाहरण के लिए व्यक्तित्व विकास, विकास का स्वरूप, ज्ञानार्जन, ज्ञानार्जन के करण आदि सभी विषय बालक व बालिका दोनों के लिए समान रूप से लागू होते हैं।

यह सत्य है कि अधिकांश विषय दोनों के लिए समान हैं, फिर भी कुछ विषय ऐसे अवश्य हैं, जिन पर अलग अलग विचार करना आवश्यक है। जैसे – जब विवाह संस्कार की बात होती है तब अच्छे वर के लक्षण पुरुष को ध्यान में रखकर ही बतायें जाते हैं और अच्छी वधू के लक्षण स्त्री को ध्यान में रखकर ही बताये जाते हैं। वेशभूषा के विषय में भी अलग से ही विचार करते हैं। पुरुष यदि ऊपर का वस्त्र नहीं पहनेगा तो कोई आपत्ति नहीं होगी, परन्तु अगर स्त्री ऊपर का वस्त्र नहीं पहनेगी तो घोर आपत्ति होगी। स्त्री के लिए लज्जा रक्षण का प्रश्न खड़ा हो जायेगा।

अतः स्त्री और पुरुष का विषय एक ऐसा विषय है, जो परिस्थितिजन्य और मनोवैज्ञानिक कारणों से उलझ गया है। आज इसे आग्रह पूर्वक सुलझाने की आवश्यकता है। इसे सुलझाने से पूर्व हमें परमात्मा के सृष्टि सृजन का हेतु समझना होगा।

सृष्टि पुरुष व प्रकृति का मेल है

जब परमात्मा सृष्टि के सृजन में लगा तो सबसे पहले वह जड़ व चेतन या पुरुष व प्रकृति इन दो धाराओं में विभाजित हुआ। पुरुष और प्रकृति को हम स्त्री धारा व पुरुष धारा भी कहते हैं। किन्तु यहाँ एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है कि यहाँ पुरुष नामक संज्ञा देहधारी पुरुष नहीं है। इसी तरह प्रकृति यह देहधारी स्त्री नहीं है। पुरुष व प्रकृति ये दोनों तत्त्व हैं। ये दोनों तत्त्व समान हैं, इनमें कोई भी तत्त्व अधिक या कम नहीं है। इनमें कोई एक श्रेष्ठ व दूसरा निम्न ऐसा नहीं है। दोनों समान हैं और दोनों के मिलने पर ही सृजन होता है, सृजन के लिए दोनों का होना आवश्यक है।

सृष्टि रचना के प्रारम्भ में चेतन व जड़ तत्त्वों की गाँठ बँध जाती है, इस गाँठ को ही चिज्जड ग्रंथी कहते हैं। यह चिज्जड ग्रंथी बनने के बाद ही सृष्टि का सृजन होता है। सृष्टि के सभी पदार्थों में ये दोनों तत्त्व होते ही हैं। किसी भी पदार्थ में इन दोनों में से एक का भी अभाव नहीं होता। मनुष्य देहधारी स्त्री-पुरुष इस स्त्री धारा व पुरुष धारा के प्रतिनिधि हैं। दोनों समान हैं, दोनों अनिवार्य हैं, दोनों परस्पर पूरक हैं और दोनों एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं, जब पूर्ण होते हैं, तब एक होते हैं। तात्पर्य यह है कि भारतीय तत्त्वचिन्तन में स्त्री और पुरुष को समान माना गया है। इनमें कहीं भी श्रेष्ठ या निम्न का भेद नहीं है। यही भारतीय चिन्तन का मूल है विचार है।

स्त्री विषयक पाश्चात्य चिन्तन

भारतीय चिन्तन में स्त्री व पुरुष समान है, सृजन के लिए दोनों आवश्यक हैं, पुरुष मुख्य व स्त्री गौण नहीं है। परन्तु पाश्चात्य चिन्तन में यह समानता नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी तक यूरोप में स्त्री को पुरुष की तुलना में बहुत निम्न माना जाता था। वे मानते थे कि स्त्री में आत्मा होती ही नहीं है। वह तो पुरुष के उपभोग हेतु बना हुआ पदार्थ मात्र है। स्त्रियों को उस समय तक मतदान का अधिकार नहीं था। समाज में स्त्रियों को दूसरे दर्जे का स्थान प्राप्त था। जबकि भारत में प्रारम्भ से ही स्त्री को समान स्थान प्राप्त था। प्रत्येक मांगलिक कार्य बिना पत्नी के असम्भव था। यहाँ तक कि अकेले सम्राट का राज्यतिलक भी नहीं हो सकता था। रानी का साथ होना आवश्यक था, राजगुरु दोनों का एक साथ राजतिलक करते थे। यह समानता केवल चिन्तन में नहीं प्रत्यक्ष व्यवहार में भी परिलक्षित होती है।

स्त्री स्वतंत्रता का नारा भारत का नहीं है

भारत में यह नारा अंग्रेजों की देन है। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में सुधार का दौर चला था। जिसमें स्त्रियों की मुक्ति, स्त्री-पुरुष समानता तथा स्त्रियों के स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास आदि विषय लेकर आन्दोलन शुरु हुए। अंग्रेज जब भारत आए तब अपने साथ ये विषय भी लेकर आए। यहाँ आकर उन्हें यही लगा कि भारत में भी स्त्रियों का शोषण हो रहा है। किन बातों के आधार पर उनकी यह धारणा बनीं? यह जानना भी आवश्यक है।

उन्होंने देखा कि भारत में स्त्रियाँ पढ़ने के लिए विद्यालय नहीं जाती, दिनभर घर के काम ही करती रहती हैं। उन्हें बाहर जाकर अपना कर्तृत्व दिखाने का और प्रतिष्ठित होने का अवसर नहीं मिलता। उसे कमाने नहीं दिया जाता इसलिए वह आर्थिक दृष्टि से हमेशा पुरुष के अधीन रहती है। पिता की सम्पत्ति में पुत्री को हिस्सा नहीं मिलता। कई जातियों में पुत्री को जन्मते ही मार दिया जाता है। स्त्री यदि विधवा हो जाय तो उसे पुनर्विवाह की अनुमति नहीं, परन्तु पुरुषों को पुनर्विवाह की अनुमति है। यह तो स्त्रियों के शोषण की पराकाष्ठा है। इसलिए भारत की स्त्रियों को भी इस शोषण से मुक्त करवाना चाहिए, ऐसा अंग्रेजों का अनुभव था।

भारतीय मानस को समझने की भूल

भारत की समाज व्यवस्था, गृहव्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और परम्पराओं आदि का ज्ञान अंग्रेजों को नहीं था। इसलिए उन्होंने दिखाई देने वाले चित्र का अर्थ अपनी बुद्धि से लगाया। भारत की जीवन दृष्टि और यूरोप की जीवन दृष्टि में जो अन्तर था, उसके कारण उन्हें यहाँ का चित्र विपरीत ही दिखाई दिया। दुर्भाग्य की बात तो यह थी कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्ग के भारतीय भी अंग्रेजों के प्रभाव में आ गए और इन बातों में वे लज्जित होने लगे। उन्होंने अंग्रेजों के स्त्री मुक्ति के प्रयासों में न केवल सहायता ही की अपितु उनमें बढ़-चढ़ कर भाग भी लिया। विवाह विषयक, विवाह की आयु विषयक कानून बने, शिक्षा को प्रोत्साहित किया और अनेक सामाजिक परम्पराओं पर पिछड़ेपन का और अंधश्रद्धा का ठप्पा भी लगा दिया। उस समय से लेकर आज तक यही प्रक्रिया देश में चल रही है

भारतीय समाज में भारी परिवर्तन हुए

अंग्रेजी मानसिकता के कारण विगत दो सौ वर्षों के भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन हुए। स्त्रियों की स्थिति और पुरुषों की मानसिकता बिगड़ती गई। पहले स्त्रियों की शिक्षा जो घर में होती थी, वह बन्द होने लग गई। कारीगरों के व्यवसाय टूटते-टूटते समाप्त होने लगे। पहले व्यवसाय परिवार का होता था, अब व्यक्तिगत व्यवसाय हो जाने से स्त्रियों की आर्थिक सहभागिता समाप्त होने लगीं। नौकरी का प्रचलन बढ़ने लगा, नौकरी तो व्यक्तिगत होती थी परिवार की नहीं। फलतः स्त्रियों की अधीनता बढ़ने लगीं। स्त्रियों को उनकी विपरीत स्थिति के बारे में उकसाने का कार्य भी साथ-साथ चलता रहा।

इन सब परिणामों के कारण स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध बदल गए और नए सिरे से व्याख्यायित होने लगे। सह अस्तित्व के सिद्धांत पर चलने वाले समाज में एक वर्ग का हित दूसरे वर्ग का विरोधी है, ऐसी स्पर्धा आधारित मानसिकता बढ़ने लगीं। आज तो स्वाभाविक रूप से यह कहा जाने लगा है कि “आज का युग तो स्पर्धा का युग है”। अब हम इस बदली हुई परिस्थिति में जी रहे हैं। हमारे देश का बहुत बड़ा शिक्षित वर्ग ऐसा है, जिसने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया है।

आज घर को देखने वाला कोई नहीं है

अब स्त्री स्वतंत्र व्यक्ति है। उसे पढ़ने की, अर्थार्जन करने की उतनी ही स्वतंत्रता है, जितनी एक पुरुष को है। विवाह के विषय में भी उतनी ही स्वतंत्रता है। अब विधवा विवाह, विवाह विच्छेद, अविवाहित रहना, बिना विवाह किए स्त्री-पुरुष का साथ-साथ रहना अब आपत्तिजनक नहीं रहा। इन सब बातों का परिणाम हमारी गृहसंस्था पर बहुत विपरीत हुआ है।

हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था में घर चलाना स्त्री का काम माना जाता था। अब वह स्त्री का दायित्व नहीं रहा। अब वे सभी काम जो पुरुषों के माने जाते रहे हैं, उन्हें करने के लिए स्त्री स्वतंत्र है। आज की स्त्री पुरुषों को यह दिखाने के मूढ़ में है कि वह सब कुछ कर सकती है। उसने यह सिद्ध भी कर दिखाया है कि वह वे सभी काम कर सकती है जो पुरुष करता है, और पुरुषों से अच्छी तरह कर सकती है।

स्त्री ने पुरुषों को अपनी कुशलता व क्षमता तो दिखा दी, किन्तु घर उपेक्षित हो गया। अब घर को देखने वाला कोई नहीं है। घर स्त्री व पुरुष दोनों की वरीयता में ही नहीं है। घर की चिन्ता करने वाली न स्त्री है और न पुरुष है। जो घर शिक्षा व संस्कार के साथ-साथ नई पीढ़ी के निर्माण का केन्द्र है, आज उसकी ओर देखने वाला कोई नहीं है। स्त्री व पुरुष दोनों के लिए घर के बाहर जाकर अर्थार्जन करना सबसे प्रमुख कार्य हो गया है। इस प्रकार घर के अस्त-व्यस्त हो जाने से समाज का सांस्कृतिक आधार ही नष्ट हो गया है। यही आज की आधुनिकता बन गई है।

क्या प्राचीन भारत में स्त्रियाँ अशिक्षित थीं?

जो भारतीय संस्कृति को जानता है, उसके लिए यह प्रश्न ही अज्ञानता का द्योतक है। प्राचीन भारत की नारी का वह उज्ज्वल चरित्र आज भी सबके लिए आदर्श है। वह सेवा को अपना अधिकार समझती है, इसलिए देवी है। वह त्याग की प्रतिमूर्ति है, इसलिए सम्राज्ञी है; विश्व उसके वात्सल्यमय आंचल में स्थान पा सकता है, इसलिए जगन्माता है।

प्राचीन भारत की नारी समाज में अपना स्थान माँगने नहीं गई थी। मंच पर खड़े होकर अपने अभावों की माँग रखने की आवश्यकता उसे कभी प्रतीत नहीं हुई और न कभी नारी के अधिकारों पर वाद-विवाद करने का उसे अवकाश ही मिला। वह तो सदैव नारी की सरलता, सेवा, त्याग व मातृत्व का गौरव लेकर निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य में लीन रहती थी। ऐसी उच्चादर्शों वाली नारी के लिए ही मनु महाराज ने कहा था – “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।” भला ऐसी नारी अशिक्षित कैसे मानी जा सकती है?

