सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

जानकारी काल पत्रिका अक्टूबर - 2022

 हिंदी मासिक 

जानकारी काल 

वर्ष-23,       jaankaarikaal.com         अंक-03       अक्टूबर - 2022,    पृष्ठ 52     मूल्य 2-50    

 


भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिए उन्हे भारत का 'लौहपुरुष' के रूप में जाना जाता है। सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारतीय एकता का निर्माण करना। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो।

संरक्षक

 श्रीमान कुलवीर शर्मा

कमहामंत्री समर्थ शिक्षा समिति

डॉ वी  एस नेगी

प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य


 प्रधान संपादक व  प्रकाशक

 सतीश शर्मा 


 

 कार्यालय

 ए 214 बुध नगर इंद्रपुरी

 नई दिल्ली 110012


 मोबाइल

  9312002527


 संपादक मंडल

 सौरभ  शर्मा,कपिल शर्मा,

गौरव शर्मा,डॉ अजय प्रताप सिंह, करुणा ऋषि, डॉ मधु वैध, भूप  सिंह यादव, ऋतु सिंह, राजेश शुक्ल  


प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F,

कृणा नगर नई दिल्ली 110029, A- 214 बुध नगर इन्दर पूरी नई दिल्ली  110012 से प्रकाशित |


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         अनुक्रमणिका

सम्पादकीय   - 2   

शास्त्र की शिक्षा  - 3   लेख

आखरी हिचकिचाहट   - 6  कहानी 

विद्या प्रवेश से प्ले स्कूल का कॉन्सेप्ट  - 10 लेख 

बहू भी बेटी भी  - 13  कहानी 

मासिक पंचांग,पंचक विचार,भद्रा विचार,अक्टूबर मास के व्रत,

सर्वार्थ सिद्ध योग,मूल विचार - 16 ज्योतिष 

पापकुंषा एकादशी कथा  - 20   कथा

रमा एकादशी कथा  - 21   कथा

चित एकाग्र कैसे करे   - 22  योग 

सूर्य ग्रह - 24  लेख

सिंह राशी के बारे में जाने - 25  कहानी 

दीपावली पूजन मुहूर्त  - 26 लेख

खस्ता कचोरी - 27   खाने की रसोई 

समय का रिश्ता  - 28  कविता 

अक्टूबर मास के महत्वपूर्ण दिवस व महापुरुष के जन्म दिन  - 29  

शिक्षक - 30   

ग्रहण का ज्योतिषीय निरूपण एवं राहू केतु इतिहास ज्योतिष एवं खगोल की त्रिपुटी - 31 लेख

लस्सी का कुल्हड़ - 38 कहानी 

मन की शिक्षा - 40  कहानी 

हमारी एक एक स्वास है चन्दन का वृक्ष - 42  कहानी 

संत विराधू   - 44 

सजा   - 45  





सम्पादकीय 

“अहिंसा परमो धर्म: धर्म हिंसा तथैव च “ ” प्रेम व शांती के मार्ग के पर चलना” जो इस धर्म को ना माने उससें युध्द करना ही हमारा धर्म बन जाता है। चाहे वो कितना प्रिय क्यू ना हो, धर्म का हिंसा करने वाले के प्रति हिंसा करना गलत नही। इंसाफ के लिये हिंसा करना, हिंसा नही होती। अहिंसा मानवों का परम धर्म है, किंतु धर्म की रक्षा के लिये हिंसा करना अहिंसा नही है। धर्म की रक्षा के लिये हिंसा करना पाप नही पुण्य है। धर्म के रक्षा हेतु,आप अहिंसा के मार्ग पर चल सकते है। धर्म के रक्षा के लिये की जाने वाली हिंसा, हिंसा की श्रेणी मे नही आता।” दूसरों के विचारों का सम्मान करना अहिंसा है ऐसे ही दूसरे के विचारों का मर्दन करना भी हिंसा ही समझनी चाहिए। अहिंसा का मतलब केवल किसी के प्राणों का रक्षण ही नहीं किसी के प्रण का और किसी के सिद्धांतो का रक्षण करना भी है। अहिंसा अर्थात वो मानसिकता जिसमे प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार हो। व्यक्ति को अपनी इच्छा का कर्म करनेका अधिकार मिले चाहे ना मिले पर अपनी इच्छा को अभिव्यक्त करने का अधिकार जरूर होना चाहिए। जीवन ऐसा कदापि ना हो जिसमें कोई अपने विचारों को भी प्रगट ना कर सके। अहिंसा का सम्बन्ध किसी के शरीर को आघात पहुँचाने से ही नहीं किसी के हृदय को आघात पहुँचाने से भी है। किसी के दिल को दुखाना भी बहुत बड़ी हिंसा है। गोली से तो शरीर जख्मी होता है आदमी की कठोर बोली से आत्मा तक हिल जाती है। अतः अहिंसा केवल शस्त्र त्याग में ही नहीं विचार और बोली और व्यवहार में भी रखना परमावश्यक है। किसी की हिंसा का विरोध ना करना और सहते रहना भी हिंसा है | अहिंसा का मतलब दुसरे की हिंसा सहना नही है बल्कि दंग से प्रतिकार करना ही अहिंसा है | अपने विचारो को दबा कर रखना और सही समय पर व्यक्त ना करना ही हिंसा है |अहिंसा का अर्थ प्रेम होता है। किसी को न सताना और न मारना और प्राणिमात्र को दुख न देना ही अहिंसा है। अहिंसा भी दो प्रकार की होती है-स्थूल और सूक्ष्म। स्थूल हिंसा का आशय है कि किसी को मार डालना, अंग-भंग कर देना, शोषण और अपमानित करना, व्यंग्य व ताने मारना और शस्त्रों का प्रयोग करना आदि।वह शत्रु की बुराई से घृणा करता है न कि शत्रु से । अहिंसा तथा प्रेम की शक्ति से वह शत्रु की बुराई करने का यत्न करता है। वह स्वयं प्रसन्नतापूर्वक कष्ट सहन कर लेता है, किन्तु शत्रु को कष्ट नहीं पहुँचाता। अहिंसा का दूसरा तत्व अनन्त धैर्य है पर कायरता नहीं | दिनकर जी ने सही लिखा है  “क्षमा शोभती उस भुजंग को,जिसके पास गरल हो | उसको क्या जो दंतहीन,विषरहित, विनीत, सरल हो। सहनशीलता, क्षमा, दया को,तभी पूजता जग है| बल का दर्प चमकता उसके,पीछे जब जगमग है।”“धर्म एव हतो हन्ति,धर्मो रक्षति रक्षितः|”तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः,मानो धर्मो हतोवाधीत्भावार्थ - यदि मनुष्य धर्म का पालन नहीं करता हे उसका अर्थ की वह धर्म नाश कर रहा हे और धर्म का नाश होता हे तो मनुष्य को भी विनाश की और ले जाता हे।  इसीलिए धर्म की रक्षा करनी चाहिए यदि धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा | हम धर्म का पालन कर स्वयं की ही रक्षा कर रहे हे। इसीलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए जो धर्म का नाश करता हे उसका विनाश निश्चित है ।

शास्त्र की शिक्षा

 –  वासुदेव प्रजापति

जीवन में जितनी महत्त्वपूर्ण मन की शिक्षा और कर्म की शिक्षा है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण शास्त्र की शिक्षा भी है। जहाँ मन की शिक्षा से व्यक्ति सज्जन बनता है, कर्म की शिक्षा से श्रमनिष्ठ बनता है, वहीं शास्त्र की शिक्षा से व्यक्ति विद्वान बनता है। शास्त्र शिक्षा का अर्थ केवल धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना नहीं है। शास्त्र शिक्षा का अर्थ किसी भी क्रिया, किसी भी रचना अथवा किसी भी पदार्थ के मूल तत्त्वों को जानना ही शास्त्र शिक्षा है।

शास्त्र ज्ञान को हम भाषा के उदाहरण से समझते हैं। प्रत्येक भाषा की वर्णमाला में स्वर और व्यंजन होते हैं। स्वर और व्यंजन की परिभाषा जानना और उस परिभाषा के अनुसार उच्चारण की प्रक्रिया का अवलोकन व परीक्षण करना शास्त्रीय ज्ञान कहलाता है। बिना सिद्धान्त जाने केवल अनुकरण से उच्चारण करना, यह क्रियात्मक शिक्षा है। सही उच्चारण करना, सही उच्चारण के आनन्द का अनुभव करना, सही उच्चारण के साथ मधुर स्वर से उच्चारण करने को भगवती सरस्वती की आराधना समझना, यह भाषा के सम्बन्ध में मन की शिक्षा है।

इस प्रकार से भाषा को समझने पर हमारे ध्यान में आता है कि एक भाषा का शास्त्र ज्ञान है, दूसरा भाषा का व्यवहार है और तीसरा वाग्देवी की उपासना है। स्वाभाविक रूप से वाग्देवी की उपासना पहले की जाती है, इसलिए मन की शिक्षा का क्रम पहला है, व्यवहार अर्थात् कर्मशिक्षा का क्रम दूसरा है और व्याकरण ज्ञान अर्थात् शास्त्रशिक्षा का क्रम तीसरा है।

हमारे व्यवहार का अनुभव भी यही है कि बालक में पहले भाषा के संस्कार होते हैं। माँ की कोख से ही उस पर भाषा के संस्कार होने लगते हैं। फलतः भाषा उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में समा जाती है। यही उसके लिए भाषा की उपासना है। आयु बढ़ने के साथ-साथ उपासना का भाव भी विकसित होता जाता है। यह मन की शिक्षा है। जन्म के समय भाषा तो उसके पास होती ही है। भाषा के वातावरण में वह बड़ा होता है। जब उसके उच्चारण के अवयव सक्रिय होते हैं, तब वह बोलना सीखता है। प्रेरणा और अभ्यास से उसका उच्चारण शुद्ध व मधुर होता है। यह कर्म की शिक्षा है। इसके बाद वह स्वर और व्यंजन की परिभाषा सीखता है। मुख में किस व्यंजन का उच्चारण स्थान कौनसा है? वह जानता है। यह शास्त्रशिक्षा है। भाषा सीखने में शास्त्र जानने का क्रम बाद में ही आता है।

हम पहले सिद्धांत सीखकर फिर बोलना नहीं सीखते, पहले बोलते हैं फिर सिद्धांत सीखते हैं। चलना, गाना, खाना, तैरना, खेलना आदि सारे काम पहले करते हैं फिर उसका सिद्धांत समझते हैं। तैरने का सिद्धांत जानकर तैरना नहीं सीखा जाता, क्रिया करने का अच्छा अभ्यास हो जाने पर सिद्धांत भी सरलता से समझ में आता है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि शास्त्र शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं है। कुछ विषय ऐसे हैं जिनमें पहले सिद्धांत जाना जाता है फिर विषय सीखा जाता है, जैसे – पदार्थ विज्ञान, गणित, भूमिति आदि सीखते समय पहले सिद्धांत जानते हैं, फिर सीखते हैं। किन्तु इसमें भी सिद्धांत के साथ क्रिया नहीं जुड़ी तो सिद्धांत समझना कठिन या कभी कभी तो असंभव भी हो जाता है। इसे एक कथा से समझेंगें –

ज्ञानं भार: क्रियां विना

एक गुरुकुल में गुरुजी ने अपने नन्हें-नन्हें शिष्यों को बताया कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। एक शिष्य को यह बात समझ में नहीं आई। उसने गुरुजी से पूछा, गुरुजी! मुझे तो ईश्वर कहीं भी दिखाई नहीं देते? गुरुजी जान गए कि इसे केवल सिद्धांत समझाने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने शिष्य से कहा, जाओ! एक पानी से भरा गिलास और थोड़ी शक्कर लेकर आओ। शिष्य पानी से भरा गिलास व शक्कर ले आया। अब गुरुजी ने उसे पानी से भरी गिलास में शक्कर घोलने के लिए कहा। शिष्य ने पानी में शक्कर घोल दी। तब गुरुजी ने शिष्य से पूछा, तुम्हें पानी में शक्कर दिखाई देती है क्या? शिष्य बोला, अब शक्कर बिल्कुल दिखाई नहीं देती। फिर शक्कर कहाँ गई? शक्कर है तो पानी में ही, शिष्य बोला। तब गुरुजी ने उसे समझाया, देखो! जैसे पानी में शक्कर होते हुए भी वह दिखाई नहीं देती, वैसे ही ईश्वर हमें दिखाई नहीं देते, परन्तु हैं अवश्य।

फिर गुरुजी ने उसी शिष्य से कहा, ऐसा करो! गिलास में ऊपर का पानी लेकर उसे चखो। उसने चखा और बताया कि पानी मीठा है। फिर कहा, बीच का पानी चखो। गुरुजी यह भी मीठा है। अच्छा, अब सबसे नीचे का पानी चखो। शिष्य ने फिर बताया कि नीचे वाला पानी भी मीठा ही है। अब गुरुजी ने उसे समझाया कि कहीं से भी चखो, सब जगह का पानी मीठा है। अर्थात् शक्कर पानी में सब जगह घुली हुई है, ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी इस संसार में सब जगह विद्यमान हैं।

गुरुजी ने अपनी बात समझाने के लिए एक प्रयोग करवाया। प्रयोग करवाया अर्थात् क्रिया करवाई। क्रिया करने से अनुभव प्राप्त होता है। क्रिया और अनुभव से सिद्धांत शीघ्र व सही समझ में आता है। यदि क्रिया नहीं की तो सिद्धांत या शास्त्र समझ में नहीं आता। इसीलिए कहा गया है – “ज्ञानं भार: क्रियां विना”। अर्थात् बिना क्रिया के जाना हुआ ज्ञान भार स्वरूप है। इसलिए भी शास्त्र शिक्षा से पहले कर्म शिक्षा दी जाती है।

शास्त्र शिक्षा से सिद्धांत समझ में आता है, परन्तु जीवन में व्यवहार मन की शिक्षा और कर्म की शिक्षा के बिना नहीं चलता। जैसे किसी व्यक्ति को भूख लगी है तो रोटी बनाने का शास्त्र जानने से भूख नहीं मिटती। भूख तो रोटी बनाकर खाने से ही मिटती है। इसी प्रकार आरोग्य शास्त्र जानने से निरोगी नहीं बना जाता, ‘तैरने की कला’ पुस्तक पढ़ने से तैरना नहीं आता। तैरने के लिए पानी में उतरना ही पड़ता है, हाथ-पैर मारने ही पड़ते हैं। अतः व्यवहार की दुनिया में मन की शिक्षा और कर्म की शिक्षा के बिना काम नहीं चलता।

शास्त्र शिक्षा का महत्त्व

हमने यह समझा कि जीवन व्यवहार के लिए कर्म शिक्षा अनिवार्य है। फिर शास्त्र शिक्षा की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि शास्त्र को जाने बिना क्रिया सही ढंग से नहीं होती। शास्त्र से ही किसी भी क्रिया को, रचना को अथवा प्रक्रिया को वैज्ञानिकता प्राप्त होती है। शास्त्र ज्ञान का महत्त्व बताते हुए श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।

अर्थात् शास्त्र विधि को छोड़कर जो व्यक्ति मन में उठे तुक्कों व तरंगों के अनुसार व्यवहार करता है, उसे न सुख मिलता है न सिद्धि मिलती है और न मोक्ष ही मिलता है। इसलिए शास्त्र शिक्षा भी अनिवार्य है।

शास्त्र शिक्षा की आवश्यकता

शास्त्र शिक्षा के सम्बन्ध में दो बातें ठीक से समझना आवश्यक है।

1. शास्त्र शिक्षा सबके लिए आवश्यक नहीं है। समाज में यदि दस प्रतिशत शिक्षित व्यक्ति शास्त्रों के ज्ञाता हों तो पर्याप्त है। इस बात को व्यवहारिक दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। यदि किसान शास्त्र का अध्ययन करेगा तो खेती कौन करेगा? किसान तो खेती ही करेगा। गृहणी शास्त्रों का अध्ययन करेगी तो घर के लोगों को भूखा रहना पड़ेगा। यदि समाज में सभी लोग शास्त्रों के अध्ययन में लग जायेंगे तो आवश्यक काम धरे रह जायेंगे। और काम नहीं होगा तो व्यवहार कैसे चलेगा? व्यवहार नहीं चलेगा तो जीवन ही रुक जायेगा। समाज व्यवस्थित चले, इसके लिए आवश्यक है कि नब्बे प्रतिशत लोगों को काम करना चाहिए। और दस प्रतिशत को शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। और इन नब्बे प्रतिशत लोगों को विद्वानों के द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसा हमारे शास्त्र निर्देश भी देते हैं कि  –  “येन महाजनो गत: स पन्था:।”

2. दूसरी बात समझने की यह है कि काल के प्रवाह में जब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते-होते क्रियाओं-प्रक्रियाओं में, पद्धतियों में विकृतियाँ आ जाती हैं और अन्ध श्रद्धायें निर्माण हो जाती हैं। फलस्वरूप निर्थकता घर कर जातीं हैं। अनेक बार कूछ बातें कालबाह्य हो जाती हैं, उनमें दोष आ जाते हैं। इन दोषों को नित्य परिष्कृत करने की आवश्यकता पड़ती हैं। यह परिष्कृति का कार्य शास्त्रों के ज्ञाता ही कर सकते हैं। वास्तव में इस कार्य को ही शास्त्रीय अध्ययन और अनुसंधान कहते हैं।

इस प्रकार के अध्ययन व अनुसंधान करने को भारत में ज्ञान साधना कहा गया है। शिक्षित समाज के दस प्रतिशत लोगों को ऐसी ज्ञान साधना करने हेतु स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए। यह भी सच है कि इस प्रकार की ज्ञान साधना करने के लिए भी मन की शिक्षा व कर्म शिक्षा आवश्यक होती है। ठीक ऐसे ही जिसे अध्ययन करना है, उसे भी शास्त्र शिक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि क्रिया आधारित व अनुभव आधारित शिक्षा प्राप्त करने हेतु उसे प्रेरित करना व उसका मार्गदर्शन करना शास्त्रीय ज्ञान के बिना सम्भव नहीं होता है।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि मन की शिक्षा, कर्म की शिक्षा व शास्त्र की शिक्षा का मेल बिठाने की नितान्त आवश्यकता है। समाज के शत प्रतिशत लोगों को मन की शिक्षा मिले, उनमें से नब्बे प्रतिशत को कर्म की शिक्षा दी जाय और दस प्रतिशत शिक्षित व्यक्ति शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करें। इस हेतु घरों में, विद्यालयों में, महाविद्यालयों में, अनुसंधान केन्द्रों में और धर्म केन्द्रों में शिक्षा की पुनर्रचना करने की महती आवश्यकता है। यह मेल बिठाने से सबका विकास होगा और समाज व देशभी सुखी व समृद्ध होंगे।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)


आख़िरी हिचकिचाहट


शशि महाजन 

आदित्य ने वर्जिनिया टेक से इंजीनियरिंग करी थी , बिज़नेस मैनेजमेंट इन सी एड  सिंगापुर से किया था , और अपने लिए लड़की ढूंढ रहा था।  शादी डाट कॉम पर उसने अपना बायो डाटा अपलोड किया , स्वयं के बारे में लिखते हुए उसने लिखा , ‘ मेरी माँ मेडिकल डॉक्टर हैं , मैं बहुत छोटा था जब मेरे पिता की मृत्यु हो गई , मेरी माँ ने मुझे बहुत कठिनियों के साथ अकेले बड़ा किया है , मैं उस लड़की से शादी करना चाहता हूँ जो मेरी माँ के साथ एडजस्ट कर सके।  

मेलबोर्न में एम एस सी के अंतिम समेस्टर में पढ़ रही विभूति ने यह पढ़ा, और उसे अच्छा लगा , वह एक पूना के संयुक्त परिवार में बड़ी हुई थी , और रिश्तों की कदर करनी उसे आती थी। 

बात आगे बढ़ाने के लिए उसने आदित्य को फ़ोन किया , आदित्य ने कहा कि अगले रविवार वो उससे वीडियो कॉल करेगा और सारी बातें स्पष्ट करेगा।  

रविवार को ठीक समय पर उसका फ़ोन आ गया, विभूति को यह भी अच्छा लगा।  आदित्य छ फ़ीट का , 

चौड़े कंधो वाला , तेज नैननक्श का आकर्षक नौजवान था।  विभूति को उसने बताया , “ मेरी परवरिश मुंबई की है, अँधेरी में हमारा अपना पुश्तैनी मकान है , जहाँ आजकल मेरी माँ अकेली रहती हैं , और कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज में पढ़ाती हैं । मैं किसी भावनात्मक दबाव मेँ न आऊं , इसलिए उन्होंने दूसरी शादी नहीं की , हालाँकि उनके पास इसके लिए कई अवसर थे। विश्वास करो , वे अभी भी बहुत सुन्दर हैं।”

विभूति ने कहा ,” वो तो तुम्हें देखने से खुद ही समझ आ जाता है। ” और वो हंस दी।  आदित्य भी थोड़ा मुस्करा कर शर्मा दिया। 

“ तो तुम अपनी माँ के लिए क्या करना चाहते हो ?” 

