मंगलवार, 21 मई 2024

प्रदोष व्रत कथा व विधि


 

प्रदोष व्रत कथा व विधि 

 प्रदोष व्रत -  हर माह की त्रयोदशी तिथि पर प्रदोष व्रत  होता है. शास्त्रों के अनुसार, भगवान शिव की पूजा के लिए रखे जाने वाले प्रदोष व्रत बहुत महत्वपूर्ण होते हैं | मान्यता है कि इस व्रत को रखने पर भगवान शिव सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं | प्रदोष व्रत से पुरानी  कथा जुड़ी हुई है और व्रत के दिन उस कथा को पढ़ना बेहद शुभ माना जाता है | प्रदोष  व्रत कर  इस कथा को  पढ़ने से  भोलेनाथ प्रसन्न हो  कर आशीर्वाद देते है | 

प्रदोष व्रत की कथा - पौराणिक ग्रंथों  कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक निर्धन पुजारी अपनी पत्नी ओर बेटे के साथ एक गाँव मे रहता था | पुजारी की मौत हो जाने के बाद उसकी विधवा पत्नी अपने बेटे के साथ भीख मांग कर गुजारा करने लगी | एक दिन घूमते हुए  विधवा पुजारिन की मुलाकात विदर्भ देश के राजकुमार से हुई | राजकुमार भी अपने पिता की मृत्यु के बाद निराश्रित होकर दर बदर  भटक रहा था |  पुजारी की पत्नी को उसपर दया आई और वह उसे भी  अपने साथ ले गई और पुत्र की तरह पालने लगी | एक बार पुजारी की पत्नी दोनों पुत्रों के साथ ऋषि शांडिल्य के आश्रम में गई | उसने ऋषि को अपनी सारी समस्या विस्तार से कही | ऋषि ने उन्हे प्रदोष व्रत के बारे मे बताया | विधवा पुजारिन वहां प्रदोष व्रत की विधि और कथा सुनी और घर आकर उसने व्रत रखना शुरू कर दिया |

एक दिन दोनो  बालक वन में घूम रहे थे | पुजारी का बेटा घरपर  लौट आया लेकिन राजा का बेटा वन में गंधर्व कन्या से मिला और उसके साथ समय गुजारने लगा | उस  गंधर्व  कन्या का नाम अंशुमति था | दूसरे दिन भी राजकुमार उस स्थान पर पहुंचा जहां अंशुमाती के माता पिता रहते थे  | राजकुमार को देख कर  अंशुमति के माता-पिता ने उसे पहचान लिया और उससे अपनी पुत्री का विवाह करने की इच्छा प्रकट की | राजकुमार भी उस से विवाह करना चाहता था इसलिए  दोनों का विवाह हो गया | राजकुमार ने गंधर्वों की विशाल सेना के साथ  विदर्भ पर आक्रमण कर दिया |विथर्व का  युद्ध जीतने के बाद राजकुमार विदर्भ का राजा बन गया | राजकुमार ने  पुजारी की पत्नी और उसके बेटे को भी राजमहल में बुला लिया | अंशुमति के पूछने पर राजकुमार ने उसे प्रदोष व्रत के बारे में बताया | इसके बाद अंशुमति भी नियमित रूप से प्रदोष का व्रत रखने लगी | प्रदोष  व्रत के प्रभाव से इस लोक मे सुख भोग कर अंत मे शिव लोक मे गए | 


शुक्रवार, 10 मई 2024

भगवान परशुराम

 


भगवान परशुरामजी  (वैशाख शुक्ल तृतीया/ प्रकटोत्सव)

                  भगवान परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे। जो भगवान विष्णु के छठा अवतार हैं। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इंदौर जिला में ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ। 

                   वे भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ।

                   तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

                 वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होनें कर्ण को श्राप भी दिया था। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त *शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र* भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है- *ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नः परशुराम: प्रचोदयात्।* वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। 

                  उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है। भगवान परशुराम जी को चिरंजीवी होने का वरदान भी प्राप्त है।

                  परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से 21 बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। जिस मे कोंकण, गोवा एवं केरल का समावेश है। 

                  पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरला तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। और इसी कारण कोंकण, गोवा और केरला मे भगवान परशुराम वंदनीय है। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। 

                  उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

                  यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो 8 वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।

                  उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म, कर्ण *गुरु द्रोण*, कौरव-पाण्डवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता।

                  कर्ण को यह ज्ञात नहीं था कि वह जन्म से क्षत्रिय है। वह सदैव ही स्वयं को शुद्र समझता रहा लेकिन उसका सामर्थ्य छुपा न रह सका। उन्होंने परशु राम को यह बात नहीं बताई की वह शुद्र वर्ण के है। और भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त कर ली। 

                     किन्तु जब परशुराम को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने कर्ण को यह श्राप दिया की उनका सिखाया हुआ सारा ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा जब उसे उसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी। इसलिए जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने सामने होते है तब वह अर्जुन द्वारा मार दिया जाता है क्योंकि उस समय कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने का ज्ञान ध्यान में ही नहीं रहा।

गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत

  गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत सतीश शर्मा  गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, और यह दिन गुरुओं के प्रति सम्मा...