हमारी हिन्दू संस्कृति में स्त्री अर्धांगिनी के रूप में पुरुष का बराबर सहयोग करती थीं, जिसका अत्यन्त सौम्य रूप हमें कवि कुलगुरु महाकवि कालिदास के शब्दों में यों मिलता है –

विधेः सायन्तनस्यान्ते स ददर्श तपोनिधिम्।

अन्वासितमरुन्धत्या  स्वाहयेव   हविर्भुजम्।। (रघुवंश १/५६)

निर्जन वनस्थली में ऋषिराज वसिष्ठ अपनी भार्या अरुन्धती के साथ सायंकाल की होम क्रिया सम्पन्न कर रहे हैं। यह नारी शिक्षा का कैसा श्रेष्ठ व देदीप्यमान उदाहरण है! अशिक्षित नारी क्या इस प्रकार सहयोग प्रदान करने में समर्थ हो सकती थीं? यह यज्ञ का स्थूल स्वरूप था। परन्तु यही यज्ञ की भावना जब अन्तर्मुखी हो जाती है, तब नारी का समस्त जीवन ही यज्ञमय होकर एक पवित्र साधक का रूप धारण कर लेता है। अर्थात उस समय की नारी वेद विदूषी थीं, समाज में समान स्तर प्राप्त थी, वह शोषिता नहीं थी। अंग्रेजों ने अज्ञानतावश ऐसी निर्मूल धारणा बना ली थी।

 

 

 

 

 

 

बेटियां दो कुलो को महकाती है

विवाह के बाद पहली बार मायके आयी बेटी का स्वागत सप्ताह भर चला। सप्ताह भर बेटी को जो पसन्द है, वही सब किया गया।वापिस ससुराल जाते समय पिता ने बेटी को एक अति सुगंधित अगरबत्ती का पुडा दिया और कहा की-बेटी, तुम जब ससुराल में पूजा करने जाओगी,तब यह अगरबत्ती जरूर जलाना,माँ ने कहा-बिटिया प्रथम बार मायके से ससुराल जा रही है,तो भला कोई अगरबत्ती जैसी चीज देता है? पिता ने झट से जेब मे हाथ डाला और जेब मे जितने भी रुपये थे,वो सब बेटी को दे दिए ससुराल में पहुंचते ही सासु माँ ने बहु के माता-पिता ने बेटी को बिदाई में क्या दिया,यह देखा तो वह अगरबत्ती का पुडा भी दिखा। सासु माँ ने मुंह बना कर बहु को बोला कि-कल पूजा में यह अगरबत्ती लगा लेना सुबह जब बेटी पूजा करने बैठी, अगरबत्ती का पुडा खोला तो उसमे से एक चिट्ठी निकली लिखा था..."बेटा यह अगरबत्ती स्वतः जलती है,मगर संपूर्ण घर को सुगंधित  कर देती है।इतना ही नही, आजू-बाजू के पूरे वातावरण को भी अपनी महक से सुगंधित एवम प्रफुल्लित कर देती है...!!*

हो सकता है की तुम कभी पति से कुछ समय के लिए रुठ जाओगी या कभी अपने सास-ससुरजी से नाराज हो जाओगी,कभी देवर या ननद से भी रूठोगी, कभी तुम्हे किसी से बाते सुननी भी पड़ जाए, या फिर कभी आस-पड़ोस की बातों या बर्ताव पर तुम्हारा दिल खट्टा हो जाये, तब तुम मेरी यह भेंट ध्यान में रखना अगरबत्ती की तरह जलना, जैसे अगरबत्ती स्वयं जलते हुए पूरे घर और सम्पूर्ण परिसर को सुगंधित और प्रफुल्लित कर ऊर्जा से भरती है, ठीक उसी तरह तुम स्वतः सहन करते हुए ससुराल को अपना मायका समझ कर सब को अपने व्यवहार और कर्म से सुगंधित और प्रफुल्लित करना...बेटी चिट्ठी पढ़कर फफक कर रोने लगी,सासू मां लपककर आयी, पति और ससुरजी भी पूजा घर मे पहुंचे जहां बहु रो रही थी।* "अरे हाथ को चटका लग गया क्या?, ऐसा पति ने पूछा। "क्या हुआ यह तो बताओ, ससुरजी बोले। सासु माँ आजु बाजु के सामान में कुछ है,क्या यह देखने लगी तो उन्हें  पिता द्वारा सुंदर अक्षरों में  लिखी हुई  चिठ्ठी नजर आयी, चिट्ठी पढ़ते ही उन्होंने बहु को गले से लगा लिया और चिट्ठी ससुरजी के हाथों में दी।चश्मा ना पहने होने की वजह से चिट्ठी बेटे को देकर पढ़ने के लिए कहा। सारी बात समझते ही संपूर्ण घर स्तब्ध हो गया। "सासु माँ बोली अरे, यह चिठ्ठी फ्रेम करानी है।यह मेरी बहु को मिली हुई सबसे अनमोल भेंट है, पूजा घर के बाजू में में ही इसकी फ्रेम होनी चाहिए, और फिर सदैव वह फ्रेम अपने शब्दों से, सम्पूर्ण घर, और अगल-बगल के वातावरण को अपने अर्थ से महकाती रही, अगरबत्ती का पुडा खत्म होने के बावजूद भी…|



संत ज्ञानेश्वर का जन्म ई. सन् 1275 में भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगांव में हुआ था। उनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता रुक्मिणी बाई थीं। बहुत छोटी आयु में ज्ञानेश्वर जी को जाति से बहिष्कृत होने के कारण नानाविध संकटों का सामना करना पड़ा।उन्होंने लोगों को कामुक सुखों से मना किया, और पीने, भव्य जीवन शैली को हतोत्साहित किया और लोगों को एक साधारण जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित किया और जीवन का मुख्य उद्देश्य भगवान को प्राप्त करना था । वह प्रमुख मराठी संत, कवि और योगी थे जिन्होंने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया।

 रिश्तों में बदलाव

आज सुबह से ही मानो घर में त्यौहार-सा माहौल लग रहा है। मम्मी जी के चेहरे की चमक और रसोई से आती पकवानों की महक दोनों की वजह एक ही है, 'आज दोपहर को खाने (लंच) पर  उनकी एक सहेली आने वाली हैं; आज घर को पूरी तरह से सजाया जा रहा है। कल शाम को बातों-बातों में उन्होंने बताया कि कल मेरी सहेली खाने पर आ रही है। तो उन्हीं के लिए उपहार खरीदने हम बाज़ार निकल गए, उन्होंने बाज़ार से बड़ी महंगी-सी साड़ी खरीदी अपनी सहेली के लिए। आज तो हद ही हो गई, मम्मी जी खुशी के मारे सुबह को जल्दी उठकर मुझसे भी पहले रसोई में घुस गई, और बड़े प्यार और जतन के साथ खुद से तैयार की हुई पकवानों की लिस्ट में से एक के बाद एक पकवान बनाना भी शुरू कर दिया। मम्मी जी तो *'खूब खुश नजर आ रही हैं* पर मैं... बेमन, बनावटी मुस्कान चेहरे पर सजाए काम में उनका हाथ बटा रही हूँ।

मायके में मेरी माँ का आज जन्मदिन है। शादी के बाद यह माँ का पहला ऐसा जन्मदिन होगा जब कोई भी उनके साथ नहीं होगा, अब मैं यहाँ, पापा ऑफिस टूर पर और भाई तो है ही परदेस में। कल मन को बड़ा मजबूत करके मायके जाने के लिए तैयार किया था, मम्मी जी से बोलने ही वाली थी कि उन्होंने मेरे बोलने से पहले ही अपनी सहेली के आने वाली बात सामने रख दी। दोपहर में लंच और शाम को हम सभी का उनके साथ फन सिटी जाने का प्रोग्राम तय हो चुका था। क्या कहती मन मार कर रह गई, घर को सजाया और खुद भी बेमन-सी सँवर गई। कुछ ही देर में डोर बेल बजी उनका स्वागत करने के लिए मम्मी जी ने मुझे ही आगे कर दिया। गेट खोला, बड़े से घने गुलदस्ते के पीछे छिपा चेहरा जब नजर आया तो मेरी आँखें फटी की फटी और मुँह खुला का खुला रह गया। आपको पता है, सामने कौन था ? सामने मेरी माँ खड़ी थी! माँ मुझे गुलदस्ता पकड़ाते हुए बोली,

 " सरप्राइज !" हैरान और खुश खड़ी मैं, अपनी माँ को निहार रही थी। "बर्थडे विश नहीं करोगी हमारी सहेली को?" पीछे खड़ी मम्मी जी बोली।"माँ...आपकी सहेली?" मैंने बड़े ही ताज्ज़ुब से पूछा। "अरे भाई झूठ थोड़ी ना कहा था और ऐसा किसने कह दिया की समधिन-समधिन दोस्त नहीं हो सकती।" मम्मी जी ने कहा। "बिल्कुल हो सकती है जो अपनी बहू को बेटी जैसा लाड़ दुलार करें, सिर्फ वही समधिन को दोस्त बना सकती है।"* कहते हुए माँ ने आगे बढ़कर मम्मी जी को गले लगा लिया। खुशी के मेरे मुँह से एक शब्द भी ना निकल पाया, बस आँखों से आँसू छलकने लगे। मैंने मम्मी जी की हथेलियों को अपनी आँखों से स्पर्श करके होठों से चूम लिया और उनको गले लगा लिया। माँ हम दोनों को देखकर भीगी पलकों के साथ मुस्कुरा पड़ीं। रिश्तो का उत्सव बड़े प्यार से मनाते हुए, एक तरफ मेरी माँ खड़ी थी जिन्होंने मुझे रिश्तों की अहमियत बताई और दूसरी तरफ मम्मी जी जिनसे मैंने सीखा रिश्तों को दिल से निभाना। दोनों मुझे देखकर जहाँ मुस्कुरा रही थी । वही मैं दोनों के बीच खड़ी अपनी किस्मत पर इतरा रही थी। आँखों में नमी और होठों पर मुस्कुराहट थी।                                          -अनिल जैन नोएड



उत्तराखंड भारत का 26 वाँ राज्य है, जो 28°43' से 31° 27' उत्तरी अक्षांशों तथा 77° 34' से 81°02' पूर्वी देशांतर तक है। इसका सम्पूर्ण क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। जो देश के कुल क्षेत्रफल का 1.69 % है और क्षेत्रफल की दृष्टी से भारत का 18 वाँ राज्य है।














तुम्हारी याद भी अजीब है--

     कभी जंगल सी

   उलझा देती है यादों के सिरे 

   तो कभी

   पगडंडी बन सर्प सी लोटती है

   मेरे सीने पे..;

    कभी हथेलियों से फिसलते रेत सी

    नहीं बनाने देती

     घरोंदे...!

     कभी 

    बादलों में आकृतियाँ 

    ढूँढती ठिठकी यादें

   पल पल पैरहन बदलतीं

   तो कभी

   तुम्हारी पीठ पर

   उँगलियों की पदचाप

   एक नई भाषा बुनती..!

   यूँ तो

   यादों ने भी 

   मेरी तरह

   मौन को परिभाषित कर

   समेट लिए हैं

   अपने डैने

   अगली उड़ान की तैयारी तक...!

