गुरुवार, 9 सितंबर 2021

 

शत नमन माधव चरण में




शत नमन माधव चरण में
शत नमन माधव चरण में ॥धृ॥

आपकी पीयूष वाणीशब्द को भी धन्य करती
आपकी आत्मीयता थीयुगल नयनों से बरसती
और वह निश्छल हंसी जोगूँज उठती थी गगन में ॥१॥

ज्ञान में तो आप ऋषिवरदीखते थे आद्यशंकर
और भोला भाव शिशु साखेलता मुख पर निरन्तर
दीन दुखियों के लिये थीद्रवित करुणाधार मन में ॥२॥

दु:ख सुख निन्दा प्रशंसाआप को सब एक ही थे
दिव्य गीता ज्ञान से युतआप तो स्थितप्रज्ञ ही थे
भरत भू के पुत्र उत्तमआप थे युगपुरुष जन में ॥३॥

सिन्धु सा गम्भीर मानसथाह कब पाई किसी ने
आ गया सम्पर्क में जोधन्यता पाई उसी ने
आप योगेश्वर नये थेछल भरे कुरुक्षेत्र रण में ॥४॥

मेरु गिरि सा मन अडिग थाआपने पाया महात्मन
त्याग कैसा आप का वहतेज साहस शील पावन
मात्र दर्शन भस्म कर देघोर षडरिपु एक क्षण में ॥

बुधवार, 8 सितंबर 2021

देश की आजादी को समर्पित आदर्श जीवन : मृत्युंजय भाई परमानन्द








 “देश की आजादी को समर्पित आदर्श जीवन : 

मृत्युंजय भाई परमानन्द”


स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में भाई परमानन्द जी का त्याग, बलिदान व योगदान अविस्मरणीय है। लाहौर षड्यन्त्र केस में आपको फांसी की सजा दी गई थी। आर्यसमाज के  अन्तर्गत आपने विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार किया। इतिहास के आप प्रोफैसर रहे एवं भारत, यूरोप, महाराष्ट्र तथा पंजाब के इतिहास लिखे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने राजद्रोह की प्रेरणा देने वाली पुस्तकें माना था। देशभक्ति के लिए आपको मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई जो बाद में कालापानी की सजा में बदल दी गई। श्री एण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासों से आप कालापानी अर्थात् सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर से रिहा हुए और सन् 1947 में देश विभाजन से आहत होकर संसार छोड़ गये। भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म पश्चिमी पंजाब के जेहलम जिले के करियाला ग्राम में 4 नवम्बर 1876 को मोहयाल कुल में भाई ताराचन्द्र जी के यहां हुआ था। महर्षि दयानन्द जी के बाद वैदिक धर्म के प्रथम शहीद पं. लेखराम, स्वतन्त्रता सेनानी खुशीराम जी जो 7 गोलियां खाकर शहीद हुए तथा लार्ड हार्डिंग बम केस के हुतात्मा भाई बालमुकन्द जी की जन्म भूमि भी पश्चिमी पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान की यही झेलम नगरी थी। भाई बालमुकन्द और भाई परमानन्द जी के परदादा सगे भाई थे। भाई मतिदास भी भाई परमानन्द के पूर्वज थे जिन्हें मुस्लिम क्रूर शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चैक में आरे से चिरवाया था। उनके वंशजों को ‘‘भाई” की उपाधि सिक्खों के गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने देते हुए कहा था कि दिल्ली में हमारे पूर्वजों का खून मतिदास जी के खून के साथ मिलकर बहा है इसलिए आप हमारे भाई हैं। 


आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने सन् 1877 में पंजाब में वैदिक धर्म का व्यापक प्रचार किया था। उनके भक्त अमीचन्द की पंक्तियां - ‘दयानन्द देश हितकारी, तेरी हिम्मत पे बलिहारी’ पंजाब के गांव-गांव में गूंज रही थी। ऐसे वातावरण में आप बड़े हुए। प्राइमरी तक की भाई परमानन्द की शिक्षा करियाला गांव में हुई। इसके बाद चकवाल के स्कूल में आपका अध्ययन हुआ। कुशाग्र बुद्धि भाई परमानन्द यहां अपने शिक्षकों के प्रिय छात्र बनकर रहे। लगभग 14 वर्ष की आयु में आपकी माता मथुरादेवी जी का देहान्त हो गया। पौराणिक पण्डितों के अन्धविश्वासपूर्ण कर्मकाण्ड को देख व अनुभव कर आपने पौराणिकता छोड़ कर आर्यसमाज को अपनाया। प्रसिद्ध दयानन्दभक्त गीतकार अमीचन्द तथा रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी पश्चिमी पंजाब में आपके निकटवर्ती थे। इन दोनों आर्य प्रचारकों का आप पर विशेष प्रभाव था। चकवाल में आपने आर्यसमाज की स्थापना भी की। 


सन् 1891 में आप लाहौर आये तथा सन् 1901 में एम.ए. करके आपने मैडिकल कालेज में प्रवेश लेकर चिकित्सक बनने का विचार किया। दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक स्कूल व कालेज के मुख्य संस्थापक महात्मा हंसराज की प्रेरणा से आपने अपना यह विचार बदल कर दयानन्द कालेज, लाहौर का प्राध्यापक का पद ग्रहण कर लिया। इस कालेज का आजीवन सदस्य बनकर आपने 75 रुपये मासिक के नाममात्र के वेतन पर अपनी सेवायें डी.ए.वी. कालेज को प्रदान की जबकि आपको अन्यत्र कार्य करके अधिक वेतन मिल सकता था। युवावस्था में तपस्या का कठोर व्रत लेकर आपने जीवन भर उसका पालन किया। राजनीति में प्रवृत्त नेतागण हिन्दुओं के उचित हितों की बात करने वाले को साम्प्रदायिक मानते हैं। ऐसे लोगों से आपकी तालमेल नहीं बैठी। उचित अनुचित बातों को आप यथातथ्य प्रकट करते थे। हिन्दू हितों के विरोधियों को आप कहा करते थे--‘‘अगर हमदर्दी ए निशानी कुफ्र की ठहरी। मेरा इमान लेता जा, मुझे सब कुफ्र देता जा।”


आपका निवास लाहौर में भारत माता मन्दिर की तीसरी मंजिल पर था। सरकार को आपकी गतिविधियों पर शुरू से ही शक था। इस कारण पुलिस ने एक बार आपके निवास की तलाशी ली। आपके सन्दूक से शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह द्वारा लिखी हुई स्वतन्त्र भारत के संविधान की प्रति तथा बम बनाने के फार्मूले का विवरण बरामद हुआ। इस कारण आपको बन्दी बना लिया गया। श्री रघुनाथ सहायक जी वकील के प्रयास से आप 15 हजार रुपये की जमानत पर रिहा हुए। अभियोग में आप पर देश-विदेश में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रचार का आरोप लगाया गया था। 22 फरवरी 1915 को लाहौर षड्यन्त्र केस में आप पुनः बन्दी बनाये गये थे। 30 सितम्बर, 1915 को विशेष ट्रिब्यूनल ने आपको फांसी का दण्ड सुनाया। आपकी पत्नी ‘माता भाग सुधि’, श्री रघुनाथ सहाय वकील तथा महामना मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से 15 नवम्बर 1915 को फांसी का दण्ड दिये गये 24 में से 17 अभियुक्तों की सजा को आजीवन कालापानी की सजा में बदल दिया गया। कालापानी में आपको अनेक यातनाओं से त्रस्त होना पड़ा। आपने यहां जेल में आमरण अनशन किया था। लम्बी भूख हड़ताल से आप मृत्यु की सी स्थिति में पहुंच गये। सुहृद मित्रों के आग्रह पर आपने भोजन ग्रहण कर अनशन समाप्त कर दिया। बाद में श्री ऐण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासो से आप कालापानी से रिहा किए गये।


सन् 1901 में आपने एम.ए. किया था। उन दिनों देश में एम.ए. शिक्षित युवकों की संख्या उंग्लियों पर गिनी  जा सकती थी। इस पर भी सादगी एवं मितव्ययता आपके जीवन में अनूठी थी। सन् 1931 में आपने आर्यसमाज नयाबांस, दिल्ली की स्थापना की थी। एक बार जब आप इस समाज में आमन्त्रित किए गये और आपके मित्र श्री पन्नालाल आर्य रेलवे स्टेशन से आपको तांगे में समाज मन्दिर लाना चाहते थे तो आपने पैदल चलने की इच्छा व्यक्त कर तांगे को दिये जाने वाले चार आने बचा लिये। इस व्यय को आपने अपव्यय की संज्ञा दी थी। देश-विदेश में प्रसिद्ध एवं केन्द्रीय असेम्बली (संसद) के सदस्य भाई परमानन्द जी का यह व्यवहार आदर्श एवं प्रेरणादायक व्यवहार था।  


भाई परमानन्द जी इतिहासवेत्ता भी थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में आप इंग्लैण्ड गये। वहां इंग्लैण्ड के लोगों की अपने इतिहास के प्रति प्रेम व उसकी रक्षा की प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हुए तथा भारतीयों की अपने इतिहास की उपेक्षा के उदाहरण देते हुए आपने एक विस्तृत पत्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी को लिखा था--‘‘हम कहते हैं कि राजस्थान का कण-कण रक्त-रंजित है। क्या विदेशियों से जूझते हुए बलिदान देने वाले राजस्थानी वीरों व वीरांगनाओं का इतिहास सुरक्षित करने की हमें चिन्ता है?’’ यह प्रश्न स्वामी जी ने अपने पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक” में प्रकाशित किया था। उनके एक जीवनी लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने इस पर व्यंग करते हुए लिखा है कि “दिल्ली में जहां लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने वालों को फांसी का दण्ड दिया गया था, उसी स्थान पर आज मौलाना आजाद के नाम पर मैडीकल कालेज है। यह है हमारी इतिहास की रूचि।”


सन् 1928 में लाला लाजपतराय के बलिदान के बाद पंजाब में कांग्रेस के पास उनकी जैसी छवि वाला कोई नेता नहीं था। कांग्रेस के एक शिष्ट मण्डल ने भाई परमानन्द जी से पंजाब में कांग्रेस की बागडोर सम्भालने का अनुरोध किया। भाई जी ने मुस्लिम तुष्टिकरण की कांग्रेस की नीति के कारण अपनी असमर्थता व्यक्त की। शिष्ट मण्डल ने लाला लाजपतराय जी की अर्थी में शामिल भारी भीड़ और उन्हें मिले सम्मान का जिक्र किया और कहा कि आप तो देश की आजादी के लिए कालापानी की सजा काट चुके हैं। देश की जनता में आपके लिए बहुत आदर है, इसलिए आप नेतृत्व करें। इस पर भाई जी ने अपनी स्वाभाविक स्पष्टवादिता की शैली में कहा-‘‘भले ही मेरी अर्थी को कंधा देने वाले चार व्यक्ति भी न आयें, मेरे मरने पर कोई एक आंसू भी न टपकाये, परन्तु मैं अपने सिद्धान्त छोड़कर कांग्रेस में नहीं आ सकता।”


मई, 1906 में भाई परमानन्द मुम्बई से जलमार्ग से अफ्रीका महाद्वीप में वैदिक धर्म प्रचारार्थ गये। मार्ग में आपको अनेक कष्ट हुए। एक दिन अफ्रंीका में भ्रमण करते हुए आप हब्शियों की बस्ती में जा पहुंचें। वहां एक एक घर से शहद चुराने के कारण क्रोधित एक मां ने उस अपनी चोर कन्या को पेड़ से बांध कर जलाने का प्रयास किया परन्तु अन्तिम क्षणों में कुछ सोच कर उसे वहां छोड़ कर जाना पड़ा। परमानन्द जी जब वहां पहुंचे तो उस कन्या की दशा को देखकर द्रवित हो गये और उसकी सहायता से स्वयं को वहां बांध कर कन्या को वहां से दूर भेज दिया और स्वयं जलने के लिए तैयार हो गये। बस्ती के एक हब्शी ने बाहर आकर जब यह देखा तो अपने साथियों को बुलाया। कन्या की मां ने आकर घटना का सारा वर्णन कह सुनाया। इस घटना से वहां के सभी हब्शी भाई परमानन्द जी के व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें उच्च आसन पर बैठा कर उनका सम्मान किया और स्मृति चिन्ह के रूप में उन्हें हाथी दांत से बनी वस्तु देकर विदा किया। उनके एक भक्त श्री विलियम उन्हें ढूंढ़ते हुए वहां आ पहुंचे तो यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गये। बाद में भाई जी को कालापानी भेजे जाने से श्री विलियम बहुत दुःखी हुए थे और भाई जी के मानवोपकार के कार्यो से प्रभावित होकर उन्होंने आर्यघर्म की दीक्षा ली थी। अफ्रीका में भाई परमानन्द ने मोम्बासा, डर्बन, जोहन्सबर्ग तथा नैरोबी आदि अनेक स्थानों पर वैदिक धर्म का प्रचार किया। 


डर्बन में एक अवसर पर गांधी जी और भाई परमानन्द जी परस्पर मिले। एक सभा जिसमें भाई परमानन्द जी का व्याख्यान हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी। भाई जी के जोहन्सबर्ग पहुंचने पर गांधी जी उन्हें अपने निवास पर ले गये थे और श्रद्धावश उनका बिस्तर अपने कंधों पर उठा लिया था। गांधी जी के निवास पर भाई जी एक माह तक रहे भी थे।  


डी.ए.वी. कालेज कमेटी की ओर से भाई जी को अध्ययन के लिए लन्दन भेजा गया था परन्तु वह वहां भारत की आजादी के दीवानों से ही मिलते रहे। आपने वहां सन् 1857 की भारत की आजादी की प्रथम लड़ाई के इतिहास पर पुस्तकें एकत्र की और बिना कोई डिग्री लिए पुस्तकें लेकर भारत लौंटे। आपने सारी पुस्तकें डी.ए.वी. कालेज के संस्थापक महात्मा हंसराज जी को सांैप दी जिन्हें महात्मा जी ने अपनी अलमारियों में रख लिया। आर्यसमाज के महान नेता रक्त साक्षी पं. लेखराम के अनुसार भाई परमानन्द जी ऐसे निर्भीक एवं साहसी पुरुष थे जिनमें भय वाली रग थी ही नहीं। वे प्राणों के निर्मोही थे। लाहौर में एक बार बड़ा भारी साम्प्रदायिक दंगा हुआ। भाई जी तथा आर्यसमाज के उच्चकोटि के विद्वान पं. चमूपति का घर वहां असुरक्षित था परन्तु इन दोनों आर्य महापुरूषों को अपनी व अपने परिवारों की कोई चिन्ता नहीं थी। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने वहां आर्य विद्वान व नेता पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती को दो युवकों के साथ भेजकर उनके समाचार मंगाये थे। 