“ माँ अभी रिटायर होने वाली हैं , मैं नहीं चाहता वो अकेलापन अनुभव करें , मैं मुंबई में उनके साथ रहना चाहता हूँ। ”

“ यह तो बहुत अच्छी बात है। ”

“ तो तुम मुंबई आकर हमारे साथ रहना चाहोगी ?”

“ हाँ , माँ का आशीर्वाद साथ हो तो और क्या चाहिए। ”

“ तो मुंबई में एक जॉब ऑफर है , उसे स्वीकार कर लूँगा , पर उससे पहले मैं चाहूंगा तुम मेरी माँ से मिल लो , वो यक़ीनन तुम्हें पसंद करेंगी। ”

अगले सप्ताह आदित्य की माँ डॉ नीना कपूर से बात हो गई।  फिर दोनों परिवारों का आपस में मिलना हो गया , और देखते ही देखते , आदित्य और विभूति , शादी के बंधन मेँ बंध गए। 

आदित्य का अँधेरी मेँ बहुत बड़ा फ्लैट था , चार बेडरूम्स , स्टडी, लिविंग रूम , पारलर, किचन के साथ पैंट्री, छोटा सा टेरेस , तीन बड़ी बड़ी बालकनी।  माँ ने उसे बहुत यत्न से सजाया था , उन्हें घूमने फिरने का शौक था , राधाकृष्ण की मूर्तियां, पियानो , पेंटिंग्स , हाथ का बना हुआ झूला , हाथ से काढ़े वाल हैंगिंग्स , सब जगह उनकी सुरुचि की छाप थी। 

आदित्य नौकरी मेँ पैर जमा रहा था , माँ ने रिटायर होने के बाद ब्रिज खेलने से लेकर , भजन गाने तक के ग्रुप्स के साथ स्वयं को जोड़ लिया था। विभूति चाहती थी , नौकरी लेने से पहले वो कुछ समय घर मेँ बिताये , एम एस सी , किये हुए उसे एक ही महीना हुआ था , शादी , हनीमून मेँ पिछले महीना किसी सपने सा बीत गया था।  वह नए रिश्तों, नए शहर को पहले जीना चाहती थी।  

आदित्य ऑफिस से आता तो माँ और विभूति दोनों खिल उठतीं। माँ कुछ समय वहाँ बैठ स्वयं ही भीतर चली जाती।  विभूति को लगता , कितनी समझदार हैं , रिश्तों मेँ उचित स्थान की पहचान कितनी जरूरी है। 

एक दिन विभूति ने ड्राइंगरूम की थोड़ी सजावट बदल दी।  अपने साथ लाइ एबोरजिन आर्ट की कुछ चीज़ें उसने वहां सजा दी।  शाम को जब आदित्य आया तो यह देखकर उसके चेहरे पर थोड़ी उलझन उभर आई , पर जैसे ही माँ ने कहा , “ अच्छा लग रहा है न ?” तो वह सहज हो गया। विभूति को कहीं भीतर हल्की चोट लगी , पर उसने दबा दिया। 

कुछ दिन बाद विभूति ने कहा , “ हम लोगों की शादी को पूरे तीन महीनें हो गए हैं , एक बार भी तुम्हारे ऑफिस के दोस्तों को घर नहीं बुलाया , इस रविवार को बुला लो , मेरी भी उनसे दोस्ती हो जायगी। ”

“ ठीक है “ कहकर वो सीधा माँ के पास चला गया , वापिस आया तो कहा , “ माँ बिरयानी और हलवा बना देंगी , तुम स्नैक्स बना देना। ”

“ तुम माँ से ये बात करने गए थे। ”

“ हाँ , इसमें क्या गलत है। ”

“ कुछ नहीं। ” वो चुप हो गईं, पर लोगों को घर बुलाने का उसका उत्साह जाता रहा। 

जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था , विभूति को लग रहा था , आदित्य तो कोई भी निर्णय स्वयं लेता ही नहीं।  वो सारी चर्चा करेगा और अंत मेँ निर्णय अपनी माँ पर डाल देगा।  उसकी इस आदत से विभूति के अंदर एक सुलगते क्रोध की तपन घर करने लगी।  पर उसे समझ नहीं आ रहा था , असल गड़बड़ कहाँ है , उसने दो वर्ष अकेले ऑस्ट्रेलिया बिताये थे और स्वाभाव से ही वो बचपन से आत्मनिर्भर थी।  उसने सोचा , आदित्य तो पूरे सात वर्ष अकेले विदेश में बिता कर आया है , इतनी अच्छी नौकरी करता है , इतनी किताबें पढ़ता है , फिर भी निर्णय नहीं लेता !

कुछ दिनों से विभूति कुछ करने की सोच रही थी , एक दिन उसकी सहेली उससे मिलने आई तो आनन फानन मेँ उसने फैसला कर लिया कि वो उसके स्पा मेँ निवेश करेगी। 

शाम को जब आदित्य आया तो उसने बड़े उत्साह से उसे अपना निर्णय सुनाया। 

आदित्य ने कहा ,” माँ से पूछा ?”

“ नहीं।  यह मेरा अपना पैसा है , ऑस्ट्रेलिया मेँ वैट्रेस्सिंग का काम कर के कमाया है। “

“ बात वो नहीं है , पर तुम्हारा फैसला गलत भी तो हो सकता है। ”

“ तो हो जाये , अपने गलत फैसले की जिम्मेवारी भी मेरी है , तुम मत घबराओ। ”

“ ठीक है। ” कहकर वो जूते उतारने लगा। 

“ जाओगे नहीं , अपनी माँ को बताने ?”

“ मतलब ? अब यह कहाँ से आ रहा है ?”

“ मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती। ”

आदित्य ने उसे आश्चर्य से देखा। 

“ मैं माँ का ध्यान रखना चाहता हूँ , यह बात मैंने तुम्हें शुरू मेँ ही बता दी थी। ”

“माँ का ध्यान रखना एक बात है , अपने निर्णय न लेना दूसरी, अब मुझे समझ आ रहा है , मुझसे शादी करने का निर्णय भी माँ ने लिया था , तुमने नही।। ”“ तो इसमें गलत क्या है , तुम भी तो संयुक्त परिवार , भारतीय मूल्यों की बात करती हो। ”“ पर मैंने यह कभी नहीं कहा कि आदमी सारी जिंदगी बच्चा बना रहे। ”

“ बच्चा ? जानती हो ऑफिस में मेरी कितनी इज्जत है। ”

“ वो मेँ नहीं जानती , पर घर मेँ तुम बच्चे हो , और मैं बच्चे के साथ  नहीं जीना चाहती। ”

कहकर वो घर से बाहर निकल गईं। 

माँ को पता चला तो वह उसे ढूंढ़ने कार लेकर निकली , उन्हें यकीं था वो ज्यादा दूर नहीं गईं होगी। मोड़ पर उन्हें वो तेज तेज कदमों से चलती दिखाई दी। 

उसके पास जाकर कार रोककर कहा , “ बैठो। ”विभूति आज्ञाकारी बच्चे की तरह बैठ गईं। “ नाराज हो मुझसे ?” माँ ने पूछा। 

“ हाँ। ”“ तुम चाहो तो मैं अलग रह सकती हूँ। ”

“ उससे क्या होगा, अलग रहने से निर्णय लेने आते होते तो अब तक सीख चुका होता। ”

“ तो मुझसे क्यों नाराज हो? ” आपने उसे फैसला लेना नहीं सिखाया। ”” तुम्हें तुम्हारी माँ ने सिखाया था ? ...नहीं न? ...फिर तुमने कैसे सीखा ?”विभूति चुप हो गईं। ” कॉफ़ी ? ” माँ  ने रेस्टोरेंट के सामने कार रोकते हुए पूछा। 

 ” श्योर , विभूति ने मुस्कराते हुए कहा। 

दोनों बैठ गईं तो माँ ने आर्डर दिया “ दो चीज़ सैंडविच , दो रागरपेटीएस, दो रसमलाई और दो कॉफ़ी । ”” इतना कौन खायेगा ?” विभूति ने कहा ” हम खाएंगे, चिंता हो तो सबसे पहले छक कर खाओ। ”” अच्छा अब बताओ क्या किया जाए? ”” मुझे क्या पता, आप माँ  है , पर आप बताईये इतना इंटेलीजेंट लड़का, अगर अपने निर्णय का उतरदियत्व नहीं लेगा , तो क्या जीवन मेँ कभी भी बड़ा  कदम उठा पाएगा ?” ” शादी का मतलब ही होता है एक दूसरे की  कमियों को पूरा करना, यहां तुम अपने उतरदियत्व  से  नहीं भाग रही हो?”

” हो सकता है ।”“ ऐसा ही है । यह ग़ुस्सा अचानक तो नहीं आया होगा , कब से उबल रहा होगा , ग़ुस्से को इतना दबाओगी , तो यही होगा ।” “ जी ।” “ जहाँ तक आदित्य का सवाल है मैं उसकी इस कमी को हमेशा से जानती आई हूँ , और सोचती हूँ वक्त और तुम उसे सिखा दोगे। ”” जी। ” विभूति अब तक शांत हो गईं थी। कॉफ़ी का घूँट लेते हुए माँ ने कहा, ” तीन साल का था, जब उसके पापा जाते रहे, तब से में खड़ी हूँ उसके जीवन में एक चट्टान की तरह, उसने मुझे सारी ज़िम्मेदारियों के साथ आगे बढ़ते देखा है , और वो मुझे एक स्टार समझता है , जिस दिन मेरी कमज़ोरियाँ समझ जायगी उस दिन अपने निर्णयों को शिखर तक ले जाना भी सीख जायगा, पर यह कब होगा , कैसे होगा , मुझे नहीं पता ।”

विभूति ने अपने दोनों हाथों से माँ के हाथ थाम लिये ।“ इस पूरी दुनियाँ में मुझसा भाग्यशाली कोई नहीं , जो मुझे आप मिलीं, आदित्य मिला । आय लव यू बोथ ।”“ माँ मुस्करा दी , और हाथ तपथपाते हूए कहा, “ मेरी प्यारी बच्ची ।”


भारत के महान परमाणु वैज्ञानिक डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा का जन्म 30 अक्टूबर 1909 को मुंबई के एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था। उन्हें भारत के परमाणु उर्जा कार्यक्रम का जनक कहा जाता है।


            


विद्या प्रवेश से प्ले स्कूल का कॉन्सेप्ट

नई शिक्षा नीति विद्या प्रवेश से प्ले स्कूल का कॉन्सेप्ट गांवों तक पहुंचेगा, इंजीनियरिंग की पढ़ाई 11 भाषाओं में की जा सकेगी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मंजूरी मिले गुरुवार को एक साल पूरा हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एजुकेशन सेक्टर से जुड़े लोगों, टीचर्स और स्टूडेंट्स से सीधी बात की। इस दौरान उन्होंने दो बड़े ऐलान किए। पहला कि गांवों में भी बच्चों को प्ले स्कूल की सुविधा मिलेगी। अब तक यह कॉन्सेप्ट शहरों तक सीमित है। दूसरा कि इंजीनियरिंग के कोर्स का 11 भारतीय भाषाओं में ट्रांसलेशन के लिए टूल डेवलप किया जा चुका है। इससे इन भाषाओं के छात्रों को पढ़ाई में आसानी होगी।प्रधानमंत्री ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को एक साल पूरा होने पर सभी देशवासियों और विद्यार्थियों को शुभकामनाएं दीं। उन्होंने कहा कि बीते एक साल में आप सभी लोगों, शिक्षकों, प्रिंसिपल और नीतिकारों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को धरातल पर उतारने में मेहनत की है। कोरोना के इस काल में भी लाखों नागरिकों, शिक्षकों, राज्यों से सुझाव लेकर, टास्क फोर्स बनाकर शिक्षा नीति को लागू किया जा रहा है।

विद्या प्रवेश प्रोग्राम लॉन्च, गांवों तक पहुंचेंगे प्ले स्कूल,विद्या प्रवेश प्रोग्राम लॉन्च किया गया है। अब तक प्ले स्कूल का कॉन्सेप्ट बड़े शहरों तक सीमित है। विद्या प्रवेश के जरिए यह गांव-गांव जाएगा। ये प्रोग्राम आने वाले समय में यूनिवर्सल प्रोग्राम के तौर पर लागू होगा और राज्य भी इसे जरूरत के हिसाब से लागू करेंगे। देश के किसी भी हिस्से में अमीर हो या गरीब, उसकी पढ़ाई खेलते और हंसते हुए और आसानी से होगी। शुरुआत मुस्कान के साथ होगी तो आगे कामयाबी का रास्ता भी आसानी से पूरा होगा।इंजीनियरिंग के कोर्स का 11 भारतीय भाषाओं में ट्रांसलेशन के लिए एक टूल डेवलप किया जा चुका है। साथ ही 8 राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कॉलेज 5 भारतीय भाषाओं हिंदी, तमिल, तेलुगु, मराठी और बांग्ला में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू करने जा रहे हैं।

इस साल में शिक्षा नीति को आधार बनाकर अनेक बड़े फैसले लिए गए हैं। इसी कड़ी में नई योजनाओं की शुरुआत का की गई है। नई योजनाएं नए भारत के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। भारत की नई शिक्षा नीति को राष्ट्र निर्माण के लिय आधुनिक बनाया गया है और फ्यूचर रेडी रखा गया है। केंद्र सरकार का ऐतिहासिक फैसला:मेडिकल कोर्सेस में OBC कैंडिडेट्स को 27% और आर्थिक रूप से पिछड़े कैंडिडेट्स को 10% आरक्षण मिलेगा | युवाओं के सपनों और उम्मीदों में व उनके मन में नयापन और नई ऊर्जा दिखाई देगी। युवा बदलाव के लिए पूरी तरह तैयार है, वो इंतजार नहीं करना चाहता है। कोरोना काल में कैसे हमारी शिक्षा व्यवस्था के सामने इतनी बड़ी चुनौती आई। पढ़ाई का ढंग बदल गया, लेकिन विद्यार्थियों ने तेजी से इस बदलाव को एडॉप्ट कर लिया है। ऑनलाइन एजुकेशन अब एक सहज चलन बन गया है। शिक्षा मंत्रालय ने भी इसके लिए प्रयास किए हैं। मंत्रालय ने दीक्षा प्लेटफॉर्म, स्वयं पोर्टल शुरू किया। छात्र पूरे देश से इनका हिस्सा बन गए। पिछले एक साल में 2300 करोड़ से ज्यादा हिट होना ये बताता है कि ये कितना उपयोगी प्रयास रहा है। हर दिन इसमें 5 करोड़ हिट हो रहे हैं।