~ नोरिन शर्मा 



चिंतन

आपके घर की दीवारें सब सुनती हैं और सब सोखती हैं । कभी आपने किसी घर में जाते ही वहाँ एक अजीब सी नकारात्मकता और घुटन महसूस की है ? या किसी के घर में जाते ही एकदम से सुकून और सकारात्मकता महसूस की है ? हम कुछ ऐसे घरों में जाते हैं जहां जाते ही तुरंत वापस आने का मन होने लगता है। एक अलग तरह का खोखलापन और नेगेटिविटी उन घरों में महसूस होती है। हम साफ समझ पाते हैं कि उन घरों में रोज-रोज की कलह और लड़ाई-झगड़े और चुगली, निंदा आदि की जाती है। परिवार में सामंजस्य और प्रेम की कमी है। वहाँ कुछ पलों में ही मुझे अजीब सी बेचैनी होने लगती है और हम जल्दी ही वहाँ से वापस आ जाती हैं। वहीं कुछ घर इतने खिलखिलाते और प्रफुल्लित महसूस होते हैं कि वहाँ घंटों बैठकर भी हमें वक़्त का पता नहीं चलता ।ध्यान रखिये.... आपके घर की दीवारें सब सुनती हैं और सब सोखती हैं। घर की दीवारें युगों तक समेट कर रखती हैं सारी सकारात्मकता और नकारात्मकता भी "" कोपभवन "*  का नाम अक्सर हमारी पुरानी कथा-कहानियों में सुनाई देता है। दरअसल कोपभवन पौराणिक कथाओं में बताया गया घर का वो हिस्सा होता था जहां बैठकर लड़ाई-झगड़े और कलह-विवाद आदि सुलझाए जाते थे। उस वक़्त भी हमारे पुरखे सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को अलग-अलग रखने का प्रयास करते थे इसलिए " कोपभवन " जैसी व्यवस्था की जाती थी ताकि सारे घर को नकारात्मक होने से बचाया जाए। इसलिए आप भी कोशिश कीजिए कि आपका घर "कलह-गृह" या "कोपभवन" बनने से बचा रहे।घर पर सुंदर तस्वीरें, फूल-पौधे, बगीचे, सुंदर कलात्मक वस्तुएँ आदि आपके घर का श्रृंगार बेशक़ होती हैं पर आपका घर सांस लेता है - आपकी हंसी-ठिठोली से, मस्ती-मज़े से,  खिलखिलाहट से और बच्चों की शरारतों से, बुजुर्गों की संतुष्टि से, घर की स्त्रियों के सम्मान से और पुरुषों के सामर्थ्य से, तो इन्हें भी सहेजकर-सजाकर अपने घर की दीवारों को स्वस्थ रखिये। आपका घर सब सुनता है और सब कहता भी है।  इसलिए यदि आप अपने घर को सदा दीवाली सा रोशन बनाये रखना चाहते हैं तो ग्रह कलह और निंदा, विवादों आदि को टालिये। यदि आपके घर का वातावरण स्वस्थ्य और प्रफुल्लित होगा तो उसमें रहने वाले लोग भी स्वस्थ और प्रफुल्लित रहेंगे।                                   -अनिल जैन नोएडा 


1 नवंबर – विश्व शाकाहारी दिवस

शाकाहारी आहार और शाकाहार के लाभों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से हर साल 1 नवंबर को विश्व शाकाहारी दिवस के रूप में मनाया जाता है। पहला शाकाहारी दिवस 1 नवंबर 2021 को यूके वेगन सोसाइटी की 50वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में मनाया गया।

1 नवंबर – ऑल सेंट्स डे

हर साल 1 नवंबर को, सभी संतों की स्तुति करने के उद्देश्य से सभी संत दिवस मनाया जाता है। यह विश्वासियों के लिए पूरे ईसाई इतिहास में ज्ञात अज्ञात सभी संतों और शहीदों को याद करने का एक अवसर माना जाता है। ऑल सेंट्स डे को ऑल हैलोज़ डे या हैलोमास के रूप में जाना जाता है।

1 नवंबर – राज्योत्सव दिवस (कर्नाटक स्थापना दिवस)

राज्योत्सव दिवस जिसे कर्नाटक राज्योत्सव या कन्नड़ राज्योत्सव या कन्नड़ दिवस या कर्नाटक दिवस के रूप में भी जाना जाता है, हर साल 1 नवंबर को मनाया जाता है। 1 नवंबर 1956 को, दक्षिण भारत के सभी कन्नड़ भाषा बोलने वाले क्षेत्रों को मिलाकर कर्नाटक राज्य बनाया गया।

2 नवंबर – ऑल सोल्स डे

मृत आत्माओं को याद करने के उद्देश्य से 2 नवंबर को ऑल सोल्स डे के रूप में मनाया जाता है। रोमन कैथोलिक धर्म के दौरान, 2 नवंबर को उन सभी आत्माओं को याद किया जाता है जो ईमानदारी से दिवंगत हो गए हैं और माना जाता है कि वे शुद्ध हैं क्योंकि वे अपनी आत्माओं पर कम पापों के अपराध के साथ मर गए।

2 नवंबर – परुमला पेरुन्नाल

यह त्यौहार केरल में मनाया जाता है और यह भारत के सदाबहार राज्य में आयोजित होने वाले सबसे प्रसिद्ध समारोहों में से एक है। उत्सव हर साल 2 नवंबर को शुरू होता है।







5 नवंबर – विश्व सुनामी जागरूकता दिवस

5 नवंबर को, विश्व सुनामी दिवस मनाया जाता है और यह सुनामी के खतरों को उजागर करने और प्राकृतिक खतरों के कारण होने वाले नुकसान को कम करने के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के महत्व पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मनाया जाता है। सुनामी के बारे में पारंपरिक ज्ञान कई संगठनों द्वारा लोगों को स्थिति से अवगत कराने के लिए प्रदान किया जाता है।

5 नवंबर – भूपेन हजारिका की मृत्यु

भूपेन हजारिका का निधन 5 नवंबर 2011 को मुंबई में हुआ था। यह दिन इस महान कवि, संगीतकार, गायक, अभिनेता, पत्रकार, लेखक और फिल्म निर्माता को याद करने के लिए मनाया जाता है। उनका जन्म 8 सितंबर 1926 को हुआ था।

5 नवंबर – विराट कोहली का जन्मदिन

विराट कोहली का जन्म 5 नवंबर 1988 को दिल्ली में हुआ था। वह भारतीय राष्ट्रीय टीम के वर्तमान कप्तान हैं। वह पहले ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 68 शतकों और 6 दोहरे शतकों की मदद से 20000 रन पूरे कर चुके हैं।

6 नवंबर – युद्ध और सशस्त्र संघर्ष में पर्यावरण की क्षति को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस

5 नवंबर 2001 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने घोषणा की कि हर साल 6 नवंबर को ‘युद्ध और सशस्त्र संघर्ष में पर्यावरण के शोषण को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ मनाया जाएगा।

7 नवंबर – शिशु सुरक्षा दिवस

हर साल 7 नवंबर को शिशुओं की सुरक्षा, संवर्धन और विकास के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से शिशु संरक्षण दिवस मनाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर शिशुओं की रक्षा की जाती है तो वे इस दुनिया का भविष्य बनेंगे क्योंकि वे कल के नागरिक हैं।

7 नवंबर – राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस

कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने और इसे वैश्विक स्वास्थ्य प्राथमिकता देने के लिए 7 नवंबर को राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2014 के दौरान लोगों को इसकी स्थिति से अवगत कराने के लिए पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन द्वारा राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस की शुरुआत की गई थी।

7 नवंबर – चंद्रशेखर वेंकट रमन का जन्मदिन

चंद्रशेखर वेंकट रमन या सीवी रमन का जन्म 7 नवंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में हुआ था। सी.वी. रमन को रमन प्रभाव की खोज के लिए भौतिकी में 1930 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जिसमें एक सामग्री से गुजरने वाला प्रकाश बिखरा हुआ होता है और बिखरी हुई रोशनी की तरंग दैर्ध्य बदल जाती है क्योंकि इससे सामग्री के अणुओं में एक ऊर्जा अवस्था संक्रमण होता है।







8 नवंबर – लालकृष्ण आडवाणी का जन्मदिन

लाल कृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर 1927 को कराची, पाकिस्तान में हुआ था। लाल कृष्ण आडवाणी, एक भारतीय राजनीतिज्ञ, जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संस्थापक सदस्य और भारत के उप प्रधान मंत्री (2002–04) थे।

9 नवंबर – विश्व सेवा दिवस

9 नवंबर को भारत में विश्व सेवा दिवस के रूप में मनाया जाता है ताकि उन लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाई जा सके जहां कानूनी साक्षरता की कमी है। वर्ष 1995 के दौरान कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम लागू किया गया था और तब से आज के दिन को इसी दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।

9 नवंबर – इकबाल दिवस

मुसलमानों के लिए अल्लामा मुहम्मद इकबाल के योगदान को याद करने के उद्देश्य से पाकिस्तान में इकबाल दिवस मनाया जाता है। उनका जन्म 9 नवंबर 1877 को हुआ था। अल्लामा मुहम्मद इकबाल ने पाकिस्तान आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

9 नवंबर – उत्तराखंड स्थापना दिवस

उत्तराखंड की स्थापना 9 नवंबर 2000 को हुई थी। उत्तराखंड को देवताओं की भूमि या “देव भूमि” के रूप में जाना जाता है। 19 नवंबर को उत्तराखंड स्थापना दिवस मनाया गया। इसके गठन के समय इसका नाम उत्तरांचल था और 2007 में औपचारिक रूप से इसका नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया।

9 नवंबर – करतारपुर कॉरिडोर का उद्घाटन

करतारपुर कॉरिडोर 9 नवंबर 2019 को भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान में प्रधान मंत्री इमरान खान द्वारा खोला गया था। इस दिन का धार्मिक महत्व 1552 से है क्योंकि इस दिन गुरु नानक देव जी जो पहले सिख गुरु हैं, ने करतारपुर साहिब गुरुद्वारा की स्थापना की थी।

10 नवंबर – शांति और विकास के लिए विश्व विज्ञान दिवस

हर साल 10 नवंबर को समाज में विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका और उभरते वैज्ञानिक मुद्दों पर बहस में व्यापक जनता को शामिल करने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मनाया जाता है। यहां का मुख्य आकर्षण वैज्ञानिक कार्यों की शांति और विकास का महत्व है।

11 नवंबर – युद्धविराम दिवस (स्मरण दिवस)

11 नवंबर को युद्धविराम दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि इसे फ्रांस में लेमिस्टिस डे ला प्रीमियर गुएरे मोंडियाल के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन को प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के स्मरणोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। कुछ देश ऐसे भी हैं जो इस दिन को स्मरण दिवस भी कहते हैं। 11 नवंबर 1918 को उत्तरी फ्रांस के कॉम्पिएग्ने में मित्र देशों की सेना और जर्मनी के बीच एक युद्धविराम पर भी हस्ताक्षर किए गए थे।






11 नवंबर – राष्ट्रीय शिक्षा दिवस

11 नवंबर को, यह भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जयंती मनाने के लिए मनाया जाता है। मंत्री ने 1947 से 1958 तक स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री की भी सेवा की है।

11 नवंबर – विश्व उपयोगिता दिवस (नवंबर में दूसरा गुरुवार)

विश्व उपयोगिता दिवस हर साल नवंबर में दूसरे गुरुवार को मनाया जाता है। इस वर्ष विश्व उपयोगिता दिवस 11 नवंबर को है। यह दिन विभिन्न समुदायों को एक साथ लाता है ताकि हम अपनी दुनिया को सभी के लिए आसान बना सकें।

12 नवंबर – विश्व निमोनिया दिवस

12 नवंबर को विश्व निमोनिया दिवस के रूप में मनाया जाता है जो निमोनिया और इसकी रोकथाम के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। इसे दुनिया का प्रमुख संक्रामक रोग माना जाता है और सबसे अधिक प्रभावित आयु वर्ग 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे हैं।

13 नवंबर – विश्व दयालुता दिवस

हर साल 13 नवंबर को विश्व दयालुता दिवस मनाया जाता है। इस दिन का मुख्य फोकस प्रत्येक व्यक्ति को सबसे महत्वपूर्ण और अद्वितीय मानव सिद्धांतों में से एक दयालुता को प्रतिबिंबित करने और उसके अनुसरण का अवसर प्रदान करना है। यह दिन दयालुता के छोटे कार्यों को बढ़ावा देने और फिर लोगों को एक साथ लाने में भी मदद करता है।

14 नवंबर – बाल दिवस

भारत में हर साल 14 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता है।  इस दिन लोगों को बच्चों के अधिकारों, देखभाल और शिक्षा के बारे में जागरूक किया जाता है। यह दिन भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती भी है। इस दिन का उद्देश्य शिक्षा और छात्रों के प्रति कलाम के प्रयासों को स्वीकार करना है।

14 नवंबर – जवाहरलाल नेहरू जयंती

जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री थे और उनका जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन के इस शुभ दिन को याद करने के लिए भारत में बाल दिवस मनाया जाता है।

14 नवंबर – विश्व मधुमेह दिवस

प्रत्येक 14 नवंबर को विश्व मधुमेह दिवस मनाया जाता है। इस दिन का मुख्य उद्देश्य लोगों में मधुमेह रोग के प्रभाव, इसकी रोकथाम और मधुमेह पर शिक्षा के बारे में जागरूकता फैलाना है।

15 नवंबर – झारखंड स्थापना दिवस

झारखंड की स्थापना 15 नवंबर 2000 को हुई थी। यह स्थापना बिहार पुनर्गठन अधिनियम द्वारा भारत के 28 वें राज्य के रूप में की गई थी।






16 नवंबर – सहिष्णुता के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस

सहिष्णुता के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस 16 नवंबर को संस्कृतियों और लोगों के बीच आपसी समझ को प्रोत्साहित करके सहिष्णुता को मजबूत करने के बारे में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से मनाया जाता है। 16 नवंबर 1966 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्यों को संकल्प 51/95 द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सहिष्णुता दिवस मनाने के लिए आमंत्रित किया।

17 नवंबर – अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस

अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस की शुरुआत 17 नवंबर 1939 को नाजी सैनिकों द्वारा की गई थी। 9 छात्र नेताओं और इस घटना के दौरान छात्रों द्वारा प्रदर्शित बहादुरी के कारण यह दिन मनाया जाता हैं।