भाई जी ने जोधपुर में महाराजा जसवन्त सिंह के अनुज महाराज कुंवर प्रताप सिंह के निमन्त्रण पर राज-कुमारों की शिक्षा के लिए स्थापित स्कूल में एक वर्ष एक पढ़ाने का कार्य भी किया। श्री प्रतापसिंह की अंग्रेजों की भक्ति एवं राजदरबार में दलबन्दी के कारण खिन्न होकर रातों-राज वह वहां से चल पड़े थे। जब लाहौर में आर्य साहित्य के प्रकाशक महाशय राजपाल जी की कुछ विधर्मियों ने हत्या कराई तो सरकार ने उनके शव की मांग करने वालों को बेरहमी से पीटा।  आप भी पुलिस की लाठियों के प्रहारों का शिकार बने। यदि वहां कुछ आर्ययुवक आपको न बचाते तो कोई अनहोनी हो जाती। भाईजी एक सिद्ध हस्त लेखक भी थे। इतिहास आपका प्रिय विषय था। ‘भारत का इतिहास’ आपके द्वारा लिखी गई एक पुस्तक है जिसे न्यायालय में आपके विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर अंग्रेज सरकार के सरकारी वकील ने कहा था कि यह पुस्तक विद्रोह की प्रेरणा देती है। यूरोप का इतिहास, महाराष्ट्र  का इतिहास, पंजाब का इतिहास, आपबीती एवं वीर बन्दा बैरागी आपकी कुछ अन्य प्रमुख कृतियां हैं। आपकी सभी पुस्तकों में देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा निहित है। 


भाई परमानन्द जी अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के प्रधान रहे। सन् 1927 के प्रथम आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष पद पर आप मनोनीत किए गये थे परन्तु किसी कारण आप यह प्रस्ताव स्वीकार न कर सके। कालापानी के कारावास से रिहा होने पर एक पत्र के प्रकाशक की ओर से जब आपको 10 हजार की राशि भेंट कर सम्मान किए जाने का प्रस्ताव किया गया तो निर्लोभी स्वभाव एवं विनयशीता के कारण आपने धन्यवादपूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया था। देश की आजादी के लिए समर्पित देशभक्तों की पत्नियों ने भी अपने पतियों की तरह त्याग, तपस्या व बलिदान का ही जीवन व्यतीत किया। भाई परमानन्द जी की पत्नी माता भागसुधि रावलपिण्डी के सम्पन्न किसान रायजादा किशन दयाल की पुत्री थी। विवाह के समय आप अनपढ़ थी परन्तु भाई जी ने आपको प्रयत्नपूर्वक शिक्षित किया। आप कुशाग्रबुद्धि, हंसमुख, विनोदी स्वभाव वाली तथा गृह कार्यों में दक्ष महिला थी। भाई जी के जेल के दिनों में आपने स्कूल में काम करके तथा कपड़े सिलकर अपना तथा बच्चों का जीवन निर्वाह किया। क्रूर अंग्रेजों ने आपके घर का सारा सामान यहां तक की घर के सभी बर्तन तक छीन लिए थे। लाहौर की एक बस्ती में किराये के एक ऐसे कमरे में आप रहीं जहां धूप की एक किरण तक प्रवेश नहीं कर सकती थी और न ही शुद्ध वायु भी। दीनबन्धु ऐण्ड्रयूज जब आपकी सुध लेने आये तो यह जानकारी प्राप्त कर द्रवित हो गये कि 6 महीने पहले आपकी बड़ी पुत्री तपेदिक से मर चुकी थी। 


आपकी पत्नी माता भागसुधि जी को अपने पति भाई परमानन्द जी के आजादी का सिपाही होने के कारण टीचर ट्रेनिगं स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया था। मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत अपने निर्दोष पति को फांसी से छुड़ाने के लिए आपने कहां-कहां, कैसे भागदौड़ की होगी तथा धन जुटाया होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। ऐसे बुरे समय में अंधविश्वासी ससुर ने भी आपको आश्रय नहीं दिया। अपने कड़े परिश्रम से माता भागसुधि जी ने दो कमरे, रसोई एवं बरामदा बनवाया। जेल में अपने पति की तरह आपने चारपाई त्याग दी एवं भोजन वर्तनों में करना छोड़ कर मिट्टी के बर्तनों में किया। 1 जुलाई 1932 को तपेदिक रोग की तीव्रता के कारण माता भागसुधि जी को संसार छोड़ कर जाना पड़ा और वह अपने पति से हमेशा के लिए दूर चली गयीं। भाई परमानन्द जी पर इसका क्या प्रभाव हुआ होगा? फिर भी वह 15 वर्षों तक जीवित रहे और देश हित के कार्य करते रहे। 


जानकारी काल हिंदी मासिक - सितम्बर - 2021


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वर्ष-22,    अंक-06                   सितम्बर - 2021,           पृष्ठ 38                             मूल्य-2-50




सर्व पल्ली डॉ राधा कृष्णन 






 शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। 


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संरक्षक

 श्रीमान कुल वीर शर्मा

महामंत्री समर्थ शिक्षा समिति

डॉ वी  एस नेगी

प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य


 प्रधान संपादक

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संरक्षक प्रचार विभाग  विद्या भारती दिल्ली  


 प्रकाशक

 सतीश शर्मा 


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 सौरभ  शर्मा,कपिल शर्मा,

गौरव शर्मा,डॉ अजय प्रताप सिंह, करुणा ऋषि, डॉ मधु वैध, 

भूप  सिंह यादव, ऋतु सिंह,

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प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F,कृणा नगर नई दिल्ली 110029, A- 214 बुध नगर इं पूरी नई दिल्ली  110012 से प्रकाशित |


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सम्पादकीय


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। 

आजादी का अर्थ है पूर्ण स्वतंत्रता, कुछ भी करने की आजादी क्या पहने कहां जाएं क्या करें अपना विकास किस तरह करें कौन सी भाषा बोले क्या खाएं किस वाहन से जाएं कहां रहे कब क्या करें | लेकिन क्या है संपूर्ण स्वतंत्रता वास्तव में मानवता के लिए सही है संपूर्ण स्वतंत्रता कहीं हमें पशुता की ओर तो नहीं ले जाती | आजादी के साथ-साथ अगर कर्तव्य भी हो तो आजादी का वास्तविक अर्थ समझ में आता है | धर्म ग्रंथों में कहा गया है की “ जियो और जीने दो” इस शब्द को सार्थक करते हुए आजादी | हमें अपनी आजादी के साथ था दूसरों की आजादी का भी ध्यान रखना चाहिए | हमें समाज में रहते हुए विद्यालय में, कार्यालय में कार्य  करते  हुए, व  घर पर, ध्यान रखना चाहिए जितनी हमको काम करने की आजादी बोलने की आजादी खाने की आजादी घूमने की आजादी हमें मिली हुई है , उतनी ही आजादी दूसरों को भी है | हमारी आजादी दूसरों की आजादी के साथ टकराव न करने लगे| “अनुशासन के साथ आजादी” अगर हम अनुशासन के साथ रहेंगे  तो समाज में हमारे कारण से किसी को भी कष्ट नहीं होगा | जियो और जीने दो को अपने मन में रखें |

 सरकारों से आग्रह रहता है कि सरकार हमारे आवास,स्वास्थ्य,शिक्षा के लिए व रोजगार के लिय  हमें समान अवसर प्रदान करें | गुलाम  देश के निवासीयों को  उतने अवसर नहीं मिलते हैं जितने की जो हम पर राज कर रहे होते हैं उनके नागरिकों को मिलते हैं | देश को आजाद कराने के लिए हमारे महापुरुषों ने अनेकों बलिदान दिये | हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमें अपने  महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखना चाहिए | उनके विचारों का सम्मान करते हुए देश समाज को आगे बढ़ाने में अपना भी योगदान हमें देना चाहिए|                    सतीश  शर्मा 




भारतीय रसायन विज्ञान




History Of Hindu Chemistry के लेखक महान रसायनज्ञ, शिक्षक, उद्यमी और संस्कृत प्रेमी डॉ. प्रफुल्लचंद्र राय का जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. में जैसोर ज़िले के ररौली गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांग्लादेश में है तथा खुल्ना ज़िले के नाम से जाना जाता है।उनके पिता हरिश्चंद्र राय इस गाँव के प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। वे प्रगतिशील तथा खुले दिमाग के व्यक्ति थे। आचार्य राय की माँ भुवनमोहिनी देवी भी एक प्रखर चेतना-सम्पन्न महिला थीं। जाहिर है, प्रफुल्ल पर इनका प्रभाव पड़ा था। आचार्य राय के पिता का अपना पुस्तकालय भी था। 


सन 1897 में रसायनशास्त्र के ही एक विद्वान उनसे प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में जब मिलने आये तो वो उनसे भारतीय रसायनशास्त्र पर किताब लिखवाना चाहते थे। अपने ही क्षेत्र के एक विद्वान् की अपील पर प्रोफेसर पी.सी.रे ने “रसेन्द्र सार संग्रह” को आधार मानकर एक छोटी सी पुस्तिका 1898 में ही तैयार कर दी। अपनी इस किताब को पढ़कर प्रोफेसर पी.सी. रे की रूचि खुद ही हिन्दुओं के प्राचीन रसायनशास्त्र के ज्ञान को दुनिया के सामने लाने में जाग गई। अब उन्होंने हिन्दु रसायनशास्त्र के ज्ञान को वृहद् रूप में दुनिया के सामने लाने की ठानी।

 डॉ. प्रफुल्लचंद्र राय ने अपने शोध के लिए उन्होंने कविभूषण श्री राम पंडित नवकांत की मदद ली और चरक, सुश्रुत जैसे आयुर्वेद और रसायन के ग्रंथों से जानकारी इकठ्ठा की। जैसे जैसे काम आगे बढ़ने लगा, वैसे वैसे प्रोफेसर रे को समझ में आने लगा कि ये कोई छोटा मोटा काम नहीं है। करीब चार साल की मेहनत के बाद किताब का पहला भाग तैयार हुआ। इससे पहले कि किताब का दूसरा भाग तैयार हो पाता, पहले भाग की सारी प्रतियाँ बिक चुकी थी। पहले भाग का दूसरा संस्करण 1904 में निकालना पड़ा। जब तक 1909 में दूसरा भाग तैयार होता किताब लिखने की प्रेरणा देने वाले एम. बेर्थेलॉट गुजर चुके थे। उनकी प्रेरणा को याद करते हुए किताब का दूसरा भाग भी उन्हीं को समर्पित है।

दूसरे भाग को तैयार करने में जब प्रोफेसर पी.सी.रे को अपनी जानकारी कम लगी तो उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज के प्रिंसिपल श्री ब्रजेन्द्र नाथ सील से भी मदद ली। दूसरे भाग में यांत्रिक और भौतिक रसायन से जुड़े हिन्दुओं के कई सिद्धांत उन्होंने लिखे हैं। इस किताब में उस दौर की ही भाषा का इस्तेमाल हुआ है जो पढने में थोड़ी कठिन लग सकती है। पुराने संस्करण होने के कारन फ्रांसीसी और ग्रीक भाषा के उद्धृत अंशों का अनुवाद भी नहीं है। उस दौर में रसायन के छात्रों को आम तौर पर बेर्थेलॉट, ब्लूमफील्ड, कोलब्रुक, गॉब्लेट जैसे कई लेखकों का लिखा और साथ ही विदेशी भाषाओं के हिस्से भी पढ़ने की आदत होती थी।

ब्रिटिश शासन में, उनकी ही नौकरी करते हुए भी लेखक ने किताब में कई कड़ी टिप्पणियाँ की हैं। उनकी रसायनशास्त्र की जानकारी पर सवाल नहीं उठाये जा सकते इसलिए टिप्पणियों को भी मान्य करना पड़ता है। वो कोवेल आर गौघ जैसे तथाकथित विद्वानों के गलत अनुवादों को चुनकर बता देते हैं। साथ ही उन्होंने यूल की किताब मार्काे पोलो से निकाल कर योगियों का वर्णन भी अपनी बात के समर्थन में प्रस्तुत कर दिया है। पाश्चात्य विद्वानों के तर्कों के खंडन का तरीका उन्होंने काफी पहले ही सिखा दिया था।

पिछले सौ सालों में हम कह सकते हैं कि हमारे विद्वान उसे बस भूलते-भुलाते रहे। उन्होंने हीरों के ज्वलन पर, सस्यका, गैरिका, कम्कुष्ट, वैक्रंता कई किस्म के अम्लों और क्षार, जेवर बनाने की प्रक्रिया में बंगाल में हो रही सोने की बर्बादी और हिन्दुओं और जापानियों के रस कपूर, मदिरा, और कज्जली बनाने की प्रक्रिया में होने वाले अंतर भी बताया है।

इतिहास की कम जानकारी और तारीखों का वैसा ही निर्धारण जैसा तात्कालिक विदेशियों ने किया था, ये उनकी किताब से स्पष्ट हो जाता है। उस समय तक प्राप्त जानकारी के आधार पर रसहृदय तंत्र ग्यारहवीं सदी की रचना थी और गोविन्द भगवत बौद्ध थे। ऐसे कई मिथक बाद के शोध ने तोड़ दिए हैं।

संस्कृत को पढ़ने में उन्हें होने वाली दिक्कतों की वजह से उन्हें कई दूसरे विद्वानों की मदद लेनी पड़ी थी। वो उद्देश्य (संक्षेप में मुद्दे को रखना), निर्देश (जिस मुद्दे को प्रस्तुत किया गया है, उसकी व्याख्या) और लक्षण (परिभाषा और सार) की प्रक्रिया को समझ नहीं पाते थे। चरक के आयुर्वेद के शास्त्रा से रसायनशास्त्र की जानकारी को अलग निकालने में उन्हें खासी मुश्किल हुई होगी।

अगर विषों और उपविषों का हिस्सा छोड़ दें तो हिन्दुओं के रसायन के सभी मुद्दों को प्रोफेसर पी.सी. रे ने छुआ है। आज ये किताब प्रिंट में जरा मुश्किल से मिलती है। शोध के छात्रों के लिए ये एक महत्वपूर्ण किताब है। प्रोफेसर पी.सी.रे का काम इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि उनके काम की वजह से ही हिन्दुओं के रसायनशास्त्रा की कई पुस्तकें प्रकाश में आई। आम तौर पर बहुसंख्यक हिन्दुओं की रूचि धार्मिक विषयों पर भाव विभोर होने और आह वाह करने तक ही सीमित रही है। आज जैसे पी.सी.रे की खुद की किताब कम छपती है, वैसे ही शायद ये हिन्दुओं के रसायनशास्त्र तो गायब ही हो गए होते।