21वीं सदी का आज का युवा अपनी व्यवस्थाएं और दुनिया अपने हिसाब से बनाना चाहता है। उसे एक्सपोजर चाहिए। उसे पुराने बंधनों और पिंजरों से मुक्ति चाहिए। आज छोटे-छोटे गांवों-कस्बों से निकले युवा कैसे-कैसे कमाल कर रहे हैं। इन्हीं दूरदराज इलाकों से आने वाले युवा आज टोक्यो ओलिंपिक्स में देश का झंडा बुलंद कर रहे हैं। भारत को नई पहचान दे रहे हैं। करोड़ों युवा अलग-अलग क्षेत्रोंमें असाधारण काम कर रहे हैं। नई व्यवस्था में एक ही क्लास और एक ही विषय में जकड़े रहने की बाध्यता को खत्म कर दिया गया है। युवा अपनी रुचि, सुविधा से कभी भी एक स्ट्रीम को चुन सकता है और छोड़ सकता है। कोर्स सिलेक्ट करते समय ये डर नहीं रहेगा कि डिसीजन गलत हो गया तो क्या होगा। आने वाले समय में परीक्षा के डर से भी मुक्ति मिलेगी। ये डर निकलेगा तो नए इनोवेशन का दौर शुरू होगा और संभावनाएं असीम होंगी। पढ़ाई बीच में छोड़ने पर बर्बाद नहीं होगा साल:एकेडमिक बैंक में सुरक्षित रहेगा हर स्टूडेंट का रिकॉर्ड | ये माना जाता था कि अच्छी पढ़ाई के लिए विदेश जाना होगा, लेकिन विदेशों से स्टूडेंट भारत आएं, ये हम देखने जा रहे हैं। देश के डेढ़ सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों में ऐसी व्यवस्था की जा चुकी है। हायर एजुकेशन इंस्टिट्यूट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिसर्च में आगे बढ़ें, इसके लिए गाइडलाइन जारी की गई है। आज बन रही संभावनाओं को साकार करने के लिए हमारे युवाओं को दुनिया से एक कदम आगे बढ़ना होगा, एक कदम आगे का सोचना ही होगा।आत्म निर्भर भारत का रास्ता स्किल डेवलपमेंट और टेक्नोलॉजी से जाता है। एक साल में 1200 से ज्यादा उच्च शिक्षा संस्थानों में स्किल डेवलपमेंट से जुड़े सैकड़ों कोर्सेज को मंजूरी दी गई। बापू कहा करते थे कि राष्ट्रीय शिक्षा को सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय होने के लिए राष्ट्रीय परिस्थितियों में रिफ्लेक्ट होना चाहिए। अब हायर एजुकेशन में मीडियम ऑफ इंस्ट्रक्शन स्थानीय भाषा भी विकल्प होगी। 3 लाख से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें सांकेतिक भाषाओं की जरूरत होती है। इसे समझते हुए भारतीय साइन लैंग्वेज को सब्जेक्ट का दर्जा दिया गया है। छात्र इसे भाषा के तौर पर भी पढ़ पाएंगे। हमारे दिव्यांग साथियों को मदद मिलेगी। आप भी जानते हैं कि किसी भी स्टूडेंट को पूरी पढ़ाई में प्रेरणा अध्यापक से मिलती है। जो गुरु से प्राप्त नहीं हो सकता, वो कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकता। ये हमारे यहां कहा जाता है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो अच्छा गुरु मिलने के बाद दुर्लभ होगा।आज लॉन्च हुआ निष्ठा 2.0 भी इस दिशा में अहम भूमिका निभाएगा। देश के शिक्षकों को आधुनिक जरूरतों के हिसाब से ट्रेनिंग मिलेगी। शिक्षकों से कहना चाहता हूं कि इन प्रयासों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लें।

29 जुलाई 2020 को इसे मंत्रमंडल से मंजूरी मिली थी। बच्चों के लिए विद्या प्रवेश प्रोजेक्ट की शुरुआत की है । यह एक प्ले-आधारित स्कूल शिक्षा मॉड्यूल है। यह ग्रेड-1 के छात्रों के लिए 3 महीने का कोर्स है। साथ ही निष्ठा 2.0 कार्यक्रम शुरू किया गया। ये NCERT का डिजाइन किया गया प्रोग्राम है, जिसे टीचर्स की ट्रेनिंग के लिए बनाया गया है।सरकार ने नई शिक्षा नीति पर केंद्र और राज्य के सहयोग से जीडीपी का 6% हिस्सा खर्च करने का लक्ष्य रखा है।


निष्क्रिय प्रतिरोध के अपने अहिंसक दर्शन के लिए दुनिया भर में सम्मानित, मोहनदास करमचंद गांधी अपने कई अनुयायियों के लिए महात्मा, या "महान आत्मा वाले" के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने 1900 के दशक की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में एक भारतीय अप्रवासी के रूप में अपनी सक्रियता शुरू की, और प्रथम विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में अग्रणी व्यक्ति बन गए |




बहु भी बेटी भी 



सुरभि अलार्म बंद की और फिर से चादर में सिमट गई। चिराग सुरभि का चादर खींचते हुए बोला, "उठिए मैडम, 10:00 बज गए । मैं ऑफिस जा रहा हूं। माँ बाहर तुम्हारा नाश्ते पर इंतजार कर रही है। सुरभि घबराते हुए बोली , "क्या 10:00 बज गए ?"चिराग सुरभि को उठाकर आॅफिस चला  गया  सुरभि खुद से कहने लगी , "तु तो गई सुरभि!अब तो सासु मां और मम्मी दोनों की ही डांट खानी पड़ेगी।

 माँ ने कितना समझाया था , पहला दिन ही अपना इंप्रेशन खराब मत कर लेना। 

इसीलिए माँ ने खुद फोन कर छः बजे का अलार्म भी लगवा दी ।  मायके की आदत जो थी अलार्म बंद करके सोने की । अब पता नहीं माँ जी क्या कहेंगी..?" सुरभि और चिराग की दो महीने पहले ही शादी हुई थी।

शादी में सारी रस्मे खत्म कर चार दिन रहकर ही सुरभि मायके चली गई थी। फिर कल ही वापस आई है। 

 इसलिए  माँ  समझा कर भेजी थी , वहाँ मायके वाला आदत मत रखना। वहाँ अलार्म बंद करके मत सो जाना। सुरभि मायके में रोज अलार्म लगा कर सोती थी और अलार्म बजने पर बंद करके सो जाती। मम्मी (उर्मिला जी) कहती ," जब उठना ही नहीं होता तो अलार्म लगाती ही क्यों हो.? क्या करूँ मम्मी, रोज सोचती हूँ कि सुबह उठ कर थोङी पढाई करूँगी, लेकिन सुबह की नींद मुझे छोड़ती ही नहीं..!! दादी कहती ,तेरी ये लेट से उठने की आदत ना,ससुराल में हमारी नाक कटवाएगी।

"दादी चिंता मत करो! तुम्हारी नाक अपनी जगह सुरक्षित रहेगी। " दादी से ठिठोली करते हुए कहती।

डरते -डरते सुरभि बाहर निकली ।शोभा जी डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगा चुकी थी। चिराग को नाश्ता करवा कर लंच देकर आफिस भी भेज दिया था ।

सुरभि को देख कर बोली , "  उठ गई बेटा! देखो मेथी के पराठे बनाई हूँ,  चिराग को बहुत  पसंद है। तुम भी खाकर बताओ तो कैसे बने है?सुरभि आश्चर्यचकित  थी , कहाँ वह डर रही थी कि  सासू माँ से डाँट पड़ेगी वहीं वो खुद नाश्ते के लिए पुछी रही थी?सुरभि सोच रही थी कि कहीं वह अभी तक सो तो नहीं रही है कोई सपना तो नहीं देख रही है ।शोभा जी बोली,  " अरे,वहाँ खड़ी - खड़ी क्या सोच रही हो। जल्दी आओ पराठे ठंढे हो जाऐंगे।

सुरभि डाइनिंग टेबल के पास एक कुर्सी पर बैठ गई।  उसे फिर लगा कि मैं लेट से उठी हूँ,  कहीं मुझसे नाराज होकर तो माँ जी ने यह सब नहीं की..?? सुरभि डरते-डरते शोभा जी से बोली, " साॅरी माँ जी!मैं अलार्म लगाकर सोई थी कि सुबह जल्दी उठुँगी। पर जब अलार्म बजा तो मैं बंद की ,सोची  थोङी देर में उठ जाउंगी। फिर कब नींद लग गई पता ही नहीं चला..!!

खुद को कुसूरवार सी महसूस कर रही थी। 

शोभा जी सुरभि की मनःस्थिति समझते हुए समझाई, "कोई बात नहीं, यहाँ जल्दी उठने की कोई जरूरत नहीं.?"

               जब मैं यहाँ आई थी, तो पहला दिन आदतन थोङी देर से कमरे से बाहर निकली। कमरे से निकलते ही मेरी सासू माँ मुझपर बरस पड़ी, " ये कैसे संस्कार हैं बहु तुम्हारे..?? 

भला कोई औरत सूर्योदय के बाद तक सोती है ? सूर्योदय के बाद तक जिस घर में औरतें सोती है ,उस घर से लक्ष्मी नाराज हो जाती है। "

 सूर्योदय के पहले से जो दिन की शुरुआत होती, फिर रात में  सबके सोने के बाद ही आराम मिलता था।

परिवार भी बड़ा था। मेरे सास- ससुर, चिराग के पापा दो भाई हैं। उस वक़्त तो चिराग के चाचा की शादी भी नहीं हुई थी। 

पुरे घर के काम मेरे ही सर पर था। उस पर भी खाने में थोङी भी  कम-ज्यादा हो गई। फिर तो सासू माँ के ताने। इसीलिए मुझे सासू माँ से कभी माँ जैसा प्यार नहीं मिला।

जब चिराग पैदा हुआ। तब से ही मैं सोच रखी थी कि जब मेरी बहु आएगी, तो मैं उसे बेटी की तरह रखूँगी। मेरी कोई बेटी भी है नहीं तो बहु को ही बेटी बनाऊँगी। अब तो लोग भी कम हैं। सास- ससुर तो पहले ही गुजर गए। चिराग के पापा और चाचा में बँटवारा हो गया। अब वो लोग अलग ही रहते हैं। तीन साल पहले चिराग के पापा भी गुजर गए। चिराग तो आफिस चला जाता है । दिन भर घर हमदोनों ही तो बचेंगे घर में  ,तो क्यों ना हम लोग माँ  बेटी की तरह रहें। इसीलिए यहाँ जल्दी उठने की कोई जरूरत नहीं। जब मन हो तब उठो।

नहीं ,माँ जी! आज तक आप इतना काम करतीं आईं है। अब आप आराम करेंगी और मैं काम करूँगी। आपको बेटी का सुख भी तो मिले।

दोपहर में सुरभि अपनी माँ को फोन पर सारी बात बताई। 

उर्मिला जी बोली, " बहुत किस्मत वाली है तु, जो तुझे ऐसी सास मिली है।

 जब समीर की शादी होगी, तो मैं भी कोशिश करूँगी कि तेरी सास जैसी ही सास बनूँ। कोई जरूरी नहीं ,जो व्यवहार हमलोगों को अपनी सास से मिला वही हमलोग अपनी बहुओं से करें।

 "दुसरी  सुबह जैसे ही अलार्म बजा सुरभि अलार्म बंद की और किचन में गई। तब तक शोभा जी नहीं उठी थी।  थोङी देर बाद शोभा जी किचन में आई तो सुरभि बोली,   " अब आप आराम से उठिए । आपको जल्दी उठने की कोई जरूरत नहीं है। मैं आपकी बहू भी हूँ और बेटी भी। इसीलिए घर के काम की सारी जिम्मेदारी अब मेरी।"

शोभा जी ने प्यार से सुरभि को गले लगा लिया 


स्वामी रामतीर्थ का जन्म २२ अक्तूबर १८७३ को पाकिस्तान के एक गांव मुरारीवाला में हुआ। उनका नाम तीर्थराम रखा गया। उनके पिता गोस्वामी हीरानंद थे।वे जापान,अमरीका तथा मिस्र गये। विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया तथा विदेश से लौटकर भारत में भी अनेक स्थानों पर प्रवचन दिये। उनके व्यावहारिक वेदान्त पर विद्वानों ने सर्वत्र चर्चा की। स्वामी रामतीर्थ ने जापान में लगभग एक मास और अमेरिका में लगभग दो वर्ष तक प्रवास किया।रामतीर्थ महात्मा और संत होने के अतिरिक्त एक बहुत बड़े देशभक्त भी थे । वह अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त देखना चाहते थे। अमेरिका से वापस आने पर उनकी यह इच्छा और भी प्रबल हो उठी। वह हमेशा देश की स्वतंत्रता के ही स्वप्न देखते थे । वह कहते थे कि राष्ट्र कल्याण का कोई भी कार्य करना देवकार्य करना है।





मासिक पंचांग- अक्टूबर -2022


दिनांक 

भारतीय व्रत उत्सव अक्टूबर - 2022

दुर्गा सप्तमी ,सरस्वती आवाहन ,गाँधी जयंती 

दुर्गा अष्टमी 

महानवमी ,नवरात्र समाप्त 

दशहरा ,सरस्वती विसर्जन  

भरत मिलाप पापकुंषा एकादशी 

प्रदोष व्रत 

सत्य व्रत,शरद पूर्णिमा कोजागरी व्रत ,वाल्मीकि जयंती ,कार्तिक स्नान प्रारम्भ 

13 

करवा चौढ व्रत , श्री गणेश चतुर्थी व्रत 

17  

अहोई अष्टमी व्रत ,काला अष्टमी ,संक्रांति पुन्य  

21 

रमा  एकादशी व्रत,गो वत्स द्वादशी   

22  

धन तेरस ,धन्वन्तरी जयंती , प्रदोष व्रत 

23    

मास शिव रात्रि ,यम दीप दान नरकहारा च्तुर्ध्शी ,हनुमान जयंती  

24 

दीपावली , श्री महा लक्च्मी पूजन 

25 

अमावस्या, सूर्य ग्रहण ,श्री महावीर निर्वाण दिवस   

26 

गौवर्धन पूजा ,आन्कुत ,बलि पूजा 

27 

भाई दूज ,यम द्वितीया ,चित्र गुप्त पूजा ,विश्व कर्म पूजा ,

28 

विनायक चतुर्थी  व्रत , सूर्य षष्टी व्रत शुरू 

29 

गुरु गोविन्द सिंह बलिदान दिवस 

30 

सूर्य षष्टी 



पंचक विचार अक्टूबर - 2022  

पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा  पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार-दिनांक-06 को 08 - 27 से दिनांक-10 को 16-01 बजे तक पंचक हैं |

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

भद्रा विचार अक्टूबर - 2022 

भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि  शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य भूलोक की भद्रा ,भद्रा मुख चोट क्र भद्रा पंच में शुभ कार्य कर सकते है |

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

दिनांक 

शुरू 

दिनांक 

समाप्त 

02

18-50

03

05-46

05

22-49

06

09-38

09

03-42

09

15-00

12

13-40

13

01-59

16

06-59

16

20-11

20

03-17

20

16-09

23

18-03

24

05-48

28

21-26

29

08-15





मूल नक्षत्र विचार अक्टूबर - 2022 


दिनांक

शुरू 

दिनांक

समाप्त 

01

04-18

03

01-52

09

16-20

11

16-16

19

18-01

21

12-28

28

10-42

30

07-25


अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

सर्वार्थ सिद्धि योग अक्टूबर -2022

दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी  शुभ मुहूर्त का अभाव हो,किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु  को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है | इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग | योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक  है| 

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

दिनांक

प्रारंभ

दिनांक

समाप्त

02

06-18

03

01-52

09

06-22

09

16-20

11

06-23

11

16-16

12

17-09

13

06-25

18

05-12

18

06-28

21

12-28

22

06-30

23

06-31

24

06-32

27

12-10

28

06-35

30

06-36

30

07-25



सुर्य उदय- सुर्य अस्त अक्टूबर -2022 


दिनांक

उदय 

दिनांक

अस्त 

06-17

1

18-04

5

06-19

5

17-59

10

06-20

10

17-54

15

06-23

15

17-48

20

06-29

20

17-43

25

06-31

25

17-38

30

06-33

30

17-35

 

 अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें - शर्मा जी - 9560518227

ग्रह स्थिति अक्टूबर - 2022

ग्रह स्थिति -  दिनांक 1 शुक्र पुर्वास्त,दिनांक 2 बुध मार्गी,दिनांक 16 मंगल मिथुन में, दिनांक 17 सूर्य तुला में,दिनांक 18 शुक्र तुला में,दिनांक 23 शनि मार्गी, दिनांक 23 बुद्ध पुर्वास्त,दिनांक 26  बुध तुला में,दिनांक 30 मंगल वक्री |

चौघड़िया मुहूर्त 

चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है|

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी - 9312002527,9560518227

राहू काल 

 राहुकाल -राहुकाल दक्षिण भारत की देन है,दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है |

 

पापांकुशा एकादशी 

 पापांकुशा एकादशी यह व्रत आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को रखा जाता है | इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा करके ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए | इस एकादशी में भगवान पदमनाभ  की पूजा का विशेष महत्व माना जाता है | प्रातकाल उठकर नित्यकर्मो,स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान विष्णु का विधिवत पूर्ण भक्ति भाव से पूजन करें और भोग लगाएं | प्रसाद वितरण कर सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मण को तिल,भूमि,अन्न ,जूता,वस्त्र,छाता आदि का दान कर भोजन कराएं | भगवान के निकट भजन कीर्तन कर रात्रि जागरण करें | उपवास के दौरान अन्न का सेवन ना करें एक समय फलाहार करें |

पापांकुशा एकादशी की कथा

 एक बहेलिया था जो विंध्याचल पर्वत पर निवास करता था | जिसका काम  के अनुरूप ही नाम क्रोधन था | उसने अपना समस्त जीवन हिंसा,लूटपाट,मिथ्या,भाषण,शराब और वैश्यागमन कर बिता दिया | यमराज ने  उसके अंतिम समय से एक दिन पहले अपने दूत को उसे लाने के लिए भेजा दूतों ने क्रोधन  को बताया कि कल तुम्हारा अंतिम दिन है | हम तुम्हें लेने के लिए आए हैं | मोत के डर से वह ऋषि के आश्रम पहुंचा | उसने ऋषि से अपने प्राण रक्षा के लिए उपाय पूछा व भक्तिपूर्वक प्रार्थना कर अनुनय विनय करने लगा | ऋषि को उस पर दया आ गई उन्होंने उसे आश्विन शुक्ल एकादशी का व्रत और भगवान विष्णु की पूजा की सारी विधि बताई | संयोगवश उस दिन एकादशी थी क्रोधन ने ऋषि  द्वारा बताएं पापांकुशा एकादशी का व्रत विधिपूर्वक किया | भगवान की कृपा से वह विष्णुलोक को चला गया | यम दूत हाथ मलते रह गए |

 

 

रमा एकादशी

 रमा एकादशी के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं | यहां तक कि ब्रह्म हत्या जैसे महापाप भी दूर हो जाते हैं | ईश्वर के चरणों में स्थान मिलता है व सभी मनोकामना पूर्ण होती है | यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष एकादशी को किया जाता है | इस दिन भगवान का भक्ति पूर्ण पूजन कर नैवेद्य अर्पित कर  आरती करे | प्रसाद वितरित करके ब्राह्मणों को भोजन खिलाएं तथा दक्षिणा दें |