17 नवंबर – राष्ट्रीय मिर्गी दिवस 

राष्ट्रीय मिर्गी दिवस 17 नवंबर को मनाया जाता है। इस पर मुख्य फोकस लोगों को मिर्गी रोग, इसके लक्षण और बचाव के प्रति जागरूक करना है। मिर्गी को मस्तिष्क का एक पुराना विकार माना जाता है जो आवर्तक ‘दौरे’ का प्रतीक है। यह देखा गया है कि यह किसी भी आयु वर्ग के लोगों को भी प्रभावित कर सकता है और अलग-अलग व्यक्ति को निपटने के लिए अलग-अलग चिंताएँ और समस्याएं होती हैं।

17 नवंबर- वर्ल्ड क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज डे या वर्ल्ड COPD डे 

17 नवंबर को हर साल वर्ल्ड क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज डे या वर्ल्ड सीओपीडी डे के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष का विषय “Healthy Lungs – Never More Important” है।

19 नवंबर – विश्व शौचालय दिवस

विश्व शौचालय दिवस हर साल 19 नवंबर को मनाया जाता है। यह दिन मुख्य रूप से वैश्विक स्वच्छता संकट के मुद्दे से निपटने और सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 6 प्राप्त करने के बारे में लोगों को प्रेरित करने पर केंद्रित है, जो 2030 तक सभी के लिए स्वच्छता का वादा करता है। यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ के अनुसार, वैश्विक आबादी का लगभग 60% है जो लगभग 4.5 अरब लोगों के पास या तो घर में शौचालय नहीं है या वे सुरक्षित रूप से शौचालयों का सही ढंग से निपटान नहीं कर पाते हैं।

19 नवंबर – अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस

अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस का मुख्य विषय पुरुषों और लड़कों के लिए बेहतर स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है। 19 नवंबर को हर साल अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस के रूप में मनाया जाता है और यह दिन वैश्विक स्तर पर पुरुषों द्वारा सामना किए जाने वाले मुख्य मुद्दों पर प्रकाश डालता है।

20 नवंबर – सार्वभौमिक बाल दिवस

हर साल 20 नवंबर को यूनिवर्सल चिल्ड्रन डे मनाया जाता है। यह दिन मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय एकजुटता को बढ़ावा देने, दुनिया भर में बच्चों के बीच जागरूकता और बच्चों के कल्याण में सुधार पर केंद्रित है। सार्वभौमिक बाल दिवस की स्थापना 20 नवंबर 1954 को हुई थी।






20 नवंबर – अफ्रीका औद्योगीकरण दिवस

अफ्रीका में औद्योगीकरण की समस्याओं और चुनौतियों के बारे में दुनिया भर में जगाने के लिए हर साल 20 नवंबर को अफ्रीका औद्योगीकरण दिवस मनाया जाता है। यह भी देखा गया है कि विभिन्न अफ्रीकी देशों में सरकारें और अन्य संगठन अफ्रीका के औद्योगीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के विभिन्न तरीकों की जांच करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

21 नवंबर – विश्व टेलीविजन दिवस

विश्व टेलीविजन दिवस हर साल 21 नवंबर को मनाया जाता है। इस दिन टेलीविजन की दैनिक भूमिका पर प्रकाश डाला जाता है क्योंकि यह विभिन्न मुद्दों को प्रस्तुत करता है जो संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लोगों को प्रभावित करते हैं। लोग इस दिन को विश्व परिदृश्य पर भू-टेलीविजन संचार के प्रभाव और पहुंच की स्वीकृति के रूप में मनाते हैं।

21 नवंबर – सड़क यातायात पीड़ितों के लिए विश्व स्मरण दिवस

21 नवंबर को हर साल सड़क यातायात पीड़ितों के लिए विश्व स्मरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन वार्षिक सड़क यातायात मौतों की संख्या में वृद्धि पर प्रकाश डालता है। सड़क यातायात की चोटों में वृद्धि हुई है और जिसमें पीड़ित लोगों की आयु 5 वर्ष से 29 वर्ष के बीच है।

25 नवंबर – महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस

महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल 25 नवंबर को मनाया जाता है। यह दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 1993 के दौरान स्थापित किया गया था। यह दिन महिलाओं के खिलाफ हिंसा को लिंग-आधारित हिंसा के रूप में परिभाषित करता है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मनोवैज्ञानिक नुकसान होता है या महिलाओं को नुकसान होता है, जिसमें धमकियां आदि शामिल हैं।

26 नवंबर – भारत का संविधान दिवस

भारत के संविधान दिवस को भारत के कानून दिवस या संविधान दिवस के रूप में भी जाना जाता है और यह हर साल 26 नवंबर को मनाया जाता है। भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को भारत के संविधान को अपनाया। यह 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।

29 नवंबर – फिलिस्तीनी लोगों के साथ एकजुटता का अंतर्राष्ट्रीय दिवस

फिलिस्तीनी लोगों के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1977 के दौरान, महासभा ने संकल्प 32/40 बी को अपनाने की मदद से इस दिन को फिलिस्तीनी लोगों के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के रूप में घोषित किया। 

30 नवंबर – सेंट एंड्रयू डे

सेंट एंड्रयूज दिवस स्कॉटलैंड और विशेष रूप से उन देशों में मनाया जाता है जहां सेंट एंड्रयू जैसे संरक्षक संत हैं जैसे- बारबाडोस, बुल्गारिया, कोलंबिया, साइप्रस, ग्रीस, रोमानिया, रूस, स्कॉटलैंड और यूक्रेन। यह दिन एंड्रयू द एपोस्टल का पर्व है। बर्न्स नाइट और हॉगमैन के बाद स्कॉटिश कैलेंडर में यह महत्वपूर्ण तिथियों में से एक है |

संघ के  मौन तपस्वी 



सन् 1987 की  बात है। अलीगढ़ जनपद के अतरौली नगर के  नगर संघचालक श्री महेश चंद्र वर्मा  डुंगरमल की धर्मशाला के पीछे लगने वाली  संघ की शाखा में  नियमित रूप से आते थे । प्रेम ,सेवा और सहयोगी भाव  मानो उनके आभूषण थे।  इस धर्मशाला में संघ कार्यालय भी था। शाखा के उपरांत  संघ चालक जी  का धर्मशाला में आकर झाड़ू लगाकर  धुलाई करना मानो  उनकी दिनचर्या का अंग था।  । यह देखकर हम लोग  ( श्री श्याम प्रकाश पाण्डेय आचार्य ,श्री महेंद्रपाल सिंह कार्यालय प्रमुख और मैं ) स्वयं को  असहज अनुभव करते थे, कि संघचालक जी हमारे रहते हुए धर्मशाला की सफाई करने आते हैं।  हम तीनों इसी धर्मशाला में रहते थे।मन में विचार आया कि   यह कार्य तो हम ही कर सकते हैं । फिर एक दिन मैंने  उनको मना किया आप रहने दीजिए ।जब यह कार्य हम लोग न कर सकें , तो फिर आप  कर लीजिएगा ।  इसके बाद स्वच्छता संबंधी कार्य हम लोग ही करने लगे।  बड़ों के द्वारा किए गए सेवा के कार्यों से भावुक मन पर प्रभाव  कदाचित शीघ्र होता है। 

     एक दिन अनायास ही मैं उनके  घर पर संपर्क के लिए चला गया । वहां जाकर देखा तो उनकी धर्मपत्नी  तेज बुखार और दर्द के कारण बहुत परेशान थीं।  मैं बाजार  गया और कुछ दवाइयां  लाकर उन्हें  खिला  दीं । एक घंटे बाद उनका बुखार और दर्द शांत हो गया ।  उनके ठीक होने पर मैं अपने आवास पर चला गया ।   तीन दिन तक मैं उनकी देखभाल करता रहा ।  कदाचित वह मेरे  व्यवहार से प्रभावित होकर कुछ दिन बाद मुझसे मिले और अपने ही घर पर रहने का प्रस्ताव रखा । मैं संघचालक जी  की अवज्ञा न कर सका। मैं उनके यहां सपरिवार  घुलमिल कर रहने लगा।   वही हमारे लिए तुलसी डेयरी से दूध लाते थे।   मेरे अनेक कार्य  वे स्वयं ही पूरा कर देते थे। 

        एक दिन शाम को आपस में जब बैठे तो  अतीत की बहुत सी बातें उन्होंने  साझा की।    संघचालक श्री महेश चंद्र वर्मा ने कहा_ " आचार्य जी !  मेरे यहां प्रचारक बंधु आते थे तो मैं उनके भोजन ,आवास आदि की पूरी चिंता करता था । जिस दिन उनकी भोजन की व्यवस्था हमारे यहां होती थी उस दिन मैं उनको भोजन करा कर दूध भी  पिलाता था और मैं स्वयं सब के कहने पर भी  कुछ नहीं  खाता  था।जब मुझसे भोजन न करने का  कारण पूछा जाता था तो मैं कहता था कि , मेरा स्वास्थ्य खराब है,  इसलिए मैं नहीं खाऊंगा। यह बात वर्षों तक मैंने  किसी को नहीं बताई,  क्योंकि मेरा संयुक्त परिवार था।  परिवार के अन्य लोग स्वयंसेवक नहीं थे।  स्वयंसेवक के नाते मेरा कर्तव्य था कि मैं प्रचारक बंधुओं के  पधारने पर  उनकी सेवा करूं। आज मैं पहली बार आपको बता रहा हूं । "  मैंने कहा ऐसा आपने क्यों किया तो उन्होंने कहा कि परिवार के अन्य लोग  यह न सोचें कि इनकी ओर उठी से अनेक लोग  घर पर आते हैं,  उनके आने पर भोजन _जलपान आदि की व्यवस्था होती है और यह कब तक चलेगा ? उनके इस भाव के कारण घर  में  मनमुटाव या अनावश्यक चर्चा होने की पूरी संभावना  हो सकती  थी । इसलिए मैंने  अंतर्मन में सोचा और अपने को ही कष्ट देना  उचित समझा ,क्योंकि संघ कार्य तो  आजीवन करना है  और परिवार को भी चलाना है । ऐसे अवसर  आते रहे और अनेक वसंत बीत गए।  मैंने संघ के कारण परिवार को बिखरने नही दिया।"  तब मुझे समझ में आया संघ का इतना बड़ा कार्य कैसे हुआ ?  घर में  सब कुछ होकर भी  स्वयंसेवक भूखा  रहकर  संघ कार्य के लिए जीते रहे।  

वास्तव में श्री महेश चंद्र वर्मा  जैसे असंख्य  कार्यकर्त्ताओं  ने अपने को कष्ट  देकर तिल_ तिल गलाकर  संघ कार्य को अपने अनुकरणीय व्यवहार से  प्रभावी बनाया। इसीलिए पूजनीय बाला साहब देवरस ने कहा था देव दुर्लभ कार्यकर्त्ता।

-डा. रामसेवक

निदेशक सरस्वती विद्या मंदिर ब्रज प्रदेश प्रकाशन माधव कुंज मथुरा (उत्तर प्रदेश)

विराट कोहली को 05 - 11 -19 88 जन्म दिवस की मंगल शुभ कामना

 




मासिक पंचांग- नवम्बर -2022



दिनांक 

भारतीय व्रत उत्सव नवम्बर - 2022

गोपाष्टमी,दुर्गा अष्टमी

आमला नवमी,

देव प्रबोधनी एकादशी,भीष्म पंचक प्रारम्भ ,तुलसी विवाह  

शनि प्रदोष व्रत  

वैकुण्ठ चतुर्दशी ,सत्य व्रत ,

कार्तिक पूर्णिमा ,भीष्म पंचक समाप्त ,श्री गुरु नानकदेव जयंती ,चंद्र ग्रहण  

13 

श्री गणेश चतुर्थी व्रत 

16  

काल भैरव अष्टमी ,संक्रांति पुन्य  

20  

उत्पना  एकादशी व्रत, संत ज्ञानेश्वर पुन्य तिथि    

21 

सोम  प्रदोष व्रत 

22    

मास शिव रात्रि ,

23 

अमावस्या, श्री बाला  जी जयंती    

27 

विनायक चतुर्थी  व्रत  

28 

गुरु तेगबहादुर  बलिदान दिवस ,श्री राम विवाह उत्सव नाग पंचमी द भ 

29  

स्कन्ध षष्टी, चम्पा छठ  






पंचक विचार नवम्बर - 2022  

पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा  पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार-दिनांक-02 को 14 - 15 से दिनांक-07 को 00-03, 