किताब के पहले भाग की शुरुआत वेदों में रसायनशास्त्र से होती है। शुरुआत में ही वेद से आयुर्वेद, फिर धीरे धीरे तंत्रा का उद्भव, बुद्ध से ठीक पहले के काल में रसायनशास्त्रा की जानकारी का अरब की ओर बढ़ना और फिर बुद्ध के शुरूआती समय में ही आणविक नियमों के बनने और तत्वों की जानकारी का जिक्र है। फिर ये किताब आयुर्वेद में कैसे चरक और सुश्रुत जैसे विद्वानों ने चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का इस्तेमाल किया इस बारे में एक हिस्सा है। यहाँ आयुर्वेदिक काल में रसायन का जिक्र है। फिर आगे चलकर सिद्धयोग में वृन्द द्वारा और चक्रपाणी द्वारा सन 900-1000 के बीच रसायन का इस्तेमाल बताया गया है।

सन् 1100 से 1300 के काल को पी.सी. रे तांत्रिक काल कहते हैं। इस दौरान तांत्रिकों ने रसायनशास्त्र में काफी योगदान दिया। इसके बाद रसरत्न समुच्चय जैसी किताबें आई। धातुओं उनके निष्कासन विधियों पर, अम्ल और किस्म किस्म के क्षार, बारूद, कृत्रिम अम्ल ऐसे विषयों पर कई नोट किताब के अंत में दिए गए हैं।

कुल मिला कर ये कहा जा सकता है कि हिन्दुओं के विज्ञान और उसकी तरक्की का जो विदेशी शासन काल में दबाया गया, उसे दोबारा जीवन देने में इस किताब और लेखक का योगदान अभूतपूर्व है। इसकी ऑनलाइन प्रतियाँ भी उपलब्ध हैं। अगर विज्ञान में रूचि हो तो पुनर्जागरण करने वाली इस किताब को एक बार जरूर देखें। यह पुस्तक www.archieve.org से डाउनलोड की जा सकती है 

- आनंद कुमार, "भारतीय धरोहर" में प्रकाशित 

आचार्य राय केवल आधुनिक रसायन शास्त्र के प्रथम भारतीय प्रवक्ता (प्रोफेसर) ही नहीं थे बल्कि उन्होंने ही इस देश में रसायन उद्योग की नींव भी डाली थी। 'सादा जीवन उच्च विचार' वाले उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था, "शुद्ध भारतीय परिधान पहने  इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वह एक महान वैज्ञानिक हो सकता है।" आचार्य की प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उनकी आत्मकथा Life and experiences of Bengali Chemist "एक बंगाली रसायनज्ञ का जीवन एवं अनुभव" के प्रकाशित होने पर अतिप्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखा था कि "लिपिबद्ध करने के लिए संभवत: प्रफुल्ल चन्द्र राय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता।"


आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक द ग्रीक एल्केमी पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलो के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक रसेन्द्रसारसंग्रह पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा जर्नल डे सावंट में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई।

1912 में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। Mercurous Nitrate एवं Ammonium Nitrite नामक यौगिकों के First preparation से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

डाक्टर राय ने अपना अनुसंधान कार्य Mercury के यौगिकों से प्रारंभ किया तथा Mercurous Nitrate  नामक यौगिक संसार में सर्वप्रथम सन् 1896 में आपने ही तैयार किया जिससे आपकी अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्रारम्भ हुई। बाद में आपने इस यौगिक की सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया। आपने Ammonium, Zinc, Cadmium, Calcium, Strontium, Barium, Magnesium इत्यादि के नाइट्राइटों के संबंध में भी महत्वपूर्ण गवेषणाएँ कीं तथा ऐमाइन नाइट्राइटों को विशुद्ध रूप में तैयार कर, उनके भौतिक और रासायनिक गुणों का पूरा विवरण दिया। आपने (organo-metallic) यौगिकों का भी विशेष रूप से अध्ययन कर कई उपयोगी तथ्यों का पता लगाया तथा Mercury, Sulfur और Iodine का एक नया Compound  (I2Hg2S2), तैयार किया तथा दिखाया कि प्रकाश में रखने पर इसके क्रिस्टलों का वर्ण बदल जाता है और अँधेरे में रखने पर पुनः मूल रंग वापस आ जाता है। सन् 1904 में बंगाल सरकार ने आपको यूरोप की विभिन्न रसायनशालाओं के निरीक्षण के लिये भेजा। इस अवसर पर विदेश के विद्धानों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक आपका स्वागत किया। साभार : आशुतोष श्रीवास्तव एवं आर.डी. अमरूते

रसायन : भारतीयों की अप्रतिम देन

कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्‍ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्‍यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्‍त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्‍प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्‍यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।

पिछले दिनो भूलोकमल्‍ल चालुक्‍य राज सोमेश्‍वर के 'मानसोल्‍लास' के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में 'कौतुक चिंतामणि' लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचण्‍डीश्‍वर तंत्र, दत्‍तात्रेय तंत आदि कई पुस्‍तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्‍य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया। मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-1 कुटी प्रवेश और 2 वात तप सहा रसायन। मान- सोल्‍लास में शाल्‍मली कल्‍प गुटी, हस्तिकर्णी कल्‍प, गोरखमुण्‍डीकल्‍प, श्‍वेत पलाश कल्‍प, कुमारी कल्‍प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्‍यक्ति चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्‍त होता... जैसा कि सोमेश्‍वर ने कहा है - एवं रसायनं प्रोक्‍तमव्‍याधिकरणं नृणाम्। नृपाणां हितकामेन सोमेश्‍वर महीभुजा।। (मानसोल्‍लास, शिल्‍पशास्‍त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)

ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्‍चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। कहा, ' कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्‍त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्राय वनस्‍पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्‍य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्‍या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। (अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्‍करण भाग पहला, पेज 188-189)

है न अविश्‍वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा रसायन...।-डॉ श्रीकृष्ण जुगनू


पौराणिक कथा : असली पहचान

बहुत समय पहले की बात है,‌एक व्यक्ति को उसके पिता ने मरते समय दो बड़े-बडे़ हीरे देते हुए कहा कि इनमें से एक हीरा असली है और एक काँच का टुकडा। परन्तु आज तक कोई भी असली हीरा नहीं परख पाया।यह मेरे पिता जी की दी हुई निशानी है जिसे आज मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ । यह कहकर उसके पिता ने प्राण त्याग दिए। कुछ दिन बाद वह व्यक्ति हीरे लेकर अनेक राजाओं के पास गया और शर्त रखी कि यदि कोई व्यक्ति असली हीरा पहचान जाएगा तो वह हीरे को राजकोष में जमा करा देगा। अन्यथा हीरे की कीमत राजा को अदा करनी होगी। इस प्रकार वह अन्त में एक छोटे से राज्य में  पहुँचा। जाड़े का समय था।राजा ने धूप सेंकने के लिए दरबार मैदान में लगा रखा था।  व्यक्ति ने राजा के पास जाकर अपनी शर्त दोहरायी। शर्त सुनकर सभी मौन थे। तभी एक बूढ़े तथा अन्धे व्यक्ति ने हीरों को परखने की अनुमति माँगी राजा से अनुमति लेकर अन्धे व्यक्ति ने हीरों को छुआ और तुरंत उत्तर दे दिया "ये असली हीरा है तथा दूसरा   काँच का टुकडा है।" सभी हैरान रह गए। राजा ने पूछा, महोदय! बिना आँखों के आपने कैसे असली हीरे को परखा? तब अन्धे आदमी ने कहा कि हम सभी धूप में बैठे हैं इस धूप में जो ठंडा बना रहा वह हीरा है और जो गरम हो गया वह काँच का टुकडा है। जीवन में भी आप इस बात को परखना कि जो इन्सान बात-बात पर गरम हो जाए क्रोध करे वह कांच काँच है और जो इन्सान जीवन की धूप में भी ठंडा बना रहे वह हीरा होता है।

श्रीमती शिखा सक्सेना,


शिशु का पालन पोषण (संगोपन)

 – नम्रता दत्त

‘शिक्षा’ विकास की जीवन पर्यन्त चलने वाली एक सतत् प्रक्रिया है। गत सोपानों के अध्ययन के आधार पर यह भी समझ में आया कि यह पूर्व गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है और यहीं से 05 वर्ष की आयु तक इसका विशेष महत्व है क्योंकि मात्र इसी कालखण्ड में शिशु का चित्त अधिक सक्रिय रहता है। ऐसी स्थिति में वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों (आंख, कान, नाक, जिह्वा एवं स्पर्श) से जो भी अनुभव प्राप्त कर लेता है वही कर्मेन्द्रीय (हाथ, पैर एवं वाणी) द्वारा उसकी अभिव्यक्ति/व्यवहार में उतर जाता है अर्थात् उसका संस्कार बन जाता है या यूं कहें कि उसके चरित्र/व्यक्तित्व का निर्माण उसी के कारण होता है। इसीलिए कहा गया कि 5 वर्ष की आयु तक जीवन का 85 प्रतिशत विकास (जिसको शिक्षा का ही पर्याय कहेंगे) हो जाता है।

इस कालावधि में उसके हाथ, पैर एवं भाषा आदि की गतिविधियां बढने लगती हैं। ऐसी स्थिति में परिवार का दायित्व उसकी शारीरिक एवं मानसिक सुरक्षा के प्रति बढ जाता है। शिशु को कोई भी कार्य जबरदस्ती नहीं कराया जा सकता। वह सब कार्य अपनी अन्तःप्रेरणा से ही करता है। परिवार का प्रेम एवं सुरक्षा ही ऐसे में उसके विकास का सम्बल बनते हैं। अनजाने में शिशु को दिया गया भय शिशु के विकास में बाधक तो बनता ही है साथ ही कुसंस्कार का कारण भी बन जाता है। माता स्वयं ही शिशु को बिल्ली का, कुत्ते का, पुलिस का, साधु बाबा, विद्यालय और अध्यापक का डर दिखाकर शिशु में इन सभी के प्रति नफरत का संस्कार पैदा कर देती है।

शिशु अपना विकास अपनी अन्तःप्रेरणा से आनन्द से करता है। वह अपने पैरों के विकास के लिए गिर कर उठता है उठकर गिरता है परन्तु जब तक खङे होकर…..चलना…..दौङना…उछलना…..कूदना में पारंगत नहीं हो जाता तब तक हिम्मत नहीं हारता। पैरों की ही भांति वह हाथों से कुछ उठाता है….गिराता है…तोङता है….कुछ बनाता है। स्वयं को स्वावलम्बी बनाने का प्रयास करता है। इसके लिए परिवार जन का प्रेम, सुरक्षा और स्वतंत्रता उसको बल देती है।

एक वर्ष का शिशु बोलने का अभ्यास भी करता है। पहले एक अक्षर बोलता है मां, बा, पा। फिर दो दो अक्षर बोलने लगता है मामा, बाबा, पापा। तीन वर्ष तक वह छोटे गीत और कहानी सुनाने लगता है। भाषा, शिशु अनुकरण के द्वारा सीखता है। जैसा सुनेगा, वैसा ही बोलेगा। इसलिए जब वह तुतलाकर बोले तो परिवार को शुद्ध और साफ ही बोलना चाहिए ताकि वह भी साफ बोलने का अभ्यास करे। उसके सामने हमेशा सभ्य भाषा में ही बातचीत करें। विशेष ध्यान रखें कि गर्भावस्था के दौरान शिशु ने जो भाषा सुनी हो, उसी भाषा में बात करें।

एक से तीन वर्ष की इस अवस्था को क्षीरादान्नावस्था अर्थात् दूध के साथ अन्न का सेवन करना भी शुरू कर देता है। एक वर्ष के शिशु की कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता भी बढ जाती है। ऐसे में उसे अधिक ऊर्जा (एनर्जी) की आवश्यकता होती है। अधिक परिश्रम करने के कारण उसे अधिक भूख लगती है। अब केवल दूध से उसकी पूर्ति नहीं होती। परन्तु अभी मुख में पूरे दांत भी नहीं हैं इसलिए उसे ऐसे भोजन की आवश्यकता है जिसे वह आसानी से पचा सके जैसे :-खिचङी, दाल-चावल, हलवा, खीर आदि। उसकी स्वादेन्द्रिय (जिह्वा) द्वारा संस्कार देने का यही उचित समय है। इसी समय में सभी प्रकार की दाल सब्जियां खिला कर माता उसको श्रेष्ठ संस्कार डाल सकती है। शिशु अभी परिवार के सदस्यों पर निर्भर है और इस समय उसकी जिह्वा को माता जैसा स्वाद चखाएगी वह उसे ही स्वीकार कर लेगा। यह माता पर निर्भर है कि वह उसे बिस्कुट, टॉफी, मैगी, पास्ता, बर्गर, पिज्जा खिलाएगी या घर में बनी दाल सब्जी और चावल आदि। जिन माताओं को यह शिकायत रहती है कि बच्चा यह दाल सब्जी नहीं खाता, उसमें कहीं न कहीं दोष उनका ही होता है, यह बात उन्हें जान और मान लेनी चाहिए। अन्न का प्रभाव तन के साथ साथ मन पर भी पङता है। अतः तन एवं मन को संस्कारित करने के लिए इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसी के साथ कुछ अन्य संस्कार भी जैसे :- समय पर खाना, हाथ धो कर खाना, चबा चबाकर खाना, बैठकर खाना आदि आदि का ध्यान भी रखना चाहिए।

आहार के साथ ही शिशु के विहार का भी ध्यान रखना चाहिए। उसके सोने एवं जागने का समय, स्नान का समय एवं भोजन करने का समय आदि की आदतें श्रेष्ठ संस्कार बनकर जीवन पर्यन्त उसके साथ चलती हैं। इस अवस्था में शिशु ‘मैं’ के साथ ‘मेरा परिवार’ के भाव को सीखता है। ऐसे में उसको परिवार के सदस्यों का पूरा परिचय एवं सानिध्य का अनुभव देना चाहिए।

