गुरुवार, 15 जुलाई 2021

प्रदोष व्रत

 

प्रदोष व्रत का विशेष महत्व है। प्रदोष व्रत हर माह की शुक्ल और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पड़ता है यानी हर महीने दो प्रदोष व्रत पड़ते हैं और इनमें सोम प्रदोष का बहुत महत्व है। जिस तरह एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित होती है, उसी तरह प्रदोष व्रत भगवान शिव को समर्पित होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव कैलाश पर्वत पर अपने रजत भवन में नृत्य करते हैं और सभी देवी-देवता उनकी स्तुति करते हैं। भगवान शिव को समर्पित इस व्रत को करने से मोक्ष और भोग की प्राप्ति होती है।

सोम प्रदोष व्रत का महत्व
सोम प्रदोष व्रत का संबंध चंद्रमा से भी माना जाता है। इस दिन व्रत रखने से चंद्रमा के नकारात्मक प्रभाव से बचा जा सकता है और कुंडली में चंद्रमा की स्थिति भी मजबूत होती है। इसलिए इस दिन विधि-विधान से शिवजी की पूजा की जाती है। प्रदोष काल वह समय कहलाता है, जब सूर्यास्त हो चुका हो और रात्रि प्रारंभ हो रही है यानी दिन और रात के मिलन को प्रदोष काल कहा जाता है। इस समय भगवान शिव की पूजा करने से अमोघ फल की प्राप्ति होती है। साथ ही इस व्रत से स्वास्थ्य बेहतर होता है और दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। सोम प्रदोष व्रत के रखने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिलती है और मृत्यु के पश्चात मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। इस व्रत की कथा सुनने मात्र से ही गौ दान के बराबर पुण्य फल की प्राप्ति होती है।

सोम प्रदोष व्रत कथा
एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी, उसके पति का स्वर्गवास हो गया था। वह हर सुबह अपने पुत्र के साथ भीख मांगती थी, जिससे वह अपना और अपने पुत्र का पेट पालती थी। एक दिन ब्राह्मणी जब घर वापस आ रही थी तो उसने रास्ते में देखा कि एक लड़का घायल अवस्था में है, जिसको वह अपने घर ले आई। वह लड़का कोई और नहीं बल्कि विदर्भ का राजकुमार था, जिस पर शत्रु सैनिकों ने हमला कर दिया था और उसके पिता यानी राजा को बंदी बना लिया था। शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर हमला कर दिया था, जिससे वह मारा-मारा फिर रहा था। राजकुमार ब्राह्मणी और उसके पुत्र के साथ घर पर रहने लगा। एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को काम करते हुए देख लिया और उस पर मोहित हो गई। अगले दिन वह अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने के लिए ले आई। कुछ दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को भगवान भोलेनाथ ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए, उन्होंने ठीक वैसा ही किया।

वह विधवा ब्राह्मणी हर प्रदोष व्रत को करती थी और भगवान शिव की भक्त थी। यह प्रदोष व्रत का ही प्रभाव था कि गंधर्वराज की सेना ने विदर्भ से शत्रु सैना को खदेड़ दिया और राजकुमार के पिता को फिर से उनका शासन लौटा दिया, जिसके बाद से वह फिर से राजकुमार आनंदपूर्वक रहने लगा। राजकुमार ने ब्राह्मणी के पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बना लिया। ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के कारण शंकर बगवान की कृपा से जैसे राजकुमार और ब्राह्मणी पुत्र के दिन सुधर गए, वैसे ही शंकर भगवान अपने हर भक्तों पर कृपा बनाए रखते हैं और सबके दिन संवर जाते हैं।

सोम प्रदोष व्रत पूजा विधि
– सोम प्रदोष व्रत के दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य क्रिया करने के बाद स्नान करना चाहिए और स्वच्छ वस्त्र धारण करके व्रत का संकल्प करें और सूर्यदेव को जल अर्पित करें।
– प्रदोष वाले दिन अपने मन में ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप करना चाहिए। त्रयोदशी तिथि पर प्रदोष काल में यानी सूर्यास्त से तीन घड़ी पहले, शिव जी का पूजा करनी चाहिए। सोम प्रदोष व्रत की पूजा शाम 4:30 बजे से लेकर शाम 7:00 बजे के बीच करना शुभ फलदायी होता है।
– शिव मंदिर में शिवलिंग पर बेलपत्र, अक्षत, दीप, धूप, गंगाजल, जल, फूल, मिठाई आदि से विधि-विधान पूर्वक पूजन करें।
– व्रती को चाहिए कि सायंकाल के समय एकबार फिर से स्नान करके स्वच्छ सफेद वस्त्र पहनने चाहिए। पूजा स्थल अथवा पूजनकक्ष को शुद्ध करना चाहिए।
– संभव हो तो व्रत रखने वाले व्यक्ति चाहे तो शिव मंदिर में भी जा कर पूजा कर सकते हैं।
– व्रत रखने वाले पूरे दिन भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए, अगर संभव न हो तो फलाहार किया जा सकता है।

सोमवार, 5 जुलाई 2021

योगिनी एकादशी व्रत कथा ।

 

योगिनी एकादशी वह एकादशी जो निर्जला एकादशी के बाद और देवशयनी एकादशी से पहले आती है उसे योगिनी एकादशी कहते हैं। उत्तर भारतीय पञ्चाङ्ग के अनुसार आषाढ़ माह में कृष्ण पक्ष के दौरान योगिनी एकादशी पड़ती है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार योगिनी एकादशी का व्रत जून अथवा जुलाई के महीने में होता है। योगिनी एकादशी का व्रत करने से सारे पाप मिट जाते हैं और जीवन में समृद्धि और आनन्द की प्राप्ति होती है। योगिनी एकादशी का व्रत करने से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। योगिनी एकादशी तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। यह माना जाता है कि योगिनी एकादशी का व्रत करना अठ्यासी हज़ार ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर है। एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्याह्न के बाद पारण करना चाहिए। कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दुसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं। भगवान विष्णु का प्यार और स्नेह के इच्छुक परम भक्तों को दोनों दिन एकादशी व्रत करने की सलाह दी जाती है।
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