दिनांक 29 को 19 - 51 से 04 दिसम्बर को 06 - 16 बजे तक पंचक हैं |

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

भद्रा विचार नवम्बर - 2022 

भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,भैस,घोड़ा व ऊंट संबंधी कार्य प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि  शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य भूलोक की भद्रा ,भद्रा मुख छोड़कर कर भद्रा पुच्छ में शुभ कार्य कर सकते है |

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

दिनांक 

शुरू 

दिनांक 

समाप्त 

01

01-11

01 

12-06

04

06-47

04

18-08

07

16-16

08

04-23

11

07-21

11

20-17

15

03-23

15

16-38

18

20-01

19

10-30

22

08-49

22

19-53

27

05-56

27

16-25

30

08-58

30

20-09




मूल नक्षत्र विचार नवम्बर- 2022 





दिनांक

शुरू 

दिनांक

समाप्त 

05

23-56

08

00-37

15

16-12

17

21-20

24

19-36

26

14-58


अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

सर्वार्थ सिद्धि योग नवम्बर-2022

दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी  शुभ मुहूर्त का अभाव हो,किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु  को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है | इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग | योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक  है| 

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227


दिनांक

प्रारंभ

दिनांक

समाप्त

01

04-15

01

06-37

07

00-03

07

06-41

09

01-38

10

06-43

14

13-14

15

06-48

15

16-12

16

06-49

18

06-50

18

23-07

20

06-51

21

00-35

23

21-36

24

19-36

27

12-37

28

06-57

28

10-28

29

06-58



सुर्य उदय- सुर्य अस्त नवम्बर-2022 


दिनांक

उदय 

दिनांक

अस्त 

06-34

1

17-33

5

06-37

5

17-30

10

06-41

10

17-27

15

06-45

15

17-25

20

06-49

20

17-23

25

06-53

25

17-22

30

06-57

30

17-22

 

 अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें - शर्मा जी - 9560518227

ग्रह स्थिति नवम्बर - 2022

ग्रह स्थिति -  दिनांक 11  शुक्र वृश्चिक में  ,दिनांक 13 मंगल  बुध में, बुध वृश्चिक में  ,दिनांक 16 सूर्य वृश्चिक में  दिनांक 23 गुरु मार्गी , दिनांक 25 शुक्र पश्चिम उदय ||

चौघड़िया मुहूर्त 

चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है|

राहू काल 

 

 राहुकाल -राहुकाल दक्षिण भारत की देन है,दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है |

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

 


मोती रत्न 

मोती शुक्र और चंद्र ग्रह से संबंधित रत्न है | मोती हमेशा चांदी के साथ पहना जाता है | शुक्ल पक्ष सोमवार के दिन मोती खरीदना अच्छा होता है | हम आपको मोती को पूर्णिमा के दिन खरीदने की भी  सलाह देते हैं | सिंह, तुला और धनु लग्न वाले जातकों को कुछ विशेष ग्रह दशाओं में ही मोती पहनने की सलाह दी जाती है. क्योंकि मोती का संबंध चंद्रमा से होता है इसलिए मोती धारण करने से व्यक्ति का मन मजबूत और दिमाग प्रबल होता है | मोती उन जातकों के लिए भी उपयोगी है जो नीच के चंद्रमा की समस्याओं से परेशान है | चंद्रमा क्षीण हो या सूर्य के साथ हो तब भी मोती पहना जा सकता हैं। कुंडली में अगर चंद्रमा कमजोर स्थिति में है तो भी चंद्रमा का बल बढ़ाने के लिए मोती धारण कर सकते हैं। मीन लग्न वाले जातकों की कुंडली में चन्द्रमा पांचवे घर का मालिक होता है, ये स्थान शुभ होता है,इसलिए मीन राशि के लोगो को मोती अवश्य पहनना चाहिए।अत्यधिक भावुक लोगों और क्रोधी लोगों को मोती नहीं पहनना चाहिए | ज्योतिष के मुताबिक, मेष, कर्क, तुला, और मीन लग्न के लिए मोती पहनना सबसे शुभ माना गया है। तो वही सिंह, वृश्चिक और धनु लग्न वाले विशेष दशाओं और ग्रहों की स्थितियों में मोती धारण कर सकते हैं। वृष, मिथुन, कन्या, मकर और कुम्भ लग्न के लिए मोती धारण करना नुकसानदायक है। मोती के साथ हीरा, पन्ना, नीलम और गोमेद धारण करने से नुकसान होता है।इसे धारण करने से व्‍यक्ति अपने गुस्‍से पर काबू करना सीख जाता है। सर्दी जुकाम की समस्‍याएं दूर होती हैं और मन में सकारात्‍मक विचारों का प्रवाह बढ़ने लगता है। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार मोती का संबंध मां लक्ष्‍मी से माना जाता है। मोती को धारण करने से मां लक्ष्‍मी की विशेष कृपा प्राप्‍त होती है।


शुक्र ग्रह

आकाश मंडल में  बुध ग्रह के बाद शुक्र ग्रह का स्थान है | शुक्र ग्रह,सूर्य व  चंद्र  के बाद सबसे प्रकाशवान ग्रह  हैं बृहस्पति के साथ-साथ शुक्र को भी मंत्रिपरिषद में मंत्री पद मिला है |शुक्र का रंग सफेद, प्रवृत्ति वात, ब्राह्मण जाति, जल तत्व, स्त्रीलिंग, गुण  शुभ, वसंत ऋतु, तुला और वृषभ राशि का स्वामी, रत्न मोती , धातु  चांदी ,जन्म कुंडली में साथ में घर का स्वामी,शुक्र अंक 6 ,3,12, 21 व 29 तारीख को जन्मे लोगों के साथ किसी प्रकार का कारोबार संबंध नहीं रखना चाहिए ,5 6 8 14 15 17 23 24 व  26 तारीख में जन्मे हुए लोगों के साथ कारोबार करते हैं या मित्रता करते हैं तो लाभ होने की संभावना होती है | शुक्र के विकार - मेष राशि में शुक्र हो तो नेत्र विकार होती हैं ,वृषभ राशि में शुक्र होने पर गले में सूजन खांसी ,मिथुन राशि में शुक्र हो तो चेहरे पर फुंसियां कील मुंहासे ,कर्क राशि में शुक्र हो तो पेट फूलना बीमा चलाना ,सिंह राशि में शुक्र हो तो ह्रदय विकार ,कन्या राशि में शुक्र होने पर अतिसार का रोग ,तुला राशि में शुक्र होने पर पेशाब संबंधी रोग ,वृषभ राशि में शुक्र होने पर हर्निया जैसे लोग ,धनु राशि में शुक्र होने पर कमर नितंब मलाशय से संबंधित रोग ,मकर राशि में शुक्र होने पर घुटनों में सूजन व त्वचा रोग ,कुंभ राशि में शुक्र होने पर रक्त दोष , नसों से संबंधित रोग ,मीन राशि में शुक्र होने पर पैरों की एड़ियां फटना व वल्व संबंधी रोग |


देव उठानी एकादशी ,तुलसी विवाह 

कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव प्रबोधिनी एकादशी या देवउठनी एकादशी कहते हैं इस दिन शाम को जमीन को पानी से धो कर खड़िया मिट्टी से देवी के चित्र बनाकर सूखने के बाद उन पर  रुई गूढ  मूली बैंगन सिंघाड़े बेर रखकर एक तरह से ढक कर रख दिया जात्ता है | दिया जलाकर रात्रि में परात  बजाकर देव उठाने के गीत या भदवा गाते हैं | गीत गाने के बाद दीपक से  बनी काजल  लगाते हैं शेष काजल उठाकर रख लेते हैं | आषाढ़ शुक्ल एकादशी से सोये देव  कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन उठते हैं | सभी शुभ कार्य विवाह आदि इसी दिन से शुरू हो जाते हैं यह पूजा उसी स्थान पर करते हैं जहा दीपावली की पूजा होती है | तुलसी शालिगराम विवाह पूरी धूमधाम से उसी प्रकार किया जाता है | जिस प्रकार सामान्य विवाह होते हैं | शास्त्रों के अनुसार देवउठनी एकादशी तुलसी विवाह करते हैं कहते हैं कि जिनके कन्या नहीं होती वे अगर तुलसी विवाह करके कन्यादान करें तो उनके यहां कन्या होती है और कन्यादान का फल मिलता है अगर कोई बुजुर्ग दंपत्ति है और वह चाहते हैं कि उनको कन्यादान का फल मिले तो वह तुलसी विवाह करके कन्यादान का फल ले सकते हैं घर में तुलसी जी हो तो विवाह करना चाहिए अगर हम ज्यादा खर्चा नहीं कर सकते तो तुम चुन्नी , पूरा सिंगार का सामान व शालीग्राम की मूर्ति रख  मिठाई  अर्पित करें तथा संकल्प करे की हमारी पूजा स्वीकार करे |


उत्पन्ना एकादशी

 उत्पन्ना एकादशी का व्रत मार्गशीर्ष मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है इस दिन भगवान श्री कृष्ण की पूजा का विधान है | एकादशी का व्रत रखने वाले दसवीं के दिन शाम को भोजन नहीं करते | एकादशी के दिन ब्रह्म बेला में भगवान कृष्ण की पुष्प,जल,धूप, अक्षत से पूजा की जाती है | इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता है | यह  ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों का संयुक्त अंश माना जाता है |अंश दत्तात्रेय के रूप में प्रकट था |यह मोक्ष देने वाला व्रत  माना जाता है |

 उत्पन्ना एकादशी की कथा सतयुग में एक बार मुर नामक दैत्य ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र को अपदस्त  कर दिया | देवता भगवान शंकर की शरण में पहुंचे भगवान शंकर ने देवताओं को विष्णु जी के पास भेज दिया | विष्णु जी ने दानवो को तो परास्त कर दिया परंतु मूर भाग गया | विष्णु ने मूर  को भागता देख लड़ना छोड़ दिया और चंद्रिका आश्रम की गुफा में आराम करने लगे | मुर ने वहां पहुंचकर विष्णु जी को मारना चाहा | तत्काल विष्णु जी के शरीर से एक कन्या उत्पन्न हुई और मूर से लड़ने लगी काफी देर लगने के पश्चात कन्या ने मूर को मार दिया | तब भगवान विष्णु ने कन्या को आशीर्वाद दिया कि तुम संसार में माया  जाल में उलझे तथा मोह के कारण मुझसे विमुख हुए  प्राणियों को मुझ तक लाने में सक्षम होगी | तुम्हारी आराधना करने वाले प्राणी जीवनभर सुखी रहेंगे है |

तुला राशी 

कन्या राशी से  तुला राशि दक्षिण पूर्व में स्थित है | इस का निशान तराजू है | यह राशि अनुरूपता समानता व न्याय का प्रतीक है | पृथ्वी पर विषुवत रेखा से 12 डिग्री तक स्थान निश्चित है |तुला राशी के स्वमी  शुक्र |स्वाति  व् विशाखा न्कच्त्र |  अंक  6 , तुला राशी  के नाभि के अतिरिक्त कमर गुदा से भी संबंध है | तुला राशि उपरोक्त शरीर के स्थानों पर प्रभाव डालती है | नीतिशास्त्र,धर्मशास्त्र, न्याय एवं स्मृति पर प्रभाव होता है | द्रव्य में तिल वस्त्र गेहूं चना चावल व अरंडी जैसे सामानों पर भी अपना प्रभाव रखती है | ऑस्ट्रेलिया पुर्तगाल जापान तिब्बत वर्मा अर्जेंटीना का यह राशि प्रतिनिधित्व करती है | तुला लग्न में जन्म लेने वाले व्यक्तियों का रंग गोरा शरीर स्थूल  तथा नाक  मोटी होती है | कफ प्रवृत्ति वाले कमजोर वीर्य युक्त  होते हैं | तुला राशी वाला  व्यक्ति  धनी,यशस्वी,परोपकारी,प्रिय वादी,सत्यवादी व यात्रा करने में रुचि रखते हैं कहे तो साधारणतय भ्रमणशील  होते हैं | अमीर  व्यक्ति भी  इस राशि में पाए जाते हैं | यह लोग व्यापार कुशल अगर थोड़ा प्रयास करें तो अच्छे ज्योतिषी, वकील अपने कुल के भूषण होते हैं, सरकारी कर्मचारी राजा के द्वारा सम्मानित और पर स्त्रियों से प्रेम रखने वाले भी होते हैं | तुला राशि वाले प्रारंभिक अवस्था में दुख भोगते  हैं मध्य अवस्था में सुख प्राप्त करते हैं अंतिम अवस्था सामान्य रूप से चलती है | भाग्योदय का 31 से 32 वर्ष की आयु में होता है मेष मिथुन कुंभ लग्न वालों से मैत्री रहती है शनि ग्रह इनके  लिए श्रेष्ठ होता है | बुध व शुक्र शुभ रहते हैं,सूर्य मंगल गुरु अशुभ रहते हैं मूत्र स्थल गुदा व कमर संबंधी रोग तला राशी वालो को हो सकते है | 