 रमा एकादशी की कथा

 प्राचीन समय में मुचकुंद नाम का राजा था उसे एकादशी व्रत का पूरा विश्वास था | वह प्रत्येक एकादशी का व्रत करता था | प्रजा को  भी एकादशी व्रत करने का आवहन करता था | उसकी चंद्रभागा नाम की एक  कन्या थी | वह भी पिता से अधिक एकादशी व्रत पर विश्वास करती थी | उसका विवाह राजा चंद्रसेन के  पुत्र शोभन  के साथ हुआ जो राजा मुचकुंद के साथ ही रहता था | एकादशी के दिन सभी व्यक्तियों ने  व्रत किया | शोभन ने भी व्रत किया | अत्यंत कमजोर होने से भूख से व्याकुल हो राज कुमार की मृत्य  हो गई | इससे राजा-रानी और पुत्री बहुत दुखी हुए | 

शोभन  को एकादशी  व्रत के प्रभाव से मंदराचल पर्वत पर एक उत्तम देवनगर में जो की धनधन्य से युक्त व शत्रु से मुक्त आवास मिला वहां उसकी सेवा में आप्स्राए तत्पर थी | अचानक एक दिन राजा मुचकुंद मंदराचल पर्वत पर  पहुंचा तो वहां पर उसने अपने दामाद शोभन को देखा | राजा ने  घर जाकर सारी अपनी  पुत्री को बताई | पुत्री समाचार पाकर पति के पास चली गई तथा दोनों मंदराचल  पर्वत पर सुख पूर्वक एकादशी व्रत के प्रभाव से वहा निवास करने लगे | 

 

 

 

 

चित एकाग्र कैसे करे 

शरीर ,मन और आत्मा को एक साथ लाने का कार्य है योग | योग हमारे लिय उतना ही अवश्यक है जितना भोजन या जल |

महर्षि पतंजलि ने योग को चित्त की वृत्तियों के निरोध के रूप में परिभाषित किया है | उन्होंने “योगसूत्र” नाम से “योगसूत्रों” का एक संकलन किया है,जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के लिए आठ अंक वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है |  अष्टांग योग  ( आठ अंकों वाला योग ), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है | जिसमे आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया 

जाता है |

योग के आठ प्रकार 

यम -  पांच  सामाजिक नैतिकता 

अहिंसा - शब्दों से विचारों से और कर्मो  से किसी को अकारण हानी  नहीं पहुंचाना 

सत्य - विचारों की सत्यता,परम सत्य में  स्थित रहना, जैसा विचार मन में  वैसा ही प्रमाणिक वाणी से बोलना, 

अस्तेय - चोर प्रवृत्ति का ना होना 

ब्रह्मचर्य - दो अर्थ है चेतना को ब्रह्म  के ज्ञान में स्थित करना सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना ,

अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दुसरो की वस्तु की इच्छा नहीं करना 

नियम - पांच  व्यक्तिगत नैतिकता 

शोच - शरीर और मन की शुधि 

संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना 

तप - स्वय से अनुशाषित रहना 

स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना  

ईश्वर प्रणिधान -  ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण पूर्ण होना चाहिए 

आसन 

योगासनों द्वारा शारीरिक नियन्त्रण आसन शरीर को साधने का तरीका है | 

प्राणायाम 

प्राणायाम - प्राण + आयाम | इसका शाब्दिक अर्थ है - ‘प्राण ( श्वसन ) को लंबा करना’ या ‘प्राण ( जीवनशक्ति )  को लंबा करना’ (प्राणायाम  का अर्थ स्वास को नियंत्रण करना या कम करना नहीं है |) प्राण या स्वास का आयाम या विस्तार ही प्राणायाम कहलाता है | यह प्राण शक्ति का प्रवाह कर व्यक्ति को जीवन शक्ति प्रदान करता है |

प्रत्याहार 

इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करना महर्षि पतंजलि  के अनुसार जो इन्द्रियां चित को चंचल कर रही है ,उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित स्वरूप का अनुकरण करना ही प्रत्याहार है |

प्रत्याहार से इन्द्रियां बस में रहती है | और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है | अत चित के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती है | जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमखियाँ भी उसी स्थान पर रुक जाती है |

धारणा 

धारणा  शब्द धृ  धातु से बना है जिसका अर्थ होता है संभालना ,थामना या  सहारा देना | योग दर्शन के अनुसार मन के भीतर या बाहर विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है | आशय यह कि है की यम,नियम,आसन,प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित में स्थिर  किया जाता है | स्थिर हुए चित को एक स्थान पर रोक लेना ही धारणा है |

ध्यान 

किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरंतर मन स्थिर होना ही ध्यान है | 

समाधि 

ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं | हिंदू जैन बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मो में इसका महत्व बताया गया है | जब साधक ध्येय  वस्तु के ध्यान में  पूरी तरह से डूब जाता है और अपने अस्तित्व का ध्यान नहीं रहता तो उसे समाधि कहा जाता है |

ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना | इसके दो प्रकार है -  सविकल्प और अविकल्प | अविकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती | यह  योग पद्धति की चरम अवस्था है |

 

सूर्य ग्रह  

ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक ग्रह भी कहा जाता है। सूर्य सिंह राशि के स्वामी हैं और मेष सूर्य की उच्च राशि है जबकि तुला इनकी नीच राशि है | वैसे सूर्य कोई ग्रह नहीं है जो सिर्फ एक ही होगा, सूर्य एक तारा है और गैलक्सी में ऐसे बहुत से तारे है।

कमजोर सूर्य के कारण -  जन्म  कुंडली में कमजोर सूर्य ग्रह के कारण: सबेरे देर से सोकर उठना । रात्रि के कर्मकांड करना।  राजाज्ञा-न्याय का उल्लंघन करना।  शुक्र, राहु और शनि के साथ मिलने से मंदा ‍फल। उसे जीवन में तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. उस व्यक्ति विशेष को महत्वपूर्ण पद और राज्य संबंधी सभी कार्य जैसे न्याय, राजदूत, राज्‍याध्‍यक्ष आदि पदों और स्वर्ण का व्यापार अ‍ादि में बड़ी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। 

उपाय - लाल और पीले रंग के वस्त्र, गुड़, सोना, तांबा, माणिक्य, गेहूं, लाल कमल, मसूर दाल, गाय आदि का दान करें. सूर्य को मजबूत करने के लिए माणिक्य रत्न धारण किया जा सकता है | इसके अलावा, सूर्य के उपरत्न तामड़ा, लालड़ी या सूर्यकांत मणि भी धारण की जा सकती है | रविवार के दिन सुबह स्नान के बाद साफ जल में लाल चंदन, लाल फूल, अक्षत और दूर्वा मिलाकर सूर्य देव को जल अर्पित करें | ऐसा करने से भी सूर्य मजबूत होता है | धार्मिक ग्रं रविवार के व्रत रखने से सूर्य शुभ फल देता है. साथ ही, शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है | सूर्य की शांति के लिए प्रात: स्नान करने के बाद सूर्यदेव को जल अर्पित किया जाता है। इसके बाद सूर्य से संबंधित वस्तुओं का दान, जप, होम मंत्र धारण व सूर्य की वस्तुओं से जल स्नान करना भी सूर्य के उपायों में आता है। नीच के सूर्य अनेक समस्याएं देते है। कुंडली में सूर्य नीच के होने से प्रायः आंखों की समस्या देते हैं' नीच का सूर्य पिता के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। ऐसा सूर्य सामान्यतः सेहत भी खराब करता है। इन सबके बावजूद नीच का सूर्य सर्वथा बुरा नहीं होता |

 

सिंह राशी के बारे में जाने  

सतीश शर्मा 

सिंह राशि - सिंह राशि स्वतंत्र प्रेम,शौर्य,प्रताप,उदारता व आत्मविश्वास का प्रतीक है | उत्तर विषुव्रत रेखा की ओर 21 से 12 डिग्री तक इसका स्थान है। सिंह राशि को कंठीरव,सिंह,लेय नाम से भी जानते हैं | पूर्व दिशा में वास, क्रूर धर्म को अपनाने वाली शांत लक्षणों से युक्त | 

माँ मी मु में मो ट टी टू अक्षर वाले सिंह राशी में आते है | 

सिंह राशि में  मघा व पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र आते है | वश्य वनचर ,योनी मूषक ,स्वामी सूर्य ,गण राक्षस,नाडी अन्त्य ,मुख अधो ,तत्व अग्नि ,नाम उग्र ,नक्षत्र देवता पितर | 

सिंह राशि में जन्म लेने वाले  - सिंह राशि में जन्म लेने वालो का प्रेम एक जगह केन्द्रित एवं बेहद सराहनीय होता है। जन्म से ही इनके स्वभाव में नेतृत्व क्षमता का गुण होता है। ये साहसी, दृढ़-निश्चयी एवं शाही अंदाज़ वाले होते हैं। ये अपने हाव-भाव से दूसरे लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। पुष्ट शरीर,चोडी छाती,प्रभावशाली ,आकर्षक ,प्रेरणादायक ,व्यक्तित्व  निर्भय,पराक्रमी महत्वकांक्षी,अपने पिता से भी उच्च स्तर का निष्ठावान,प्रशासनिक अधिकारों का सदुपयोग करने में सफल,स्पष्ट वक्ता, सत्ता एवं स्वतंत्रताप्रिय,हटी अध्ययनशील,विश्वासपात्र,आडंबर युक्त रहन सहन,उदार,दयालु अतिव्ययी,नेतृत्वकांक्षी,परिस्थितियों का ठीक अनुमान करने वाला, क्रोध आने पर भयंकर रूप धारण करने वाला, केवल शांति से ही बस में होने वाला। यह राशि प्राय एक पुत्र की देने वाली |

व्यवसाय - वन संबंधी व्यवसाय लेखक,क्लर्क,सफल कलाकार,अभिनेता,प्रबंधक,सैनिक,वकील या घरेलू सजावट संबंधित कार्य करने वाले होते है। 

शुभ अशुभ - सूर्य और मंगल शुभ,बुध एवं शुक्र अशुभ। मारक स्थान में राहु केतु मृत्यु कारक। 

मैत्री -  धनु,कुंभ, मेष, वालों से मित्रता साझेदारी हितकर। 

भाग्य उन्नति कारक वर्ष - 16,22,24,26 28, 32 । 

बीमारियाँ  - मस्तिक पीड़ा,ज्वर 

इटली रोमानिया सिसली शिकागो ब्रिस्टल अफगानिस्तान हिमाचल प्रदेश का प्रतिनिधित्व करती है |

 

 

 

दीपावली पूजन मुहर्त 

पौराणिक कथाओं के अनुसार कार्तिक मास की अमावस्या को भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करने के बाद अपनी जन्मभूमि अयोध्या वापस लौटे थे। जिसके उपलक्ष्य में हर साल कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को दीपावली का पावन पर्व मनाया जाता है।” 

श्री महालक्ष्मी पूजन एवं दीपावली का महापर्व कार्तिक अमावस में प्रदोष काल एवं अर्धरात्रि व्यापिनी हो तो                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         विशेष रूप से शुभ होता है। इस वर्ष कार्तिक अमावस 24 अक्टूबर सोमवार 2022 को सांयकाल 17:28 के बाद प्रदोष निशीध तथा महानिशीध व्यापिनी होगी। अतः "दिवाली पर्व" 24 अक्टूबर सोमवार 2022 के दिन दीपावली मनाया जाना चाहिए |इस  साल दिवाली एवं चित्रा नक्षत्र, विष्कुंभ योग, कन्या राशिस्थ् तथा अर्धरात्रि व्यापिनी अमावस्या युक्त होने से विषेश शुभ रहेगी।दिवाली के दिन पूजा स्थल पर एक चौकी रखें और लाल कपड़ा बिछाकर उस पर लक्ष्मी जी और गणेश जी की मूर्ति रखें या दीवार पर लक्ष्मी जी का चित्र लगाएं। चौकी के पास जल से भरा एक कलश रखें। माता लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्ति पर तिलक लगाएं और दीपक जलाकर जल, मौली, चावल, फल, गुड़, हल्दी, अबीर-गुलाल आदि अर्पित करें और माता महालक्ष्मी की स्तुति करें।” ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्री सिद्ध लक्ष्म्यै नम:” इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति को सफलता प्राप्त होती है. मां लक्ष्मी की चांदी या अष्ट धातु की मूर्ति की पूजा करनी चाहिए |  प्रदोष काल 24 अक्टूबर 2022 को रहेगा 20:30 से 22:55 तक रहेगा 18:48 तक रहेगा रात्रि 22:30 तक रहेगा लाभ की चौघड़िया तथा इस अवधि में विशेष पूजा की जाती  हैं | 

24 तारीख का चौघड़िया निम्नलिखित है

 6-41 से 8-04 तक अमृत , 9-27 से 10-50 तक शुभ ,14-58 से 16-20 तक लाभ ,16-30 से 17-43 तक अमृत,17-43  से 19-20 तक चर , 22-35 से 24-12 तक लाभ ,25-49 से 27-26 तक शुभ उपरोक्त अनुसार पूजा की जा सकती है।  

 

 

खस्ता कचोडी 

कचोडी खाने का मन सबका करता है और वो भी गरमागरम,आओ बनाए खस्ता कचोडी।

भरवा कचोडी के लिए सामग्री- 

मैदा ,मुंग छिलका दाल , उरद छिलका दाल,तेल ,नमक,मिर्च,जीरा ,सौंफ, धनिया ,हींग ,गरम मसाला ,अदरक ,हरी मिर्च ,अमचुर ,चीनी ,बेकिंग सोडा ,मेथी दाना ,अजवान ,हरा धनिया ,पुधिना

भरवा कचोडी बनाने का तरीका-

दोनों दालो को भिगो कर रख दे व  6 घण्टे बाद छिलका उतार दे, छलनी में डाल कर पानी निकल दे ,दाल को सभी मसले डाल कर भुन ले व दरदरा पीस कर थोडा बेकिंग सोडा डाल मिला ले मैदा में नमक और तेल डाले थोडा सा जीरा अजवायन डाल कर हलके गुनगुने पानी से गुंध ले व इसे आधा घण्टे रख दे | गुनधी मेदा को मल कर पेढे बना करा बेले अब पिठी भर कर बेले या हाथ से दबाकर कचोडी बना ले,कड़ी में घी गरम कर हलकी आच में सेके। पुधिना हरी मिर्च अदरक, हरा धनिया,नमक, चीनी व स्वाद अनुसार मसाले डाल कर चटनी बना ले तैयार है भरवा कचोडी हरी खट्टी मिठी हरी चटनी के साथ खुद खाए व मेहमानो को खिलाए। 

भोजन मन्त्र 

अन्न ग्रहण करने से पहले विचार मन मे करना हैकिस हेतु से इस शरीर का,रक्षण पोषण करना है,हे परमेश्वर एक प्रार्थना,नित्य तुम्हारे चरणों में,लग जाये तन मन धन मेरा

विश्व धर्म की सेवा में ॥

“ब्रहमार्पणं ब्रहमहविर्‌ब्रहमाग्नौ ब्रहमणा हुतम्। ब्रहमैव तेन गन्तव्यं ब्रहमकर्मसमाधिना ॥”

“ॐ सह नाववतु।सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।तेजस्विनावधीतमस्तु।मा विद्‌विषावहै॥”

“ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:”

 

 

समय का रिश्ता

सुनील अग्रहरी,एहल्कान इंटरनेशनल स्कूल,दिल्ली

बुरे वख्त से सदा डरना,

बता कर वो न आता है।

समय के चाल की आदत

घूम कर सब पर आता है।

गले खुद से न मिल सकते,

न सर खुद अपने कंधे पर।

मिलोगे तुम गले किसके, 

रखोगे सर किस कंधे पर।

हिफाज़त कर रिश्तों की, 

ना दूर होना तू अपनो से।

मिलेगा ना कोई अपना,

जो चाहोगे  कभी रोना।

अगर रिश्ते हों दिल से तो,

ना उनका मोल होता है।

रिश्ते रिश्ते होते है, 

ना महंगा सस्ता होता है।

 

 

घड़ी सस्ती हो या महंगी,

समय को फर्क नहीं पड़ता।

अमीरों और गरीबों का,

दिन रात एक ही होता है।

फोन कितना भी ही महंगा,

बात सब एक सी होती है।

फ्लाइट में महंगी टिकट से

दूरियां कम न होती है ।

अपनो में दिखावे का,

कोई ना काम होता है।

सब कुछ सब का होता है,

ना तेरा मेरा  होता है 

रिश्ते दूर हो या पास,

कोई क्या फर्क पड़ता है।

सूफी  रिश्तों का तो बस 

एहसास ही काफी होता है। 

 

 


अक्‍टूबर के महत्वपूर्ण दिवस व महापुरुषों के जन्मदिन




01 अक्‍टूबर 1847 - डॉ. एनी.बेसेंट - प्रख्यात समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी तथा 'आयरन लेडी' के नाम से मशहूर

02 अक्‍टूबर 1869 - महात्मा गांधी - भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता, 'राष्ट्रपिता' और बापू के नाम से जाने जाते हैं

11 अक्‍टूबर 1902 - जयप्रकाश नारायण - भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता 

22 अक्‍टूबर 1873 - स्वामी रामतीर्थ - स्वामी रामतीर्थ वेदान्त दर्शन के अनुयायी भारतीय संन्यासी

30 अक्‍टूबर 1909 - डॉ. होमी भाभा - भारत के एक प्रमुख वैज्ञानिक 

31 अक्‍टूबर 1875 - सरदार वल्लभ भाई पटेल - भारत के प्रथम गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री 

1 अक्टूबर वृद्ध व्यक्ति का अंतर्राष्ट्रीय दिवस

2 अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस,गांधी जयंती और लाल बहादुर शास्त्री,3 विश्व प्रकृति दिवस

4 विश्व पर्यावास दिवस(World Habitat Day),विश्व पशु कल्याण दिवस,5 विश्व शिक्षक दिवस

8 वायु सेना दिवस,9 विश्व डाक दिवस

10 राष्ट्रीय डाक दिवस,11 अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस, 12 विश्व गठिया दिवस,13 राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय दिवस,14 विश्व मानक दिवस(World Standards Day),15 विश्व सफेद बेंत दिवस(World White Cane Day),16 विश्व खाद्य दिवस,17 गरीबी उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस,24 संयुक्त राष्ट्र दिवस,30 विश्व बचत दिवस(World Thrift Day),31 राष्ट्रीय एकता दिवस


 

 

                       

   शिक्षक दिवस

रिँकू शर्मा,हिंदी अध्यापिका,ओ०पी०एस० विद्या मंदिर

ईश्वर अपना ही स्वरूप देकर शिक्षक को बनाता है

स्वयं मानव को जीवन देते शिक्षक उसे सभ्य बनाता हैं

हम शिक्षक हैं, हम रक्षक हैं, भारत के नए विस्तार के

हम ही कर्णधार योगी हैं, उनकी त्रुटियों के संहार के

जो भी हमने सीखा है, हम दूत हैं उसके संचार के

है हमारा उत्तरदायित्व यही,अपना फर्ज निभाएँ हम

कच्ची मिट्टी को गूँथकर, मजबूत शिला बनाएँ हम

है गर्व हमें हम शिक्षक हैं ईश्वर ने केवल हमें चुना

जितना विश्वास उसने किया,लौटाएँगे उससे दोगुना

हम महकते हुए फूल हैं,  स्वयं खिलकर खुशबू देते हैं

दीपक हैं अंधेरी राहों के, स्वयं जलकर उजाला देते हैं

हम किनारे बन वही रहें, लहरों को लक्ष्य दिखाते हैं

सड़क बनकर अचल रहें,,राहगीरों को पथ बताते हैं

आभार प्रभु हम करते हैं,हमें राष्ट्र निर्माता बना डाला

नन्हें फूलों में धागा बन, हम बन जाते ज्ञान की माला

यहाँ विराजित गुणीजनों, सब एक लक्ष्य के राही हो

आओ संकल्प करें यही हम समर्पण में न कोताही हो

 

ग्रहण का ज्योतिषीय निरूपण एवं राहु-केतु : 

इतिहास, ज्योतिष एवं खगोल की त्रिपुटी

 त्रिलोचन नाथ तिवारी 



ग्रहण लगा है। चन्द्रमा को ग्रहण लगा है।

 ‘चन्द्रमा मनसो जातः’। मन के मंथन से चन्द्रमा की उत्पत्ति होती है। चन्द्रमा रस एवं प्राण का सहचर है। और रसों में सर्वश्रेष्ठ रस शृंगार है।

चन्द्रमा को ग्रहण लगा है, अतः मन को ग्रहण लगा है, प्राण को ग्रहण लगा है, रस को ग्रहण लगा है, शृंगार को ग्रहण लगा है। जिनके मनों में चन्द्रमा जैसे मुख डूबते उतराते हों, जो लोग स्वप्नों एवं कल्पनाओं के शिखर पर आरोहण करते हों, उनके मन-प्राण ग्रहण-ग्रस्त हैं? किन्तु क्या सचमुच?