बाहर जाना, घूमना- फिरना शिशु को अच्छा लगता है। परन्तु शिशु को कहां ले जाना, क्या दिखाना, कैसे दिखाना यह दृष्टि परिवार को होनी चाहिए। इस सृष्टि में जीव जन्तु, कीट पतंगे, पशु पक्षी , वन, वनस्पति आदि सब कुछ है। इनका परिचय कराना, उनसे आत्मीयता जोङना, उन्हें नुकसान न पहुंचाना…..ये सब बातें परिवार को बङी कुशलता से इसी अवस्था में बतानी चाहिए क्योंकि यही उसका प्रथम अनुभव है। वह जैसा देखेगा, जैसा सुनेगा, वैसा ही करेगा। उसको प्रकृति के सानिध्य में अत्यधिक रखें। पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, गगन) से बना यह शरीर जितना अधिक उसके सानिध्य में रहेगा उतना ही खिलेगा। वह बढती हुई पौध है। जो मिट्टी में खेलता है वही इस मिट्टी से जुङता है, वही मातृभूमि पर अपना जीवन बलिदान कर सकता है। इसी प्रकार व्यष्टि (स्वयं) से समेष्टि, सृष्टि और परमेष्ठि (परमात्मा) तक जाने का संस्कार देने की यह प्रथम सीढी है। परिवार के सदस्यों द्वारा दिया गया प्रेम, प्रकृति का सानिध्य और उसके प्रति आत्मीय भाव ही उसे अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा से ज़ोड़ देता है।

इसी अवस्था में शिशु को कुछ अवांछनीय आदतें भी पङ जाती हैं जैसे अंगूठा चूसना, बिस्तर गीला करना, मिट्टी खाना, दांत किटकिटाना तथा जननांगों (प्राइवेट पार्ट) से खेलना। इन अवांछनीय आदतों को यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया जाता तो यह दस से बारह वर्ष अथवा युवावस्था तक भी चलती हैं। अतः परिवार को समय रहते ही इनका कारण जान कर निवारण कर लेना चाहिए।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।


पंचक विचार सितम्बर - 2021

 

पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहे पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्र का प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार - दिनांक 18 को 15- 25  से  दिनांक 23 को 06-43 बजे  तक पंचक हैं |


गौरवशाली परम्परा 



पुराने कारोबारियों की रिवायत थी कि वे सुबह दुकान खोलते ही एक छोटी-सी कुर्सी दुकान के बाहर रख देते थे। ज्यों ही पहला ग्राहक आता, दुकानदार कुर्सी को उस जगह से उठाकर दुकान के अंदर रख देता था।

लेकिन जब दूसरा ग्राहक आता, तो दुकानदार बाज़ार पर एक नज़र डालता और यदि किसी दुकान के बाहर कुर्सी अभी भी रखी होती, तो वह ग्राहक से कहता-‘’आपकी ज़रूरत की चीज़ उस दुकान से मिलेगी। मैं सुबह का आग़ाज़ (बोहनी) कर चुका हूँ।’’किसी कुर्सी का दुकान के बाहर रखे होने का अर्थ था कि अभी तक दुकानदार ने आग़ाज़ नही किया है। यही वजह थी कि जिन ताजीरों (कारोबारियों) में ऐसा अख़लाक़, ऐसी मोहब्बत हुआ करती थी, उन पर बरकतों का नुज़ूल हुआ करता था।


वास्तु ! भारत की अद्भुत देन




देश ही नहीं, अब दुनिया में भी एक आवश्यकता हो गया है भारतीय वास्तु शास्त्र। मिस्र, मारिशस, कम्बोडिया आदि के साथ रूस में भारतीय वास्तु शास्त्र के पठन पाठन और अभ्यास की खास चेतना जागी है।

फेंगशुई के चक्र को निराधार समझ कर भारतीय ज्ञान विरासत पर वैश्विक समुदाय के विश्वास का यह एक बड़ा उदाहरण है। चीन इस मोर्चे पर अविश्वनीय... हो भी क्यों नहीं? भारत के पास इस तकनीकी और जनोपयोगी विषय की लगभग 100 किताबें हैं...

पांडवों की सभा : मयशिल्प का कौतुक

शिल्पकार के रूप में मय ने भवन निर्माण के लिए ऐसी विधियां प्रयोग में ली कि जहां द्वार नहीं था, वहां द्वार प्रतीत होता और जहां पानी नहीं था, वहां पानी... आभासी दुनिया का अपूर्व प्रयोग था।मय के वास्तु, शिल्प मत कैकई देश से सिंहल तक अनेक सदियों तक प्रचलन में रहे। महाभारत के सभा पर्व और रामायण के युद्ध कांड में मय के शिल्प प्रसंग सच में बड़े प्रेरक रहे। और, मय के ग्रंथों का विशिष्ट हिंदी अनुवाद और संपादन हुआ :

मयमतम् (36 अध्याय) मयशास्त्रम् (5 अध्याय) मयसंग्रह ( मूर्ति विधा) तच्चु शास्त्र और मयदीपिका (रत्न, धातु व मूर्तिशास्त्र)

विश्‍वकर्मा और उनके शास्‍त्र

(संदर्भ : विश्‍वकर्मा ग्रंथों पर निरंतर आयोजन)

यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कल तक जो शिल्प और स्थापत्य के ग्रंथ केवल शिल्पियों के व्यवहार तक सीमित और केन्द्रित थे, उन पर आज अनेक संस्थानों से लेकर कई विश्व विद्यालयों तक ज्ञान सत्र आयोजित होने लगे हैं, सेमिनार, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियां, वेबीनार आदि होने लगे हैं। अनेक विद्वानों की भागीदारी होने लगी हैं। शिल्प के ये विषय पाठ्यक्रम के विषय होकर रोजगार और व्यवहार के विषय हुए हैं। 

शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया। 

उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़्ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है। 'मिलिन्‍दपन्‍हो' में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है, इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है...।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्‍ण्‍ाु आदि पुराणों में आया है जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया। 

विश्‍वकर्मावतार, विश्‍वकर्मशास्‍त्र, विश्‍वकर्मसंहिता, विश्‍वकर्माप्रकाश, विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, विश्‍वकर्म शिल्‍पशास्‍त्रम्, विश्‍वकर्मीयम् ... आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए आवश्‍यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं। 

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया। भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया...। इस पर लगभग सौ ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मैंने किया है और कर रहा हूं।

विश्‍वकर्मा के चरित्र पर स्‍वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। पिछले वर्षों में 'महाविश्‍वकर्मपुराण' का प्रकाशन हुआ।

जय-जय।श्रीकृष्ण जुगनू गृह निर्माण मे वैदिक ऋषि की दूरदर्शिता! AV6.106 आदर्शगृह व्यवस्था अथर्व 6.106

साधारण तौर पर, ज्वालामुखी अग्नि से सुरक्षा और अत्यंत शीतकाल में सुखदायक घर ।1. आयने ते परायने दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः ।उत्सो वा तत्र जायतां ह्रदो वा पुण्डरीकवान् । ।AV6.106.1,हे शाले! (ते) तेरे (आगमे परायणे)  सामने से अन्दर आने के मार्ग और  पीछे से बाहर जाने के मार्ग में (पुष्पिणी: दुर्वा:) फूल और घास (रोहन्तु) उगें। (वा तत्र उत्स: जायताम्‌) और वहां  फुवारे  झरने भी हों , (वा) या (पुण्डरिकवान्‌ हृद:) वहां कमल से युक्त सरोवर हों ॥ अथर्व6.106.1॥ 2. अपां इदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनं । मध्ये ह्रदस्य नो गृहाः पराचीना मुखा कृधि  । ।AV6.106.2 (इदम्‌) यह (अपाम्‌) प्रजाओं का (न्ययनम्‌) निवास- स्थान (समुद्रस्य निवेशनम्‌) समुद्र की सी स्थिति में हो। (न: गृहा:) हमारे घर (हृदस्य मध्ये) तालाब के मध्य में हों । अपने गृहों को (मुखा:) ज्वालारूपी अग्नि से (पराचीना कृधि) अग्निदाह का भय नहीं होता ॥ अथर्व6.106.2॥ 3. हिमस्य त्वा जरायुणा शाले परि व्ययामसि । शीतह्रदा हि नो भुवोऽग्निष्कृणोतु भेषजं  । ।AV6.106.3,हे (शाले) निवास स्थान जब (त्वा हिमस्य) तुम हिम  शीत से (परिव्ययमासी) चारो ओर से घिरे हो तब (शीतहृदा: भुव) शीतल जल से घिरी हो और (अग्नि: भेषजम्‌ कृणोतु) अग्नि के समान सुरक्षा प्राप्त हो ॥अथर्व.6.106.3॥ सुबोध कुमार अगस्त्य ,गंगैकोंडचोलपुरम्। इस काल में अगस्त्य की महिमा बहुत थी। उनका चिंतन विशद था और लोक पक्ष आधारित था। विश्व का पहला रत्नशास्त्र "अगस्तीमत" लोक हितार्थ समर्पित है। संगम काल में अगस्त्य मुनि की लंबी परंपरा को लोग जानते हैं लेकिन चोल‌ काल के शिल्प में मय के निर्देशों को महत्व दिया गया है, मेरा मानना है कि मय ने स्वयं अगस्त्य की परंपरा को आदर दिया है।अगस्त्य मुनि कृत "सकलाधिकार" शिल्प का प्रतिनिधि ग्रंथ है और नाम से ही वह कला का आधिकारिक आगम तुल्य, लोकमान्य रहा है... बुद्ध के बाद उनकी ख्याति जावा तक रही है। एक तरह से उन्होंने जल की सत्ता को नकार दिया। इसीलिए उनको समुद्र पान करने वाला कहा गया है। अधिक समय नहीं हुआ है जब हम अगस्त्य उदय पर पूजन करते थे।एक प्रश्न मैं कई बार अलग अलग मंचो से पूछता हूँ, और दुर्भाग्य से लगभग नब्बे प्रतिशत इसका उत्तर नहीं मिलता हैं, या फिर गलत मिलता हैं. प्रश्न हैं – ऐसा कौनसा देश हैं, जिसके राष्ट्रध्वज पर हिन्दू मंदिर हैं...? 

विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल कौनसा हैं’..? ऐसा प्रश्न किया, की उत्तर आते हैं – वेटिकन सिटी का चर्च या बेसिलिका, स्पेन का चर्च, मक्का या फिर मस्कत की नई मस्जिद आदि. ये सारे उत्तर गलत हैं. विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल या प्रार्थना स्थल यह एक हिन्दू मंदिर हैं. और मजे की बात, यह हिन्दू मंदिर भारत में नही हैं. भारत के बाहर हैं | कंबोडिया के उत्तर – पश्चिम सीमा पर ‘अंगकोर वाट’ यह मंदिर, इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर हैं. यह विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल हैं. दक्षिण – पूर्व आशिया में ‘वाट’ का अर्थ होता हैं, मंदिर. अंगकोर वाट इस मंदिर की एक दीवार लगभग साढ़े तीन किलोमीटर लंबी हैं. इससे अंदाज लगाया जा सकता हैं, की यह मंदिर कितने विशाल भूभाग पर फैला होगा. मेरु पर्वत की प्रतिकृति के रूप में यह मंदिर बनाया गया हैं. इस मंदिर का कुल परिसर चार सौ वर्ग मीटर हैं | इस हिन्दू मंदिर को कंबोडिया ने अपने राष्ट्रध्वज पर स्थान दिया हैं. इसी से इस मंदिर का महत्व पता चलता हैं. इस मंदिर पर अपना हक जताने के लिए कुछ वर्ष पहले कंबोडिया और थायलैंड में घमासान युध्द छिड्ने की नौबत आई थी. दोनों देशों की सेनाएँ अपनी अपनी सीमा पर खड़ी हो गई थी. किन्तु यह मंदिर ‘युनेस्को’ के ‘विश्व विरासत’ (World Heritage Site) की सूची में हैं. इसलिए युनेस्को तथा विश्व के अन्य बड़े देशों ने बीच-बचाव किया, और युध्द टला. 

विश्व के पर्यटकों के दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थान हैं. प्रतिवर्ष २६ लाख से भी ज्यादा पर्यटक, इस मंदिर को देखने के लिए, दुनिया के कोने कोने से आते हैं. अर्थात सात हजार से भी ज्यादा पर्यटक प्रतिदिन. सन ११०० के प्रारंभ से इस मंदिर के निर्माण का प्रारंभ हुआ और बारहवी शताब्दी के मध्य में यह निर्माण कार्य पूर्ण हुआ. उस समय यह प्रदेश ‘कंबोज प्रांत’ के नाम से जाना जाता था. अंगकोर को पुराना नाम ‘यशोधरपुर’ था. लेकिन इन विशाल मंदिरों के कारण यह ‘अंगकोर’ कहलाने लगा. जावा, सुमात्रा, मलाय, सुवर्णद्वीप, सिंहपुर... इस पूरे क्षेत्र पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव था. कंबोज के तत्कालीन राजा सूर्यवर्मा (द्वितीय) ने इस विष्णु मंदिर का निर्माण किया हैं|मूलतः यह मात्र एक मंदिर नही, अपितु मंदिरों का समूह हैं. संस्कृत में अंगकोर का अर्थ होता हैं, ‘मंदिरों की नगरी’. इस नगरी की रचना अत्यंत वैज्ञानिक पध्दति से की गई हैं. मंदिरों का यह परिसर चौकोनाकार खंदकों के कारण सुरक्षित हैं. इस खंदक पर एक पुल हैं, जिसे पार कर के मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं. प्रवेशद्वार अत्यंत भव्य – दिव्य आकार में हैं. इसकी चौड़ाई ही एक हजार फीट की हैं. इस मंदिर की दीवारों पर रामायण के प्रसंग उकेरे गए हैं. समुद्र मंथन का अद्भुत दृश्य अनेक मूर्तियों के माध्यम से साकार हुआ हैं |

संपूर्ण मंदिर परिसर की रचना और मंदिर का स्थापत्य (architecture) शास्त्र देखकर हम दंग रह जाते हैं. साधारण ९०० से १००० वर्ष पूर्व, इतना सटीक और निर्दोष निर्माण करना, उस समय के हिन्दू स्थापत्यकारों को कैसे संभाव हुआ होगा...? इस मंदिर की केंद्रीय संरचना देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता हैं की, मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ करने के पहले, इस मंदिर परिसर के नक्शे बनाएं गए होंगे. उसमे समरुपता (सिमेट्री) का ध्यान रखा गया होगा. उसके बाद ही निर्माण कार्य का प्रारंभ किया होगा. 

इजिप्त और मेक्सिको के स्टेप पिरामिड जैसे ही ये मंदिर भी सीढ़ियों से ऊपर उठाते बनाएं गए हैं. इन मंदिरों के निर्माण कार्य पर पूर्णतः चोल और गुप्त कालीन स्थापत्य शास्त्र का प्रभाव स्पष्ट दिखता हैं. विशेष रूप से रामायण कालीन प्रसंग जिस नजाकत से दिखाएं गए हैं, उनको देखकर मन आश्चर्य से दंग रह जाता हैं.    