संस्कृत में अक्षर का  चमत्कार 

अंग्रेजी में 'THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG' एक प्रसिद्ध वाक्य है। अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर उसमें समाहित हैं। किन्तु कुछ कमियाँ भी हैं :-

अंग्रेजी अक्षर 26 हैं और यहां जबरन 33 अक्षरों का उपयोग करना पड़ा है। चार O हैं और A,E,U तथा R दो-दो हैं। अक्षरों का ABCD... यह स्थापित क्रम नहीं दिख रहा। सब अस्तव्यस्त है।अब संस्कृत में चमत्कार देखिए-

        क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।

तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।

अर्थात्- पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का , दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन? राजा मय कि जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं। 

 आप देख सकते हैं कि संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस पद्य में आ जाते हैं। इतना ही नहीं, उनका क्रम भी यथायोग्य है।

 एक ही अक्षरों का अद्भूत अर्थ विस्तार...माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल "भ" और "र " दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है-

 भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।

भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।

अर्थात् धरा को भी वजन लगे ऐसे वजनदार, वाद्य यंत्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले निडर हाथी ने अपने दुश्मन हाथी पर हमला किया। 

         किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल "न"  व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल्य  प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है:-

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।

नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्।। 

       अर्थात्  जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।। 


     असली शांति 



एक राजा था जिसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा जो शान्ति को दर्शाता हो तो वह उसे मुँह माँगा पुरस्कार देगा।                 

निर्णय वाले दिन एक से बढ़ कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र लेकर राजा के महल पहुँचे। राजा ने एक-एक करके सभी चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्रों को अलग रखवा दिया। अब इन्ही दोनों में से एक को पुरस्कार के लिए चुना जाना था।                

       पहला चित्र एक अति सुन्दर शान्त झील का था। उस झील का पानी इतना स्वच्छ था कि उसके अन्दर की सतह तक दिखाई दे रही थी। और उसके आस-पास विद्यमान हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो। ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे। जो कोई भी इस चित्र को देखता उसको यही लगता कि शान्ति को दर्शाने के लिए इससे अच्छा कोई चित्र हो ही नहीं सकता। वास्तव में यही शान्ति का एक मात्र प्रतीक है।     

दूसरे चित्र में भी पहाड़ थे, परन्तु वे बिलकुल सूखे, बेजान, वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमें बिजलियाँ चमक रहीं थीं… घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था। जो कोई भी इस चित्र को देखता यही सोचता कि भला इसका ‘शान्ति’ से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।     

            सभी आश्वस्त थे कि पहले चित्र बनाने वाले चित्रकार को ही पुरस्कार मिलेगा। तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और घोषणा की कि दूसरा चित्र बनाने वाले चित्रकार को वह मुँह माँगा पुरस्कार देंगे। हर कोई आश्चर्य में था!                 

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस चित्र में ऐसा क्या है जो आपने उसे पुरस्कार देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरा चित्र ही शान्ति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”                   

“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा। दूसरे चित्र के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक ओर झुके इस वृक्ष को देखो। उसकी डाली पर बने उस घोंसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शान्त भाव व प्रेमपूर्वक अपने बच्चों को भोजन करा रही है…”    

               फिर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को समझाया, “शान्त होने का अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसी स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शान्त होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शान्त रहें, अपने काम पर केंद्रित रहें… अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।” अब सभी समझ चुके थे कि दूसरे चित्र को राजा ने क्यों चुना है।             

शिक्षा:-   

मित्रों, हर कोई अपने जीवन में शान्ति चाहता है। परन्तु प्राय: हम ‘शान्ति’ को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं और उसे दूरस्थ स्थलों में ढूँढते हैं, जबकि शान्ति पूरी तरह से हमारे मन की भीतरी चेतना है और सत्य यही है कि सभी दुःख-दर्दों, कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी शान्त रहना ही वास्तव में शान्ति है..!!

सदैव प्रसन्न रहिये - जो प्राप्त है, पर्याप्त है। जिसका मन मस्त है - उसके पास समस्त है।।



एंजायटी,तनाव ,घवराहट,चिंता दूर करे 

वीरासन,बालासन,त्रिकोणासन,दण्डासन,उत्तरासान,पश्चिमोत्तानासन आदि आसन करने से इस रोग में  फायदा होता है | कम से कम 6 बार ॐ का उचारण करे | दोनों हाथो की हथेली के मद्य भाग को दस बार हल्के  हल्के दबाये | हर व्यक्ति को किसी घटना, स्थिति को लेकर डर या चिंता रहती है। लेकिन अगर चिंता का स्तर लंबे समय तक बना रहे, या व्यक्ति इसे नजरअंदाज करे, तो यह एंग्जायटी अटैक का रूप ले लेती है। एंग्जायटी अटैक में व्यक्ति हर वक्त चिंता, डर और बेचैनी का अनुभव करता है। उसकी दिल की धड़कन तेज होने लगती है और घुटन की हद तक सांस फूलने लगती है।एंग्जायटी के कारण,उत्तेजित हो जाना,घबराहट हो जाना,थकान हो जाना,ध्यान देने में मुश्किल होना चिड़चिड़ापन होना,मांसपेशियों में तनाव,सोने में समस्या होना,घबराहट का दौरा पड़ना जैसे लक्चन व्यक्ति में  दिखने लगते है |घबराहट की समस्या से बचने के लिए ऐसे रोगी को गिनती करना,हल्के व्यायाम करना ,सैर करना ,मंत्र जाप करना ,अकेलेपन से दूर रहना ,योग व ध्यान करने का आभ्यास करना चाहिए । सभी ऐसी बातों, वातावरण व कार्यो  से दूर रहें जो आपके लिए मानसिक तनाव को बढ़ाने का काम करते हो। दौरा आने पर दिए हुए तरीके अपनाएं तो पल में दूर होगी सभी मुश्किल | शाकाहारी भोजन का सेवन अधिक करें। कैफीन युक्त पदार्थों का सेवन सीमित करें | ​शराब व नशीले पथार्ठो का  सेवन ना  करे | ज्यादातर लोग शराब व अन्य नशा सिर्फ इसलिए करते  हैं कि इससे चिंता व तनाव  दूर होगा | होता इससे उलत है शरीर में रोगों से लड़ने की ताकत खत्म हो जाती है। ​बासी खाने से बचे | तला भुना कम खाए | 

मुन्ना का प्यार

ये क्या बोल रहे हो, बेटा?तुम अमेरिका चले जाओगे तो हम इस उम्र में कैसे जी पायेंगे?यहाँ अपने देश में क्या कमी है, मुझे और तेरी मां दोनों को खूब पेंशन मिलती है, तुम भी कमा ही रहे हो, एक बंगला और एक फ्लैट हमारे पास है, बेटा वो सब हम तुम्हारे नाम कर देते हैं, वैसे भी सब कुछ तुम्हारा ही तो है, इस 83वर्ष की उम्र में हम तुझसे दूर नही रहना चाहते।बेटा हमसे दूर मत जाना।

       83वर्ष का जगदीश यह सब गुहार अपने एकलौते बेटे से कर रहा था।बेटा अमेरिका में जॉब मिल जाने के कारण वहाँ जाना चाहता था और जगदीश भविष्य में अपने और अपनी पत्नी के एकाकी जीवन के लिये चिन्तित था।ऐसा नही था कि बेटा बेरोजगार था, वो बैंक में जॉब कर रहा था, खुद जगदीश तथा उसकी पत्नी केंद्रीय जॉब से निवृत हुए थे,दोनो को ही अच्छी खासी पेंशन मिलती थी।पत्नी बिमार रहने लगी थी,और सपोर्ट से ही थोड़ा बहुत चल पाती थी।

     बेटे के अमेरिका जाने के ऐलान के बाद जगदीश की पत्नी तो मानो पत्थर की हो गयी, उसने बेटे को रुक जाने के बारे मे एक शब्द भी नही बोला।वो जगदीश की पत्नी थी, जगदीश उसके चेहरे से ही उसके सदमे को महसूस कर बेटे से रुकने का आग्रह कर रहा था।पर बेटे पर विदेश जाने का ग्लैमर हावी था, वो अपने पिता को समझाने का प्रयास कर रहा था कि उसकी अनुपस्थिति में भी उन्हें कोई तकलीफ नही होगी, घर की सफाई आदि को मेड आयेगी ही,खाना न बनाना पड़े इसलिये वो टिफीन व्यवस्था करके जायेगा, बिमारी की हालत में वो उसके मित्र को बस फोन कर देंगे तो इलाज आदि की व्यवस्था वो कर देगा।

अवाक जगदीश अपने बेटे का मुहँ देखता रह गया।कितना स्याना हो गया है हमारा मुन्ना, विदेश जा रहा है, पर हमारा सब इंतजाम करके।उसे कैसे समझाया जाता कि टिफिन के खाने में और बेटे बहु द्वारा परोसे खाने मे अपनेपन के अहसास की कमी होती है।खुद की जिम्मेदारी को दोस्त पर डाल कर हमें निश्चिंत कर रहा था,हमारा स्याना बेटा।

    अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख जगदीश ने एक बार फिर कहा कि मुन्ना विदेश जाने का चांस तो हमे भी मिला था पर तेरी बोर्ड की परीक्षा के कारण हम तो गये नही।मुन्ना अब तक अपनी सहनशक्ति खो चुका था, बोला पापा आपने बेवकूफ़ी की तो क्या आप चाहते हैं कि मैं भी बेवकूफ़ी करूँ?मुन्ना का यह रूप देख और उसका उत्तर सुनकर जगदीश सन्न रह गया।उसने कातर नजरो से अपनी अपंग पत्नि की तरफ देखा तो वो तो बस यूं ही पत्थर बनी छत की ओर देख रही थी, पर आँखों के कोर में आंसू की बूंदे वो जगदीश से कैसे छुपाती।

    जगदीश एकदम खामोश हो गया,जिस आत्मसम्मान को वो जीवनभर ढोता आया था, उस बोझ को उसी के बेटे ने एक झटके में उतार दिया था।कुछ भी ना बोलकर जगदीश ने अपने बेटे को अमेरिका जाने में पूरी सहायता की। आखिर वो चला ही गया,बूढ़े माता पिता को अकेले जीने के लिये या फिर मरने के लिये छोड़कर।किसी प्रकार जीवन की गाड़ी दोनो ने खींचनी प्रारम्भ की ही थी कि एक दिन सुबह सुबह जगदीश की पत्नी उठी ही नहीं, जगदीश आवाज देता रहा पर अनन्त यात्रा पर गया यात्री किसकी सुनता है? जगदीश मुन्ना को उसकी माँ की मौत का समाचार नही देना चाहता था, पर उसके मित्रों ने सूचना भेज ही दी।मुन्ना का फोन आया, पापा माँ चली गयी और मैं उनके अंतिम दर्शन भी नही कर सका।आप अपने को संभालना, मैं अभी तो नहीं आ पाउँगा पर जैसे ही अवकाश मिलेगा तब मिलने आऊँगा।कितने प्यार से मुन्ना अपने पापा को सांत्वना दे रहा था, अब वो कोई बच्चा थोड़े ही है, अमेरिका में सर्विस कर रहा है, बड़ा हो गया है ना।वो तो छुट्टियां नही मिल रही इसलिये नही आ पा रहा नही तो आता जरूर अपनी माँ का अन्तिम संस्कार भी करता,बहुत प्यार भरा पड़ा है उसके मन में। जगदीश ने बेटे से कहा बेटा चिंता मत करो, बेकार फोन किया अरे मुन्ना वो मेरी पत्नी थी और मैं हूँ ना,सब कर लूंगा।

     पत्नि को गये दो माह बीत गये थे,पूरा बंगला खाने को दौड़ता था।बेटे द्वारा उसके सम्मान को जो चकनाचूर किया था उसका दंश उसे और विचलित कर देता।इतनी उम्र होने पर भी भगवान भी अपने पास नही बुला रहा।उसका मन अब मुन्ना से भी बात करने को नही करता।

      आत्मसम्मान को चोट और अकेलेपन ने जगदीश को तोड़कर रख दिया।एकदिन उसने कुछ निर्णय लिया और अपना बंगला तथा फ्लैट एक ट्रस्ट को दान कर दिया और खुद एक वृद्धाश्रम में रहने को चला गया।

     यहाँ रहते जगदीश को दो वर्ष हो गये हैं।कभी कभी उसका फोन आता है या मैं उसे फोन वार्ता कर लेता हूँ, मनोभावो को पढ़ने को मैं हमेशा विडियो कॉल करता हूँ, जिससे जगदीश को देख तो सकूँ।85 वर्ष की उम्र में वो अपनी उम्र के सखाओं के बीच खुश है।एक बात और बताऊँ इन दो वर्षों में उसने कभी भी अपने बेटे का जिक्र अपनी बातों में नही किया।

    एक दिन मैंने ही फोन पर मुन्ना के बारे में पूछ लिया तो जगदीश बोला अरे मुन्ना अपने पापा को बहुत प्यार करता है, अपनी माँ से भी करता था, बस मेरी मौत की खबर उसे मत देना नही तो उसे भारत न आ पाने का बहुत दुःख होगा? जगदीश के दर्द को मै समझ रहा था, वृद्धाश्रम में जगदीश खुश था कह रहा था पेन्शन आती है, वृद्धाश्रम को दे देता हूं।पूरे आत्मसम्मान के साथ रहता हूँ, वो मेरा खूब ध्यान रखते हैं।फिर सहसा उसकी आंखों में आँसू आ जाते हैं और धीरे से कहता है मुन्ना ने हमे इतना प्यार क्यूँ दिया भला?