याज्ञवल्क्य स्मृति में एक श्लोक है : 

सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः । 

शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥  (आचाराध्याय) 

सूर्य, चन्द्र, महीपुत्र अर्थात् मंगल, सोमपुत्र या चन्द्र-पुत्र अर्थात् बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रह कहे जाते हैं।

अब विश्व के मूर्धन्य खगोलविदों से पूछिये तो राहु तथा केतु नाम के कोई ग्रह हमारे सौर-मण्डल में नहीं हैं। सौर-मण्डल के ग्रह हैं बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरुण (हर्शल) एवं वरुण (नेपच्यून)! यम (प्लूटो) नाम का एक नवां ग्रह भी कुछ दिनों पूर्व तक स्वीकृत था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने लम्बी वार्ता एवं वाद-प्रतिवाद के पश्चात यम को ग्रह कहे जा सकने की पात्रता से वंचित कर दिया है अतः अब सौर-मण्डल में मात्र आठ ग्रह हैं। सूर्य तथा चन्द्र आधुनिक परिभाषाओं के अनुसार ग्रह नहीं हैं। सूर्य एक तारा है तथा चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। ग्रह तथा उपग्रह की आधुनिक परिभाषा के अनुसार जो आकाशीय पिण्ड सूर्य की परिक्रमा करते हैं वे ग्रह हैं तथा जो पिण्ड इन ग्रहों की परिक्रमा करते हैं वे उस ग्रह-विशेष के उपग्रह हैं।

किन्तु भारतीय ज्योतिष में ग्रह की परिभाषा भिन्न है। पृथ्वी से देखने पर जो भी आकाशीय पिण्ड अंतरिक्ष में पृथ्वी के सापेक्ष गति करते प्रतीत होते हैं उन सब को भारतीय ज्योतिष में ग्रह की संज्ञा प्रदान की गयी और इस दृष्टि से चन्द्रमा तो पृथ्वी के सापेक्ष स्पष्टतः गतिमान है ही, सूर्य भी पृथ्वी के सापेक्ष गतिमान प्रतीत होता है भले ही उसकी गति आभासी तथा पृथ्वी की अपनी गति के कारण है अतः भारतीय ज्योतिष में सूर्य भी ग्रह माना गया। पृथ्वी से पृथ्वी की कोई सापेक्ष गति नहीं है अतः भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी को ग्रह नहीं माना गया। यह अंतर ज्योतिष तथा खगोल का अंतर है अतः इससे भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये। और साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि राहु तथा केतु को ज्योतिषीय परिप्रेक्ष्य में ग्रह की मान्यता प्राप्त होने का एक रक्त-रंजित इतिहास भी है जो कथाओं के प्रच्छद में ढँक कर विस्मृत हो चुका है। वह कथा जानते सभी हैं, किन्तु उसके पीछे छिपे रहस्य के प्रति किसी का ध्यान नहीं जाता।

अब यदि इस अवधारणा को अंगीकार कर लें कि पृथ्वी के सापेक्ष गतिमान पिण्ड ही भारतीय ज्योतिष के ग्रह हैं, तो प्रश्न यह उठता है कि राहु तथा केतु नाम के तो कोई भी पिण्ड आकाश में नहीं हैं फिर ‘राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः’ का क्या प्रयोजन है? किन्तु हमारे पौराणिक आख्यान कहते हैं कि राहु तथा केतु भी ग्रह हैं तथा सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण के यही कारण हैं। तो यदि राहु एवं केतु भी ग्रह हैं तो इस नाम के पिण्ड आकाश में क्यों नहीं हैं? क्या भारतीय ज्योतिष में गल्पों को भी मान्यता प्राप्त है?

विनम्र निवेदन है कि नहीं! भारतीय ज्योतिष पूर्णतः वैज्ञानिक है तथा राहु तथा केतु द्वारा सूर्य एवं चन्द्रमा के ग्रहण की परिकल्पना, परिकल्पना तो है, कपोलकल्पना नहीं है। आकाश में राहु तथा केतु भी विद्यमान हैं, एवं उनकी भी उसी प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी के सापेक्ष गति है जिस प्रकार ग्रह की परिभाषा को संतुष्ट करते अन्य आकाशीय पिण्डों की है। इतना अवश्य है, कि राहु तथा केतु कोई दृश्य पिण्ड नहीं हैं बल्कि एक गणना-बिंदु हैं, वैसे ही जैसे बसंत विषुव एक बिन्दु है। राहु तथा केतु को छाया ग्रह कहा गया है और इसका भी कारण है।

राहु तथा केतु को समझने हेतु सर्वप्रथम उसी घटना को समझना होगा जिस घटना से वे सर्वाधिक सम्बद्ध हैं। ज्योतिष में राहु तथा केतु के अन्यान्य फलितों के साथ जो इनका प्रत्यक्ष फल है वह सूर्य तथा चन्द्रमा के ग्रहण से जुड़ा है। ग्रहण एक खगोलीय अवस्था है जिसमें कोई खगोलीय पिंड जैसे ग्रह या उपग्रह किसी प्रकाश के स्रोत जैसे सूर्य तथा किसी अन्य खगोलीय पिण्ड  जैसे पृथ्वी के बीच आ जाता है जिससे सूर्य के प्रकाश का कुछ समय के लिये अवरोध हो जाता है। किसी भी आकाशीय पिण्ड अथवा उसकी छाया से सूर्य के चन्द्रमा के विम्ब का आंशिक अथवा पूर्ण रूप से प्रभावित होना ही ग्रहण है। एक खगोलीय घटना स्मरण आती है ज़ब सूर्य के सम्मुख से हो कर जाते हुये बुध ग्रह का एक दृश्य है और यह घटना १० मई २०१६ को हुई थी। यह भी एक प्रकार का ग्रहण ही है किन्तु हम सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण के सम्बन्ध में ही अधिक जानते हैं। 

ग्रहण एक रोचक तथा दर्शनीय खगोलीय घटना है। भौतिकी से अनुमन्य खगोल के अनुसार जब अपने परिक्रमा पथ पर भ्रमण करते हुये चन्द्रमा तथा पृथ्वी एक ऐसी स्थिति में आ जाते हैं कि पृथ्वी चन्द्रमा और सूर्य के बीच आ जाती है तब चन्द्र-ग्रहण होता है। इस ज्यामितीय प्रतिबंध के कारण चंद्रग्रहण केवल पूर्णिमा को घटित हो सकता है।

किसी प्रकाश स्रोत के सम्मुख किसी भी ऐसे पदार्थ का आ जाना जिससे हो कर प्रकाश का अभिगमन संभव न हो, छाया का निर्माण करता है और वह छाया कितनी बड़ी अथवा छोटी होगी यह उस वस्तु की आकृति, प्रकाश-स्रोत से उसकी दूरी तथा उसपर पड़ने वाले प्रकाश के कोण पर निर्भर करती है। उस छाया के दृश्य होने हेतु भी कोई आधार चाहिये। आधार वस्तु के निकट होने पर छाया भी बड़ी बनेगी और दूर होने पर वह छोटी होती जायेगी। एक तल ऐसा भी होगा जिससे आगे छाया नहीं बनेगी। यही कारण है कि आकाश में उड़ते पक्षियों अथवा वायुयान की छाया धरती पर दिखाई नहीं देती क्यों कि आकाश में जिस तल पर उनकी छाया बनती है उस तल पर कोई आधार नहीं होता। इसी प्रकार सूर्य के प्रकाश में पृथ्वी भी एक छाया बनाती है।

पृथ्वी की परिक्रमा करते हुये जब चन्द्रमा अपने पथ पर चलता हुआ जब उस स्थान पर पहुंचता है तब वह उपछाया में प्रविष्ट हो चुका होता है। जिस क्षण से वह उपछाया में प्रविष्ट होता है जहाँ सूर्य का सीधा प्रकाश चन्द्रमा तक नहीं पहुंचता वही ग्रहण का स्पर्श कहलाता है। चन्द्रमा अपनी नियत गति से उपछाया से होता छाया भाग में प्रविष्ट हो कर पूरी तरह ग्रहण की स्थिति में पहुँच जाता है तब वह ग्रहण मध्य में होता है। क्रमशः चन्द्रमा आगे तक पहुंचता है जिसके पश्चात वह छाया से तथा क्रमशः उपछाया से भी बाहर होने लगता है। चन्द्रमा के उपछाया से पूर्णतः बहिर्गत होने को ही ग्रहण मोक्ष कहा जाता है। यह घटना ही खग्रास या पूर्ण चन्द्र-ग्रहण है। यह ध्यान में रखने योग्य है कि छाया शंकु ‘क ख छ’ का शीर्ष कोण अत्यंत छोटा, मात्र ३२’ (३२ कला या ३२ मिनट) का ही होता है किन्तु आकार में छोटा होने तथा पृथ्वी से निकट होने के कारण चन्द्रमा इस छाया में पूरी तरह आ सकता है।

चन्द्रमा का अक्ष तल पृथ्वी के अक्ष के साथ ५८ अंश ४८ मिनट का अक्ष कोण बनाता है तथा चन्द्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के तल से ५ अंश का कोण बनाती है। इस विशिष्ट स्थिति के कारण बहुधा ऐसा भी होता है चन्द्रमा पूरी तरह पृथ्वी की छाया में नहीं जाता बल्कि उसका कुछ भाग पृथ्वी की छाया में होता है तथा कुछ भाग पृथ्वी की छाया से बाहर भी होता है अतः चन्द्रमा का कुछ भाग जो छाया में चला जाता है वही भाग ग्रहण-ग्रस्त होता है। यह स्थिति ही खण्ड-ग्रास या आंशिक ग्रहण की होती है।

चन्द्र-ग्रहण की अवधि इस पर निर्भर करती है कि चन्द्रमा को पृथ्वी की छाया से हो कर कितनी अधिक दूरी तय करनी पड़ी अतः स्पष्ट है कि चन्द्रमा का पथ पृथ्वी की छाया के व्यास से जितना ही निकट होगा, ग्रहण का अंश भी उतना ही अधिक होगा तथा ग्रहण की अवधि भी उतनी ही अधिक होगी। चन्द्र-ग्रहण की अधिकतम अवधि ४ घंटा १३ मिनट ३६ सेकेण्ड हो सकती है जिसमें पूर्ण चन्द्र-ग्रहण की अवधि २ घंटे ७ मिनट ३६ सेकेण्ड तक होती है।

इस प्रकार चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को ही होता है किन्तु प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण नहीं होता क्योंकि चन्द्रमा का परिक्रमा पथ प्रत्येक पूर्णिमा को पृथ्वी की छाया में नहीं पड़ता अतः चन्द्रमा बिना पृथ्वी की छाया में प्रविष्ट हुए ही अपने पथ पर अग्रसर रहता है। अतः यह स्पष्ट है कि पूर्णिमा की तिथि को, जब सूर्य पृथ्वी तथा चन्द्रमा इस स्थिति में हों कि पृथ्वी सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य में होती है, तब चंद्रग्रहण की संभावना मात्र बनती है किन्तु चन्द्र ग्रहण की घटना घटित मात्र तभी होती है जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा की इस विशिष्ट स्थिति के साथ ही चन्द्रमा का परिक्रमा पथ भी पृथ्वी की छाया से हो कर जा रहा हो तथा चन्द्रमा पर पूर्णतः अथवा आंशिक पृथ्वी की छाया पड़े। यह स्थिति तभी संभव है जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा न मात्र एक सीध में हों बल्कि एक तल में भी हों। तल का कोणीय अंतर ही इस बात का निर्धारण करता है कि चन्द्रमा का कितना भाग छाया से हो कर जायेगा अर्थात ग्रहण खण्डग्रास (आंशिक) होगा अथवा खग्रास(पूर्ण)। चन्द्र पथ के इस विशिष्ट बिन्दु को, जहाँ चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य की सीध में भी होता है तथा समान तल में भी होता है, ही राहु कहा गया। इस विशिष्ट बिन्दु के निर्धारण में एक अन्य कारक की भी महत्वपूर्ण भूमिका है जिसकी चर्चा यथास्थान की जायेगी।

पृथ्वी तथा चन्द्रमा की इस परिक्रमा में एक ऐसी स्थिति भी आती है जब चन्द्रमा सूर्य तथा पृथ्वी के बीच होता है। यह स्थिति अमावस्या को आती है और यह स्थिति में सूर्य ग्रहण की संभावना बनाती है। किन्तु यह संभावना तभी वास्तविकता में परिवर्तित होती है जब सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी एक सीध में होने के साथ एक तल में भी हों। उस स्थिति में पृथ्वी तक आने वाले सूर्य के प्रकाश-पथ के मध्य चन्द्रमा के आ जाने के कारण चन्द्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है अतः पृथ्वी के उस छाया-प्रदेश में सूर्य का विम्ब नहीं दिखाई देता, अथवा आंशिक रूप से दिखाई देता है। ऐसे सभी स्थानों हेतु वह सूर्य-ग्रहण की स्थिति होती है।

यदि उस स्थिति में चन्द्रमा पृथ्वी के बहुत निकट हो तो सूर्य उसके पीछे पूरी तरह ढंका प्रतीत होता है, और यह पूर्ण सूर्य-ग्रहण या खग्रास सूर्य-ग्रहण की स्थिति होती है। यदि चन्द्रमा सूर्य के किसी किनारे के आंशिक भाग को ढंकता सा प्रतीत होता है तब यह आंशिक अथवा खंडग्रास सूर्य-ग्रहण की स्थिति होती है। सूर्य ग्रहण की एक विशिष्ट स्थिति और होती है जब चन्द्रमा पृथ्वी से अधिकाधिक अथवा अधिकतम दूरी पर हो तथा चन्द्रमा तथा सूर्य दोनों के केंद्र पृथ्वी से देखने पर एक सीधी रेखा में प्रतीत हों। ऐसी स्थिति में चन्द्रमा का विम्ब सूर्य के विम्ब के मध्य आ जाता है किन्तु चन्द्रमा का विम्ब इतना बड़ा नहीं होता कि वह सूर्य को पूरी तरह ढँक पाये। इस स्थिति में चन्द्रमा के चतुर्दिक सूर्य का एक वलयाकृति भाग चमकीले कंकण की भाँति दिखाई देता है जो एक अत्यंत आकर्षक तथा दर्शनीय दृश्य होता है। यह वलयाकृति सूर्य-ग्रहण की स्थिति होती है।

जिस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्र-ग्रहण नहीं होता जिसका कारण चन्द्र-अक्ष का पृथ्वी के अक्ष से कोण पर होना तथा चन्द्रमा के परिक्रमा तल का पृथ्वी के परिक्रमा तल से पांच अंश के झुकाव पर होना है, उसी प्रकार इन्ही दोनों कारणों से प्रत्येक अमावस्या को सूर्य-ग्रहण नहीं होता क्योंकि सूर्य-ग्रहण हेतु भी सूर्य तथा पृथ्वी के मध्य चन्द्रमा का आना तथा तीनों का एक सीध में होना मात्र पर्याप्त नहीं बल्कि यह भी आवश्यक है कि उस विशेष ज्यामितीय स्थिति के साथ-साथ ये तीनों आकाशीय पिण्ड एक तल में भी हों।

इस प्रकार सूर्य के परितः पृथ्वी के परिक्रमा-तल तथा पृथ्वी के परितः चन्द्रमा के परिक्रमा-तल परस्पर एक-दूसरे को जिस स्थान एक सीधी रेखा में काटते हैं जब उसी सीधी रेखा पर अपने परिक्रमा-पथ पर चलती पृथ्वी तथा चन्द्रमा दोनों पहुंचे हों तथा वह रेखा सूर्य की सीध में हो तभी सूर्य या चन्द्र ग्रहण हो सकता है अन्यथा नहीं। इसी सीधी रेखा के दोनों किनारे राहु तथा केतु हैं जिनमें जो बिन्दु पृथ्वी के सूर्य से विपरीत दिशा में है उसकी संज्ञा राहु तथा जो पृथ्वी से सूर्य की दिशा में है उसी की संज्ञा केतु है।