दुर्भाग्य से, जिस देश के राष्ट्रध्वज में विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर हैं, उस देश से भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक संबंध किस प्रकार के हैं...? बिलकुल न के बराबर. कंबोडिया का यह अंगकोर वाट मंदिर देखने के लिए विश्व के हर कोने से पर्यटक आते हैं. किन्तु उनमे भारतीय पर्यटकोंकी संख्या बहुत कम होती हैं. हमारे शाला में पढ़ने वाले विद्यार्थी को फ्रांस, जर्मनी, इटली, इंग्लंड आदि देशों के राजधानियों की जानकारी तो होती हैं, अमेरिका के विभिन्न राज्यों की राजधानियां भी उसे मालूम होती हैं. लेकिन कंबोडिया की राजधानी, सौ में से नब्बे विद्यार्थियों के जानकारी में नहीं होती |

मूलभूत प्रश्न यह हैं की भारतीय (या उस समय के अनुसार हिन्दू) स्थापत्यशास्त्र का यह कमाल, जो भारत के बाहर दिखाई देता हैं, वह कितना पुराना हैं ? स्थापत्यशास्त्र में हम भारतीय कितने समय से प्रगत थे...? भारत के अनेक मंदिर, विदेशी, खास कर मुस्लिम आक्रांताओं ने नष्ट किए. इस कारण दो – तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थापत्य कला के नमूने, आज मिलना और दिखना दुर्लभ हैं. लेकिन उस कला के अंश कही न कही आगे की पीढ़ी में आएं हैं. इसलिए हजार – डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के निर्मित मंदिरों में भी वही स्थापत्य कला के अद्भुत चमत्कार दिखाई देते हैं. 

दक्षिण भारत का विजय नगर साम्राज्य, पंधरवी और सोलावी शताब्दी में एक मजबूत और शक्तिशाली साम्राज्य था. कर्नाटक में स्थित ‘हम्पी’ यह इसकी राजधानी थी. इस साम्राज्य को तीन मुस्लिम पातशाहियों ने मिलकर परास्त किया. उस के बाद, तीनों ने मिलकर इस समृध्द हिन्दू साम्राज्य को जी भर के लूटा. अनेक मंदिरों को तोड़ा – फोड़ा और नष्ट किया. लेकिन आज भी जो खंडहर बचे हैं, उनसे उस समय की स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने, उस समय की अति प्रगत स्थापत्य कला, हमे देखने मिलती हैं. हम्पी के एक मंदिर के प्रत्येक खंबे से संगीत के सा रे ग म प . . . ऐसे अलग अलग सप्तसूर निकलते हैं. यह कैसे किया होगा, इसकी जानकारी कही भी नहीं मिलती हैं. अगर कही लिखकर भी रखा होगा, तो वह सब साहित्य आक्रांताओं ने नष्ट किया होगा. अंग्रेजों ने इस स्थापत्य के चमत्कार का रहस्य ढूँढने के लिए उस संगीतमय सुरों के एक खंबे को काटा अर्थात उसका ‘क्रॉस सेक्शन’ लिया. लेकिन वह खंबा अंदर से पूरा ठोस निकला. अब ऐसे ठोस, एक जैसे दिखने वाले खंबों से अलग अलग सूर कैसे निकलते होंगे...? अंग्रेज़ भी आश्चर्यचकित हो गए. पूरे विश्व में, भारत को छोड़, अन्यत्र कही भी इस प्रकार की स्थापत्य कला देखने नहीं मिलती हैं. 

मंदिरों की स्थापत्य कला और उसमे समाविष्टित विज्ञान के विषय में अनेक लेखकों ने लिखा हैं. मराठी में इस विषय के विशेषज्ञ, डॉ गो. बं. देगलूरकर ने चार पुस्तके लिखी हैं, जो लोकप्रिय हैं. पुणे के मोरेश्वर कुंटे और उनकी पत्नी श्रीमति विजया कुंटे ने स्कूटर पर महाराष्ट्र का भ्रमण करते हुए पूरे महाराष्ट्र के अनेक उपेक्षित मंदिरों की ‘स्थापत्य कला और वैज्ञानिक अधिष्ठान’ इस विषय पर शोध कार्य किया हैं |

ग्रीनविच यह पृथ्वी की मध्य रेखा हैं, ऐसा अंग्रेजों ने तय करने के अनेक वर्ष पूर्व भारतीयों ने पृथ्वी की देशांतर रेखाएं, अर्थात अक्षांश / रेखांश और मध्य रेखा की व्यवस्थित कल्पना की थी. यह मध्य रेखा, प्राचीन वत्सगुल्म (अर्थात आज का वाशिम, महाराष्ट्र) के मध्येश्वर मंदिर में स्थित भगवान शंकर के पिंडी से निकलते हुए आगे जाती हैं. यही रेखा उज्जैन के पास से निकलती हैं. प्राचीन खगोलशास्त्र में उज्जैन का बड़ा महत्व हैं. इसीलिए उज्जैन में वेधशाला का भी निर्माण किया गया हैं. कोल्हापुर में, अंबामाता देवी के मंदिर में, वर्ष के एक विशिष्ट दिवस के अवसर पर, सूर्य की किरने, सीधे मूर्ति के चेहरे पर पड़ती हैं. भारतीय स्थापत्य कला के पूर्णता का, या प्रवीणता का यह अनुपम उदाहरण हैं. 

उस समय, स्थापत्य कला में हम कितने प्रगत थे, इसकी कल्पना हम आज भी नहीं कर सकते. जिस समय कंबोडिया में विश्व के सबसे बड़े प्रार्थना स्थल, ‘अंगकोर वाट’ का निर्माण हो रहा था, उसी समय, चीन की राजधानी बीजिंग की नगर रचना (town planning) एक हिन्दू स्थापत्य शास्त्री कर रहा था. उसका नाम था – बलबाहु. आज के नेपाल के पाटन शहर का रहनेवाला. पाटन, तेरहवी शताब्दी में कांस्य और अन्य धातुओं की मूर्तियों के लिए प्रसिध्द था. इस शहर के कारागिरों की तैयार की हुई बुध्द की तथा अन्य हिन्दू देव – देवताओं की मूर्तियाँ तिब्बत और चीन में सबसे ज्यादा बिकती थी. तेरहवी शताब्दी के मध्य मे, चीनी राजा के आमंत्रण पर, पाटन से ८० कुशल कारीगर चीन में गए. उनका नेतृत्व कर रहा था, मात्र १७ वर्ष का बलबाहु. 

आगे चलकर, चीन में बलबाहु का आरेखन और निर्माण कौशल देखकर चीन के राजा ने उसे बीजिंग शहर के नगर रचना का काम दिया. बलबाहु ने वह सफलता पूर्वक पूरा किया. चीनी संस्कृति की प्रतीक कही जाने वाली, ढलान वाले, एक के नीचे एक छतों की परंपरा बलबाहु ने ही प्रारंभ की थी. चीन में उच्चारण के अपभ्रंश के कारण, बलबाहु को ‘आर्निकों’ नाम से जाना जाता हैं. चीन की सरकार ने, १ मई, २००२ मे, बलबाहु (आर्निको) के नगर रचना के योगदान के लिए, सम्मान स्वरूप, उसकी आदम क़द प्रतिमा, बीजिंग में स्थापित की हैं | एक समय, पूरे विश्व में स्थापत्य कला में पारंगत और विशेषज्ञ माने जाने वाले हम लोग, आज पाश्चात्य स्थापत्य कला की अंधी नकल कर रहे हैं.... इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा ?                - प्रशांत पोळ


कपालभाती प्राणायाम




कपालभाती यह केवल एक प्राणायाम ही नही, बल्कि एक शुद्धी क्रिया भी है, डॉ घोसालकर MBBS ने कपालभाती के विषय में अच्छी जानकारी दी है ! कपालभाती को बीमारी दूर करनेवाले प्राणायाम के रूप में देखा जाता है। मैने ऐसे पेशंट्स को देखा है जो बिना बैसाखी के चल नही पाते थे लेकिन नियमित कपालभाती करने के बाद उनकी बैसाखी छूट गई और वे ना सिर्फ चलने, बल्कि दौड़ने भी लगे.....!

कपालभाती करने वाला साधक आत्मनिर्भर और स्वयंपूर्ण हो जाता है, कपालभाती से हार्ट के ब्लॉकेजेस् पहले ही दिन से खुलने लगते हैं और 15 दिन में बिना किसी दवाई के वे पूरी तरह खुल जाते है !कपालभाती करने वालों के हृदय की कार्यक्षमता बढ़ती है, जबकि हृदय की कार्यक्षमता बढ़ाने वाली कोई भी दवा उपलब्ध नही है !कपालभाती करने वालों का हृदय कभी भी अचानक काम करना बंद नही करता, जबकि आजकल बड़ी संख्या में लोग अचानक हृदय बंद होने से मर जाते हैं !

कपालभाती करने से  शरीरांतर्गत और शरीर के ऊपर की किसी भी तरह की गाँठ गल जाती है, क्योंकि कपालभाती से शरीर में जबर्दस्त उर्जा निर्माण होती है जो गाँठ को गला देती है, फिर वह गाँठ चाहे ब्रेस्ट की हो अथवा अन्य कही की। ब्रेन ट्यूमर हो अथवा ओव्हरी की सिस्ट हो या यूटेरस के अंदर फाइब्रॉईड हो, क्योंकि सबके नाम भले ही अलग हो लेकिन गाँठ बनने की प्रक्रिया एक ही होती है  !_


कपालभाती से बढा हुआ कोलेस्टेरोल कम होता है। खास बात यह है कि मैं कपालभाती शुरू करने के प्रथम दिन से ही मरीज की कोलेस्टेरॉल की गोली बंद करवाता हूँ !कपालभाती से बढा हुआ इएसआर, युरिक एसिड, एसजीओ, एसजीपीटी, क्रिएटिनाईन, टीएसएच, हार्मोन्स, प्रोलेक्टीन आदि सामान्य स्तर पर आ जाते है ! कपालभाती करने से हिमोग्लोबिन एक महीने में 12 तक पहुँच जाता है, जबकि हिमोग्लोबिन की एलोपॅथीक गोलियाँ खाकर कभी भी किसी का हिमोग्लोबिन इतना बढ़ नही पाता है। कपालभाती से हीमोग्लोबिन एक वर्ष में 16 से 18 तक हो जाता है। महिलाओं में हिमोग्लोबिन 16 और पुरुषों में 18 होना उत्तम माना जाता है ! कपालभाती से महिलाओं के मासिक धर्म की सभी शिकायतें एक महीने में सामान्य हो जाती है  ! कपालभाती से थायरॉईड की बीमारी एक महीने में ठीक हो जाती है, इसकी गोलियाँ भी पहले दिन से बंद की जा सकती है !

इतना ही नही बल्कि कपालभाती करने वाला साधक 5 मिनिट में मन के परे पहुँच जाता है। गुड़ हार्मोन्स का सीक्रेशन होने लगता है। स्ट्रेस हार्मोन्स गायब हो जाते है, मानसिक व शारीरिक थकान नष्ट हो जाती है। इससे मन की एकाग्रता भी आती है  !

कपालभाति के कई विशेष लाभ भी हैं ।

कपालभाती से खून में प्लेटलेट्स बढ़ते हैं। व्हाइट ब्लड सेल्स या रेड ब्लड सेल्स यदि कम या अधिक हुए हो तो वे निर्धारित मात्रा में आकर संतुलित हो जाते हैं। कपालभाती से सभी कुछ संतुलित हो जाता है, ना तो कोई अंडरवेट रहता है, ना ही कोई ओव्हरवेट रहता है। अंडरवेट या ओव्हरवेट होना दोनों ही बीमारियाँ है !_

कपालभाती से कोलायटीस, अल्सरीटिव्ह कोलायटीस, अपच, मंदाग्नी, संग्रहणी, जीर्ण संग्रहणी, आँव जैसी बीमारियाँ ठीक होती है। काँस्टीपेशन, गैसेस, एसिडिटी भी ठीक हो जाती है। पेट की समस्त बीमारियाँ ठीक हो जाती है !

कपालभाती से सफेद दाग, सोरायसिस, एक्झिमा, ल्युकोडर्मा, स्कियोडर्मा जैसे त्वचारोग ठीक होते हैं। स्कियोडर्मा पर कोई दवाई उपलब्ध नही है लेकिन यह कपालभाती से ठीक हो जाता है। अधिकतर त्वचा रोग पेट की खराबी से होते है, जैसे जैसे पेट ठीक होता है ये रोग भी ठीक होने लगते हैं !

कपालभाती से छोटी आँत को शक्ति प्राप्त होती है जिससे पाचन क्रिया सुधर जाती है। पाचन ठीक होने से शरीर को कैल्शियम, मैग्नेशियम, फॉस्फरस, प्रोटीन्स इत्यादि उपलब्ध होने से कुशन्स, लिगैमेंट्स, हड्डियाँ ठीक होने लगती हैं और 3 से 9 महिनों में अर्थ्राइटीस, एस्ट्रो अर्थ्राइटीस, एस्ट्रो पोरोसिस जैसे हड्डियों के रोग हमेशा के लिए ठीक हो जाते हैं !

ध्यान रखिये की कैल्शियम, प्रोटीन्स, हिमोग्लोबिन, व्हिटैमिन्स आदि को शरीर बिना पचाए बाहर निकाल देता है क्योंकि केमिकल्स से बनाई हुई इस प्रकार की औषधियों को शरीर द्वारा सोखे जाने की प्रक्रिया हमारे शरीर के प्रकृति में ही नही है !