        बालेश्वर गुप्ता  नोयडा ।

मोन की भाषा

 

शब्दों में वजन बहुत अधिक सिमटे।

प्रहार करने पर लहूलुहान करे।

भारी भरकम शिला जो कर न सके।

शब्दों का प्रहार वह काम करे।।

 

इसका अहसास मुझे तब हुआ।

डॉक्टर ने कहा मुझे,शब्द निकालो नही।

वोइज बॉक्स में हुई समस्या है।

अब कुछ दिन मुझको चुप रहना है।।

 

अब चुप रह कर सब काम करू।

मुह से शब्द निकाल ना पाती हूँ।।

घर में बच्चे भी अब कुछ भी कहते।

पति महोदय भी बहुत सुनाने लगे।।

 

शब्दों के बल पर सब को चुप रखती थी।

अब शब्द नही तो सब हावी हुए।।

 

 

 

 

 

सबकी सुनना कितना मुश्किल है।

सुनाने को मन बहुत ही  करता है।।

 

लेकिन मोन रहने की वजह से ही,

सबको चुप करके सुनना पड़ता है।।

चुपचाप  हूँ मैं पर मेरे शब्द नही।

शब्दों की ताकत कम तो नही।।

 

शब्द अभी भी बोल रहे।

मोन रह कर भी वह डोल रहे।।

मैं चुप हूँ लेकिन बोल रही।

शब्दो को लिख कर सौंप रही।।

 

मेरे शब्दों को सुन लो तुम सब ।

शब्दो की ताकत कम तो नही।।

मैं चुप हूँ लेकिन निः शब्द नही।

मैं चुप हूँ लेकिन निः शब्द नही।|

 

 

 

 

ग़ज़ल

वो जो सभी के बीच में खुशियाँ लुटा रहा।

दुख दर्द  अपने सबसे  छिपा मुस्कुरा रहा।

 

जो बात थी सही वही तो सामने रखी।

चाहे भले ही दोस्त वो मुझसे खफा रहा।

 

मंजिल की चाह को लिए तन्हा ही चल पड़े।

पूरे सफर में  साथ  मगर हौसला रहा।

 

नाकाम हो गईं हैं भुलाने की कोशिशें।

खामोशियों के साथ वो मन में बसा रहा।

 

मालूम है उसे कि ये  कड़वा यथार्थ है।

आँखों में फिर भी ख्वाब वो मीठे सजा रहा।

 

जब जख्म दोस्तों ने दिए बेशुमार से।

दुश्मन भी तब पसीज के मरहम लगा रहा।

 

गुलजार बाग देख के कश्यप हैं खुश सभी।

वो बागबाँ जिसे लहू से सींचता रहा।

 

प्रदीप कश्यप

 

संबंध

सुबह से संदेशे तो बहुत आये लेकिन मेहमान कोई नही आया. सोचा, ड्राइंग रूम से सोफा हटा दूं. या ड्राइंग रूम का कांसेप्ट बदलकर वहां स्टडी रूम बना दूं |

दो दिन से व्हाट्स एप और एफबी के मेसेंजर पर मेसेज खोलते, स्क्रॉल करते और फिर जवाब के लिए टाइप करते करते दाहिने हाथ के अंगूठे में दर्द होने लगा है. संदेशें आते जा रहे हैं. बधाईयों का तांता है. लेकिन मेहमान नदारद है |

ये है आज के दौर की दीवाली |

मित्रों, घर के आसपास के पडौसी अगर छोड़ दें तो त्यौहार पर मिलने जुलने का रिवाज़ खत्म हो चला है |

पैसे वाले दोस्त और अमीर किस्म के रिश्तेदार मिठाई या गिफ्ट तो नोकरों के साथ भिजवाते है घर पर बेल ड्राईवर बजाता है. वो खुद नही आते |

दरअसल घर अब घर नही रहा. ऑफिस के वर्क स्टेशन की तरह घर एक स्लीप स्टेशन है. हर दिन का एक रिटायरिंग बेस. आराम करिए, फ्रेश हो जाईये. घर अब सिर्फ घरवालों का है. घर का समाज से कोई संपर्क नही है. मेट्रो युग 

 

 

 

 

में समाज और घर के बीच तार शायद टूट चुके हैं | हमे स्वीकार करना होगा कि ये बचपन वाला घर नही रहा | अब घर और समाज के बीच में एक बड़ा फासला सा है |

वैसे भी शादी अब मेरिज हाल में होती है. बर्थडे मैक डोनाल्ड या पिज़्ज़ा हट में मनाया जाता है. बीमारी में नर्सिंग होम में खैरियत पूछी जाती है. और अंतिम आयोजन के लिए सीधे लोग घाट पहुँच जाते है |

सच तो ये है कि जब से डेबिट कार्ड और एटीएम आ गये है तब से मेहमान क्या ...चोर भी घर नही आते |मैं सोचता हूँ कि चोर आया तो क्या ले जायेगा...फ्रिज, सोफा, पलंग, लैप टॉप..टीवी...कितने में बेचेगा इन्हें चोर? अरे री सेल तो olx ने चौपट कर दी है. चोर को बचेगा क्या ? वैसे भी अब कैश तो एटीएम में है,इसीलिए होम डेलिवरी वाला भी पिज़ा के साथ डेबिट मशीन साथ लाता है |

सच तो ये है कि अब सवाल सिर्फ घर के आर्किटेक्ट को लेकर ही  बचा है.

जी हाँ....क्या घर के नक़्शे से ड्राइंग रूम का कांसेप्ट खत्म कर देना चाहिये ??

जरा इस सवाल पर गौर करियेगा.

 

 

 

कोयला और चंदन...?

क्या हकीम लुकमान का नाम सुना है, आपने? 

*जब उनका अंतिम समय नजदीक आया तो उन्होंने अपने बेटे को पास बुलाया। बेटा पास आ गया तो उन्होंने उससे कहा, 'देखो बेटा, मैंने अपना सारा जीवन दुनिया को शिक्षा देने में गुजार दिया। अब अपने अंतिम समय में मैं तुम्हें कुछ जरूरी बातें बताना चाहता हूं। लेकिन इससे पहले जरा तुम एक कोयला और चंदन का एक टुकड़ा उठा कर ले लाओ। बेटे को पहले तो यह बड़ा अटपटा लगा, लेकिन उसने सोचा कि अब पिता का हुक्म है तो यह सब लाना ही होगा। उसने रसोई घर से कोयले का एक टुकड़ा उठाया। संयोग से घर में चंदन की एक छोटी लकड़ी भी मिल गई। वह दोनों को लेकर अपने पिता के पास पहुंच गया। उसे आया देख लुकमान बोले, 'बेटा, अब इन दोनों चीजों को नीचे फेंक दो।' बेटे ने दोनों चीजें नीचे 

 

 

 

 

फेंक दीं और हाथ धोने जाने लगा तो लुकमान बोले, 'जरा ठहरो बेटा। मुझे अपने हाथ तो दिखाओ।' बेटे ने हाथ दिखाए तो वह उसका कोयले वाला हाथ पकड़ कर बोले, 'देखा तुमने। कोयला पकड़ते ही हाथ काला हो गया। लेकिन उसे फेंक देने के बाद भी तुम्हारे हाथ में कालिख लगी रह गई। गलत लोगों की संगति ऐसी ही होती है। उनके साथ रहने पर भी दुख होता है और उनके न रहने पर भी जीवन भर के लिए बदनामी साथ लग जाती है। दूसरी ओर सज्जनों का संग इस चंदन की लकडी की तरह है जो साथ रहते हैं तो दुनिया भर का ज्ञान मिलता है और उनका साथ छूटने पर भी उनके विचारों की महक जीवन भर बनी रहती है। इसलिए हमेशा अच्छे लोगों की संगति में ही रहना। जीवन हमारा तो सज्जन /दुर्जन संग का निर्णय भी हमारा ही हो..!! सोरभ शर्मा 

  

 

 

 


ज्ञान व चरित्र

एक राजपुरोहित थे। वे अनेक विधाओं के ज्ञाता होने के कारण राज्य में अत्यधिक प्रतिष्ठित थे। बड़े-बड़े विद्वान उनके प्रति आदरभाव रखते थे पर उन्हें अपने ज्ञान का लेशमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका विश्वास था कि ज्ञान और चरित्र का योग ही लौकिक एवं परमार्थिक उन्नति का सच्चा पथ है। प्रजा की तो बात ही क्या स्वयं राजा भी उनका सम्मान करते थे और उनके आने पर उठकर आसन प्रदान करते थे।

एक बार राजपुरोहित के मन में जिज्ञासा हुई कि राजदरबार में उन्हें आदर और सम्मान उनके ज्ञान के कारण मिलता है अथवा चरित्र के कारण? इसी जिज्ञासा के समाधान हेतु उन्होंने एक योजना बनाई। योजना को क्रियान्वित करने के लिए राजपुरोहित राजा का खजाना देखने गए। खजाना देखकर लौटते समय उन्होंने खजाने में से पाँच बहुमूल्य मोती उठाए और उन्हें अपने पास रख लिया। खजांची देखता ही रह गया। राजपुरोहित के मन में धन का लोभ हो सकता है। खजांची ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। उसका वह दिन उसी उधेड़बुन में बीत गया।

दूसरे दिन राजदरबार से लौटते समय राजपुरोहित पुन: खजाने की ओर मुड़े तथा उन्होंने फिर पाँच मोती उठाकर अपने पास रख लिए। अब तो खजांची के मन में राजपुरोहित के प्रति पूर्व में जो श्रद्धा थी वह क्षीण होने लगी।

तीसरे दिन जब पुन: वही घटना घटी तो उसके धैर्य का बाँध टूट गया। उसका संदेह इस विश्वास में बदल गया कि राजपुरोहित की ‍नीयत निश्चित ही खराब हो गई है।

उसने राजा को इस घटना की विस्तृत जानकारी दी। राजा को इस सूचना से बड़ा आघात पहुँचा। उनके मन में राजपुरोहित के प्रति आदरभाव की जो प्रतिमा पहले से प्रतिष्ठित थी वह चूर-चूर होकर बिखर गई।

चौथे दिन जब राजपुरोहित सभा में आए तो राजा पहले की तरह न सिंहासन से उठे और न उन्होंने राजपुरोहित का अभिवादन किया, यहाँ तक कि राजा ने उनकी ओर देखा तक नहीं। राजपुरोहित तत्काल समझ गए कि अब योजना रंग ला रही है। उन्होंने जिस उद्देश्य से मोती उठाए थे, वह उद्देश्य अब पूरा होता नजर आने लगा था।यही सोचकर राजपुरोहित चुपचाप अपने आसन पर बैठ गए। राजसभा की कार्यवाही पूरी होने के बाद जब अन्य दरबारियों की भाँति राजपुरोहित भी उठकर अपने घर जाने लगे तो राजा ने उन्हें कुछ देर रुकने का आदेश दिया। सभी सभासदों के चले जाने के बाद राजा ने उनसे पूछा - 'सुना है आपने खजाने में कुछ गड़बड़ी की है।'इस प्रश्न पर जब राजपुरोहित चुप रहे तो राजा का आक्रोश और बढ़ा। इस बार वे कुछ ऊँची आवाज में बोले -'क्या आपने खजाने से कुछ मोती उठाए हैं?' राजपुरोहित ने मोती उठाने की बात को स्वीकार किया।