इन दोनों बिन्दुओं का एक अन्य विशिष्ट महत्व भी है या कहें कि उस विशिष्ट महत्व के कारण भी इन दोनों बिन्दुओं की महत्ता है। चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा-पथ को विमण्डल कहा जाता है। जिस प्रकार विषुव-वृत्त तथा क्रांतिवृत्त के दोनों सम्पात मेषादि एवं तुलादि माने जाते हैं उसी प्रकार क्रांतिवृत्त तथा विमण्डल के सम्पात को चन्द्रपात कहा जाता है। मेषादि सम्पात बिन्दु पर पहुँचने के उपरांत सूर्य भूमध्य-रेखा से उत्तर जाता प्रतीत होता है तथा तुलादि सम्पात बिन्दु पर पहुँचने के उपरांत सूर्य भूमध्य-रेखा से दक्षिण जाता प्रतीत होता है। उसी प्रकार क्रांतिवृत्त में ‘चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा का वृत्त या विमण्डल’ तथा ‘पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के वृत्त’ के ‘प्रतिच्छेद बिन्दु अथवा सम्पात स्थल’, का वह बिन्दु जहाँ से चन्द्रमा क्रांतिवृत्त या पृथ्वी की भूमध्य रेखा से उत्तर होने लगता है वही बिन्दु ‘राहु’ है तथा वह बिन्दु जहाँ से चन्द्रमा क्रांतिवृत्त या पृथ्वी की भूमध्य रेखा से दक्षिण होने लगता है वही बिन्दु ‘केतु’ है तथा एक रेखा पर विपरीत दिशा में स्थित होने के कारण इनके बीच १८० अंश की दूरी है। अतः इन दोनों बिन्दुओं को राहु-सम्पात तथा केतु-सम्पात एवं इस रेखा को राहु-केतु अक्ष कहना अधिक तर्कसंगत है तथा ग्रहण की स्थिति तभी उपस्थित होती है जब चन्द्रमा राहु-सम्पात या केतु-सम्पात में से किसी एक बिन्दु पर हो।

चन्द्रमा जब राहु अथवा केतु से ९ अंश ३० कला तक के अंतर पर होता है और सूर्य जब राहु अथवा केतु से ५ अंश २४ कला तक के अंतर पर होता तब ही ग्रहण संभव है एवं राहु तथा केतु से क्रमशः चन्द्रमा जब १२ अंश ६ कला तथा सूर्य १८ अंश ३० कला से अधिक अंतर पर रहता है तब ग्रहण का होना असंभव है। जब यह अंतर न्यूनतम तथा अधिकतम अंतर के बीच का हो तब ग्रहण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।

पृथ्वी की वार्षिक गति जिसके कारण विषुव बिन्दु तथा सम्पात बिन्दु पीछे खिसक रहे हैं, उसी कारण यह दोनों चन्द्र-सम्पात बिंदु राहु तथा केतु भी पीछे की ओर खिसकते हैं और यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष राहु तथा केतु को वक्री ग्रह मानता है। इनकी दैनिक पश्चवर्ती गति ३ कला ११ विकला तथा वार्षिक पश्चवर्ती गति १९ अंश ३ कला है और इस गति से ये दोनों बिन्दु १८ वर्ष ७ माह १८ दिन ६ घंटे में पुनः अपने पूर्व बिन्दु पर पहुँच जाते हैं। किन्तु आर्ष भारतीय विद्वानों ने इस बात की गणना भी कर ली थी कि नक्षत्र-मण्डल के सापेक्ष पृथ्वी के परिक्रमण पथ या क्रांतिवृत्त की भी ५० विकला ४५ प्रतिविकला (५०” ४५”’) की वार्षिक प्रतिलोम गति है। अतः राहु-केतु अक्ष की परिणामी सापेक्ष गति [१९° ३’ ००” -­ ०° ०’ ५०” ४५”’] = १९° २’ ९” १५’’’ वार्षिक प्रतिलोम गति हुई। इस प्रकार भचक्र के भ्रमण में राहु-केतु अक्ष कहें या राहु तथा केतु कहें, इन्हें [३६०°/१९° २’ ९” १५’’’ = १८.९११६३२६२ वर्ष अर्थात १८ वर्ष १० माह २८ दिन ४ घंटे ३० मिनट २१ सेकेण्ड का समय लगता है। स्थूल रूप से यह अवधि लगभग १८ वर्ष ११ माह या और अधिक स्थूल करें तो लगभग १९ वर्षों की है। यह १९ वर्षों की अवधि का चक्र पांचवीं सदी ईसा पूर्व एथेंस के यूनानी खगोल वैज्ञानिक मेटोन के खगोलीय अध्ययन के निष्कर्ष जिसे विश्व मेटोनिक चक्र अथवा एननेडकाटेरिस (Enneadecaeteris, एक ग्रीक शब्द जिसका अर्थ “१९ वर्ष का चक्र” होता है.) के नाम से जानता है से बहुत साम्य रखता है किन्तु श्रीमान मेंटोन का सिद्धांत चन्द्र आधारित चन्द्र-मास तथा सूर्य आधारित सौर-मास के समन्वयन से सम्बन्ध रखता है जो आर्ष भारतीय ज्योतिष में प्रारम्भ से ही विद्यमान है और जिसके कारण ही भारतीय ज्योतिष अधिमास एवं क्षयमास की संकल्पना को अपनी काल-गणना पद्धति में प्रारम्भ से ही अपनाता रहा है। अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति आदि नामों से अधिमास/क्षयमास का वर्णन प्राचीन संस्कृत साहित्य में बहुलता से प्राप्त होता है। यह अतिरिक्त मास है, अतः अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास कहा जाता है मानों यह काल का मल है। ऐतरेय ब्राह्मण  में उल्लेख है कि “देवों ने सोम की लता तेरहवें मास में ख़रीदी। जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है।” ऋग्वेद में भी  ‘अंहस्’ के रूप में इसका उल्लेख  है। अथर्ववेद में ‘मलिम्लुच’ शब्द आया है, जिसकी व्युत्पत्ति है  – मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः अर्थात् मलिन होने के कारण यह बढ़ जाता है। अंहस्पति क्षय मास को कहते हैं। कठसंहिता, वाजसनेयी संहिता, अग्नि पुराण आदि में इसके वर्णन प्राप्त होते हैं।

उत्तरवर्ती साहित्य को छोड़ भी दें तो  ऋग्वेद तथा अथर्ववेद यह सिद्ध करने हेतु पर्याप्त हैं कि श्रीमान मेटोन के मेटोनिक चक्र अथवा एननेडकाटेरिस का सिद्धान्त प्रस्तुत करने से बहुत-बहुत पहले हम भारतीय इस सिद्धान्त को जानते, मानते एवं प्रयोग करते थे। साथ ही इस सम्बन्ध में आर्ष भारतीय विधि अधिक तर्कसंगत एवं सटीक है क्योंकि यह सूर्य की विविध राशियों में संक्रान्ति, चंद्रमा के नक्षत्र-मण्डल में भ्रमण, चन्द्र-मास एवं सौर-मास के दिनों में अंतर आदि अनेक पक्षों का स्वाभाविक समन्वय एवं समंजन है, हर तीसरे वर्ष एक तीस दिनों की अवधि का बलात् अंतर्वेधन (Forceful penetration) नहीं जैसा कि श्रीमान मेंटोन का सिद्धांत है। श्रीमान मेंटोन का मेटोनिक चक्र अथवा एननेडकाटेरिस सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि यह समन्वय “होना चाहिये” किन्तु “क्यों होना चाहिये और कैसे” यह भारतीय विद्वानों नें पूर्व में ही बता दिया था।

ग्रहण के सम्बन्ध में एक सिद्धांत ‘सोरास चक्र’ का है। चाल्डिया के खगोलज्ञों ने आज से लगभग २३७० वर्ष पूर्व तथा परवर्ती यूनानी खगोलज्ञ हिप्पार्कस, रोमन खगोलज्ञ प्लिनी एवं यवन-रोमन खगोलज्ञ विद्वान टोलेमी आदि ने अपने-अपने अनुसार इस सोरास चक्र का उल्लेख एवं समर्थन किया है, किन्तु इस “सोरास” शब्द का प्रथम प्रयोग “एडमण्ड हैली” ने सन १६९१ में किया। इस सिद्धांत के अनुसार ६५८५.३ दिन या १८ वर्ष ११ दिन ८ घंटों के पश्चात सूर्य चन्द्र तथा पृथ्वी एक समान ज्यामितीय परिस्थितियों में होते हैं अतः इस अवधि-चक्र के आधार पर होने वाले ग्रहणों की भविष्यवाणी संभव है। अतः प्रकारांतर से यह “सोरास चक्र” “ग्रहण-चक्र” के रूप में माना और बताया जाता है तथा नासा तक इस सिद्धांत की प्रशंसा करते नहीं थकता, किन्तु सारोस चक्र की तुलना में भारतीय पद्धतियाँ ग्रहण की भविष्यवाणी करने में अधिक सूक्ष्म तथा सटीक हैं तथा वैदिक काल से प्रयोग में लाई जा रही हैं।

अथर्ववेद के त्रयोदश काण्ड के द्वितीय सूक्त के १६ से २८ मन्त्रों में केतु का विशद वर्णन है। (१) मूल वाल्मीकीय  रामायण के अरण्यकाण्ड में भी पूर्ण सूर्य-ग्रहण का स्पष्ट विवरण है जो तेइसवें सर्ग के प्रथम पंद्रह श्लोकों में है और इसमें भी राहु (स्वर्भानु) को ग्रहण का कारण बताया गया है : 

“सूर्य के समीप गहरे लाल रंग की चकती दृष्टिगोचर हुई। तीव्रता से सांझ होने लगी। कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। पशु-पक्षी भयभीत हो कर क्रंदन करने लगे। राहु ने सूर्य को ग्रस लिया। सूर्य नितांत निस्तेज प्रतीत हो रहा था किन्तु सूर्य के समक्ष काली चकती के चतुर्दिक एक प्रभामंडल था और कुछ तारे तथा ग्रह दिखाई पड़ रहे थे।”

तत्प्रयातं बलं घोरमशिवं शोणितोदकम् । अभ्यवर्षन्महामेघस्तुमुलो गर्दभारुणः ॥ १॥

निपेतुस्तुरगास्तस्य रथयुक्ता महाजवाः । समे पुष्पचिते देशे राजमार्गे यदृच्छया ॥ २॥

श्यामं रुधिरपर्यन्तं बभूव परिवेषणम् । अलातचक्रप्रतिमं प्रतिगृह्य दिवाकरम् ॥ ३॥

ततो ध्वजमुपागम्य हेमदण्डं समुच्छ्रितम् । समाक्रम्य महाकायस्तस्थौ गृध्रः सुदारुणः ॥ ४॥

जनस्थानसमीपे च समाक्रम्य खरस्वनाः । विस्वरान्विविधांश्चक्रुर्मांसादा मृगपक्षिणः ॥ ५॥

व्याजह्रुश्च पदीप्तायां दिशि वै भैरवस्वनम् । अशिवा यातु दाहानां शिवा घोरा महास्वनाः ॥ ६॥

प्रभिन्नगिरिसङ्काशास्तोयशोषितधारिणः । आकाशं तदनाकाशं चक्रुर्भीमा बलाहकाः ॥ ७॥

बभूव तिमिरं घोरमुद्धतं रोमहर्षणम् । दिशो वा विदिशो वापि सुव्यक्तं न चकाशिरे ॥ ८॥

क्षतजार्द्रसवर्णाभा सन्ध्याकालं विना बभौ । खरस्याभिमुखं नेदुस्तदा घोरा मृगाः खगाः ॥ ९॥

नित्याशिवकरा युद्धे शिवा घोरनिदर्शनाः । नेदुर्बलस्याभिमुखं ज्वालोद्गारिभिराननैः ॥ १०॥

कबन्धः परिघाभासो दृश्यते भास्करान्तिके । जग्राह सूर्यं स्वर्भानुरपर्वणि महाग्रहः ॥ ११॥

प्रवाति मारुतः शीघ्रं निष्प्रभोऽभूद्दिवाकरः । उत्पेतुश्च विना रात्रिं ताराः खद्योतसप्रभाः ॥ १२॥

संलीनमीनविहगा नलिन्यः पुष्पपङ्कजाः । तस्मिन्क्षणे बभूवुश्च विना पुष्पफलैर्द्रुमाः ॥ १३॥

उद्धूतश्च विना वातं रेणुर्जलधरारुणः । वीचीकूचीति वाश्यन्तो बभूवुस्तत्र सारिकाः ॥ १४॥

उल्काश्चापि सनिर्घोषा निपेतुर्घोरदर्शनाः । प्रचचाल मही चापि सशैलवनकानना ॥ १५॥

[वाल्मीकि रामायण – अरण्यकाण्ड, सर्ग – २२]

राहु तथा केतु को ग्रह मान कर नक्षत्र-मण्डल एवं राशि-चक्र में उनकी गति के आधार पर उनके भ्रमण की कल्पना गणितीय आधार पर ग्रहण के प्रकार, तिथि, अवधि आदि की स्पष्ट एवं सटीक भविष्यवाणी सहजता से की जा सकती है तथा इसके सूत्र भी बहुत सरल हैं। जब सूर्य तथा चंद्रमा भचक्र के एक ही राशि/नक्षत्र के समान अंशों तुल्य होते हैं वही अमावस्या की तिथि है तथा जब ये एक दूसरे से परस्पर १८० अंश पर होते हैं तो वही पूर्णिमा है। इसका सीधा अर्थ है कि जब पृथ्वी से देखने पर सूर्य तथा चंद्रमा एक ही दिशा में एक ही सीध में हों तो वह अमावस्या की स्थिति है तथा जब सूर्य, पृथ्वी तथा चंद्रमा एक सीध में तो हों किन्तु सूर्य पृथ्वी के एक दिशा में तथा चंद्रमा ठीक विपरीत दिशा में हो तो वह पूर्णिमा की स्थिति है। अब भारतीय ज्योतिष के सूत्रों के अनुसार : 

राहु जिस राशि में है उस राशि में, उससे अगली राशि में, उससे छठी राशि में या सातवीं राशि में सूर्य या चन्द्र या दोनों हों तब ग्रहण होता है।

कृष्ण-पक्ष की प्रतिपदा को चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है यदि अमावस्या को वह उससे सोलहवें नक्षत्र में हो तथा उसी सोलहवें नक्षत्र में उसके रहते अगले शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा भी प्रारम्भ हो जाय तो उस अमावस्या को सूर्य-ग्रहण निश्चित होता है। यदि उस शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा को राहु तथा चन्द्रमा के बीच अंशों का अंतर पाँच या पाँच से कम है तो ग्रहण खग्रास या कंकणाकृति होगा और यदि यह अंतर पाँच अंश से अधिक है तो आंशिक या खण्डग्रास सूर्य-ग्रहण होगा।

इसी प्रकार जिस नक्षत्र में सूर्य है उससे पंद्रहवे नक्षत्र में पूर्णमासी घटित होती हो तथा उसी पन्द्रहवें नक्षत्र में ही कृष्ण-पक्ष की प्रतिपदा भी प्रारम्भ हो जाती हो तो चन्द्र-ग्रहण अवश्य होता है।

ग्रहण का परिमाण, वह अनुपात है जो ग्रहण अवधि में चंद्रमा तथा सूर्य के आभासी कोणीय व्यासों के बीच होता है। दोनों के आभासी आकार लगभग बराबर होते हैं, परंतु पृथ्वी तथा चंद्रमा के बीच की दूरी बदलने से ये बदलते रहते हैं। (पृथ्वी व सूर्य के बीच की दूरी भी बदलती रहती है, परंतु इसका प्रभाव तुलनात्मक रूप से कम होता है)]

वर्ष में कम से कम दो ग्रहण तथा अधिक से अधिक सात ग्रहण हो सकते हैं जिनमें से चार या पांच सूर्य ग्रहण तथा शेष अन्य चन्द्र ग्रहण होते हैं। मध्यमान रूप से प्रतिवर्ष चार ग्रहण हो ही जाते हैं। अतः सोरास चक्र की अपेक्षा भारतीय पद्धति का आंकलन अधिक सटीक है जिसमें १८ वर्ष १० माह २८ दिन ४ घंटे ३० मिनट २१ सेकेण्ड के पश्चात ग्रहणों की पुनरावृत्ति होती है किन्तु यह ग्रहण के प्रकार की पुनरावृत्ति है और यह आवश्यक नहीं कि वह ग्रहण उसी स्थान पर (उसी राशि या नक्षत्र में) होगा क्योंकि सम्पात बिन्दु तथा राहु-केतु अक्ष भ्रमणशील हैं |


लस्सी का कुल्हड़



एक दूकान पर लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब दोस्त- आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और हंसी-मजाक में लगे ही थे कि, लगभग 70-75 साल की बुजुर्ग स्त्री पैसे मांगते हुए हमारे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई।उनकी कमर झुकी हुई थी, चेहरे की झुर्रियों में भूख तैर रही थी। नेत्र भीतर को धंसे हुए किन्तु सजल थे।उनको देखकर मन में न जाने क्या आया कि मैंने जेब में सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया:दादी लस्सी पियोगी?मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 40 रुपए की एक है।इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उस बूढ़ी दादी के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी।

दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे, वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए।मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैने उनसे पूछा, ये किस लिए?इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना

बाबूजी।भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था। रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी।एकाएक मेरी आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा।

उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई।

अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार, अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका।डर था कि कहीं कोई टोक ना दे। कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाये।लेकिन वो कुर्सी जिस पर मैं बैठा था, मुझे काट रही थी। लस्सी कुल्लड़ों में भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों मे आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र था।इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी।हां, मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा, लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा:ऊपर बैठ जाइए साहब! मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं, किन्तु इंसान तो कभी-कभार ही आता है।दुकानदार के आग्रह करने पर मैं और बूढ़ी दादी दोनों कुर्सी पर बैठ गए हालांकि दादी थोड़ी घबराई हुई थी मगर मेरे मन में एक असीम संतोष था।