हमारे शरीर में रोज 10 % बोनमास चेंज होता रहता है, यह प्रक्रिया जन्म से मृत्यु तक निरंतर चलती रहती है अगर किसी कारणवश यह बंद हुई, तो हड्डियों के विकार हो जाते हैं.... कपालभाती इस प्रक्रिया को निरंतर चालू रखती है इसीलिए कपालभाती नियमित रूप से करना आवश्यक है !_

सोचिए, यह सिर्फ एक क्रिया कितनी लाभकारी है इसीलिए नियमित रूप से कपालभाति करना एक उत्तम व्यायाम प्रक्रिया है !!*


मन एक सुंदर शब्द है. मन के आगे न लगाओ तो नमन हो जाता है और यदि मन के पीछे न लगाओ तो मनन हो जाता है. ठीक इसी प्रकार यदि आप जीवन में नमन और मनन करते रहेंगे तो जीवन की सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जायेगी |


मुसीबत का सामना



एक गाँव में एक बढ़ई रहता था। वह शरीर और दिमाग से बहुत मजबूत था।एक दिन उसे पास के गाँव के एक अमीर आदमी ने फर्नीचर बनबाने के लिए अपने घर पर बुलाया।जब वहाँ का काम खत्म हुआ तो लौटते वक्त शाम हो गई तो उसने काम के मिले पैसों की एक पोटली बगल मे दबा ली और ठंड से बचने के लिए कंबल ओढ़ लिया। वह चुपचाप सुनसान रास्ते से घर की और रवाना हुआ। कुछ दूर जाने के बाद अचानक उसे एक लुटेरे ने रोक लिया।डाकू शरीर से तो बढ़ई से कमजोर ही था पर उसकी कमजोरी को उसकी बंदूक ने ढक रखा था। अब बढ़ई ने उसे सामने देखा तो लुटेरा बोला, 'जो कुछ भी तुम्हारे पास है सभी मुझे दे दो नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूँगा।' यह सुनकर बढ़ई ने पोटली उस लुटेरे को थमा दी और बोला, ' ठीक है यह रुपये तुम रख लो मगर मैं घर पहुँच कर अपनी बीवी को क्या कहुंगा। वो तो यही समझेगी कि मैने पैसे जुए में उड़ा दिए होंगे।तुम एक काम करो, अपने बंदूक की गोली से मेरी टोपी मे एक छेद कर दो ताकि मेरी बीवी को लूट का यकीन हो जाए।' लुटेरे ने बड़ी शान से बंदूक से गोली चलाकर टोपी में छेद कर दिया। अब लुटेरा जाने लगा तो बढ़ई बोला, 'एक काम और कर दो, जिससे बीवी को यकीन हो जाए कि लुटेरों के गैंग ने मिलकर मुझे लूटा है । वरना मेरी बीवी मुझे कायर ही समझेगी। तुम इस कंबल मे भी चार- पाँच छेद कर दो।' लुटेरे ने खुशी खुशी कंबल में भी कई गोलियाँ चलाकर छेद कर दिए।इसके बाद बढ़ई ने अपना कोट भी निकाल दिया और बोला, 'इसमें भी एक दो छेद कर दो ताकि सभी गॉंव वालों को यकीन हो जाए कि मैंने बहुत संघर्ष किया था।'

इस पर लुटेरा बोला, 'बस कर अब। इस बंदूक में गोलियां भी खत्म हो गई हैं।' यह सुनते ही बढ़ई आगे बढ़ा और लुटेरे को दबोच लिया और बोला, 'मैं भी तो यही चाहता था। तुम्हारी ताकत सिर्फ ये बंदूक थी। अब ये भी खाली है। अब तुम्हारा कोई जोर मुझ पर नहीं चल सकता है। 

चुपचाप मेरी पोटली मुझे वापस दे दे वरना .....यह सुनते ही लुटेरे की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और उसने तुरंत ही पोटली बढई को वापिस दे दी और अपनी जान बचाकर वहाँ से भागा। आज बढ़ई की ताकत तब काम आई जब उसने अपनी अक्ल का सही ढंग से इस्तेमाल किया।इसलिए कहते है कि मुश्किल हालात मे अपनी अक्ल का ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए तभी आप मुसीबतों से आसानी से निकल सकते हैं।



पंचमुखी हनुमान की पौराणिक कथा



जब राम और रावण की सेना के मध्य भयंकर युद्ध चल रहा था और रावण अपने पराजय के समीप था तब इस समस्या से उबरने के लिए उसने अपने मायावी भाई अहिरावन को याद किया जो मां भवानी का परम भक्त होने के साथ साथ तंत्र मंत्र का का बड़ा ज्ञाता था। उसने अपने माया के दम पर भगवान राम की सारी सेना को निद्रा में डाल दिया तथा राम एव लक्ष्मण का अपहरण कर उनकी बलि देने उन्हें पाताल लोक ले गया।  

कुछ घंटे बाद जब माया का प्रभाव कम हुआ तब विभिषण ने यह पहचान लिया कि यह कार्य अहिरावन का है और उसने हनुमानजी को श्री राम और लक्ष्मण की सहायता करने के लिए पाताल लोक जाने को कहा। पाताल लोक के द्वार पर उन्हें उनका पुत्र मकरध्वज मिला और युद्ध में उसे हराने के बाद बंधक श्री राम और लक्ष्मण से मिले। 

वहां उन्हें पांच दीपक  पांच जगह पर पांच दिशाओं में मिले जिसे अहिरावण ने मां भवानी के लिए जलाए थे। इन पांचों दीपक को एक साथ बुझाने पर अहिरावन का वध हो जाएगा इसी कारण हनुमान जी ने पंचमुखी रूप धरा।

उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की तरफ हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख।  इस रूप को धरकर उन्होंने वे पांचों दीप बुझाए तथा अहिरावण का वध कर राम,लक्ष्मण को उस से मुक्त किया। 



     

         

  निष्ठा पूर्वक कर्म



कौशिक नामक एक ब्राह्मण बड़ा तपस्वी था। तप के प्रभाव से उसमें बहुत आत्म बल आ गया था। एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था कि ऊपर बैठी हुई चिड़िया ने उस पर बीट कर दी। कौशिक को क्रोध आ गया। लाल नेत्र करके ऊपर को देखा तो तेज के प्रभाव से चिड़िया जल कर नीचे गिर पड़ी।

        

ब्राह्मण को अपने बल पर गर्व हो गया। दूसरे दिन वह एक सद्गृहस्थ के यहाँ भिक्षा माँगने गया। गृहस्वामिनी पति को भोजन परोसने में लगी थी। उसने कहा, “भगवन् ! थोड़ी देर ठहरो अभी आपको भिक्षा दूँगी।” इस पर ब्राह्मण को क्रोध आया कि मुझ जैसे तपस्वी की उपेक्षा करके यह पति-सेवा को अधिक महत्व दे रही है।

गृहस्वामिनी ने दिव्य दृष्टि से सब बात जान ली। उसने ब्राह्मण से कहा, “क्रोध न कीजिए मैं चिड़िया नहीं हूँ। अपना नियत कर्तव्य पूरा करने पर आपकी सेवा करूँगी।” ब्राह्मण क्रोध करना तो भूल गया, उसे यह आश्चर्य हुआ कि चिड़िया वाली बात इसे कैसे मालूम हुई ?

ब्राह्मणी ने इसे पति सेवा का फल बताया और कहा कि इस संबंध में अधिक जानना हो तो मिथिलापुरी में तुलाधार वैश्य के पास जाइए। वे आपको अधिक बता सकेंगे। भिक्षा लेकर कौशिक चल दिया और मिथिलापुरी में तुलाधार के घर जा पहुँचा।

          

वह तौल-नाप के व्यापार में लगा हुआ था। उसने ब्राह्मण को देखते ही प्रणाम अभिवादन किया और कहा, “तपोधन कौशिक देव ! आपको उस सद्गृहस्थ गृहस्वामिनी ने भेजा है सो ठीक है। अपना नियत कर्म कर लूँ तब आपकी सेवा करूँगा। कृपया थोड़ी देर बैठिये।“ ब्राह्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे बिना बताये ही इसने मेरा नाम तथा आने का उद्देश्य कैसे जाना ?

 थोड़ी देर में जब वैश्य अपने कार्य से निवृत्त हुआ तो उसने बताया कि मैं ईमानदारी के साथ उचित मुनाफा लेकर अच्छी चीजें लोक-हित की दृष्टि से बेचता हूँ। इस नियत कर्म को करने से ही मुझे यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है। अधिक जानना हो तो मगध के निजाता चाण्डाल के पास जाइये। कौशिक मगध चल दिये और चाण्डाल के यहाँ पहुँचे।

          

वह नगर की गंदगी झाड़ने में लगा हुआ था। ब्राह्मण को देखकर उसने साष्टाँग प्रणाम किया और कहा, “भगवन् ! आप चिड़िया मारने जितना तप करके उस सद्गृहस्थ देवी और तुलाधार वैश्य के यहाँ होते हुये यहाँ पधारे यह मेरा सौभाग्य है। मैं नियत कर्म कर लूँ, तब आपसे बात करूँगा। तब तक आप विश्राम कीजिये।”

          चाण्डाल जब सेवा-वृत्ति से निवृत्त हुआ तो उन्हें संग ले गया और अपने वृद्ध माता पिता को दिखाकर कहा, “अब मुझे इनकी सेवा करनी है। मैं नियत कर्त्तव्य कर्मों में निरन्तर लगा रहता हूँ इसी से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त है।”

          तब कौशिक की समझ में आया कि केवल तप साधना से ही नहीं, नियत कर्त्तव्य  कर्म, निष्ठापूर्वक करते रहने से भी ‘आध्यात्मिकता का लक्ष्य’ पूरा हो सकता है और सिद्धियाँ मिल सकती हैं।



भगवान कहते हैं कि तूने मुझ पर विश्वास ही नहीं किया. मैं तो तुझे बार बार मिलता रहा और जगाता रहा. तू जानता तो है कि मैं सर्वत्र हूँ पर मानता बिलकुल नहीं. मैं अब भी तेरे पास हूँ. बस जरूरत है तो नि:स्वार्थ प्रेम और अटल विश्वास की. तेरे ह्रदय की धड़कन भी मैं हूँ. तेरी चलती हुई श्वासों में भी मैं हूँ. तू जो भी देखता है, वह भी मैं ही हूँ. तू जो भी सुनता है, वह भी मैं ही हूँ. बस एक तू है और बस एक मैं, दूसरा अन्य कोई नहीं है. आ मुझ पर विश्वास करके तो देख. तुझे बस एक मैं ही मैं दिखूंगा और कुछ भी नहीं

गलतियां, विफलता, अपमान, निराशा और अस्वीकृत ये सभी उन्नति और विकास का एक हिस्सा है. कोई भी व्यक्ति इन अनुभवों से गुजरे बिना जीवन में सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं कर सकता

 

गृहस्थ बड़ा या सन्यासी

      

प्राचीन समय की बात है । किसी नगर में एक विचित्र राजा रहता था । उस राजा की एक बड़ी ही अजीब आदत थी । जब भी नगर में कोई साधू या सन्यासी आता था तो वह उसे बुलाकर पूछता था कि – “ गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”

जो भी बताता कि गृहस्थ बड़ा है। वह राजा उससे कहता था कि – “ तो फिर आप सन्यासी क्यों बने ? चलिए गृहस्थ बनिए !” इस तरह वह उस सन्यासी को भी गृहस्थ बनने का आदेश देता था ।जो बताता कि सन्यासी बड़ा है । वह उससे प्रमाण मांगता था । जो यदि वह प्रमाण न दे सके तो वह उसे भी गृहस्थ बना देता था । इस तरह कई संत आये और उन्हें सन्यासी से गृहस्थ बनना पड़ा ।इसी बीच एक दिन नगर में एक महात्मा का आगमन हुआ । उसे भी राजा ने बुलाया और अपना वही पुराना प्रश्न पूछा – “ गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”

महात्मा बोले – “ राजन ! न तो गृहस्थ बड़ा है, न ही सन्यासी, जो अपने धर्म का पालन करें । वही बड़ा है ।”

राजा बोला – “ अच्छी बात है । क्या आप अपने कथन को सत्य सिद्ध कर सकते है ?”

महात्मा ने कहा – “ अवश्य ! इसके लिए आपको मेरे साथ चलना होगा ।” राजा महात्मा के साथ चलने के लिए तैयार हो गया।

दुसरे ही दिन दोनों घूमते – घूमते दुसरे राज्य निकल गये । उस राज्य में राजकन्या का स्वयंवर हो रहा था । 

दूर – दूर के राजा – राजकुमार आये हुए थे । बड़े ही विशाल उत्सव का आयोजन किया हुआ था । राजा और महात्मा दोनों उस उत्सव में शामिल हो गये ।

स्वयंवर का शुभारम्भ हुआ । राजकन्या राजदरबार में उपस्थित हुई । वह बड़ी ही रूपवती और सुन्दर थी । सभी राजा और राजकुमार स्तब्ध होकर उसे देख रहे थे और मन ही मन उसे पाने की कामना कर रहे थे ।

राजकन्या के पिता का कोई वारिस नहीं था । इसलिए महाराज राजकन्या द्वारा स्वयंवरित राजकुमार को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने वाला था ।

राजकुमारी अपनी सखियों के साथ राजाओं के बीच घुमने लगी। वहाँ उपस्थित सभी राजाओं को देखने के पश्चात भी उसे कोई पसंद नहीं आया । 

राजा निराश होने लगे । राजकुमारी के पिता भी सोचने लगे कि स्वयंवर व्यर्थ ही जायेगा, क्योंकि राजकुमारी को तो कोई वर पसंद ही नहीं आया ।

तभी वहाँ एक तेजस्वी सन्यासी का आगमन हुआ । सूर्य के समान उसका चेहरा कांति से चमक रहा था । तभी राजकुमारी की दृष्टि उस युवा सन्यासी पर पड़ी । देखते ही राजकुमारी ने अपनी वरमाला उसके गले में पहना दी ।

अचानक हुए इस स्वागत से वह युवा सन्यासी अचंभित हो गया । उसने तुरंत वस्तुस्थिति को समझा और तत्क्षण उस माला को अपने गले से निकालते हुए कहा – “ हे देवी ! क्या तुझे दीखता नहीं ! मैं एक सन्यासी हूँ । मुझसे विवाह के बारे में सोचना तेरी भूल है ।”

तभी राजा ने सोचा – “ लगता है यह कोई भिखारी है जो विवाह करने से डर रहा है ।” उन्होंने अपनी घोषणा दुबारा दोहराई – “ हे युवक ! क्या तुम्हें पता भी है । मेरी पुत्री से विवाह करने के बाद तुम इस सम्पूर्ण राज्य के मालिक हो जाओगे । क्या फिर भी तुम मेरी पुत्री का परित्याग करोगे ?”