राजा का अगला प्रश्न था - 'आपने कितेने मोती उठाए और कितनी बार?' राजा ने पुन: पूछा - 'वे मोती कहाँ हैं?'राजपुरोहित ने एक पुड़िया जेब से निकाली और राजा के सामने रख दी जिसमें कुल पंद्रह मोती थे। राजा के मन में आक्रोश, दुख और आश्चर्य के भाव एक साथ उभर आए।राजा बोले - 'राजपुरोहित जी आपने ऐसा गलत काम क्यों किया? क्या आपको अपने पद की गरिमा का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहा। ऐसा करते समय क्या आपको लज्जा 

नहीं आई? आपने ऐसा करके अपने जीवनभर 

 

 

की प्रतिष्ठा खो दी। आप कुछ तो बोलिए,आपने ऐसा क्यों किया?राजा की अकुलाहट और उत्सुकता देखकर राजपुरोहित ने राजा को पूरी बात विस्तार से बताई तथा प्रसन्नता प्रकट करते हुए राजा से कहा - 'राजन् केवल इस बात की परीक्षा लेने हेतु कि ज्ञान और चरित्र में कौन बड़ा है, मैंने आपके खजाने से मोती उठाए थे अब मैं निर्विकल्प हो गया हूँ। यही नहीं आज चरित्र के प्रति मेरी आस्था पहले की अपेक्षा और अधिक बढ़ गई है।आपसे और आपकी प्रजा से अभी तक मुझे जो प्यार और सम्मान मिला है। वह सब ज्ञान के कारण नहीं ‍अपितु चरित्र के ही कारण था। आपके खजाने में सबसे अधिक बहुमू्ल्य वस्तु सोना-चाँदी या हीरा-मोती नहीं बल्कि चरित्र है।अत: मैं चाहता हूँ कि आप अपने राज्य में चरित्र संपन्न लोगों को अधिकाधिक प्रोत्साहन दें ताकि चरित्र का मूल्य उत्तरोत्तर बढ़ता रहे। कहा जाता है - धन गया,कुछ नहीं गया,स्वास्थ्‍य गया,कुछ गया। चरित्र गया तो सब कुछ गया। 

संकलित सतीश शर्मा 

 

ज्ञानार्जन

कुछ माता-पिता बड़े समझदार होते हैं! वे अपने बच्चों को किसी की भी मंगनी, विवाह, लगन, शवयात्रा, उठावना, तेरहवीं (पगड़ी) जैसे अवसरों पर नहीं भेजते, इसलिए कि उनकी पढ़ाई में बाधा न हो! उनके बच्चे किसी रिश्तेदार के यहां आते-जाते नहीं, न ही किसी का घर आना-जाना पसंद करते हैं। वे हर उस काम से उन्हें से बचाते हैं जहां उनका समय नष्ट होता हो। उनके माता-पिता उनके करियर और व्यक्तित्व निर्माण को लेकर बहुत सजग रहते हैं। वे बच्चे सख्त पाबंदी मे जीते हैं। दिन भर पढ़ाई करते हैं, महंगी कोचिंग जाते हैं, अनहेल्दी फूड नहीं खाते, नींद तोड़कर सुबह जल्दी साइकिलिंग या स्विमिंग को जाते हैं, महंगी कारें, गैजेट्स और क्लोदिंग सीख जाते हैं, क्योंकि देर-सवेर उन्हें अमीरों की लाइफ स्टाइल जीना है। फिर वे बच्चे औसत प्रतिभा के हों कि होशियार, उनका अच्छा करियर बन ही जाता है, क्योंकि स्कूल से निकलते ही उन्हें बड़े शहरों के महंगे कॉलेजों में भेज दिया जाता है, जहां जैसे-तैसे उनकी पढ़ाई भी हो जाती है और प्लेसमेंट भी। अब वह बच्चे बड़े शहरों में रहते हैं और छोटे शहरों को हिकारत से देखते हैं। मजदूरों, रिक्शा वालों, खोमचे वालों की गंध से बचते हैं। छोटे शहरों के गली-कूचे, धूल, गंध देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। रिश्तेदारों की आवाजाही उन्हें बेकार की दखल लगती है। फिर वे विदेश चले जाते हैं और अपने देश को भी हिकारत से देखते हैं। वे बहुत खुदगर्ज और संकीर्ण जीवन जीने लगते हैं। अब माता-पिता की तीमारदारी और खोज खबर लेना भी उन्हें बोझ लगने लगता है। पुराना मकान, पुराना सामान, पैतृक संपत्ति को बचाए रखना उन्हें मूर्खता लगने लगती है। वे जल्दी ही उसे बेचकर 'राइट इन्वेस्टमेंट' करना चाहते हैं। माता-पिता से वीडियो चैट में उनकी बातचीत का मसला अक्सर यही रहता है।

इधर दूसरी तरफ कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जो सबके सुख-दुख में जाते हैं, जो किराने की दुकान पर भी जाते हैं, बुआ, चाचा, दादा-दादी को अस्पताल भी ले जाते हैं, तीज-त्यौहार, श्राद्ध, बरसी के सब कार्यक्रमों में हाथ बंटाते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें यह मैनर्स सिखाया है कि सब के सुख-दुख में शामिल होना चाहिए और किसी की तीमारदारी, सेवा और रोजमर्रा के कामों से जी नहीं चुराना चाहिए। इन बच्चों के माता-पिता, उन बच्चों के माता-पिता की तरह समझदार नहीं होते, क्योंकि वे इन बच्चों का कीमती समय अनावश्यक कामों में नष्ट करवा देते हैं। फिर ये बच्चे छोटे शहर में ही रहे जाते हैं और जिंदगी भर निभाते हैं सब रिश्ते, कुटुम्ब के दायित्व, कर्तव्य। यह बच्चे, उन बच्चों की तरह बड़ा करियर नहीं बना पाते, इसलिए उन्हें असफल और कम होशियार मान लिया जाता है। समय गुजरता जाता है, फिर कभी कभार, वे 'सफल बच्चे' अपनी बड़ी गाड़ियों या फ्लाइट से छोटे शहर आते हैं, दिन भर एसी में रहते हैं, पुराने घर और गृहस्थी में सौ दोष देखते हैं। फिर रात को, इन बाइक, स्कूटर से शहर की धूल-धूप में घूमने वाले 'असफल बच्चों' को ज्ञान देते हैं कि तुमने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली। असफल बच्चे लज्जित और हीनभाव से सब सुन लेते हैं। फिर वे 'सफल बच्चे' वापस जाते समय इन असफल बच्चों को, पुराने मकान में रह रहे उनके मां-बाप, नानी, दादा-दादी का ध्यान रखने की हिदायतें देकर, वापस बड़े शहरों या विदेशों को लौट जाते हैं। फिर उन बड़े शहरों में रहने वाले बच्चों की, इन छोटे शहर में रह रहे मां, पिता, नानी के  कोई सीपेज या रिपेयरिंग का काम होता है तो यही 'असफल बच्चे' बुलाए जाते हैं। सफल बच्चों के उन वृद्ध मां-बाप के हर छोटे बड़े काम के लिए  यह 'असफल बच्चे' दौड़े चले आते हैं। कभी पेंशन, कभी किराना, कभी घर की मरम्मत, कभी पूजा। जब वे 'सफल बच्चे' मेट्रोज के किसी एयरकंडीशंड जिम में ट्रेडमिल कर रहे होते हैं तब छोटे शहर के यह 'असफल बच्चे' उनके बूढ़े पिता का चश्मे का फ्रेम बनवाने, किसी दूकान के काउंटर पर खड़े होते हैं और मरने पर अग्नि देकर तेरहवीं तक सारे क्रियाकर्म भी करते हैं।

सफल यह भी हो सकते थे, इनकी प्रतिभा और परिश्रम में कोई कमी न थी, मगर इन बच्चों और उनके माता-पिता में शायद जीवन दृष्टि अधिक थी कि उन्होंने धन-दौलत से अधिक मानवीय संबंधों और सामाजिक मेल-मिलाप को आवश्यक माना। सफल बच्चों से किसी को कोई अड़चन नहीं है, मगर बड़े शहरों में रहने वाले, आपके वे 'सफल बच्चे' अगर 'सोना' हैं, तो छोटे शहरों-गांवों में रहने वाले यह 'असफल बच्चे' किसी 'हीरे' से कम नहीं। आपके हर छोटे-बड़े काम के लिए दौड़े आने वाले यह सोनू, छोटू, गोलू, बबलू, राजू, जीतू उन करियर सजग बच्चों से कहीं अधिक तवज्जो और सम्मान के हकदार हैं। अपने बच्चों को संवेदनशील बनाईए! वे धन कमाने की मशीन नहीं है!      - पंडित विनोद त्रिपाठी

 

            

 

दोस्ती की परख

एक जंगल था। गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे। उन चारों में मित्रता हो गई। वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था। एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी।

खरगोश पास जाकर कहने लगा- "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो।"उन्होंने कहा- "अच्छा।"

तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ। खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता। कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था।

एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था। अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी। खरगोश ने गाय से कहा-

"तुम मुझे पीठ पर बिठा लो। जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना।"

गाय ने कहा- "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है।" तब खरगोश घोड़े के पास गया।

कहने लगा- "बड़े भाई! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ। तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे।"घोड़े ने 

 

 

 

कहा- "मुझे बैठना नहीं आता। मैं तो खड़े-खड़े 

ही सोता हूँ। मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे? मेरे पाँव भी दुःख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं। मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा? तुम कोई और उपाय करो।तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा- "मित्र गधे! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो। मुझे पीठ पर बिठा लो। जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना।"

गधे ने कहा- "मैं घर जा रहा हूँ। समय हो गया है। अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा।" तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला।बकरी ने दूर से ही कहा- "छोटे भैया! इधर मत आना। मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है। कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ।" इतने में कुत्ते पास अ गए। खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा। कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके। खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया।वह मन में कहने लगा- "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए।" सीख- दोस्ती की परख मुसीबत में ही है..!! - पुश्पेंदर सिंह 

 

 

ड्राई फरुट  के स्वादिष्ट लड्डू

सर्दियां शुरू हो गई है ऐसे में पहले घर के महिलाएं सर्दी से बचाव के लिए खानपान का विशेष ध्यान रखती थी और सेहत ठीक रहे व सर्दी ना लगे इसलिए ड्राई फ्रूट के लड्डू घर में बना कर रख लेती थी | सुबह शाम बच्चों को व घर के सभी सदस्यों को खाने के लिए देती थी | आजकल तो साधारणतय  हलवाई की दुकान पर या अन्य दुकानों पर भी इस प्रकार के लड्डू मिलने लगे हैं |अगर हम थोड़ा सा मेहनत करें तो घर पर स्वादिष्ट व ताजे लड्डू बनाकर रख सकते हैं | और परिवार के सदस्यों को खिला सकते हैं | मिलावट का खतरा भी नहीं रहेगा | तो आए बनाएं स्वादिष्ट ड्राई फूड के सेहतमंद  लड्डू। 

ड्राई फरुट  के स्वादिष्ट लड्डू बनाने की सामग्री- 

काजू 250,बादाम 250,पिस्ता 50,मखाने 100,किशमिश 50,छुआरा 25,लौग 5,इलाइची 8,

मोटी इलाइची ½,शक्कर 400,गाय का देसी घी 4 चम्मच,अखरोट 100,अजवायन 1/2 चम्मच ,सोफ 1 चम्मच जीरा 1 चम्मच ,काला नमक  1/2 चम्मच ,अदरक का पावडर 1/4 चम्मच ,काली मिर्च 8,सफेद मिर्च 10 

ड्राई फरुट  के स्वादिष्ट लड्डू बनाने की विधि -

सभी ड्राई फ्रूट अजवाइन जीरा मखाने एक कढ़ाई में डालकर हल्का सा भुन ले | भूनने के बाद  उनको मिक्सी में दरदरा पीस लें | कढ़ाई में घी डाले और शक्कर डालकर हल्का गरम करे फिर  सभी सामग्री को डालकर थोड़ा सा पानी नमी करने हेतु डाल कर मिलाये जब सब मिलजाए तो हाथ पर हल्का घी लगा कर हलके हाथ से दबा कर लडू बना ले |    -  मिथलेश शर्मा 

 

 

तुलसी 

तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था |वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी |एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये।

सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता ।फिर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा - आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये। सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे

सती हो गयी।उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है ! दिनेश भारद्वाज  


गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत

  गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत सतीश शर्मा  गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, और यह दिन गुरुओं के प्रति सम्मा...