तुलसी इस संसार में, सबसे मिलिए धाय।

ना जाने किस वेश में, नारायण मिल जाय।

मन की शिक्षा

 – वासुदेव प्रजापति

मन की शिक्षा से तात्पर्य है, सदाचार की शिक्षा, सद्गुणों की शिक्षा व चरित्र की शिक्षा। इन सबको मिलाकर एक ही शब्द में कहना हो तो सज्जनता की शिक्षा कह सकते हैं। हमारी संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सज्जन बनना, पहली योग्यता मानी गई है। व्यक्ति भले ही अनपढ़ हो या विद्वान, पहले वह सज्जन होना चाहिये। व्यक्ति भले ही गरीब हो या धनवान, इंजीनियर हो या कारीगर, डाक्टर हो या मरीज, दुकानदार हो या ग्राहक, किसान हो या व्यापारी, राजनेता हो या समाज सेवी, अधिकारी हो या कर्मचारी सबके लिए यह पहली आवश्यकता है कि वे सज्जन होने चाहिए। सज्जन होना अर्थात् अच्छा मनुष्य होना। जब मनुष्य अच्छा होगा तो समाज अच्छा होगा।

शिक्षा के क्रम में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है, अच्छा मनुष्य बनाने की शिक्षा, सज्जन मनुष्य बनाने की शिक्षा। मनुष्य धन, मान, ज्ञान, प्रतिष्ठा अर्जित करे अथवा न करे, उसे अच्छा मनुष्य तो बनना ही होता है। अच्छे मनुष्य को ही हम सज्जन कहते हैं। यह दुनिया केवल कानून और दण्ड से नहीं चलती, मनुष्यों के हृदयों में बसी अच्छाई से चलती है। अपना और दूसरों का हित चाहना और वैसा ही व्यवहार करना अच्छाई है। अच्छाई का व्यवहार करने के लिए कष्ट उठाना पड़े तो उठाना, त्याग करना, अपने आप को संयम में रखना, यही अच्छाई है। और यह सब स्वतंत्रता पूर्वक आनन्द से करना, यदि स्वैच्छा और स्वतंत्रता नहीं है तो वह अच्छाई नहीं है, वह तो निहित स्वार्थ के लिए किया गया कार्य मात्र है। यह अच्छा बनने की शिक्षा, सज्जन बनने की शिक्षा हमें मन से मिलती है, इसलिए इसे मन की शिक्षा कहते हैं।

मन का स्वरूप

मन अन्त:करण का एक भाग है। यह स्थूल अंग नहीं, अपितु सूक्ष्म पदार्थ है। प्राकृत अवस्था में सारे व्यवहार मन द्वारा परिचालित होते हैं। मनुष्य का मन एक अद्भुत पदार्थ है। सम्पूर्ण सृष्टि में केवल मनुष्य को ही अत्यन्त सक्रिय मन प्राप्त हुआ है। जहाँ मन अनेक शक्तियों का पुँज है, वहीं मन अनेक समस्याओं का उद्गम स्थान भी है। इसलिए मन की शिक्षा का विचार करने से पहले इसके स्वरूप को भली-भांति जानना आवश्यक है।

मन की तीन शक्तियाँ हैं- विचार शक्ति, भावना शक्ति एवं इच्छा शक्ति। मन निरन्तर विचार करता रहता है। मन भावनाओं का पुँज है। मन में अनन्त इच्छाएँ होती हैं। मन की इन तीनों शक्तियों को संयमित किया जाय तो अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

मन द्वन्द्वात्मक है। संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष, सुख-दुःख, मान-अपमान, हर्ष-शोक, आशा-निराशा, रुचि-अरुचि आदि सभी द्वन्द्व मन में रहते हैं। मन को इन द्वन्द्वों से मुक्त करना ही मन की शिक्षा है।

मन सभी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी है। मन स्वयं ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी है। मन इन दोनों इन्द्रियों का स्वामी बनकर इनको चलाता है। कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ संवेदनाओं को ग्रहण करतीं हैं। मन इनका स्वामी बनकर इन्हें सद्गुण और सदाचार के लिए अथवा दुर्गण और दुराचार के लिए प्रेरित करता है। मन को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों से जोड़ना, मन की शिक्षा है।

मन जब काम-क्रोधादि विकारों से भरा रहता है, तब वह उत्तेजित अवस्था में रहता है। इसे मन की अशांत अवस्था भी कहते हैं। उत्तेजित अवस्था में विचार और व्यवहार का संतुलन तथा स्थिरता रहना असंभव है। उत्तेजना के कारण मन कब क्या कर ले? कहना कठिन है। मन की उत्तेजना समाप्त कर, उसे शांत रखना ही मन की शिक्षा है।

मन अत्यंत चंचल, जिद्दी, बलवान तथा दृढ़ है। ऐसे मन का निग्रह करना, वायु का निग्रह करने के समान अत्यन्त कठिन है। गीता में अर्जुन कृष्ण को यही कहते हैं –

चंचलं ही मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।

तस्याहं  निग्रहं मन्ये वायोरिव  सुदुष्करम् ।।

ऐसा चंचल, उत्तेजित और आसक्ति से युक्त मन जब तक एकाग्र, शांत व अनासक्त नहीं बनता तब तक सद्गुण व सदाचार आना असंभव है। अतः मन को एकाग्र बनाना, मन को शान्त रखना तथा मन को अनासक्त बनाना ही मन की शिक्षा है।

मन की शिक्षा कब दें

मन की शिक्षा को ही संस्कार की शिक्षा कहते हैं। यही सद्गुण व सदाचार की शिक्षा भी है। यही भाव शिक्षा व मूल्य शिक्षा भी कहलाती है। इसे चरित्र निर्माण की शिक्षा भी कहते हैं। इन सब प्रकार की शिक्षा का सम्बन्ध मन से है।

यह मन की शिक्षा औपचारिक रूप से विद्यालयों में नहीं दी जा सकती,  इसका मुख्य केन्द्र घर है। घर में संस्कारों की शिक्षा जन्म से पूर्व ही माता के माध्यम से बालक को मिलनी शुरू हो जाती है। माता का खान-पान, विचार-व्यवहार, भावना व कल्पना तथा सत्संग एवं स्वाध्याय आदि से बालक का चरित्र निर्माण होता है। इसलिए माता को बालक की प्रथम गुरु माना गया है।

इसी प्रकार जन्म के उपरान्त घर के वातावरण से बालक सीखता है, इसलिए घर का वातावरण संस्कारप्रद होना आवश्यक है। बालक की ग्रहण करने की क्षमता विलक्षण होती है। वह जैसा देखता है, वैसा ही करता है। जैसा सुनता है, वैसा ही बोलता है। वह जिस वातावरण में पलता है, उसके विचारों, भावनाओं तथा दृष्टिकोण की तरंगों को पकड़ लेता है। उसमें अनकही बातों को भी समझ लेने की अद्भुत क्षमता होती है। वह शब्द को छोड़ देता है और उसके पीछे जो भाव होता है, उसे ग्रहण कर लेता है। इसलिए घर के लोगों के विचार व व्यवहार तथा घर का वातावरण शुद्ध और पवित्र रखना आवश्यक है।

हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को भली-भाँति समझा और शिशु संगोपन नामक एक सम्पूर्ण शास्त्र की रचना की ओर उसे दैनन्दिन व्यवहार की परम्परा के रूप में घर-घर में स्थापित किया। रात्रि में घर-घर लोरी गाकर बच्चे को सुलाने का प्रचलन, प्रातःकाल भजन व स्तोत्र सुनते हुए जगना, महापुरुषों के जीवन की घटनाएँ व कहानियाँ सुनना तथा प्रेमपूर्वक माता के हाथ से भोजन करके ही माता के हृदय के भाव उसमें संस्कार रूप में संक्रांत होते हैं। अतः शिशु को संस्कारों की शिक्षा अनौपचारिक रूप से घर में माता-पिता एवं परिजनों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा है।

बाल अवस्था में चरित्र शिक्षा

शिशु अवस्था में संस्कार हैं। बाल अवस्था में आदतें बनतीं हैं और उसका मानस तैयार होता है। इसी अवस्था में चरित्र की अनेक छोटी-बड़ी बातें उसके मन और शरीर का अविभाज्य हिस्सा बनकर उसके आचार-विचार में अभिव्यक्त होती है। बाल्यकाल में सीखी हुई आदतें जीवन भर बनी रहती हैं। इस समय यदि सही आदतें बन गईं तो बालक सच्चरित्र बनता है और गलत आदतें पड़ गईं तो दुश्चरित्र बनता है। घर में जब 6 से लेकर 15 वर्ष के बालक पल रहे होते हैं, तब पिता की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। उस समय एक पिता को कुम्हार की भूमिका अपनानी होती है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को चाक पर चढ़ाता है और जैसा घड़ा बनाना चाहता है, वैसा आकार उसे दे देता है। उस समय वह मिट्टी के साथ किसी भी प्रकार की कठोरता नहीं बरतता, बल्कि बहुत हल्के हाथ से उसे घड़े का आकार देता है। परन्तु  घड़े को आकार देने के बाद वह उसे चाक पर से उतारता है, उसे छाया में रखता है और उसका रक्षण करता है। बाद में उस कच्चे घड़े को अग्नि में डालकर पकाता है। पकाते समय वह पूरा ध्यान रखता है कि वह कहीं से भी कच्चा न रह जाय। पूरा पका हुआ घड़ा ही पानी पीने के काम आता है। इस प्रकार प्रारम्भ में दिया गया घड़े का आकार जीवन भर बना रहता है।ठीक इसी प्रकार माता-पिता अपने शिशु का लालन-पालन करते हैं। अपने लाड-प्यार से उसमें संस्कारों का बीजारोपण करते हैं। फिर उसे आज्ञापालन व नियमपालन सिखाते हैं। उसकी दिनचर्या व्यवस्थित हो, उसमें अच्छी-अच्छी आदतें विकसित हो, ऐसा प्रयत्न करते हैं। यह सब करते समय जहाँ आवश्यक हो, वहाँ पिता उसके साथ कठोर व्यवहार भी करते हैं। अर्थात् उसे संयम और परिश्रम रूपी अग्नि में तपाते हैं। तब जाकर उसके चरित्र का गठन होता है। ऐसा बालक आगे जाकर संसार रूपी सागर के थपेड़ों से कभी घबराता नहीं, टूटता नहीं, अपितु सहज ही उसमें से कोई न कोई मार्ग निकालकर अपनी जीवन रूपी नैया को पार लगा देता है। आज जिसे मूल्य शिक्षा कहा जाता है, वास्तव में यही संस्कारों की शिक्षा है, चरित्र निर्माण की शिक्षा है, सज्जन बनाने की शिक्षा है। यह सज्जनता की शिक्षा प्रमुख रूप से गर्भावस्था, शिशु अवस्था और बाल अवस्था में होती है और प्रमुख रूप से घर में ही होती है।

बड़ी आयु में सद्गुण शिक्षा

बाल्यावस्था के बाद किशोर एवं युवावस्था में भी संस्कार व चरित्र की शिक्षा की आवश्यकता बनी रहती है। जहाँ यह सत्य है कि शिशु व बाल अवस्था संस्कारों की नींव है। वहाँ यह भी सत्य है कि इस नींव वाली आयु की उपेक्षा करके बड़ी आयु में संस्कारों की शिक्षा देने का कोई अर्थ नहीं होता। फिर भी बड़ी आयु में भी संस्कारों की शिक्षा की आवश्यकता तो रहती ही है। गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस सदैव कहा करते थे कि हमें अपने जीवन रूपी लोटे को प्रतिदिन माँजते रहना चाहिए। हमें शिशु व बाल अवस्था के सम्यक प्रयासों से मिले चरित्र रूपी मूल्यवान लोटे को अपने प्रतिदिन के सद्कर्मों से माँजते रहना चाहिए। अतः किशोर व युवा अवस्था में भी चरित्र की शिक्षा देते रहना चाहिए।किशोर अवस्था में शारीरिक व मानसिक ब्रह्मचर्य की रक्षा, त्याग, सेवा, संयम, सादगी और कठोर परिश्रम करना अत्यन्त आवश्यक है। उसके बाद युवावस्था में दान, नीति एवं परिश्रम पूर्वक अर्थार्जन करना, बड़ों की सेवा करना, समाज व देश की सेवा व रक्षा करना तथा जीवन में स्वाध्याय व सत्संग का निरन्तर क्रम बनाए रखना चाहिए। ये सभी बातों जिन व्यक्तियों में होती हैं, उन्हें हम सज्जन व्यक्ति कहते हैं। ऐसे सज्जन व्यक्तियों से ही समाज सुसंस्कृत व गुणवान बनता है। ऐसे श्रेष्ठ समाज से ही राष्ट्र समर्थ व श्रेष्ठ बनता है। हमें अपने राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाना है तो भावी पीढ़ी को मन की शिक्षा देना अत्यावश्यक है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)



हमारी एक-एक श्वास चन्दन का वृक्ष है 

सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी का लोटा पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा―"हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा।"लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा। इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया।अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा―"मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था।" राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि "इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ?" अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान बाग उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे। जीवन कट जाएगा। यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर उद्यान बगीचा एक वीराना बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला। उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है। दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके 

स्वागत के लिए आगे बढ़ा। राजा ने आते ही कहा―"भाई ! यह तूने क्या किया?" लकड़हारा बोला―"आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया। कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।" राजा मुस्कुराया और कहा―"अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ।" लकड़हारे ने दो गज [लगभग पौने दो मीटर] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया। लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीस रुपये मिल गये। जो कोयले से कई गुना ज्यादा थे।लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा। इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर और ईश्वर द्वारा दिया हुआ हमारा ये अनमोल जीवन है। हमारा एक-एक श्वास चन्दन का वृक्ष है। पर अज्ञानतावश हम इन चन्दन को कोयले में तब्दील कर रहे हैं। लोगों के साथ, लड़ाई झगड़ा, छीना झपटी, आपसी बैर, उनसे ईर्ष्या, मनमुटाव को लेकर खिंच तान काम, क्रोध, लोभ, अहंकारकी अग्नि में हम इस जीवन रूपी चन्दन को जला रहे हैं। जब अंत में श्वास रूपी चन्दन के पेड़ कम रह जायेंगे तब एहसास होगा की व्यर्थ ही अनमोल चन्दन को इन तुच्छ कारणों से हमने दो कौड़ी के कोयले में बदल रहे थे।

संत विराथू



बालेश्वर गुप्ता

साल 1947....यह समय था जब भारत और पाकिस्तान दो अलग देश बन रहे थे ।जहाँ जिन्ना ने अलग राष्ट्र पाकिस्तान बनाने के लिए हिन्दुओ का नरसंहार किया, वहीं बर्मा के रोहिंग्यो ने बौद्धों का नरसंहार कर पूर्वी पाकिस्तान में शामिल होना चाहा। कश्मीर की तर्ज पर ही रोहिंग्या सेना और जनता दोनों पर पत्थर बरसाते।अपने ही देश के खिलाफ जिहाद की शुरुआत हुई दूसरे विश्व युद्ध के समय, जब ब्रिटेन ने अलग राष्ट्र देने के बदले, रोहिंग्या को जापान से लड़ने को तैयार किया, उनके हाथों में हथियार दिए गए, इन लोगो ने जापान से लड़ने की जगह अपने ही देश के 20,000 बौद्धों को मार डाला...असंख्य बौद्ध महिलाओं का बलात्कार किया।स्वभाव से ही झगड़ालू इन रोहिंग्यों ने 1946 में जिन्ना से संपर्क किया कि बर्मा के माउ क्षेत्र को पाकिस्तान में शामिल किया जाए। जिन्ना ने इससे मना कर दिया। गुस्साए रोहिंग्यों ने अपने ही देश में हत्या और बलात्कार का नंगा नाच शुरू कर दिया। इन्होंने अपनी आतंकी सेना तक भी बना ली,.जो बौद्धों को ही मारती। 1946 से लेकर अब तक इन जिहादी रोहिंग्यों से बौद्ध जनता त्रस्त थी। लेकिन वहाँ उदय हुआ विराथु नाम के एक सन्त का जिसने कहा..."आप कितने भी शांतिप्रिय क्यो ना हो, लेकिन पागल कुत्तों के साथ आप नहीं सो सकते!!" खतरे की घण्टी बज चुकी है.. अगर खुद को बचाना है....तो रोहिंग्यों को जड़ से खत्म करना होगा। 2001 में उन्होंने व्यापार से रोहिंग्यों के पूर्ण बहिष्कार का अभियान "अभियान-969" चलाया। अगर किसी दुकान पर 969 लगा होता, तभी बोद्ध वहाँ से सामान खरीदते। 2012 में एक बौद्ध महिला का बलात्कर कर रोहिंग्यों ने हत्या कर दी। फिर तो बर्मा जल उठा,आग में घी का काम किया विराथु के भाषणों ने। इस आग की लपट भारत के आजाद मैदान तक आयी। बौद्धों ने अब हथियार उठा लिए थे। विराथु का कहना है कि रोहिंग्या अल्पसंख्यक बौद्ध लड़कियों को फँसाकर शादियाँ कर रहे हैं एवं बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करके पूरे देश के जनसंख्या-संतुलन को बिगाड़ने के मिशन में दिन-रात लगे हुए हैं, जिससे बर्मा की आन्तरिक सुरक्षा को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है। इनका कहना है कि रोहिंग्या एक दिन पूरे देश में फैल जाएंगे और बर्मा में बौद्धों का नरसंहार शुरू हो जाएगा। संयुक्तराष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि यांग ली ने सेकुलरिज्म दिखाते हुए बर्मा का दौरा किया और विराथु की साम्प्रदायिक सोच की निंदा की...तब विराथु की हिम्मत देखिये.....उन्होंने उसे खुलेआम धमकी दी एवं यहाँ तक कि उन्हें वेश्या और कुतिया भी कह दिया और कहा..."आपकी संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठा है, इसलिए आप अपने आप को बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति न समझ लें। बर्मा के लोग अपने देश की रक्षा स्वयं करेंगे। उन्हें आपके सलाह की जरूरत नहीं है।" वीराथु को अंतर्राष्ट्रीय दबाव में गिरफ्तार कर लिया गया मीडिया के सामने कहे गये अपने निर्भीक विचारों के कारण उनकी ख्याति पूरी दुनियाँ में फैल गयी।पर  जनता विराथु के साथ थी |




सज़ा

 -डा. नरेंद्र शुक्ल

"तुम्हारा नाम क्या है?" कटघरे में खड़े खूँखार से दिखने वाले मुज़रिम से सफाई वकील ने पूछा।

"विक्की उस्ताद," मुज़रिम ने होंठ चबाते हुये कहा।

"तो तुमने कलक्टर साहिबा पर गोली चलाई?"