सन्यासी बोला – “ राजन ! मैं सन्यासी हूँ और विवाह करना मेरा धर्म नहीं है । आप अपनी पुत्री के लिए कोई अन्य वर देखिये ।” इतना कहकर वह वहाँ से चल दिया । 

किन्तु वह युवक राजकुमारी के मन में बस चूका था । उसने भी प्रतिज्ञा की कि “ मैं विवाह करूंगी तो उसी से अन्यथा अपने प्राण त्याग दूंगी ।” इतना कहकर वह भी उसके पीछे – पीछे चली गई ।

वह राजा और महात्मा जो यह वृतांत देख रहे थे । उनमें से महात्मा ने कहा – “ चलो ! हम भी उनके पीछे चलकर देखते है, क्या परिणाम होता है ?” वह दोनों भी राजकुमारी के पीछे – पीछे चलने लगे ।चलते चलते वह एक घने जंगल में पहुँच गये । तभी वह युवा सन्यासी तो कहीं अदृश्य हो गया और राजकुमारी अकेली रह गई । घने जंगल में किसी को न देख राजकुमारी व्याकुल हो उठी । तभी यह राजा और महात्मा उसके पास पहुँच गये और उन्होंने राजकुमारी को समझाया । यह दोनों उसे उसके पिता के पास छोड़ने के लिए ले जाने लगे ।

वह जंगल से बाहर निकले ही थे कि अँधेरा हो गया । सर्दी की काली अंधियारी रात थी । भटकते – भटकते यह तीनो एक गाँव में पहुंचे । 

यह गाँव के चौपाल पर जाकर बैठ गये । बहुत सारे लोग वहाँ से गुजरे लेकिन किसी ने इन ठण्ड से ठिठुरते मुसाफिरों का हाल तक नहीं पूछा ।

तभी वहाँ से एक गाड़ीवान गुजरा। वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खेत से घर आ रहा था । उसने देखा कि वह तीनों ठण्ड से ठिठुर रहे है । वह उनके पास गया और पूछताछ कि तो महात्मा ने भटके हुए मुसाफ़िर बता दिया ।

किसान बोला – “ हे अतिथिदेव ! अगर आप चाहे तो आज रात मेरे घर ठहर सकते है ।” वह उनको घर ले गया । भोजन की पूछी और भोजन करवाया । 

उस दिन उनके घर में ज्यादा अनाज नहीं था । अतः किसान और उसकी पत्नी ने अपने हिस्से का भोजन अतिथियों को करवा दिया और स्वयं भूखे ही सो गये ।

सुबह हुई । राजकन्या को उसके पिता के पास छोड़कर राजा और सन्यासी दोनों वापस अपने नगर को चल दिए ।

महात्मा ने राजा से कहा – “ देखा राजा ! राजकन्या और राज्य को छोड़ने वाला वह सन्यासी अपनी जगह बड़ा है और हमारे अतिथि सत्कार के लिए स्वयं भूखा सोने वाला वह गृहस्थ किसान अपनी जगह बड़ा है । एक तरफ सन्यासी ने राज, वैभव और रमणी का तनिक भी मोह न करके अपने धर्म का पालन किया है, इसलिए वह निश्चय ही महान है। दूसरी तरफ उस दंपति ने अपना व्यक्तिगत स्वार्थ न देखकर अतिथिसेवा को प्रधानता दी, इसलिए वह दोनों भी निश्चय ही महान है ।”

“ किसी भी देश, काल और परिस्थिति में अपने धर्म – कर्तव्य का पालन करने वाला मनुष्य ही बड़ा होता है । फिर चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी, कोई फर्क नहीं पड़ता ।”इस तरह महात्मा ने अपनी बात को सत्य सिद्ध किया ।




 

सियासत और सैनिक 



शहीदों  को शत शत नमन   


मौत होती सैनिकों  की,

दुश्मनों की गोली से एकबार ,

वीभत्स मौत तो होती है 

नेताओं की बोली से बार बार, 


बैठ सुरक्षा  घेरे में 

सैनिको पर ऊँगली उठाते हो ,

सियासत शहीदों पर कर के 

खुद को देश भक्त बताते हो, 

सीमा पर जंग करने की 
हिम्मत हो तो आओ एक बार ,
दिल दिमाग फट जायेगा ,
सुन कर मौत की चीख पुकार ,
सियासत तेरी चमकती रहे 
पैदा करते हो पत्थर मार ,

शहीदी तोहफ़े त्योहारों पर 

हम कफ़न ओढ़ घर लाते है ,

आँसू वाले खारे शरबत  

घरवाले पी जाते है ,


हर पल ऐश से जीने को 

तुम घर से रोज़ निकलते हो ,

ठंडी हवा के झोंकों में 

सुकून की साँसे लेते हो, 

जब चाहे जहाँ चाहे 

तुम करते लीला मंगल ,

चौबीसों घंटे मौत से हम 

जंगल में करते दंगल ,

चैन से तुम घर सो सको 

हम ख़ुशी से मर के जीते है ,

तेरी नमक हराम बातों से 
गहरे ज़ख्मो को सीते हैं ,

मेरे माँ बाप पत्नी और बच्चे 

करते रहते हैं  इंतज़ार ,

मिलने का वादा उनसे 

टूट जाता है बार बार  ,

कैसे कहूँ सुनील, 

शहीद हुए हम बॉर्डर पर 

लाशें ग़ुम  हुई  कितनी बार ,
शहीद की फोटो खबरें बन कर   
बिकते घर घर गली बाज़ार ,

घाव खून बदन के टुकड़े  

आते टी वी के खबरों में,

बहुत ज़्यादा ढूढ़ मची तो 

मिल जाते  है हम कब्रों में,

गया था  ज़िंदा घर से  मैं 
वापस आया बन कर अखबार ,
रह गई मन में एक कसक
काश मिलता सब से एक बार ,
नेताओं की नीच सियासत से 
श्मशान बना मेरा घर द्वार ,
हवन सामग्री बन हम जलते हैं 
नेताओं का होता रहा  उद्धार। .......   

sunil Agrahari 


परमात्मा से मिलन 



एक 6 साल का छोटा सा बच्चा अक्सर परमात्मा से मिलने की जिद किया करता था। उसकी चाहत थी की एक समय की रोटी वो परमात्मा के साथ खाये।1 दिन उसने 1 थैले में 5, 6 रोटियां रखीं और परमात्मा को ढूंढने निकल पड़ा।

चलते चलते वो बहुत दूर निकल आया संध्या का समय हो गया।

उसने देखा नदी के तट पर 1 बुजुर्ग बूढ़ा बैठा हैं, और ऐसा लग रहा था जैसे उसी के इन्तजार में वहां बैठा उसका रास्ता देख रहा हों।

वो 6 साल का मासूम बालक,बुजुर्ग बूढ़े के पास जा कर बैठ गया,।अपने थैले में से रोटी निकाली और खाने लग गया।और उसने अपना रोटी वाला हाँथ बूढे की ओर बढ़ाया और मुस्कुरा के देखने लगा,बूढे ने रोटी ले ली,। बूढ़े के झुर्रियों वाले चेहरे पर अजीब सी ख़ुशी आ गई आँखों में ख़ुशी के आंसू भी थे,,,,बच्चा बुढ़े को देखे जा रहा था, जब बुढ़े ने रोटी खा ली बच्चे ने एक और रोटी बूढ़े को दी।बूढ़ा अब बहुत खुश था। बच्चा भी बहुत खुश था। दोनों ने आपस में बहुत प्यार और स्नेह केे पल बिताये।

जब रात घिरने लगी तो बच्चा इजाज़त ले घर की ओर चलने लगा।

वो बार बार पीछे मुड़ कर देखता , तो पाता बुजुर्ग बूढ़ा उसी की ओर देख रहा था।

बच्चा घर पहुंचा तो माँ ने अपने बेटे को आया देख जोर से गले से लगा लिया और चूमने लगी,बच्चा बहूत खुश था। 

माँ ने अपने बच्चे को इतना खुश पहली बार देखा तो ख़ुशी का कारण पूछा, तो बच्चे ने बताया !

माँ,....आज मैंने परमात्मा के सांथ बैठ कर रोटी खाई,आपको पता है उन्होंने भी मेरी रोटी खाई,,,माँ परमात्मा् बहुत बूढ़े हो गये हैं,,,मैं आज बहुत खुश हूँ माँ

उस तरफ बुजुर्ग बूढ़ा भी जब अपने गाँव पहूँचा तो गाव वालों ने देखा बूढ़ा बहुत खुश हैं,तो किसी ने उनके इतने खुश होने का कारण पूछा????

बूढ़ा बोलां,,,,मैं 2 दिन से नदी के तट पर अकेला भूखा बैठा था,,मुझे पता था परमात्मा आएंगे और मुझे खाना खिलाएंगे।

आज भगवान् आए थे, उन्होंने मेरे साथ बैठ कर रोटी खाई मुझे भी बहुत प्यार से खिलाई,बहुत प्यार से मेरी और देखते थे, जाते समय मुझे गले भी लगाया,,परमात्मा बहुत ही मासूम हैं बच्चे की तरह दिखते हैं।

 इस कहानी का अर्थ बहुत गहराई वाला है। असल में बात सिर्फ इतनी है की दोनों के दिलों में परमात्मा के लिए प्यार बहुत सच्चा है। और परमात्मा ने दोनों को,दोनों के लिये, दोनों में ही (परमात्मा) खुद को भेज दिया। जब मन परमात्मा भक्ति में रम जाता है तो हमे हर एक में वो ही नजर आने लग जाते है


भद्रा विचार सितम्बर- 2021


भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार - भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि  शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य  में किसी श्रेष्ठ जानकार पंडित जी से विचार कर लेना चाहिए |



दिनांक 

शुरू 

दिनांक 

समाप्त 

01

17-23

02

06-22

05

08-21

05

00-20

10

11-08

10

21-58

13

15-11

14

02-10

16

20-52

17

08-08

20

05-28

20

17-26

23

19-42

24

08-30

27

15-43

28

04-59



ग्रह स्थिति सितम्बर- 2021

ग्रह स्थिति - दिनांक 06 मंगल कन्या में ,शुक्र तुला में,दिनांक 14 गुरु मकर में ,दिनांक 17 सूर्य कन्या में ,दिनांक 22 तुला में बुध  दिनांक 27 वक्री  बुध |






सर्वार्थ सिद्धि योग सितम्बर -2021


दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी  शुभ मुहूर्त का अभाव हो था किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु  को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक  है

दिनांक

प्रारंभ

दिनांक

समाप्त

01

06-03

01

12-34

02

14-56

03

16-41

08

15-55

09

06-07

11

06-08

11

11-22

13

06-09

13

08-23

17

06-11

18

03-35

21

06-13

22

05-06

23

06-13

24

08-53

27

06-16

28

06-16

30

06-17

01

06-18


जन्म कुंडली व हस्त रेखा विशेषज्ञ


 

 जन्म कुंडली बनवाने व दिखाने के लिए संपर्क करें लिखे।

जन्म कुंडली के विषय में जानना चाहते हैं तो कृपया जन्म तिथि,

जन्म समय व जनम स्थान अवश्य लिखें।

शर्मा जी - 9560518227,9312002527

www.jaankaarikaal.com

jankarikai@gmai.com


सुर्य उदय- सुर्य अस्त सितम्बर -2021


दिनांक

उदय 

दिनांक

अस्त 

06-00

1

18-40

5

06-02

5

18-36

10

06-04

10

18-30

15

06-07

15

18-24

20

06-09

20

18-18

25

06-12

25

18-12

30

06-14

30

18-06


राहू काल 

 

 राहुकाल - राहुकाल दक्षिण भारत की देन है, दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है 

 

वार 

शुरू 

समाप्त 

रवि

16-30

18-00

सोम

07-30

09-00 

मंगल

15-00

16-30

बुध

12-00

13-30

गुरु

13-30

15-00

शुक्र

10-30

12-00

शनि

09-00

10-30



चौघड़िया मुहूर्त 


चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है,अगर सूर्य उदय का समय प्रातः है 6:00 बजे माने तो चौघड़िया निम्नलिखित है 

 

समय 

क्रम

रवि 

सोम 

मंगल 

बुध 

गुरु 

शुक्र 

शनि 

06-00,07-30

1

उद्वेग 

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

07-30,09-00

2

चर 

काल

उद्वेग 

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

09-00,10-30

3

लाभ

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग 

अमृत 

रोग 

10-30,12-00

4

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

12-00,13-30

5

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

13-30,15-00

6

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ

15-00,16-30

7

रोग 

लाभ 

शुभ

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

16-30,18-00

8

उद्वेग

अमृत 

रोग

लाभ

शुभ 

चर

काल 

18-00,19-30

1

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

19-30,21-00

2

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ

चर 

काल 

उद्वेग

21-00,22-30

3

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

22-30,24-00

4

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

24-00,01-30

5

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

01-30,03-00

6

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

03-00,04-30

7

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 

शुभ 

चर 

काल 

04-30,06-00

8

शुभ 

चर 

काल 

उद्वेग

अमृत 

रोग 

लाभ 


संसार में कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ नहीं है, सभी लोग अल्पज्ञ हैं।इसलिए सभी लोगों से कहीं न कहीं, छोटी,बड़ी,जाने अनजाने,कुछ न कुछ गलतियां होती ही रहती हैं। 

पंचांग लिखने में गलती होने की सम्भावना बनी रहती है अपनाने से पहले संपर्क करें -  

शर्मा जी - 9560518227


सोमनाथ मंदिर का इतिहास




गुजरात प्रांत के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे सोमनाथ नामक विश्वप्रसिद्ध मंदिर में 12 ज्योतिर्लिंगों से एक स्थापित है। पावन प्रभास क्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कंद पुराणादि में विस्तार से बताई गई है। चन्द्रदेव का एक नाम सोम भी है। उन्होंने भगवान शिव को ही अपना नाथ-स्वामी मानकर यहां तपस्या की थी इसीलिए इसका नाम 'सोमनाथ' हो गया।


कहते हैं कि सोमनाथ के मंदिर में शिवलिंग हवा में स्थित था। यह एक कौतुहल का विषय था। जानकारों के अनुसार यह वास्तुकला का एक नायाब नमूना था। इसका शिवलिंग चुम्बक की शक्ति से हवा में ही स्थि‍त था। कहते हैं कि महमूद गजनबी इसे देखकर हतप्रभ रह गया था।

 सर्वप्रथम इस मंदिर के उल्लेखानुसार ईसा के पूर्व यह अस्तित्व में था। इसी जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण 649 ईस्वी में वैल्लभी के मैत्रिक राजाओं ने किया। पहली बार इस मंदिर को 725 ईस्वी में सिन्ध के मुस्लिम सूबेदार अल जुनैद ने तुड़वा दिया था। फिर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका पुनर्निर्माण करवाया।

 

 इसके बाद महमूद गजनवी ने सन् 1024 में कुछ 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी संपत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। तब मंदिर की रक्षा के लिए निहत्‍थे हजारों लोग मारे गए थे। ये वे लोग थे, जो पूजा कर रहे थे या मंदिर के अंदर दर्शन लाभ ले रहे थे और जो गांव के लोग मंदिर की रक्षा के लिए निहत्थे ही दौड़ पड़े थे।

 

महमूद के मंदिर तोड़ने और लूटने के बाद गुजरात के राजा भीमदेव और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भी मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। 1168 में विजयेश्वर कुमारपाल और सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ मंदिर के सौन्दर्यीकरण में योगदान किया था।