"हाँ, चलाई गोली...," विक्की उस्ताद ने सीना तानकर कहा।

"मगर क्यों?" सफाई वकील ने पूछा।

विक्की जज साहिबा को देख रहा था। कोई जवाब नहीं दिया।

"मैं पूछता हूँ कि तुमने कलक्टर साहिबा पर गोली क्यों चलाई?" इस बार वकील साहब ने थोड़ी सख़्ती दिखाई।

"पैसा मिला था," विक्की ने बिना किसी लाग-लपट के सहज ही कह दिया।

"किसने दिया पैसा?" वकील साहब ने अगला सवाल किया।

उसने काई उत्तर नहीं दिया। वह लगातार जज साहिबा को देखे जा रहा था।... शायद कुछ पहचानने की कोशिश कर रहा था।

"मैं पूछता हूँ कि किसने दिया पैसा?" सफाई वकील के स्वर कठोर हो गये। माथे पर त्योरियाँ चढ़ आईं। विक्की पर इसका कोई असर नहीं हुआ। पुलिस, वकील, जज और सज़ा आदि शब्द उसके लिये नये नहीं थे।

"किसी ने दिये हों.. तुम्हें क्या। अपुन के धंधे में यह सीक्रेट है। अपुन अपने धंधे से बेईमानी नहीं कर सकता। .. अपुन दागा गोली उस कलक्टर की छाती पर। तुम अपुन को सज़ा सुना दो। अपुन ज़्यादा पचड़े में नहीं पड़ना चाहता," विक्की ने एक पेशेवर अपराधी की तरह बिना किसी ख़ौफ के दो टूक जवाब दिया।

"तुमने अपनी सगी बहन पर ही गोली दाग दी!" इस बार सफाई वकील ने विक्की को तोड़ने के लिये उसके हृदय पर कुठराघात किया।

"मेरी बहन...!" उसका मुँह खुला का खुला रह गया ... "यह क्या कह रहे हैं वकील साहब। अपुन ने अपनी बहन पर नहीं रकाबगंज की कलक्टर मिस पांडे पर गोली चलाई है।"

"क्या तुम्हारा असली नाम विक्रम देशपांडे नहीं। क्या ज्योति देशपांडे तुम्हारी बहन नहीं है? क्या तुम विकास देशपांडे के इकलौते बेटे नहीं हो?" वकील साहब ने विक्की उस्ताद की पारिवारिक पृष्ठभूमि की पिटारी खोल दी।

"हाँ, मैं श्री विकास देशपांडे का इकलौता बेटा विक्रम देशपांडे हूँ और मेरी बहन का नाम भी ज्योति देशपांडे है।... लेकिन, ज्योति का इस केस से क्या ताल्लुक है," विक्की ने सच्चाई बयान करते हुये हैरानी व कोतुहल से पूछा।

"मिस ज्योति देशपांडे का इस केस से गहरा ताल्लुक है योर ऑनर ... क्योंकि मिस ज्योति देशपांडे ही वह कलक्टर हैं जिन पर इस मुज़रिम विक्की ने गोली चलाई है," वकील साहब ने विक्की की ओर इशारा करते हुये कहा। विक्की उस्ताद उर्फ विक्रम देशपांडे को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था ... मैंने अपनी बहन, अपनी दीदी ज्योति पर गोली चलाई है। यह कैसे हो सकता है? .. नहीं.. नहीं.. वह ज्योति नहीं... वह तो कलक्टर पांडे थी, पर.. शायद... हाय! यह मुझसे क्या हो गया.. वह सिसक पड़ा। आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह खड़ा न रह सका। अपना सिर पकड़ कर वहीं कटघरे में बैठ गया। उधर विक्की उस्ताद की पारिवारिक हिस्ट्री सुनकर जज साहिबा, जो अब तक केस की फाइल के पन्ने पलट रहीं थी.. एकाएक चौंक गईं। उन्होंने पहली बार नज़रें उठाकर अभियुक्त विक्की उस्ताद के चेहरे को गौर से देखा ... अरे यह तो सचमुच विक्की है।... मेरा छोटा भाई.. लेकिन अभियुक्त के रूप में...! ...यह कैसे हो सकता है? इतना प्यारा बच्चा हार्ड कोर क्रिमिनल कैसे बन सकता है...? इतने वर्षों बाद भाई-बहन का यह कैसा अद्भुत मिलन है। इन सभी प्रश्नों ने उनके मन में खलबली मचा दी। उन्हें याद आया.... जब विक्की पैदा हुआ था तो घर में कितनी खुशियाँ मनाई गईं थीं। सभी रिश्तेदारों को बुलाया गया था। माँ और पापा दोनों ही बहुत खुष थे। दो लड़कियों के बाद बेटा पैदा हुआ था। कमला चाची माँ से कह रही थीं - दीदी देख लेना यह लड़का अपनी दोनों बहनों से ऊपर जायेगा। दादी ने हॉ में हाँ मिलाते हुये कहा - और नहीं तो क्या। लड़कियों को तो पढ़-लिखकर भी घर का चौंका-चूल्हा ही करना होता है। नाम तो लड़के रोशन करते हैं। ताई ने दादी की बात का समर्थन करते हुये कहा - तुम ठीक कहती हो दादी.. लड़कों से ही वंश चलता है। लड़के ही पिंड-दान करते हैं।

विक्की जब थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे पढ़ने के लिये शहर के सबसे बड़े कॉन्वेंट स्कूल, सेंट ज़ेवियर भेजा गया। वह तब आठवीं में थी और ज्योति सातवीं में। हम दोनों बहनें पास ही के सरकारी स्कूल में पढ़ती थीं। धीरे-धीरे विक्की बड़ा होता गया। माँ और पापा के असीम लाड़-प्यार ने उसे ज़िद्दी व मुँहफट बना दिया था। घर पर वह किसी से ढंग से बात नहीं करता था। माँ और पापा की तो वह हर बात काट देता था। पापा ने तंग आकर उसे दून स्कूल भेज दिया। सोचा, दूर हॉस्टल में रहेगा तो ठीक हो जायेगा। लेकिन, वह नहीं सुधरा। विक्की दसवीं के बोर्ड इक्ज़ाम में फेल हो गया। स्कूल वालों ने उसे स्कूल से निकालने का नोटिस भेज दिया। नोटिस में उसके आचरण को लेकर भी शिकायत की गई थी। पापा ने किसी तरह सिस्टर लुसाटा के सामने हाथ-पैर जोड़कर विक्की को एक और चांस दिलवाया। लेकिन, भाग्य को तो कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन खबर आई कि विक्की अपने मैथ के टीचर को अधमरा करके स्कूल से भाग गया है। ख़बर सुनकर माँ के तो जैसे प्राण ही निकल गये। पापा से रोते हुये बोलीं – "आप कुछ भी करिये। मुझे मेरा विक्की चाहिये।.. मैं उसके बिना ज़िंदा नहीं रह सकती.. मुझे मेरा विक्की चाहिये.. मैं उसे समझाऊँगी। वह मेरी बात नहीं टालेगा। वह एक समझदार लड़का है। वह ज़रूर अच्छा बनेगा।"

पापा भी उदास थे। हम दोनों बहनें भी खूब रोई थीं। ज्योति तब सिविल सर्विसिस की तैयारी कर रही थी और मैं जूडिशियल की। पापा ने विक्की को खोजने में कोई कसर नहीं छोड़ी। टी.वी., अखबार, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड सभी सार्वजनिक स्थानों पर, जहाँ कहीं भी पब्लिक की नज़र जा सकती थी, विक्की की तस्वीर लगाई गई। लेकिन विक्की न जाने कहाँ छिप गया था। न जाने कौन सी ज़मीन उसे निगल गई थी। उसका कहीं पता न चला..। विक्की के ग़म में माँ और पापा दोनों बीमार रहने लगे और पिछले साल.. पहले पापा और फिर माँ हम सब को अकेला छोड़कर इस दुनिया से चले गये। दोनों की आँखें, अंतिम साँसों तक अपने प्यारे बेटे विक्की के आने का रास्ता निहारती रहीं। माँ ने जाते-जाते मुझे अपने पास बुलाकर कहा – "सागरिका, विक्की का ख्याल रखना। वह एक अच्छा लड़का है।" ... और आज विक्की मिला भी तो एक ऐसे अपराधी के रूप में, जिस पर अपनी ही बहन पर गोली चलाने का आरोप है ....। जज साहिबा ने टेबुल पर पड़ी अपनी ऐनक पहनते हुये कहा – "द कोर्ट इज़ एडज़र्न टिल मंडे।"

सोमवार को कोर्ट खचाखच भरी हुई थी। आज यहाँ एक ऐसे केस का फैसला होने वाला था जहाँ अभियुक्त उसी जज का भाई था जिसने उसे सज़ा सुनानी थी। हालाँकि ऐसे केसों में जहाँ अभियुक्त का जज के साथ कोई पारिवारिक रिश्ता हो प्रतिवादी के आवेदन पर केस किसी दूसरे जज की अदालत में ट्रास्फर हो जाता है .. लेकिन यहाँ स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत थी। जज साहिबा पूरे शहर में अपने तटस्थ न्याय के लिये प्रसिद्ध थीं। लिहाज़ा प्रतिपादी के वकील को इस संबंध में कोई आपत्ति नहीं थी। आज विक्की उस्ताद उर्फ विक्रम देशपांडे कटघरे में सिर झुकाये उस हारे हुये जुआरी की तरह खड़ा था जिसने ज़िंदगी के जुए में अपना सब कुछ गँवा दिया हो। उसका शरीर ढीला पड़ चुका था। उसे आज अहसास हो गया था कि अपनों के मरने का क्या दु;ख होता है। उसे यह भी मालूम हो गया था कि सामने न्याय की कुर्सी पर बैठी जज साहिबा और कोई नहीं उसकी अपनी बड़ी बहन सागरिका है।

"क्या तुम्हारी कोई और बहन है?" वकील साहब ने अदालत में घर बनाते हुये मौन को तोडते हुये कहा।

"हाँ.. वकील साहब मेरी एक और बहन.. सा.. ग... रि.. का है।" विक्की की ज़बान बड़ी बहन के सामने लड़खड़ा गई। सफाई वकील ने जज साहिबा की ओर उन्मुख होकर कहा – "लीजिए योर आर्नर, केस एकदम साफ है। मुलज़िम विक्की खुद स्वीकार कर रहा है कि उसने कलक्टर मिस ज्योति पर गोली चलाई.. यह तो भगवान का शुक्र है कि गोली मिस ज्योति के कंधे को छूती हुई निकल गई.. वरना कुछ भी हो सकता था।.. लेकिन, योर आर्नर इससे मुलज़िम विक्की का अपराध कम नहीं हो जाता। मुलज़िम एक पेशेवर अपराधी है इसलिये मेरी अदालत से दरख़्वास्त है कि मुलज़िम विक्की उस्ताद उर्फ विक्रम देशपांडे को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये। दैट्स ऑल योर आर्नर।"

वकील साहब सामने लगी कुर्सी पर बैठ गये। बहन ज्योति के बचने का समाचार सुनकर विक्रम की आँखों में चमक आ गई। उसके दोनों हाथ अपने आप भगवान का धन्यवाद करने के लिये जुड़ गये। होंठों से बरबस निकल पड़ा – "परमात्मा तेरा लाख - लाख शुक्र है... तूने इस पापी पर रहम करते हुये दीदी को बचा लिया।" उसकी आँखों में आँसू आ गये।

"तुम्हें अपनी सफ़ाई में कुछ कहना है?" जज साहिबा ने अभियुक्त विक्की उस्ताद से पूछा।

"हाँ, जज साहिबा मुझे कुछ कहना है लेकिन अपने बचाव में नहीं। मैं एक मुजरिम हूँ.. एक बेहद खूँखार मुजरिम। मैंने न जाने कितने घरों को उजाड़ा है। लाखों लोग मेरे कारण बेघर हुये हैं। पैसा लेकर.. हर तरह का काम करता हूँ मैं। यह कलक्टर.. क्या नाम है इसका.. मिस ज्योति देशपांडे यहाँ रकाबगंज में कानून का राज चलाना चाहती थी। वह कॉलोनी शहर के प्रसिद्ध बिल्डिर सेठ दीनानाथ की बनाई कॉलोनी थी... वही सेठ दीनानाथ, जिनके पैसों से तमाम राजनीतिक पार्टियों के खर्च चलते हैं। शहर के कई अफसरों की अय्याशी चलती है। उनके सभी प्रकार के उल-जलूल खर्च चलते हैं। उसी सेठ की कॉलोनी को गैरकानूनी बताकर.. यह कलक्टर उसे गिराना चाहती थी। वह मीडिया के द्वारा सेठ साहब पर दवाब बनाने की कोशिश भी कर रही थी। मैंने फोन पर उसे बहुत समझाया .. लेकिन उस पर ईमानदारी का भूत सवार था.... वह नहीं मानी.... और मैंने उसे गोली मार दी। समाज में लोग मुझे गुंडा कहते हैं... पर, अपने साथियों के लिये मैं उस्ताद हूँ .. विक्की उस्ताद .. लेकिन, आज तक किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि पूरे “शहर में अपनी ईमानदारी व सच्चाई के लिये मशहूर, एक कर्त्तव्यपरायण पुलिस इंस्पैक्टर श्री विकास देशपांडे का इकलौता बेटा विक्की देशपांडे, विक्की उस्ताद कैसे बना। मुझे अपराधी बनाने वाले वे सभी लोग.. वे सभी माँ-बाप हैं जो अपने बेटों को अपनी बेटियों से अधिक प्यार करते हैं। जो समाज में अपने बेटों को अपनी बेटियों से ज़्यादा अहमियत देते हैं। उनकी हर नजा़यज़ माँग... हर गलती यह सोचकर माफ़ कर देते हैं कि बच्चा है। बड़ा होकर ठीक हो जायेगा। .. कुल का चिराग है यह।.. इसी के हाथों मोक्ष की प्राप्ति होगी। .. इसी से हमारा वंश चलेगा। .. अगर, पापा ने मेरे फेल होने पर मुझे फटकारा होता.. माँ मेरी गलतियों पर परदा न डालती तो आज यह विक्की.. विक्की उस्ताद न होता। आज यहाँ, मेरी हर माँ-बाप से हाथ जोड़ कर विनती है कि वे बेटा-बेटी में कोई फर्क न समझें। अपने बेटे को इतना लाड न दें कि उसका स्वाभाविक विकास रुक जाये। वह अपनी नजायज़ इच्छा शक्तियों का गुलाम बन कर रह जाये। बचपन की बेलगाम बुरी आदतें ही भविष्य में व्यक्ति की मानसिक पंगुता का सबब बनती हैं...।"

वह फूट - फूट कर रोने लगा। उसके आँसुओं की बहती धारा के सामने आज नदियाँ व समुद्र भी छोटे पड़ने लगे। जज साहिबा की आँखों में भी आँसू आ गये। ख़ुद को सँभालते हुये वे बोलीं – "द कोर्ट इज़ एडज़र्न टिल नैक्स्ट डे।"

घर आकर विक्रम की बड़ी बहन सागरिका बिना कुछ खाये-पिये ही पंलग पर लेट गई। वह उन जजों में से थी जो फर्ज़ के लिये के अपना सब कुछ दाँव पर लगाने के लिये सदैव तैयार रहते हैं। .. ओह .. आज कैसी परीक्षा की घड़ी आ गई है। एक ओर उसका अपना सगा भाई है तो दूसरी और फर्ज़ की दीवार। .. उसने अपनी आँखे मूँद लीं। फर्ज़ और भ्रातृ-प्रेम में संघर्ष होने लगा। कभी फर्ज़, भ्रातृ प्रेम पर चढ़ बैठता तो कभी भ्रातृ-प्रेम फर्ज़ की मज़बूत दीवार को भेद कर उससे कह उठता... नहीं सागरिका आखिर विक्की तुम्हारा वही भाई है जिसे बचपन में तुम अपने हाथों से तैयार करके स्कूल भेजती थीं। यह वही विक्की है जिसे खिलाये बिना तुम्हारा पेट नहीं भरता था। जिस दिन वह तुमसे रूठकर, मम्मी-पापा के साथ सोता था उस दिन तुम सारी रात करवटें बदलती रहती थीं। मम्मी-पापा के जाने के बाद तुम्ही उसकी मम्मी-पापा हो। .. याद है .. माँ ने मरते हुये क्या कहा था .. विक्की का ख्याल रखना। ... आज उसी विक्की की ज़िदगी तुम्हारी कलम पर निर्भर है।.. कोर्ट में बेचारा कैसे फूट-फूट कर रो रहा था... यही सब सोचते-सोचते कब उसकी आँख लग गई पता ही न चला।

अगले दिन जज की कुर्सी पर बैठते ही वह सब कुछ भूल गईं। जज साहिबा ने अपना फैसला सुनाते हुये कहा – "विक्की उस्ताद उर्फ़ विक्रम देशपांडे एक अपराधी है। उसने स्वयं अपना अपराध कबूल किया है। उसने साफ कहा है कि उसने कलक्टर मिस ज्योति देशपांडे को जान से मारने की कोशिश की है। अदालत विक्की को मुज़रिम मानती है लेकिन विक्की उस्ताद में उत्पन्न अपराधबोध व पश्चाताप की भावना को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कानून हर अपराधी को सुधरने का मौका देता है। अदालतों का कार्य समाज को दुरुस्त करना भी होना चाहिये.. लिहाज़ा, अदालत विक्की उस्ताद उर्फ़ विक्रम देशपांडे को पाँच साल की कठोर सज़ा सुनाती है।" .. और एक बहन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

  


जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर, 1902 - 8 अक्टूबर, 1979) (संक्षेप में जेपी) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। उन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। इन्दिरा गांधी को पदच्युत करने के लिये उन्होने 'सम्पूर्ण क्रांति' नामक आन्दोलन चलाया।जेपी आंदोलन जिसे बिहार आंदोलन के रूप में भी जाना जाता है, 1974 में भारतीय राज्य बिहार में छात्रों द्वारा शुरू किया गया एक राजनीतिक आंदोलन था और राज्य सरकार में कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अनुभवी गांधीवादी समाजवादी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, जिन्हें जेपी के नाम से जाना जाता था।



 

एक आयरिश क्षेत्र की महिला, एनी बेसेंट, 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता सत्र के दौरान प्रथम महिला अध्ययक्ष बनी। वह एक महान महिला थी जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारत को एक स्वतंत्र देश बनाने के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।


श्री लाल बहादुर शास्त्री पूर्व प्रधानमंत्री  का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था।भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उन्हें कई बार जेल भी जाना  पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही | 1921 का असहयोग आंदोलन,1930 का दांडी मार्च व 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।




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