 सन् 1297 में जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नुसरत खां ने गुजरात पर हमला किया तो उसने सोमनाथ मंदिर को दुबारा तोड़ दिया और सारी धन-संपदा लूटकर ले गया। मंदिर को फिर से हिन्दू राजाओं ने बनवाया। लेकिन सन् 1395 में गुजरात के सुल्तान मुजफ्‍फरशाह ने मंदिर को फिर से तुड़वाकर सारा चढ़ावा लूट लिया। इसके बाद 1412 में उसके पुत्र अहमद शाह ने भी यही किया।

बाद में मुस्लिम क्रूर बादशाह औरंगजेब के काल में सोमनाथ मंदिर को दो बार तोड़ा गया- पहली बार 1665 ईस्वी में और दूसरी बार 1706 ईस्वी में। 1665 में मंदिर तुड़वाने के बाद जब औरंगजेब ने देखा कि हिन्दू उस स्थान पर अभी भी पूजा-अर्चना करने आते हैं तो उसने वहां एक सैन्य टुकड़ी भेजकर कत्लेआम करवाया। जब भारत का एक बड़ा हिस्सा मराठों के अधिकार में आ गया तब 1783 में इंदौर की रानी अहिल्याबाई द्वारा मूल मंदिर से कुछ ही दूरी पर पूजा-अर्चना के लिए सोमनाथ महादेव का एक और मंदिर बनवाया गया।


भारत की आजादी के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल ने समुद्र का जल लेकर नए मंदिर के निर्माण का संकल्प लिया। उनके संकल्प के बाद 1950 में मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ। 6 बार टूटने के बाद 7वीं बार इस मंदिर को कैलाश महामेरू प्रासाद शैली में बनाया गया। इसके निर्माण कार्य से सरदार वल्लभभाई पटेल भी जुड़े रह चुके हैं। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने बनवाया और 1ली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।

पितृ पक्ष सितम्बर 

पूर्णिमा का श्राद्ध 20 ,एकम 21 ,द्वितिया  22 ,तृतीया 23 ,चतुर्थी -24 पंचमी 25,षष्टी 27 ,सप्तमी 28 अष्टमी 29 नवमी 30 ।

ग्रह स्थिति सितम्बर- 2021

ग्रह स्थिति - दिनांक 06 मंगल कन्या में ,शुक्र तुला में,दिनांक 14 गुरु मकर में ,दिनांक 17 सूर्य कन्या में ,दिनांक 22 तुला में बुध  दिनांक 27 वक्री  बुध |


पितृ पक्ष

श्राद्ध  का आरंभ भाद्रपद की पूर्णिमा और अश्वनी मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से होता है और अश्वनी मास की अमावस्या तक पित्र पक्ष कहलाता है इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है | पितृ पक्ष 20 सितंबर को शुरू होकर 6 अक्टूबर 2021, बुधवार को आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि पर समाप्त होंगे | इस वर्ष में 26 सितंबर को श्राद्ध की तिथि नहीं है | श्राद्ध और तर्पण करने से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. जिससे जीवन में आने वाली परेशानियों से मुक्ति मिलती है. ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध न करने की स्थिति में आत्मा को पूर्ण रूप से मुक्ति नहीं मिल पाती है, पितृ पक्ष में पूजा और याद करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है |श्राद्ध में पितरों को याद किया जाता है, उनके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है | पितृ पक्ष का हिंदू धर्म में विशेष महत्व बताया गया है | पितृ पक्ष में जो पूर्वज अपनी देह का त्याग कर चले जाते हैं उनकी आत्मा की शांत के लिए तर्पण किया जाता है. इसे श्राद्ध भी कहा जाता है. श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा पूर्वक होता है |पितृ पक्ष में पितरों को याद किया जाता है | पित्र पक्ष में देवताओं को जल देने के पश्चात पितरों का नाम उच्चारण करके उन्हें भी जल देना चाहिए बुजुर्गों की मृत्यु तिथि के दिन श्रद्धा पूर्वक तर्पण और ब्राह्मण को भोजन कराना ही श्राद्ध है | पुरुष का श्राद्ध करने के लिए ब्राह्मण को बुलाया जाता है तथा महिला का श्राद्ध करने के लिए ब्राह्मणी को बुलाया जाता है | भोजन कराने के पश्चात दक्षिणा व वस्त्र अवश्य देने चाहिए | पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण करने से पितृ दोष दूर होता है | जन्म कुंडली में पितृ दोष होने से व्यक्ति को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है | पितृ दोष को अशुभ फल देने वाला दोष माना गया है. जिन लोगों की कुंडली में यह दोष पाया जाता है, उन्हें कार्य में बाधा का सामना पड़ता है. मान सम्मान में भी कभी बनी रहती है. जमा पूंजी नष्ट हो जाती है, रोग आदि भी घेर लेते हैं | कहते हैं कि पितृ पक्ष में यमराज आत्मा को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे अपने परिजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें |



गोश्त




औरतें चीख़ रहीं थीं

बच्चों का रो रोकर

हाल - बेहाल

चारों ओर

खून से सनी जमीं

और

हाहाकार !

अफरा तफरी जान बचाने को

दौड़ते मायूस मर्द और औरतें..!


हथियारबंद लड़ाके 

अपना सिक्का जमा

ठहाके लगा रहे थे बेखौफ

नन्हीं मासूम आंखें

भय और कातरता से भीगी

तलाश रहीं थीं

' इंसान '....

मांएँ 

अब सिर्फ मां नहीं रहीं

हर औरत तब्दील हो चुकी थी

गोश्त में...!!!


भूखा जानवर

नहीं सराहता

हिरण की आकर्षक आंखें

और न ही 

उसके खूबसूरत बदन को

उसके लिए

वो मात्र गोश्त है...!!!





दूर पेड़ों पे

उछलकूद करते

वानरों का झुंड

फिर से मदमस्त है

अपनी रंगरलियों में.....

क्योंकि

बाघ अभी तृप्त हुआ है..!


थोड़ी देर ही सही

ज़िंदा रहने का जश्न

मना लें आज 

सच

ज़िंदा रहने का जश्न

मना लें आज..!!!!


- नोरिन शर्मा -




क्रांतिकारी देशप्रेमी - शहीद भगतसिंह 

"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा"

भगतसिंह का जन्म राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्रिय रहने वाले परिवार में 27 सितंबर 1907 में गांव बंगा, जिला लायलपुर, पंजाब में (अब पाकिस्तान में है) हुआ| वे भारत देश के एक बहुत ही प्रमुख क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे| भारत देश की स्वतंत्रता के लिए जिस तरीके और साहस के साथ ब्रिटिश सरकार का सामना किया, वह आज के व्यक्तियों के लिए एक बहुत बड़े आदर्श हैं| भगतसिंह ने केंद्रीय संसद(सेंट्रल असेंबली)में बम फेंक दिया था और उन्होंने वहाँ से भागने से भी मना कर दिया था| जिसका परिणाम यह हुआ कि भगतसिंह और उनके अन्य दो साथियों को (राजगुरु तथा सुखदेव के साथ) 23 मार्च 1931 को फाँसी पर लटका दिया| पूरे देश में उनके बलिदान को बड़ी गंभीरता से याद किया| इससे पहले लाहौर में सैंडरस वध और फिर इसके बाद दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में चंद्रशेखर आज़ाद तथा पार्टी के अन्य सभी सदस्यों के साथ मिलकर बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध खुले विरोध को बुलंदी प्रदान की|

"शहीद भगतसिंह जी को अराजकतावादी और मार्क्सवादी विचारधारा में बहुत अधिक रुचि थी"

भगतसिंह जब जेल में रहते थे तब लेख लिखते थे और अपने सगे संबंधियों को जो पत्र लिखते थे वो आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं| अपने लेख के माध्यम से उन्होंने बताया है कि जो लोग श्रमिकों का शोषण करते हैं फिर चाहे वो भारतीय क्यों न हो वह उनका शत्रु है| जेल के अंदर ही भगतसिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की, उनके एक साथी  यतींद्रनाथ ने भूख हड़ताल में ही प्राण त्याग दिए थे| भगतसिंह के जीवन में 'जलियांवाला बाग कांड' एक बेहद प्रभावशाली हिस्सा है | जिस वक्त यह घटना हुई उस समय उनकी उम्र मात्र 12 वर्ष थी और घटना के कुछ समय बाद वे उस दुर्घटना स्थल पर पहुँचे और इस त्रासदी को देख उन्होंने देश की आज़ादी का प्रण ले लिया| कॉलेज के दिनों में पढ़ाई करते हुए भगतसिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया| इसके बाद वे हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन भारत के भी सदस्य बने| इस एसोसिएशन से उस दौर के बड़े क्रांतिकारियों जैसे चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद अशफाक उल्ला खान जुड़े थे|

शहीद भगतसिंह के पिता किशनसिंह जी ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया था| उनकी माता का नाम विद्यावती था| उनके दादा अर्जुनसिंह स्वामी दयानंद द्वारा चलाए गए आर्यसमाज आंदोलन से प्रभावित थे| भगतसिंह को उनके दादा ने एंग्लोवैदिक स्कूल से पढ़ाई करवाई थी|जिस उम्र में युवाओं की अक्सर शादी कर दी जाती है, उसी उम्र में भगतसिंह ने फाँसी के फंदे को गले का हार हँसते -हँसते स्वीकार किया| इनकी ज़िन्दगी वाकई देशभक्ति की एक मिसाल है| देश से, देश की मिट्टी से सच्चा प्रेम और भक्ति का  अनूठा उदाहरण है| भगतसिंह देश के लिए जेल में रहने के आदी हो चुके थे| उन्हें कोठरी नंबर 14 पर अपने 5 फुट 10 इंच के शरीर के साथ रहना पड़ता था जो काफ़ी कष्टदायी था| उस दौरान "साम्राज्यवाद मुर्दाबाद इंकलाब जिंदाबाद" का नारा बेहद बुलंद था|

फाँसी से पहले भी भगतसिंह जी खुश थे| उन्हें पता था कि देश हेतु बलिदान देने के लिए उन्हें अपनी जान कुर्बान करनी ही पड़ेगी इसलिए 2 साल (एक साल 350 दिन) जेल में रहे| फाँसी के दिन जहाँ जेल के कैदी अति दुखी थे और रो रहे थे, वही सुखदेव, राजगुरु के साथ भगतसिंह जी ने हँसते -हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए| "23 मार्च साल 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को तीनों को एक साथ लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई|जब उनको फाँसी की सजा मिल रही थी तो उससे पहले शहीद भगतसिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे| जब उनको फाँसी पर ले जाया जाने लगा तो भगतसिंह से उनकी आखिरी इच्छा पूछी तो उन्होंने बोला की मुझे लेनिन की जीवनी को पूरा पढ़ने दिया जाए| जब उन तीनों को फाँसी के लिए ले जाया जा रहा था तो वह तीनों खूब मस्ती से गाना गा रहे थे जो इस प्रकार है:-

"मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे,

 मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे बसंती चोला"

इस दौरान पूरे देश में हड़कंप का वातावरण था|अंग्रेज भली भांति जानते थे कि इन तीनों को फाँसी देने से देश में बड़ा प्रदर्शन होगा और ऐसा हुआ भी था जिसके लिए लाहौर में मिलिट्री भी लगाई गई थी| उन्हें डर इतना था कि फाँसी की सुनवाई तिथि से एक दिन पहले ही इन तीनों को फाँसी में लटका दिया गया| ऐसा इसलिए किया गया ताकि जनता का प्रतिशोध व प्रदर्शन न झेलना पड़े|

जितेंद्रसत्याल की एक पुस्तक के पन्नों में वर्णित है --फाँसी के फंदे के गले में लटकने से पूर्व भगतसिंह के सामने खड़े डिप्टी कमिश्नर को भगतसिंह ने बड़े मुस्कुराते हुए कहा कि आप बड़े भाग्यशाली हैं जो आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार अपने आदर्शों के लिए फाँसी के फंदे पर झूल जाते हैं|

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम सभी हिंदुस्तानियों को विचार करना चाहिए कि किस -किस तरह के जुल्मों को सहकर देश से प्रेम करने वालों ने अपने जवान जीवन की आहुति दी है हमारा भी दायित्व है कि अपने देश की अस्मिता को लुटने ना दें| इस्लामिक देश न बनने  दें, हर-मन, हर-जन करे यही प्रण, मेरा भारत ही मेरा प्राण धन, हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र ही रहे, हमारी विचारधारा सभी के सुख की कामना, शुभ भावना है| सभी धर्म,जातियाँ मर्यादा में रहकर भारत का गौरव बढ़ायें |

वर्तमान स्कूली शिक्षा में शहीदों के जीवन न्योछावर की वीरगाथा को अवश्य ही पढ़ाया जाये ताकि वे इस आज़ादी का मोल जान सकें और इसकी रक्षा हेतु दृढ़-संकल्प कर पायें| देश प्रेम की भावना बालपन से ही उनके हृदय में जागृत हो सके| इसका प्रयास आज से ही करना चाहिए|

शहीद भगतसिंह साम्राज्यवाद के खिलाफ भारतीयों के संघर्ष के सबसे उज्जवल नायकों में से एक रहे हैँ | 23 वर्ष की छोटी आयु में शहीद होने वाले इस नौजवान को भारतीय एक उत्साही, प्रेरणादायक देशप्रेमी नौजवान के रूप में याद करती रहेगी जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से  समझौता विहीन लड़ाई लड़ी और अंत में अपने सच्चे लक्ष्य के लिए शहीद हुआ|

~करुणा ऋषि


भारतीय व्रत और उत्सव सितम्बर - 2021

दिनांक 3 अजा  एकादशी व्रत,दिनांक 4  वत्स द्वादशी,शनि प्रदोष व्रत, दिनांक 5 मास शिवरात्रि, दिनांक 6 मिठौरी अमावस्या,दिनांक 7 भौमवती अमावस्या,दिनांक 9 हरि तालिका तीज ,दिनांक 10 श्री गणेश जन्मोत्सव ,विनायक चतुर्थी व्रत,दिनांक 11 ललिता पंचमी, दिनांक 12 सूर्य षष्टि, दिनांक 13 महालक्ष्मी व्रत  ,दिनांक 14 राधा अष्टमी,दुर्गा अष्टमी,दिनांक 16 राम देव जी का मेला,दिनांक 17 संक्रांति पुणय,दिनांक 17 पद्मा एकादशी व्रत,दिनांक 18 प्रदोष व्रत, दिनांक 20 सत्य व्रत पूर्णिमा श्राद्ध,दिनांक 24 श्री गणेश चतुर्थी व्रत,दिनांक 28 श्री महालक्ष्मी व्रत समाप्त ,दिनांक 29 कालाष्टमी | 

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गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत

  गुरु, ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का स्रोत सतीश शर्मा  गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है, और यह दिन गुरुओं के प्रति सम्मा...